देवता: गन्धर्वाप्सरसः ऋषि: मातृनामा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: भुवनपति सूक्त
दि॒वि स्पृ॒ष्टो य॑ज॒तः सूर्य॑त्वगवया॒ता हर॑सो॒ दैव्य॑स्य। मृ॒डाद्ग॑न्ध॒र्वो भुव॑नस्य॒ यस्पति॒रेक॑ ए॒व न॑म॒स्यः॑ सु॒शेवाः॑ ॥
परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, इसका उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः -(दिवि) प्रत्येक व्यवहार में (स्पृष्टः) स्पर्श किये हुए, (यजतः) पूजनीय, (सूर्यत्वक्) सूर्य को त्वचा अर्थात् रूप देनेवाला, (दैव्यस्य) मदशील [प्रमत्त] मनुष्य के, अथवा आधिदैविक (हरसः) क्रोध का (अवयाता) हटानेवाला वह परमेश्वर (मृडात्) [सबको] आनन्द देवे, (यः) जो (गन्धर्वः) गन्धर्व, [म० १। भूमि, सूर्य, वेदवाणी वा गति का धारण करनेवाला] (भुवनस्य) सब जगत् का (एकः) एक (एव) ही (पतिः) स्वामी (नमस्यः) नमस्कारयोग्य और (सुशेवाः) अत्यन्त सेवायोग्य है ॥२॥
भावार्थभाषाः -वह सर्वव्यापी, सूर्यादिप्रकाशक जगत्पिता परमेश्वर हमें सामर्थ्य देकर हमारे कुक्रोध और आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक क्लेश का नाश करता है। उस अद्वितीय, सर्वसेवनीय परमेश्वर की उपासना से सबको आनन्द मिलता है ॥२॥ १–परमेश्वर आदित्यवर्णरूप है, य० अ० ३१।१८ ॥ वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्त॑मादि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः प॒रस्ता॑त्। तमे॒व वि॑दि॒त्वाति॑ मृ॒त्युमे॑ति॒ नान्यः पन्था॑ विद्यतेऽय॑नाय ॥१॥ (अहम्) मैं, (तमसः) अन्धकार वा अज्ञान से (परस्तात्) परे होकर, (एतम्) इस (महान्तम्) पूजनीय वा सबसे बड़े (आदित्यवर्णम्) सूर्य को रूप देनेवाले (पुरुषम्) अग्रगामी परमात्मा को (वेद) जानता हूँ। (तम्) उसको (एव) ही (विदित्वा) जानकर [जीव] (मृत्युम्) मृत्यु को (अत्येति) लाँघ जाता है, (अन्यः) दूसरा (पन्थाः) मार्ग (अयनाय) चलने के लिये (न) नहीं (विद्यते) विद्यमान है ॥ २–परमेश्वर ने सूर्य और चन्द्र बनाया है। ऋग्वेद म० १०। सू० १९०।३। सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ धा॒ता य॑था पू॒र्वम॑कल्पयत्। (धाता) विधाता ने (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्र को (यथापूर्वम्) पहिले के समान (अकल्पयत्) बनाया है ॥
टिप्पणी:२–दिवि। म० १। प्रत्येकव्यवहारे। स्पृष्टः। स्पृश सम्पर्के–क्त। स्पर्शयुक्तः। स्थितः। यजतः। भृमृदृशियजि०। उ० ३।११०। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु–अतच्। चित्त्वाद् अन्तोदात्तः। यष्टव्यः। पूजनीयाः। सूर्यत्वक्। सूर्यः, व्याख्यातः–अ० १।३।५। सुवति सरति वा स सूर्यः। त्वच संवरणे–क्विप्। यद्वा। तनोतेरनश्च वः। उ० २।६३। इति तनु विस्तारे–चिक्, अन् इत्यस्य वः। त्वचति संवृणोति, यद्वा, तनोति विस्तारयतीति त्वक्। सूर्यस्य त्वग्रूपं यस्मात् सः। सूर्यस्रष्टा। अवयाता। या गतौ, अन्तर्भावितणिच्–तृच्। अवयापयिता, अवगमयिता। हरसः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति हृञ् हरणे–असुन्। क्रोधस्य–निघ० २।१३। दैव्यस्य। अ० २।१२।४। देवाद् यञञौ। वा० पा० ४।१।८५। इति देव+यञ्। देवसम्बद्धस्य। आधिदैविकस्य। यद्वा मदशीलस्य, प्रमत्तस्य पुरुषस्य। मृडात्। मृड सुखने–लेटि आडागमः। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इति इकारलोपः। मृडयतु। सुखयतु। सुशेवाः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति सु+शेवृ सेवने–असुन्। शोभनं शेवः सेवनं यस्येति। अनायासेन सेवनीयः। अन्यद् गतं मन्त्रे १ ॥-पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

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