অথর্ববেদ ১/১/৩ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

27 June, 2021

অথর্ববেদ ১/১/৩

                                      ঋষিঃ-অথর্বা।। দেবতা-বাচস্পতিঃ।। ছন্দঃ-অনুষ্টুপ্।।

ইহৈবাভি বিতনূভে আত্না ইব জ্যয়া।
বাচস্পতির্নি য়চ্ছতু ময্যেবাস্তু ময়ি শ্রুতম।।
इ॒हैवाभि वि त॑नू॒भे आर्त्नी॑ इव॒ ज्यया॑। वा॒चस्पति॒र्नि य॑च्छतु॒ मय्ये॒वास्तु॒ मयि॑ श्रु॒तम् ॥
মন্ত্রার্থঃ (ইহ) এর উপর (এব)(অগ্নি) চারদিক হইতে (বিতনু) তুমি সুন্দর প্রকার বিস্তার, (ইব) যেরূপ (উভে) দুই (আত্নীং) ধনুষ খড়গে (জ্যয়া) জয়ের সাধন, চিতকারের সাথে [শরীর ক্লান্ত হয়ে যায়] (বাচস্পতিঃ) বাণীর স্বামী (নিয়চ্ছতু) নিয়মে রেখে (ময়ি) আমার মধ্যে বর্ত্তমান (শ্রুতম্) বেদ বিজ্ঞান (ময়ি) আমার মধ্যে (এব) (অস্তু) থাকে।।
ভাবার্থঃ যেরূপ সংগ্রামে শূরবীর ধনুষের দুই খড়গের দড়িতে লাগিয়ে বাণ দ্বারা রক্ষা করেন, ওই প্রকার আদিগুরু পরমেশ^র নিজের কৃপাযুক্ত দুই হাতের [অর্থাৎ অজ্ঞানের হানি আর বিজ্ঞানের বৃদ্ধিকে] ইহা আমাকে ব্রহ্মচারীর উপর বিস্তার করে রক্ষা করেন আর নিয়ম পালনে দৃড় করে পরম সুখদায়ক ব্রহ্মবিদ্যার দান করেন আর বিজ্ঞানের সব স্মরণ আমার মধ্যে থাকে।। 
पदार्थान्वयभाषाः -(इह) इस के ऊपर (एव) ही (अभि) चारों ओर से (वितनु) तू अच्छे प्रकार फैल, (इव) जैसे (उभे) दोनों (आर्त्नी) धनुष कोटिएँ (ज्यया) जय के साधन, चिल्ला के साथ [तन जाती हैं]। (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी (नियच्छतु) नियम में रक्खे, (मयि) मुझमें [वर्त्तमान] (श्रुतम्) वेदविज्ञान (मयि) मुझमें (एव) ही (अस्तु) रहे ॥
অথর্ববেদ ১/১/৩


भावार्थभाषाः -जैसे संग्राम में शूरवीर धनुष् की दोनों कोटियों को डोरी में चढ़ा कर बाण से रक्षा करता है, उसी प्रकार आदिगुरु परमेश्वर अपने कृपायुक्त दोनों हाथों को [अर्थात् अज्ञान की हानि और विज्ञान की वृद्धि को] इस मुझ ब्रह्मचारी पर फैला कर रक्षा करे और नियमपालन में दृढ़ करके परमसुखदायक ब्रह्मविद्या का दान करे और विज्ञान का पूरा स्मरण मुझमें रहे ॥३॥ भगवान् यास्क के अनुसार−निरुक्त ९।१७ (ज्या) शब्द का अर्थ जीतनेवाली यद्वा आयु घटानेवाली अथवा बाणों को छोड़नेवाली वस्तु है ॥
टिप्पणी:३−इह। अत्र, अस्योपरि, अस्मिन् ब्रह्मचारिणि, ममोपरि। अभि। अभितः सर्वतः। वितनु। तनु विस्तारे−लोट्, अकर्मकः। वितनुहि, वितन्यस्व विस्तृतो भव। उभे। ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम्। पा० १।१।११। इति प्रगृह्यम्। द्वये। आर्त्नी। आङ्+ऋ गतौ-क्तिन्, नकारोपसर्जनम्। पूर्ववत् प्रगृह्यम्, आर्त्नी, धनुष्कोटी, अटन्यौ धनुः प्रान्ते। आर्त्नी अर्तन्यौ वारण्यौ वारिषण्यौ वा निरु० ९।३९ ॥ ज्यया। ज्या जयतेर्वा जिनातेर्वा प्रजावयतीषूनिति वा निरु० ९।१७। अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति जि जये, वा, ज्या वयोहानौ णिच्−वा, जु रंहसि गतौ, णिच्−यक्। निपातनात् साधुः। यद्वा। अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति ज्यु गत्याम् यद्वा, ज्या वयोहानौ, णिच्-ट। टाप्। धनुर्गुणेन, मौर्व्या। वाचः+पतिः मं० १ ॥ वाण्याः स्वामी। नि+यच्छतु। नियमतु, नियमे रक्षतु। अन्यत् सुगमं व्याख्यातं च ॥-पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

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