উদ্ বুধ্যস্বাগ্নে প্রতি জাগৃহি ত্বমিষ্টাপূর্ত্তে সঁসৃজেথাময়ম্ চ।
অস্মিন্ত্সধস্থেऽঅধ্যুত্তরস্মিন্ বিশ্বে দেবা য়জমানশ্চ সীদত।। (য়জুঃ ১৫|৫৪)
অর্থাৎ - হে অগ্নে! তুমি প্রদীপ্ত হও আর আমাদের সতেজ করো তথা তোমার সঙ্গে আমরা মিলে ইষ্ট-সুখের যুক্তি আরও প্রাপ্ত করি, যার দ্বারা এখানে আমরা আর অন্য যজমান তথা অন্য বিদ্বানগণও যজ্ঞ করুক।
उद् बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्त्ते सꣳसृ॑जेथाम॒यं च॑।
अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत॥५४॥
विषय - फिर वही पूर्वोक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) अच्छी विद्या से प्रकाशित स्त्री वा पुरुष! तू (उद्बुध्यस्व) अच्छे प्रकार ज्ञान को प्राप्त हो सब के प्रति, (प्रति, जागृहि) अविद्यारूप निद्रा को छोड़ के विद्या से चेतन हो (त्वम्) तू स्त्री (च) और (अयम्) यह पुरुष दोनों (अस्मिन्) इस वर्त्तमान (सधस्थे) एक स्थान में और (उत्तरस्मिन्) आगामी समय में सदा (इष्टापूर्त्ते) इष्ट सुख, विद्वानों का सत्कार, ईश्वर का आराधन, अच्छा सङ्ग करना और सत्यविद्या आदि का दान देना यह इष्ट और पूर्णबल, ब्रह्मचर्य्य, विद्या की शोभा, पूर्ण युवा अवस्था, साधन और उपसाधन यह सब पूर्त्त इन दोनों को (सं, सृजेथाम्) सिद्ध किया करो (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (च) और (यजमानः) यज्ञ करने वाले पुरुष, तू इस एक स्थान में (अधि, सीदत) उन्नतिपूर्वक स्थिर होओ॥५४॥-दयानन्द सरस्वती
भावार्थ - जैसे अग्नि सुगन्धादि के होम से इष्ट सुख देता और यज्ञकर्त्ता जन यज्ञ की सामग्री पूरी करता है, वैसे उत्तम विवाह किये स्त्री-पुरुष इस जगत् में आचरण किया करें। जब विवाह के लिये दृढ़ प्रीति वाले स्त्री-पुरुष हों, तब विद्वानों को बुला के उन के समीप वेदोक्त प्रतिज्ञा करके पति और पत्नी बनें॥५४॥
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