ঋগ্বেদ ১/২/১ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম বিষয়ে জ্ঞান, ধর্ম গ্রন্থ কি , হিন্দু মুসলমান সম্প্রদায়, ইসলাম খ্রীষ্ট মত বিষয়ে তত্ত্ব ও সনাতন ধর্ম নিয়ে আলোচনা

धर्म मानव मात्र का एक है, मानवों के धर्म अलग अलग नहीं होते-Theology

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স্বাগতম

08 September, 2023

ঋগ্বেদ ১/২/১

 ঋষিঃমধুচ্ছন্দা বৈশ্বামিত্রঃ। দেবতা-বায়ু। ছন্দঃ-পিপীলিকামধ্যনিচৃদ গায়ত্রী। স্বরঃ- ষড্জঃ॥


বায়বায়াহি দর্শতেমে সোমা অরংকৃতাঃ।

তেষাং পাহি শ্রুধী হবম্।।১০।।

পদার্থঃ (বায়ো) হে অনন্ত বল যুক্ত সকলের প্রাণরূপ অন্তর্যামী জগদীশ্বর! (আয়াহি) তুমি আমাদের হৃদয়ে প্রকাশিত হও। (দর্শত) হে জ্ঞান দ্বারা অনুভবরূপ দর্শনযোগ্য! (ইমে সোমাঃ) এই সংসারের সমস্ত সৃষ্টি যা তুমি (অরংকৃতাঃ) সুশোভিত করেছ, (তেষাম্ পাহি) তাকে রক্ষা করো। (হবম্) আমাদের স্তুতিকে (শ্রুধি) শ্রবণ করো।

ভবার্থঃ উক্ত মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার রয়েছে। হে সর্বশক্তিমানসকলের জীবন দাতাদর্শনীয় পরমাত্মা! তুমি তোমার কৃপা দ্বারা আমাদের হৃদয়ে প্রকাশিত হও এবং যে উত্তম সৃষ্টি তুমি রচনা করেছ এবং আমাদের দিয়েছ তাকে তুমি রক্ষা করো। আমাদের এই ভক্তিময় প্রার্থনাকে কৃপা করে শ্রবণ করো এবং গ্রহণ করো।।

আর্যাভিবিনয়ঃ

ব্যাখ্যা—হে অনন্ত বল পরেশ! ‘বাযো' দর্শনীয়, আপনি স্বীয় অনুগ্রহে আমাদের স্বীকার করুন। আমরা আমাদের স্বল্প সামর্থ্যানুসারে সোম ( সোমবল্ল্যাদি ) ওষধির উত্তম রস এবং আমাদের যাহা কিছু শ্রেষ্ঠ পদার্থ আছে আপনার জন্য ‘অরংকৃতা” অলংকৃত অর্থাৎ উত্তম রীতিতে প্রস্তুত করিয়াছি, সে সমস্তই আপনাকে সমর্পণ করিলাম। আপনি উহা স্বীকার করুন (সর্বাত্মনা রক্ষা করুন) পিতা যেরূপ পুত্রের দীন অবস্থা জানিয়া বা শুনিয়া দীন পুত্র কর্তৃক অতি তুচ্ছ নিবেদিত বস্তু প্রাপ্ত হইলেও অত্যন্ত প্রসন্ন হন, পুত্রের দীনতা শুনিয়া (জানিয়া) আপনিও আমাদের প্রতি সেইরূপ প্ৰসন্ন হউন ॥

विषयঃ अब द्वितीय सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में उन पदार्थों का वर्णन किया है कि जिन्होंने सब पदार्थ शोभित कर रक्खे हैं।

पदार्थ

(दर्शत) हे ज्ञान से देखने योग्य (वायो) अनन्त बलयुक्त, सब के प्राणरूप अन्तर्यामी परमेश्वर ! आप हमारे हृदय में (आयाहि) प्रकाशित हूजिये। कैसे आप हैं कि जिन्होंने (इमे) इन प्रत्यक्ष (सोमाः) संसारी पदार्थों को (अरंकृताः) अलंकृत अर्थात् सुशोभित कर रक्खा है। (तेषाम्) आप ही उन पदार्थों के रक्षक हैं, इससे उनकी (पाहि) रक्षा भी कीजिये, और (हवम्) हमारी स्तुति को (श्रुधि) सुनिये। तथा (दर्शत) स्पर्शादि गुणों से देखने योग्य (वायो) सब मूर्तिमान् पदार्थों का आधार और प्राणियों के जीवन का हेतु भौतिक वायु (आयाहि) सब को प्राप्त होता है, फिर जिस भौतिक वायु ने (इमे) प्रत्यक्ष (सोमाः) संसार के पदार्थों को (अरंकृताः) शोभायमान किया है, वही (तेषाम्) उन पदार्थों की (पाहि) रक्षा का हेतु है और (हवम्) जिससे सब प्राणी लोग कहने और सुनने रूप व्यवहार को (श्रुधि) कहते सुनते हैं। आगे ईश्वर और भौतिक वायु के पक्ष में प्रमाण दिखलाते हैं-(प्रवावृजे०) इस प्रमाण में वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक वायु पुष्टिकारी और जीवों को यथायोग्य कामों में पहुँचानेवाले गुणों से ग्रहण किये गये हैं। (अथातो०) जो-जो पदार्थ अन्तरिक्ष में हैं, उनमें प्रथमागामी वायु अर्थात् उन पदार्थों में रमण करनेवाला कहाता है, तथा सब जगत् को जानने से वायु शब्द करके परमेश्वर का ग्रहण होता है। तथा मनुष्य लोग वायु से प्राणायाम करके और उनके गुणों के ज्ञान द्वारा परमेश्वर और शिल्पविद्यामय यज्ञ को जान सकता है। इस अर्थ से वायु शब्द करके ईश्वर और भौतिक का ग्रहण होता है। अथवा जो चराचर जगत् में व्याप्त हो रहा है, इस अर्थ से वायु शब्द करके परमेश्वर का तथा जो सब लोकों को परिधिरूप से घेर रहा है, इस अर्थ से भौतिक का ग्रहण होता है, क्योंकि परमेश्वर अन्तर्यामिरूप और भौतिक प्राणरूप से संसार में रहनेवाले हैं। इन्हीं दो अर्थों की कहनेवाली वेद की (वायवायाहि०) यह ऋचा जाननी चाहिये। इसी प्रकार से इस ऋचा का (वायवा याहि दर्शनीये०) इत्यादि व्याख्यान निरुक्तकार ने भी किया है, सो संस्कृत में देख लेना। वहां भी वायु शब्द से परमेश्वर और भौतिक इन दोनों का ग्रहण है। तथा (वायुः सोमस्य०) वायु अर्थात् परमेश्वर उत्पन्न हुए जगत् की रक्षा करनेवाला और उसमें व्याप्त होकर उसके अंश-अंश के साथ भर रहा है। इस अर्थ से ईश्वर का तथा सोमवल्ली आदि ओषधियों के रस हरने और समुद्रादिकों के जल को ग्रहण करने से भौतिक वायु का ग्रहण जानना चाहिये। (वायुर्वा अ०) इत्यादि वाक्यों में वायु को अग्नि के अर्थ में भी लिया है। परमेश्वर का उपदेश है कि मैं वायुरूप होकर इस जगत् को आप ही प्रकाश करता हूँ, तथा मैं ही अन्तरिक्ष लोक में भौतिक वायु को अग्नि के तुल्य परिपूर्ण और यज्ञादिकों को वायुमण्डल में पहुँचाने वाला हूँ॥१॥


হরিশরণ সিদ্ধান্তলঙ্কারকৃত ভাষ্যঃ


पदार्थ

१. पिछले सूक्त में प्रभु का नाम 'अग्नि' था । वह शब्द 'अगि गतौ' से बना था । यहाँ 'वायु' शब्द 'वा गतौ' से बनकर प्रभु का प्रतिपादन कर रहा है । प्रभु गति के द्वारा (वा गतिगन्धनयोः) सब बुराइयों का गन्धन - हिंसन कर रहे हैं । वस्तुतः गति ही बुराई को समाप्त करनेवाली है । हे (वायो) - गति द्वारा दुरितों का विध्वंस करनेवाले प्रभो  ! (आयाहि) - आप आइए , हमारे हृदय - आसन पर बैठिए ।

२. (दर्शत) - आप सचमुच दर्शनीय हैं । हे (दर्शत) - दर्शनीय प्रभो ! मैं तो यही चाहता हूँ कि मेरा हृदय आपका प्रतिभान हो और वहाँ मैं आपके दर्शन करता रहूँ । आपकी दृष्टि से मैं कभी ओझल न हो जाऊँ , सदा आपकी कृपादृष्टि का पात्र बना हुआ मैं पवित्र बना रहूँ ।

३. आपके दर्शन के लिए ही (इमे सोमाः) ये सोमकण (अरंकताः) - (अरं वारण - रोकना) रोके गये हैं - शरीर में ही इनका निरोध किया गया है । शरीर में निरुद्ध हुए - हुए ये सोमकण ज्ञानाग्नि का इंधन बनते हैं । दीप्त ज्ञानाग्नि हमें प्रभु - दर्शन के योग्य बनाती है (दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः । - कठ० १/३/१२)

४. वस्तुतः उन सोमकणों की रक्षा भी तो आपके स्मरण से ही होती है । अतः (तेषां पाहि) - उन सोमकणों की आप रक्षा कीजिए । हदय में आप होंगे तो 'काम' न होगा । जहाँ महादेव वहाँ कामदेव भस्म हो ही जाते हैं । यह काम ही तो सोम के संयम में बाधक था । यह गया और सोमकण शरीर में निरुद्ध हुए ।

५. हे (वायो) - आप (हवम् श्रुधि) - हमारी इस प्रार्थना व पुकार को अवश्य सुनिए । (इमे सोमा अरंकृताः) इस वाक्य का यह अर्थ भी है कि ये सौम्यता से सम्पन्न आपके भक्त विद्यादि गुणों से अलंकृत हुए हैं । (तेषां पाहि) - इनकी आपने ही तो रक्षा करनी है । हम सौम्य बनें , सद्गुणों से अलंकृत हों और उस प्रभु से प्राप्त होनेवाली रक्षा के पात्र बनें ।



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