प्रथमः खण्ड:
वेदोद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ब्रह्मचर्यादितपःपूत योगमयी साधना द्वारा वेदों के निर्भ्रान्त सत्यार्थ प्रकाशित किये और प्रमाण तथा प्रखर तर्को से महीघर-सायणादिकृत कदर्थ-भाष्यों के खण्डन एवं सुधार का अप्रतिम साहस किया।
नीरक्षीर- विवेकी विद्वानों ने ऋषि द्वारा प्रदर्शित, यास्काचार्य के निरुक्त एवं ब्राह्मणादिसद्ग्रन्थों से पोषित एवं परिमार्जित वेदार्थ पद्धति को स्वीकार किया। फिर भी कतिपय पक्षपाती-जन इस नव जाज्वल्यमान ज्योति पर आवरण डालने का दुष्प्रयास करने लगे और अवैदिक बुद्धिबाह्य तर्कहीन अर्थों को ईश्वरीय शाश्वतवाणी वेद के साथ जोड़ने लगे।
मुझे बड़ी पीड़ा के साथ इस तथ्य को कहने में संकोच नहीं है कि मीमांसाशास्त्र के महान् विद्वान् स्वामी करपात्री जी भी दुरा ग्रह-वश इस दोष से मुक्त होने में सर्वथा असमर्थ रहे। मुझे यह भी कहने में तनिक हिचक नहीं कि वे वेदार्थ-पारिजात' में अनेक स्थलों पर महर्षि दयानन्द के सत्य-सिद्धान्तों का खण्डन करते हुये स्वयं ही निग्रहस्थान में ना गये हैं।
वेदार्थ-पारिजात के इन लेखक ने आप-शैली से प्रतिपादित किये गये महर्षि दयानन्द के (ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका-गत) पाण्डित्य पूर्ण आर्य सिद्धान्तों को छल-कपट एवं वाग्जाल द्वारा खण्डित करने का जो ग्राडम्बर रचा था उसके निराकरण करने को अत्यन्त आवश्यकता थी। आर्यसमाज के नियम 'सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये के अनुसार आर्य जगत् के प्रकाण्ड विद्वान्, संस्कृत वाङमय के उद्भट पण्डित, वैदिक सिद्धान्तों के मर्मज्ञ, गुरुकुल विश्व विद्यालय, वृन्दावन के कुलपति, 'पण्डिताग्रगण्य आचार्य विशुद्धानन्द शास्त्री, दर्शनवाचस्पति ने उस 'वेदार्थ-पारिजात' का 'वेदार्थ-कल्पद्रम' नाम से सप्रमाण सयुक्तिक उत्तर लिखकर आर्यजगत् की महान् सेवा की है।
श्री आचार्य प्रवर ने इस ग्रन्थ का उत्तर लिखकर गुरुवर महर्षि दयानन्द के प्रति जो आस्था प्रकट की है, उससे वे ऋषि ऋण से उॠण होकर महर्षि दयानन्द की शिष्य-मण्डली में प्रथम पंक्ति में विराजमान हुये हैं।
आर्य समाज को यह गौरव प्राप्त है कि उसकी गोद में विलसित महनीय लेखक का एक ऐसा परिवार है, जिसके बच्चों की मातृभाषा संस्कृत है। एक ओर कहाँ तो श्री करपात्री जी के साथ वेदार्थ पारिजात की रचना में सहायक पौराणिक जगत के नानाविषयों के १४ प्रकाण्ड पंडित और सर्वविध-साधन-संपन्नता, ओर कहाँ दूसरी ओर ये आचार्य प्रवर और उनकी परम-विदुषी धर्मपत्नी श्रीमती निर्मला ‘मिश्रा' हैं, जिनके प्रयास से यह वेदार्थ-कल्पदुम तैयार हो सका है।
यह सम्पूर्ण ग्रन्थ यथासमय ४ खण्डों में प्रकाशित होगा, सम्प्रति यह प्रथम खण्ड प्रस्तुत है, जो 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' के 'वेद-विषय विचार, तक सम्बद्ध है।
मेरा विश्वास है कि प्राचार्य विशुद्धानन्द जो द्वारा लिखित इस वेदार्थ-कल्पद्रम' का देश और विदेश की विद्रमण्डली तथा संस्कृत साहित्य में रुचि रखने वाले विद्वान् स्वागत करेंगे ।
निवेदक
रामगोपाल 'शालवाले' प्रधान सार्वदेशिक पार्य प्रतिनिधि सभा नई दिल्ली
आभार प्रदर्शन.
यह 'वेदार्थ-कल्पद्रुम' स्वर्गीय श्री करपात्री जी के जीवन काल में ही लिखा जा चुका था, परन्तु वे इसको न देख सके। मुझे महान् हर्ष होता कि वे मेरे ग्रन्थ के प्रमाण-समुच्चय और वलवतकों से महर्षि की विचारधारा की सत्यता के प्रति कृतज्ञ और प्रभावी (कायल) होते। वे अब दिवङ्गत हैं, पर उनके सैकड़ों भुवङ्गत भक्त इसे पढ़कर सत्यासत्य के निर्णय पर अवश्य पहुंचेंगे।
मेरे ग्रन्थ के प्रकाशन के विलम्ब का कारण मूलरूप में यही रहा कि मेरे ग्रन्थलेख का परिष्करण मुद्रण-शोधन आदि महान कार्य कोई अन्य प्रशस्त विद्वान् ही करे। कालानन्तर में सम्माननीय श्री सुरेन्द्रकुमार जी शास्त्री व्याकरण साहित्याचार्य के समक्ष जब यह प्रश्न घाया, तो सौम्य प्रकृतिक विपश्चिद्वर्य ने बड़ी निर्लोभता एवं सारल्य से इस दुष्कर कार्य के भार को स्वयं ले लिया।
इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की चेष्टानुरूप शब्दावली न जुट सकने पर भी आभार प्रकाशन की सफलता की दिशा में एक प्रसफल प्रयास हो सही, पर वह सही तो है। इससे मुझे सन्तोष है।
श्री करपात्री जी का वेदार्थ पारिजात
श्री करपात्री जी के जीवन की अन्तिम महती उपलब्धि यह है कि उन्होंने अपनी रूढिग्रस्त पौराणिक धारणाओं से अभिभूत होकर अन्धविश्वासी अपने भक्तों में अपने पाण्डित्य की धाक जमाने के लिये और उनको स्वामि दयानन्दीय सिद्धान्तों का खण्डन करक प्रसन्न करने के लिये 'ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका का भी खण्डन लिख डाला।
महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तों की सप्रमाणता एवं तर्कानुसंगतता की दिव्यज्योति के समक्ष दिवान्धतुल्य पंडितम्मन्य दम्भी हतप्रभ होने लगे थे। पुनरपि करपात्री जी को आशा थी कि आर्यसमाजियों के विरोधियों के बाहुल्य से वे विशेष ख्याति प्राप्त कर सकेंगे, परिणामतः उन्होने महर्षि कपिल कणाद और गौतम से भी आगे बढ़कर वेद-धारा की उपेक्षा कर कतिपय नये सिद्धान्तों की इस ग्रन्थ में तिरोहित रूप से स्थापना की कि इस खण्डन के भकामोड़े और हुल्लड़ में वे आगे चलकर जनमानस को यह सोचने के लिए विवश
कर देंगे कि करपात्री जी की प्रतिभा उक्त महर्षियों से भी आगे गई है। उनमें से कतिपय नई मान्यताओं को देखिये १. वेदों का कोई कर्त्ता नहीं है, वेदों का ज्ञान प्रलय के पश्चात् सुप्त प्रतिबुद्धन्याय से ही हो जाता है।
२. मन्त्र और ब्राह्मण-ग्रन्थ दोनों ही वेद-पदाभिषेय हैं।
३. ये वेद ११३१ शाखाओं से युक्त हैं।
४. विकासवाद के सिद्धान्त के समान वेदज्ञान भी आदि में विना सिखाये भी हो सकता है। ५. ईश्वर, भक्तों पर अनुग्रह के लिये साकाररूप धारण करता है। इत्यादि २ ।
परन्तु वे इन धारणाओं और मान्यताओं के पोषण में कोई वेद प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके। पाठक महानुभाव इन्हें शास्त्रों पर आस्था तथा विश्वास नहीं है, भले ही ये जनमानस को आकृष्ट करने के लिये पदे पदे शास्त्रों की दुहाई देते हैं। सांख्य तथा मीमांसा के रचयिताओं को अनीश्वरवादी प्रतिपादित करने में ये नहीं हिचके हैं पौवपये लेख का भी ध्यान नहीं रहा है। क्योंकि वह अनास्था में स्वयं भटक रहे हैं इन्होंने 'ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के प्रत्यक्षर खण्डन की प्रतिज्ञा की है परन्तु वे अपने उद्देश्य में सफल खण्डन न होने से असफल रहे हैं। खण्डन के लिये उठाये उनके ओछे हथियार लक्ष्य बेध में असमर्थ रहे हैं। करपात्री जी ने स्वामी दयानन्द की जो व्याकरण सम्बन्धी त्रुटियां निकाली हैं उनका भी निराकरण कर सप्रमाण-समाधान किया है तथा साथ ही करपात्री जी की अनेकों व्याकरण की त्रुटियां निकाली है।
मैं आर्य जगत् की शिरोमणि सार्वदेशिक आर्य-प्रतिनिधि सभा नई दिल्ली के सभी मान्य अधिकारियों तथा विशेषतया सभा के सम्मान्य प्रधान यतिकल्प, आर्य समाजार्थ-समर्पित-समस्त जीवनधन श्री ला० रामगोपाल शालवाले का अत्यन्त आभारी हूं जिनकी प्रेरणा से उन्हीं के पथ-प्रदर्शन में इस ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ है।
मैं वेदार्थ-कल्पद्र म लिखने की प्रेरणा में गुरुवर्य शास्त्रार्थ महार यी श्री पं. बिहारीलाल जी शास्त्री काव्यतीर्थ के अतिरिक्त दर्शनाचार्य उदयवीर जी शास्त्री तथा आदरणीय श्री पं० शिवकुमार जी शास्त्री जी का भो प्रमुख योग मानता हूं जिसने मुझे सतत अग्रसर किया है। इन सभी विद्वानों के प्रति में कृतज्ञभाव से अवनत शिरस्क आभारिता प्रदर्शन की इस श्रृंखला में विस्मरण करना, कहीं अनुताप का स्थल न बन जाये, अत: आदरणीय श्री सच्चिदानन्द जी शास्त्री एम. ए. तथा श्री ब्रह्मदत्त जी 'स्नातक' के प्रति हार्दिक कृतज्ञता अभिव्यक्त करता हूं।
अन्त में श्री चन्द्रमोहन जी शास्त्री का भी आभारी हूँ जिनके सहयोग से यह ग्रन्थ शुद्ध एवं उत्तम मुद्रित हो सका है।
दिनांक १-११-१९८४
आभारी श्राचार्य विशुद्धानन्द मिश्र..........Cont..>>
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