देवता: आपः ऋषि: अथर्वा छन्द: एकावसानासमविषमात्रिपाद्गायत्री स्वर: शत्रुनाशन सूक्त
आपो॒ यद्व॒स्तप॒स्तेन॒ तं प्र॑ति तपत॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥-१
पदार्थान्वयभाषाः -(आपः) हे जल [जल पदार्थ !] (यत्) जो (वः) तुम्हारा (तपः) प्रताप है, (तेन) उससे (तम् प्रति) उस [दोष] पर (तपत) प्रतापी हो, (यः) जो (अस्मान्) हमसे (द्वेष्टि) अप्रिय करे, (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) अप्रिय करें ॥१॥
भावार्थभाषाः -वृष्टि, नदी, कूप आदि का जल अनावृष्टि दोषों को मिटाकर अन्न आदि पदार्थों को उत्पन्न करके प्राणियों को बल और सुख देता है और वही कुप्रबन्ध से दुःख का कारण होता है, ऐसे ही राजा सामाजिक नियमों के विरोधी दुष्टों का नाश करके प्रजा को समृद्ध करता और सुख देता है ॥१॥
आपो॒ यद्व॒स्हर॒स्तेन॒ तं प्र॑ति हरत॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥२॥
[देवता: आपः ऋषि: अथर्वा छन्द: एकावसानासमविषमात्रिपाद्गायत्री स्वर: शत्रुनाशन सूक्त]
पदार्थान्वयभाषाः -(आपः) हे जलो (यत्) जो (वः) तुम्हारी (हरः) नाशनशक्ति है, (तेन) उससे (तम्) उस [दोष] को (प्रति हरत) नाश कर डालो, (यः) जो (अस्मान्) हमसे..... म० १ ॥२॥
भावार्थभाषाः -मन्त्र १ के समान ॥२॥-पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ