প্রতি ক্ষত্রে প্রতি তিষ্ঠামি রাষ্ট্রে প্রত্যশ্বেষু প্রতি তিষ্ঠামি গোষু।
প্রত্যঙ্গেষু প্রতি তিষ্ঠাম্যাত্মন্ প্রতি প্রাণেষু প্রতি তিষ্ঠামি পুষ্টে প্রতি দ্যাবাপৃথিব্যোঃ প্রতি তিষ্ঠামি য়জ্ঞে।। (য়জুঃ ২০|১০)
অর্থাৎ - আমি ক্ষত্রিয়ের মধ্যে, রাষ্ট্রের মধ্যে, অশ্বের মধ্যে, গাভীর মধ্যে, অঙ্গের মধ্যে, চিত্তের মধ্যে, প্রাণের মধ্যে, পুষ্টির মধ্যে, দ্যৌ এর মধ্যে, পৃথিবীর মধ্যে প্রতিষ্ঠাওয়ালা হবো।
प्रति॑ क्ष॒त्रे प्रति॑ तिष्ठामि रा॒ष्ट्रे प्रत्यश्वे॑षु॒ प्रति॑ तिष्ठामि॒ गोषु॑।
प्रत्यङ्गे॑षु॒ प्रति॑ तिष्ठाम्या॒त्मन् प्रति॑ प्रा॒णेषु॒ प्रति॑ तिष्ठामि पु॒ष्टे प्रति॒ द्यावा॑पृथि॒व्योः प्रति॑ तिष्ठामि य॒ज्ञे॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
प्रजाजनों में प्रतिष्ठा को प्राप्त मैं राजा धर्मयुक्त व्यवहार से (क्षत्रे) क्षय से रक्षा करनेहारे क्षत्रियकुल में (प्रति) प्रतिष्ठा को प्राप्त होता हूं, (राष्ट्रे) राज्य में (प्रति, तिष्ठामि) प्रतिष्ठा को प्राप्त होता हूं, (अश्वेषु) घोड़े आदि वाहनों में (प्रति) प्रतिष्ठा को प्राप्त होता हूं, (गोषु) गौ और पृथिवी आदि पदार्थों में (प्रति, तिष्ठामि) प्रतिष्ठित होता हूं (अङ्गेषु) राज्य के अङ्गों में (प्रति) प्रतिष्ठित होता हूं, (आत्मन्) आत्मा में (प्रति, तिष्ठामि) प्रतिष्ठित होता हूं, (प्राणेषु) प्राणों में (प्रति) प्रतिष्ठित होता हूं, (पुष्टे) पुष्टि करने में (प्रति, तिष्ठामि) प्रतिष्ठित होता हूं, (द्यावापृथिव्योः) सूर्य-चन्द्र के समान न्याय-प्रकाश और पृथिवी में (प्रति) प्रतिष्ठित होता (यज्ञे) विद्वानों की सेवा संग और विद्यादानादि क्रिया में (प्रति, तिष्ठामि) प्रतिष्ठित होता हूं॥१०॥
भावार्थ - जो राजा प्रिय-अप्रिय को छोड़, न्यायधर्म से समस्त प्रजा का शासन, सब राजकर्मों में चाररूप आंखों वाला अर्थात् राज्य के गुप्त हाल को देने वाले दूत ही जिसके नेत्र के समान, वैसा ही मध्यस्थ वृत्ति से सब प्रजाओं का पालन कर कराके निरन्तर विद्या की शिक्षा को बढ़ावे, वही सब का पूज्य होवे॥१०॥- स्वामी दयानन्द सरस्वती
No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ