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02 February, 2025

रामायण का काल

02 February 0

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का काल

स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

 (वाल्मीकि रामायण के अनुवादक,सम्पादक एवं टिप्पणीकर्त्ता)

👉इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि भारत का इतिहास मुसलमानों और अंग्रेजों द्वारा लिखा गया और विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में वही पढ़ाया गया ! अंग्रेज संसार की आयु केवल पांच-छह सहस्र वर्ष ही मानते थे! अत: उन्होंने भारतीय इतिहास को भी पांच-छ: सहस्र वर्षों के भीतर ही सीमित रखने का प्रयत्न किया ! अपनी कपोल-कल्पनाओं के आधार पर पाश्चात्य लेखकों ने वेदों का समय ईसा से पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व,महाभारत का समय ईसा से पांच-छः सौ वर्ष और रामायण का समय ईसा से तीन-चार सौ वर्ष पूर्व निर्धारित किया! यह काल गणना सर्वथा असत्य और पक्षपातपूर्ण है! भारतीय विद्वान श्रीराम का जन्म त्रेता के अन्त में मानते हैं ! इस प्रकार वे लोग श्रीराम का समय और रामायण का रचना-काल भी नौ लाख वर्ष मानते हैं! हमारा विचार इस धारणा से भी मिल नहीं खाता! वायु पुराण में उल्लेख है -
त्रेतायुगे चतुर्विंशे रावणस्तपस: क्षयात् !
रामं दाशरथिं प्राप्य सगण: क्षयमीयवान् !!
(वायुपुराण ७०/४८)
अर्थात आचार से पतित होने के कारण रावण २४ वें त्रेता युग में दशरथनन्दन श्रीराम के साथ युद्ध करके बन्धु- बान्धवों सहित मारा गया !
इस श्लोक में श्रीराम का काल २४ वां त्रेतायुग (वैवस्वत मन्वन्तर) बताया गया है! आज तक का गणित यह है -
२४ वें त्रेता से २८ वें त्रेता तक चार युग बीते जिनमें वर्ष हुए -
४३,२०,००० × ४ = १,७२,८०,००० वर्ष
द्वापर के वर्ष ८,६४,००० वर्ष
कलियुग के वर्ष ‌‌ ५,०७० वर्ष
. ------------------------
कुल योग १,८१,४९,०७० वर्ष
इस प्रकार श्रीराम का काल एक करोड़, इक्यासी लाख, उनन्चास सहस्र,सत्तर वर्ष होता है! रामायण श्रीराम का समकालीन इतिहास है! जिस समय श्रीराम राजसिंहासन पर आसीन हो गए थे उस समय महर्षि वाल्मीकि ने अपने ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना की थी। अतः रामायण का समय भी इतना ही है ।
रामायण के काल के सम्बंध में यह बाह्य साक्षी है। अन्तःसाक्षी हमने रामायण में ही पृष्ठ ३६५ पर दी है। जो निम्नलिखित है।
वाजिहेषितसंघुष्टं नादितं भूषणैस्तथा ।
रथैर्यानैर्विमानैश्च तथा गजहयै: शुभै: ।।११।।
वारणैश्च चतुर्दन्तै: श्वेताभ्रनिचयोपमै:।
भूषितं रुचिरद्वारं मत्तैश्च मृगपक्षिभि: ।।१२।।
रक्षितं सुमहावीर्यातुधानै: सहस्रा: ।
राक्षसाधिपतेर्गुप्तमाविवेश गृहों कपि:।।१३।।
जिस भवन के द्वार पर घोड़े हिनहिना रहे थे, जहां घोड़ों पर पड़े आभूषणों की झंकार हो रही थी,जिस भवन के द्वार पर नाना प्रकार के रथादि यान, विमान,उत्तम नस्ल के हाथी और घोड़े विद्यमान थे, जिस राजभवन का द्वार श्वेत मेघ के समान सुभूषित बड़े डील-डौल वाले सफेद चार दांत वाले हाथी * तथा प्रफुल्लित पशु और पक्षियों से सुशोभित था, सहस्रों महाबली और पराक्रमी राक्षस जिस राजभवन की रखवाली के लिए नियुक्त थे- ऐसे राजभवन में हनुमान जी ने प्रवेश किया ।
👉पाद टिप्पणी -
* आज के वैज्ञानिकों को आज से तीन शती पूर्व चार दांत वाले हाथियों का ज्ञान नहीं था। ये चार दांत वाले हाथी आज से ढाई करोड़ वर्ष से लेकर ५५ लाख वर्ष पूर्व तक अफ्रीका आदि में पाये जाते थे । रामायण श्रीराम का समकालीन इतिहास है। महर्षि वाल्मीकि तीन दांत और चार दांत वाले हाथियों से परिचित थे। अतः रामायण की इस अन्त:साक्षी के आधार पर रामायण काल नौ लाख वर्ष से भी प्राचीन सिद्ध होता है । - स्वामी जगदीश्वरानन्द
स्रोत- प्रक्षेप-निवृत्त वाल्मीकि रामायण
अनुवादक, सम्पादक एवं टिप्पणीकार- स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
प्रस्तुतकर्त्ता- रामयतन

👉वाल्मीकीय रामायण का मूल स्वरूप-घ
👉बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड में अवान्तर प्रसंग
वाल्मीकीय रामायण में बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त होने के मुद्दे पर दो विशेषज्ञ विद्वानों का मत हम देख चुके हैं। जैसा कि पहले कहा गया, किसी को खाँटी जिज्ञासा हो और वह थोड़ा श्रम और समय व्यय करने को तैयार हो तो इस मुद्दे पर विशेषज्ञों की शरण में जाने की ज़रूरत ही नहीं। थोड़ा समय देकर इन दोनों काण्डों की विषय-वस्तु का हम स्वयं जाइज़ा ले सकते हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या!
इन दोनों काण्डों में दो तरह की सामग्री है‌:
1. अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक की रामयात्रा की कथा में आ चुके कुछ प्रसंगों की पुनरावृत्ति जिनमें इन प्रसंगों के भिन्न, असंगत और अयुक्तिपूर्ण पाठ जोड़ दिये गये हैं।
2. रामकथा से असम्बद्ध और परस्पर भी असम्बद्ध फुटकर पौराणिक आख्यान, राम की यात्रा, रामकथा तक के लिए अवांतर प्रसंग
बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड में उपलब्ध वाल्मीकि से जुड़े प्रसंग को केंद्र में रखकर पहले बिंदु का विवेचन पिछले भाग में हो चुका है। अब:
रामकथा से असम्बद्ध पौराणिक आख्यान
बालकाण्ड
सर्ग-1 से सर्ग-4: (पहले विवेचित) वाल्मीकि आख्यान। सर्ग-8-14: दशरथ द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प, काश्यप-पौत्र एवं विभांडक-पुत्र मुनि ऋष्यशृंग की पौराणिक कथा, राजा रोमपाद के राज्य अंगदेश में दुर्भिक्ष, उससे मुक्ति के लिए अंग-नरेश द्वारा दृढ़व्रती मुनिकुमार ऋष्यशृंग (जिन्होंने कभी किसी स्त्री का दर्शन नहीं किया था) को वेश्याओं की सहायता से अंगदेश लाया जाना और उनके साथ रोमपाद की पुत्री शांता का विवाह। सुमंत्र द्वारा दशरथ को एक भविष्यवाची पौराणिक कथा सुनाये जाने पर दशरथ का अपनी रानियों और मंत्रियों के साथ अंगदेश की यात्रा। रोमपाद से उनकी पुत्री शांता तथा उसके पति ऋष्यशृंग को अयोध्या भेजने का निवेदन। तदनुरूप ऋष्यशृंग का सपत्नीक अयोध्या आगमन। ऋष्यशृंग के निर्देशन में दशरथ द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सम्पादन। [इसके बाद ही 15वें सर्ग में ऋष्यशृंग की सलाह और उनके निर्देशन में पुत्र-प्राप्ति के लिये दशरथ द्वारा पुत्रेष्टि अनुष्ठान के सम्पादन का प्रसंग आता है जिसके अग्निकुंड से प्रकट हुआ पुरुष वह खीर प्रदान करता है जिसे खाकर दशरथ की तीनों रानियाँ गर्भ धारण करती हैं, वह रामकथा का अंश ज़रूर है किंतु राम-यात्रा का नहीं।]
सर्ग-32: ब्रह्मापुत्र कुश के चार पुत्रों—कुशाम्ब (कौशाम्बी नगर के संस्थापक), कुशनाभ, असूर्तरजस और वसु--का आख्यान, कुशनाभ की असाधारण रूप-लावण्य-सम्पन्न सौ युवा पुत्रियों पर मोहित वायुदेव द्वारा उनसे पत्नी बनने का प्रस्ताव, जिसे अस्वीकार करने पर कुपित वायुदेव द्वारा उनमें प्रवेशकर उन्हें कुब्जा (कुबड़ी) कर देना। सर्ग-33: महातेजस्वी चूली महर्षि की सेवा में रत सोमदा नामक गंधर्वकुमारी के याचना करने पर महर्षि द्वारा तपशक्ति (मानसिक संकल्प) से उसे पुत्र प्रदान करना। ब्रह्मदत्त नामक उस पुत्र से राजा कुशनाभ की सौ कुब्जा कन्याओं का विवाह होते ही उनके वायु-जन्य वातरोग (कुब्जत्व) का दूर हो जाना और पूर्व-सौंदर्य लौट आना। सर्ग-34: विश्वामित्र के पिता गाधि का आख्यान—ब्रह्मदत्त के साथ सौ पुत्रियों के विवाह के बाद उनके ससुराल चली जाने पर पुत्रहीन राजा कुशनाभ का पुत्रहेतु पुत्रेष्टि अनुष्ठान करना जिससे धर्मात्मा गाधि का जन्म। राजा कुश (प्रपितामह) के कुल में उत्पन्न होने से गाधि-पुत्र विश्वामित्र का ‘कौशिक’ कहलाना। विश्वामित्र की बड़ी बहन ऋचीक मुनि को ब्याही सत्यवती की सशरीर स्वर्ग पधारने की कथा जो कौशिकी नदी बनकर भूतल पर प्रवाहित है। नेपाल से बिहार तक बहती आज की कोसी ही पुराणकाल की कौशिकी हैं। सर्ग-35—गंगा की उत्पत्ति की विलक्षण कथा। हिमालय सभी पर्वतों का राजा है। उसकी पत्नी मेरु पर्वत की सुंदरी पुत्री मेना है, जिसकी दो पुत्रियों में ज्येष्ठ गंगा हैं और कनिष्ठ उमा। गिरिराज हिमालय का उमा (पार्वती) को तपस्या में रत शिव से ब्याह देना। देवताओं का गंगा को देवकार्य की सिद्धि के लिये गिरिराज से माँग लेना और बाद में स्वर्ग से त्रिपथगा के रूप में अवतीर्ण होकर गंगा का तीनों लोकों में प्रवाहित होना।
सर्ग-36: शिव-पार्वती के सम्बंध में ऊलजलूल कथा। उमा से शिव के विवाह के बाद दोनों का सौ दिव्य वर्षों तक रति-क्रीडा मे निमग्न रह जाना। देवताओं की चिंता--इतने वर्षों के बाद शिव के तेज (वीर्य) से उमा गर्भ धारण कर जो अति-तेजस्वी प्राणी उत्पन्न करेंगी उसका तेज कौन बर्दाश्त करेगा! शिव के पास आकर देवगण की प्रार्थना--आप रति-क्रीडा से विरत हों। शिव का मान जाना किंतु क्रुद्ध हुई पार्वती का देवताओं को शाप—मैं पुत्र-प्रप्ति की इच्छा से पति के साथ रमण कर रही थी, तुम लोगों ने बाधा डाली, तुम्हारी पत्नियाँ भी संतान उत्पन्न करने में अक्षम हो जायेंगी। सर्ग-37: अग्निदेव द्वारा शिव के तेज को गंगा के दिव्य रूप में स्थापित किया जाना और उससे एक पुत्र का जन्म। कृत्तिका नक्षत्र-पुंज की छहों कृत्तिकाओं का नवजात शिशु को दुग्धपान कराकर उसे जीवन देना जिससे उसका नाम कार्तिकेय पड़ना।
सर्ग-38: भृगु मुनि के वरदान से पुत्रहीन इक्ष्वाकुवंशी राजा सगर (राम के पूर्वज) की दो पत्नियों में से एक, विदर्भकुमारी केशिनी, के एक पुत्र तथा दूसरी (अरिष्टनेमि कश्यप की पुत्री एवं पक्षिराज गरुड की बहन) सुमति से साठ हज़ार पुत्रों के जन्म की अलौकिक कथा। सर्ग-39: सगर के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा इंद्र द्वारा चुराया जाना और सगर के साठ हज़ार पुत्रों द्वारा उसे खोजने के लिए पृथ्वी का भीषण उत्खनन। सर्ग-40: एक बार असफल होने पर पिता के आग्रह पर इन पुत्रों द्वारा पृथ्वी का पुन: उत्खनन। पौर्वत्य पृथ्वी के उत्खनन से पर्वताकार विशाल गजराज विरूपाक्ष का दर्शन जिसने अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण कर रखा है और मस्तक हिलने से भूकम्प आता है। दाक्षिणात्य पृथ्वी के उत्खनन से दूसरे विशाल गजराज महापद्म, पाश्चात्य पृथ्वी के उत्खनन से गजराज सौमनस, पृथ्वी के उत्तर खंड के उत्खनन से गजराज श्वेतभद्र का दर्शन। पूर्वोत्तर के उत्खनन से भगवान्‌ कपिल तथा उन्हीं के पास चरते हुए यज्ञ के घोड़े का दर्शन। कपिल को चोर समझकर सगर-पुत्रों द्वारा उन्हें फटकार लगाना और उससे रुष्ट कपिल के मुँह से निकली हुंकार से उनका भस्म हो जाना। सर्ग-41: सगर की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र असमंजस के पुत्र अंशुमान का अपने पितृव्यों द्वारा उत्खनित मार्ग से नीचे पहुँचने पर भस्मीभूत पितृव्यों और पास में चर रहे घोड़े का दर्शन। शोकाकुल अंशुमान की पितृव्यों को जलांजलि देने की इच्छा पर पितृव्यों के मामा गरुड की गंगा को वहाँ लाकर उनके जल से पितृव्यों का उद्धार करने की सलाह। अंशुमान के घोड़ा लेकर ऊपर आने पर सगर द्वारा यज्ञ का समापन और तीस हज़ार वर्ष शासन करने के उपरांत उनका स्वर्ग-गमन। सर्ग-42: सगर के बाद अंशुमान का राज्य, फिर पुत्र दिलीप को राज्य देकर तपस्या हेतु अंशुमान का हिमालय के लिये प्रस्थान। बत्तीस हज़ार वर्षों तक वहाँ तपस्या और देहांत। अपने भस्म पूर्वजों को जलांजलि देकर उनका उद्धार करने की कामना लिये दिलीप का भी अवसान। उनके पुत्र भगीरथ द्वारा गंगावतरण के लिए गोकर्ण तीर्थ जाकर, पंचाग्नि का सेवन करते हुए, एक-एक महीने उपरांत आहार ग्रहण करते हुए, घोर तपस्या। तपस्या से प्रसन्न देवताओं के साथ ब्रह्मा का आगमन। हिमालय-पुत्री गंगा के अवतरण पर पृथ्वी की उनका वेग सहन करने की अक्षमता का ज़िक्रकर ब्रह्मा का भगीरथ को सलाह देना कि गंगा को धारण करने के लिए वे शिव को तैयार करें। सर्ग-43: देवताओं के साथ ब्रह्मा के लौट जाने पर भगीरथ का मात्र अँगूठे के अग्रभाग को पृथ्वी पर टिकाकर खड़े-खड़े एक वर्ष तपस्या कर, शिव को संतुष्ट करना और शिव द्वारा गंगा को अपने मस्तक पर धारण करने का आश्वासन। गंगा का संकल्प कि वे बृहत्‌ रूप धारण कर अपने वेग से शिव को लिये-दिये पाताल लोक चली जायेंगी। गंगा के अहंकार से कुपित शिव का उन्हें अपने जटामंडल में अदृश्य कर देना। भगीरथ द्वारा पुन: तपस्या। उससे प्रसन्न शिव का गंगा को बिंदुसरोवर में छोड़ना और गंगा का सात धाराओं में विभक्त होकर, तीन धाराओं (ह्लादिनी,पावनी, नलिनी‌) का पूर्व दिशा में, तीन‌ धाराओं (सुचक्षु, सीता और सिंधु) का पश्चिम दिशा में और एक धारा का दिव्य रथ पर आरूढ़ भगीरथ के पीछे-पीछे चलना। देवता, ऋषि, गंधर्व, यक्ष गण का नगर के समान आकार वाले विमानों, घोड़ों तथा हाथियों पर बैठकर आकाश से पृथ्वी पर गंगा की शोभा निहारना। गंगा द्वारा उसी समय यज्ञ कर रहे प्रतापी राजा जह्नु के यज्ञपमंडप को बहा ले जाना, कुपित हुए जह्नु का गंगा का समस्त जल पी जाना; देवताओं, गंधर्वों, ऋषियों द्वारा जह्नु की स्तुति कर गंगा को उनकी पुत्री बना देना जिससे प्रसन्न हुए जह्नु का गंगा को अपने कानों के छिद्र से पुन: प्रकट कर देना (जिससे गंगा का जाह्न्वी कहलाना)। अंतत: भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे प्रवाहित गंगा का समुद्र (गंगासागर) में समा जाना और भगीरथ के साठ हज़ार पितरों (सगर-पुत्रों) के उद्धार के लिये रसातल पहुँच जाना। भगीरथ का भी यत्नपूर्वक गंगा के साथ रसातल जाना, पितरों को अचेतावस्था में देखना और गंगा द्वारा उनकी भस्मराशि को आप्लावित कर उन्हें स्वर्ग पहुँचा देना। सर्ग-44: रसातल में ब्रह्मा का प्रकट होना, भगीरथ को गंगाजल से पितरों का तर्पण करने की आज्ञा देना और उन्हें आश्वस्त करना कि जब तक संसार में सागर का जल रहेगा, सगर-पुत्र देवताओं की तरह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित रहेंगे। भगीरथ से यह भी कहना कि गंगा अब तुम्हारी ज्येष्ठ पुत्री होकर रहेंगी और भागीरथी नाम से जगत्‌ में विख्यात होंगी। भगीरथ का इस कार्य को सम्पन्न कर अपने नगर लौट जाना। मंगलमय गंगावतरण उपाख्यान की फलश्रुति।
यह बालकाण्ड के 77 सर्गों में से 44वें सर्ग तक आये रामकथा से असम्बद्ध, अलौकिक और असंभाव्य पौराणिक आख्यानों की अतिसंक्षिप्त बानगी है।
बालकाण्ड के शेष सर्गों में समुद्र-मंथन और उससे निकलनेवाले हालाहल (कालकूट) विष, धन्वन्तरि, साठ करोड़ अप्सराओं, वरुण की पुत्री व सुरा की अधिष्ठात्री देवी वारुणी, उच्चै:श्रवा घोड़े, कौस्तुभ मणि और अंत में अमृत की उत्पत्ति की कथा; कश्यप ऋषि की पत्नियों दिति और अदिति तथा उनसे देवों और असुरों की उत्पत्ति की कथा; गौतम तथा अहिल्या की कथा; गौतम ऋषि द्वारा इंद्र को शाप देने तथा अहिल्या के उद्धार का उपाय बताने की कथा; शतानंद द्वारा विश्वामित्र का वंश-वर्णन; वशिष्ठ-विश्वामित्र संघर्ष; विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ की गाय कामधेनु के बलात् अपहरण से दु:खी कामधेनु का वशिष्ठ की आज्ञा से हुंकार भरकर महाबली पह्लव और काम्बोज तथा अपने थन से बर्बर, योनिस्थान से यवन, शकृस्थान (गोबर करने के स्थान) से शक, रोमकूपों से म्लेच्छ, हारीत व किरात सैनिकों को उत्पन्न करना जो विश्वामित्र के सौ पुत्रों में से निन्यानवे का संहार कर विश्वामित्र को अपने बचे हुए एक पुत्र को राज्याधिकार सौंपकर तपस्या के लिए निकल जाने को बाध्य करते हैं। [रामायण काल में ये पह्लव, काम्बोज, बर्बर, यवन, शक और म्लेच्छ कहाँ से आ गये?] फिर सर्ग-57 से सर्ग-60 तक विश्वामित्र-त्रिशंकु की विस्तृत कथा, अम्बरीष और शुन:शेप की कथा, शुन:शेप को यज्ञ-पशु बनाये जाने के निष्फल प्रयास की कथा, विश्वामित्र की तपस्या और इंद्र-प्रेरित मेनका द्वारा उसे भंग किये जाने की कथा, विश्वामित्र द्वारा पुन: तपस्या करने, इस बार इंद्र-प्रेरित रम्भा द्वारा उन्हें मोहित करने के उद्योग की कथा। ध्यान-भंग होने पर विश्वामित्र द्वारा रंभा को एक हज़ार साल के लिए प्रस्तर-प्रतिमा बन जाने का शाप और अंतत: उनका ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने में सफल हो जाना।
पूरे बालकाण्ड में ऐसे ही अनेक अवांतर प्रसंग भरे हुए हैं जिनमें पौराणिक कथाओं का ठीक पौराणिक शैली में लौकिक-अलौकिक, संभव-असंभव की विभाजन रेखा का अतिक्रमण करते हुए अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। अयोध्याकाण्ड से युद्धकाण्ड तक वाल्मीकि के जिस सुगठित और सूत्रबद्ध कथा-विधान के दर्शन होते हैं, ये कथायें उसके विरूपण का आईना हैं। अधिकांश कथाएँ विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण के सामने वर्णित हैं और कई के केंद्र में विश्वामित्र स्वयं हैं। विशेषज्ञ विद्वानों का मत अपनी जगह, आप ख़ुद पारायण करें और तय करें यह रामायण का बालकाण्ड है या विश्वामित्र-काण्ड, जिसमें यत्र-तत्र बालकाण्ड के कथा-सूत्र भी बिखेर दिये गये हैं।
उत्तरकाण्ड
बालकाण्ड की रामकथा के लिये वाल्मीकीय रामायण से इतर एक बना-बनाया ढाँचा उपलब्ध है। तुलसी का रामचरितमानस तो है ही, अनगिनत देशी-विदेशी राम-कथाओं में भी भिन्न-भिन्न रूपों में यह ढाँचा मिल जाता है। पद्मभूषण फ़ादर कामिल बुल्के की प्रसिद्ध पुस्तक ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ एक श्रमसाध्य, सुचिंतित और यथासंभव वस्तुपरक शोध ग्रंथ है जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में किये गये शोध का प्रतिफल है, जिस पर उन्हें पी एच डी की उपाधि मिली थी। कामिल बुल्के बेल्जियम से भारत आये एक ईसाई मिशनरी थे, उनका विवेकसम्मत भारत-प्रेम उनके इस एक कथन से ही स्पष्ट है--संस्कृत भारतीय भाषाओं में महारानी है, हिंदी बहूरानी और अँग्रेजी बहूरानी की सेविका। उन्होंने प्राचीन रामकथा-- वाल्मीकीय रामायण, बौद्ध रामकथा (दशरथ जातक), जैन रामकथा (विमलसूरि कृत पद्मचरित और गुणभद्र कृत उत्तरपुराण)-- अर्वाचीन रामकथा (बलरामदास कृत उड़िया रामायण, कृत्तिवास कृत बँगला रामायण और कश्मीरी रामायण) के अतिरिक्त कम्बोडिया की ‘रामकेर्ति’ तथा तिब्बत, श्याम (थाईलैंड), बर्मा आदि देशों में उपलब्ध रामकथाओं के अनुशीलन से अपना मत स्थिर किया है।
बालकाण्ड की तरह उत्तरकाण्ड की रामकथा का कोई ढाँचा उपलब्ध नहीं है। तुलसी ने अपना उतरकाण्ड भरत-हनुमान्‌ मिलन, राम के अयोध्या आगमन, राम के राज्याभिषेक, वानरों और निषाद की विदाई (जो प्रसंग वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड में ही समाहित हैं), रामराज्य के वर्णन और राम, भरत, लक्ष्मण, और शत्रुघ्न के दो-दो पुत्रों की उत्पत्ति के बाद शेष उत्तरकाण्ड विभिन्न संवादों के माध्यम से तत्व-विवेचन और ज्ञान-भक्ति निरूपण को समर्पित कर दिया है। अन्य रामकथाओं में भी वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड का कथानक लगभग नदारद है। ऐसे में वाल्मीकि के ‘उत्तरकाण्ड’ (?) में उपलब्ध सामग्री की प्रकृति इस काण्ड के प्रक्षिप्त होने या न होने की एकमात्र कसौटी रह जाती है।
वाल्मीकीय रामायण के ‘उत्तरकाण्ड’ (?) की विषयवस्तु का विहंगावलोकन।
उत्तरकाण्ड में कुल 111 सर्ग हैं। यह काण्ड शुरू होता है राम-दरबार में महर्षियों के आगमन और उनसे संक्षिप्त वार्तालाप के साथ। ऋषि अगस्त्य द्वारा रावण के पितामह ऋषि पुलस्त्य के गुणों और उनकी तपस्या का वर्णन। पुलस्त्य-पुत्र मुनि विश्रवा से वैश्रवण (कुबेर) की उत्पत्ति। वैश्रवण की तपस्या तथा लंका में उनका निवास। राक्षस-वंश का वर्णन—हेति, विद्युत्केश और सुकेश की उत्पत्ति। सुकेश के पुत्र माल्यवान, सुमाली और माली की संतति-परंपरा का आख्यान। राक्षसों के संहार के लिए, शंकर की सलाह पर देवताओं का विष्णु की शरण में जाना और विष्णु का आश्वासन। देवताओं पर राक्षसों का आक्रमण और विष्णु की सहायता से उनका संहार एवं उनका पलायन। विष्णु (यहाँ उन्हें श्रुति साहित्य की तरह इंद्र का कनिष्ठ भ्राता दिखाया गया है) द्वारा पीछा किये जाते राक्षसों में माल्यवान का लौट पड़ना, विष्णु से उसका युद्ध, गरुड पर उसका आक्रमण और उनके पंख की हवा से उसका और अन्य राक्षसों का उड़ जाना, फिर लंका की ओर पलायन। किंतु वहाँ से भी भागते-भागते रसातल पहुँच जाना और कुबेर का लंका में निवास। राक्षस सुमाली की पुत्री कैकसी की मुनि विश्रवा से पुत्र पाने की अभ्यर्थना करने पर उनसे रावण, कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण का जन्म। रावण आदि की तपस्या के लिये गोकर्ण-तीर्थ की यात्रा। वहाँ घोर तपस्या के उपरांत ब्रह्मा का प्रकट होना और रावण, विभीषण और कुम्भकर्ण को वर देना। रावण के संदेश पर कुबेर का लंका छोड़कर कैलास जाना और लंका में रावण का राज्याभिषेक। रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण तथा उनकी बहन शूर्पणखा का विवाह और रावण के पुत्र मेघनाथ का जन्म। रावण के अत्याचार, यक्षों पर उसका आक्रमण और उनकी पराजय। रावण द्वारा कुबेर को पराजित कर उनके पुष्पक विमान का अपहरण। रावण की शंकर के वाहन नंदी से भिड़ंत, एक हज़ार वर्षों तक उसके द्वारा नंदी का स्तवन, शंकर का प्राकट्य और उनसे रावण को चंद्रहास खङ्ग की प्राप्ति। रावण की समस्त पृथ्वी पर दिग्विजय यात्रा। यमलोक पर उसका आक्रमण, उसके वध के लिए यमराज का कालदण्ड उठा लेना किंतु ब्रह्मा के आग्रह पर उसे लौटा लेना।
रावण और उसके परिजनों की कथा का विस्तार सर्ग-34 तक फैला हुआ है। सर्ग-31 में उसका आगमन नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मती नगरी में होता है। वहाँ के राजा अर्जुन को वहाँ न पाकर रावण मंत्रियों सहित नर्मदा में स्नान कर उसके तट पर शिव की आराधना करने लगता है। आख़िर उसकी भिड़ंत अर्जुन से हो ही जाती है। उस समय अर्जुन अपनी स्त्रियों के साथ नर्मदा में जलक्रीडा कर रहा था। उसके हज़ार भुजाएँ थीं। भुजाओं का बल आँकने के लिये उसने उनसे नर्मदा का प्रवाह अवरुद्ध कर दिया। जल उल्टी दिशा में बहने लगा और शिव की पूजा कर रहे रावण द्वारा शिव को अर्पित पुष्पोपहार बहा ले गया। फिर तो रावणादि राक्षसों से अर्जुन का युद्ध होना ही था। महापराक्रमी अर्जुन ने रावणको हराकर क़ैद कर लिया और माहिष्मती ले गया। किसी तरह पुलस्त्य ऋषि ने रावण को अर्जुन की क़ैद से छुड़ाया (सर्ग-33)।
क़ैद से छूटने पर रावण फिर मदमस्त विचरता किष्किन्धापुरी जा पहुँचा और बालि को युद्ध के लिए ललकार बैठा। महाबली बालि ने उसे पकड़कर काँख में दबा लिया और दूर-दूर तक घूमने लगे। अंत में किष्किन्धा लौटकर उसे उतारा। फिर तो नीतिज्ञ रावण ने अपनी चाटुकारिता से बालि को ख़ुशकर उसे अपना मित्र बना लिया (सर्ग-34)। [इस सर्ग तक ऐसा लगता है जैसे यह रामायण का उत्तरकाण्ड न होकर रावणकाण्ड हो।]
इसके आगे दो सर्गों में हनुमान्‌ की उत्पत्ति और उनके जीवन का वर्णन कर राम के राज्याभिषेक में आमंत्रित राजाओं, वानरों और विभीषणादि राक्षसों की विदाई के युद्धकांड में आ चुके आख्यान की पुनरावृत्ति होती है, जिसे यहाँ अनावश्यक, अंतर्विरोधी और असम्बद्ध विस्तार दिया गया है (इसके पहले की पोस्ट में आ चुका है)। सर्ग-44 से 49 तक लोकापवाद से विचलित राम द्वारा सीता-निर्वासन की कथा वर्णित है (वह भी उसी पोस्ट में आ चुका है)। सर्ग-54 से 57 तक इक्ष्वाकुवंशी राजा निमि और वशिष्ठ का एक-दूसरे के शाप से देहत्याग और वशिष्ठ के अजीबोग़रीब ढंग से, कुछ अश्लील-सी, पुनर्जन्म की कथा आती है जो प्रक्षेपकों के दिमाग़ की ही उपज हो सकती है (सर्ग-55—57)। सर्ग-59 में बिना किसी संदर्भ के ययाति और उनके पुत्र पुरु (कौरवों-पांडवों के पूर्वज) की प्रसिद्ध कथा आती है जिसमें विषय-भोग से अतृप्त वृद्ध ययाति अपने युवा पुत्र पुरु को अपना बुढ़ापा देकर उसका यौवन ले लेते हैं और दीर्घकाल तक किये गये विषय-भोग से तृप्त होकर उसका यौवन लौटा देते हैं। अपने पुत्रों में पुरु के द्वारा किये गये त्याग से संतुष्ट उसी को राज्य का उत्तराधिकारी बनाते है।
फिर राम के सामने ब्राह्मण द्वारा प्रतारित एक कुत्ते की न्याय-याचना का प्रसंग आता है जिसमें राम प्रतारक ब्राह्मण को मठाधीश बनने का दंड देते हैं। इस न्याय से संतुष्ट कुत्ता अपने पूर्वजन्म में मठाधीश होने और उसमें निहित अकृत्यों के कारण कुत्ता-योनि पाने का रहद्योद्घाटन करता है।
फिर लवणासुर के अत्याचारों से पीड़ित च्यवन आदि ऋषियों का राम की राजसभा में उपस्थित होकर उसके बल का वर्णन करते हुए उसके कारण अपने त्रास के निराकरण के लिए राम से प्रार्थना करते हैं। राम की आज्ञा से शत्रुघ्न इस अभियान का नेतृत्व करते हैं और 12 सालों के कठिन अभियान से लवणासुर का वध करने में सफल होते हैं (सर्ग-60—69)। इसी अभियान के सिलसिले में दो बार उनका वाल्मीकि आश्रम जाना और सीता के जुड़वाँ पुत्र होने पर उनका दर्शन होता है किंतु अयोध्या लौटने पर वे इसकी कोई सूचना राम को नहीं देते। यह प्रसंग आ चुका है। सात दिन अयोध्या में रहकर वे लवणासुर के मधु राज्य की व्यवस्था सुधारने उसकी राजधानी मधुपुरी निकल जाते हैं। इसी के बाद शम्बूक प्रसंग आता है (सर्ग-73--77)।
इसके बाद राम द्वारा अश्वमेध यज्ञ का आयोजन जिसमें वाल्मीकि के साथ प्रकट होकर सीता पृथ्वी की गोद में समा जाती हैं और राम शोक और पश्चात्ताप में डूब जाते हैं (सर्ग—84-98)। यह प्रसंग भी आ चुका है।
केकय देश से ब्रह्मर्षि गार्ग्य का आगमन और उनसे प्रेरित होकर राम द्वारा भरत के नेतृत्व में सेना भेजकर गंधर्व देश पर आक्रमण, उसपर आधिपत्य और भरत द्वारा वहाँ दो सुंदर नगर बसाकर, अपने दोनों पुत्रों को वहाँ का कार्यभार सौंपकर, अयोध्या लौटना (सर्ग--100—101)। काल का आगमन, उसके द्वारा भेजा गया ब्रह्मा का राम के नाम संदेश जिसे वे एकांत में सुनते हैं और स्वीकार कर लेते हैं (सर्ग-103)। लक्ष्मण द्वारा दुर्वासा के आगमन पर, उनके शाप के भय से इसकी सूचना देने के लिए राम के एकांत का नियम-भंग करना, फलस्वरूप राम द्वारा लक्ष्मण का परित्याग और लक्ष्मण का सशरीर स्वर्गारोहण (सर्ग—105-106)।
कुश और लव का राज्याभिषेक और राम का परमधाम के लिये प्रस्थान। साथ में समस्त अयोध्यावसियों का प्रस्थान (सर्ग-109)। भाइयों सहित राम का विष्णुस्वरूप में प्रवेश और साथ आये अन्य लोगों को ‘सन्तानक’ लोक की प्राप्ति (सर्ग-110)। रामायण काव्य का उपसंहार और फलश्रुति (सर्ग-111)।
विषयवस्तु के अंत:साक्ष्य के प्रत्यक्ष आधार पर हम ख़ुद तय कर सकते हैं, उत्तरकाण्ड मूल वाल्मीकीय रामायण (राम की यात्रा) का प्रक्षिप्त है या मूल रचना का अविभाज्य अंग।
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28 January, 2025

বৈদিক বিবাহে সিঁদুর দান

28 January 1
বৈদিক বিবাহে সিঁদুর দান
'বিবাহ' শব্দটি 'বি' উপসর্গপূর্বক 'বহ প্রাপণে' ধাতুতে 'ঘঅ্' প্রত্যয় যোগ করে গঠিত এবং 'উদ' উপসর্গ হতে পর্যায়বাচী 'উদ্ভাহ' শব্দ তৈরি হয়। বিবাহের অর্থ হলো বিধিপূর্বক একে অপরকে বৈধভাবে গ্রহণ করা এবং পারস্পরিক দায়িত্ব পালন করা। শাস্ত্র অনুসারে এটি একটি সামাজিক আইন তথা সামাজিক ও পারিবারিক বন্ধন। এতে, পুরুষ এবং মহিলা তাদের আরাম এবং সুবিধার জন্য গৃহকর্তার কর্তব্য পালনের জন্য দম্পতি হিসাবে একসাথে থাকার সিদ্ধান্ত নেয় এবং সময়ের সাথে সাথে, তারা প্রজননের মাধ্যমে মানব জাতির বৃদ্ধিতে সহায়তা করে।
'বিবাহ' শব্দটি সরাসরি বেদে পাওয়া যায় না, তবে বিবাহের জন্য মূলে যে মন্ত্রটি পাঠ করা হয়, তাতে 'হস্তম গৃহ্নামি' পদ স্পষ্টভাবে বিবাহের তাৎপর্যের বোধক। এর অর্থ হল স্বামী সারা জীবন তার স্ত্রীর হাত ধরে থাকবে এবং তার সম্পূর্ণ দায়িত্ব নেবে। বিয়েতে হাত ধরা এতটাই গুরুত্বপূর্ণ যে 'পাণিগ্রহণ' (ঋ০ ১০।৮৫।৩৬ "हस्तं॒ मया॒ पत्या॑ ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑:") কে বিবাহের পর্যায়বাচী (সমার্থক শব্দ) হিসেবে বিবেচনা করা হয়। যদিও অন্যান্য অনেক জাতি বৈদিক ধর্মকে তার মূল রূপে পরিত্যাগ করেছে, তবুও তাদের কিছু আচার-অনুষ্ঠানে বৈদিক রীতিনীতির প্রভাব এখনও দৃশ্যমান হয়। যেমন পার্সিয়ানদের মধ্যে বিয়ের সময় বর কনের হাত ধরে, তারা এই বিবাহ পদ্ধতিকে 'হাথবরো' বলে। রোমান মহিলারাও বিয়েতে বরের ডান হাতের উপর তার ডান হাত রাখেন, এর বিস্তারিত বিবরণ Encyclopaedia of Religion-এর "বিবাহ" শিরোনামে দেখা যাবে।
বৈদিক বিবাহ সংস্কারে বধূর বেণী খুলে দেওয়ার পর অর্থাৎ কেশ মোচন ক্রিয়া সম্পাদনের পর "সপ্তপদী" বিধি আরম্ভ হয়। এটি বৈদিক বিবাহ অনুষ্ঠানের শেষ গুরুত্বপূর্ণ কাজ, যা সম্পন্ন হওয়ার পরে বৌধানিক দৃষ্টিতে সম্পূর্ণ হয়েছে বলে বিবেচিত হয়। এই সময় বরের উপবস্ত্রের (উত্তরীয়) সাথে বধূর উত্তরীয়কে গাঁঠ দিয়ে বেঁধে দেওয়া হয় যা 'গ্রন্থি বন্ধন' বা 'গাঁঠছড়া' বলা হয়; এটি কোনও শাস্ত্রীয় বিধান নয়, কিন্তু বেদাবিরুদ্ধ তথা পরম্পরাগত লোকাচার (লোক রীতিনীতি) হওয়ায় এতে কোন আপত্তি নেই; তথা এক সময় হতে চলে আসছে। মহা কবি কালিদাসের রঘুবংশের সময় হতে নিশ্চিত করে যে এই প্রথাটি কমপক্ষে আড়াই হাজার বছর হতে চলে আসছে বলা যায়।

বৈদিক বিবাহ পদ্ধতি অনুসারে, মধুপর্ক, পানি-গ্রহণ, প্রধানহোম, লাজাহোমা আদি প্রধান বিধির পরেও, সপ্তপদী ছাড়া বিবাহ সম্পূর্ণ বলে বিবেচিত হয় না। সপ্তপদীর আচার সম্পন্ন হওয়ার সাথে সাথেই বিবাহের সম্পর্ক আইনগত এবং ধর্মীয়ভাবে নিশ্চিত হয়ে যায়। বিবাহ রীতি অনুসারে, সপ্তপদীর পরেও কিছু আচার-অনুষ্ঠান পালন করা বাকি থাকে, সেগুলোর বিশেষ কোনও গুরুত্ব নেই। সপ্তপদীর পর বিবাহ বন্ধন অটুট হয়ে যায়। অন্য কথায়, আমরা বলতে পারি যে বিবাহ অনুষ্ঠান ঈশ্বর, নিজের আত্মা এবং গুরুদের সাক্ষ্যে পরিচালিত হয়, যাতে দম্পতির মধ্যে আজীবন সম্প্রীতি এবং একে অপরের সাথে সুসম্পর্ক প্রতিষ্ঠিত হয়।
তেমনই বাংলা তথা বেশকিছু অঞ্চলে সিদুর বর্ত্তমানে বিবাহিতা নারীর প্রতীক হয়ে উঠেছে, যা বিবাহের একটি অংশে লোকাচার হিসেবে চলে আসছে। যদিও এই সিদুর দেওয়া বা সিদুর পরা কোন শাস্ত্রীয় বিধি নয়। এই সিদুর দান বৈদিক বিবাহের মধ্যেও আজ কিছু অঞ্চলে চলে তবে এটা মহর্ষি দয়ানন্দকৃত সংস্কার বিধিতেও উল্লেখ নেই। যা লেখা পাওয়া যায় তা 'সংস্কারবিধি' বাংলা সংস্করণে বাংলার আচার হিসেবেই লেখা রয়েছে।

 অনেকের ধারনা পারস্কর গৃহসূত্রে সিঁদুর দান বিষয়ে উল্লেখ রয়েছে, যেটা হরিদত্ত শর্মাজী মানতেন। নীচে পারস্কর গৃহসূত্র ১/৮/৯ দেখানো হলঃ

পারস্কর গৃহসূত্র ১/৮/৯
পারস্কর গৃহসূত্র ১।৮।৯


পারস্কর গৃহসূত্র ১/৮/৯


অথৈনামভিমন্ত্রয়তে সুমঙ্গলীরিয়ং বধূরিমাং সমেত পশ্যত। সৌভাগ্যমস্যৈ দত্ত্বা যাথাস্তং বিপরেতনেতি। [পা০ গৃ০ ১।৮।৯] -------অর্থাৎ, (অথ) হৃদয়স্পর্শের পশ্চাতে (এনাম্) এই বধূকে (অভিমন্ত্রয়তে) অভিমন্ত্রিত করা হয়, সামনে রেখে উপস্থিত সকলকে সম্বোধন করা হয় (সুমঙ্গলীঃ ইতি) এই মন্ত্র বলে। এখানে সুমঙ্গলী অর্থাৎ উত্তম মঙ্গলময় অর্থ করা হয়েছে( বেদ রত্ন ড.সত্যব্রত রাজেশ কৃত ভাষ্যে)। এর ভাবর্থের পরে লিখেছেন ড. হরিদত্ত শর্মা এটাকে সিঁদুর দান বিধি মানতেন।

সিঁদুর দান নিয়ে মহেন্দ্র কুমার শাস্ত্রী এবং হরিদত্ত শর্মা জী উক্ত মন্ত্র যা মন্ত্র ব্রাহ্মণম্_১।২।১৪। গোভিল গৃহ্যসূত্র_২।১।১৪। আশ্বলায়ন গৃহ্যসূত্র _১।৮।৭। জৈমিনী গৃহ্যসূত্র_১।৮।৭ এ পরিলক্ষিত হয়। সিঁদুর দান বিষয় উল্লেখ করেছেন। কিন্তু  যুধিষ্ঠির মীমাংসক জী স্বামী দয়ানন্দ সরস্বতী লিখিত সংস্কারবিধির সম্পাদন করার সময় ব্রহ্মমুনি জীর ন্যায় "মঙ্গলময়ী" আশির্বাদ অর্থ করেছেন।

ব্রহ্মমুনি জী এই মন্ত্রের ভাষ্য নিম্নরূপ করেছেনঃ

सु॒म॒ङ्ग॒लीरि॒यं व॒धूरि॒मां स॒मेत॒ पश्य॑त ।

सौभा॑ग्यमस्यै द॒त्त्वायाथास्तं॒ वि परे॑तन ॥ 

पदार्थान्वयभाषाः - (इयं वधूः सुमङ्गलीः) यह नवविवाहिता वधू शुभमङ्गलवाली है (इमां पश्यत समेत) हे इसके सम्बन्धी जनो तथा हितचिन्तको ! इसका दर्शन करो और सम्यक् आलिङ्गन करो (अस्यै सौभाग्यं दत्त्वाय) इसके लिए “सौभाग्य हो” यह आशीर्वाद देकर (अथ) पुनः (अस्तं विपरेतन) अपने-अपने घर को जाओ ॥

भावार्थभाषाः -वधू घर में मङ्गल का सञ्चार करनेवाली है। सम्बन्धी और हितचिन्तक सौभाग्य का आशीर्वाद दें और स्नेह से मिलें ॥        


সু॒ম॒ঙ্গ॒লীরি॒য়ং ব॒ধূরি॒মাং স॒মেত॒ পশ্য॑ত।
সৌভা॑গ্যমস্যৈ দ॒ত্ত্বায়াথাস্তং॒ বি পরে॑তন॥ [ঋগ্বেদ ১০। ৮৫। ৩৩] / অথর্ববেদ ১৪।২।১।২৮

(ইয়ং বধূঃ সুমঙ্গলী) এই বধূ মঙ্গলময়ী। (অতঃ ইমাং কন্যাং) এই কন্যাকে (সমেত) সম্মিলিত হয়ে (পশ্যত) মঙ্গলদৃষ্টি দ্বারা অবলোকন কর। (অস্যৈ এই কন্যাকে সৌভাগ্যং) সৌভাগ্য অর্থাৎ মঙ্গলময় আশীর্বাদ (দত্ত্বা) দান করে (অস্তং) স্ব স্ব স্থানে (যাত) গমন কর। (ন বিপরেতনেতি) বিমুখ হয়ো না। 

পণ্ডিত ক্ষেমকরণদাস ত্রিবেদী জী উক্ত মন্ত্রের ভাষ্য করেছেনঃ "সুমঙ্গলীঃ=বড়ে মঙ্গলবালী হৈ" সকল জ্ঞানী পুরুষদের একসাথে আশীর্বাদ করা উচিত যে কনে যেন তার স্বামীর জীবনদাতা হয় এবং সর্বদা সুখে থাকে এবং কখনও কষ্ট না পায়। অর্থাৎ সকল জ্ঞানী ব্যক্তিদের একসাথে আশীর্বাদ করা উচিত যে কনে তার স্বামীর প্রাণ এবং সর্বদা সুখী থাকে। পরে ত্রিবেদী জী লিখেছেন, এই মন্ত্র মহর্ষি দয়ানন্দের দ্বারা সম্পাদিত "সংস্কার বিধি"-তে আশীর্বাদ প্রদানের জন্য প্রয়োগ করা হয়েছে।

पदार्थान्वयभाषाः -[हे विद्वानो !] (इयम्वधूः) यह वधू (सुमङ्गलीः) बड़े मङ्गलवाली है, (समेत) मिलकर आओ और (इमाम्) इसे (पश्यत) देखो। (अस्यै) इस [वधू] को (सौभाग्यम्) सुभागपन [पति की प्रीति] (दत्त्वा) देकर (दौर्भाग्यैः) दुर्भागपनों से [इस को] (विपरेतन) पृथक् रक्खो॥२८॥

भावार्थभाषाः -सब विद्वान् लोग मिलकरआशीर्वाद देवें कि वधू पति की प्राणप्रिया होकर सदा आनन्द से रहे और कभी कष्ट नउठावे ॥२८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३३, और महर्षिदयानन्दकृतसंस्कारविधि विवाहप्रकरण में आशीर्वाद देने के लिये विवाह में आये लोगों केबुलाने में विनियुक्त है ॥

टिप्पणी:२८−(सुमङ्गलीः) छान्दसो विसर्गः। बहुमङ्गलवती (इयम्)दर्शनीया (वधूः) (इमाम्) (समेत) समेत्य आगच्छत (पश्यत) अवलोकयत (सौभाग्यम्)सुभगत्वम्। पतिप्रियत्वम्। बह्वैश्वर्यवत्वम् (अस्यै) (वध्वै) (दत्त्वा) (दौर्भाग्यैः)दुर्भगत्वैः। ऐश्वर्यराहित्यैः। पतिस्नेहशून्यकर्मभिः (विपरेतन)अन्तर्गतण्यर्थः। विपरागमयत। पृथक् कुरुत ताम् ॥

মন্ত্র ব্রাহ্মণের অন্তর্গত, এই মন্ত্রটি সায়ণাচার্য ভাষ্য করেছেনঃ সুমঙ্গলীরিত্যেষা বধূদর্শনার্থমাগতানাং যোষিতাং দর্শনে বিনিযুক্তা।তথা চোক্তম্---বধূং দ্রষ্টুমাগতাঃ সুমঙ্গলীঃ স্ত্রিয়ো বীক্ষমাণীঃ সুমঙ্গলীরিতি জপেত্। পাঠস্তু সুমঙ্গলীরিয়মিতি।অনুষ্টুবিয়ম্।দ্রষ্ট্র্যো যোষিতো দেবতাঃ। হে দ্রষ্টৃযোষিতঃ।সুমঙ্গলীঃ শোভনমঙ্গলবতীঃ যুষ্মানিয়ং বধূঃ পশ্যতি অত ইমাং সমেত সঙ্গতা ভবত।সঙ্গত্যৈতাঃ পশ্যত।দৃষ্টা চ সৌভাগ্যং সুভগত্বম্ অস্যৈ বধ্বৈ দত্ত্বায় দত্ত্বা।অথ অনন্তরম্।অস্তং---গৃহনামৈতত্--স্বগৃহং বিবিধং পরেতন পরেত গচ্ছত।তপতনবিত্যাদিনা তনাদেশঃ। অস্তি হোমানন্তরং বধূবরয়োরসেবকঃ---অপরেণাগ্নিমৌদকো গত্বা পাণিগ্ৰাহং মূর্ধন্যবসিঞ্চেদ্বধূং চেতি সূত্রিতত্বাত্।।

মন্ত্র ব্রাহ্মণের অন্তর্গত, এই মন্ত্রটির আচার্য সামশ্রমী জী ভাষ্য করছেনঃ

হে ঈক্ষকাঃ! 'ইয়ং' পরিণীতা 'বধূঃ' সুমঙ্গলী সুমঙ্গলা কল্যাণী অস্তি;যূয়ম্ 'সমেত' সমাগচ্ছত্;এত্য চ 'ইমাং' বধূং 'পশ্যত' কিঞ্চ 'অস্যৈ' 'সৌভাগ্যং' 'দত্ত্বা'(আশীর্ভিরিতি যাবত্) 'অস্তং' স্বগৃহং 'বিপরেতন যাথ' প্রত্যাবৃত্তং গচ্ছত।

এবং প্রাচীন আচার্য গুণবিষ্ণু জী ভাষ্য করেছেনঃ- অনুষ্টুবিয়ং বিবাহেক্ষকজনপ্রতিমন্ত্রণে বিনিযুক্তাশীর্বাদপরাশাস্যমানদৈবতা। হে ঈক্ষকাঃ সুমঙ্গলীঃ প্রশস্তমঙ্গলা ইয়ং বধূঃ পরিণীতা যতঃ অতঃ যূয়ম্ এনাং সমেত সংগচ্ছত পশ্যত চ আলোকয়ত।কিঞ্চ সৌভাগ্যম্ সুভগত্বম্ অস্যৈ দত্ত্বায় দত্ত্বা অথ অনন্তরম্ অস্তং গৃহং বিপরেতন যূয়ং গচ্ছতেত্যর্থঃ।।

অর্থাৎ, মহর্ষি দয়ানন্দ সরস্বতীর লিখিত সংস্কারবিধি, মহাপণ্ডিত যুধিষ্ঠির মীমাংসক জীর ব্যাখ্যা, প্রাচীন টীকাকার গুণবিষ্ণু, বিখ্যাত ভাষ্যকার আচার্য সায়ণ, আচার্য সত্যব্রত সামশ্রমীর ভাষ্য, পারস্কর গৃহ্যসূত্র ও অন্যান্য গৃহ্যসূত্র গুলোতেও কোথাও সিঁদুর দানের প্রসঙ্গ নেই।

বৈদিক বিবাহে সিঁদুর দান
কেবল মহেন্দ্র কুমার শাস্ত্রী জীর লেখা "বৈদিক বিবাহ সংস্কার বিধিঃ" পুস্তকে লেখক নিজের মন থেকে বিবাহ প্রকরনে বর-বধুর মস্তকে হাত রেখে মাঙ্গ সিঁদুরে ভরানোর কথা লিখে মহর্ষি দয়ানন্দ জীর সংস্কার বিধিরই সংস্কার করে দিয়েছেন।

পারস্কর গৃহসূত্র ১।৮।১১-১৩ ব্যখ্যাকার জগদীশচন্দ্র মিশ্রের মতে গ্রামের বয়স্ক মহিলারা যা বলবেন তা সামাজিক রীতিনীতি হিসেবেই অনুসরণ করা উচিত, কারণ স্মৃতিতে বলা হয়েছে যে শাস্ত্রীয় রীতিনীতির পাশাপাশি, পরিবারের বয়স্ক মহিলাদের কথা বিবাহের ক্ষেত্রে এবং অন্ত্যেষ্টিক্রিয়া অনুষ্ঠানে প্রমাণ হিসেবে বিবেচিত হওয়া উচিত। অর্থাৎ সিঁদুর দান প্রক্রিয়াটি যদি সেই রীতি অনুযায়ী ধার্য হয় তবে মানা যেতে পারে। বৈদিক ব্যখ্যাকার সত্যব্রত রাজেশ জীর মতে "শাস্ত্রীয় বচন ব্যতীত অন্য কোন প্রথা, কুল পরম্পরায় প্ৰচলিত থাকলে তা অনুসরণ করা যায়"- পা০১|৮|১১॥

বৈদিক বিবাহে সিঁদুর দান
পারস্কর গৃহসূত্র ১।৮।১১-১৩
(ব্যখ্যাকার জগদীশচন্দ্র মিশ্র)

যাইহোক অবিবাহিত মেয়েরা সিঁথিতে সিদুর পরে না, কপালে টিপ পরে। বিধবাদের সিঁদুর ব্যবহার নেই তথা নিষিদ্ধ। বিবাহিতা বাঙালি হিন্দু মেয়েদের সিঁদুর দেওয়ার প্রচলন মুসলমানদের অত্যাচারের ফলে বৃদ্ধি পেয়ে আজ অনেক স্থানেই দেখতে পাওয়া যায়। বর্তমান সময়ে মেয়েদের সিঁথিতে রাসায়নিক সিদুর (লেড অক্সাইড) ব্যবহার হলেও, অরগ্যানিক সিদুর বিক্সা ওরেলানা গাছ বা সিদুর গাছ হতেও পাওয়া যায়।
পৌরাণিক মতে যে পুস্তক হতে বিবাহাদি ক্রিয়া সম্পাদন করা হয় সেই পুরোহিত দর্পণেও "আচার বশতঃ জামাতা বধূর সীমন্তে সিন্দুর তিলক দিয়া অবগুণ্ঠন দেওয়া হয়।" বলে বর্ননা পাওয়া যায় (পুরোহিত দর্পন; তৃতীয় খণ্ড ৪৪৮ পৃ০)। বর্ত্তমান সময়ে বেশ কয়েকদিন ধরে ফেসবুকে সিঁদুর-দান বা বিবাহে সিদুর পরানোর বিরোধীতা করার বিষয় দেখতে পাওয়া যাচ্ছে। বস্তুতঃ বৈদিক মন্যতার ছেলে মেয়েরাই বৈদিক বিবাহে সিদুর নিয়ে প্রশ্ন তুলছে মনে হলেও, বাস্তবে বিবাহে সিদুর পরানো নিয়ে কেউ প্রতিবাদ করছে না! যারা এর বিরূদ্ধে প্রচার করছে তারা বলতে চাইছে বৈদিক রীতিতে সিদুর দানটা বিবাহ সংস্কারের অংশ নয়। এটা বেদে লেখা নেই এমনকি মহর্ষি দয়ানন্দ স্বামীও বৈদিক সংস্কার বিধির মধ্যে উল্লেখ করেন নি; তাই "বৈদিক বিবাহ সংস্কার অনুষ্ঠান" ক্যাপশন ব্যবহার করে বৈদিক বর-বধূর সিঁদুর দেওয়ার ছবি দেওয়া বৈদিক আচার নয়। আর যারা এর পক্ষে কথা বলছেন তারা এমন ভাব দেখাচ্ছেন যে তারা সংস্কার বিধি ও বেদ হতে প্রমাণ দেখিয়ে ডিবেট করবেন আর্য সমাজের অন্য পণ্ডিতবর্গের সাথে। সাথে গৃহসূত্রাদি হতে বৃথা প্রমান দেখানোর চেষ্টা করছেন সমাজিক আচার হিসেবে বিধান রয়েছে। কারন সমস্ত সামাজিক রীতিকে গ্রহণ করা সম্ভব নয়। যাইহোক, এই ধরনের গোলযোগ শুরু হওয়ায় যারা নতুন বৈদিক মতে আসছেন এবং পৌরাণিক মহলেও সন্দেহের সৃষ্টি হচ্ছে ! এতে সমাজের কোথায় ভালো হচ্ছে ? মহর্ষি দেব দয়ানন্দ আর্য সমাজের ৬নং নিয়মে লিখেছেন সংসারের উপকার করা এই সমাজের মুখ্য উদ্দেশ্য অর্থাৎ শারীরিক, আত্মিক ও সামাজিক উন্নতি করা এবং সকলের সঙ্গে প্রীতিপূর্বক ধর্মানুসারে যথাযোগ্য ব্যবহার করা উচিত। সাথে মহর্ষি ১০নং নিয়মে বলেছেন সব মানুষকে সামাজিক সর্বহিতকারী নিয়ম পালনে পরতন্ত্র থাকতে এবং প্রত্যেক হিতকারী নিয়মে সবাইকে স্বতন্ত্র থাকতে। আর্যসমাজীরাকি আর্যসমাজের মূলনীতি ও বিশ্বাসকে টাটা বাই-বাই করছেন ?!!! আমাদের প্রত্যেককে সামাজিক সর্বহিতকারী নিয়ম যেমন বিবাহে সিঁদুরদান বা সিঁদুর পরার নিয়ম পালনে পরতন্ত্র থাক উচিৎ॥
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26 January, 2025

বৈদিক সৃষ্টি উৎপত্তি বিজ্ঞান

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বৈদিক সৃষ্টি উৎপত্তি বিজ্ঞান

যখন সৃষ্টি নির্মাণের সময় আসে, সেই সময় সর্বপ্রথম সর্বব্যাপক চেতন তত্ত্বের মধ্যে সৃষ্টি উৎপত্তি করার কামনা উৎপন্ন হয়। এটা হল সৃষ্টি উৎপত্তির প্রথম চরণ। জড় পদার্থের মধ্যে কোনো প্রবৃত্তি স্বতঃ হয় না। যেরকম আমাদের শরীর জড় আর চেতনের কারণে আমাদের শরীরে কাজ করার ইচ্ছা মনের মধ্যে উৎপন্ন হয়। সেইভাবে প্রকৃতি দ্বারা স্বতঃ সৃষ্টি উৎপত্তি হয় না আর না হতে পারবে। এই কামনা উৎপন্ন হওয়ার পরে যে পদার্থ সবার আগে উৎপন্ন হয় সেটা হল কাল। চেতন তত্ত্ব প্রকৃতির সত্ব, রজস্ ও তমস্ এই তিনটি গুণের সাম্যাবস্থার মধ্যে "ওম্" রশ্মির কম্পনকে সূক্ষ্মতম পরা রূপে সর্বত্র উৎপন্ন করে, এই "ওম্" রশ্মিই সেই তিনটি গুণকে জাগ্রত বা সক্রিয় করে। এদের মধ্যেও সর্বপ্রথম কাল তত্ত্বকে উৎপন্ন করার হেতু সত্ব ও রজস্ এই দুটি গুণকেই জাগ্রত করে। এই দুটি গুণের উৎপত্তি হতেই কাল তত্ত্ব সক্রিয় হয়ে যায়। এই সতত সক্রিয় কাল তত্ত্ব ত্রিগুণা প্রকৃতিকে জাগাতে অর্থাৎ সক্রিয় করতে থাকে। এই কাল তত্ত্ব দুই গুণ দ্বারা যুক্ত প্রকৃতি পদার্থের মধ্যে অব্যক্ত ভাব দ্বারা প্রেরিত "ওম্" রশ্মির রূপে হয়। এইভাবে সেটা "ওম্" -এর সবথেকে সূক্ষ্মতম রূপ মূল প্রকৃতির দ্বারা মিশ্রিত হয়েই কালের রূপ ধারণ হয়।

এই অবস্থার মধ্যে মূল প্রকৃতির মতো গুণের সাম্যাবস্থা থাকে না, এই কারণে একে সর্বথা অব্যক্ত মানা যেতে পারে না। এইজন্য তার মধ্যে অতি সূক্ষ্মতম বলও উৎপন্ন হয়ে যায়। "ওম্" রশ্মি সম্পূর্ণ মূল পদার্থের মধ্যে আকর্ষণকে উৎপন্ন করতে সক্ষম হয়। এই সময়েও প্রকৃতির সাম্যাবস্থা সর্বথা ভঙ্গ হতে পারে না। প্রকৃতির এই অবস্থাকেই কাল বলে। "ওম্" রশ্মির সঙ্গে চেতনের সাক্ষাৎ সম্বন্ধ থাকে। এই অবস্থা প্রকৃতির মধ্যে উৎপন্ন হয়, এই কারণে এটা জড় পদার্থ, কিন্তু যেহেতু এটা চেতন তত্ত্বের সঙ্গে সাক্ষাৎ সম্বন্ধিত এই কারণে এটা চেতনবত্ ব্যবহার করে।


প্রকৃতির সেটা প্রায় অব্যক্ত (পূর্ণ অব্যক্ত নয়) অবস্থা, যার মধ্যে "ওম্" রশ্মির সর্বাধিক সূক্ষ্ম রূপের অব্যক্ত সঞ্চার হয়ে গেছে, যার দ্বারা প্রকৃতির সত্ব ও রজোগুণ অত্যন্ত সূক্ষ্ম রূপে ব্যক্ত হয়ে যায়, কিন্তু তমোগুণ সর্বদা অব্যক্তই থাকে। অতি সূক্ষ্ম আকর্ষণ বল ও গতির উৎপত্তি দ্বারা যুক্ত প্রকৃতি পদার্থের এই অবস্থার নামই হচ্ছে কাল, যা সম্পূর্ণ প্রকৃতি এবং তার দ্বারা উৎপন্ন পদার্থের মধ্যে সর্বদা প্রারম্ভিক বল উৎপন্ন করতে থাকে।


বৈদিক বিজ্ঞান অর্থাৎ বেদ তথা আমাদের ঋষিদের অনুসারে এই সৃষ্টি এক জড় পদার্থ দ্বারা উৎপন্ন হয়েছে, পদার্থের সেই অবস্থাকে প্রকৃতি বলা হয়। এই পদার্থ হচ্ছে যেকোনো জড় পদার্থের সবথেকে সূক্ষ্ম, প্রারম্ভিক এবং স্বাভাবিক অবস্থা। এই ব্রহ্মাণ্ডের মধ্যে বিদ্যমান অসংখ্য বিশালতম তারা থেকে শুরু করে সূক্ষ্মতম কণা, তরঙ্গ, আকাশ আদি পদার্থ সবই এই প্রকৃতি পদার্থ থেকে উৎপন্ন হয়েছে, তার মধ্যেই স্থির আছে আর এক নিশ্চিত সময়ের পশ্চাৎ সেই পদার্থের মধ্যে লীনও হয়ে যাবে। এই ভাবে,


[পদার্থের সবথেকে সূক্ষ্ম অবস্থা, যা দিয়ে বর্তমানের আকাশ, তরঙ্গ ও মূলকরণ থেকে শুরু করে তারা আদির নির্মাণ হয়, তাকে প্রকৃতি বলা হয়]


আমাদের চারপাশে, যা কিছু আমরা দেখতে পাচ্ছি অথবা দেখতেও পাচ্ছি না, সেই সব সূক্ষ্ম স্তরে অণু - পরমাণু দিয়ে তৈরি হয়েছে। এর থেকেও অধিক সূক্ষ্ম স্তরে গেলে পরমাণুও অতি সূক্ষ্ম কণা, যাকে বর্তমানে ইলেকট্রন, প্রোটন আর নিউট্রন বলে, দ্বারা মিশ্রিত হয়ে তৈরি হয়েছে। তারপর প্রোটন ও নিউট্রনকে কোয়ার্ক নামক সূক্ষ্মতর কণার দ্বারা মিশ্রিত হয়ে তৈরি মানা হয়। এখন প্রশ্ন এটা উঠছে যে ইলেকট্রন ও কোয়ার্ক আদি কণা কি দিয়ে মিশ্রিত হয়ে তৈরি হয়েছে? এই প্রশ্নের উত্তর আধুনিক বিজ্ঞানের কাছে নেই, কারণ তার থেকে অধিক সূক্ষ্ম স্তরে আমরা বর্তমানের কোনো টেকনিক দিয়ে জানতে পারবো না। বর্তমান বিশ্বের মধ্যে অনেক বৈজ্ঞানিক এই সূক্ষ্ম পদার্থকে স্ট্রিং নামক সূক্ষ্ম সংরচনার দ্বারাই তৈরি বলে মনে করে, কিন্তু তারা স্ট্রিংয়ের বিষয়ে খুব বেশি ব্যাখ্যা করতে পারে না। বস্তুতঃ তাদের এই কথিত সিদ্ধান্ত গণিতীয় ব্যাখ্যা পর্যন্তই সীমিত।


বৈদিক বিজ্ঞানের অনুসারে, যে পদার্থ নিজের থেকে কোনো সূক্ষ্ম তত্ত্ব দ্বারা মিলিত হয়ে তৈরি হয়নি, যার বিভাগ করতে-করতে শেষে যা অবশিষ্ট থাকে আর সমস্ত মূলকণা, এমনকি সমস্ত তরঙ্গ ও আকাশ আদি পদার্থ যে পদার্থ দ্বারা তৈরি হয়, সেটা হল প্রকৃতি পদার্থ।


কাল তত্ত্বের মধ্যে প্রকৃতির সত্ব ও রজস্ গুণ বিদ্যমান থাকে। এরমধ্যে তমোগুণ সর্বদা নিষ্ক্রিয় অবস্থায় থাকে, এইজন্য তার অভাবই হয়। এই কারণে কাল তত্ত্ব সতত গতি করে, এটা কখনও থামে না। কালের অতিরিক্ত অন্য সব পদার্থের মধ্যে তিনটি গুণই ন্যূন বা অধিক মাত্রা অনিবার্যতঃ বিদ্যমান হয়। কাল হচ্ছে সর্বব্যাপক, সতত গমনকারী একরস তত্ত্ব, যা প্রত্যেক পদার্থকে প্রেরিত করে, কিন্তু স্বয়ং সর্বোচ্চ চেতন তত্ত্বের অতিরিক্ত অন্য কোনো পদার্থের দ্বারা প্রেরিত হয় না। কালের প্রেরণা দ্বারাই মন, প্রাণ ও ছন্দ রশ্মির উৎপত্তি হয় আর এইসবের থেকে নানা পদার্থের উৎপত্তি হয়। কাল তত্ত্বই হচ্ছে অনেক প্রকারের পদার্থ ও কর্মের বীজরূপ। সৃষ্টির সব দ্রব্য, কর্ম, গুণ আদির বীজ হচ্ছে এই তত্ত্বই, কিন্তু এটা হল তার সাধারণ নিমিত্ত কারণ, উপাদান হয় নয়। এর মানে হল কাল তত্ত্বের মধ্যে স্বয়ং এই পদার্থের একটা অবয়ব নেই। কাল তত্ত্ব মনস্ তত্ত্ব আদিকে প্রেরিত করে সাত ব্যাহৃতি রশ্মিকে (ভূঃ, ভুবঃ, স্বঃ, মহঃ, জনঃ, তপঃ, সত্যম্) উৎপন্ন করে। এই সাত রশ্মির দ্বারা কাল তত্ত্ব অগ্রিম রশ্মিদের উৎপন্ন করে। কাল তত্ত্ব নিত্য অর্থাৎ অজন্মা ও অবিনাশী পদার্থকে জীর্ণ করে না আর না করতে পারবে, অথচ অনিত্য পদার্থের মধ্যে কাল ব্যাপ্ত হয়ে তাদের নিরন্তর জীর্ণ করতে থাকে।


কাল তত্ত্বই হচ্ছে প্রকৃতির উপর্যুক্ত অবস্থা, এটাই ত্রিগুণা প্রকৃতির মহত্ তত্ত্ব আদির মধ্যে পরিবর্তন করে আর পুনঃ তাকেই প্রেরিত করে। এই প্রক্রিয়ার মধ্যে কাল তত্ত্ব প্রকৃতির তমোগুণকেও সক্রিয় করে মহত্ তত্ত্বাদি পদার্থের নির্মাণ করে। এইভাবে সেটা বিভিন্ন পদার্থকে নিজের প্রেরণা দ্বারা উৎপন্ন করে আর তারপর তাদের প্রেরিত এবং ধারণও করে। আধুনিক বিজ্ঞানও দ্রব্যের ঊর্জা দ্বারা নির্মিত, প্রেরিত হওয়াকে মানে, তারসঙ্গে ঊর্জা দ্বারা দ্রব্যকে ধারণ করা এবং তার রূপকেও মানে। পরা "ওম্" রশ্মি যুক্ত প্রকৃতি পদার্থ, যাকে কাল তত্ত্ব বলে, সেটা কখনও জীর্ণ হয় না। প্রলয়াবস্থাতে প্রকৃতিকে প্রেরিত না করে অব্যক্ত রূপে এই তত্ত্ব যথাযথ বিদ্যমান থাকে। এরদ্বারা আমরা এটা বলতে পারি যে কালের (বা ওম্ রশ্মির) সক্রিয় হওয়াটাই হচ্ছে সৃষ্টির সর্বপ্রথম চরণ, বাস্তবে কাল অব্যক্ত অবস্থায় সর্বদা বিদ্যমান থাকে।


"ওম্" -এর সূক্ষ্মতম স্বরূপ তথা বিভিন্ন অক্ষররূপ বাক্ তত্ত্বের কখনও পূর্ণ বিনাশ হয় না, এই কারণে এদের অক্ষর রশ্মিও বলে। তবে হ্যাঁ, মহাপ্রলয় কালে এই সর্বথা অব্যক্ত অক্ষর "ওম্" -এর প্রকৃতি রূপ পদার্থের সঙ্গে সাক্ষাৎ সক্রিয় সম্বন্ধ হয় না। কাল তত্ত্ব অবশ্য নিজের অব্যক্ততম রূপে বিদ্যমান থাকে। এটা মহাপ্রলয়কাল পর্যন্ত এই রূপেই বিদ্যমান থাকে তথা অন্য প্রকৃতি রূপ পদার্থের মধ্যে এটা বীজরূপে অনাদি এবং অনন্ত রূপে সর্বদা বিদ্যমান থাকে। এই অজর কাল চক্রের কারণেই সৃষ্টি-প্রলয়ের চক্র নিয়মিত ও নিরন্তর চলতে থাকে।

যখন পরা "ওম্" রশ্মি (কাল) সর্বপ্রথম মূল প্রকৃতি তত্ত্বকে সৃষ্টির সবথেকে সূক্ষ্ম প্রেরণ দ্বারা যুক্ত করে তাকে বিকৃত করা প্রারম্ভ করে। প্রকৃতির মধ্যে অব্যক্ত রূপে বিদ্যমান বিভিন্ন অক্ষর রশ্মিগুলো জাগ্রত হয়ে ধীরে-ধীরে মূল প্রকৃতিকে মহত্, অহংকার ও মনস্তত্ত্বের রূপে উৎপন্ন করে, কিন্তু সত্ব ও রজস্ গুণ দ্বারা যুক্ত প্রকৃতি তথা "ওম্" -এর কালরূপ স্বয়ং সর্বদা অবিকৃত থেকে তমোগুণের সঙ্গে অন্য দুই গুণে যুক্ত প্রকৃতিকেই সৃষ্টি রচনা হেতু প্রেরিত ও বিকৃত করে। সেই কাল তত্ত্ব "ওম্" -এর পশ্যন্তী রূপকে উৎপন্ন করে মনস্তত্ত্বের মধ্যে স্পন্দন ও ক্রিয়াশীলতা উৎপন্ন করে সপ্ত ব্যাহৃতি রূপী সূক্ষ্ম রশ্মিদের উৎপন্ন করে। এর পশ্চাৎ সেই রশ্মিরদের সাধন বানিয়ে প্রাণ, অপান আদি সাত মুখ্য প্রাণ রশ্মি, পুনঃ অন্য প্রাণ, মরুত্ ও ছন্দ রশ্মিগুলোকে উৎপন্ন করে সৃষ্টি চক্রকে আগে বাড়িয়ে দেয়। বর্তমানেও কাল তত্ত্ব প্রত্যেক পদার্থ - মূলকণা, তরঙ্গ, আকাশ আদির ভিতরে বিদ্যমান থেকে তাদের মধ্যে বিদ্যমান "ওম্" -এর পশ্যন্তী রূপ, ব্যাহৃতি সূক্ষ্ম রশ্মি থেকে শুরু করে সমস্ত রশ্মিকে প্রেরিত করে সবগুলোকে সক্রিয় করে, তারসঙ্গে সেগুলোর মধ্যে উচিত জীর্ণতাও নিয়ে আসে।

কাল তত্ত্বের পশ্চাৎ যে পদার্থ সর্বপ্রথম উৎপন্ন হয়, তাকে বৈদিক ভৌতিকীর মধ্যে মহত্ বলা হয়েছে। এই সৃষ্টির মধ্যে এটাই হচ্ছে সেই প্রাথমিক উৎপন্ন পদার্থ যা বল, ক্রিয়া আদির বীজরূপ হয় তথা যার মধ্যে বিকারের পরিমাণস্বরূপ ব্রহ্মাণ্ডের মধ্যে নানা পদার্থ উৎপন্ন হয়। মহত্-এর উত্তেজিত অবস্থাকে অহংকার বলে আর অহংকারের উত্তেজিত অবস্থাকে মন বলে।

মহত্ তত্ত্বও অব্যক্ত প্রকৃতির লক্ষণের সঙ্গে যুক্ত অর্থাৎ অব্যক্তের মতোই হয়, কিন্তু এটা সর্বথা অব্যক্ত হয় না। সাংখ্যদর্শনের মধ্যে মহর্ষি কপিল মহত্, অহংকার এবং মন এই তিন পদার্থকে পৃথক-পৃথক মেনেছেন। এই পদার্থ সব পদার্থকে ধারণ করতে সক্ষম হয়। মহর্ষি কপিলের দৃষ্টিতে মহত্ তত্ত্বের চরম অর্থাৎ অগ্রিম রূপকেই অহংকার বলে। অহংকার তত্ত্ব সত্ব, রজস্ ও তমস্-এর প্রধানতার দ্বারা ক্রমশঃ বৈকারিক, তৈজস এবং ভূতাদি নামের হয়। মহত্ তত্ত্বকে সেই সময় অহংকার বলে যখন এটা সৃষ্টি উৎপত্তির দ্বিতীয় চরণ অর্থাৎ তার প্রকট অবস্থার মধ্যে হয়। এর থেকে নানা দেব পদার্থ অর্থাৎ বিভিন্ন প্রাণ, ইন্দ্রিয় ও মন এবং তিন ব্যাহৃতি রূপ সূক্ষ্ম ছন্দ রশ্মি রূপী লোক উৎপন্ন হয়, তার সঙ্গে-সঙ্গে সব ছন্দ রশ্মি এর থেকেই উৎপন্ন হয়। এই সম্পূর্ণ সৃষ্টি অহংকার রূপই হয় তথা তারই দ্বারা নানা কামনার অর্থাৎ আকর্ষণ আদি বলের সঙ্গে যুক্ত হয়।  যখন পরা "ওম্" রশ্মি সত্ব আর রজস্ এই দুই গুণকেই সক্রিয় করে, তখন মূল প্রকৃতি কাল তত্ত্বের রূপ ধারণ করে আর যখন পরা "ওম্" রশ্মি (কাল তত্ত্ব) সেই মূল প্রকৃতির তিন গুণকে সক্রিয় করে, তখন সেটা মহত্ তত্ত্বের রূপ ধারণ করে। এই তত্ত্ব সম্পূর্ণ অবকাশ রূপ আকাশের মধ্যে একরস হয়ে ভরা থাকে অর্থাৎ এরমধ্যে প্রায় কোনো হ্রাস-বৃদ্ধি হয় না। "ওম্" রশ্মির পরা অবস্থা সম্পূর্ণ পদার্থের মধ্যে এক সঙ্গে ব্যাপ্ত থাকে, যারফলে তিন গুণ সবথেকে সূক্ষ্ম রূপে সক্রিয় বা জাগ্রত হতে থাকে। এতে সেই পদার্থের মধ্যে এরকম মন্দতম দীপ্তি হয় যেটা সম্পূর্ণ সৃষ্টির মধ্যে অন্যত্র কোথাও হয় না। এই সৃষ্টির মধ্যে যে ঘন অন্ধকার আমরা দেখি, তার থেকেও অধিক ঘন অন্ধকার মহত্ তত্ত্বের মধ্যে হয়। মহত্ -এর চরমাবস্থা রূপ অহংকারও এরকম অন্ধকার যুক্ত হয়। এই সময় পরারূপ "ওম্" রশ্মির অতিরিক্ত অন্য যেকোনো সূক্ষ্ম থেকে সূক্ষ্ম রশ্মিও উৎপন্ন হতে পারে না। যখন সর্বত্র ব্যাপ্ত অহংকার তত্ত্বের মধ্যে "ওম্" ছন্দ রশ্মির পশ্যন্তী রূপের সঞ্চরণ হয়, তখন অহংকারের সেই অবস্থাকেই মনস্তত্ত্ব বলা হয়। মনও মহত্ তত্ত্ব বা অহংকারের মতো সর্বত্র ব্যাপ্ত থাকে। এটা নিজের থেকে উৎপন্ন প্রত্যেক পদার্থকে বাইরে ও ভিতর থেকে ব্যাপ্ত করে। এই পদার্থ "ওম্" রশ্মির পশ্যন্তী রূপের সঙ্গে মিলে তাকে নিজের সঙ্গে ধারণ করে থাকে। মনস্তত্ত্বের সার হল "ওম্"-এর পশ্যন্তী রূপ তথা এই বাক্ তত্ত্ব থেকেই সমস্ত কর্ম উৎপন্ন হয়। বস্তুতঃ এই "ওম্" রশ্মির কারণেই মনস্তত্ত্ব সক্রিয় হয় অথবা অহংকার তত্ত্ব মনস্তত্ত্বের রূপ ধারণ করে। যদি মহত্ তত্ত্ব, মনস্তত্ত্বকে একটা সূক্ষ্ম ঊর্জার মতো মনে করে বিচার করা হয়, তাহলে এরকমটা মনে হবে যে এই অদৃশ্য ও অগ্রাহ্য ঊর্জা নগণ্য শক্তির হয়, যা একরসবত্ সর্বত্র ভরা থাকে। এটার রশ্মি প্রায় শূন্য অথবা অত্যল্প আবৃত্তি এবং অনন্তের সমকক্ষ তরঙ্গদৈর্ধ্যকারী হয়। এইজন্য এই তত্ত্বও প্রায়শঃ অচল রূপে সর্বত্র ব্যাপ্ত থাকে। মনস্তত্ত্বের ভিতরে সমস্ত সংযোগ-বিয়োগ আদি ক্রিয়া এই রশ্মির কারণেই প্রারম্ভ হয়। এই "ওম্" রশ্মি রূপ বাক্ তত্ত্বই মনস্তত্ত্বকে সর্গ প্রক্রিয়া প্রারম্ভ করার যোগ্য বানিয়ে তোলে অর্থাৎ তাকে সক্রিয় করে।


এইভাবে সম্পূর্ণ অবকাশরূপ আকাশ সেই সময় মনস্তত্ত্ব এবং "ওম্"-এর পশ্যন্তী রূপের মিশ্রণে ভরে যায়। সেই সময় সম্পূর্ণ পদার্থের মধ্যে কিছু ব্যক্ত, কিন্তু মানবের টেকনিকের দৃষ্টিতে অব্যক্ত দীপ্তি ও সূক্ষ্মতম কম্পনের বিদ্যমানতা হয়। এখানে মনস্তত্ত্ব আগামী পদার্থের উৎপত্তি হেতু যোগ্য হয়ে উঠে। এই পদার্থের মধ্যে এখনও একরসতা ভঙ্গ হয়নি, কিন্তু হওয়ার জন্য অনুকূল স্থিতি হয়ে গেছে। উদাহরণের জন্য যেভাবে বীজ রোপণের পূর্বে খেতে হাল দিয়ে চাষ করা হয় আর সেই বীজ রোপণের জন্য তৈরি থাকে, ঠিক সেইভাবে মনস্তত্ত্ব অগ্রিম স্তরের পশ্যন্তী রশ্মি বানানোর জন্য তৈরি থাকে, তদুপরান্ত অন্য পদার্থের উৎপত্তি প্রক্রিয়া ভবিষ্যতে প্রারম্ভ হবে।


যখন "ওম্" রশ্মির পশ্যন্তী রূপের তীব্রতা অর্থাৎ ঊর্জা বেড়ে যায়, সেই সময় চেতন তত্ত্ব কাল তত্ত্বের দ্বারা সম্পূর্ণ মহত্তত্ব-অহংকার বা মনস্তত্ত্বের বিশাল সাগর, যা সর্বত্র একরসবত্ ভরা থাকে, তাকে সূক্ষ্ম পশ্যন্তী "ওম্" বাক্ রশ্মির দ্বারা এরকম স্পন্দিত করতে থাকে, যেন কোনো শক্তি কোনো মহাসাগরের মধ্যে এক সঙ্গে তীব্রতে অনেক প্রকারের সূক্ষ্ম-সূক্ষ্ম ঢেউ উৎপন্ন করছে, সেইভাবে চেতন তত্ত্ব "ওম্" রশ্মির দ্বারা মনস্ তত্ত্বের মধ্যে প্রাণ ও ছন্দ রশ্মি রূপী ঢেউ নিরন্তর উৎপন্ন করতে থাকে [ "ওম্" ছন্দ রশ্মির সঙ্গত না হলে সমস্ত প্রাণ রশ্মি ডার্ক এনার্জির মধ্যে পরিবর্তিত হয়ে যায়]। যখন এর উৎপত্তির প্রক্রিয়া প্রারম্ভ হয়, তখন সেই প্রক্রিয়া অকস্মাৎ অত্যন্ত তীব্র গতিতে হয়। এই ঢেউ (রশ্মি) মুখ্যতঃ চার প্রকারের হয় -

(১) মূল ছন্দ রশ্মি (২) প্রাথমিক প্রাণ রশ্মি (৩) মাস ও ঋতু রশ্মি (৪) অন্য ছন্দ ও মরুত্ রশ্মি।

মাস হল বিশেষ প্রকারের রশ্মির নাম, যা প্রাণ ও অপানের সংযুক্ত রূপের তিরিশ বার স্পন্দিত হওয়াতে নির্মিত হয়। একটা মাসের মধ্যে তিরিশ প্রাণ-অপান যুগ্ম থাকে। (মনে রাখবেন যে, এর মানে এই নয় যে একটা মাস রশ্মির ভিতরে তিরিশ প্রাণ ও তিরিশ অপান হয়ে সব মিলিয়ে ষাট রশ্মি যথাযথ বিদ্যমান হয়, বরং বাস্তবিকতা এই হল যে এই ষাট রশ্মির স্পন্দনের ফলস্বরূপ একটা মাস রশ্মি রূপী স্পন্দন হয়, যা সেই স্পন্দনের থেকে সর্বথা ভিন্ন হয় অথবা সেই ষাট স্পন্দনই একটা নবীন স্পন্দনের মধ্যে পরিবর্তিত হয়ে যায়, অনেক রশ্মির মিলিত হওয়ায় কোথাও-কোনো রশ্মির উৎপত্তির চর্চা যেখানে হবে, সেখানে এইভাবেই বুঝে নেওয়া উচিত।) এই যুগ্মের বারো প্রকাশ দ্বারা বিশিষ্ঠ সংযোগের কারণেই তিরিশ প্রাণ-অপান যুগ্ম থেকে বারো মাস রশ্মির নির্মাণ হয়। যদি এরকম না হতো, তাহলে কেবল এক প্রকারেরই মাস রশ্মি উৎপন্ন হতে পারতো। এই মাস রশ্মি ছাড়া সৃষ্টি বা সূর্যাদি লোকের নির্মাণ সম্ভব হবে না। এই রশ্মি বিভিন্ন রশ্মিকে জুড়ে রাখার কাজ করে।


এই রশ্মি বিভিন্ন রশ্মিদের যারা য়োষা ও বৃষা রূপে ব্যবহার করে, তাদের নিশ্চিত বিন্দু রূপ ভাগগুলোকে উত্তেজিত করে পরস্পর সংযোগ করাতে সহায়ক হয়। বারো প্রকারের মাস রশ্মি হচ্ছে নিম্নানুসারে -

১) মধু ২) মাধব ৩) শুক্র ৪) শুচি ৫) নভস্ ৬) নভস্য ৭) ঈষ্ ৮) ঊর্জ্ ৯) সহস্ ১০) সহস্য ১১) তপস্ ১২) তপস্য। ঋতু হচ্ছে একটা পদার্থ, যা রশ্মির রূপে হয়। দুই-দুই মাস রশ্মির যুগ্মকে ঋতু বলা হয়। ঋতু রশ্মি দিশাকে উৎপন্ন করে অর্থাৎ এর কারণে বিভিন্ন লোক বা কণা ঘূর্ণনের দিশা নির্ধারিত হতে সহযোগ পাওয়া যায়। উৎপন্ন সব পদার্থকেও "ঋতু" বলে, কারণ তারা সবাই সর্বদা নিরন্তর গমন করতে থাকে।


ঋতু রশ্মি প্রকাশ নির্মাণ করতে নিজের বিশেষ ভূমিকা পালন করে। যেকোনো পদার্থের সঙ্গে এর মিলন দ্বারা ঊষ্মার তীব্রতা বৃদ্ধি হয়। এই রশ্মি কণা ও তরঙ্গাণুর (কোয়ান্টা) পরস্পর সংযোজন-বিয়োজনের মধ্যে বিশেষ ভূমিকা পালন করে। তারার কেন্দ্রীয় ভাগের মতো স্থানগুলোতে ঊর্জার উৎপত্তি হয়, এই রশ্মির প্রাধান্য সেখানেও থাকে। তারার বাইরের বিশাল ভাগের মধ্যেও ঋতু রশ্মির বিশেষ প্রাধান্য থাকে। ঋতু রশ্মি বিভিন্ন প্রাণাদি রশ্মিকে তীব্রতার সঙ্গে অবশোষিত করে, এই কারণে যেকোনো পদার্থের সঙ্গে এর মিলন দ্বারা সেই পদার্থ ঊষ্মাকে তীব্রতার সঙ্গে অবশোষিত করে। এই রশ্মি অন্য রশ্মিকে নিজের সঙ্গে সঙ্গত করতে অথবা তাদের আচ্ছাদিত করতে বিশেষ সমর্থ হয়।

ছয় ঋতু রশ্মিঃ ১) বসন্ত (মধু + মাধব) ২) গ্রীষ্ম (শুক্র + শুচি) ৩) বর্ষা (নভস্ + নভস্য) ৪) শরদ্ (ঈষ্ + ঊর্জ্) ৫) হেমন্ত (সহস্ + সহস্য) ৬) শিশির (তপস্ + তপস্য)।
 
কাল তত্ত্বের পশ্চাৎ কাল মাপক প্রাণ, অপান, উদান, মাস এবং ঋতু রশ্মিগুলোই হল এরকম রশ্মি যাদের মধ্যে তমোগুণের মাত্রা সর্বথা অভাব তো থাকে না, কিন্তু এর মাত্রা এতই ন্যূন থাকে যে এই রশ্মি অন্য সব রশ্মির অপেক্ষায় সতত ও নির্বাধগামিনী হয়। এই কাল তত্ত্বের সমান তো সতত ও নিরপেক্ষ গমনকারী হয় না, কিন্তু অন্য রশ্মির অপেক্ষায় এর এটাই স্বভাব হয়। অনেক প্রাণ রশ্মি, যা এই সৃষ্টির মধ্যে নানা অতিসূক্ষ্ম রশ্মির দ্বারা উৎপন্ন হয়, তাদের ঋষি রশ্মি বলে। এই ঋষি রশ্মিগুলো অনেক প্রকারের মন্ত্র রূপ ছন্দ রশ্মিকে উৎপন্ন, ধারণ আর সক্রিয় করে। তারদ্বারা উৎপন্ন মন্ত্র রূপ ছন্দ রশ্মি, সৃষ্টির মধ্যে যারাই কাজ করছে, তাদের মধ্যে এই ঋষি রশ্মিরও সহযোগী ভূমিকা থাকে।

রশ্মির উৎপত্তি কালেই আকাশের উৎপত্তি হয়। "আকাশ" শব্দটা হচ্ছে দুটি রূপে প্রযুক্ত। প্রথম রূপটা হচ্ছে অবকাশ রূপ আকাশ অভাব বা শূন্য রূপ। অন্যদিকে বেদের মধ্যে অপর ব্যোম নামে দ্বিতীয় আকাশের সংকেত করা হয়েছে, যার সংকেতকে মহর্ষি দয়ানন্দ সরস্বতী "ঋগ্বেদাদিভাষ্যভূমিকা" নামক গ্রন্থে উদ্ধৃত করেছেন। এই আকাশ হচ্ছে একটা পদার্থ বিশেষের নাম।

মনস্তত্ত্ব থেকেই পাঁচ মহাভূত উৎপন্ন হয়। এই সৃষ্টির উৎপত্তি বিভিন্ন প্রাণ ও ছন্দ রশ্মির নানা প্রকারের মিলন দ্বারাই হয়েছে। সব পঞ্চ মহাভূত যথা পৃথিবী, জল, অগ্নি, বায়ু এবং আকাশ সবই এর দ্বারাই তৈরি হয়েছে, এদের মধ্যে আকাশ মহাভূতের উৎপত্তি সর্বপ্রথম হয়। বর্তমান ভৌতিক বৈজ্ঞানিক আকাশ তত্ত্বের (স্পেস) বিষয়ে নিতান্ত ভ্রম বা সংশয়ের মধ্যে আছে। তারা আকাশকে ত্রিবিমীয় (3D) মানে, কিন্তু আকাশের স্বরূপ কি? রিক্ত স্থানই কী আকাশ? নাকি আকাশ হচ্ছে কোনো পদার্থ? এই প্রশ্নগুলোর স্পষ্ট উত্তর তাদের কাছে নেই। তারা গুরুত্বাকর্ষণ বল অথবা বিদ্যুত্ চুম্বকীয় বলের দ্বারা আকাশের বক্র বা বিকৃত হওয়াকে মানে, কিন্তু তাকে কোনো ধরনের পদার্থ বিশেষ বলার থেকে এড়িয়ে চলে।

যদি আকাশ কোনো পদার্থই না হয়, তাহলে বলের কারণে বিকৃত অথবা বক্রতা কিভাবে হবে? আশ্চর্যের বিষয় হল, বর্তমানে উন্নত মানা হয় এমন ভৌতিক বিজ্ঞান গুরুত্বাকর্ষণ বলকে আকাশের বক্রতার রূপেই মানে ও জানে, অথচ আকাশ কি? এটা তারা জানে না। এইদিকে বৈদিক বিজ্ঞান আকাশ তত্ত্বের বিষয়ে ব্যাপক তথ্য প্রস্তুত করে। বৈদিক বিজ্ঞানের অনুসারে আকাশ হচ্ছে একটা পদার্থ, সব ধরনের কণা ও তরঙ্গাণু আকাশ তত্ত্বের মধ্যেই উৎপন্ন হয় ও তারমধ্যেই নিবাস করে। আকাশ প্রাণ রশ্মির রূপেই বিদ্যমান থাকে। প্রাণ, অপান এবং উদান রশ্মিগুলোর এক সহস্র বার আবৃত্তি হয়, তখন বিভিন্ন প্রাণের সঙ্গম দ্বারা অন্য রশ্মিগুলো আকাশ তত্ত্ব রূপে উৎপন্ন হয়। বিভিন্ন ছন্দ ও প্রাণ রশ্মির মিশ্রণ আকাশ তত্ত্বকে বক্র বা বিকৃত করার ক্ষমতা রাখে। আকাশ স্বয়ং হচ্ছে রশ্মি রূপ, এই রশ্মিগুলো অত্যন্ত সূক্ষ্ম হয়। আকাশ তত্ত্ব বিভিন্ন কণা বা তরঙ্গাণুদের থামিয়ে রাখতে সহায়ক হয়। এরমধ্যে বৃহতী ছন্দ রশ্মিগুলো প্রচুর মাত্রায় বিদ্যমান থাকে। এটা এতই সূক্ষ্ম হয় যে এর স্বরূপ অভাব বা রিক্ততার মতো মনে হয়। এরমধ্যে রশ্মির প্রাচুর্য থাকে তথা এটা সমস্ত পদার্থের মধ্যে ব্যাপ্ত থাকে। এটা ছিদ্রের সমান অর্থাৎ শূন্যতার সমান ব্যবহার করে। এরমধ্যে "ওম্", ত্রিষ্টুপ্, মরুত্, সূত্রাত্মা বায়ু ও ছন্দ আদি রশ্মির প্রাচুর্য থাকে। এটা বিভিন্ন বড়ো ছন্দ রশ্মি, মূল কণা, বিকিরণ আদিকে গতিশীল করার হেতু অবকাশ ও মার্গ প্রদান করে। মহর্ষি কণাদ-এর শব্দে "যারমধ্য দিয়ে বিভিন্ন পদার্থের প্রবেশ করা বা বেরিয়ে যাওয়া হয়, তাকে আকাশ বলে।"


আকাশের মধ্যে বিদ্যমান প্রাণ রশ্মিগুলো অত্যন্ত শিথিলাবস্থায় চক্রাকার গতিতে ভ্রমণ করতে থাকে। এদের মধ্যে পারস্পরিক বন্ধন অতি নিম্ন হয়। এই কারণে আকাশ তত্ত্বতে বিভিন্ন কণা বা বিকিরণ স্বচ্ছন্দ আর নিরাপদ গতিতে গমন করতে থাকে। সৃষ্টি প্রক্রিয়ার অন্তর্গত যখন "ওম্", "ভূঃ", "ভুবঃ", "স্বঃ" -এর অতিরিক্ত অন্য দৈবী ছন্দ রশ্মি এবং সূত্রাত্মা বায়ু সহিত প্রাণ, অপান আদি প্রাণ রশ্মিগুলো উৎপন্ন হয়ে যায়, সেই সময় সেগুলোর মধ্যে কিছু রশ্মির সংঘাত দ্বারা একটা সূক্ষ্ম ও প্রায়শই একরসবত্ পদার্থের উৎপত্তি হয়। এই পদার্থের উৎপত্তির পূর্বে প্রাণ, অপান এবং উদানের এক সহস্রবার আবৃত্তি আগে থেকেই হয়ে থাকে। তখন দৈবী অনুষ্টুপ্ এবং য়াজুষী (বৃহতী, পংক্তি ও ত্রিষ্টুপ্) রশ্মিগুলোও আগে থেকেই উৎপন্ন হয়ে থাকে। এই চার ছন্দ রশ্মি পরস্পর এইভাবে মিশ্রিত থাকে যে দৈবী অনুষ্টুপ্ ছন্দ রশ্মির সমান প্রভাব দেখায়। বিভিন্ন প্রাণ, অপান আদি রশ্মি, বিভিন্ন দৈবী ছন্দ রশ্মির সঙ্গে মিশ্রিত হয়ে এরকম দৈবী অনুষ্টুপ্ ছন্দ রশ্মিদের উৎপন্ন করে, যা প্রায়শই নিষ্কম্প হয়। এই রশ্মিগুলো নিজের স্থানেই স্পন্দিত হতে থাকে, না কি মনস্তত্ত্বের মধ্যে সর্বত্র গমন করে।


আকাশ তত্ত্বের অবয়বভূত প্রাণ ও মরুত্ রশ্মিগুলো শিথিলাবস্থায় পারস্পরিক সংঘাতের রূপেই বিদ্যমান থাকে। এই সংঘাতের মধ্যে বিদ্যমান সেই রশ্মিগুলো চক্রাকারে ঘূর্ণন করতে থাকে অর্থাৎ সেগুলোর মধ্যে রেখীয় গতি থাকে না, তবে ঘূর্ণন গতি অতি ধীর গতিতে হতে থাকে। এই রশ্মিগুলো আকাশ রশ্মির রূপে পরিচিত। এই রশ্মিগুলো এই অবস্থায় এরকম শিথিল থাকে যে বিভিন্ন বড়ো ছন্দ রশ্মি, কণা বা তরঙ্গাণু সরলতার সঙ্গে এদের মাঝখানে স্বচ্ছন্দ গতি করতে পারে। গতি করতে গিয়ে কণা, তরঙ্গাণু বা রশ্মিগুলো যখন আকাশ তত্ত্বের মাঝখান দিয়ে গমন করে, তখন এরা ঘূর্ণন করতে-করতে পূর্বোক্ত শিথিল আকাশ রশ্মিগুলোর (প্রাণ ও মরুত্) মাঝখান দিয়ে সরলতার সঙ্গে পিচ্ছলিয়ে গতি করে। এতকিছুর পরেও এই শিথিল রশ্মিগুলো সর্বদা সূত্রাত্মা বায়ু রশ্মিদের দ্বারাই নিয়ন্ত্রিত থাকে। এই কারণে যখন আকাশ তত্ত্ব কোনো বলের দ্বারা সংকুচিত বা বিকৃত হয়, তখন সূত্রাত্মা বায়ু রশ্মির দ্বারা আকাশ রশ্মির ঘূর্ণন গতি প্রভাবিত হওয়ার কারণেই হয়। এই তত্ত্ব সূক্ষ্ম ও অব্যক্ত প্রকাশযুক্ত, সবথেকে হালকা অর্থাৎ নগণ্য দ্রব্যমান এবং বিদ্যুৎ বলের হয়।


এইভাবে আকাশ বিভিন্ন একক দ্বারা নির্মিত জালের সমান হয়। এই একক পরস্পর সূত্রাত্মা বায়ুর সঙ্গে বাঁধা থাকে। এই এককগুলো নিরন্তর নিজের অক্ষের উপর ঘূর্ণন করতে থাকে। এর পারস্পরিক বন্ধন অতি শিথিল হয়, তাই এর মাঝখান দিয়ে কোনো তরঙ্গ অথবা কণা সরলতার সঙ্গে গমন করতে পারে। আকাশ এই তরঙ্গ অথবা কণাগুলোকে গমন করার জন্য রাস্তার কাজ করে। এর অঙ্গভূত কিছু রশ্মি কোনো কণা ও তরঙ্গকে আধার প্রদান করে, তো অন্য কিছু রশ্মি সেই তরঙ্গ ও কণাগুলোকে এরকম ঘর্ষণ প্রদান করে, যেরকম রাস্তায় চললে পরে রাস্তা ঘর্ষণ বল প্রদান করে। যেভাবে রাস্তার ঘর্ষণ বলের প্রতিক্রিয়া স্বরূপ উৎপন্ন বল গাড়ির চাকাকে আগে চলার হেতু বল প্রদান করে, ঠিক সেইভাবে কিছু রশ্মি কোনো কণা ও তরঙ্গকে আকাশে গমন করার সময় প্রতিক্রিয়া বল প্রদান করে তাকে আগে বাড়িয়ে দেয়। এইভাবে কোনো কণা ও তরঙ্গ মুক্ত রূপে আকাশে গমন করে। কণা ও তরঙ্গের গতি করার সময় আকাশের কিছু রশ্মি, আকাশের এককগুলোকে কিছু বিচলিত করে মার্গ তৈরির কাজ করে। 

আকাশ তত্ত্ব প্রাথমিক প্রাণ রশ্মি এবং সূক্ষ্ম রশ্মির দ্বারা নির্মিত হয়। যেকোনো প্রকারের আকর্ষণ-প্রতিকর্ষণ বলের সময় আকাশের সঙ্কুচিত বা প্রসারিত হওয়া এই কারণেই সম্ভব হয়, কারণ আকাশ এই রশ্মিদের দ্বারা নির্মিত হয়ে থাকে।

আকাশ তত্ত্বও সূক্ষ্ম প্রাণ আর মরুত্ রশ্মির মিশ্ররূপ হয়। এরমধ্যে ত্রিষ্টুপ্ আর বৃহতী ছন্দ রশ্মিরও প্রাধান্য বিদ্যমান থাকে, আবার বিভিন্ন কণার ভিতরে গায়ত্রী ছন্দ রশ্মির প্রাধান্য থাকে। আকাশ তত্ত্বের রশ্মিগুলো বিভিন্ন কণার সংযোগ-বিয়োগের মধ্যে অতি সূক্ষ্ম স্তরে বিভিন্ন কণাকে স্পর্শ বা সেচন করতে থাকে, কিন্তু তাদের নিজের আকর্ষণাদি বল নগণ্যের মতো হয়। দিক্-তত্ত্ব (দিশা) হচ্ছে আকাশের অন্তর্গতই অন্তর্ভুক্ত। দিক্-তত্ত্ব হচ্ছে আকাশ তত্ত্বের সেই ভাগ, যা কোনো কণা বা লোক আদি পদার্থকে সবদিক থেকে আবৃত্ত করে থাকে তথা সেই পদার্থের ঘূর্ণন, সংযোজন আদি ক্রিয়াগুলোকে নিয়ন্ত্রিত করে। দিক্ তত্ত্বও আকাশ মহাভূতের মতো রশ্মি রূপ হয়। কাল তত্ত্ব হচ্ছে তাদের তুলনায় অতি সূক্ষ্ম পদার্থ। এই তিন পদার্থের পারস্পরিক সম্বন্ধ এই হচ্ছে যে, তিন মহাভূতকে প্রেরিত ও নিয়ন্ত্রিত তো করে, কিন্তু এরা কোনো পদার্থের ভাগ হয় না। আজ সম্পূর্ণ ব্রহ্মাণ্ডের মধ্যে নানা পদার্থের নির্মাণ হচ্ছে আর এই জন্য নানা ক্রিয়াও হচ্ছে। এই ক্রিয়াগুলোর মধ্যে এই তিন পদার্থ প্রত্যক্ষ ভাগ না নিয়ে পরোক্ষ রূপে প্রেরণার কাজ করতে থাকে। বিভিন্ন বাক্ অর্থাৎ ছন্দ রশ্মিগুলোই দিক্ তত্ত্বের রূপ ধারণ করে।











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20 January, 2025

জম্বুদ্বীপে ভারখণ্ডে

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জম্বুদ্বীপে ভারখণ্ডে

 মহাভারতের ভীষ্মপর্ব হতে তৎকালীন ভৌগলি বর্ণনা পাওয়া যায়। পৃথিবীতে ৭টি দ্বীপ আছে (বর্ত্তমানের সপ্ত মহাদেশের মত)। সাত দ্বীপের মধ্যে একটি হলো জম্বু। জম্বুতে ৯টি বর্ষ বা দেশ আছে, যথাঃ--------
১) ঐরাবৎ বর্ষ, 
২) হৈরণ্যক বর্ষ বা হিরন্ময় বর্ষ, 
৩) শ্বেত বর্ষ, 
৪) ভদ্রাশ্ব বর্ষ, 
৫) কেতুমাল বর্ষ, 
৬) ইলাবৃত বর্ষ, 
৭) হরি বর্ষ, 
৮) হৈমাবত বর্ষ বা কিম্পুরুষ বর্ষ, 
৯) ভারতবর্ষ।

বর্ষ শব্দের তিনটি অর্থের একটি হল দ্বীপের অংশ। তদানীন্তন কালের 'হিমালয়' নামে চিহ্নিত পর্বতশৃঙ্গ হল বর্ত্তমানের Shibalik Range। এর দক্ষিনে শুরু হল ভারতবর্ষ। হিমালয়, হেমকূট, নিষধ, নীল, শ্বেত ও সর্বধাতুসম্পন্ন শৃঙ্গবান এই ছয় পর্বত একাকার। এসকল পর্বত পূর্ব সমুদ্র থেকে পশ্চিম সমুদ্র পর্যন্ত বিস্তৃত। তন্মধ্যে নানা জনপদ প্রতিষ্ঠিত।

হিমালয়ের উত্তরে হৈমবৎবর্ষ এবং হেমকূটের উত্তরে হরিবর্ষ। নীল পর্বতের দক্ষিণে এবং নিষধ গিরির উত্তরে মাল্যবান পর্বত। সুমেরু গিরি নীল ও নিষধ পর্বতের মধ্যে অবস্থিত। লোকসমূদয় উহার উর্দ্ধ, অধঃ ও পার্শ্বপ্রদেশে অবস্থান করে। ভদ্রাশ্ব, কেতুমাল, জম্মু ও উত্তরকুরু; এই চারটি দ্বীপ এর পার্শ্বদেশে অবস্থিত।

হিমালয় পর্বতের দক্ষিণে ভারতবর্ষ, উত্তরে হৈমবৎবর্ষ। হেমকূট পর্বতের উত্তরে হরিবর্ষ, নিষধ পর্বতের উত্তরে ইলাবৃতবর্ষ, নীল পর্বতের উত্তরে শ্বেতবর্ষ, শ্বেত পর্বতের উত্তরে হৈরণ্যক বর্ষ। তারপর ঐরাবৎবর্ষ। এই সাতটি বর্ষ ধনুকাকারে অবস্থিত। - 

মহাভারত ভীষ্মপর্ব প্রথম খণ্ড ষষ্ঠোSধ্যায়
ষড়েতে বর্ষপর্ব্বতাঃ। 
অবগাঢ়া ল্যুভয়তঃ সমুদ্রৌ পূর্বপশ্চিমৌ ॥৩॥

-পূর্ব ও পশ্চিমে বিস্তৃত এই ছয়টা বর্ষপর্বত ঐ উভয়দিকে পূর্ব ও পশ্চিম সমুদ্রে প্রবেশ করিয়া রহিয়াছে ॥৩॥ 

হিমবান্ হেমকূটশ্চ নিষধশ্চ নগোত্তমঃ। 
নীলশ্চ বৈদুর্য্যময়ঃ শ্বেতশ্চ শশিসন্নিভঃ ॥৪॥
সর্বধাতুবিচিত্রশ্চ শৃঙ্গবান্ নাম পর্বতঃ।
এতে বৈ পর্বতা রাজন! সিদ্ধচারণসেবিতাঃ ॥৫॥  

--রাজা! হিমালয়, হেমকূট, পর্বতশ্রেষ্ঠ নিষধ, বৈদুর্য্যমণিময় নীল, চন্দ্র- তুল্য শ্বেত এবং সর্বধাতুবিচিত্র শৃঙ্গবান্, সিদ্ধচারণসেবিত এই ছয়টা বর্ষপর্বত ॥৪-৫৷

এষামন্তরবিষ্কম্ভা যোজনানি সহস্রশঃ।
তত্র পুণ্যা জনপদাস্তানি বর্ষাণি ভারত ! ॥৬॥

-ভরতনন্দন! এই পর্ব্বতগুলির মধ্যবর্তী দেশ সকল সহস্র সহস্র যোজন- বিস্তৃত। তাহাতে যে সকল পবিত্র দেশ আছে, সেই গুলিকেই বর্ষ বলে ॥৬॥

বসন্তি তেষু সত্ত্বানি নানাজাতীনি সর্ব্বশঃ। 
ইদস্ত ভারতং বর্ষং ততো হিমবতঃ পরম্ ॥৭॥ 

-সেই বর্ষগুলিতে নানাজাতীয় প্রাণী সকল বাস করে। সেই হিমালয়ের দক্ষিণদিকে এই ভারতবর্ষ ॥৭॥

ততঃ কিংপুরুষাবাসং বর্ষং হিমবতঃ পরম্। 
হেমকূটাৎ পরঞ্চৈব হরিবর্ষং প্রচক্ষতে ॥৮॥ 

-তাহার পর হিমালয়ের উত্তরে এবং হেমকূটের দক্ষিণে কিন্নরগণের বাসস্থান হরিবর্ষনামক বর্ষ কথিত আছে ॥৮॥

দক্ষিণেন তু নীলস্থ্য নিষধস্যোত্তরেণ তু। 
প্রাগায়তো মহাভাগ! মাল্যবান্ নাম পর্বতঃ ॥৯৷৷ 

-মহাভাগ। নীলগিরির দক্ষিণে ও নিষধগিরির উত্তরে পূর্ব্ব ও পশ্চিমে বিস্তৃত 'মাল্যবান'-নামে একটা পর্ব্বত আছে ॥৯॥

ততঃ পরং মাল্যবতঃ পর্ব্বতো গন্ধমাদনঃ। 
পরিমণ্ডলস্তয়োমধ্যে মেরুঃ কনকপর্বতঃ ॥১০৷৷

-সেই মাল্যবান্ পর্ব্বতের পরে গন্ধমাদনপর্ব্বত রহিয়াছে এবং মাল্যবান্ ও গন্ধমাদনপর্বতের মধ্যে গোলাকার ও স্বর্ণময় মেরুপর্বত আছে ॥১০॥

অধস্তাচ্চতুরাশীতিযোজনানাং মহীপতে!। 
ঊর্দ্ধমধশ্চ তির্য্যক্ চ মেরুরাবৃত্য তিষ্ঠতি ॥১২॥ 

-রাজা। আর সেই মেরুপর্বত চৌরাশী যোজন ভূগর্ভে প্রবিষ্ট। এইভাবে সেই মেরুপর্বত উর্দ্ধ, অধ ও তির্য্যক্ দিক্ সকল ব্যাপ্ত করিয়া রহিয়াছে ॥১২॥

তস্য পার্শ্বেষমী দ্বীপাশ্চত্বারঃ সংস্থিতা বিভো!। 
ভদ্রাশ্বঃ কেতুমালশ জম্বুদ্বীপশ্চ ভারত!। 
উত্তরাশ্চৈব কুরবঃ কৃতপুণ্যপ্রতিশ্রয়াঃ ॥১৩৷৷ 

-ভরতনন্দন! রাজা! সেই মেরুর চারি পার্শ্বে এই চারিটা বিশাল বর্ষ রহিয়াছে; ভদ্রাশ, কেতুমাল, ভারত ও পুণ্যবান্দিগের আশ্রয় উত্তরকুরু ॥১৩৷৷

মেরোস্ত্র পশ্চিমে পার্শ্বে কেতুমালো মহীপতে!।
জন্ম খণ্ডে তু তত্রৈব মহাজনপদো নৃপ ! ॥৩১৷৷

-রাজা। সুমেরুপর্বতের পশ্চিম দিকে কেতুমালনামক স্থান আছে এবং জন্ম দ্বীপে সেই স্থানেই বৃহৎ একটা দেশও রহিয়াছে ॥৩১৷

নীলাৎ পরতরং শ্বেতং শ্বেতাদ্ধৈরণ্যকং পরম্।
বর্ষমৈরাবতং রাজন! নানাজনপদাবৃতম্ ॥৩৭॥

-রাজা। নীলপর্ব্বতের উত্তরে শ্বেতবর্ষ, শ্বেতবর্ষের উত্তরে হৈরণ্যকবর্ষ এবং তাহার উত্তরে নানাদেশযুক্ত ঐরাবতবর্ষ ॥৩৭॥

ধনুঃসংস্থে মহারাজ! দ্বে বর্ষে দক্ষিণোত্তরে।
ইলাবৃতং মধ্যমন্ত্র পঞ্চ দীর্ঘাণি চৈব হি ॥৩৮॥৷

-মহারাজ! হিমালয়ের দক্ষিণে ভারতবর্ষ এবং সর্ব্বোত্তরে ঐরাবতবর্ষ; এই দুইট। বর্ষই ত্রিকোণ; মধ্যে ইলাবৃতবর্ষ, সেই ইলাবৃতবর্ষের সহিত পাঁচটা বর্ষই পূর্ব-পশ্চিমে দীর্ঘ ॥৩৮॥

অস্ত্র্যত্তরেণ কৈলাসং মৈনাকং পর্বতং প্রতি। 
হিরণ্যশৃঙ্গঃ সুমহান্ দিব্যো মণিময়ো গিরিঃ ॥৪৩ 

-কৈলাসপর্ব্বতের অদূরে উত্তরদিকে মৈনাকপর্ব্বতের নিকটে বিশাল ও দিব্য 'হিরণ্যশৃঙ্গ-' নামে মণিময় একটা পৰ্ব্বত আছে ॥৪৩৷

তস্য পার্শ্বে মহদ্দিব্যং শুভ্রং কাঞ্চনবালুকম্। 
রম্যং বিন্দুসরো নাম যত্র রাজা ভগীরণঃ ॥88॥ 
দৃষ্ট্বা ভাগীরথীং গঙ্গামুবাস বহুলাঃ সমাঃ। 
যূপা মণিময়াস্তত্র চৈত্যাশ্চাপি হিরন্ময়াঃ ॥৪৫॥ 

-তাহার পার্শ্বে 'বিন্দুসর'-নামে বিশাল ও মনোহর একটা জলাশয় আছে; তাহার জল শুভ্রবর্ণ এবং বালুকাগুলি স্বর্ণময়। যেখানে ভগীরথ রাজা গঙ্গাকে দেখিতে পাইয়া বহু বৎসর বাস করিয়াছিলেন, সেই স্থানে বহুতর মণিময় যূপ ও হিরণ্ময় যজ্ঞভবন রহিয়াছে ॥৪৪-৪৫॥

মহাভারত ভীষ্মপর্ব প্রথম খণ্ড সপ্তমোSধ্যায়

দক্ষিণেন তু নীলস্য মেরোঃ পার্শ্বে তথোত্তরে।
উত্তরাঃ কুরবো রাজন! পুণ্যাঃ সিদ্ধনিসেবিতাঃ ॥২॥

-সঞ্জয় বলিলেন-'রাজা। নীলপর্বতের দক্ষিণে এবং সুমেরু পর্বতের উত্তরে পবিত্র ও সিদ্ধসেবিত উত্তর কুরুদেশ রহিয়াছে ॥২॥

মহাভারতের বর্ণিত তথ্য এবং সেখানে উল্লিখিত আরও তথ্য থেকে জানা যায়-

হিমালয়, হেমকূট, নিষধ, নীল, শ্বেত ও শৃঙ্গবান পর্বত একাকার। অর্থাৎ এরা আসলে বৃহত্তর হিমালয় পর্বতমালার অন্তর্গত। এইবর্ষগুলি ভারত, চীন ও আফগানিস্তানের অন্তর্গত। কখনই মঙ্গোলিয়া, রাশিয়া বা সাইবেরিয়া নয়। বলা আছে এই সাতটি বর্ষ ধনুকাকারে অবস্থিত। পর্বতগুলির মধ্যে মধ্যে নানা জনপদ অবস্থিত। সুমেরু-র শিখর থেকে ভাগিরথী নিপতিত হচ্ছে। অর্থাৎ গঙ্গোত্রী হিমবাহ হল সুমেরু পর্বতে। এই সুমেরু বর্তমানের সুমেরু (north pole) নয়। সুমেরুর দক্ষিণে অবস্থিত কৈলাস। সুমেরুর চূড়ায় আছে ব্রহ্মাপুরী। অলকানন্দা ব্রহ্মার পুরী থেকে দক্ষিণ দিকে গিয়ে হেমকুট এবং হেমকূট ভেদ করে ভারতবর্ষে পতিত হচ্ছে। শৃঙ্গবানের উত্তরদিকে আছে সাগরপাড়ে ঐরাবতবর্ষ। এখানে দিবাকর উত্তাপ প্রেদান করে না। এই সাগর পারে ঐরাবৎবর্ষ বহুদুরে রাশিয়াতে হতে পারে। তবে ভারতের পৌরাণিক কাহিনীতে কোথাও ঐরাবৎবর্ষ নিয়ে বিশেষ কাহিনী নেই। বিষ্ণুপুরাণ বলছে সুমেরুর উত্তরদিকের পর্বতগুলি (নীল, শ্বেত ও শৃঙ্গবান) বরফ পর্বত নামে খ্যাত। বোঝা যাচ্ছে সুমেরুর দক্ষিণের পর্বতগুলিতে সারা বছর বরফ থাকে না। অর্থাৎ এগুলি শিবালিক রেজ- এর অন্তর্গত। সুমেরুর চারিদিকে মানস ইত্যাদি চার সরোবর আছে। বর্তমানে মানস সরোবরের অবস্থান থেকে আমরা সুমেরুর অবস্থান টের পায়।

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