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23 July, 2024

रामभद्राचार्य और आर्य समाज

23 July 0

 स्वामी भद्राचार्य जी का अनर्गल प्रलाप  

रामभद्राचार्य

स्वामी रामभद्राचार्य जी का एक वीडियो प्रचारित हो रहा हैं।  भद्राचार्य जी ने स्वामी दयानन्द जी पर अनावश्यक टिप्पणी करते हुए कहा कि स्वामी जी ने रामायण और महाभारत को काल्पनिक बताया हैं। भद्राचार्य जी का कहना है कि श्री राम और श्री कृष्ण जी का वेदों में वर्णन हैं। 

भद्राचार्य जी ने यह टिप्पणी कर अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है। उनकी भ्रान्ति का निवारण आवश्यक है। राम और कृष्ण मानवीय संस्कृति के आदर्श पुरुष हैं। कुछ बंधुओं के मन में अभी भी यह धारणा है कि महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज राम और कृष्ण को मान्यता नहीं देता है। प्रत्येक आर्य अपनी दाहिनी भुजा ऊँची उठाकर साहसपूर्वक यह घोषणा करता है कि आर्यसमाज राम-कृष्ण को जितना जानता और मानता है, उतना संसार का कोई भी आस्तिक नहीं मानता। कुछ लोग जितना जानते हैं, उतना मानते नहीं और कुछ विवेकी-बंधु उन्हें भली प्रकार जानते भी हैं, उतना ही मानते हैं।

1. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के संबंध में स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश लिखा है, 

"प्रश्न-रामेश्वर को रामचन्द्र ने स्थापित किया है। जो मूर्तिपूजा वेद-विरुद्ध होती तो रामचन्द्र मूर्ति स्थापना क्यों करते और वाल्मीकि जी रामायण में क्यों लिखते?
उत्तर- रामचन्द्र के समय में उस मन्दिर का नाम निशान भी न था किन्तु यह ठीक है कि दक्षिण देशस्थ ‘राम’ नामक राजा ने मंदिर बनवा, का नाम ‘रामेश्वर’ धर दिया है। जब रामचन्द्र सीताजी को ले हनुमान आदि के साथ लंका से चले, आकाश मार्ग में विमान पर बैठ अयोध्या को आते थे, तब सीताजी से कहा है कि-
अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः।
सेतु बंध इति विख्यातम्।।
वा0 रा0, लंका काण्ड (देखिये- युद्ध काण्ड़, सर्ग 123, श्लोक 20-21)

‘हे सीते! तेरे वियोग से हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान में चातुर्मास किया था और परमेश्वर की उपासना-ध्यान भी करते थे। वही जो सर्वत्र विभु (व्यापक) देवों का देव महादेव परमात्मा है, उसकी कृपा से हमको सब सामग्री यहॉं प्राप्त हुई। और देख! यह सेतु हमने बांधकर लंका में आ के, उस रावण को मार, तुझको ले आये।’ इसके सिवाय वहॉं वाल्मीकि ने अन्य कुछ भी नहीं लिखा।
(द्रष्टव्य- सत्यार्थ प्रकाश, एकादश समुल्लासः, पृष्ठ-303)

इस प्रकार उक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान राम स्वयं परमात्मा के परमभक्त थे। उन्होंने ही रामसेतु बनवाया था।

2. स्वामी दयानन्द रामायण और महाभारत को काल्पनिक मानते तो सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय सम्मुलास में पठन-पाठन विषय के अंतर्गत स्वामी जी वाल्मीकि रामायण और महाभारत के पढ़ने का विधान नहीं करते। 

स्वामी दयानन्द लिखते है,

" तत्पश्चात मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्व अंतर्गत विदुरनीति आदि अच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तम सभ्यतागति हो , वैसे काव्यरीति अर्थात पदच्छेद , पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य, विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें। "
इससे स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल सकता। 

3.   स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज श्री कृष्ण जी को योगिराज के रूप में सम्मान देता हैं। स्वामी दयानंद जी ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में श्री कृष्ण जी महाराज के बारे में लिखते हैं,
" पूरे महाभारत में श्री कृष्ण के चरित्र में कोई दोष नहीं मिलता एवं उन्हें आप्त (श्रेष्ठ) पुरुष कहा है। स्वामी दयानंद श्री कृष्ण जी को महान् विद्वान् सदाचारी, कुशल राजनीतीज्ञ एवं सर्वथा निष्कलंक मानते हैं फिर श्री कृष्ण जी के विषय में चोर, गोपिओं का जार (रमण करने वाला), कुब्जा से सम्भोग करने वाला, रणछोड़ आदि प्रसिद्ध करना उनका अपमान नहीं तो क्या है? "

बोलो योगिराज श्री कृष्ण जी की जय। 

4. स्वामी दयानन्द के पूना प्रवचन में इक्ष्वाकु से लेकर महाभारत पर्यन्त इतिहास पर विस्तार से चर्चा की हैं। अगर स्वामी जी रामायण और महाभारत को काल्पनिक मानते तो इनकी चर्चा क्यों करते?

5. रामभद्राचार्य जी वेद मन्त्रों में श्री राम जी का वर्णन बता रहे हैं। स्वामी दयानन्द वेदों को इतिहास की पुस्तक नहीं मानते क्यूंकि वेदों का ज्ञान सृष्टि के आदि में प्रकट हुआ हैं।  ऐसे में उनमें इतिहास कहाँ से वर्णित होगा। 

स्वामी दयानन्द इस विषय पर सत्यार्थ प्रकाश में लिखते है,

" इतिहास जिसका हो, उसके जन्म के पश्चात् लिखा जाता है। वह ग्रन्थ भी उसके जन्मे पश्चात् होता है । वेदों में किसी का इतिहास नहीं। किन्तु जिस-जिस शब्द से विद्या का बोध होवे, उस-उस शब्द का प्रयोग किया है। किसी विशेष मनुष्य की संज्ञा या विशेष कथा का प्रसंग वेदों में नहीं है।"

6. क्या वेदों में रामायण के श्रीराम-सीता का वर्णन है ?

वेदों में राम, कृष्ण आदि शब्दों के नाम पर ही नामकरण हुए हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि वेदों में श्री राम और श्री कृष्ण जी आदि का वर्णन हैं। 

ऋग्वेद 2/2/8 में आये राम्याः का अर्थ स्वामी दयानन्द ने रात्रि किया है। ऋग्वेद 6/ 65/1 में आये राम्यासु का अर्थ स्वामी दयानन्द ने रात्रि किया है। ऋग्वेद 3/34/12 में आये रामी: का अर्थ स्वामी दयानन्द ने आराम की देने वाली रात्रि किया है। ऋग्वेद 10/3/3 में आये राम शब्द का सायण ने अर्थ कृष्ण रंग वाला किया है। इस प्रकार से राम शब्द के अर्थ वेदों में काले रंग, अन्धकार और रात्रि के रूप में हुए हैं। इनसे रामायण के पात्र श्रीराम किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होते। वैद्यनाथ शास्त्री और अमर सिंह जी निरुक्त 12/13 का उद्धरण देकर राम शब्द से काला ग्रहण करते हैं।

अथर्ववेद 13/3/2668 में अर्जुन को द्रौपदी (कृष्णा) का पुत्र बताया गया है। वेदों में इतिहास मानने वाले क्या यह स्वीकार कर सकते हैं कि अर्जुन द्रौपदी का पुत्र था ? नहीं । स्वामी विद्यानन्द  शतपथ ब्राह्मण 9/2/3/30 का प्रमाण देते हुए लिखते हैं कि यहाँ कृष्णा अर्थ रात्रि का है एवं रात्रि से उत्पन्न होने आदित्य अथवा दिन (अर्जुन) उसका पुत्र है । इस प्रकार से यहाँ इतिहास वर्णन नहीं है ।

7. क्या वेदों में श्रीकृष्ण-राधा, अर्जुन आदि महाभारत के पात्रों का वर्णन है ?

वेदों में कृष्ण-राधा शब्द अनेक मन्त्रों में आया है। वेदों में इतिहास मानने वाले प्रायः कृष्ण शब्द से महाभारत के श्रीकृष्ण जी का वेदों में वर्णन दर्शाने का प्रयास करते हैं। राधा का वर्णन महाभारत में नहीं मिलता। वेदों में कृष्ण शब्द का अर्थ काला रंग, आकर्षक, काला दिन, काला बादल आदि हैं ।

स्वामी दयानन्द भाष्य अनुसार ऋग्वेद 1/58 /4 में कर्षणरूप गुण, ऋग्वेद 1/73/7 और ऋग्वेद 1/92/5 में काला रंग, ऋग्वेद 1/101/4 में विद्वान्, ऋग्वेद 1/115/4 में काले-काले अन्धकार, ऋग्वेद 1/164/47 में खींचने योग्य, ऋग्वेद 6/9/1 में रात्रि, ऋग्वेद 7/3/2 में आकर्षण करने योग्य, यजुर्वेद 21/52 में भौतिक अग्नि से छिन्न अर्थात् सूक्ष्मरूप और पवन के गुणों से आकर्षण को प्राप्त, यजुर्वेद 24/30 में काला हरिण, यजुर्वेद 24/40 में काले रंग वाला, यजुर्वेद 29/58 में काले गरने वाला पशु, यजुर्वेद 29/59 में काला बकरा, यजुर्वेद 30/21 में काले रंग वाले आदि अर्थ किया है। 

ऋग्वेद 3/51/10 में राधा पद आता है जिससे कुछ लोगों में राधा का वर्णन मानते हैं। स्वामी दयानन्द ने राधा का अर्थ धन किया है। ऋग्वेद 1/ 22/7 में आये राधम का अर्थ स्वामी दयानन्द ने विद्या सुवर्ण वा चक्रवर्ती राज्य आदि धन के यथायोग्य किया है।

ऋग्वेद 6/9/1 में आये कृष्ण और अर्जुन का अर्थ स्वामी दयानन्द रात्रि और सरलगमन आदि गुण क्रमशः करते हैं। यजुर्वेद 23/18 में आये अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का अर्थ स्वामी दयानन्द माता, दादी और परदादी करते हैं।

8. वेदों में इतिहास होने की मान्यता अज्ञानता का बोधक है। 

अथर्ववेद 3/17/8 में आया है कि जिस प्रकार से ईश्वर ने इस कल्प में सृष्टि की रचना की है, वैसे ही पूर्व कल्प में की थी और आगे भी करेगा। कल्प के आरम्भ में ईश्वर वेदों का ज्ञान प्रदान करता है। इसलिए हर कल्प के आरम्भ में भी वैसे ही करेंगे जैसे करते आये हैं जो लोग वेदों में श्रीराम, कृष्ण आदि का इतिहास मानते हैं। क्या वे यह भी मानेंगे की हर सृष्टि के हर कल्प में श्रीराम को वनवास का कष्ट भोगना पड़ा ? क्या हर कल्प में सीता हरण हुआ ? क्या हर कल्प में कृष्ण को कारागार में जन्म लेना पड़ा ? क्या हर कल्प में यादव कुल का नाश हुआ ? नहीं ऐसा कदापि सम्भव नहीं है । ईश्वर द्वारा सभी सांसारिक वस्तुओं के नाम वेद से लेकर रखे गए हैं, न कि इन नाम वाले व्यक्तियों या वस्तुओं के बाद वेदों की रचना हुई है । जैसे किसी पुस्तक में यदि इन पंक्तियों के लेखक का नाम आता है तो वह इस लेखक के बाद की पुस्तक होगी । इस विषय में मनुस्मृति 1/21 में आया है कि ब्रह्मा ने सब शरीरधारी जीवों के नाम तथा अन्य पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव नामों सहित वेद के अनुसार ही सृष्टि के प्रारम्भ में रखे और प्रसिद्ध किये और उनके निवासार्थ पृथक्-पृथक् अधिष्ठान भी निर्मित किये। 

इन प्रमाणों से रामभद्राचार्य जी का विचार असत्य सिद्ध होता हैं।  इस पर भी उन्हें शंका है तो आर्यसमाज के द्वार इस विषय पर शास्त्रार्थ के लिए खुले हैं। डॉ০ विवेक आर्य

https://youtu.be/ovL5PY6Q0KI?si=N0SsKff1IOtcjSUL

रामभद्राचार्य
रामभद्राचार्य
रामभद्राचार्य ने बहूत ही अच्छा किया महर्षि दयानंद सरस्वती पर टिप्पणी करके यद्यपि मैं उस टिप्पणी का समर्थक नही अपितु घोर निंदक हूँ। पाखंडी रामपाल ने स्वामी दयानंद जी पर टिप्पणी की थी तब आर्य समाज के 80% व्यक्ति संगठित हुए जिसका परिणाम आज वह जेल मे पड़ा है, आज हमारी सभी सभाओं को, सार्वदेशिक सभाओं, प्रांतीय सभाओं और डी ए वी संस्थाओं को, एवं आर्य निर्मात्री सभाओं को,आर्य महासंघ वालों को, सभी वैदिक विद्वान सन्यासियों, आचार्यों को, वैदिक भजनोपदेशकों को, भजनोपदेशिकाओं को मजबूत संगठन के साथ रामभद्राचार्य जी का घोर विरोध करना चाहिए,
आर्य समाज को एक मंच पर आकर भद्राचार्य जी ने जो झूठ बोला है उसका पर्दाफास करना चाहिये शास्त्रार्थ की चिनौती देनी चाहिये, सभी आर्य जन सौशल मीड़िया पर इनका विरोध करके अपना योगदान दें, ताकी इस झूठ के लिये सरेआम क्षमा मांगे भद्राचार्य। मै जी शब्द का प्रयोग तो‌ नही करना चाहता हूं पर आयु वृद्ध हैं इसीलिए कर रहा हूं, अन्यथा स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे महान व्यक्तित्व पर इतना बड़ा झूठा आक्षेप लगाने वालों के प्रति मेरा कोई सम्मान नहीं है। रामभद्राचार्य कोई स्वामी नहीं है एक पाखंडी हिंदुओं को मूर्ख बनाने वाला एक बाबा है जो वीआईपी कल्चर में रहता है और राम कथा करने के हिंदुओं से लाखों रुपए ऐठता है

रामभद्राचार्य अपने वक्तव्य को वापस ले और अपनी अज्ञान रूपी गलती की क्षमा मांगे अन्यथा हमारी आर्य विद्वानों की शास्त्रार्थ के लिए चुनौती स्वीकार करें? रामभद्राचार्य माफी मांगे या करें शास्त्रार्थ/Swami Sachchidanand Ji Maharaj - YouTube

आर्य समाज और स्वामी रामभद्राचार्य का बयान
आर्य समाज के बारे में आज भी पौराणिक साधु संन्यासी उल्टी सीधी धारणाएं बनाने या अफवाह फैलाने का प्रयास करते रहते हैं। कारण कि ऐसा करने से उनका व्यापार फलता फूलता है।रामभद्राचार्य जी के द्वारा यह कहना कि स्वामी दयानंद जी महाराज राम, रामायण ,कृष्ण और गीता को काल्पनिक मानते थे, इसी प्रकार की काल्पनिक धारणाओं के अंतर्गत आने वाला बयान है। यह सच है कि स्वामी रामभद्राचार्य जी स्वयं विद्वान नहीं हैं। परंपरागत ढंग से पौराणिक जगत में उन्हें विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। इसी का लाभ उन्हें मिल रहा है।
वास्तव में पौराणिक जगत के साधू - संन्यासियों ,मठाधीशों को स्वामी दयानंद जी के संसार से चले जाने के लगभग 140 वर्ष पश्चात भी उनका धर्म चिंतन और वेद चिंतन रास नहीं आ रहा है। ये सनातनी पौराणिक लोगों को विज्ञान के आधुनिक युग में भी जड़तावादी बनाए रखना चाहते हैं। इनका कठमुल्लावाद अतीत में भी हिंदू समाज के लिए खतरनाक रहा है और आज भी बना हुआ है।
स्वामी दयानंद जी महाराज प्रत्येक प्रकार की ठग-विद्या पाखंड और अंधविश्वास का कड़ा विरोध करते थे। जिन्हें पौराणिक साधु संन्यासी आज भी अपनाकर चल रहे हैं। यह अत्यंत दु:ख का विषय है कि 21वीं सदी में भी बड़ी संख्या में लोग कई छली ,कपटी ,पाखंडी, साधु सन्यासियों या धर्म गुरुओं के पाखंड में फंसते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे लोगों को उनके धर्म गुरु जो कुछ भी बता दें, वही उनके लिए " ब्रह्मवाक्य " हो जाता है।
जहां तक रामचंद्र जी के विषय में स्वामी दयानंद जी के विचारों का प्रश्न है तो उन्होंने ना तो राम को काल्पनिक माना है और ना रामायण को काल्पनिक माना है। स्वामी जी महाराज की स्पष्ट मान्यता थी कि यदि किसी मनुष्य को धर्म का साक्षात् स्वरुप देखना हो तो उसे वाल्मीकि रामायण का अध्ययन करना चाहिये। जिसमें कदम कदम पर धर्म की मर्यादा का पालन करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रयास करते दिखाई देते हैं। स्वामी दयानंद जी महाराज ने रामचंद्र जी के नाम के पहले मर्यादा पुरुषोत्तम और आप्त पुरुष जैसे विशेषण लगाकर यह बताने का प्रयास किया कि रामचंद्र जी ने धर्म की मर्यादा को बनाए रखने का हरसंभव प्रयास किया। स्वामी दयानंद जी महाराज कदाचित इसीलिए रामचंद्र जी के जीवन को एक धर्मात्मा का जीवन चरित्र मानते थे। स्वामी दयानंद जी ने जब आर्य समाज की स्थापना की तो उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र जी के शासनकाल में प्रचलित धर्म व संस्कृति को ही वर्तमान समय में स्थापित करने का प्रयास किया। इस प्रकार महात्मा गांधी से भी पहले स्वामी दयानंद जी महाराज ने राम राज्य की स्थापना की परिकल्पना की थी। यद्यपि गांधी जी ने भी रामराज्य की स्थापना का संकल्प लिया था , परन्तु उनका वह रामराज्य उनके अपने चरित्र के अनुरूप दोगला ही था। जबकि स्वामी दयानंद जी महाराज रामचंद्र जी के चारित्रिक स्तर पर मजबूत और वास्तविक वीरतापूर्ण कृत्यों को हमारे राष्ट्रीय जीवन का एक आवश्यक अंग बना देना चाहते थे। जबकि स्वामी दयानंद जी का राम कहीं से भी दोगला नहीं है, उनकी दृष्टि में राम हमारी शारीरिक, आत्मिक,आध्यात्मिक , सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक उन्नति का प्रतीक हैं । सर्वत्र हमारे लिए वंदनीय हैं। इसीलिए प्रत्येक आर्य समाज में आज भी यज्ञ हवन के पश्चात मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और योगीराज श्री कृष्ण जी की जय बोली जाती है।
महर्षि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "सत्यार्थ प्रकाश" में वैदिक धर्म व संस्कृति के उन्नयनार्थ बालक-बालिकाओं वा विद्यार्थियों के लिए जो पाठविधि दी है, उसमें उन्होंने वाल्मीकि रामायण को भी सम्मिलित किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छे–अच्छे प्रकरण जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तम सभ्यता प्राप्त हो, को काव्यरीति से अर्थात् पदच्छेद, पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें।’
स्वामी जी महाराज की इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि वह न तो रामचंद्र जी को काल्पनिक मानते हैं और न ही रामायण, कृष्ण और महाभारत को काल्पनिक मानते हैं। उनकी दृष्टि से यदि देखा जाए तो धर्मद्रोही, राष्ट्रद्रोही ,समाजद्रोही तत्वों के विनाश के लिए वह रामचन्द्र जी के आदर्श जीवन को भारत के राष्ट्रीय जीवन का एक आवश्यक अंग बना देना चाहते थे। उनकी यही सोच थी कि भारत का बच्चा-बच्चा राम बन जाए । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस कविता के माध्यम से भारत के बच्चे-बच्चे को राम के रूप में देखने के अपने दिव्य संकल्प को दोहराता है, वह वास्तव में स्वामी दयानन्द जी महाराज का ही चिंतन है। स्वामी जी महाराज के राम संबंधी चिंतन से प्रेरित होकर ही
रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा है :-
ऋषियों को भी सिद्धि तभी तप से मिलती है,
जब पहरे पर स्वयं, धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
आर्य विद्वान पं. भवानी प्रसाद जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के विषय में लिखा है कि ‘इस समय भारत के श्रृंखलाबद्ध इतिहास की अप्राप्यता में यदि भारतीय अपना मस्तक समुन्नत जातियों के समक्ष ऊंचा उठा कर चल सकते हैं, तो महात्मा राम के आदर्श चरित की विद्यमानता है। यदि प्राचीनतम ऐतिहासिक जाति होने का गौरव उनको प्राप्त है तो सूर्य कुल-कमल-दिवाकर राम की अनुकरणीय पावनी जीवनी की प्रस्तुति से। यदि भारताभिजनों को धर्मिक सत्यवक्ता, सत्यसन्ध, सभ्य और दृढ़व्रत होने का अभिमान है तो प्राचीन भारत के धर्म प्राण तथा गौरवसर्वस्व श्री राम के पवित्र चरित्र की विराजमानता से।’ पं. भवानी दयाल जी आगे लिखते हैं ‘यदि पूर्ण परिश्रम से संसार के समस्त स्मरणाीय जनों की जीवननियां एकत्र की जायें तो हम को उन में से किसी एक जीवनी में वह सर्वगुणराशि एकत्र न मिल सकेगी, जिस से सर्वगुणागार श्रीराम का जीवन भरपूर है। आज हमारे पास भगवान् रामचन्द्र का ही एक ऐसा आदर्श चरित्र उपस्थित है जो अन्य महात्माओं के बचे बचाये उपलब्ध चरित्रों से सर्वश्रेष्ठ और सब से बढ़कर शिक्षाप्रद है। वस्तुतः श्रीराम का जीवन सर्वमर्यादाओं का ऐसा उत्तम आदर्श है कि मर्यादा पुरुषोत्तम की उपाधि केवल उन के लिए रूढ़ हो गई है। जब किसी को सुराज्य का उदाहरण देना होता है तो ‘‘रामराज्य” का प्रयोग किया जाता है।’
यही चिंतन स्वामी जी का योगीराज श्रीकृष्ण जी के बारे में रहा है। उन्होंने कृष्ण जी को भी भारतीय क्षत्रिय धर्म परंपरा का सर्वोत्तम महापुरुष माना है। इसके विपरीत पौराणिक लोगों ने श्री कृष्ण जी को बहुत ही अश्लील ढंग से प्रस्तुत किया है। जिससे उनका वास्तविक पराक्रमी स्वरूप धूमिल सा हो गया है। इन लोगों ने रामचंद्र जी के साथ भी कम अन्याय नहीं किया है।
आज रामभद्राचार्य जी जिस प्रकार की बात कर रहे हैं, वह समय के अनुकूल नहीं है। क्योंकि आज सनातन में विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को साथ आकर काम करने की आवश्यकता है। अन्यथा विधर्मियों का कुचक्र हम सबको दलकर रख देगा। जिस समाज के सम्मानित लोग इस प्रकार का आचरण करते हैं, उसमें सामाजिक एकता और समरसता का भाव कभी पैदा नहीं हो सकता । जबकि सामाजिक एकता और समरसता का भाव पैदा करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। आर्य समाज की ओर से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वामी सच्चिदानंद जी महाराज जैसे संन्यासी इसी प्रकार का वंदनीय कार्य कर रहे हैं। उनका लक्ष्य सभी सनातनियों को एक मंच पर लाना है। ऐसी वंदनीय प्रयासों के मध्य रामभद्राचार्य जी के वक्तव्य से सारा आर्य जगत आहत है।
अच्छी बात यही होगी कि रामभद्राचार्य यथाशीघ्र स्वामी दयानंद जी के प्रति किए गए अपने पाप पूर्ण आचरण पर प्रायश्चित करें , जिससे आर्य समाज और पौराणिक लोगों के बीच किसी प्रकार का वैमनस्य उत्पन्न न हो। यदि वह ऐसा नहीं करते हैं तो फिर उन्हें आर्य जगत के विद्वानों की ओर से दी गई चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।
हमारी मान्यता है कि हमारी सांझा शक्ति उन राष्ट्रद्रोहियों के विरुद्ध खर्च होनी चाहिए जो सनातन को मिटा देना चाहते हैं। यदि उससे अलग हमारी शक्ति आपस में लड़ने झगड़ने, आरोप प्रत्यारोप लगाने में खर्च होती है तो माना जाएगा कि हमने इतिहास से शिक्षा नहीं ली है। इसके सबसे बड़े दोषी रामभद्राचार्य जी जैसे लोग ही होंगे। अच्छी बात यही होगी कि स्वामी दयानंद जी महाराज के सर्व समावेशी विशाल व्यक्तित्व को पौराणिक समाज समझे और सनातन के प्रति आर्य समाज की वास्तविक चिंतनधारा के साथ अपने आपको जोड़कर राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगे।
ध्यान रहे कि आर्य समाज पौराणिक जगत का धर्मबंधु ही नहीं है बल्कि भारत की वीर परंपरा का संवाहक होने के कारण उसका रक्षक भी है। अपने इसी पवित्र दायित्व का निर्वाह करते हुए आर्य समाज ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन में सबसे अधिक बलिदान देकर यह सिद्ध किया कि वह राम और कृष्ण का सच्चा अनुयाई है। आर्य समाज के लोगों को यह ऊर्जा अथवा शक्ति तभी प्राप्त हुई थी, जब उन्होंने इन दोनों महापुरुषों के चित्र की पूजा न करके चरित्र की पूजा की थी। इसके विपरीत जो लोग राम और कृष्ण को कमतर करके आंकते रहे, वह कितने ही मोर्चों पर कायरता का प्रदर्शन करते हुए मारे गए।
समय सच को सच के रूप में प्रतिस्थापित करने का है। समय सामने खड़े संकट को देखने का भी है और उन अनेक षडयंत्रों का भंडाफोड़ करने का भी है जो हमको आपस में लड़ाने की युक्तियां खोज रहे हैं। हमें आशा करनी चाहिए कि जिम्मेदार लोग अपनी बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए आगे आएंगे और जो कुछ हो चुका है , उसे सुधारने संवारने का काम करेंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं। )


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22 July, 2024

কঠোপনিষদ ১/৩/১৫

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              অশব্দমস্পর্শমরূপপমব্যয়ম্ তথাऽরসং নিত্যমগন্ধবচ্চ যৎ। 

অনাদ্যনন্তং মহতঃ পরং ধ্রুবং নিচ্যয্য তন্মৃত্যুমুখাৎ প্রমুচ্যতে।। কঠোপনিষদ-১/৩/১৫


পদার্থ-( যৎ) যিনি ( অশব্দম্) শব্দরহিত ( অশ্পর্শম্) স্পর্শ- রহিত ( অরূপম্) রূপরহিত ( অরসম্) রসরহিত ( চ) এবং (অগন্ধবৎ) গন্ধযুক্ত ব্যতীত ( তথা) তথা [ যিনি ] ( অব্যয়ম্) অবিনাশী ( নিত্যম্) নিত্য ( অনাদি) অনাদি ( অনন্তম্) অনন্ত [ অসীম ] ( মহতঃ পরম্) মহান আত্মা থেকে শ্রেষ্ঠ [ এবং ] ( ধ্রুবম্) সর্বথা সত্য তত্ত্ব ( তৎ) সেই পরমাত্মাকে ( নিচাস্য) জেনে [ মনুষ্য ] ( মৃত্যুমুখাত্) মৃত্যুর মুখ থেকে ( প্রমুচ্যতে) চিরকালের জন্য মুক্ত হয়।।
ভাবার্থ-পরমাত্মা শব্দরহিত, রূপরহিত,স্পর্শরহিত। তিনি অনাদি, অবিনাশী এবং অনন্ত। এই পরমাত্মাকে জেনেই মোক্ষ সম্ভব। এই প্রকার নিরাকার পরমাত্মাকে জানা ব্যতীত মোক্ষ সম্ভব নয়।। ( ভাষ্য-রাজবীর শাস্ত্রী)
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03 July, 2024

পুরাণের কৃষ্ণ

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 পুরা মহর্ষয়ঃ সর্বে দন্ডকারিণ্য বাসিনঃ। দুষ্টবা রামং হরিং তত্র ভোকু মিচ্ছেৎসুবিগ্রহম্ ॥ ১৬৪ ॥

তে সর্বে স্ত্রীত্বমাপন্নাঃ সমুদভূতান্ত্র গোকুলে।
হরিং সম্প্রাপ্য কামে ন ততো মুক্তা ভবার্ন বাত ॥ ১৬৫ ॥
(পদ্মপুরাণ উত্তর খন্ড অধ্যায় ২৪৫)
অর্থ- রামচন্দ্র দন্ডকারণ্য বনে উপস্থিত হলে তার সুন্দর স্বরূপ দেখে, সেখানকার নিবাসী সমস্ত ঋষি মুনি তাঁর সঙ্গে ভোগ করার কামনা করতে থাকে। সেই সমস্ত ঋষিরা দ্বাপরের শেষে গোকুলের গোপী হয়ে জন্মগ্রহণ করে এবং রামচন্দ্র কৃষ্ণ হলেন। তখন সেই সব গোপীরা সকলে মিলে কৃষ্ণকে ভোগ করল। এর ফলে গোপীরা মোক্ষপ্রাপ্ত হলো। নতুবা অন্যভাবে এই সংসাররূপী ভবসাগর থেকে তাদের মুক্তিও হত না।
সুতরাং পাঠকগণ এই গোপীগণ ভক্ত কোন দিক থেকে? তারা ইন্দ্রিয় নিয়ন্ত্রণই করতে পারলেন না ,সাধনা-তপস্যার কথা বাদই দিলাম। এরূপ ব্যক্তিগণ ঋষি কী করেই বা হন? এমনকি পুরুষ হয়ে পুরুষের প্রতি আকৃষ্ট হওয়া এবং কামভাব জাগ্রত হওয়া এমনই কি সনাতন ধর্মের মান্য ঋষিদের চরিত্র ছিল? হায় পৌরাণিক ভ্রাতা আমার!
তা বীয় মানাঃ প্রতিভিঃ পিতৃভিভ্রাতৃমিস্তয়া। কৃষ্ণ গোপালঙ্গনা রাত্রো রময়স্তি রতিপ্রিয়াঃ ॥ ৫৯।
সো অপিকৈশোর কবয়ো মানয়ন্মধুসূদন। রেমেতামি য়মোয়াত্মা ক্ষপাসু ক্ষাপিতা হিতঃ ॥ ৬০ ॥
(বিষ্ণু পুরাণ অংশ ৫ অধ্যায় ১৩)
অর্থাৎ-সেই সব গোপীরা নিজ পতি, পিতা ও ভাইদের নিষেধ সত্ত্বেও রোজ রাত্রিতে বিষয় ভোগ কামনাযুক্ত কৃষ্ণের সঙ্গে রমণ "ভোগ" করত। ৫৯।
সনাতন ধর্ম কবে থেকে নারীদের পরকীয়ায় উৎসাহিত করা শুরু করলো? বাড়ির লোকের কথা , বাঁধা মান্য না করে পরপুরুষের সাথে দেখা করতে বেরিয়ে যাওয়া শিক্ষা দেওয়া হচ্ছে পুরাণে।
কৃষ্ণও তার বিশোরাবস্থার মর্যাদা রক্ষা করে রাত্রিবেলা তাদের সঙ্গে কীভাবে রমণ করতেন এর স্পষ্ট প্রমাণ দেখুন-
এবং পরিস্বঙ্গ করামিমর্শ স্নিগ্ধে ক্ষণদ্দাম বিলাস হাসৈঃ রেমে রেমশো ব্রজ সুন্দরীভি যথার্ভকঃ প্রতিবিম্ব বিভ্রমঃ ॥ ১৭ ॥
অর্থাৎ- কৃষ্ণ কখনও তাদের শরীর নিজ হস্ত দিয়ে স্পর্শ করতেন, কখনও প্রেমপূর্ণতির্যক দৃষ্টি দিয়ে তাদের দিকে তাকাতেন, কখনও আনন্দবিহ্বল হয়ে তাদের সঙ্গে উন্মুক্ত হাস্য পরিহাস করতেন। যেমন বালক তন্ময় হয়ে নিজের ছায়ার সঙ্গে খেলা করে সেই রূপ আনন্দবিহ্বল হয়ে কৃষ্ণ সেই সব ব্রজ সুন্দরীদের সঙ্গে রমণ, কামক্রীড়া "বিষয় ভোগ" করেছেন। তারপর দেখুন-
কৃষ্ণ বিক্রীড়িতং বীক্ষ্য মুমুর্হঃ খেচর জিয়।
কামার্দিতাঃ শশাংঙ্কশ্চ সগণাং বিস্মিতো অভবৎ ॥ ১৯ ॥
কৃত্বা ভাবস্তমাত্তানং য়ারতীগোপয়োষিতঃ।
রেমে স ভগবাংস্তাভিরাত্মারামো অপি লীলয়া ॥২০ ॥ তামাংমতি বিহারেণ শ্রৌতানাং বদনানিসঃ।
প্রামৃজত করুণঃ প্রেমণাশংতমেনাংপাণিনা ॥ ২১ ॥
(ভাগবত, স্কন্দ ১০, অধ্যায় ৩৩)
অর্থ-কৃষ্ণের রাসের কামক্রীড়া দেখে দেবতাদের পত্নীরাও কামার্তা হয়ে গেলেন। কামদেবের উগ্র ইচ্ছা সঞ্চারিত হলে তাদের শরীর কামরসে আর্দ্র অর্থাৎ সিক্ত হয়ে গেল। চন্দ্র, তারা ও গ্রহ সহ হতভম্ব হয়ে গেল। যতজন গোপী ছিল কৃষ্ণ তত রূপ ধারন করে তাদের সঙ্গে রমণ করলেন। যখন রতি রমন করার ফলে তারা সকলে অত্যন্ত ক্লান্ত হয়ে গেল (এবং তাদের ঘাম বেরিয়ে এল) তখন কৃষ্ণ ভার কোমল হস্ত দ্বারা সেই সব প্রেমিকাদের (গোপীদের) মুখ মুছে দিলেন।
পাঠকদের প্রতি প্রশ্ন এখানে পুরাণের শ্রীকৃষ্ণ কী এমন করলেন যা দেখে অন্য স্ত্রীজন কামার্ত হয়ে গেলেন?
তারপর দেখুন-
নদ্যাঃ পুলিনমাবিশ্য গোপী মির্হিম বালুকম্।
রেমে তত্তরালানন্দ কুমুদামোহা বায়ুনাঃ ॥ ৪৫ ॥
বাহু প্রসার পরিরম্ভ কলারকোরু, নীবীস্তনালভননর্মনখাপ্রপাতৈঃ
দেল্যাবলোক হসিতৈব্রজ সুন্দরীণাং, সত্তম্ভয়ণ রতিপতি রময়াণ চকার ।। ৪৬।।
(ভাগবত স্কন্দ ১০ অধ্যায় ২৯)
অর্থ- কৃষ্ণ যমুনার কপূরসমান উজ্জ্বল বালুতটে গোপীদের নিয়ে উপস্থিত হলেন। এই স্থান জলতরঙ্গে শীতল ও কুমুদিনীর সুগন্ধে সুবাসিত ছিল। সেখানে কৃষ্ণ গোপীদের সঙ্গে রমণ (ভোগ) করলেন। বাহু বিস্তার করে আলিঙ্গন করা, গোপীদের হাতে চাপ দেওয়া, তাদের শিখা ধরা, উরুতে হস্তসঞ্চালন, সায়ার দড়ি ধরে টান দেওয়া, স্তন (ধরা), রসিকতা করা, নখ দিয়ে অঙ্গ ক্ষতবিক্ষত করা, বিনোদপূর্ণ তির্যক দৃষ্টি দিয়ে দেখা, ত্বং মৃদু হাসি হাসা এবং এই সব ক্রিয়া দআবরা নবযৌবনা গোপীদের মধ্যে কামদেবকে খুব জাগ্রহ করে তাদের সঙ্গে কৃষ্ণ রাতে রমন (বিষয় ভোগ) করলেন।
নৃত্যস্তী গায়তী কাচিৎ কুজনুপুর মেখলা। পার্শ্বস্থাচুয্যত হস্তাজং শ্রান্তাধাৎ স্তনয়ো শিবম।
(ভাগবত স্কন্দ ১০, অধ্যায় ৩৩, শ্লোক ১৪)
অর্থ-কোন গোপী নূপুর ও মেখলার ঘুঙুরে ঝঙ্কার তুলে নৃত্য ও গান করছিল। অত্যন্ত ক্লান্ত হয়ে গেলে, পাশ্ববর্তী দন্ডায়মান শ্যাম সুন্দর কৃষ্ণের শীতল করকমল নিজের স্তনের উপর রাখল (অর্থাৎ বক্ষ মর্দন করিয়ে ক্লান্তি দূর করল)।
এসব কী করে সম্ভব হলো? কেননা
তমেব পরমাত্মনং জার বুদ্ধিয়াপি সংগতা
(ভাগবত স্কন্দ ১০, অ০ ২৯, শ্লোক ১১)
অর্থাৎ- শুধু এ কথা নয় যে, রতি যুদ্ধ বিশারদ কৃষ্ণের গোপীদের প্রতি এমন ভাব ছিল বরং গোপীদেরও কৃষ্ণের প্রতি ব্যভিচার ভাব ছিল।
পাঠকগণ খেয়াল করুন। রাসলীলা সম্পর্কিত যে তথ্য আপনারা দেখলেন সেথায় আধ্যাত্মিকতা কোথায়? জীবাত্মা-পরমাত্মার মিলন বলে ভাগবত পাঠকেরা যা আপনাকে শোনায় না তা আজ নিজ চোখ দ্বারা পড়লেন।
পৌরাণিক ভ্রাতাগণ বলে থাকেন ঈশ্বর দুষ্টের দমন শিষ্টের পালন ও ধর্ম পুনঃস্থাপনের হেতু অবতার হন।
বর্তমান পৌরাণিক সনাতন ধর্মে রাম ও কৃষ্ণকে বিষ্ণুর অবতার মানা হয়েছে। কিন্তু পুরাণ অনুসারে বিষ্ণুর অবতার এই পৃথিবীর উপরে ব্যভিচারের জন্য হয়ে থাকে। পুরাণ অনুসারে কৃষ্ণ রূপে বিষ্ণু কেবল তার ব্যভিচার চরিতার্থ করার জন্য এসেছিলেন। নিম্ন প্রমাণ দ্বারা এটি স্পষ্ট। দেখুন-
ভাতৃণাং দৈত্য মুখ্যানাং হতানাং দারুণে যুধি।
জিয়ো জ্বত্বা তু পতালে চিক্রীড় চ মুমোদ চ
ত্রেতাযুগে রামরূপি বিষ্ণু সমপ্রাপ্যে জানকী।
নো তৃপ্তঃ স্ত্রী বিলাসানাং বিত্তস্য চ সুতস্য চ ।
রৈব সংপ্রেক্ষণাশ্চাপি প্রোষিতস্য জিয়ামপি।
তন্মাৎ কলিযুগে ভূমৌ গ্রহীত্বা জন্ম কেশব ।
বাসুদেবস্য দেবক্যা মথুরায়াং মহাবলঃ।
বালন্ত গোপ কন্যাভির্বনে ক্রীড়া চকার সঃ ॥
দশ লক্ষাণি পুত্রানাং গোপালনং সসর্জ হ।
ততস্ত যোবনা ক্রাঁতো রুক্মিনী প্রদদর্শ হ ॥
বিবাহয়িত্বা পুত্রাংশ চ প্রদ্যুস্না দদান্ড নিয়মে।
তথাপি নরক দৈত্যং প্রাগজ্যোতিষমতিং বলাৎ।।
জত্বা স্ত্রীনাং সহস্রাণি ষোড়শৈব জহার সঃ।
তলাং রতি ফলং ভুক্তা পুত্রাণাং নবতিং তথা।।
সহস্রাণি সসর্জাসু ম॥স্যে চাদৈ মহাদভূতম।
স্ত্রীণাং তথাপি নো তৃণ্ডো দিব্যাণাং তুরে তেয়দা।
তথঃ রাধা ম্রিয়ং কাচিন্ন ধৈর্যা দধর্ষয়ৎ।
তথাপি পরনারীণাং লম্বপটো নিত্যমেবহি॥
(শিবপুরান ধর্ম সংহিতা অধ্যায় ১০)
অর্থ- ভগবান বিষ্ণু রাক্ষসদেরকে বধ করে তাদের স্ত্রীদের পাতালে নিয়ে গেলেন তথা তাদের সঙ্গে ক্রীড়া করলেন এবং পরিহাস করলেন। ত্রেতা যুগে রাম জন্মগ্রহণ করে জানকীকে বিয়ে করলেন। কিন্তু স্ত্রী বিলাসে তৃপ্ত হতেন না এবং বনে যাওয়ার কারণে গর্ভাধানও যথেষ্ট হতে পারেনি। এইজন্য কলিযুগের প্রারম্ভেই কৃষ্ণ অবতার ধারণ করে কিশোরাবস্থায় গোপীদের সঙ্গে ক্রীড়া (ভোগ) করে দশ লক্ষ পুত্র উৎপন্ন করলেন তবুও স্ত্রী ভোগে তৃপ্তি না হয়ে যুবাবস্থায় রুক্মিনীসহ বিবাহ করে পুদ্যুন্মাদি সন্তান উৎপন্ন করলেন। তবুও তৃপ্ত না হয়ে প্রাগজ্যোতিষের রাজা নরককে হত্যা করে ষোল হাজার নারী এনে তাদের সঙ্গে ভোগ করে নব্বই হাজার পুত্র উৎপন্ন করলেন। তবুও তৃপ্তি হলো না তাই রাধা নামক মহিলাকে ধরে আনলেন। এতো স্ত্রী ভোগ করা সত্ত্বেও ভগবান নিত্যই নারীভোগী লম্পট হয়ে গেলেন।
এই প্রমাণ দ্বারা স্পষ্ট যে, পুরাণানুযায়ী বিষ্ণুর অবতার কৃষ্ণ কেবল নারীদের সঙ্গে ব্যাভিচার করার জন্য হয়েছিল। গোপীদের সঙ্গে রাত্রে ক্রীড়া করা তাদের বক্ষ দলন করা, তাদের সায়ার দড়ি খোলা, তাদের মধ্যে কামভাব জাগ্রত করে তাদেরকে ভোগ করা এবং দশ লক্ষ পুত্র সেই গোয়ালিনীদের দ্বারা বনে উৎপন্ন করা, যোল হাজার নারী দুষ্কর্ম করার জন্য ধরে আনা এবং বিষয় ভোগ দ্বারা এক লক্ষ আশি হাজার পুত্র উৎপন্ন করার কী প্রয়োজন থাকতে পারে? ক্রীড়া, বিহার, লাম্পট্য, রতিফল ইত্যাদি শব্দের অর্থ স্পষ্ট রূপে কেবল বিষয় ভোগ করাই বুঝায়। কৃষ্ণের বিশেষণ নারীভোগী শিখামণি অর্থাৎ ব্যভিচারীদের শিরোমণি পুরাণে থাকায় শত প্রতিশত সত্য মাধবাচার্যের গণনাই বা কী, ভারতের সমস্ত পৌরাণিক পন্ডিত এক জোট হয়েও এর অন্যরকম অর্থ করতে পারেন না। এটা আমরা দৃঢ়তার সঙ্গে বলতে পারি।

"একদা কৃষ্ণ সহিতো নন্দৌ বৃন্দাবনং য়য়ৌ। এতস্মিন্নংতরে রাধাজগাম কৃষ্ণ সন্নিধিম্।। তমুবাচ হরিস্তত্র স্মেরণন সরোরুহাম্। আগচ্ছশয়নে সাব্বি কুরুবক্ষঃ স্থলেহিমাম্।। তিষ্ঠত্যহং শয়ানস্ত্রং কথাভিয়ৎক্ষণ গতম্। বক্ষস্থলে চ শিরে দেহিতে চরণাম্বুজম্।। প্রণম্য শ্রীহরিং ভক্তয়া ডাগাম শয়নং হরে। কৃষ্ণ চর্বিত তাম্বলং রাধিকায়ৈ মুদাদদৌ।। রাধা চর্বিত তাম্বুলং য়য়াচে মধুসূদনঃ। করেবৃত্ব চ মাং কৃষ্ণস্থাপয়ামাস বক্ষসি। চকার সিখিল বস্ত্রং চুম্বনং চ চতুর্বিধম্। বড়ব রতি যুদ্ধেন বিচ্ছন্ন ক্ষুদ্রঘটিকা।। চুম্বনেনৌষ্ঠ রাগশ্চং হ্যাশ্লেষণ চ পত্রকম্। পুলকাংকিত সর্বাঙ্গী বড়ব নব সঙ্গমাৎ।। মুছামবাপ সারাবুবধে ন দিবানিশম্। প্রত্যগেনের প্রত্যঙ্গমগেতাঙ্গ সমাশ্লিষৎ।। শঙ্গারষ্টবিধং কৃষ্ণশ্চকার কাম শাস্ত্রবিৎ। পুনস্তাং চ সমশ্লিষ্যসস্মিতাং বক্রলোচনাম্।। ক্ষতিবিক্ষত সর্বাংগী নখ দন্তৈশ্যকার হ। বড়বশব্দস্তত্রৈব শৃঙ্গার সমরোদবঃ ।। নির্জনে কৌতুকোৎ কৃষ্ণঃ কামশাস্ত্রবিশারদঃ। নিবতে কাম যুদ্ধে চ সম্মিতা বজ্রলোচনা। নিত্য নক্তং রতি তত্র চকার হরিণা সহ।। "
(ব্রহ্মবৈবর্ত পুরাণ কৃষ্ণ জন্ম খন্ড অ০ ১৫)।
অর্থ:- একদিন কৃষ্ণ নন্দ সহ বৃন্দাবন গেলেন। এর মধ্যে রাধা কৃষ্ণের কাছে এসে গেল। সেই কমলমুখীকে কৃষ্ণ বললেনহে প্রিয়া। পালঙ্কের উপর বসো, আমাকে পার্শ্বে স্থান দাও। তিনি বললেন- আমি বসে আছি কিন্তু আপনি শায়ান আছেন, ব্যর্থসময় নষ্ট হচ্ছে। আমার পার্শ্বদেশে এবং শিরে চরণ অর্পণ কর। রাধা কৃষ্ণকে প্রণাম করে কৃষ্ণের পালঙ্কে শয়ন করল। কৃষ্ণ তাঁর চর্বিত পান রাধাকে দিলেন এবং রাধার চর্বিত পান কৃষ্ণ যাঞ্চা করলেন। কৃষ্ণ রাধার হস্ত ধারণ করে পার্শ্বদেশে বসালেন। তাঁর বস্ত্র শিথিল করে দিলেন এবং চার প্রকারে চুম্বন করলেন। রতিযুদ্ধে এক ঘন্টা ব্যতীত হলো। চুম্বনের ফলে রাধার ওষ্ঠের রং এবং অলিঙ্গনের ফলে মেখলা নষ্ট হয়ে গেল। নব সমাগমে রাধা রোমাঞ্চিত হয়ে পড়লো। তার ফলে রাধা মূর্ছিত হয়ে যায় এবং দিন-রাত অজ্ঞান অবস্থায় থাকে। উভয়ের অঙ্গের সঙ্গে অঙ্গ এবং প্রত্যঙ্গের সঙ্গে প্রত্যঙ্গ আবিষ্ট হলো। কামশাস্ত্র বিশেষজ্ঞ কৃষ্ণ আট প্রকারে তাঁকে ভোগ করলেন। তারপর আলিঙ্গনাবদ্ধ হয়ে তির্যক দৃষ্টি যুক্ত মৃদু হাস্যরতা রাধাকে নখ ও দন্ত, দিয়ে ক্ষতবিক্ষত করে দিলেন। কামভোগ সংঘর্ষে অত্যন্ত শব্দ হলো। কামযুদ্ধের সমাপ্তিতে তির্যক দৃষ্টিযুক্তন রাধা মৃদুমন্দ হাস্য করতে থাকে। সেই রাধা রাত্রে সর্বদা কৃষ্ণের সঙ্গে ভোগ করতেন।। এই হলো পুরাণের নোংরা কোক্ শাস্ত্র।
রাধা কৃষ্ণের বাম অঙ্গ থেকে উৎপন্ন হয়েছিল। রাধার সঙ্গে কৃষ্ণের ব্যভিচারিক সম্পর্ক ছিল, ব্রহ্ম বৈবর্ত পুরাণ মান্যকারীকে একথা স্বীকার করতেই হবে।
রাধা একজন নারী ছিল, কৃষ্ণ তাঁকে ব্যভিচার হেতু ধরে আনেন। একথা শিবপুরাণে উল্লেখিত প্রমাণ দ্বারা প্রতিপন্ন হয়।
কৃষ্ণের সঙ্গে গোপীদের ব্যভিচারিক সম্পর্ক ছিল একথা বিষ্ণুপুরাণ ভাগবত ও শিবপুরাণ দ্বারা স্পষ্ট হয়।
পৌরাণিক পন্থাবলম্বী পন্ডিত সমস্ত ভূমণ্ডলে এক জনও এমন নেই যিনি উপরের প্রমাণগুলি খন্ডন করতে পারেন। পৌরাণিকরা তাঁদের পুরাণের নোংরা নমুনা দেখুন ও লজ্জিত হোন।

শ্রীকৃষ্ণ সম্বন্ধে পুরাণের গোলোকের একটা ঘটনা লিখিত আছে এবং বলা হয়েছে যে, তাঁর অবতার নেওয়ার কারণও লোক কল্যাণ ছিলো না। এক দিন গোলোকে রাধিকা তাঁকে কোন নারীরই সহিত দুষ্কর্ম করতে ধরে ফেলে, তখন রাধা অভিশাপ দিলেন।তিনি বললেন -
হে কৃষ্ণ বৃজকান্ত। গচ্ছ মহৎ পুরতো হরে।
কথং দুনোষিমাং লোলং রতি চৌর অতি লম্পট ॥ ৫৮ ॥ ময়াজাতো অসি ভদ্র তে গচ্ছ-গছ মমাশ্রমাৎ ॥ ৬০ ॥
শাশ্বতে মনুষ্যাণাং চ ব্যবহারস্য লম্পট।
লভতাং মানুষী য়ৌনি গোলোকাস্ ব্রজ ভারতম্ ॥ ৬১ ॥ হে সুশীলে, হে শশিকালে, হে পদ্মাবতী মাধবী।
নিবার্য তাচ্চধুর্তো য় কিমস্যাত্র প্রয়োজনম্ ॥ ৬২॥
(ব্রহ্মবৈবর্ত পুরাণ কৃষ্ণ জন্ম খন্ড অ ০৩)
অর্থাৎ- হে কৃষ্ণ, ব্রজের প্রিয়, তুমি আমার সামনে থেকে চলে যাও, আমাকে কেন দুঃখ দিচ্ছ?-হে চঞ্চল, হে অতি লম্পট, ফাঁকিবাজ আমি তোমাকে জেনে নিয়েছি। তুমি আমার ঘর থেকে চলে যাও। তুমি মনুষ্যের মতো মৈথুন করায় লম্পট, তুমি মনুষ্য যোনি প্রাপ্ত হও, তুমি গোলোক থেকে ভারত চলে যাও। হে সুশীলে, হে শশিকালে, হে পদ্মাবতি, হে মাধাবগণ! এই কৃষ্ণ ধূর্ত, একে বের করে দাও, এখানে এর কোন কাজ নেই।
এই প্রকার কৃষ্ণের গোলোকের পত্নী রাধা কৃষ্ণের ব্যভিচার ধরে ফেলে এবং গোলোকবাসিনী স্ত্রীদের দ্বারা ধাক্কা দিয়ে সেখান থেকে বের করে দেন এবং ব্যভিচার কামনা পূর্ণ করার শাপ দিয়ে ভারতে জন্ম নিতে বলেন। এখানে এসেও এই পৌরাণিক মহাশয় সেই কুকর্ম করলেন যার জন্য ইনি এখানে এসেছিলেন।
পাঠকগণ গীতার দুষ্টের দমন,শিষ্টের পালন ও ধর্ম পুনঃস্থাপনের কোনো প্রসঙ্গ কি এখানে দেখতে পাচ্ছেন? গীতার বাণী কে বুড়ো আঙুল দেখিয়ে নিজের এক আলাদা জগৎ নির্মাণ করতে সক্ষম হয়েছে পুরাণ।
শ্রীকৃষ্ণ বলেছেন তাঁর জন্ম দিব্য। বৈদিকগণ তাঁকে মুক্তপুরুষ বলেন। মুক্তআত্মা নিজ সংকল্প মাত্র পুনরায় দেহ ধারণ করতে পারেন জন্ম দ্বারা। এই সেই দিব্য জন্মের তত্ত্ব। কিন্তু পৌরাণিক ভ্রাতাদের তত্ত্বে দেখতে পাচ্ছি কাম চরিতার্থ করতে, ব্যভিচার করতে ধরা পরে শ্রীকৃষ্ণ পৃথিবীতে জন্ম নিলেন। চলুন দেখি পুরাণ আর কীভাবে কালিমা লেপন করলো শ্রীকৃষ্ণের চরিত্রে।
কুজাসহ কৃষ্ণের রমন:
বিদ্রাঁচলেভে সা কুজা নিদ্রোশোপি রয়ৌ মদা।
বোধয়া মাস তাং কৃষ্ণো ন দাসীচাপি নিদ্রিতাঃ ॥
ত্যজ নিদ্রাং মহাভাগে শৃঙ্গারং দেহি সুন্দরি।
ইত্যুক্তা শ্রীনিবাচ্চ কৃত্বা তামেব বক্ষসি ॥
নগ্নাং চ কার শৃঙ্গারং চুম্বনং চাপি কামুকীম্।
সা সম্মিতা চ শ্রীকৃষ্ণ সব সঙ্গম লজ্জিতা ॥
চুবুম্ব গংড়ে ক্রীড়ে তাং চকার কমলাং য়থা।
সুরতে বিরনিস্তি দম্পতি রতি পন্ডিতৌ
নানা প্রকার সুরতে বভুবতত্র নারদ।
স্তন শ্রোণি যুগ্ম তস্যা বিক্ষতস্য চকারহঃ ॥
ভগবান্নখৈস্তীছুনৈঃ দশনৈরধরং বরম্ ।
নিশাবসান সময়ে বীয়াধ নং চকার সঃ ॥
সুখ সম্ভোগ ভোগেন মুর্ছামাপ চ সুন্দরী। ভগবানাপিতত্রৈব ক্ষণং স্থিতা স্বমন্দিরম্ ॥
জগাম য়ত্র নন্দস্য সামন্দৌ নন্দ নন্দনঃ।
(ব্রহ্মবৈবর্ত পুরাণ কৃষ্ণ জন্ম খণ্ড ৭২)
অর্থ- সেই কুজা নিদ্রামগ্ন হলো এবং নিদ্রাপতি কৃষ্ণও সেখানে প্রসন্নচিত্তে গমন করল। শ্রীকৃষ্ণ কুজাকে জাগালেন। সুপ্ত দাসীদেরকে জাগালেন না। কৃষ্ণ বললেন, 'হে মহাভাগ্যশালিনী। শৃঙ্গার দান কর। এই বলে কৃষ্ণ কুজাকে কোলে করে চুম্বন রেলেন এবং সেই কামুকীকে উল্লঙ্গ করে ভোগ করতে লাগলেনন। এই সমাগমে সে লজ্জিত হয়ে মৃদু হেসে কৃষ্ণকে নগ্ন কারে চুম্বন করতে থাকে তখন কৃষ্ণ তার কপোল চুম্বন করে লক্ষ্মীর মতো কোলে বসালেন। কেননা উভয়ে কাম ভোগ করতে চতুর, এই জন্য কামভোগের অন্তই হচ্ছিল না। হে নারদ। সেখানে নানা প্রকারে কামভোগ করা হলো। ভগবান কৃষ্ণ তার স্তনকে নখ দ্বারা ক্ষতবিক্ষত করে দিলেন এবং দাঁত দিয়ে তার ওষ্ঠ কর্তন করলেন। সেই রাতে কৃষ্ণ অবশেষে শুক্রাধান করে দিলেন। সুখ সম্ভোগের ফলে সেই সুন্দরী মুচ্ছিত হয়ে গেল। ভগবান কৃষ্ণও সেখানে অল্পক্ষণ বিশ্রাম করে নিজ গৃহে প্রস্থান করলেন, যেখানে নন্দ সানন্দে অবস্থান করছিলেন।
সাক্ষাজ্জার গোপীনাং দুষ্ট পর লম্পটঃ ॥৬১।
আগত্য মথুরা কুজাং জাঘান মৈথুনের চ॥ ৬২।
(ব্রহ্মবৈবর্ত পুরাণ কৃষ্ণ জন্মখন্ড উত্তরার্ধ অধ্যায় ১১৫)
অর্থ- কৃষ্ণ গোপীদের জার (ব্যাভিচারী) দুষ্ট, অত্যন্ত লম্পট ছিলেন। মথুরায় এসে তিনি অতি মৈথুন করে কুজাকে মেরে ফেললেন।
অসাধারণ ভগবত তত্ত্ব তাই না? শ্রীকৃষ্ণ কে ধ*র্ষক হিসেবে উপস্থাপন করলো পুরাণ।
পৌরাণিক ভ্রাতাদের রাধা-কৃষ্ণের প্রেম নিয়ে ব্যখ্যা বিশ্লেষণের শেষ নেই। রাধাকৃষ্ণের প্রেম নাকি শুদ্ধ প্রেম (পরকীয়া প্রেম আবার শুদ্ধ), আজকালকার জেনারেশনের নোংরা প্রেম নয়। চলুন এই রাধা-কৃষ্ণের প্রেমের উৎস ব্রহ্মবৈবর্ত পুরাণ থেকে দেখি সেটা কি আদৌ বর্তমান জেনারেশনের চেয়ে উত্তম কিনা।
একদা কৃষ্ণ সহিতো নন্দৌ বৃন্দাবনং রয়ৌ। এতস্মিন্নংতরে রাধাজগাম কৃষ্ণ সন্নিধিম্ ॥
তমুবাচ হরিস্তত্র স্মেরাণম সরোরুহাম্। আগচ্ছশয়নে সাব্বি কুরুবক্ষঃ স্থলোহিমাম্ ॥
তিষ্টত্যহং শয়ানস্তং কথাভিয়ৎক্ষণ গতম্ ॥
বক্ষস্থলে চ শিরে দেহিতে চরণাম্বুজম্ ॥
প্রণম্য শ্রীহরিং ভক্তয়া জগাম শয়নং হরে।
কৃষ্ণ চর্বিত তাম্বুলং রাধিকায়ৈ মুদাদদৌ ॥
রাধা চর্বিত তাম্বুলং য়য়াচে মধুসুদনঃ।
কবেধূত্বা চ মাং কৃষ্ণস্থাপয়ামাস বক্ষসি।
চকার সিথিল বস্ত্রং চুম্বনং চ চতর্বিধম।
বভুব রতি যুদ্ধেন বিচ্ছন্না ক্ষুদ্রঘন্টিকা ॥
চুম্বনেনৌষ্ঠ রাগশ্চং হ্যাশ্লেষণ চ পত্রকম্।
পুরকাংকিত সর্বাঙ্গী বভুব নব সঙ্গমাৎ।
মুর্ছামবাপ সারাধাবুবধে ন দিবানিশম্ ॥
প্রত্যগেনেব প্রত্যঙ্গমগেতাঙ্গ সমাশ্লিষৎ ॥
শৃঙ্গরষ্টবিধং কৃষ্ণশ্চকার কাম শাস্ত্রবিৎ।
পুনস্তাং চ সমশ্লিষ্যসম্মিতাংবক্রলোচনাম।
ক্ষতবিক্ষত সর্বাংগী নখ দন্তেশ্যকার হ।
বহুবশব্দস্তত্রৈব শৃঙ্গার সমরোদ্বঃ ॥
নির্জনে কৌতুকাৎ কৃষ্ণঃ কামশাস্তবিশারদঃ।
নিবতে কাম যুদ্ধে চ সম্মিতা বক্রলোচনা।
নিত্য নক্তং রতি তত্র চকার হরিণা সহ ॥
(ব্রহ্মবৈবর্ত পুরাণ, কৃষ্ণ জন্মখণ্ড, অধ্যায় ১৫)
অর্থঃ‌ একদিন কৃষ্ণ নন্দসহ বৃন্দাবনে গেলেন। এর মধ্যে রাধা কৃষ্ণের কাছে এসে গেল। সেই কমলমুখীকে কৃষ্ণ বললেন-হে প্রিয়া। পালঙ্কের উপর বসো, আমাকে পার্শ্বে স্থান দাও। তিনি বললেন-আমি বসে আছি কিন্তু আপনি শায়ান আছেন, ব্যর্থ সময় নষ্ট হচ্ছে। আমার পার্শ্বদেশে এবং শিরে চরণ অর্পণ কর। রাধা কৃষ্ণকে প্রণাম করে কৃষ্ণের পালঙ্কে শয়ন করল। কৃষ্ণ তাঁর চর্বিত পান রাধাকে দিলেন এবং রাধার চর্বিত পান কৃষ্ণ যাঞ্চা করলেন। কৃষ্ণ রাধার হস্ত ধারণ করে পার্শ্বদেশে বসালেন। তাঁর বস্ত্র শিথিল করে দিলেন এবং চার প্রকারে চুম্বন করলেন। রতিযুদ্ধে এক ঘণ্টা ব্যতীত হলো। চুম্বনের ফলে রাধার ওষ্ঠের রং এবং আলিঙ্গনের ফলে মেখলা নষ্ট হয়ে গেল। নব সমাগমে রাধা রোমাঞ্চিত হয়ে পড়ল। তার ফলে রাধা মুর্ছিত হয়ে যায় এবং দিন রাত অজ্ঞান অবস্থায় থাকে। উভয়ের অঙ্গের সঙ্গে অঙ্গ এবং প্রত্যঙ্গের সগে প্রত্যঙ্গ আবিষ্ট হলো। কামশাস্ত্র বিশেষজ্ঞ কৃষ্ণ আট প্রকারে তাঁকে ভোগ করলেন। তারপর আলিঙ্গনাবদ্ধ হয়ে তির্যক দৃষ্টি যুক্ত। মৃদ্যু হাস্য রতা রাধাকে নখ ও দন্ত দিয়ে ক্ষতবিক্ষত করে দিলেন। কামভোগ সংঘর্ষে অত্যন্ত শব্দ হলো। কামযুদ্ধের সমাপ্তিতে তির্যক দৃষ্টিযুক্তা রাধা মৃদুমন্দ হাস্য করতে থাকে। সেই রাধা রাত্রে সর্বদা কৃষ্ণের সঙ্গে ভোগ করতেন।
এই হলো পৌরাণিক ভ্রাতাগণের ঈশ্বরতত্ত্ব। শ্রীকৃষ্ণ কে
কামশাস্ত্র বিশারদ বললো পুরাণ তবে এতে আমার পৌরাণিক ভ্রাতাদের আপত্তি নেই। কিন্তু শ্রীকৃষ্ণ কে যোগীপুরুষ বলায় কুরুক্ষেত্রের যুদ্ধ হওয়ার উপক্রম হয়। শ্রীকৃষ্ণ ঈশ্বর তাই তিনি ব্যভিচার করতে পারেন তাঁর কাছে এসব ব্যাপার না, এমন হাস্যকর যুক্তি আমার পৌরাণিক ভ্রাতাগণ দেখিয়ে থাকেন।
আমার দায়িত্ব শুধু এইটুকুই ছিলো আপনাদের সামনে কিছু তথ্য তুলে ধরা। এরপর আপনার বিবেচনা করবেন।

যজুর্বেদের একটি মন্ত্রে বিষ্ণুর বামন অবতারের বর্ণনা পেয়ে পৌরাণিকগন অবতারবাদের প্রচার করে থাকেন। কিন্তু বাস্তবে এই মন্ত্রে পরমাত্মা দ্বারা তিন প্রকারের জগত নির্মাণ করে অন্তরীক্ষে স্থির রাখার বৈজ্ঞানিক তথ্য নিরূপণ করা হয়েছে। এই মন্ত্রের ভাষ্য করতে গিয়ে মহীধর আচার্য বলেছে যে, "ত্রিবিক্রম" অর্থাৎ বামন অবতারকে ধারণ করে জগতকে রচনা করেছে" --এই কথাটি হলো সর্বদা মিথ্যা।
মন্ত্রটি হল-----
" ইদং বিষ্ণুর্বিচক্রমে ত্রেধা নিদধে পদম্। সমূঢমস্য পাংসুরে স্বাহা।। --- (যজু৫/১৫)
মন্ত্রটির পদার্থঃ ---
(বিষ্ণু) যিনি সবার মধ্যে ব্যাপক জগদীশ্বর যা-কিছু (ইদম্) এই জগৎটাকে রচনা করার সময় প্রত্যেক্ষ অপ্রত্যক্ষ তিন প্রকারের জগতকে (নিদধে) ধারণ করে। (অস্য) এই প্রকাশবান, প্রকাশরহিত এবং অদৃশ্য তিন প্রকারের পরমাণু আদির রূপ (স্বাহা) ভালোভাবে দেখানোর যোগ্য জগতের নির্মাণ করে (সমূঢম্) ভালোভাবে বিচার করে বলার যোগ্য অদৃশ্য (পদম্) জগত্কে (পাংসুরে) অন্তরীক্ষে স্থাপিত করে, তাই সব মানুষের দ্বারা এই বিষ্ণু পরমেশ্বর উত্তমরূপে সেবনের যোগ্য।
ভাবার্থঃ গ্রন্থকার লিখেছেন,--- পরমেশ্বর যে প্রথম প্রকাশবান সূর্যাদি, দ্বিতীয় প্রকাশরোহিত পৃথিবী আদি, এবং তৃতীয় পরমাণু আদি, অদৃশ্য জগত আছে, সে সমস্তকে কারণ থেকে কার্য রূপে রচনা করে অন্তরীক্ষে স্থাপন করেছেন। তাদের মধ্যে ঔষধি আদি পৃথিবীতে, প্রকাশ আদি সূর্যলোকে এবং পরমাণু আদি আকাশে এবং সমস্ত জগত্কে প্রানগুলোর মস্তকে স্থাপিত করেছেন।
নিরুক্তকারের নির্বচনে যে "গয়" -- শব্দটি গ্রহণ হয়েছে, শতপথ ব্রাহ্মণ তার অর্থ 'প্রাণ' করেছেন।
এখন আমরা নিরুক্তকারের নির্বচনটি দেখলে বুঝতে পারব যে তিনিও এই মন্ত্রে বামন অবতারের উল্লেখ করেননি। য়াস্কাচার্য লিখেছেন--- " য়দিদং কিংচ তদ্বিক্রমতে বিষ্ণুঃ, ত্রিধা নিধত্তে পদং পৃথিব্যামন্তরিক্ষে দিবীতি শাকপূণিঃ সমারোহণে বিষ্ণুপদে গয়শিরসীত্যৌর্ণবাভঃ। সমূঢমস্য পাংসুরে প্যায়নেন্তরিক্ষে পদং ন দৃশ্যতে, অপি বোপমার্থে স্যাত্ সমূঢমস্য পাংসুল ইব পদং ন দৃশ্যত ইতি। পাংসবঃ সূয়ন্ত ইতি বা পন্নাঃ শেরত ইতি বা, পিংশনীয়া ভবন্তীতি বা।" --- (নিরুক্ত ১২/১৯)
মন্ত্রটির আধিদৈবিক অর্থ হয়---
বিষ্ণু= মধ্যকালীন সূর্য; 'বিষ্লৃ ব্যপ্তৌ' 'নু' প্রত্যয় কিদ্ ভাবে ( উণাদি ৩/৩৯)। মধ্যকালীন আদিত্যের প্রকাশ সর্বত্র ব্যপ্ত হয় এবং সর্বত্র প্রবিষ্ট হয়। বিচক্রমে= বিক্রমতে; বিষ্ণুপদ= অন্তরীক্ষ মধ্য, যার মধ্যে মধ্যাহ্নকালীন আদিত্যের স্থিতি হয়। এবং বিষ্ণুপদের মুখ্য অর্থ যদ্যপি অন্তরীক্ষ মধ্য হয়; কিন্তু সামান্যতঃ অন্তরিক্ষের জন্য প্রয়োগ হয়। "গয়শিরম্" = ঘরগুলোর ছাদ, নিঘন্টুতে "গয়"-পদটি গৃহবাচী পঠিত হয়। মধ্যাহ্নে আদিত্য সম্পূর্ণ ঘরের ঠিক উপরে দেদীপ্যমান হয়।
অর্থ-- (ইদং বিষ্ণুর্বিচক্রমে) এই মধ্যাহ্নকালীন সূর্য, এই ভূতলে যা কিছুই আছে, সেই সকলের মধ্যে (বিচক্রম) দর্শায়। অর্থাৎ ভূমির প্রত্যেক পদার্থকে সম্পূর্ণভাবে তপায়। ( ত্রেধা নিদধে পদং ) এটি পৃথিবীতে, অন্তরীক্ষে, দ্যুলোকে--এবং তিনটি প্রকারে প্রকাশ কিরণকে ধারন করে। অর্থাত্ এই আদিত্য উপর্যুক্ত তিনটি লোককে পূর্ণভাবে প্রকাশিত করে। ( অস্য পাংসুরে সমূঢম্) এই আদিত্যের একটি কিরণ অন্তরীক্ষে গুপ্ত আছে, অর্থাত্ দৃষ্টিগোচর হয় না।
এর দ্বারা স্পষ্টই যে, অবতারবাদি পৌরাণিকরা নিজেদের ইষ্ট অবতারকে বেদসম্মত প্রমাণিত করার উদ্দেশ্যে বেদমন্ত্রের অনর্থ করার প্রচুর চেষ্টা করেছিল এবং আজও করছে। আমাদের এইসমস্ত সাম্প্রদায়িক বেদভাষ্য থেকে সাবধান থাকতে হবে।
উপনিষদে অবতারবাদের নিষেধ---
দিব্যো হ্যমূর্তঃ পুরুষঃ স বাহ্যাভ্যান্তরো হ্যজঃ।
অপ্রাণো হ্যমনাঃ শুভ্রো হ্যক্ষরাত্ পরতঃ পরঃ।।
---- (মুণ্ডক ২/১/২)
সেই পরমেশ্বর অমূর্ত; ভেতরে বাইরে ব্যাপ্ত, অজন্মা, প্রাণরহিত, মনরহিত এবং শুদ্ধ হন। তথাকথিত অবতারের এই গুণগুলো নেই।
বেদাহমেতং অজরং পুরাণং
সর্বাত্মানং সর্বগতং বিভুত্বাত্ ।
জন্মনিরোধং প্রবদন্তি য়স্য
ব্রহ্মবাদিনো হি প্রবদন্তি নিত্যম্।।
----- ( শ্বেতা ৩/২১)
সেই পুরুষ হল অজ, অমর, সর্বব্যাপক, বিভু ও নিত্য। ব্রহ্মবাদী বলেন যে, তিনি জন্ম নেন না। এখানে অবতারবাদের স্পষ্ট নিষেধ আছে।
অবতারবাদের সমর্থনে পৌরাণিকরা গীতার চতুর্থ অধ্যায়ের সপ্তম শ্লোকটির প্রমাণ দেয়। যার পূরক শ্লোকটি হল এইরকম-----
পরিত্রাণায় সাধূনাং বিনাশায় চ দুষ্কৃতাম্।
ধর্মসংস্থাপনার্থায় সম্ভবামি য়ুগে য়ুগে ।।
অর্থ:--- হে ভরত কুলোৎপন্ন অর্জুন! যখন যখন ধর্মের গ্লানি হবে এবং অধর্মের বৃদ্ধি হবে তখন আমি ( আত্মানং) নিজেকে উৎপন্ন করি স্বজনদের রক্ষা এবং দুষ্টদের সংহারের উদ্দেশ্যে । এবং ধর্মের প্রতিষ্ঠার জন্য ও অধর্মের নাশের জন্য আমি সময়ে-অসময়ে জন্মগ্রহণ করি। এর সমর্থনে ভাগবতের শ্লোকটি----
য়দা য়দেহ ধর্মস্য ক্ষয়ো বৃদ্ধিশ্চ পাপম্নঃ।
তদা তু ভগবান ঈশ আত্মানং সৃজ্যতে হরিঃ।।
----- (ভাগবত ৯/২৪/৫৬)
অর্থাৎ যখন সংসারে অন্যায়, অত্যাচার, দুর্নীতি, দুষ্টতা বেড়ে যায়; স্বজনদের কষ্ট হয়, দুষ্টজনদের প্রতিপত্তি বেড়ে যায় তখন পরমাত্মা নিজে উৎপন্ন হন এবং সঞ্চালিত সংসারকে সুব্যবস্থিত করার জন্য পরমাত্মা সমর্থ, জ্ঞানবান ও পরাক্রমী বিশিষ্ট পুরুষদেরকে পাঠিয়ে সমাজের খারাপ দশাকে ঠিক করে দেন। এই অসাধারণ পুরুষদেরকে সামান্য জন অবতার নামে অভিহিত করে।
বন্ধুরা! এবার আমরা জানবো কৃষ্ণ এবং শ্রী রামের বা সমস্ত অবতারদের জন্ম কি বাস্তবেই দুষ্টের দমন এবং শ্রেষ্ঠজনদের পালনের জন্য হয়েছিল? বা তারা কোন অভিশাপে হয়েছিলো? তাদের মান্য পুরানগ্রন্থগুলো এ সম্বন্ধে কি বলছে? সে সম্বন্ধে আসুন আমরা জানি----
-----রাম অবতার----
শ্রীরাম একজন মর্যাদা পুরুষোত্তম ছিলেন, আদর্শ চরিত্রের ধনী ছিলেন। কিন্তু অবতার মানার পরে তার সঙ্গে যে অন্যায় হয়েছে তার বর্ণনা শিব পুরাণে দেওয়া হয়েছে। যদিও পুরানের এই কথাগুলো সম্পূর্ণ মিথ্যা, তবুও এখানে তাদেরই মান্য পুরান দ্বারা একই মান্যতার পরস্পর বিরুদ্ধ কথনগুলোকে দেখানোর জন্য এখানে উদ্ধৃত করছি। আমরা পুরান গ্রন্থগুলোকে মিথ্যা মন গড়া মানি। কিন্তু যারা অবতারবাদকে মানে তাদের কাছে এই পুরানগুলো সত্য। তাদের দুটো মান্য গ্রন্থের মধ্যে বিরোধ দেখানোর জন্য এখানে পুরানের প্রসঙ্গগুলোকে উদ্ধৃত করলাম।
শিব পুরাণ বলছে যে, বৃন্দা নামে কোন পতিব্রতা স্ত্রীর অভিশাপে শ্রী রামচন্দ্রের জন্ম হয়েছিল। সেই কথাটি এইভাবে--- বিষ্ণু মায়ার দ্বারা দুটি বানরের সাহায্যে বৃন্দার সঙ্গে ছলনা পূর্বক মৈথুন করে তার সতীত্ব ভঙ্গ করেছিল। মৈথুনের শেষে বৃন্দা জানতে পারে যে, এ তো তার স্বামী নয়, এ হল বিষ্ণু। তখন তাকে অভিশাপ দেয়।-----
হে নরাধম দৈত্যারে পরধর্মবিদূষক।
গৃহ্ণীষ্ব শঠ মদ্দত্তং শাপং সর্ববিষোল্বণম্।।
য়ৌ ত্বয়া মায়য়া খ্যাতৌ স্বকীয়ৌ দর্শিতৌ মম।
তাবেব রাক্ষসৌ ভূত্বা ভার্য়াং তব হরিষ্যতঃ।
ত্বং চাপি ভার্য়াদুঃখার্তো বনে কপিসহায়বান্।
ভ্রম সর্পেশ্বরেণায়ং য়স্তে শিষ্যত্বমাগতঃ।।
----- (শিব: রুদ্র: ২, যুদ্ধ: ৫, অ: ২৩/৪৩-৪৫)
হে মহাপাপী! রাক্ষসদের শত্রু! অপরের ধর্মের নাশকারী! আমার দেওয়া তীক্ষ্ণ বিষের মতো অভিশাপ গ্রহণ কর। নিজের মায়া দ্বারা প্রকট করে যে দুজন সাথীদেরকে তুই আমাকে দেখিয়েছিস, সেই দুজন রাক্ষস হয়ে তোর পত্নীকে হরণ করবে। তুইও নিজের পত্নীর দুঃখে ব্যাকুল হয়ে জঙ্গলে বানরের সহায়তায় নিজের শিষ্য শেষ নাগের সঙ্গে ঘুরবি।
পুরানের এই লেখাটি থেকে স্পষ্ট হয় যে, ভগবান বিষ্ণুর তথাকথিত রাম অবতার বৃন্দার অভিশাপের ফলে জন্মেছিল। ইচ্ছাপূর্বক ধর্মের স্থাপনা, স্বজনদের রক্ষা এবং দুষ্টদের সংহার করতে জন্ম নেয় নি।
-----কৃষ্ণ অবতার----
এই ভাবেই শ্রীকৃষ্ণের জন্মও গোলোকে থাকা রাধার দ্বারা দেওয়া অভিশাপের ফলে হয়েছিল। ব্রহ্মবৈবর্ত পুরাণের শেষে রাধা দ্বারা দেওয়া অভিশাপের বর্ণনা পাওয়া যায় এইভাবে----
হে কৃষ্ণ বৃজাকান্ত গচ্ছ মম পুরতো হরে।
কথং দুনোষি মাং লোল রতিচৌরাতি লম্পট॥৫৯॥
শীঘ্রং পদ্মাবতীং গচ্ছ রত্নমালাং মনোরমাম্।
অথবা বনমালাং বা রূপেণাপ্রতিমাং ব্রজম্॥৬০॥
হে নদীকান্ত দেবেশ দেবানাং চ গুরোর্গুরো।
ময়া জ্ঞাতোসি ভদ্রং তে গচ্ছ গচ্ছ মমাশ্রমাত্॥৬১॥
শশ্বতে মানুষাণাং চ ব্যবহারস্য চ লম্পট।
লভতাং মানুষীং য়োনিং গোলোকাদ্ ব্রজ ভারতম্॥৬২॥
হে সুশীলে শশিকলে হে পদ্মাবতি মাধবি।
নিবার্য়তাং চ ধূর্তোয়ং কিমস্যাত্র প্রয়োজনম্॥৬৩॥
হে কৃষ্ণ! হে হরে! হে বৃজ প্রেমী! আমার সামনে থেকে চলে যা। আমায় কেন দুঃখ দিস? হে অতি লম্পট! শীঘ্রই পদ্মাবতীর পাশে চলে যা। অথবা সুন্দরী রত্নমালার কাছে যা অথবা অনুপম রূপবতী বনমালার পাশে যা। হে গোপী প্রেমী! আমি তোকে জেনে নিলাম। তোর কল্যাণ হোক। যা-যা, আমার আশ্রম থেকে চলে যা, কেননা তুই সাধারণ মানুষের মতো মৈথুন লম্পট। সুতরাং তুই মনুষ্য যোনিকে প্রাপ্ত হ= দেবযোনি থেকে চলে যা। হে সুশীলে, হে শশীকলে, পদ্মাবতি, মাধবি! এ অতি ধূর্ত। একে এখান থেকে বের করো। এধরনের ধূর্তের এখানে কি কাজ?
এই বিবরণ থেকে স্পষ্ট জানা যায় যে কৃষ্ণ লম্পট হওয়ার কারণে তাকে দেবলোক থেকে বের করে দেওয়া হয়। এবং ব্যভিচার করার বা পরস্ত্রী গমনের অপরাধে মানব লোকে তাকে জন্ম নিতে হয়েছে। গীতা অনুসারে ধর্ম স্থাপন করার উদ্দেশ্যে নয়।
-----বিষ্ণু= রাম-কৃষ্ণ লীলা----
ভাতৃণাং দৈত্যমুখ্যানাং হতানাং দারুণে য়ুধি।
স্ত্রীয়ো হত্বা তু পাতালে চিক্রীড চ মুমোদ চ।।
ত্রেতা য়ুগে রামরূপে বিষ্ণুঃ সম্প্রাপ্য জানকীম্।
নো তৃপ্তঃ স্ত্রীবিলাসানাং বিত্তস্য চ সুতস্য চ।
রেতঃ সংপ্রেষণাচ্চাপি প্রোষিতস্য স্ত্রীয়ামপি।
তস্মাত্ কলিয়ুগে ভূমৌ গৃহীত্বা জন্ম কেশবঃ॥
বসুদেবস্য দেবক্যাং মথুরায়াং মহাবলঃ।
বালস্তু গোপকন্যাভির্বনে ক্রীডাং চকার সঃ॥
দশলক্ষাণি পুত্রাণাং গোপালানাং সসর্জ হ।
য়স্তু য়ৌবনাক্রান্তো রুক্মিণীং প্রদদর্শ হ॥
বিবাহয়িত্বা পুত্রাংশ্চ প্রদ্যুম্নাদ্যাংশ্চ নির্মমে।
তথাপি নরকং দৈত্যং প্রাগ্জ্যোতিষমতিবলাত্॥
হৃত্বা স্ত্রীণাং সহস্রাণি ষোডশৈব জহার সঃ।
তাসাং রতিফলং ভুক্ত্বা পুত্রাণাং নবতিং তথা॥
সহস্রাণি সসৃজাংশু মত্স্যে চাংদং মহাদ্ভুতম্।
স্ত্রীণাং তথাপি নো তৃপ্তো দিব্যানাং তু রতের্য়দা॥
তদা রাধা স্ত্রীয়ং কাংচিন্নিশি ধৈর্য়াদধর্ষয়ত্।
তথাপি পরনারীণাং লম্পটো নিত্যমেব হি॥
-----( শি: ধ: অ: ৯/৬১-৬৯)
অর্থ:-- ভগবান বিষ্ণু রাক্ষসদেরকে বধ করে তাদের স্ত্রীদেরকে পাতালে নিয়ে গিয়ে তাদের সঙ্গে কামক্রীড়া, আমোদ-প্রমোদ করল। ত্রেতা যুগে রাম অবতার নিয়ে জানকীর সঙ্গে বিয়ে করলেন। কিন্তু স্ত্রীদের দ্বারা তৃপ্ত হল না, এবং বনে যাওয়ার জন্য গর্ভাধান যথেষ্ট করতে পারল না। এইজন্য কলিযুগে কৃষ্ণের অবতার ধারণ করে এবং ছোটবেলায় গোপীদের সঙ্গে কামক্রীড়া করে ১০লক্ষ পুত্রদের উৎপন্ন করে। তবুও তৃপ্ত হলো না। রুক্মিণীর সঙ্গে যুবক অবস্থায় বিয়ে করে প্রদ্যুম্নকে উৎপন্ন করলো। তবুও তৃপ্ত হয়নি। তখন নরকাসুরকে বধ করে, তার ১৬হাজার স্ত্রীদের নিয়ে এলো এবং ৯০হাজার পুত্র জন্ম দিল। তবুও তৃপ্ত হল না। তখন রাধা নামে একটি স্ত্রীকে ধরে আনল। এত সব করার পরেও ভগবান পরস্ত্রী লম্পট।
এখানে এটি স্পষ্ট শব্দে বলা হয়েছে যে, রাম, কৃষ্ণাদি রূপে বিষ্ণুর সব অবতার কামেচ্ছা পূর্তি তথা সন্তানোত্পত্তির জন্য হতো। এরা কেউ দুষ্টদের দমনের জন্য আসেনি।
------বুদ্ধ অবতার-----
শতকোটিমিতা দৈত্যা ধর্মাত্মানো নিবাসিনঃ।
গৃহীত্বা য়জ্ঞভাগং চ দেবতুল্যা বভূবিরে॥
বৌদ্ধস্বরূপস্ত্বয়ং জাতঃ কলৌ প্রাপ্তে ভয়ানকে।
বেদধর্মপরান্ বিপ্রান্ মোহয়ামাস বীর্য়বান্॥
নির্বেদা কর্মরহিতাস্ত্রিবর্ণা তামসারে।
তস্মিন্নেব কালে তু কলিনা সংস্মৃতো হরিঃ॥
কলৈর্বৈ প্রথমে চরণে বেদমার্গে বিনাশিতঃ॥
------ (ভ: প্র: অ: ১৮/৪)
অর্থঃ--- ১০০ কোটি দৈত্য, বড় ধর্মাত্মা, বেদপাঠী, তপস্বী দেবতাদের তুল্য, বেদমার্গাবলম্বী ধর্মপরায়ণ ছিল। ভগবান বুদ্ধ অবতার ধারণ করে বেদের বিরুদ্ধে উপদেশ দিয়ে নাস্তিক বানিয়ে দিলো। তথা বেদ মার্গ থেকে মানুষদের সরিয়ে দিল।
প্রথমে তো বুদ্ধ অবতার হয়ে বেদ অনুযায়ীদেরকে বৌদ্ধ বানিয়ে দিলো। তারপর শংকরাচার্য রূপে অবতরণ করে বৌদ্ধধর্মের নাশ করলো। বিবাহ অবসরে রামের দ্বারা শিবধনুষ ভেঙ্গে যেতে পরশুরাম তার সঙ্গে ঝগড়া করলো। রাম ও পরশুরাম দুজনেই ঈশ্বরের অবতার ছিলেন। একই সময়ে দুটো ঈশ্বরের অবতার ধারণ করল। দুজনেই একে অপরকে চিনতে পারল না। লক্ষণ শেষ নাগ রূপে অবতার ছিলেন। যার উপর বিষ্ণু ভগবান শয়ন করত। তাকেও রাম চিনতে পারল না। পরশুরামও চিনতে পারল না। ঈশ্বরের সমস্ত অবতারদের এইরকম অবান্তর কর্মের দ্বারা ভর্তি রয়েছে পুরানগুলো। তাদেরকে পড়ে এটাই বলতে হয় যে, ঈশ্বর কখনো অবতার নিয়ে ভালো কাজ করে যায় নি। সুতরাং গীতার যে বিবেচ্য শ্লোক "য়দা য়দা হি"-- ইত্যাদি তে যা কিছু বলা হয়েছে, সমস্ত প্রক্ষিপ্ত ও মিথ্যা এবং বেদবিরুদ্ধ। অবতারবাদ না শাস্ত্রসম্মত না যুক্তিসম্মত।
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