कनाडा मूल के (xmuslim) अली सीना, जिन्होंने मुहम्मद पैगम्बर और इस्लाम का गहरा और बारीकी से अध्ययन किया और इस्लाम त्याग दिया…✍️ इस्लाम त्याग देने के बाद उन्होंने किताब लिखी, “The Understanding muhammad” जो मुहम्मद साहब की जीवनी पर एक बेजोड पुस्तक है अली सीना ने इस किताब के जरिये मुहम्मद साहब पर दस अत्यन्त भीषण आरोप लगाए है,जो इस तरह है खुदगर्ज,अपनी ताकत के लिए कुछ भी करने वाला…! छोटे बच्चों से सेक्स कर सेक्स की तरफ आकर्षित होने वाला…! पुरे समुदाय का हत्यारा…! आतंकवादी…! औरतो से घृणा करने वाला…! किसी भी प्रकार की औरत से यौन सम्बन्ध बांधने वाला…! अपना समुदाय बनाकर खुद के नियम लागु करने वाला…! पागल इंसान…! बलात्कारी…! यातना (कष्ट) देने वाला…! प्रमुख व्यक्तिओ को मारने वाला…! चोर, डाकू डकैत…! अली सीना ने दुनिया के १६० करोड मुसलमानो को चेलेंज किया हे की मेरे इन लगाए आरोपो को कोई भी गलत साबित करदे तो में उन्हें ५०००० $ (डॉलर) इनाम के तौर पर दूंगा…बस शर्त यही है की जो भी ये चेलेंज स्वीकार करता हे उसने उनकी लिखी किताब understanding muhammad पढी हो…? अब हुआ यह की बहुत से विधवानो ने इस चेलेंज को स्वीकार किया,और शास्त्रार्थ करने के लिए किताब पढ़ी तो उन्होंने भी इस्लाम को त्याग दिया,और कई लोग त्यागने वाले भी है…! अभी तक कोई मुल्ला, मौलवी, या मुफ़्ती इनको पराजित नही कर सका है कई लोग तो इनके ब्लाक पढकर ही इस्लाम छोड़ देते है..|ईरानी मूल के पूर्व मुस्लिम जो अब कनाडा में रहते है अली सीना, जिन्होंने मुहम्मद पैगम्बर के जीवन, और इस्लाम का गहरा और बारीकी से अध्ययन किया और इस्लाम त्याग दिया।
![]() |
| Buy Now |
दुनियाभर में सितम्बर, 2001 के बाद 13000 से अधिक आतंकवादी हमले हो चुके हैं। इन हमलों में हजारों निर्दोष नागरिक लहूलुहान हो गए और न जाने कितनों की जान चली गई। कत्लेआम करने वाले कोई दैत्य नहीं थे, बल्कि मुसलमान थे। वो मुसलमान जो अपने धर्म के पक्के थे और ईमान का पालन करने के लिए सामूहिक नरसंहार जैसी वारदातों को अंजाम दे रहे थे। इन पक्के मुसलमानों की तरह सोचने वाले दुनिया में अभी भी लाखों हैं और वे भी मजहब के नाम पर ऐसा ही नरसंहार करने के लिए तैयार हैं। अगर आप सोचते हैं कि मुस्लिम आतंकवाद कोई नई समस्या है तो फिर से विचार कीजिए। इस्लाम अपनी सफलता आतंकवाद के हथियार से ही नापता है। मदीना में पैर रखने के दिन से ही मुहम्मद ने आतंक का अभियान शुरू कर दिया था। तब से आज तक उसके अनुयायी इसी अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं।
मुसलमान असहिष्णु, श्रेष्ठतावादी, स्वेच्छाचारी, अराजक और हिंसक होते हैं। वे उद्दंड होते हैं और यदि कोई उनकी बात को काटे या उनको प्रमुखता व सम्मान देकर व्यवहार न करे, तो फट पड़ते हैं। जबकि वे खुद दूसरों को अपशब्द कहते रहते हैं और दूसरे धर्मावलंबियों, सम्प्रदायों या पंथों के लोगों के अधिकारों का हनन करते हैं।
मुसलमानों को समझने के लिए उनके रसूल यानी पैगम्बर मुहम्मद को समझना पड़ेगा। मुसलमान मुहम्मद की इबादत करते हैं और उसका अनुकरण करते हैं। इस्लाम दरअस्ल मुहम्मदवाद है। मुहम्मद को समझकर ही इस्लाम की पतों को जाना जा सकता है। यह पुस्तक अंडरस्टैंडिंग ऑफ मुहम्मद मनोविज्ञान की दृष्टि से अल्लाह के रसूल का जीवनवृत्त है।
इसमें मुहम्मद नामक व्यक्ति के रहस्यों को उजागर किया गया है। इतिहासकार बताते हैं कि मुहम्मद खोह में चला जाता था और घंटों, हफ्तों अपने विचारों में खोया रहता था। वह घंटियों की आवाज सुनता था और भूत-प्रेत के सपने देखता था। उसकी बीबी खदीजा ने जब तक उसे यह यकीन नहीं दिलाया था कि वह पैगम्बर हो गया है, वह सोचता था कि उसके ऊपर शैतान का साया आ गया है। अपनी इस हैसियत का अंदाजा होते ही उसके रंगढंग बदल गए। जिन्होंने उसे अस्वीकार किया, वह उनके प्रति असहिष्णु हो गया। जिन्होंने उसकी आलोचना की, उनकी हत्या कर दी। वह हमले, लूटपाट और पूरी की पूरी आबादी का नरसंहार करने लगा। मुहम्मद ने हजारों लोगों को दास बनाया, अपने आदमियों को बंदी औरतों का बलात्कार करने की अनुमति दी और ये सब बिना किसी हिचक और अधिकार के साथ किया।
मुहम्मद उन लोगों के प्रति बड़ा उदार था जो उसकी तारीफ करते थे, लेकिन वह असहमति जताने वालों के प्रति प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त हो जाता था। वह खुद को प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ और ब्रह्मांड के अस्तित्व का कारण मानता था। मुहम्मद कोई साधारण इंसान नहीं था। वह एक नार्सिसिस्ट (आत्ममुग्ध, आत्मप्रवंचित इंसान) था।
अंडरस्टैंडिंग मुहम्मद इस पुस्तक में हम किस्सों से अलग तथ्यों पर बात करेंगे। इसमें मुहम्मद की सच्चाई से तथ्यपरक ढंग से पर्दा उठाया गया है। इस पुस्तक में 'क्या' के बजाय ' क्यों' पर जोर दिया गया है। इसमें उस व्यक्ति के रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश की गई है जो इतिहास के सर्वाधिक रहस्यमयी और प्रभावशाली व्यक्तियों में एक था।
मुहम्मद अपने खुद के बनाए मकसद पर ही भरोसा करता था। वह अपने विभ्रम को इस कदर वास्तविकता मानता था कि वह प्रत्येक व्यक्ति से उस पर भरोसा करने की अपेक्षा करता था। मुहम्मद ने अपने अल्लाह से क्रोध में कहलवाया, 'तो क्या! वह (रसूल) जो कुछ देखता है, उस पर तुम लोग उससे (मुहम्मद) विवाद करोगे ?' यह मनोविकृति विज्ञान है। क्यों किसी को उस पर भरोसा करना चाहिए, जो मुहम्मद ने देखा ? क्या यह जिम्मेदारी मुहम्मद पर नहीं थी कि उसने जो देखा, उसकी सच्चाई साबित करता ? केवल एक नार्सिसिस्ट (आत्ममुग्ध) व्यक्ति ही यह अपेक्षा कर सकता है कि दूसरे लोग उसके दावों पर बिना सबूत मांगे भरोसा करें।
मुहम्मद अनाथ था और उसका बचपन कठिन था। बहुत छोटो अवस्था में ही उसकी मां ने उसका तिरस्कार कर दिया था और एक खानाबदोश जोड़े के पास उसे छोड़कर चली गई थी। फिर उसे उसके दादा और चाचा की देखभाल में रखा गया। दादा और चाचा ने उस पर दया दिखाते हुए आवश्यकता से अधिक लाड़ प्यार दिया और उसका जीवन बर्बाद कर दिया। जब उसे वात्सल्य प्रेम की आवश्यकता थी तो उसे प्यार नहीं मिला। जब उसे मर्यादा सीखनी थी, तो उसे अनुशासन का पाठ नहीं पढ़ाया गया। इससे उसमें नार्सिस्टिक पर्सनैलिटी डिस्ऑर्डर' पनप गया और इस मनोविकृति की वजह से वह आत्महीन और अहंकारोन्मादी हो गया। वह असीमित ताकत हासिल करने की कल्पना करने लगा और सराहना व प्रशंसा की अपेक्षा करने लगा। उसने धारणा बना ली कि वह विशिष्ट है और अपेक्षा करने लगा कि दूसरे भी उस पर भरोसा करें, उसके विचारों और योजनाओं पर साथ चलें। वह स्वयं दूसरों से लाभ लेता था, उनसे द्वेष भी रखता था, फिर भी उसे लगता था कि दूसरे लोग उससे जलते हैं। जब कोई उसे अस्वीकार कर देता था तो वह बहुत आहत होता था वह साथ छोड़ने वालों की हत्या तक करा देता था। वह झूठ बोलता था, धोखा देता था और ऐसा करना न्यायोचित और अपना अधिकार मानता था ये सब नार्सिस्टिक पर्सनैलिटी डिस्ऑर्डर के लक्षण हैं।
एक और मानसिक बीमारी 'टैम्पोरल लोब इपीलेप्सी' से ग्रस्त होने के कारण इस्लाम के रसूल (पैगम्बर) को मतिभ्रम कुछ अधिक था, जिसे वह रहस्यवादी और ईश्वरीय प्रेरणा के रूप में पेश करता था। जब वह यह दावा करता था कि उसने दैवीय आवाजें सुनी हैं, देवदूतों या रूहानी ताकतों को देखा है तो वह झूठ नहीं बोल रहा होता था, अस्ल में वह कल्पना और वास्तविकता में भेद कर पाने में समर्थ नहीं था। मुहम्मद' ऑब्सेस्सिव पर्सनैलिटी डिस्ऑर्डर' से भी पीड़ित था, जिसके चलते वो संख्याओं, रस्मो-रिवाज और कठोर नियमों में अटक जाता था। यह बताता है कि मुहम्मद इतना कठोर हृदयहीन जीवन क्यों जो रहा था और क्यों उसका मजहब इतने सारे बेतुके नियम कायदों से भरा पड़ा है। बाद के वर्षों में मुहम्मद अतिकायता या असंतुलित काया की बीमारी की चपेट में आ गया। यह बीमारी मनुष्य के शरीर की वृद्धि के हार्मोन के आवश्यकता से अधिक बनने से होती है। ऐसे मनुष्यों की हड्डियां बड़ी हो जाती हैं, हाथ-पैर काफी रूखे और मांसल हो जाते हैं। हॉट, नाक और जीभ असामान्य रूप से बढ़कर लटक जाते हैं, जिससे मनुष्य कुरूप दिखने लगता है। यह बीमारी सामान्यतः 40 साल की अवस्था के बाद होती है। इससे पीड़ित मनुष्य की मौत 60 वर्ष की अवस्था आते-आते हो जाती है। यह बीमारी एक ओर इरेक्टाइल डिस्फंक्शन (लिंग शिथिलता) से नपुंसकता पैदा कर देती है तो दूसरी ओर टैम्पोरल लोब हाइपर एक्टिविज्म कामलिप्सा भी बढ़ा देती है।
यह उम्र के आखिरी पड़ाव में मुहम्मद को यौनिक सनक के मूल कारण को बताता है और यह भी कि बाद के जीवन में मुहम्मद के भीतर काम की अतृत भूख इतनी अधिक क्यों बढ़ गई थी। वह एक ही रात में अपनी नी बीबियों के पास जाता था और उन्हें छूता और सहलाता था, लेकिन संतुष्ट नहीं हो पाता था। उसकी नपुंसकता असुरक्षा, मानसिक उन्माद (संभ्रांति) व अपनी युवा बीबियों के प्रति घोर ईर्ष्या का कारण बनी। कहाँ उसकी बीबियों पर किसी की नजर न पड़ जाए, इसलिए उसने अपनी बीवियों व औरतों को पूरी तरह पर्दे में रहने का हुक्म दिया। आज की दुनिया में करोड़ों महिलाएं बुर्के में रहती हैं, और सिर्फ इसलिए कि मुहम्मद नपुंसक था। मुहम्मद की बीमारियां इस्लाम के तमाम रहस्यों की पर्ने उघाड़ती हैं।
इन सारी बीमारियों के मेल और असामान्य मुखाकृति ने मुहम्मद को एक ऐसी परिघटना बना दिया, जो उसे साधारण मनुष्यों से अलग करती है। उसके जाहिल अनुयायी मुहम्मद के विचित्र व्यवहार की व्याख्या उसके पैगम्बर होने के संकेत के रूप में करते हैं। अन्य सम्प्रदायों के अनुयायियों की तरह ये भी मुहम्मद के मकसद को आगे बढ़ाने के लिए समर्पित भाव से तत्पर रहते हैं। मौत का सामान बनकर और दूसरों का गला काटकर इन लोगों ने इस्लाम को दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म बना दिया। अब यही इस्लाम विश्व शांति और मानव सभ्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है।
मुहम्मद को जानना जरूरी क्यों है? क्योंकि करोड़ों लोग उसकी तरह बनने की कोशिश कर रहे हैं, जैसा उसने किया, वैसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं। परिणाम यह हो रहा है कि एक व्यक्ति का पागलपन उसके करोड़ों अनुयायियों का जुनून बन गया है। मुहम्मद को समझकर ही हम आर-पार देख सकेंगे और भविष्य को लेकर इन अप्रत्याशित लोगों के बारे में अनुमान लगा सकेंगे। हम खतरनाक दौर में जी रहे हैं। मानवता का पाँचवा भाग एक पागल को पूज रहा है, आत्मघाती बम हमलों की वाहवाही कर रहा है और सोच रहा है कि हत्या और शहादत सर्वाधिक पुण्य का काम है। दुनिया एक खतरनाक जगह हो गई है। जब इन लोगों के पास आणविक हथियार होंगे तो धरती राख का ढेर बन जाएगी। इस्लाम कोई धर्म नहीं, बल्कि एक सम्प्रदाय है। अब हमें जाग जाना चाहिए और मान लेना चाहिए कि यह सम्प्रदाय मानव जाति के लिए खतरा है और मुस्लिमों के साथ सभ्य समाज का सहअस्तित्व असंभव है।
जब तक मुसलमान मुहम्मद में विश्वास करेंगे, वो दूसरों और अपने खुद के लिए भी खतरा बने रहेंगे। मुसलमानों को या तो इस्लाम छोड़ देना चाहिए और घृणा की संस्कृति त्याग कर मानव जाति के साथ सभ्य साथी की तरह रहना शुरू कर देना चाहिए या फिर गैर-मुस्लिमों को इन लोगों से खुद को अलग कर इस्लाम पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए, अपने देश में मुसलमानों का प्रवेश रोक देना चाहिए और उन्हें उनके देश वापस भेज देना चाहिए जो देश के लोकतंत्र के खिलाफ साजिश रचते हैं और दूसरों के साथ समरस होने से इंकार करते हैं।
इस्लाम लोकतंत्र का विरोधी है। मुसलमान ऐसी लड़ाका जाति है, जो लोकतंत्र का प्रयोग लोकतंत्र को ही समाप्त करने और खुद को विश्वव्यापी तानाशाही के रूप में स्थापित करने के लिए करती है। बर्बरता और सभ्यता के बीच संघर्ष एवं विश्व आपदा को रोकने के लिए इस्लाम की भ्रांतियों को उजागर किया जाना और इसे बेनकाब किया जाना एकमात्र उपाय है। मानवता के शांतिपूर्ण जीवन के लिए आवश्यक है कि मुसलमानों से इस्लाम नामक गंदगी को दूर किया जाए।
मुसलमानों और गैर-मुसलमानों दोनों के लिए मुहम्मद के चरित्र को समझना जरूरी है। यह पुस्तक इस काम को आसान बनाती है।
प्रस्तावना
- इब्ने वर्गक
डॉ. अली सीना ईरान में पैदा हुए और उनके कुछ रिश्तेदारों का संबंध ईरान में इस्लामी विप्लव के जनक अयातुल्ला खोमैनी के परिवार से था। अधिकांश शिक्षित ईरानियों की तरह वह भी मानते थे कि इस्लाम मानवतावादी मजहब है, जो मानव अधिकारों का सम्मान करता है। लेकिन डॉ. सीना का स्वभाव बचपन से ही अन्वेष्णात्मक, जिज्ञासु, तर्क करने वाला, निडर होकर प्रश्न पूछने वाला और तथ्यों को भेदभावरहित होकर देखने वाला रहा है। धीरे-धीरे जब उन्होंने सच्चा इस्लाम जाना तो वे नैतिक और बौद्धिक रूप से हिल गए। सितम्बर, 2011 से बहुत पहले ही उन्हें यह अहसास हो गया था कि जब तक इस धर्म विशेष में पैदा हुआ व्यक्ति अपने धर्म की खामियों और रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश नहीं करेगा, दुनिया को उस धर्म के ठेकेदारों द्वारा गढ़ी कहानियों पर ही भरोसा करना पड़ेगा। यह न केवल पाश्चात्य जगत के लिए, बल्कि पूरी सभ्यता के लिए विनाशकारी स्थिति पैदा कर देगा। जिस क्षण डॉ. सीना को अपने धर्म की अमानवीय प्रकृति का पता चला, उसी समय उन्होंने अपना जीवन अपनी व्यापक चर्चित वेबसाइट' फेथ फ्रीडम इंटनरेशनल' पर इस्लाम के अवांछनीय पक्षों के पर्दाफाश, चर्चा और आलोचना के लिए समर्पित कर दिया।
विश्व डॉ. सोना जैसे मुर्तदों (इस्लाम छोड़ने वाले साहसी व्यक्तियों) के कार्यों से उसी तरह फायदा ले सकता है, जैसा कि उसने वामपंथ के खिलाफ पूर्व वामपंथियों से लिया था। जैसा कि मैंने ' लीविंग इस्लाम" में लिखा था कि इस्लाम और वामपंच में तमाम समानताएं देखी जा सकती हैं।
जैसा कि मैक्सिम रोडिसन और बरट्रेंड रसेल ने 1930 के वामपंथ और 21वीं सदी के 1990 के इस्लामवादियों की मानसिकता का उल्लेख किया है। रसेल ने कहा था, 'धर्मों में बोलशेविज्म अर्थात वामपंथ को मुहम्मदवाद के साथ गिना जाना चाहिए, न कि ईसाई धर्म या बौद्ध धर्म के साथ।' ईसाइयत और बौद्ध प्राथमिक तौर पर व्यक्तिगत धर्म हैं, जो रहस्यमयी सिद्धांतों और चिंतन-मनन पर आधारित हैं। मुहम्मदवाद और बोलशेविकवाद (वामपंथ) समूहवादी, अध्यात्म से दूर और पूरी दुनिया में साम्राज्य स्थापित करने की मंशा रखने वाले हैं।"" इसलिए पश्चिमी जगत में मुहम्मदबाद और 1930 के वामपंथ के बीच समानताओं को जानने में रुचि बढ़ी।
कोस्लर ने कहा था, 'तुम चाहे हमारे खुलासे से नफरत करो और अपना पूर्व सहयोगी मानकर हम पर लानत भेजो, पर सच यही है कि हम पूर्व-वामपंथी ही ऐसे हैं जो तुम्हारी सारी अच्छी बुरी हकीकत को जानते हैं।" जैसा कि क्रॉसमैन अपने परिचय में लिखते हैं, 'सिलोन (एक पूर्व वामपंथी) ने मजाक में टाँगलियत्ती (Togliatti) से कहा कि अंतिम युद्ध वामपंथियों और पूर्ववामपंथियों के बीच लड़ा जाएगा। लेकिन जब तक कोई वामपंथ को एक दर्शन मानकर और वामपंथियों को राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी मानकर इनसे दो दो हाथ नहीं करेगा, तब तक वह पश्चिमी लोकतंत्र के मूल्य को सही तरीके से नहीं समझ पाएगा। शैतान स्वर्ग में रहता था, पर जिसने उसको नहीं देखा था, वह सामने आने पर देवदूत को नहीं पहचान पाएगा, क्योंकि उसे शैतान और देवदूत में फर्क ही नहीं पता।
वामपंथ पराजित हो चुका है, कम से कम आज तो वामपंथ पराजित अवस्था में ही है, लेकिन इस्लामवाद नहीं। अंतिम युद्ध संभवतः पश्चिमी लोकतंत्र और इस्लाम के बीच ही होगा। और इस युद्ध में पश्चिमी लोकतंत्र की तरफ से कोस्लर की आवाज बुलंद करने के लिए ये पूर्व मुस्लिम होंगे, जो इस्लाम की गंदी हकीकत बखूबी जानते हैं। तब हम इन पूर्व मुस्लिमों द्वारा सच के पक्ष में उठाए जा रहे सवालों को सुनेंगे।
स्वतंत्र पश्चिमी दुनिया में रहने वाले हम जैसे लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, वैज्ञानिक सोच रखते हैं और हमें इस्लाम पर तार्किक दृष्टि और कुरान की आलोचना को प्रोत्साहित करना चाहिए। कुरान की तार्किक आलोचना ही अपने पवित्र धर्मग्रंथ को अधिक तार्किक और वस्तुनिष्ठ तरीके से देखने तथा कुरआन की असहिष्णु आयतों के जरिए धर्मांध बन रहे युवाओं को रोकने में मुसलमानों की मदद कर सकती है। मुसलमान युवाओं को इस्लाम की सच्चाई बताना पश्चिम में रह रहे प्रत्येक व्यक्ति का नागरिक कर्तव्य है।
इस्लाम को जानने के लिए मेगास्टोर में उपलब्ध किताबें पढ़ेंगे तो इस्लाम का अस्ली चेहरा नहीं देख पाएंगे, क्योंकि इन किताबों में इस्लाम का बचाव करते हुए इसकी झूठी तस्वीर पेश की गई है। इसके लिए हमें डॉ. सीना की वेबसाइट को खंगालना होगा, जहां डॉ. सीना और उनकी विद्वान लेखकों की टीम ने इस्लाम पर बारीक अध्ययन करने के बाद प्रमाणिक दस्तावेजों और लाजवाब तर्कों के साथ इस्लाम को नंगा किया है। तब जाकर हम इस्लाम की हकीकत को ठीक से जान पाएंगे।
अब मैं यकीनन उन सभी लोगों से अली सीना की इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ने का आह्वान करूंगा, जिनकी बुद्धि षडयंत्रकारी नारे 'इस्लाम शांति का धर्म है' को सुन-सुनकर कुंद व संभ्रमित नहीं हुई है। डॉ. सीना जैसे स्वतंत्र विचारकों के साहसिक प्रयासों की बदौलत अब आपके सपनों और आपके अपनों को नष्ट करने की ओर तेजी से बढ़ रहे मजहब की हकीकत नहीं मालूम होने का बहाना नहीं चलेगा। इब्ने-वर्गक़ 'लीविंग इस्लाम, व्हाट द कुरान रियली सेज, द क्वेस्ट फॉर द हिस्टारिकल मुहम्मद, द ओरिजिन आफ कुरान एंड व्हाई आइ एम नॉट ए मुस्लिम' नामक पुस्तकों के लेखक हैं। इस पुस्तक ने बहुत से मुसलमान युवाओं को जागने और अपने मजहब पर तार्किक सवाल उठाने की प्रेरणा दी है।
1 lbn Warrag Leaving isiam. Apostates Speak Out Amherst Prometheus Books. p. 136
2 Maxime Rodinson istam et communisme, une ressemblance frappante, in Le Figaro (Paris, daily newspaper), 28 Sep.2001
3 B. Russell, Theory and Practice of Bolshevism, London, 1921pp 5, 29, 114
4. A. Koestler, et al. The God That Failed, Hamish Hamilton, London, 1950, p.7.
5 tbid. pt6
___________________________________________________________________________________
लेखक के बारे में
बचपन से ही मुझे अन्याय से घृणा थी क्रूरता भरे किस्से और दृश्य मेरी आत्मा को झंकझोरते थे। अधिकांश लोग अन्याय के शिकार होते हैं। इनमें से कुछ विद्रोही बनकर हिंसा के खिलाफ और अधिक हिंसा का सहारा लेने लगते हैं। इस तरह ये लोग आग में घी डालकर दुनिया में और समस्याएं खड़ी करते हैं। मैं शांति का साधक बनने के लिए प्रार्थना करता था।
शुरू में मुझे लगता था कि बुराई लालच से पैदा होती है। जब मैंने कुरान पढ़ा, तो पता चला कि यह पुस्तक भी बुरी आस्थाओं से उपजी है। बुरे सिद्धांतों के प्रभाव में अच्छे लोग भी बुरे काम प्रसन्नता से और अपनी इच्छा से करने लगते हैं। इस्लाम एक बुरी आस्था है। इस बुराई का स्रोत इस्लाम के 'पवित्र' ग्रंथों के अशुद्ध अर्थों में नहीं, बल्कि इसके शुद्ध अर्थ और इस पर अमल करने में है। मुसलमान जितना अधिक अपने पैगम्बर का अनुकरण करता है और इस्लाम को मानता है, उतना ही वह बुराई की ओर बढ़ता है। जब मुझे यह हकीकत और वह भी इस्लाम के अपने स्रोतों से पता चली, तो मुझे लगा कि इस्लाम के खिलाफ खड़े होकर धरती पर हिंसा व नफरत के सबसे इस बड़े स्रोत को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ने की अब मेरी बारी है, ताकि अपनी प्रार्थना पूरी कर सकूं और शांति का वास्तविक साधक बन सकूं।
पर कैसे ? कैसे कोई एक ऐसे ताकतवर धर्म का विरोध कर पाएगा, जिसके अनुयायियों की संख्या करोड़ों में है ? धरातल पर यह कार्य असंभव भले न प्रतीत होता हो, पर भयभीत करने वाला तो है, हालांकि वास्तव में यह कार्य आसान है। इसके लिए बस एक ही काम तो करना था, वह यह कि लोगों को सच बताना...। मुझे बस कुरान और इस्लाम के अन्य पवित्र ग्रंथों से तथ्य निकालकर इस मजहब के घिनौने चेहरे को बेनकाब कर देना था। जैसे दीपक जला देने से अंधकार खत्म हो जाता है, वैसे आप सच से ही झूठ को नष्ट कर करते हैं।
यह कोई भी कर सकता है। एक यहूदी बढ़ई ने कभी कहा था, 'सत्य हमें स्वतंत्र करेगा। मैं उसी सत्य के साथ हूँ।" सत्य को कैसे ढूंढें ? अल्बर्ट आइंस्टीन ने लिखा है, 'जब कोई स्वयं को सत्य व ज्ञान के न्यायाधीश के रूप में स्थापित करने का प्रयास करता है तो परमपिता की हंसी में उसके इस अहंकार की नाव खंड-खंड हो जाती है।" सत्य खोजा नहीं जा सकता है। बस झूठ को बेनकाब कर दीजिए, सत्य दिखने लगेगा और मानव के वश में यही है। मैंने अपना जीवन इस्लाम के झूठ से पर्दा उठाने के लिए समर्पित कर दिया। यहाँ सत्य करोड़ों मुसलमानों को जिहालत, हिंसा, उन्माद, नफरत और मतिभ्रम से उबारेगा। सत्य राजनैतिक नहीं हो सकता, इसलिए अक्सर सत्य को नकारा जाता है। सच कर देता है और लोगों में बेचैनी पैदा कर देता है लेकिन यदि झूठ को चुनौती नहीं दी गई तो इससे जो समस्या पैदा होगी, उसको तुलना में यह परेशानी कुछ भी नहीं है। सच हमारी भावनाओं को आहत करता है, लेकिन झूठ हमें मार डालता है। मुझे लगता है कि' आहत' भावनाओं के साथ जीना मरने से बेहतर है।
परिचय
अमरीका में 9/11 के हमले के बाद एक दुखी महिला ने मुझे बताया कि उसके 23 साल के बेटे ने उस समय जब वह 14 साल का था. इस्लाम कबूल कर लिया। अब उसने एक मुसलमान औरत से शादी कर ली है। उसके इमाम (इस्लामी पुरोहित) ने शादी तय कराई थी। शादी से पहले उसने उस लड़की को देखा तक नहीं था। अब उन दोनों के एक बच्चा है। दोनों बच्चे के साथ अफगानिस्तान जाकर तालिबान के साथ युद्ध में शामिल होकर अमरीकी सैनिकों को मारना चाहते हैं और शहीद होना चाहते हैं। उस महिला ने बताया कि कुछ साल पहले उसके बेटे ने कहा था कि एक बार अमरीका इस्लाम के कब्जे में आ जाए, फिर इस्लाम को न मानने वालों का सिर कलम करने का आदेश आएगा और तब वह अपनी मां का सिर धड़ से अलग करने में भी नहीं हिचकेगा।
25 वर्षीय समैरा नजीर पाकिस्तानी मूल की होनहार और पढ़ी-लिखी ब्रिटिश नागरिक थी। उसके 30 साल के भाई और 17 साल के चचेरे भाई ने मिलकर घर में ही चाकुओं से उसका गला रेत डाला। बेचारी समैरा का कसूर बस यह था कि वह अफगानी मूल के एक लड़के से प्यार कर बैठी थी। समैरा के घरवालों को लगता था कि जिस लड़के से वह प्यार करती है, वह नीची जाति का था। समैरा के घर वालों को लगा कि इससे उनके परिवार को इज्जत चली गई। समैरा के घरवालों ने पाकिस्तान में उसके लिए लड़के देखे थे, लेकिन उसने इन रिश्तों को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। अप्रैल, 2005 में परिवार वालों ने उसे एक पारिवारिक कार्यक्रम के बहाने से पाकिस्तान बुलाया। जैसे ही वह पहुंची, घात लगाकर बैठे उसके परिवार के ही लोगों ने उसे मार डाला। इस दर्दनाक घटना के चश्मदीद एक पड़ोसी के मुताबिक समैरा को आशंका हो गई थी कि वे लोग उसे मार डालेंगे। वह बचकर भागने की कोशिश करने लगी कि उसके बाप ने उसके बालों को पकड़ा और घसीटते हुए घर के अंदर ले गया और दरवाजा बंद कर बाहर से सांकल चढ़ा दी। समैरा चीखती रही, चिल्लाती रही, मगर उसकी किसी ने न सुनी। समैरा चीख रही थी, 'तुम मेरी मां नहीं हो, अब मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है।' इससे पता चलता है कि समैरा की मां भी हत्या की साजिश में शामिल थी। समैरा के दो और चार साल के दो भतीजों को हत्या की पूरी वारदात को दिखाया जा रहा था। समैरा की चीखें सुनकर ये बच्चे सहम गए थे और जोर जोर से रो रहे थे। पड़ोसियों को इन बच्चों की चीख सुनाई पड़ रही थी। इन बच्चों के पैरों पर पढ़े खून के छींटे बयान कर रहे थे कि जब समैरा का गला रेता जा रहा होगा तो वे उससे बमुश्किल एक मीटर की दूरी पर रहे होंगे। यह परिवार बेहद शिक्षित और समृद्ध था।
सऊदी अरवपति का बेटा मुहम्मद अली अल-आयद (23) अमरीका में रहता था। 2003 में अगस्त के महीने में उसने मोरक्को मूल के पुराने यहूदी दोस्त सैलॉक को शाम को बुलाया और एक छोटी सी पार्टी के लिए कहा। दोनों एक बार में गए और फिर आधी रात के करीब अल-आयद के फ्लैट पर गए। फ्लैट के भीतर अल-आयद ने चाकू से अपने दोस्त सैलॉक पर हमला किया और उसका सिर धड़ से लगभग अलग कर दिया। अल-आयद के साथ फ्लैट में एक और दोस्त रहता था। इस रूम मेट ने पुलिस को बताया कि जब अल-आयद ने सैलॉक की हत्या को तो उससे पहले दोनों में कोई बहस नहीं हुई थी। अल-आयद के वकील ने कहा कि इस सनसनीखेज हत्या का कारण मजहबी मतभेद था।
ईरान का 25 वर्षीय मोहम्मद ताहेरी अजहर नॉर्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय से स्नातक था। मार्च, 2006 में एक दिन उसने एक एसयूवी किराए पर ली और विश्वविद्यालय परिसर में आराम से दाखिल हुआ। फिर अचानक उसने गति बढ़ा दी और उस ओर स्टीयरिंग मोड़ दी जिधर विद्यार्थियों की अधिक भीड़ थी। इसका इरादा अधिकाधिक विद्यार्थियों को कुचलकर मारने का था। इसने 9 विद्यार्थियों को मार दिया और 6 विद्यार्थियों को गंभीर रूप से घायल कर दिया।
पाकिस्तान के कराची में रहने वाले हिंदू दंपत्ति सनाओ मेघवार और उनकी पत्नी का जख्म अब भी रिसता है। नवंबर, 2005 की एक शाम मेघवार घर आए तो उनकी पत्नी घबराई हुई थीं। उन्होंने बताया कि उनकी तीनों बेटियां लापता हैं। दो दिन तक यह दंपत्ति अपनी बेटियों को ढूंढता रहा। फिर पता चला कि उनका अपहरण कर लिया गया है और जबरन इस्लाम कबूल करा दिया गया है। पुलिस ने इस मामले में तीन मुसलमान युवकों को गिरफ्तार किया, हालांकि अदालत ने इन तीनों को नाबालिग होने के आधार पर जमानत दे दी। तीनों लड़कियां आज तक नहीं मिली हैं।
कराची में ही रहने वाले एक हिंदू लालजी कहते हैं, 'हिंदू लड़कियों का अपहरण हो जाना यहां आम बात है। फिर इन लड़कियों से स्टाम्प पेपर पर जबरन दस्तखत करा लिया जाता है, जिसमें लिखा होता है कि वे मुसलमान बन गई हैं।' लालजी का कहना था, 'यहां हिंदू इतना डर कर जी रहे हैं कि अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ रोष तक जाहिर करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें डर है कि इससे उन पर अत्याचार बढ़ जाएगा।'
पाकिस्तान में अधिकांश हिंदू लड़कियां इसी तरह बदकिस्मत हैं। उनका अपहरण होता है, बलात् धर्मातरण होता है और मुसलमान से उनकी जबरन शादी कराई जाती है। इन बेगुनाह लड़कियों को अपने परिवार वालों से मिलना तो दूर बात तक करने का हक नहीं होता है।" एक मुसलमान अपहर्ता की तरफ से अदालत में जिरह करते हुए एक मौलवी का कहना था, 'मुस्लिम लड़की को किसी काफिर के साथ रहने या संबंध रखने का हक कैसे दिया जा सकता है ?'
पाकिस्तान में हालत यह है कि जब किसी हिंदू लड़की को जबरन मुसलमान बनाया जाता है तो सैकड़ों की तादाद में मुसलमान सड़कों पर धार्मिक नारे लगाते हुए जुलूस निकालते हैं। इन हिंदू लड़कियों के माता-पिता का चीत्कार और उनका दर्द पाकिस्तान के शासकों और प्रशासनिक अमले को सुनाई नहीं देता है। या यूं कहें कि वे हिंदुओं के चीत्कार को जानबूझकर अनसुना कर देता है।
इन हिंदू लड़कियों को यह धमकी भी दी जाती है कि अब वे मुसलमान हैं और इस्लाम छोड़ने का खयाल भी न करें, वर्ना उन्हें धर्मद्रोही मानकर शरिया कानून के तहत ऐसी सजा दी जाएगी कि रूह कांप जाएगी। माता-पिता और भाई-बहनों की शक्ल न देख पाने की पीड़ा से जूझ रही इन बदकिस्मत लड़कियों की आंखों से लगातार बहने वाले आंसुओं पर हमदर्दी दिखाने को कौन कहे, इनके अपराधियों की ओर से पैरवी करने वाले इन हिंदू लड़कियों पर थोपी गई बंदिशों और पाबंदियों को ही जायज ठहराते हैं। अक्सर वकील ऐसी लड़कियों या उनके परिजनों की ओर से मुकदमा तक लड़ने को तैयार नहीं होते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि चरमपंथियों के गुस्से का शिकार होना पड़ेगा।
अक्टूबर 2005 की बात है। इंडोनेशिया के पोसो शहर में तीन लड़कियां बेफिक्र, अपनी मस्ती में कोकोआ प्लटिशन के निकट टहल रही थीं। ये तीनों स्थानीय मिशनरी स्कूल की छात्राएं थीं। अचानक मुसलमानों के एक समूह ने धावा बोला और तीनों का सिर धड़ से अलग कर दिया। पुलिस का कहना था कि दो लड़कियों का सिर शरीर से दूर पड़ा मिला, जबकि एक लड़की का सिर स्थानीय चर्च के सामने पढ़ा मिला। यह वारदात मुस्लिम आतंकवादी संगठनों द्वारा अंजाम दी गई थी, जिन्होंने यहां के सुलावेसी प्रांत में यह सोचकर हमला किया था कि यह घटना इंडोनेशिया में इस्लामिक स्टेट की बुनियाद तैयार करेगी। 2001 और 2002 में मुसलमानों ने इस प्रांत के ईसाइयों पर भयानक हमले किए। पूरे इंडोनेशिया से मुस्लिम आतंकवादियों ने इस प्रांत पर हमला बोला था और इसमें 1000 से अधिक ईसाइयों को जान गंवानी पड़ी।
38 साल की बेल्जियन महिला मारियल डेगेक बचपन में सामान्य लड़कियों की तरह हँसती थी, खिलखिलाती थी और बिंदास जिंदगी जीती थी। किशोरावस्था में आते आते एक ऐसी घटना हुई, जिससे वह बर्बादी की राह पर शैतानी भूमिका निभाने लगी। एक मुसलमान युवक से उसकी आंखें चार हो गई, और एक दिन वह जिंदादिल मारियल डेगेक इस्लाम कबूल करके कट्टरता की आग में जलने लगी। वह अपने शौहर के साथ सीरिया के रास्ते ईराक गई और वहां 9 नवंबर, 2005 को पुलिस गश्ती दल को निशाना बनाते हुए खुद को बम से उड़ा लिया। मारियल के इस आत्मघाती हमले में पांच पुलिसकर्मी मौके पर ही मारे गए, जबकि 6 अधिकारी और 4 नागरिक गंभीर रूप से घायल हो गए। उसका एक पड़ोसी बताता है, 'मैं तो उसे बचपन से देख रहा हूं। वह तो बिलकुल सीधी-साधी, बेलौस व बिंदास जीने वाली सामान्य लड़की थी उसे बर्फबारी के दौरान स्लेड राइड पसंद था। वह अन्य सामान्य लड़कियों की तरह गाती थी, गुनगुनाती थी और पंख फैलाकर उड़ना चाहती थी।'
ये सारे कृत्य पागलपन की श्रेणी में आते हैं, लेकिन इनको अंजाम देने वालों में से एक भी इंसान पागल नहीं था। ये लोग बिलकुल सामान्य लोग थे। इनको इतने जघन्य अपराध की प्रेरणा कहां से मिली? इसका उत्तर है इस्लाम। इस्लामी दुनिया में मारकाट रोजाना की घटनाएं हैं। हर जगह मुसलमान अपने धार्मिक विश्वास का अनुसरण करते हुए लोगों की हत्याएं करने में मशगूल हैं।
फिर वही सवाल, पर ऐसा क्यों? कौन सा तत्व है, जिसके प्रभाव में ये समझदार लोग भी इतने बुरे काम करते हैं? मुसलमान (अधिकांश) समूह में दूसरों के प्रति इतने क्रोध में क्यों रहते हैं, ये दुनिया के साथ इस कदर संघर्ष पर क्यों उतारू रहते हैं कि पल भर में ही हिंसक हो उठते हैं ? मुहम्मद के बारे में कोई कुछ कह दे तो लाखों की संख्या में मुसलमान विरोध प्रदर्शन व दंगा करने लगते हैं, निर्दोष लोगों का कत्ल करने लगते हैं। क्या इस तरह का व्यवहार उचित है ? फिर भी ये अपराधी पूरी तरह स्वस्थ चित्त लोग हैं! हम इस विरोधाभास की व्याख्या कैसे करे ?
इसे समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि मुसलमानों से अपने रसूल की तरह बनने और उन्हीं की तरह सोचने की अपेक्षा की जाती है। इसलिए मुसलमानों के जीवन, कार्य व व्यवहार, आचार-विचार में रसूल की शख्सियत और सोच झलकती है। चूंकि इस्लाम में प्रत्येक धर्मपरायण मुस्लिम व्यक्ति का रोल मॉडल मुहम्मद है, इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि वे जीवन के हर पहलू में मुहम्मद की नकल करेंगे। इसका परिणाम यह है कि मुसलमान समग्रता में मुहम्मद के जीवन को ओढ़ने के चक्कर में अपना जीवन छोड़ देते हैं, अपनी मानवता छोड़ देते हैं, और काफी हद तक अपनी विशिष्टता छोड़ देते हैं। चूंकि मुसलमान अपने रसूल की नार्सिस्टिक आत्मासक्ति को अपनी आदतों में शुमार करने लगते हैं और इस हद तक मुहम्मद के उदाहरणों का अनुसरण करने लगते हैं कि ये मुहम्मद के 'विस्तार' बन जाते हैं।
मुसलमान इस्लाम नामक वृक्ष को टहनियां हैं और इस वृक्ष की जड़ मुहम्मद है। मुसलमान मुहम्मद के चरित्र, प्रवृत्ति और सोच को धारण करते हैं। या यूं कहें कि प्रत्येक मुसलमान एक प्रकार का मिनी मुहम्मद होता है। इनके लिए वो ब्रह्मांड की सर्वोत्तम रचना, सर्वश्रेष्ठ व संपूर्ण मनुष्य और उसी का जीवन अनुसरण योग्य है। ये मानते हैं कि अगर उसने (मुहम्मद ने) कुछ किया है, भले ही वह भयानक हो, फिर भी वह वाजिब और बेहतरीन माना जाना चाहिए। कोई सवाल नहीं पूछा जाता है और न ही प्रासंगिकता का परीक्षण करने की अनुमति होती है। एक विषय के रूप में मुहम्मद वह बला है, जिस पर न के बराबर लोग बात करना चाहते हैं। कोई मुहम्मद का अनादर करे तो मुसलमान आहत हो जाते हैं। मुहम्मद पर कोई भी टिप्पणी, भले ही कितनी भी स्वस्थ हो, निंदा ही मानी जाती है। एक बार वे इस्लाम के अनुयायियों की आलोचना की इजाजत तो दे सकते हैं, पर पैगम्बर की आलोचना उन्हें बिलकुल बर्दाश्त नहीं होती। आप अल्लाह की आलोचना करके तो बच सकते हैं, लेकिन आप पैगम्बर मुहम्मद की आलोचना नहीं कर सकते।
किसी व्यक्ति की मौत के सैकड़ों साल बाद उसकी मनोवैज्ञानिक रूपरेखा का संम्पूर्ण मूल्यांकन कर पाना संभव नहीं है। हमारा उद्देश्य इस्लाम के रसूल को समझने की बेहतर दृष्टि प्रदान करना है, न कि इस्लाम नाम की बीमारी के इलाज की दवा बताना। मुहम्मद के जीवन और पैगामों के बारे में ढेर सारी सामग्री और सूचनाएं हैं, और ये सब • गहन अध्ययन और विशेषण के बाद लिखी गई हैं। इनमें बहुत सारे विवरण अतिश्योक्ति व अतिरंजना से भरे हुए हैं। मुसलमानों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पैगम्बर की शख्सियत को और ऊंचाई प्रदान करेंगे, चाहे इसके लिए झूठे किस्से गढ़कर रसूल के चमत्कारों को दिखाना पड़े और उसे संत के रूप में पेश करना पड़े। हालांकि मुहम्मद के जीवनवृत्त को पढ़ते हुए मुझे हजारों ऐसे प्रामाणिक दस्तावेज मिले, जो मुहम्मद का चित्रण पवित्र इंसान के रूप में नहीं करते, बल्कि एक दुष्ट, निर्दयी, धूर्त और यौनकुंठित विकृत इंसान के रूप में करते हैं। ये दस्तावेज झूठे होंगे, ऐसा मानने का कोई कारण नजर नहीं आता है। मुसलमानों की यह विशेषता नहीं होती कि वे अपने रसूल को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करें। इसलिए यदि मुहम्मद के उन साथियों द्वारा कहे गए किस्से इतनी बड़ी संख्या में हैं, जो उसे प्यार करते थे, उस पर भरोसा करते थे तो ये किस्से संभवतः सत्य हैं।
लंबे समय से इतने बड़े पैमाने पर चली आ रही परंपराओं को मुत्तवत्तीर कहा जाता है। ये परंपराएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संप्रेषण के विभिन्न माध्यमों से कथा-कहानियों की लंबी श्रृंखलाओं के माध्यम से पहुंचती हैं। यह लगभग नामुमकिन है कि अलग-अलग स्थानों पर रहने वाले और अलग-अलग विचारों (कभी-कभी बहुत कट्टर) को मानने वाले लोग एक ही तरह का झूठ गढ़ने और रसूल के नाम पर चलाने के लिए एक साथ आए होंगे। ये किस्से कुरान और हदीसों में मिलते हैं। प्रत्येक मुसलमान कुरान को अल्लाह की वाणी मानता है। हम कुरान और हदीसों के जरिए मुहम्मद के दिलो-दिमाग को समझने की कोशिश करते हुए यह जानने की कोशिश करेंगे कि मुहम्मद ने जो किया, वह क्यों किया मैं कई मनोविज्ञानियों और मनोचिकित्सकों के सिद्धांतों व विचारों को भी उद्धृत करूंगा और मुहम्मद ने जो किया, उसकी तुलना इन विशेषज्ञों के कथन से करूंगा। जिन स्रोतों में में उद्धृत करने जा रहा हूं वे सभी मनोविकृति विज्ञान के प्रख्यात विशेषज्ञ हैं। ये विशेषज्ञ जो कहते हैं, उसे अनुभव जनित ज्ञान कहा जाता है और इस क्षेत्र के अधिकांश जानकारों द्वारा बताया जाता है।
यह पुस्तक 1400 साल पहले के किसी व्यक्ति के मनोविशेषण के लिए नहीं है, बल्कि इसमें उस व्यक्ति के रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश की गई है। मुहम्मद बहुतों के लिए पहेली है और खासकर अपने अनुयायियों के लिए, जो इस मिथक को स्वीकार करते हैं और इससे अलग कुछ भी देखने से इंकार करते हुए इस छवि को उसकी छवि अंगीकार करते हैं।
मुहम्मद का आचरण अधर्मी था, फिर भी उसने यह जताने की कोशिश की कि वह अपने लक्ष्य को ही समर्पित था। कैसे इस प्रकार का घोर प्रतिशोधी, क्रूर और पथभ्रष्ट ईसान इतना करिश्माई हो सकता है कि वह न केवल अपने साथियों को, बल्कि सैकड़ों सालों से करोड़ों लोगों को सम्मोहित किए हुए है ? माइकल हार्ट ने अपनी पुस्तक 'द 100: ए रैकिंग ऑफ द मोस्ट इंफ्लुएंशियल पर्सन्स इन हिस्ट्री' में मुहम्मद को शीर्ष पर रखा। इसके बाद सूची में ईसाक न्यूटन, जीसस क्राइस्ट, बुद्ध, कन्फ्यूसियस और सेंट पॉल हैं। हार्ट की सूची इस आधार पर नहीं बनाई गई है कि इसमें शामिल शख्सियतों का प्रभाव सकारात्मक था या नकारात्मक। इस सूची में तमाम अत्याचारी जैसे एडोल्फ हिटलर, माओ त्से-तुंग व जोसफ स्टालिन भी शामिल हैं। सूची में निकोल मैकियावेली भी हैं। मुहम्मद जैसा मानवताहीन व्यक्ति इतिहास का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति कैसे हो सकता है ? जैसा कि यह पुस्तक दर्शाने की कोशिश करती है, इस सवाल का उत्तर मुहम्मद की शख्सियत से अधिक मानव के चित्त से जुड़ा है।
दुनिया में इस्लाम के अलावा किसी और कारण से इतना रक्त नहीं बहाया गया है। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक अकेले भारत में ही इस्लाम की तलवार से 8 करोड़ हिंदुओं को मौत के घाट उतारा गया। फारस, मिस्र और उन सभी देशों में जहां लुटेरे मुसलमानों का आक्रमण हुआ, लाखों लोगों को काट डाला गया। गैर मुसलमानों के सामूहिक कत्ल का यह सिलसिला उस वक्त तो चला ही जब ये लुटेरे हमला कर रहे थे, इसके बाद भी सदियों तक यह जारी रहा। ये रक्तपात आज भी जारी है।
मुसलमान अक्सर डींग हांकते हैं, 'जितनी तुम जिंदगी से मुहब्बत करते हो, उससे कहीं अधिक हम मौत से प्यार करते हैं।' हाल के वर्षों में हजारों आतंकवादी हमलों को अंजाम देकर मुसलमानों ने यह साबित भी किया है। कैसे एक इंसान का किसी पर इतना प्रभाव हो सकता है कि वो उसके लिए खुशी-खुशी मरने को तैयार हो जाता है, अपने बच्चों को कुर्बान करने में भी संकोच नहीं करता ? क्यों दुनिया में चल रहे संघर्षों में हर 10 घटनाओं में से 9 में मुसलमान संलिप्त हैं, जबकि मुसलमानों की आबादी दुनिया में केवल पांचवां हिस्सा ही है ? आंकड़ों का औसत देखें तो पता चलता है कि मुसलमान एक समूह के रूप में बाकी मनुष्यों से 36 गुना अधिक हिंसक होता है। यह होता कैसे है ?
दरअस्ल, इस्लाम मुहम्मद के दिमाग की उपज है। मुसलमान कुरान व हदीसों में मुहम्मद के शब्दों को पढ़ते हैं और उसके जीवन की हर एक चीज पर अमल करने की कोशिश करते हैं। उनके लिए मुहम्मद इस ब्रह्मांड की सर्वोत्तम रचना और सर्वाधिक संपूर्ण मनुष्य है तथा उसका ही जीवन अनुसरण योग्य है। वे मानते हैं कि अगर मुहम्मद ने कुछ किया है, भले ही वह भयानक हो, उसे उचित व उत्कृष्ट समझा जाना चाहिए। उसमें किसी सवाल की गुंजाइश नहीं होती और किसी को उसकी प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता परखने का अधिकार नहीं है। यह पुस्तक दो चीजें पेश करती है। पहला मुहम्मद नार्सिस्टिक पर्सनैलिटी डिस्ऑर्डर (आत्मपूजक व्यक्तित्व विकृति) से ग्रस्त था। दूसरा वह टैम्पोरल लोब इपीलैप्सी की बीमारी से पीड़ित था। वह अन्य मानसिक विकारों का भी शिकार था, लेकिन उसकी शारीरिक व मानसिक अवस्था ने इस्लाम को एक परिघटना बना दिया, जिसे मुहम्मद के रूप में जाना जाता है।
यह पुस्तक प्रामाणिक साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध करती है कि मुहम्मद मानसिक रूप से विक्षिप्त था। हालांकि उसे लगता था कि वह अपने उद्देश्य के लिए समर्पित है और उसके दावे बिलकुल सच हैं। मुहम्मद वास्तविकता और कल्पना में भेद नहीं कर पाता था। मुहम्मद के समकालीन और ऐसे लोग जो उसे अच्छे से जानते थे, उसे मजनूं (पागल, सनकी और जिन्न के वश में) कहते थे। हालांकि ऐसे लोग या तो उसकी क्रूर ताकत के आगे झुक गए, या फिर इन लोगों के विवेक की आवाजें दबा दी गई। मानव मस्तिष्क की नई खोजें ऐसे लोगों को सही साबित कर रही हैं। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नार्सिसिस्ट व्यक्ति बखूबी जानता है कि वह झूठ बोल रहा है और इसके बावजूद वह अपने झूट पर विश्वास करने वाला पहला व्यक्ति होता है। मुहम्मद की आलोचना करने वाली बहुत सी किताबें मौजूद हैं और जिनमें उसके हिंसक व विकृत चरित्र का विवरण दिया गया है। हालांकि इनमें से कुछ ही यह व्याख्या कर पाई हैं कि मुहम्मद के दिमाग में क्या चल रहा था। इस पुस्तक का उद्देश्य यही बताना है कि मुहम्मद की सोच क्या थी।
वैसे तो यह पुस्तक मुसलमानों के नाम नहीं है, पर मैंने इसे मुख्यत: उन्हीं के लिए लिखा है। एक फारसी कहावत है कि दीवारों के भी कान होते हैं। मुहम्मद के बारे में लुटेरों के गिरोह के सरदार होने, सामूहिक नरसंहार करने वाला, बच्चों के साथ यौन संबंध बनाने को आतुर यौन कुंठित, कामी, औरतखोर और काफी कुछ कहा जा चुका है। मुसलमान ये सब सुनते भी हैं, फिर भी बिना किसी संशय के मुहम्मद में विश्वास करते हैं। विचित्र बात तो यह है कि कुछ लोगों ने यह भी दावा किया कि इंटरनेट पर मेरे लेख को पढ़ने के बाद इस्लाम में उनका विश्वास और मजबूत हो गया। मुसलमान मुहम्मद को एक श्रेष्ठ शख्सियत और मानव जाति के लिए अल्लाह के तोहफे के रूप में स्वीकार कर चुके हैं। मुसलमान मुहम्मद के बारे में सही-गलत का फैसला मानवीय नैतिकता और आत्म चेतना के मानकों के आधार पर नहीं लेते हैं। इसके उलट ये मानते हैं कि मुहम्मद ने नैतिकता के मानक स्थापित किए। इनके लिए सही या गलत, अच्छे या बुरे का निर्णय स्थापित और सर्वमान्य नियम कायदों (गोल्डन रूल) से नहीं होता है, बल्कि तर्क, मूल्य या नैतिकता से परे हलाल (जिसकी अनुमति हो) और हराम (जिसकी इजाजत न हो) नामक लंपट मजहबी मूल्यों से निर्धारित होता है। गोल्डन रूल तो मुसलमानों के लिए परायी चीज है। मुसलमान इस्लाम पर सवाल उठाने में पूर्णत: अक्षम होता है। वह इस्लाम पर किसी भी संदेह की सिरे से खारिज कर देता है और जो मजहबी बातें उसकी समझ से बाहर होती हैं, उन्हें 'इम्तहान समझता है। इस 'इम्तहान' को पास करने और आस्था को सिद्ध करने के लिए उसे बिना सवाल किए इस्लाम के हर बेतुकेपन और बकवास पर भरोसा करना ही होता है।
अध्याय
1
मुहम्मद कौन था ?
तुम्हारे अल्लाह ने न तो तुम्हें छोड़ा और न ही तुमसे नाराज हुआ, नफरत की तुम्हारा भविष्य यकीनन अतीत से बेहतर है। तुम्हें अल्लाह जल्द ही इतना देगा कि तृप्त हो जाओगे। क्या जब भी अल्लाह ने तुमको यतीम पाकर पनाह नहीं दी? क्या भटकता पाकर अल्लाह ने तुमको राह न दिखाई ? क्या जब जरूरत हुई, अल्लाह ने तुम्हें दौलत नहीं दी ? (कुरान-93:3-8)
आइये, मुहम्मद की कहानी सुनाते हैं। उसके जीवन में झांकें। वह कौन था और उसकी सोच क्या थी ? इस अध्याय में हम एक ऐसे इंसान के जीवन के विभिन्न पक्षों को संक्षिप्त रूप से देखेंगे, जिसकी करोड़ों की तादाद में, दूसरे इंसान इबादत करते हैं। दरअस्ल, इस्लाम और कुछ नहीं, केवल मुहम्मदवाद है। मुसलमान दावा करते हैं कि वे केवल एक अल्लाह की इबादत करते हैं। चूंकि अल्लाह और कुछ नहीं, केवल मुहम्मद के अहंकार से पैदा हुई कल्पना और मुहम्मद का ही प्रतिरूप अदृश्य कृत्रिम हौवा है। इसलिए यह मुहम्मद ही है, जिसकी वे इबादत करते हैं। इस्लाम मुहम्मद की व्यक्ति पूजा है। हम मुहम्मद के शब्दों को पढ़ेंगे, जो उसने कुरान में लिखा है और दावा किया है कि ये शब्द अल्लाह के हैं। हम मुहम्मद को उसके साथियों और बीवियों की नजर से देखेंगे। हम यह भी जानेंगे कि कैसे महज एक दशक में मुहम्मद एक परित्यक्त से अरब का वास्तविक शासक बन बैठा कैसे मुहम्मद ने लोगों को नियंत्रित करने के लिए उनके दिलों में दरार पैदा की और यह भी कि कैसे मुहम्मद ने अपने विचारों से सहमत न होने वाले लोगों के खिलाफ जंग करने के लिए लोगों में विद्रोह की आग लगा दी, कैसे युद्ध छेड़ने के लिए लोगों में नफरत और क्रोध की ज्वाला भड़का दी। हम यह भी देखेंगे कि मुहम्मद ने कैसे विरोधियों को दबाने और उनके मन में भय पैदा करने के लिए घात, बलात्कार, शारीरिक यातना और हत्याओं को अंजाम दिया। हम मुहम्मद द्वारा किए गए नरसंहार और धोखे व चालबाजी की उस रणनीतिक प्रवृत्ति को भी जानेंगे। आज के मुसलमान आतंकी समूह मुहम्मद की इसी रणनीति का इस्तेमाल करते हैं। मुहम्मद को समझने के बाद आप जान पाएंगे कि आतंकवादी वही कर रहे हैं, जो उनके रसूल ने किया था।
मुहम्मद का जन्म व बचपन
अरब के मक्का में वर्ष 570 ई. में एक विधवा युवा महिला आमना ने एक पुत्र को जन्म दिया। आमना ने बेटे का नाम मुहम्मद रखा। हालांकि मुहम्मद आमना की इकलौती संतान था, फिर भी उसने पालन-पोषण के लिए मुहम्मद को रेगिस्तान में रहने वाले एक खानाबदोश दंपत्ति को सौंप दिया। उस वक्त मुहम्मद बमुश्किल छह माह का था। अरब में कभी-कभी अमीर महिलाएं अपने नवजात शिशु की देखभाल के लिए कुछ पैसे पर आया (परिचारिका) रख लेती थीं। इससे उन्हें बच्चे की देखभाल करने से फुर्सत मिल जाती थी और वे फौरन दूसरा गर्भ धारण करने के लिए तैयार हो जाती थीं। अधिक बच्चे समाज में ऊंची हैसियत दिखाते थे। पर आमना के साथ ऐसा कुछ नहीं था। आमना विधवा थी। उसे केवल एक ही संतान का लालन-पालन करना था और दूसरे वो अमीर भी नहीं थी। मुहम्मद के पैदा होने के छह माह पहले ही उसके पिता अब्दुल्ला दुनिया से चले गए थे। इसके अलावा नवजात को दूसरे के पास छोड़ने की प्रथा आम भी नहीं थी। मुहम्मद की पहली बीबी खदीजा मक्का की सबसे अमीर महिला थी। खदीजा की पहली दो शादियों से तीन बच्चे थे। मुहम्मद से शादी के बाद उसके छह बच्चे और हुए। खदीजा ने अपने सारे बच्चों को खुद ही पाल-पोसकर बड़ा किया था। फिर आमना ने अपनी इकलौती संतान को पालने के लिए किसी और को क्यों दे दिया ?
मुहम्मद की मां आमना के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। इसलिए उसको और उसके इस निर्णय को समझ पाना मुश्किल है। अमीना की मनोवैज्ञानिक प्रकृति और मुहम्मद से उसके रिश्ते पर प्रकाश डालने वाली एक रोचक बात यह जरूर है कि उसने मुहम्मद को कभी अपना दूध नहीं पिलाया। जन्म के बाद ही मुहम्मद को देखभाल के लिए उसके चाचा अबू लहब की नौकरानी सुऐबा को दे दिया गया। अबू लहब वही व्यक्ति हैं जिन्हें मुहम्मद ने उनकी बीबी सहित कुरान के सूरा 111 में लानत भेजी है। यह उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि आमना ने खुद बच्चे को क्यों नहीं पाला। हम इस बारे में केवल अनुमान लगा सकते हैं। क्या वह अवसाद में थी कि इतनी कम उम्र में विधवा हो गई ? या फिर उसे यह लगता था कि यह बच्चा उसको दूसरी शादी की संभावना में बाधा बनेगा ?
परिवार में किसी की मृत्यु दिमाग में रासायनिक परिवर्तन करती है, जो अवसादग्रस्त बना सकती है। किसी महिला के अवसाद में जाने के अन्य कारण अकेलापन, गर्भ को लेकर चिंता, शादीशुदा जिंदगी में कलह या धन दौलत की समस्या और कम उम्र में मां बनना भी हो सकते हैं। आमना ने हाल ही में अपना पति खोया था। वह बिलकुल अकेली, गरीब और नवयौवना थी। इतना सब जानने के बाद यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि आमना उन सारी समस्याओं की जद में थी, जिससे अवसाद उसे आसानी से अपना शिकार बना सके। अवसाद ऐसी मानसिक अवस्था है जो महिला को अपने नवजात शिशु से भी भावनात्मक रूप से दूर कर देती है। महिला यदि गर्भावस्था के दौरान अवसाद में है तो प्रसव के बाद लंबे समय तक अवसाद में जाने की आशंका बनी रहती है और यह गर्भवती महिला के लिए जोखिम भरा हो सकता है।" कुछ अनुसंधान बताते हैं कि गर्भवती महिला का अवसाद ग्रस्त होना उसकी कोख में पल रहे बच्चे पर सीधा असर डालता है। इस स्थिति में पैदा होने वाले बच्चे अक्सर तुनक मिजाज और लद्दधड़ (आलसी) प्रवृत्ति के हो जाते हैं। ऐसे बच्चे के सीखने की क्षमता भी मंद पड़ जाती है और ये
भावनात्मक रूप से निष्क्रिय और हिंसक व्यवहार वाले हो सकते हैं। मुहम्मद अजनबियों के बीच पला-बढ़ा। जब उसे थोड़ी समझ हुई तो जान सका कि जिसके साथ रह रहा था, वह उस परिवार का नहीं हैं। उसके मन में यह सवाल जरूर कौंधा होगा कि क्यों उसकी अपनी मां उसे अपने पास नहीं रखना चाहती। मुहम्मद साल में दो बार अपनी मां से मिलने भी जाता था।
कई दशकों बाद हलीमा कहती भी थी कि पहले वह मुहम्मद को नहीं लेना चाहती थी, क्योंकि वह एक गरीब विधवा का अनाथ बेटा था और उसके पास कुछ नहीं था। चूंकि उसे किसी अमीर परिवार का बच्चा नहीं मिल सका, इसलिए उसने मजबूरी में मुहम्मद को लिया, क्योंकि उसके परिवार को पैसे की जरूरत थी। हालांकि मुहम्मद की देखभाल के एवज में उसे अधिक कुछ नहीं मिलता था क्या इससे पता नहीं चलता कि हलीमा मुहम्मद का कितना ध्यान रखती होगी ? उम्र के उस नाजुक रचनात्मक दौर में जब बच्चे का चरित्र गढ़ा जाता है, क्या मुहम्मद को उस परिवार में प्यार मिला ?
हलीमा ने कहा है कि मुहम्मद गुमसुम अकेला रहने वाला बच्चा था। वह अपने विचारों की दुनिया में खोया रहता था। दोस्तों से भी इस तरह चोरी-छिपे बातचीत करता था कि उसे कोई और न देख पाए। क्या यह उस बच्चे की प्रतिक्रिया थी, जो वास्तविक दुनिया में प्यार नहीं पा सका और इसलिए उसने एक ऐसी काल्पनिक दुनिया बसानी शुरू कर दी, जहां उसका खालीपन दूर होता था और प्यार मिलता था ?
मुहम्मद की मानसिक दशा हलीमा के लिए चिंता का सबब बनने लगी। जब वह पांच साल का हुआ तो हलीमा
उसे आमना के पास लौटा आई। अमीना को अभी दूसरा शौहर नहीं मिला था और वह मुहम्मद को वापस नहीं लेना
चाहती थी। हलीमा ने आमना को मुहम्मद के अजीव व्यवहार और कल्पनाओं से वाकिफ कराया, तब वह उसे वापस लेने को तैयार हुई। इब्ने इसहाक ने हलीमा के शब्दों को इस तरह दर्ज किया है: उसके (हलीमा के अपने बेटे) पिता ने मुझसे कहा, 'मुझे लगता है कि इस बच्चे को दौरा पड़ता है। मामला और बिगड़े, उससे पहले इस बच्चे को उसके घर पहुंचा दो।'... वह (मुहम्मद की मां) पूछती रही कि हुआ क्या और तब तक चैन नहीं लेने दिया, जब तक मैंने पूरी बात नहीं बता दी। जब उसने कहा कि क्या उसे बच्चे पर शैतान का साया होने का शक है तो मैंने कहा, हां। छोटे बच्चों का बिस्तर पर पड़े रहकर शैतान को देखना या काल्पनिक दोस्तों से बात करना सामान्य बात है।
लेकिन मुहम्मद के मामले में यह आपवादिक रूप से चेतावनी भरा था। हलीमा के शौहर ने कहा, 'मुझे लगता है कि
इस बच्चे को दौरा पड़ता है। यह जानकारी अहम है। सालों बाद मुहम्मद ने खुद अपने बचपन के अजीबोगरीब
अनुभव के बारे में बताते हुए कहा:
सफेद वस्त्र में दो आदमी आए और उनके हाथ में सोने का प्याला था, जिसमें बर्फ भरी हुई थी। वे मुझे ले गए और मेरे शरीर को खोल डाला, फिर मेरा कलेजा निकाला और इसे भी खोला, फिर इसमें से काले रंग का थक्का निकाला और दूर फेंक दिया। इसके बाद मेरे दिल को और मेरे पूरे शरीर को उस बर्फ से तब तक साफ करते रहे, जब तक कि वह पूरी तरह पाक नहीं हो गया। "
एक बात तो सौ टका सच है कि मन के विकार हृदय में थक्के के रूप में नहीं दिखते। यह भी सच है कि बच्चे पापमुक्त होते हैं। पाप किसी सर्जरी से खत्म नहीं किया जा सकता है और न ही बर्फ सफाई करने वाला साधन होता है। यह पूरा किस्सा या तो कोरी कल्पना है या मिथ्याभास
मुहम्मद अब अपनी मां के पास रहने लगा था, लेकिन उसकी किस्मत में यह सुख लंबा नहीं लिखा था।
सालभर बाद ही आमना की भी मौत हो गई। मुहम्मद आमना से अधिक बात नहीं करता था। आमना की मौत के
50 साल बाद जब मुहम्मद ने मक्का पर फतह हासिल की तो वो मक्का और मदीना के बीच स्थित अब्बा नामका
जगह पर अपनी मां की कब्र पर गया और रोया। मुहम्मद ने अपने साथियों को बताया:
यह मेरी मां की कब है, अल्लाह ने मुझे यहां आने की इजाजत दी है। मैंने उसके लिए दुआ करनी चाही, लेकिन अल्लाह ने मंजूर नहीं किया। तो मैंने मां को याद किया और उसकी यादों में डूब गया और रोने लगा। 2 अल्लाह मुहम्मद को अपनी मां के लिए दुआ मांगने की इजाजत क्यों नहीं देगा? उनकी मां ने ऐसा क्या किया था कि वह माफी बख्शी आने के काबिल नहीं थी? फिर तो अल्लाह अन्याय करने वाला है, यह न मानें तो इस बात
को हजम कर पाना मुश्किल है। जाहिर है, अल्लाह का इससे कोई लेना-देना नहीं था। मुहम्मद अपनी मां को माफ नहीं कर पाया था और वह भी उनकी मौत के पचास साल बाद भी शायद मुहम्मद के जहन में उसकी याद एक प्रेमहीन रूखी महिला के रूप में अंकित थी और उसका मन अपनी मां को लेकर क्षुब्ध था। शायद मुहम्मद के दिलो दिमाग पर गहरे जख्म थे, जो कभी नहीं भर सके।
आमना की मौत के बाद मुहम्मद ने दो साल अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब के पर बिताए। उसके दादा को इस बात का खयाल था कि उनके पोते ने अभी तक अनाथ जीवन जिया है, तो वे अपने मरे हुए बेटे अब्दुल्ला की इस निशानी के ऊपर प्यार और धन-दौलत लुटाने लगे। इब्ने साद लिखता है कि अब्दुल मुत्तलिब ने इस बच्चे को वह लाड़-प्यार दिया जो उन्होंने कभी अपने बेटों को भी नहीं दिया था।" मौर ने मुहम्मद के जीवनवृत्त में लिखा है: "इस बच्चे को उसके दादा ने बेपनाह दुलार दिया। काला की छाया में गलीचा बिछाया जाता था और उस पर बैठकर यह वृद्ध मुखिया (मुहम्मद के दादा) सूरज की तपिश से बचने के लिए आराम फरमाता था इस गलीचे के चारों ओर थोड़ी दूर पर उसके बेटे बैठते थे। छोटा सा मुहम्मद इस मुखिया के पास भागकर आता था और गलीचे पर बैठ जाता था। मुखिया के बेटे मुहम्मद को हटाने की कोशिश करते तो अब्दुल मुत्तलिब उन्हें रोक देता और कहता: 'मेरे बच्चे को अकेला छोड़ दो।" फिर वह मुहम्मद की पीठ सहलाता और उनकी बालसुलभ क्रीडाएं देखकर आनंदित होता। मुहम्मद अभी भी बराका नाम की आया की देखरेख में रहता था। पर वह उसके पास से भागने लगता और
अपने दादा के कक्ष में घुस जाता, यहां तक कि जब वे अकेले होते या सो रहे होते तब भी मुहम्मद अक्सर अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब के उस लाड़-प्यार को याद करता था। बाद में उसने कल्पना का तड़का लगाते हुए कहा कि दादा उसके बारे में कहा करते थे, "उसे अकेला छोड़ दो, वह बड़ा किस्मत वाला है। एक साम्राज्य का मालिक होगा।' वे बराका से कहते, 'ध्यान रखना, कहीं यह बच्चा यहूदियों या ईसाइयों के हाथों न पड़ जाए, क्योंकि वे लोग इसे ढूंढ रहे हैं और पाते ही इसे नुकसान पहुंचाएंगे।
हालांकि किसी को मुहम्मद के दादा की ये बातें याद नहीं थी और मुहम्मद का कोई चाचा सिवाय हमजा के, उसके दावों को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ। हमजा मुहम्मद का हमउम्र था। अब्बास जरूर मुहम्मद के गिरोह में शामिल हो गया था, पर तब जबकि उसके सितारे बुलंद हो चुके थे और वह हमला करने के लिए घेरा डालकर मक्का के द्वार पर बैठा था।
पर मुहम्मद पर बदकिस्मती अभी खत्म नहीं हुई थी। यहां रहते अभी दो साल भी नहीं बीते थे कि 82 वर्ष की अवस्था में मुहम्मद के दादा की भी मौत हो गई। मुहम्मद अपने चाचा अबू तालिब के संरक्षण में आ गया। दादा का दुनिया से चले जाना इस अनाथ बच्चे को बहुत खला। जब दादा का जनाजा हजून के कब्रिस्तान ले जाया जा रहा या तो मुहम्मद बहुत रोया था; और उसे दादा की याद सालों तक सताती रही। चाचा अबू तालिब ने शिद्दत से अपनी जिम्मेदारी निभाई। मीर लिखता है: 'अबू तालिब ने मुहम्मद को उसी तरह लाड़ प्यार दिया, जैसे उनके पिता देते थे। वे इस बच्चे को विस्तर पर ले जाकर सुलाते थे, उसे साथ बिठाकर खाना खिलाते थे। उसे बाहर घुमाने ले जाते 'थे। तालिब का यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक मुहम्मद बचपन को दुश्वारियों से बाहर नहीं आ गया। इब्ने साद वाकदी के हवाले से लिखते हैं: हालांकि अबू तालिब बहुत अमीर नहीं थे, फिर भी उन्होंने मुहम्मद को अपने बच्चों से अधिक लाड़-प्यार दिया।
बचपन में इस तरह के भावनात्मक झंझावातों को झेलने के कारण मुहम्मद को अकेले पड़ने से डर लगने लगा था। यह बात उस घटना से स्पष्ट होती है, जो तब हुई जब मुहम्मद 12 साल का था। एक दिन अबू तालिय व्यापार के सिलसिले में सीरिया जाने को तैयार हुए। 'लेकिन जब कारका सफर के लिए तैयार हुआ और अबू तालिब कंट
....Cont>>
Ref-
1 Ibn Warraq. Leaving Islam. Apostates Speak Out. Amherst: Prometheus Books. p.136
2 Maxime Rodinson: Islam et communisme, une ressemblance frappante, in Le Figaro [Paris, daily newspaper], 28 Sep.2001
3 B.Russell, Theory and Practice of Bolshevism, London, 1921 pp .5, 29, 114
4 A.Koestler, et al, The God That Failed, Hamish Hamilton, London, 1950, p.7
5 Ibid. p16
6 Qur'an Sura 93: Verses 3-8 (Translations of the Qur'an in this book are either by Yusuf Ali or by Shakir.) My work is not about the sacred scriptures of Islam, but it is based directly on them. The passages I cite are taken from the Qur'an and the Hadith. The Qur'an purports to be not the work of any human, but the very words of Allâh himself, from beginning to end. The Ahadith (plural for Hadith) are short, collected anecdotes and sayings about Muhammad regarded by Muslims as essential to the understanding and practice of their religion. It is not necessary for me, in this book, to discuss the innumerable questions raised by the Qur'an and the Hadith, their translation into other languages, or the disputes over subtle nuances in those texts. For purposes of this book, the passages I cite will mostly speak for themselves.I have taken them from widely accepted sources.
7 Muhammad had four daughters and two sons. His male children, Qasim and Abd al Menaf (named after deity Menaf) died in infancy. His daughters reached adulthood and married, but they all died young. The youngest daughter, Fatima, was survived by two sons. She outlived Muhammad by only six months.
8 Studies have shown that the newborns of the mothers with prepartum and postpartum depressive symptoms had elevated cortisol and norepinephrine levels, lower dopamine levels, and greater relative right frontal EEG asymmetry. The infants in the prepartum group also showed greater relative right frontal EEG asymmetry and higher norepinephrine levels. These data suggest that effects on newborn physiology depend more on prepartum than postpartum maternal depression but may also depend on the duration of the depressive symptoms. ncbi.nlm.nih.gov
9 www.health.harvard.edu/newsweek/Depression_during_pregnancy_and_after_0405.htm
10 Sirat Ibn Ishaq, page 72: Ibn Ishaq (pronounced Is-haq, Arabic for Isaac) was a Muslim historian, born in Medina approximately 85 years after Hijra (704. died 768). (Hijra is Muhammad's immigration to Medina and the beginning of the Islamic calendar), He was the first biographer of Muhammad and his war expeditions. His collection of stories about Muhammad was called "Sirat al-Nabi" ("Life of the Prophet"). That book is lost. However, a systematic presentation of Ibn Ishaq's material with a commentary by Ibn Hisham (d. 834) in the form of a recension is available and translated into English. Ibn Hisham, admitted that he has deliberately omitted some of the stories that were embarrassing to Muslims. Part of those embarrassing stories were salvaged by Tabari, (838–923) one of the most prominent and famous Persian historians and a commentator of the Qur'an.
11 W. Montgomery Watt: Translation of Ibn Ishaq's biography of Muhammad (p. 36)
12 Tabaqat Ibn Sa'd p. 21 . Ibn Sa'd (784-845) was a historian, student of al Waqidi. He classified his story in eight categories, hence the name Tabaqat (categories). The first is on the life of Muhammad (Vol. 1), then his wars (Vol. 2), his companions of Mecca (Vol. 3), his companions of Medina (Vol. 4), his grand children, Hassan and Hussein and other prominent Muslims (Vol. 5), the followers and the companions of Muhammad (Vol. 6), his later important followers (Vol. 7) and some early Muslim women (Vol. 8). The quotes from Tabaqat used in this book are taken from the Persian translation by Dr. Mahmood Mahdavi Damghani. Publisher Entesharat-e Farhang va Andisheh. Tehran, 1382 solar hijra (2003 A.D.).
13 Tabaqat Volume 1, page 107
14 The Life of Muhammad by Sir. William Muir [Smith, Elder, & Co., London, 1861] Volume II Ch. 1. P. XXVIII
15 Katib al Waqidi, p. 22
16 Tabaqat Vol I. P 108,
17 The Life of Muhammad by Sir. William Muir Vol. II Ch. 1. P. XXXIII
18 Sirat, Ibn Ishaq page. 195
19 Life of Muhammad, Muir Vol 2 p.195
20 Bukhari Volume 5, Book 58, Number 224:
21 Abu Abdullah Muhammad Bukhari (c. 810-870) was a collector of hadith also known as the sunnah, (collection of sayings and deeds of Muhammad). His book of hadith is considered second to none. He spent sixteen years compiling it, and ended up with 2,602 hadith (9,082 with repetition). His criteria for acceptance into the collection were amongst the most stringent of all the scholars of ahadith and that is why his book is called Sahih (correct, authentic). There are other scholars, such as Abul Husain Muslim and Abu Dawood who worked as Bukhari did and collected other authentic reports. Sahih Bukhari, Sahih Muslim and Sunnan Abu Dawood are recognized by the majority of Muslims, particularly Sunnis, as complementing the Qur'an.
22 Bukhari: Volume 4, Book 56, Number 762:
23 Tabaqat Volume I, page 191
24 Qur'an, 53:19-22
25 Sahih Bukhari Volume 5, Book 58, Number 207
26 Al-Dalaa'il, 2/282
27 Sir William Muir: The Biography of Mahomet, and Rise 0f Islam. Chapter IV page 126
28 http://www.usc.edu/dept/MSA/quran/maududi/mau109.html
29 Qur'an, 4:97: “When angels take the souls of those who die in sin against their souls, they say: 'In what (plight) were ye?' They reply: 'Weak and oppressed were we in the earth.' They say: 'Was not the earth of Allâh spacious enough for you to move yourselves away?' Such men will find their abode in Hell, - What an evil refuge!”
30 Sir William Muir, Life of Muhammad, Vol. 2, chap. 5,. p. 162.
31 A collection of poems in many volumes compiled by Abu al-Faraj Ali of Esfahan. It contains poems from the oldest epoch of Arabic literature down to the 9th cent. It is an important source of information on medieval Islamic society.
32 Sirat Ibn Ishaq, P.197
33 Jalal al-Din al-Suyuti says: “A group of people from Mecca accepted Islam and professed their belief; as a result, the companions in Mecca wrote to them requesting that they emigrate too; for if they don't do so, they shall not be considered as those who are among the believers. In compliance, the group left, but were soon ambushed by the nonbelievers (Quraish) before reaching their destination; they were coerced into disbelief, and they professed it.” [Jalal al-Din al-Suyuti "al-Durr al-Manthoor Fi al- Tafsir al-Ma-athoor," vol.2, p178;] Suyuti writes that in one hadith Allâh's Apostle said, "There is no Hijra (i.e. migration) (from Mecca to Medina) after the Conquest (of Mecca), but Jihad and good intention remain; and if you are called (by the Muslim ruler) for fighting, go forth immediately.” This shows that prior to the conquest of Mecca, emigration from that town was one of the requisites for Muslims.
This is additional evidence of the fact that Muslims were coerced by Muhammad to abandon their homes, while their families did everything they could to keep their loved ones from following this man. Jalal al-Din al-Misri al-Suyuti al-Shafi`i al-Ash`ari, also known as Ibn al-Asyuti (849-911) was the mujtahid imam and renewer of the tenth Islamic century. He was a hadith master, jurist, Sufi, philologist, and historian. He authored works in virtually every Islamic science.
34 http://www.youtube.com/watch?v=BJLsdydjSPo
35 Daily Muslims, July 12, 2006
36 Qur'an, 8:69. See also Qur'an, 8:74: “Those who believe, and adopt exile, and fight for the Faith, in the cause of Allâh as well as those who give (them) asylum and aid, - these are (all) in very truth the Believers: for them is the forgiveness of sins and a provision most generous.” One who is not familiar with Muhammad's style of writing (actually, of reciting, as he was illiterate) may wonder how the order to loot people can be reconciled with the command to fear Allâh. However, those who read the Qur'an in Arabic notice that the verses rhyme, and Muhammad often added words or phrases that are out of place, such as 'fear Allâh,' 'Allâh is most merciful,' 'He is all knowing, all wise,' etc., just to make his verses rhyme. Otherwise, it is inconceivable to fear the wrath of God and at the same time pillage and murder innocent people. By doing so—by associating God with looting, genocide and rape—
Muhammad lowered the moral standards of his followers and sanctified evil. Thus pillage became holy pillage, killing became holy killing, and iniquity was sanctioned and even glorified. He assured his men that those who fight for their Faith would be rewarded, not only with the spoils of war but with forgiveness for their sins.
37 Malfuzat-i Timuri, or Tuzak-i Timuri, by Amir Tîmûr-i-lang In the History of India as told by its own historians. The Posthumous Papers of the Late Sir H. M. Elliot. John Dowson, ed. 1st ed. 1867. 2nd ed., Calcutta: Susil Gupta, 1956, vol. 2, pp. 8-98.
38 Qur'an, Chapter 47, Verse 38: “Behold, ye are those invited to spend (of your substance) in the Way of Allâh: But among you are some that are niggardly. But any who are niggardly are so at the expense of their own souls. But Allâh is free of all wants, and it is ye that are needy. If ye turn back (from the Path), He will substitute in your stead another people; then they would not be like you!”
39 See also Chapter 63, Verse 10.
40 An affidavit made public in federal court in Virginia in August 19, 2003, contends that the Muslim charities gave $3.7 million to BMI Inc., a private Islamic investment company in New Jersey that may have passed the money to terrorist groups. The money was part of a $10 million endowment from unnamed donors in Jiddah, http://pewforum.org/news/display.php?NewsID=2563
Also on July 27, 2004, the U.S. Justice Department unsealed the indictment of the nation's largest Muslim charity
and seven of its top officials on charges of funneling $12.4 million over six years to individuals and groups associated
with the Islamic Resistance Movement, or Hamas, the Palestinian group that the U.S. government considers to be
a terrorist organization. http://www.washingtonpost.com/wp-dyn/articles/A18257-2004Jul27.html
41 See also Qur'an, 8:72, “Those who believed and those who suffered exile and fought (and strove and struggled) in
the path of Allâh, - they have the hope of the Mercy of Allâh: And Allâh is Oft-forgiving, Most Merciful.” and Qur'an
Chapter 8, Verse 74: “Those who believe, and adopt exile, and fight for the Faith, in the cause of Allâh as well as
those who give (them) asylum and aid, - these are (all) in very truth the Believers: for them is the forgiveness of sins
and a provision most generous.”
42 http://metimes.com/articles/normal.php?StoryID=20060918-110403-1970r
43 Ibid.
44 http://www.faithfreedom.org/debates/Ghamidip18.htm
45 Tabaqat, Vol. 2, pp. 1-2.
46 Sahih Bukhari Volume 5, Book 59, Number 702:
47 William Muir, Life of Muhammad Volume II, Chapter 2, Page 6.
48 Sahih Bukhari, Vol. 3. Book 46, Number 717
49 Ibid.
50 Sahih Muslim Book 019, Number 4321, 4322 and 4323:
51 Sahih Muslim Book 019, Number 4292:
52 http://66.34.76.88/alsalafiyat/juwairiyah.htm
53 Aisha has narrated that Sauda gave up her (turn) day and night to her in order to seek the pleasure of Allâh's Apostle (by that action). [Bukhari Volume 3, Book 47, Number 766]
54 Muhammad ibn Jarir al-Tabari (838–923) was one of the earliest, most prominent and famous Persian historians and exegetes of the Qur'an, most famous for his Tarikh al-Tabari and Tafsir al-Tabari.
55 Persian Tabari, Vol. IV, page 1298.
56 Bukhari Volume 3, Book 34, Number 310:
57 Bukhari, Volume 5, Book59, Number 459. Many other canonical hadiths recount how Muhammad approved intercourse with slave women, but said coitus interruptus was unnecessary because if Allâh willed someone to be born, that soul would be born regardless of coitus interruptus. See the following: Bukhari 3.34.432: “Narrated Abu Saeed Al-Khudri: that while he was sitting with Allâh's Apostle he said, 'O Allâh's Apostle! We get female captives as our share of booty, and we are interested in their prices, what is your opinion about coitus interruptus?' The Prophet said, 'Do you really do that? It is better for you not to do it. No soul that which Allâh has destined to exist, but will surely come into existence.'” Sahih Muslim is another source considered factual and accurate by virtually all Muslims. Here is Sahih Muslim 8.3381: “Allâh's Messenger (may peace be upon him) was asked about 'azl, (coitus interruptus) whereupon he said: The child does not come from all the liquid (semen) and when Allâh intends to create anything nothing can prevent it (from coming into existence).” Muslims also consider Abu Dawood highly accurate and factual. Here is Abu Dawood, 29.29.32.100: “Yahya related to me from Malik from Humayd ibn Qays al-Makki that a man called Dhafif said that Ibn Abbas was asked about coitus interruptus. He called a slave-girl of his and said, 'Tell them.' Shewas embarrassed. He said, 'It is alright, and I do it myself.' Malik said, 'A man does not practise coitus interruptus with a free woman unless she gives her permission. There is no harm in practicing coitus interruptus with a slave-girl without her permission. Someone who has someone else's slave-girl as a wife does not practice coitus interruptus with her unless her people give him permission.'" See also Bukhari 3.46.718, 5.59.459, 7.62.135, 7.62.136, 7.62.137, 8.77.600, 9.93.506 Sahih Muslim 8.3383, 8.3388, 8.3376, 8.3377, and several more.
58 Qur'an, 4:24: “Also (prohibited are) women already married, except those whom your right hands possess: Thus hath Allâh ordained (Prohibitions) against you.” Qur'an, 33:50): “O Prophet! We have made lawful to thee thy wives to whom thou hast paid their dowers; and those whom thy right hand possesses out of the prisoners of war whom Allâh has assigned to thee.” Qur'an, 4:3: “If ye fear that ye shall not be able to deal justly with the orphans, marry women of your choice, two or three or four; but if ye fear that ye shall not be able to deal justly (with them), then only one, or (a captive) that your right hands possess, that will be more suitable, to prevent you from doing injustice.”
59 Sirat Rasul Allâh, p. 515.
60 Sahih Bukhari, 1.8.367 In this hadith the commentator narrates how they [the Muslims] raided the city of Khaibar, during the dawn taking the population off guard. “Yakhrab Khaibar” (Khaibar is ruined) exclaimed Muhammad, as he passed from one stronghold triumphantly to another: "Great is Allâh! Truly when I light upon the coasts of any people, wretched for them is that day! After the conquest of the town, it came time to share the booty. Dihya, one of the warriors, received Safiya as his share. Safiya's father who was the chief of the Bani Nadir had been beheaded by the order of Muhammad three years earlier. After the conquest of Khaibar, her young husband Qinana was tortured and murdered by his order too. Someone informed Muhammad that the seventeen year old Safiya was very beautiful. So Muhammad offered Dihya two girls, the cousins of Safiya, in exchange and got Safiya for himself.



No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ