Yajurveda 40/1 - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

22 June, 2022

Yajurveda 40/1

 देवता: आत्मा देवता ऋषि: दीर्घतमा ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

ई॒शा वा॒स्य᳖मि॒दंꣳ सर्वं॒ यत्किञ्च॒ जग॑त्यां॒ जग॑त्। तेन॑ त्य॒क्तेन॑ भुञ्जीथा॒ मा गृ॑धः॒ कस्य॑ स्वि॒द्धन॑म् ॥१ ॥



 मनुष्य ईश्वर को जानके क्या करें, इस विषय को कहा है ॥

Yajurveda 40/1


अन्वय:

(ईशा) ईश्वरेण सकलैश्वर्य्यसम्पन्नेन सर्वशक्तिमता परमात्मना (वास्यम्) आच्छादयितुं योग्यं सर्वतोऽभिव्याप्यम् (इदम्) प्रकृत्यादिपृथिव्यन्तम् (सर्वम्) अखिलम् (यत्) (किम्) (च) (जगत्याम्) गम्यमानायां सृष्टौ (जगत्) यद्गच्छति तत् (तेन) (त्यक्तेन) वर्जितेन तच्चित्तरहितेन (भुञ्जीथाः) भोगमनुभवेः (मा) निषेधे (गृधः) अभिकाङ्क्षीः (कस्य) (स्वित्) कस्यापि स्विदिति प्रश्ने वा (धनम्) वस्तुमात्रम् ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्य ! तू (यत्) जो (इदम्) प्रकृति से लेकर पृथिवीपर्य्यन्त (सर्वम्) सब (जगत्याम्) प्राप्त होने योग्य सृष्टि में (जगत्) चरप्राणीमात्र (ईशा) संपूर्ण ऐश्वर्य से युक्त सर्वशक्तिमान् परमात्मा से (वास्यम्) आच्छादन करने योग्य अर्थात् सब ओर से व्याप्त होने योग्य है (तेन) उस (त्यक्तेन) त्याग किये हुए जगत् से (भुञ्जीथाः) पदार्थों के भोगने का अनुभव कर (किंच) किन्तु (कस्य, स्वित्) किसी के भी (धनम्) वस्तुमात्र की (मा) मत (गृधः) अभिलाषा कर ॥१ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य ईश्वर से डरते हैं कि यह हमको सदा सब ओर से देखता है, यह जगत् ईश्वर से व्याप्त और सर्वत्र ईश्वर विद्यमान है। इस प्रकार व्यापक अन्तर्यामी परमात्मा का निश्चय करके भी अन्याय के आचरण से किसी का कुछ भी द्रव्य ग्रहण नहीं किया चाहते, वे धर्मात्मा होकर इस लोक के सुख और परलोक में मुक्तिरूप सुख को प्राप्त करके सदा आनन्द में रहें ॥१ ॥-हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

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