महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चौदहवें समुल्लास (अध्याय) में इस्लाम के धर्म ग्रंथ कुरान की १६१ आयतों या आयत समूहों की समीक्षा की है। यहाँ इन्हीं में से कुछ आयतों की समीक्षा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, रामलीला मैदान, नई दिल्ली, द्वारा १९७५ में प्रकाशित, सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ ५४३ से ६१२ तक से ली गई है जबकि कुरान की वे ही पूरी की पूरी आयतें ‘पवित्र कुरआन’ (अनुवादक मौलाना मुहम्मद फारूक रवां और डॉ.मुहम्मद अहमद, प्रकाशक मधुर संदेश संगम, जामियानगर, नई दिल्ली, २००५) में देखी जा सकती हैं। सन्दर्भ में पहले सूरा और बाद में आयत का संखया क्रम दिया गया है।
स्वामी जी ने कुरान की समीक्षा करने से पहले अपना मन्तव्य इस समुल्लास के प्रारम्भ में दी गई अनुभूमिका (४) में निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया है-
”यह लेख केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिए सब मतों के विषय का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान होवे इससे मनुष्यों को परस्पर विचार करने का समय मिले और एक-दूसरे के दोषों का खण्डन कर, गुणों का ग्रहण करें, न किसी अन्य मत पर, न इस मत पर झूठ-मूठ बुराई व भलाई लगाने का प्रयोजन है किन्तु जो-जो भलाई है वही भलाई और जो बुराई है वही बुराई सबको विदित होवे” ”यह लेख हठ, दुराग्रह, ईर्ष्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिए किया गया है, न कि इनको बढ़ाने के अर्थ। क्योंकि एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह, परस्पर को लाभ पहुंचाना हमारा मुखय कर्म है। अब यह चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों का मत विषय सब सज्जनों के सामने निवेदन करता हूँ, विचार कर इष्ट का ग्रहण, अनिष्ट का परित्याग कीजिए।” (पृ५४३)
१. कुरान
१. ”आरम्भ साथ नाम अल्लाह के क्षमा करने वाला दयालु ।” (१ : १) समीक्षक-”मुसलमान लोग ऐसा कहते हैं कि यह कुरान खुदा का कहा है। परन्तु इस वचन से विदित होता है कि इसका बनाने वाला कोई दूसरा है क्योंकि जो परमेश्वर का बनाया होता तो ”आरम्भ साथ नाम अल्लाह के” ऐसा न कहता किन्तु ”आरम्भ वास्ते उपदेश मनुष्यों के” ऐसा कहता।” (पृ ५४४) २. ”सब स्तुति परमेश्वर के वास्ते है जो परबरदिगार अर्थात् पालन करने हारा है तब संसार का। क्षमा करने वाला दयालु है।” (१ : २) समीक्षक-”जो कुरान का खुदा संसार का पालन करने हारा होता और सब पर क्षमा और दया करता है तो अन्य मत वाले और पशु आदि को भी मुसलमानों के हाथ से मरवाने का हुकम न देता। जो क्षमा करने हारा है तो क्या पापियों पर भी क्षमा करेगा ? और जो वैसा है तो अगे लिखेंगे कि ”काफ़िरों को कतल करो” अर्थात् जो कुरान और पैगम्बर को न मानें वे काफ़िर हैं, ऐसा क्यों कहता है? इसलिए कुरान ईश्वरकृत नहीं दीखता।” (पृ. ५४४-५४५) ३. ”दिखा उन लोगों का रास्ता कि जिन पर तूनपे निआमत की॥ और उनका मार्ग मत दिखा कि जिनके ऊपर तू ने गज़ब अर्थात् अत्यन्तक्रोध की दृष्टि की और न गुमराहों का मार्ग हमको दिखा।” (१ : ६) समीक्षक-”जब मुसलमान लोग पूर्वजन्म और पूर्वकृत पाप-पुण्य नहीं मानते तो किन्हीं पर निआमत अर्थात् फ़जल या दया करने और किन्हीं पर न करने से खुदा पक्षपाती हो जायेगा, क्योंकि बिना पाप-पुण्य, सुख-दुःख देना केवल अन्याय की बात है और बिना कारण किसी पर दया और किसी पर क्रोध दृष्टि करना भी स्वभाव से बहिः है। वह दया अथवा क्रोध नहीं कर सकता और जब उनके पूर्व संचित पुण्य पाप ही नहीं तो किसी पर दया और किसी पर क्रोध करना नहीं हो सकता। और इस सूरः की टिप्पणी पर ”यह सूरः अल्लाह साहेब ने मनुष्यों के मुखय से कहलाई कि सदा इस प्रकार से कहा करें” जो यह बात है तो ‘अलिफ् बे” आदि अक्षर भी खुदा ही ने पढ़ाये होंगे। जो कहो कि बिना अक्षरज्ञान के इस सूरः को कैसे पढ़ सके ? क्या कण्ठ ही से बुलाए और बोलते गये ? जो ऐसा है तो सब कुरान ही कण्ठ से पढ़ाया होगा। इससे ऐसा समझना चाहिए कि जिस पुस्तक में पक्षपात की बातें पाई जायें वह पुस्तक ईश्वरकृत नहीं हो सकता, जैसा कि अरबी भाषा में उतारने से अरबवालों को इसका पढ़ना सुगम, अन्य भाषा बोलने वालों को कठिनहोता है इसी से खुदा में पक्षपात आता है और जैसे परमेश्वर ने सृष्टिस्थ सब देशस्थ मनुष्यों पर न्याय दृष्टि से सब देश भाषाओं से लिक्षण संस्कृत भाषा कि, जो सब देशवालों के लिए एक से परिश्रम से विदित होती है, उसी में वेदों का प्रकाश किया है, करता तो यह दोष नहीं होता।” (पृ. ५४५-५४६) ४. ”हे नबी ! तुम्हारे लिए अल्लाह और तुम्हारे ईमान वाले अनुयायी ही काफ़ी है। ‘हे रबी ! मोमिनों को जिहाद पर उभारो। यदि तुम्हारे पास पचास बीस आदमी जमें होंगे तो वे दो सौ पर प्रभावी होंगे और यदि तुममें से ऐसे सौ होंगे तो वे इंकार करने वालों में से एक हजार पर प्रभावी होंगे क्योंकि वे नासमझ लोग हैं।” (८ः६४-६५, पृ. १५५) ”अतः जो कुछ गनीमत (लूट) का माल तुमने प्राप्त किया है, उसे वैध-पवित्र समझकर खाओ और अल्लाह का डर रखो।” (८ : ६९, पृ. १५६) समीक्षक-”भला ! यह कौन-सी न्याय, विद्धत्ता और धर्म की बात है कि जो अपना पक्ष करे और चाहे अन्याय भी करे उसी का पक्ष और लाभ पहुंचावे ? और जो प्रजा में शान्ति भंग करके लड़ाई करे, करावे और लूट मार के पदार्थों को हलाल बतलावे और फिर उसी कानाम क्षमावान् दयालुलिखे यह बात खुदा की तो क्या किन्तु किसी भले आदमी की भी नहीं हो सकती। ऐसी-ऐसी बातों से कुरान ईश्वर वाक्य कभी नहीं हो सकता।” (पृ. ५७४) ५. ”और इसी प्रकार हमने इस (कुरआन) को एक अरबी फरमान के रूप में उतारा है। अब यदि तुम उस ज्ञान के पश्चात् भी जो, तुम्हारे पास आ चुका है, उसकी इच्छाओं के पीछे चले तो अल्लाह के मुकाबले में न तो तुम्हारा कोई सहायक मित्र होगा औन न कोई बचाने वाला।” (१३ : ३७) हम जो वादा उनसे कर रहे हैं चाहे उसमें से कुछ हम तुम्हें दिख दें या तुम्हें उठा लें। तुम्हारा दायित्व तो बस सन्देश का पहुंचा देना ही है, हिसाब लेना तो हमारे जिम्मे है।” (१३ः४०, पृ. २१२-२१३) समीक्षक-”कुरान किधर की ओर से उतारा ? क्या खुदा ऊपर रहता है ? जो यह बात सच्च है तो वह एकदेशी होने से ईखश्वर ही नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर सब ठिकाने एकरस व्यापक है। पैगा़ाम पहुंचाना हल्कारे का काम है और हल्कारे की आवश्यकता उसी को होती है जो मनुष्यवत् एकदेशी हो। और हिसाब लेना देना भी मनुष्य का काम है, ईश्वर का नहीं, क्योंकि वह सर्वज्ञ है। यह निश्चय होता है कि किसी अल्पज्ञ मनुष्य का बनाया कुरान है।” (पृ. ५७९) ६. ”और जो तौबा कर ले और ईमान लाए और अच्छा कर्म करे, फिर सीधे मार्ग पर चलता रहे उसके लिए निश्चय ही मैं अत्यन्त क्षमाशील हूँ।” (२०ः ८२, पृ. २७२) समीक्षक-”जो तोबाः से पाप क्षमा करने की बात कुरान में है, यह सबको पापी कराने वाली है। क्योंकि पापियों को इससे पाप करने का साहस बहुत बढ़ जाता है। इससे यह पुस्तक और इसका बनाने वाला पापियों को पाप करने में हौसला बढ़ाने वाला है। इससे यह पुस्तक परमेश्वर कृत और इसमें कहा हुआ परमेश्वर भी नहीं हो सकता।” (पृ. ५८४) ७. ”(जो आयतें उतर ही हैं) वे तत्वज्ञान से परिपूर्ण किताब की आयतें हैं।” (३१.२)। ”उसने आकाशों को पैदा किया (जो थमे हुए हैं) बिना ऐसे स्तम्भों के जो तुम्हें दिखाई दें और उसने धरती में पहाड़ डाल दिए कि ऐसा न हो कि तुम्हें लेकर डावांडोल हो जाए।” …. (३१.१०) ”क्या तुमन देखा नहीं कि अल्लाह रात को दिन में प्रविष्ट करता है और दिन को रात में प्रविष्ट करता है”………….(३१ : २९) ”क्या तुमने देखा नहीं कि नौका समुद्र में अल्लाह के अनुग्रह से चलती हैं ताकि वह तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाए।” (३१ : ३१, पृत्र ३६०-३६२) समीक्षक-वाह जी वाह ! हिक्मतवालीकिताब ! कि जिसमें सर्वथा विद्या से विरुद्ध आकाश की उत्पत्ति और उसमें खम्भे लगाने की शंका और पृथ्वी को स्थिर रखने के लिए पहाड़ रखना! थोड़ी-सी विद्या वाला भी ऐसा लेख कभी नहीं करता और न मानता और हिकमत देखो कि जहाँ दिन है वहाँ रात नहीं ओर जहाँ रात है वहाँ दिन नहीं, उसको एक दूसरे में प्रवेश कराना लिखता है यह बड़े अविद्यानों की बात है, इसलिए यह कुरान विद्या की पुस्तक नहीं हो सकती। क्या यह विद्या विरुद्ध बात नहीं है कि नौका, मनुष्य और क्रिया कौशलादि से चलती है वा खुदा की कृपा से ? यदि लोहे वा पत्थरों की नौका बनाकर समुद्र में चलावें तो खुदा की निशानी डूब जाय वा नहीं ? इसलिए यह पुस्तक न विद्यान् ओर न ईश्वर का बनाया हुआ हो सकता है।” (पृ. ५९०-५९१)२. अल्लाह
८. ”अल्लाह जिसे चाहे अपनी दयालुता के लिए खास कर ले ; अल्लाह बड़ा अनुग्रह करने वाला है।” (२ः१०५, पृ. १९) समीक्षक- ”क्या जो मुखय और दया करने के योग्य न हो उसको भी प्रधान बनाता और उस पर दया करता है ? जो ऐसा है तो खुदा बड़ा गड़बड़िया है क्योंकि फिर अच्छा काम कौन करेगा ? और बुरे कर्म को कौन छोड़ेगा ? क्योंकि खुदा की प्रसन्नता पर निर्भर करतेहैं, कर्मफल पर नहीं, इससे सबको अनास्था होकर कर्मोच्छेदप्रसंग होगा।” (पृ. ५५४) ९. ”… और यह कि अल्लाह अत्यन्त कठोर यातना देने वाला है।” (२ : १६५) ”शैतान के पद चिन्हों पर मत चलो । निसन्देह वह तुम्हारा खुला शत्रु है ” (२ : १६८)।” वह तो बस तुम्हें बुराई और अश्लीलता पर उकसाता हे और इस पर कि तुम अल्लाह पर थोपकर वे बातें कहो जो तुम नहीं जानते।” (२ : १६९, पृ. २६) समीक्षक- ”क्या कठोर दुःख देने वाला दयालु खुदा पापियों पुण्यात्माओं पर है अथवा मुसलमानों पर दयालु और अन्य पर दयाहीन है ? जो ऐसा है तो वह ईश्वर ही नहीं हो सकता। और पक्षपाती नहीं है तो जो मनुष्य कहीं धम्र करेगा उस पर ईश्वर दयालु और जो अधर्म करेगा उस पर दण्ड दाता होगा, तो फिर बीच में मुहम्मद साहेब और कुरान को मानना आवश्यक न रहा। और जो सबको बुराई कराने वाला मनुष्य मात्र का शुत्र शैतान है, उसको खुदा ने उत्पन्न ही क्यों किया? क्या वह भविष्यत् की बात नहीं जानता था ? जो कहो कि जानता था परन्तु परीक्षा के लिये बनाया, तो भी नहीं बन सकता, क्योंकि परीक्षा करना अल्पज्ञ का काम है, सर्वज्ञ तो सब जीवों के अच्छे बुरे कर्मों को सदा से ठीक-ठीक जानता है और शैतान सबको बहकाता है, तो शैतन को किसने बहकाया ? जो कहो कि शैतान आप बहमता है तो अन्य भी आप से आप बहक सकते हैं, बीच में शैतान का क्या काम ? और जो खुदा ही ने शैतान को बहकाया तो खुदा शैतान का भी शैतान ठहरेगा, ऐसी बात ईश्वर को नहीं हो सकती और जो कोई बहकाता है वह कुसुग तथा अविद्या से भ्रान्त होता है ” (पृ. ५५७) १०. ”जब तुम ईमान वालों से कह रहे थे; ”क्या यह तुम्हारे लिए काफ़ी नहीं है कि तुम्हारा रब तीन हजार फरिश्ते उतारकर तुम्हारी सहायता करे।” (३ : १२४, पृ. ५८) समीक्षक- ‘जो मुसलमानों को तीन हजार फरिश्तों के साथ सहाय देता था तो अब मुसलमानों की बादशाही बहुत-सी नष्ट हो गई और होती जाती है क्यों सहाय नहीं देता ? इसलिए यह बात केवल लोभ के दो मूखा्रें को फंसाने के लिये महा अन्याय की है।” (पृ. ५६४) ११. ‘‘अल्लाह बिगाड़ को पसन्द नहीं करता” (२ : २०५)/हे ईमानवालों ! तुम सब इस्लाम में दाखिल हो जाओ और शैतान के पद चिन्हों पर न चलो। वह तो तुम्हारा खुला शत्रु है।” (२ : २०८, पु. ३१) समीक्षक-”जो झगड़े को खुदा मित्र नहीं समता तो क्यों आप ही मुसलमानों को झगड़ा करने में प्रेरणा करता ? और झगड़ालू मुसलमानों से मित्रता क्यों करता है ? मुसलमानों के मत में मिलने ही से खुदा राजी है तो वह मुसलमानों ही का पक्षपाती है, सब संसार का ईश्वर नहीं। इससे यहाँ यह विदित होता है कि न कुरान ईश्वरकृत और न इसमें कहा हुआ ईश्वर हो सकता है।” (पृ. ५५९) १२. ”वह जिसको चाहे-नीति (तत्त्वदर्शिता) देता है।” (२ : १६९, पृ. ४२) समीक्षक-”जब जिसको चाहता है उसको नीति देता है तो जिसको नहीं चाहता है उसको अनीति देता होगा, यह बात ईश्वरता की नहीं किन्तु जो पक्षपात छोड़ सबको नीति का उपदेश करता है वही ईश्वर और आप्त हो सता है, अन्य नहीं।” (पृ. ५६१) १३. ”फिर वह जिसे चाहे क्षमा कर दे और जिसे चाहे यातना दे। अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ प्राप्त है।” (२ः२८४, पृ. ४४) समीक्षक-”क्या क्षमा के योग्य पर क्षमा न करना, अयोग्य पर क्षमा करना गवरगंड राजा के तुल्य यह कर्म नहीं है ? यदि ईश्वर जिसको चाहता पापी वा पुण्यात्मा बनाता तो जीव को पाप पुण्य न लगना चाहिये। जब ईश्वर ने उसको वैसा ही किया तो जीव को दुःख सुख भी होना न चाहिए। जैसे सेनापति की आज्ञा से किसी भृत्य ने किसी को मारा वा रक्षा की उसका फलभागी वह नहीं होता, वैसे वे भी नहीं।” (पृ. ५६१-५६२)
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