देवता: साक्षात्परब्रह्मप्रकाशनम् ऋषि: नारायणः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
अ॒ष्टाच॑क्रा॒ नव॑द्वारा दे॒वानां॒ पूर॑यो॒ध्या। तस्यां॑ हिर॒ण्ययः॒ कोशः॑ स्व॒र्गो ज्योति॒षावृ॑तः ॥
অষ্টচক্র নবদ্বারা দেবনাং পুরযোধ্যা।
তস্যাং হিরণ্ময় কোশঃ স্বর্গো জ্যোতিষাবৃতঃ॥
(অথর্ববেদ ১০।২।৩১)
সরলার্থঃ এই শরীররূপ নগরী সব সূর্য্যাদি দেবের অধিষ্ঠানভূত। আট চক্র এবংনয় ইন্দ্রীয় দ্বার বিশিষ্ট এইনগরী অজেয়। এই নগরীতে এক প্রকাশময় কোশ আছে [মনোময় কোষ ] আনন্দময় জ্যোতি দ্বারা আবৃত।
অর্থাৎ বেদে দেবপুরী বা স্বর্গলোক বলতে মূলত এই শরীরকেই বোঝানো হয়েছে। অষ্টচক্র ১) মূলাধার চক্র ২) স্বাধিষ্ঠান চক্র ৩) মণিপুর চক্র ৪) অনাহত চক্র ৫) বিশুদ্ধি চক্র ৬) ললনা চক্র ৭) আজ্ঞা চক্র ৮) সহস্রার চক্র॥ নয় দ্বারঃ দুটি চোখ, দুটি নাসিকা-ছিদ্র, দুটি কান, একটি মুখ, দুটি মল এবং মূত্রের দরজা।
পদার্থ০ (অষ্টচক্রা) [যোগের অঙ্গ অর্থাৎ যম, নিয়ম, আসন, প্রণায়াম, ধ্যান, ধারণা, সমাধি] এই আটের কর্ম (বা চক্র) রাখা, (নবদার) [সাত মস্তকের ছিদ্র এবং মন ও বুদ্ধিরূপ] নবদ্বারযুক্ত (পুঃ) পুর্তি [দেহ পুরী / সমস্ত দেহ] (দেবানাম্) উন্মত্তের জন্য (অযোধ্যা) অজেয়। (তস্যাম্) সেই (পূর্তি) তে (হিরণ্যয়ঃ) অনেক শক্তিতে যুক্ত (কোশঃ) কোশ [ভান্ডার অর্থাৎ চেতন জীবাত্মা] (স্বর্গঃ) সুখ [সুখস্বরূপ পরমাত্মা] এর দিকে অগ্রসরকারী (জ্যোতিষা) জ্যোতি [প্রকাশস্বরূপ ব্রহ্ম] দ্বারা (আবৃতাঃ) আবৃত॥
ভাবার্থ০ শরীরের গতিবিধি অজ্ঞানী দূর্বলেন্দ্রিয় ব্যক্তি বুঝতে পারে না। শরীরের ভেতর চেতন জীবাত্মা রয়েছে॥ [ভাষ্যঃ পণ্ডিত ক্ষেমকরণদাস ত্রিবেদী]
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः -(अष्टाचक्रा) [योग के अङ्ग अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि, इन] आठों का कर्म [वा चक्र] रखनेवाली, (नवदारा) [सात मस्तक के छिद्र और मन और बुद्धिरूप] नवद्वारवाली (पूः) पूर्ति [पुरी देह] (देवानाम्) उन्मत्तों के लिये (अयोध्या) अजेय है। (तस्याम्) उस [पूर्ति] में (हिरण्ययः) अनेक बलों से युक्त (कोशः) कोश [भण्डार अर्थात् चेतन जीवात्मा] (स्वर्गः) सुख [सुखस्वरूप परमात्मा] की ओर चलनेवाला (ज्योतिषा) ज्योति [प्रकाशस्वरूप ब्रह्म] से (आवृताः) छाया हुआ है ॥३१॥
भावार्थभाषाः -शरीर की गति को अज्ञानी दुर्बलेन्द्रिय लोग नहीं समझते। शरीर के भीतर चेतन जीवात्मा है ॥३१॥
टिप्पणी:३१−(अष्टाचक्रा) करोतेर्घञर्थे-क, द्वित्वम्। चक्रं कर्म रथाङ्गं वा। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणा-ध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि−योगदर्शने। २।२९। इत्यष्टावङ्गानि कर्माणि यस्याः सा (नवद्वारा) मनोबुद्धिसहितैः सप्तशीर्षण्यच्छिद्रैर्युक्ता (देवानाम्) दिवु मदे-अच्। उन्मत्तानां मूर्खाणाम् (पूः) म० २८। पूर्तिपुरी (अयोध्या) अजेया। (तस्याम्) पुरि (हिरण्ययः) ऋत्व्यवास्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्यानि च्छन्दसि। पा० ६।४।१७५। मयटो मलोपः। हिरण्यमयः। हिरण्यानि रेतांसि बलानि यस्मिन् सः (कोशः) कुश श्लेषे-घञ्। भाण्डागारः (स्वर्गः) स्वः सुखं गच्छति प्राप्नोतीति यः (ज्योतिषा) प्रकाशस्वरूपेण परमात्मना (आवृतः) आच्छादितः ॥-पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
হিন্দিভাষ্যঃ হরিশরণ সিদ্ধান্তলঙ্কার 👇
पदार्थ
१. यह शरीररूप (पू:) = नगरी (देवानाम्) = सब सूर्यादि देवों की अधिष्ठानभूत है, ('सर्वा हास्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते') = [सूर्यः चक्षुर्भूत्वा० अग्निर्वाग्भूत्वा०, वायुः प्राणो भूत्वा०, चन्द्रमा मनो भूत्वा०]। (अष्टाचक्रा) = इसमें 'मूलाधार' से लेकर 'सहस्रार' तक आठ चक्र-'मूलाधार' [मेरुदण्ड के मूल में], इसके ऊपर 'स्वाधिष्ठान', 'मणिपूरक' [नाभि में], 'अनाहत' [हृदय में] 'विशुद्धि' [कण्ठ में], 'ललना' [जिह्वा मूल में] 'आज्ञाचक्र' [भ्रूमध्य में] 'सहस्त्रारचक्र' [मस्तिष्क में] हैं। (नवद्वारा) = नौ इन्द्रिय-द्वारोंवाली यह नगरी (अयोध्या) = शत्रुओं से युद्ध में न जीतने योग्य है। सूर्य का सन्ताप इस नगरी के एक-एक छिद्र से बाहर आये हुए पसीने के रूप में जलकण को वाष्पीभूत कर सकता है, परन्तु नगरी के अन्दर उपद्रव पैदा नहीं कर पाता। २. (तस्याम्) = उस नगरी में एक (हिरण्ययः) = हितरमणीय (कोश:) = कोश है, जिसे 'मनोमय कोश कहते हैं। यह (स्वर्ग:) = आनन्दमय है, (ज्योतिषा आवृत:) = ज्योति से आवृत है। हम इसे राग-द्वेष आदि से मलिन न कर दें, तो यह चमकीला-ही-चमकीला है-यहाँ आहाद-ही-आहाद है, यह प्रभु की ज्योति से ज्योतिर्मय है।
भावार्थ
आठ चक्रोंवाली, नौ इन्द्रियाँ-द्वारोंवाली इस शरीररूप अयोध्या नामक देवनगरी में एक ज्योतिर्मय मनोमयकोश है, जो आहाद व प्रकाश से परिपूर्ण है। इसे हम राग-द्वेष से मलिन न करें।
স্বামী জগদীশ্বরানন্দকৃত হিন্দি ভাষ্য 👇
शब्दार्थ
यह मानव-शरीर (अष्टचक्रा:) आठ चक्र और (नवद्वारा) नौ द्वारों से युक्त (देवानाम्) देवों की (अयोध्या कभी पराजित न होनेवाली (पूः) नगरी है (तस्याम् ) इसी पुरी में (ज्योतिषा) ज्योति से (आवृतः) ढका हुआ, परिपूर्ण (हिरण्ययः) हिरण्यमय, स्वर्णमय (कोश:) कोश है यह (स्वर्ग:) स्वर्ग है,आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा इसी में निहित है ।
भावार्थ
मन्त्र में मानव-देह का बहुत ही सुन्दर चित्रण हुआ है । हमारा शरीर आठ चक्रों से युक्त है । वे अष्टचक्र हैं १. मूलाधार चक्र – यह गुदामूल में है । २. स्वधिष्ठान चक्र - मूलाधार से कुछ ऊपर है । ३. मणिपूरक चक्र – इसका स्थान नाभि है । ४. अनाहत चक्र - हृदय स्थान में है । ५. विशुद्धि चक्र – इसका स्थान कण्ठमूल है । ६. ललना चक्र – जिह्वामूल में है । ७. आज्ञा चक्र – यह दोनों भ्रुवों के मध्य में है । ८. सहस्रार चक्र - मस्तिष्क में है । नौ द्वार ये हैं - दो आँख, दो नासिका-छिद्र, दो कान, एक मुख, दो मल और मंत्र के द्वार । इस नगरी में जो हिरण्यमयकोष = हृदय है वहाँ ज्योति से परिपूर्ण आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा विराजमान है। योगी लोग योग-साधना के द्वारा इन चक्रों का भेदन करते हुए उस ज्योतिस्वरूप परमात्मा का दर्शन करते हैं ।
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