१. ब्रह्मचारी रहते हुए ऋषि ने गर्भाधान आदि का विधि कैसे लिख दिया?
२. धाय का दूध पिलाने के लिये धाय कहाँ से लायें, जबकि स्वयं की मां नहीं पिला सकती? धाय का बच्चा क्या पियेगा? मां का दूध सर्वोत्तम भोजन है, ऐसी वैज्ञानिक बातों को छोड़कर, ऋषि का मां को दूध बन्द करने का निर्देश उचित नहीं है बल्कि आपत्तिजनक है और थाय के बच्चे के साथ अन्याय भी है।
३. नियोग की प्रथा व उसकी वकालत करना अनुचित ही नहीं अपितु लज्जाजनक भी है।
प्रिय पाठकगण ! इन तीनों ही प्रश्नों पर आर्य विद्वानों ने कई शास्त्रार्थ किये हैं, लेख लिखे हैं। पं. मनसाराम जी के 'वैदिक तोप' एवं पं. बुद्धदेव जी मीरपुरी के ग्रन्थों में इनका शास्त्रीय प्रमाणों के साथ समाधान किया गया है। पाठक कृपया इनके ग्रन्थों का अवलोकन करने का कष्ट करें, तो शास्त्रीय दृष्टिकोण स्पष्ट हो जायेगा। “निर्णय के तट पर" में भी कुछ चर्चा है। हाँ, मैं यह अवश्य अनुभव करता हूँ कि जो भी उत्तर अब तक दिये गये हैं, उनमें तर्क कम शास्त्रीयता का समावेश अधिक है, एक गाली के उत्तर में 4 गाली देने की शैली भी हमारे विद्वानों में रही है। जैसे कोई नियोग पर आक्षेप करे, तो हमारे विद्वानों ने उसके उत्तर में अपनी बात के औचित्य को सिद्ध करने से अधिक पौराणिक अश्लीलता को लेकर खाल खींचने का काम अधिक किया है। उससे कटुता ही बढ़ी है। हाँ, दूसरे पर प्रहार करना भी आवश्यक होता है परन्तु इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति न तो हमारे ग्रन्थों को प्रमाण मानता है और न पुराणों को, ऐसे मुस्लिम, ईसाई व नास्तिकों को पौराणिक अश्लीलता सुनाकर हमारी बात कैसे प्रामाणिक हो जायेगी? जो स्वयं व्यास ऋषि, हनुमान् व पाण्डवों को जारों की सन्तान व व्यभिचारी कहे, उसे उनके नियोगकर्ता वा नियोगज होने के प्रमाण देने से हमारी बात कैसे उचित सिद्ध हो सकती है? मैं समझता हूँ कि हमारे विद्वानों ने इस बिन्दु पर कभी विचार नहीं किया है और न आज भी कर रहे हैं। यही कारण है कि इस प्रकार थाय के दूध के विषय में जो सुश्रुत के प्रमाण देते हैं व ऐतिहासिक प्रमाण देते हैं, तब अंग्रजी पठित व्यक्ति सुश्रुत व इतिहास दोनों पर व्यंग कर वर्तमान विज्ञान का दम्भ भर कर ऋषि दयानन्द को नादान बताता है, जिसका उत्तर देने के लिए उपर्युक्त प्रमाण पूर्ण कारगर सिद्ध नहीं होते। यही कारण है कि आज अनेक विद्वान् आध्यात्मिक पुरुष व कट्टर ऋषिभक्त भी इन प्रश्नों के कारण अपने को लज्जित, अनुभव करते हैं।
यद्यपि मैं आर्य समाज वेद व भारत राष्ट्र के मूल को बचाने का व्रत लेकर आगे बढ़ रहा हूँ, जिसकी ओर हमारे अभागे आर्य जनों का ध्यान ही नहीं हैं। वेद पर नये-नये ढंग से आक्रमण हो रहे हैं, ऊपर से हमारे विद्वान् स्वयं आर्य समाज के तृतीय नियम पर हृदय से विश्वास नहीं करते हैं। आधुनिक विज्ञान ने हमारी जड़ों को हिला दिया है, इथर हम हैं, जो नींद ही नहीं खुल रही। वाग्जाल में श्रोताओं को फंसाकर दान दक्षिणा लेकर ही अपने कर्तव्य की इति श्री समझ रहे हैं। तो कोई भव्य भवनों को बनाने को ही लक्ष्य बनाये हैं। वेद को ज्ञान-विज्ञान का मूल बताने वालों को कहीं कोई वैज्ञानिक नहीं पूछता है, फिर भी उपाधिधारी वा पद वा मठधारी विद्वानों के अहंकार की कोई सीमा नहीं है।
अपने घरों में बैठकर दुनिया भर को ताल ठोक रहे हैं। बाहर निकलकर सत्यासत्य का डंका बजाने का साहस नहीं है। यदि कोई ऐसा सोचकर चलने का क्रम प्रारम्भ करता है, तो उसे उपेक्षित किया जाता है। न कोई सहयोग करता है, कोई-२ तो पत्र लिखकर अपनी आत्मीयता तक नहीं दर्शा सकते हैं। जैसे मैंने कोई नया मत पंथ चला दिया हो। क्या करूं? मैं अपनों का व्यवहार देखकर क्षुब्ध हूँ परन्तु मिथ्या पंथों में मिल भी नहीं सकता और न सुधांशु, श्रीराम शर्मा, भीमसेन शर्मा, आचार्य अभयदेव, स्वामी सत्यानन्द बन सकता। दुःखी- सुखी इसी घर में जीना मरना है। इसी कारण आर्यों (आर्य समाजियों क्योंकि आर्य तो कोई बिरले ही बचे हैं) की लाज को आज भी अपनी लाज मानता हूँ। इसी कारण यह सब लिखने को बाध्य हो रहा हूँ।
उपर्युक्त प्रश्नों के शास्त्रीय प्रमाणों को इसलिए छोड़ रहा हूँ कि उन्हें पाठकों ने पढ़ ही लिया होगा। समयाभाव के कारण प्रमाणों के सहित नहीं लिख पा रहा। पाठक गण उन प्रमाणों को मेरे तर्कों से जोड़कर देखते हुए समाधान पर विचार करें।
१. ऋषि को गर्भाधान आदि का विधि कैसे ज्ञात हुआ? उत्तर- हर बात को जानने के लिए प्रत्यक्ष ज्ञान की ही अनिवार्यता नहीं होती। यद्यपि एतद् विषयक वेदादि मंत्रों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, वह स्वयं में पर्याप्त है। ऋषि वेद, शास्त्रों व आयुर्वेद आदि ग्रन्थों के माध्यम से शरीर ज्ञान में निष्णात विद्वान् थे। इस कारण उन्हें चारों आश्रमियों के सभी धर्म व कर्तव्य, राजा-प्रजा, शिष्य-गुरु, व्यापार, कृषि, पाकशाला, दर्शन, योग, विज्ञान सभी क्षेत्रों का पूर्ण ज्ञान था, इस कारण लिख दिया। कोई यह कहेगा कि ऋषि राजा नहीं थे, तब षष्ठम समुल्लास कैसे लिख दिया? तो कोई कहेगा कि ऋषि ने सृष्टि बनते तो देखी नहीं फिर षष्ठम समुल्लास कैसे लिख दिया? ऋषि व्यापारी, किसान, अर्थशास्त्री भी नहीं थे, तो उनके विषय में कैसे लिख दिया? ये सब प्रश्न कोई बहुत बुद्धिमत्ता के परिचायक नहीं हैं। ऋषि तो वैसे भी मंत्रद्रष्टा, ब्रह्मद्रष्टा होते हैं। उन्हें तो सभी लौकिक विद्याओं का ज्ञान योग द्वारा भी हो सकता है (यदि वे ऐसा चाहते हैं) तब ऋषि के इस ज्ञान पर शंका कैसी? कोई अब यह कहे कि क्या यह आवश्यक था, जो अश्लील प्रतीत होता है उसको भी साफ़-२ बता दिया, उसका उत्तर यह है कि विज्ञान को पढ़ने वाला इन सबके विषय में जानता व पढ़ता ही है। ऐसा पढ़े बिना शरीर शास्त्र का ज्ञान कोई करा ही नहीं सकता। ऋषि ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने सम्पूर्ण मानव मात्र के लिए एक जीने की व्यवस्था देते हुए मुक्ति तक का मार्ग बताया अन्यथा अन्य सुधारक हवाई बातों तक सीमित रहे। पृथिवी पर पैर रखना नहीं आता, उन्हें आसमान में उड़ने के स्वप्न दिखाते रहे। इसी कारण ऋषि दयानन्द सबसे अनूठे हैं, महान् हैं, महत्तम हैं। मानव का निर्माण गर्भाधान से ही प्रारम्भ होता है, बीज वपन से ही वृक्ष के निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। यदि बीज वपन का उचित विधि व विज्ञान न सिखाया जाय और फल काटने के लम्बे-२ उपदेश दिये जायें, तब क्या वे सार्थक होंगे? नहीं, कदापि नहीं। इसी कारण यथार्थ द्रष्टा ऋषि मानव निर्माण की पूर्ण योजना लिये संसार में आये थे। फिर जब वेद में गर्भाधान का उपदेश है, तब क्या दयानन्द ने ऐसा करके अपराध कर दिया? क्या रोगी होकर ही डॉक्टर बना जाता है? कोई रोगी डॉक्टर से कहे कि क्यों आपको कभी यह रोग हुआ है? यदि नहीं, तो मुझे क्या दवा बता सकते हो? ऐसा रोगी निश्चित ही नादान कहलायेगा। रोग की दवा बताने के लिए रोगी बनना आवश्यक नहीं बल्कि रोगविषयक शास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। इसी प्रकार सर्वशास्त्रज्ञ दयानन्द ने गृहस्थ धर्म का, उपदेश लोकहितार्थ किया है, जो न केवल उचित है अपितु आवश्यक भी है।
२. घाय के विषय में
यहाँ ऋषि के वचन हैं- "प्रसूता का दूध ६ दिन तक बालक को पिलावे पश्चात् थायी पिलाया करे परन्तु थायी को उत्तम पदार्थों का खान पान माता पिता करावें। जो कोई दरिद्र हो, थायी को न रख सकें, वे गाय या बकरी के दूध में उत्तम औषधि बल, पराक्रम, आरोग्य करने हारी हों, उनको शुद्ध जल में भिजा, औटा, छान के दूध के समान जल मिला के बालक को पिलावें। जन्म के पश्चात् बालक और उसकी माता को दूसरे स्थान, जहाँ का वायु शुद्ध हो, वहाँ रखें, सुगन्ध तथा दर्शनीय पदार्थ भी रखें और उस देश में भ्रमण कराना उचित है कि जहाँ का वायु शुद्ध हो और थायी, गाय, बकरी आदि का दूध न मिल सके, वहाँ जैसा उचित समझें, वैसा करें क्योंकि प्रसूता स्त्री के शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है, इसी से स्त्री प्रसव के समय निर्बल हो जाती है, इसलिए प्रसूता स्त्री का दूध न पिलावें। दूध रोकने के लिए स्तन के छिद्र पर उस ओषधि का लेप करें, जिससे दूध स्रावित न हो ऐसा करने से दूसरे महीने में ही प्रसूता पुनरपि युवती हो जाती है। तब तक पुरुष ब्रह्मचर्य से वीर्य का निग्रह रखे। इस प्रकार जो स्त्री पुरुष करेंगे, उनके उत्तम सन्तान, दीर्घायु, बल, पराक्रम की वृद्धि होती रहेगी, जिससे सब सन्तान उत्तम बल, पराक्रम युक्त, दीर्घायु तथा धार्मिक हों।"...... (स.प्र. द्वितीय समुल्लास) "जो बालक दूध पीना चाहे, तो उसकी माता पिलावे। जो उसकी माता को दूध न हो, तो किसी स्त्री की परीक्षा करके उसका दूध पिलावे।..........६ दिन तक माता का दूध पीवे और स्त्री भी अपनी शरीर की पुष्टि अर्थात् अनेक प्रकार के उत्तम भोजन करें छठे दिन स्त्री बाहर निकले और सन्तान के दूध के लिए कोई थाय रखे। उसको खान पान अच्छा करावें। वह सन्तान को दूध पिलाया करे और पालन भी करे परन्तु उसकी माता लड़के पर पूर्ण दृष्टि रखे समुल्लास (द्वितीय संस्करण) ( स. प्र. चतुर्थ ऋषि वाक्यों पर विचार- यहाँ ऋषि के सम्पूर्ण विचारों को पढ़कर निम्न बातें स्पष्ट होती हैं 6 दिन तक माता ही दूध पिलाये, यदि उसके दूध है, तो। यह एक अनिवार्य व्यवस्था है।
२. माता के दूध न आने पर प्रारम्भ से ही धायी की व्यवस्था हो और यदि मां के दूध आता है, तब भी ६ दिन पश्चात् थायी की व्यवस्था हो तथा माता आते हुए दूध को बन्द कर दे। ३. यदि माता पिता निर्धन हैं, तो थायी के स्थान पर गाय, बकरी आदि की व्यवस्था करें परन्तु उस दूध में विभिन्न उत्तमोत्तम औषधियों का सम्मिश्रण करके दूध को मां के दूध के समान उपयोगी बना कर ही काम में लिया जाये।
४. जिस धायी को दूध पिलाने के निमित्त रखा जाए, उसकी भी परीक्षा करे। ५. थायी को उत्तमोत्तम भोजन कराया जाए, जिससे दूध की मात्रा
एवं गुणवत्ता दोनों में वृद्धि हो ।
इन बातों पर विचार करने से तीन बातें सामने आती हैं -
१. बच्चा हर स्थिति में स्वस्थ, संस्कारित एवं बलवान् बने। वे सद्यः प्रसूता माता के पीले गाढ़े दूध को अनेक विटामिन्स के साथ एण्टीबायोटिक्स का भण्डार भी मानते हैं, जिससे बच्चे की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, इसी कारण ही ऋषि ने थायी रखने का विधान ६ दिन बाद ही किया है। इतने दिन का दूध ही विशिष्ट गुणों वाला होता है, ऐसी ही स्थिति पशुओं में भी होती है। उसके बाद दूध सामान्य होता जाता है, तब ही थायी की व्यवस्था करने को कहा है। ऐसा नहीं कहा कि प्रसव के तत्काल बाद ही थायी रख ले जबकि उस समय और भी दुर्बलता होती है। इससे स्पष्ट है कि वे उस दूध के महत्व को समझते हैं। इस कारण उससे बच्चे को वंचित नहीं करना चाहते, ऐसा दूथ धायी के पास नहीं हो सकता। 6-7 दिन पश्चात् थायी और मां के दूध में विशेष भेद नहीं होता। इस कारण मां के दूध के वैशिष्ट्य का लाभ भी बच्चे को मिल गया और मानव के लिए मानव का दूध, ही सर्वोत्तम है, इस कारण थायी की व्यवस्था करने को कहा, क्योंकि वह भी मां है। यदि वह उपलब्ध न हो सके, तो बकरी वा गाय के दूध में ओषधि को मिलाकर गुणयुक्त बनाकर ही देने को कहा अर्थात् बच्चे के स्वास्थ्य, संस्कार आदि का पूर्ण ध्यान रखा गया है।
२. बच्चे के साथ ऋषि का ध्यान उस माता के स्वास्थ्य पर भी जाता है, जो सद्यः प्रसव के कारण अति दुर्बल हो गयी है। यह सभी स्वीकारेंगे कि प्रसव से अत्यधिक दुर्बलता आ जाती है। उस पर भी बच्चा बराबर दूध पीता रहे, तो दुर्बलता दूर होने में अति विलम्ब होगा। फिर ऋषि के द्वितीय समुल्लास वाले अन्तिम वाक्यों पर विशेष ध्यान दें, तो ज्ञात होता है कि ऋषि यह भी विचारते हैं कि यदि उसी दुर्बलता में पुनः गर्भाधान कर दिया, तो आने वाली सन्तान भी माता के साथ अति दुर्बल हो जायेगी। ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में उपर्युक्त वाक्यों के कुछ ऊपर लिखा है कि गर्भ धारण के उपरान्त एक वर्ष तक पति पत्नि का शारीरिक सम्पर्क नहीं होना चाहिए। वे यह भी भावना रखते हैं कि गर्भाधान करते समय पति पत्नि दोनों के शरीर में बल पराक्रम की पूर्णता होनी चाहिए। इसी कारण गर्भाधान से पूर्व भी दोनों के उत्तम खानपान की व्यवस्था आवश्यक बतायी है, तब अगली सन्तान के लिए प्रसूता की दुर्बलता को कैसे उपयुक्त मान सकते हैं? इस कारण उनका लक्ष्य यह भी है कि एक ओर प्रथम सन्तान बलवान् व निरोगी हो, तो दूसरी और प्रसूता भी यथाशीघ्र पूर्ण स्वस्थ एवं बलवती हो, जिससे गर्भाधान हो भी जाये, तो भी मां व अगली सन्तान का स्वास्थ्य अच्छा ही रहे। वे आजकल अपनाये जाने वाले कृत्रिम निरोधकों के प्रयोग करने की सलाह देकर दोनों को स्वच्छन्द भोगी बनाना नहीं चाहते बल्कि हर जगह ब्रह्मचर्य व बल के महत्त्व को दर्शाते हैं। इसी कारण दुर्बल प्रसूता को दूध न पिलाने की सलाह देते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य माता को पुनः बलवती बनाना है, न कि माता को उसके बच्चे के लालन-पालन से दूर करना, अन्यथा वे धायी के द्वारा किये गये पालन पर पूर्ण दृष्टि रखने का निर्देश क्यों देते? इससे यह भी संकेत मिलता है कि जब माता पुनः युवती हो जाये, तो जिस प्रकार औषधि प्रयोग से दूध का स्रवण रोका गया था। उसी प्रकार अन्य औषधियों के प्रयोग से दूध स्रवण पुनः प्रारम्भ करके पिलाया भी जा सकता है क्योंकि उस स्थिति में माता के प्रसूता होने का कष्ट व दुर्बलता का कारण समाप्त हुआ। “कारणाभावात्कार्याभावः” अर्थात् कारण मिटा, तो कार्य भी मिट जाना चाहिए। यद्यपि यह बात ऋषि के वाक्यों से प्रत्यक्षतः प्रतीत नहीं होती परन्तु विज्ञजन उनकी भावना को जानकर मेरा यह मत अवश्य ही ऋषि के मन्तव्य के अनुकूल ही मानेंगे। ऋषि ने थायी की परीक्षा की बात भी कही है। यह परीक्षा कैसी होगी, यह स्पष्ट नहीं है। हाँ, हम अनुमान कर सकते हैं कि धायी उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव वाली तथा पूर्ण स्वस्थ होनी योग्य है। तब यह कार्य परिवार की अन्य मातायें जिनके बच्चे कुछ बड़े हो गये हैं और दूध पर्याप्त आता है, सहज तथा उतने काल तक कर सकती हैं, जब तक प्रसूता पूर्ण स्वस्थ और बलवती न हो जाये। उसके बाद वह अपने बच्चे को स्वयं सम्भाल ले, निश्चित ही वह थाय उत्तम कुल वाली संस्कारित ही होगी और वही बच्चे का पूर्ण हित करने में सक्षम भी होगी। साधारण अनपढ़, संस्कारहीन व दुर्बला स्त्री थाय की योग्यता नहीं रखेगी।
३. माता व बच्चे के हित को साधने के पश्चात् धाय के हित में भी ऋषि सोचते हैं
जो निर्धन हों, धाय न रख सकें, तो गाय-बकरी के दूध के प्रयोग की व्यवस्था है। इससे सिद्ध होता है कि थाय के दूध के बदले में धनादि दिया जायेगा, जिससे उसके परिवार को भरण-पोषण में सहायता मिलेगी। इससे सिद्ध है कि निर्धन परन्तु गुणवती, बलवती स्त्रियां भी थाय का काम कर सकती हैं, जिससे उनका यह कार्य एक व्यवसाय के समान हो जायेगा। धाय क्योंकि सद्यः प्रसूता नहीं है, इस कारण दूध पिलाने से उसके स्वास्थ्य को कोई संकट उत्पन्न नहीं होगा। उसके उत्तमोत्तम भोजन की व्यवस्था भी करनी है, जिससे उसके तथा उसके अपने बच्चे के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव नहीं. होने पावे। कोई कहे कि प्रसूता अपने बच्चे को भी दूध नहीं पिला सकती जबकि धाय दोनों बच्चों का पालन करे, क्या यह उसके अपने बच्चे के साथ घोर अन्याय नहीं है? क्या यह निर्धनों का शोषण नहीं है? मैं पूछता हूँ कि प्रसव की दुर्बलता की उपमा दूधादि पिलाने से उत्पन्न दुर्बलता से नहीं की जा सकती। फिर यह अस्थायी व्यवस्था है। जो इस बात पर हाय-तोबा मचाते हैं, वे स्वयं अपने क्षेत्र में क्या यही सब व्यवहार नहीं कर रहे होते हैं? क्या इस प्रकार के व्यवहार के बिना समाज व्यवस्था कभी चल सकती है? एक धनी व्यक्ति निर्धन रिक्शे वाले के रिक्शे में छाया में बैठकर आराम से जाता है तो दूसरा मनुष्य (रिक्शा वाला) उस धनी को पैसे के बदले धूप, वर्षा, सर्दी में पैरों से खींचने का कठिन श्रम करता है। रिक्शे वाले का बच्चा अपने पिता की यह स्थिति देखकर दुःखी होता है, उधर धनवान् का बच्चा मजे से पिता से गप्पें लड़ाता जाता है। एक धनी किसी गरीब से मजदूरी कराता है, फावड़ा चलवाता है, किसान खेती में पसीना बहाता है, धनी ए.सी. बंगलों में बैठे हैं। उसको या किसी डाक्टर, वकील, इन्जीनियर को एक दिन भी ऐसे कठिन कार्य में लगा दिया जाये, तो शरीर यात्रा ही समाप्त करके चल बसे। तब क्या यह सब समाज व्यवस्था की अनिवार्यतायें नहीं हैं? यदि रिक्शे वाले मजदूर आदि से काम ही न करवाया जाये, तो उनका पालन कौन करेगा? यदि बैठे-२ ही उन्हें खाने को दिया जाये, तो क्या पुरुषार्थहीनता से उनका वा समाज का भला हो सकेगा? हाँ, उनको उनके पुरुषार्थ का धनी लोग पूर्ण मूल्य न दें, शोषण करें, तब अवश्य ही घोर पाप व अन्याय है। उसके साथ पूर्ण मानवीय प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हुए पूर्णरूपेण धनादि की व्यवस्था करें, तो सम्पूर्ण समाज सुखी रहेगा। इसी प्रकार ऋषि ने थाय का कर्म करने वाली माताओं के परिवारों के लिए भी ध्यान रखा है, साथ ही थाय के स्वास्थ्य पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े, उसके बच्चे के लिए भी दूध उपलब्ध हो, इससे उसे उत्तमोत्तम भोजन स्वयं धाय रखने वालों के हाथ से कराने का विधान किया है। उन्होंने यह नहीं कहा कि उसे मात्र थन ही दे दें। जिससे वह अपने घर पर उत्तम भोजन कर सके। क्योंकि वे इस मनोविज्ञान से भी परिचित हैं कि सम्भवतः वह घर पर धन ही एकत्र करती रहे और स्वयं उचित व पर्याप्त खान-पान नहीं रखे, जिससे उसका तथा दोनों बच्चों का स्वास्थ्य गिर जाये। इस कारण उसके साथ अन्याय वाली बात यहाँ नहीं मानी जा सकती और यह उसका. व्यवसाय भी है। तब उसे यह सब करके अपनी जीविका चलानी ही है। इसलिए जिस प्रकार मजदूर से मजदूरी कराना तब तक अन्याय नहीं है, जब तक उसको पर्याप्त मजदूरी दी जाती रहे। इसी प्रकार थायी को बिना उचित धन व भोजन के थाय का काम लेना निश्चित ही अन्याय होगा परन्तु ऐसा यहाँ नहीं है। कोई कहे कि दूध पिलाना अलग बात है मजदूरी कराना अलग बात है। ऐसा कहने वाले से धूप में पत्थर तुड़वाना चाहिए अथवा रिक्शे में 4-5 सवारी बिठाकर ज्येष्ठ की दुपहरी में रिक्शा खिंचवाना चाहिए, फिर पूछना चाहिए कि यह काम दूध पिलाने से सरल है वा कठिन? वस्तुतः ऐसी सोच साम्यवादी विचारों के प्रभाव का परिणाम है, जो मजदूरों को भड़काकर धनियों के विरुद्ध संघर्ष को ही समाज का न्याय मानते हैं, जबकि वे स्वयं ए.सी. बंगलों में रहकर अत्यल्प वेतन पर अपने घरेलू नौकरों का शोषण कर रहे होते हैं। गरीब-अमीर, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र सब संसार में हैं। कर्मानुसार व्यवस्था परमात्माथीन है। हाँ, मानव को अपनी तरफ से शोषण न करके सबके प्रति विशेषकर दुःखियों के प्रति करुणा का भाव रखना चाहिए और दुःखियों को चाहिए कि वे धनी लोगों को देखकर द्वेष, ईर्ष्या व विरोध का भाव न रखकर प्रसन्नता का भाव रखें, तभी समाज में सुख शान्ति रह सकती है। सभी के समान कर्म ही नहीं, तब फल कैसे सबको बराबर मिल सकता है? जीव कर्म में स्वतन्त्र है, तब उसे समान किया भी कैसे जा सकता है?
हाँ, इतना तो ध्यातव्य है कि धाय प्रसूता नहीं हो, क्योंकि ऐसी स्थिति में उसके साथ न्याय नहीं होगा। उसका बच्चा कुछ बड़ा होकर उसका अन्नप्राशनादि भी हो चुका हो अथवा कम से कम पूर्ण स्वस्थ एवं बलवती हो, तो अवश्य उसके साथ न्याय होगा और उसका व उसके परिवार का भला होगा और सद्यः प्रसूता व नवजात बच्चे का भी कल्याण होगा। दोनों में परस्पर सहयोग, सहकार, प्रेम का भाव होगा। समाज में एकरसता व एकता का सुखद भाव आयेगा।
४. नियोग विषय- इस विषय पर विचार करने से पूर्व हमें ऋषि के उन २ मन्तव्यों पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जो जितेन्द्रियता को अति आवश्यक मानते हैं। सर्वप्रथम तो महर्षि दयानन्द जी की मान्यता यह है कि जो युवक वा युवती. जितेन्द्रिय रह सकें तथा राष्ट्र व समाज का विशेष हित करना चाहें, वे विवाह ही न करें परन्तु ऐसा संकल्प करने वालों को सचेत भी करते हैं कि यह काम पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थाम कर इन्द्रियों को अपने वश में रखना, परन्तु उनकी भावना अवश्य यह है कि जो ऐसा कर सकते हैं, वे अवश्य करें (देखें- सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास एवं संस्कृत वाक्य प्रबोध) इस प्रकार की तैयारी के लिए अथवा वैदिक विचारानुकूल गृहस्थ बनने के लिए वे उनके माता-पिता द्वारा गर्भाधान से ही तैयारी आवश्यक मानते हैं। वे शिक्षा विषय को प्रारम्भ करते हुए, द्वितीय समुल्लास को आरम्भ करते हुए एक आर्ष वचन को उद्धृत करते हैं- "मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद" अर्थात् माता-पिता व आचार्य को अच्छा शिक्षक होना चाहिए, तभी सन्तान उत्तम होगी। उस समुल्लास के पूर्व प्रथम समुल्लास में सर्वोत्तम ज्ञान परमेश्वर के ज्ञान की विशद चर्चा से करते हैं। एक सौ नामों की व्याख्या से ईश्वर के स्वरूप का वह गागर में सागर भरा है, जो अन्यत्र कहीं भी एक साथ मिलना सम्भव शायद नहीं हो सके। इतने ज्ञानी पुरुष के लिए भी प्रथम विवाह की योग्यता निर्धारित करते हुए चतुर्थ समुल्लास में भगवद् मनु महाराज को उद्धृत किया है।
वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम् ।
अविलुप्त ब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत् ।।
अर्थात् जो पूर्ण अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अर्थात् स्वप्न में भी वीर्य स्खलन न हुआ हो, ऐसी पूर्ण जितेन्द्रियता युक्त पुरुष वा स्त्री ने चारों वेद, तीन, दो वा कम से कम एक वेद का सांगोपांग अध्ययन नहीं किया हो, उसे गृहस्थ बनने का ही अधिकार नहीं। अर्थात् प्रथम तो पूर्ण जितेन्द्रिय व परोपकारी विवाह ही न करें और यदि करें भी, तो उपर्युक्त योग्यता अनिवार्य है। इस प्रकार के माता पिता गर्भाधान से पूर्व, मध्य और पश्चात् शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभ्यता को प्राप्त करें, वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करें, जिससे रजवीर्य भी दोषों से रहित होकर गुणयुक्त हो। इसके पूर्व पठन काल में अष्ट मैथुनों से पूर्ण पृथक् रहें। तदुपरान्त बलादि से युक्त स्त्री पुरुष गर्भाधान विधिपूर्वक करें तथा गर्भ ठहरने से एक वर्ष पर्यन्त परस्पर कभी शारीरिक सम्पर्क नहीं करें। ऋषि का कथन यह है कि मनुष्य पूर्ण ऋतुगामी हो। इस विषय में पशु भी हमारे आदर्श हो सकते हैं, जो बिना ऋतु काल के मादा के पास जाते तक नहीं हैं। ऋषि का मन्तव्य यह है कि सन्तानोत्पादन हेतु ही शारीरिक सम्बन्ध होवे। जब सन्तान की इच्छा नहीं हो, तो कभी शारीरिक सम्बन्ध करे ही नहीं। जिन मनु के इस वाक्य पर लोग उपहास कर सकते हैं कि अधिकतम 10 सन्तान तक उत्पन्न करें, वे यह भूल जाते हैं कि जिन्होंने घृणित सन्तति निरोधकों द्वारा सारे जीवन स्वेच्छाचारिता में सारे रिकार्ड तोड़ रखे हैं और "हम दो हमारे दो” को आदर्श मान दिखावे में संयमी बनते हैं। क्या किसी पशु को ऐसा करते किसी ने देखा है? वे भला उन मनु (जो कहते हैं कि जीवन में अधिकतम 10 बार ही शारीरिक सम्बन्ध रखो।) पर क्या व्यंग्य कर सकते हैं? है कोई मनु विरोधी जो ऐसी अधिकतम व्यवस्था में भी रह सकता है? अर्थात् अपने जीवन काल में मात्र दस बार ही शारीरिक सम्बंध रखने का संयम दिखा सकता है?
अब हम नियोग व्यवस्था पर आते हैं। यहाँ तक लिखने का भाव यह है कि ऋषि का स्तर अत्युच्च कोटि का था। उनके स्तर तक सोचने का मस्तिष्क व चित्त ही आज के श्रेष्ठतम कहाने वाले मनुष्यों में भी नहीं है। जो उद्देश्य विवाहित स्त्री पुरुषों के शारीरिक संयोग का होता है, वही उद्देश्य नियोग का भी होता है। केवल अन्तर यह है कि नियोग अस्थायी व आपात्-काल की व्यवस्था है, जबकि विवाह का उद्देश्य न केवल सन्तानोत्पत्ति है अपितु समाज को एक व्यवस्थित व श्रेष्ठ रूप देना भी है और यह आजीवन स्थायी व्यवस्था है। दोनों ही व्यवस्थाओं पर सामाजिक अनुमति की मुहर लगाना अनिवार्य है। इसके बिना दोनों ही व्यवस्था व्यभिचार की श्रेणी में आ जाती हैं। यहाँ मैं इसकी पुष्टि में वेदादि के प्रमाण नहीं दूंगा क्योंकि अवैदिकों को उससे क्या मिलेगा? और कुछ वैदिक उसके अर्थों को भी बदलने का दुःसाहस कर सकते हैं। मैं यहाँ न कोई ऐतिहासिक प्रमाण ही दूंगा क्योंकि आज पाश्चात्य शिक्षा के दास व्यास, वायुदेव, इन्द्र, धर्मदेव आदि को व्यभिचारी कहने में क्यों संकोच करेंगे? इस कारण मैं केवल साधारण तर्कों का प्रयोग कर रहा हूँ। पुनर्विवाह किसका हो व किसका नहीं, यह विषय भली प्रकार पहले सत्यार्थ प्रकाश में पढ़ लिया जाय। फिर नियोग कब व क्यों किया जाय, उस वैचारिक परिपक्वता व उच्चत्व के स्तर तक पहुंच कर पढ़ा जाय, तब अनेक प्रश्नों का समाधान वहीं हो जायेगा। मैं सत्यार्थ प्रकाश के सभी तर्कों को यहाँ उद्धृत कर पिष्टपेषण करके लेख को व्यर्थ बढ़ाना नहीं चाहता। ऋषि तो व्यभिचार वा कुकर्म रोकने का उपाय लिखते हैं- "इस व्यभिचार और कुकर्म के रोकने का एक यही श्रेष्ट उपाय है कि जो जितेन्द्रिय रह सकें विवाह वा नियोग भी न करें, तो ठीक है परन्तु जो ऐसे नहीं है उनका विवाह और आपत्काल में नियोग अवश्य होना चाहिए। विधवा वा विथुर को उसी आपात् काल में नियोग की प्रेरणा करते हैं, जब उनको सन्तान की इच्छा हो अथवा जिस विधुर वा विधवा से ब्रह्मचारी न रहा जा सके। इससे उनके काम का फल यह होगा कि सन्तान भी प्राप्त हो जायेगी, क्योंकि ऋषि बिना सन्तान की इच्छा के बीज व्यर्थ फेंकना व्यभिचार व पाप मानते हैं। उनका मानना उसी प्रकार यथार्थ है, जिस प्रकार कोई किसान सुन्दर बीज को यूं ही ऊसर में बिखरने को ही किसान का धर्म मान ले और फल एक भी प्राप्त न हो सके और न फल पाने की इच्छा ही करता हो। ऐसे किसान को महामूर्ख ही माना जायेगा। परन्तु जो बीज फेंकने में ही आनन्द मान रहे हों, उनको क्या समझाया जाय? वही दशा उनकी है, जो सम्पूर्ण जीवन भोग तो करना चाहते हैं परन्तु सन्तान होने से ऐसा डरते हैं, जैसे भयंकर नाग को छूने से लोग डरते हैं। वे घोर अप्राकृतिक होते हुए भी सर्वथा प्राकृतिक ईश्वरीय व्यवस्था के पालन को पाप मानते हैं और स्वयं सारे जीवन पति वा पत्नि व्यभिचार में रत हैं, वे स्वयं को संस्कारवान् गृहस्थ मानते हैं और ऋषियों को पापी ठहराते हैं। यदि कोई कहे कि क्या आज कोई ऋषिभक्त कहाने वाला अपनी पत्नि, पुत्री, भगिनी का किसी से आपत्तिकाल में भी नियोग कराना चाहेगा अथवा क्या कोई माई का लाल अपनी बड़ी भाभी वा छोटी भाभी से आपत्तिकाल में नियोग करेगा? यदि ऐसा करेगा तो निश्चित ही महापापी व दुष्ट कहलायेगा और मैं भी इसे स्वीकार करता हूँ कि वर्तमान देश काल परिस्थिति में ऐसा ही कहना उपयुक्त होगा। तब कोई कहेगा कि फिर क्यों मैं ऋषि प्रोक्त वा वेदोक्त नियोग व्यवस्था की वकालत कर रहा हूँ? क्यों नहीं मैं भी कुछ आर्यों की भांति दबी जुबान से इसे सत्यार्थ प्रकाश, वेद वा भारतीय इतिहास का एक कलंक मान लूं। नहीं, मैं ऐसा कदापि नहीं कर सकता परन्तु मैं वर्तमान में इस परम्परा को उचित भी कदापि नहीं मान सकता। हाँ, सिद्धान्ततः नियोग श्रेष्ठ आपद् धर्म है। कोई पूछे कि आज क्यों इस धर्म को अधर्म बताते हुए वर्तमान में ऐसा करने को पाप बतला रहे हैं? इसका कारण में बतलाना चाहूँगा। सर्वप्रथम यह जान लेना चाहिए कि कुछ व्यवस्थाएं देश काल परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित भी हो जाया करती हैं, भले ही वे कितनी भी श्रेष्ठ व हितकारिणी क्यों न हों? जो कार्य हेमन्त ऋतु में करणीय हो सकता है, वही कार्य ग्रीष्म ऋतु में अकरणीय होगा। कोई कार्य ध्रुव प्रदेश में करणीय, वहीं कार्य भूमध्य रेखीय उष्ण प्रदेशों में हानिकर हो सकता है। कोई कार्य बच्चे के लिए करणीय, वही युवकों व वृद्धों के लिए अकरणीय हो सकता है। इसके उदाहरण देना में आवश्यक नहीं मानता क्योंकि यह प्रायः सभी प्रबुद्ध पाठक जान सकते हैं। प्राचीन काल में नदी के तीर पर, वन में, पर्वत पर संध्या करने, वनप्रमण व निवास को वानप्रस्थ व संन्यासी का धर्म बताया है सत्यार्थप्रकाश उभरते प्रश्न गरजते उत्तर | परन्तु आज वन हैं ही नहीं और कहीं हैं तो उन अधिसंख्य वनों में कंटीली झाड़ियां, जलविहीनता वा दूषित जल की ही विद्यमानता, मच्छर आदि का घोर प्रकोप, कन्द मूल फलों का प्रायः अभाव, तो कहीं भाव है तो वन विभाग का पहरा। ऐसे में “गंगातीरे हिमगिरिशिला...." को व्यवहार में लाना कोई सहज कार्य नहीं है और न यह आवश्यक ही है, तब हमें इसके ऐसे विकल्प खोजने पड़ेंगे, जहाँ साधना में विघ्न भी न हो और वन जैसी शान्ति, सरलता, प्राकृतिक जीवन घर वा आश्रमों में ही उपलब्ध हो। जिस काल में यह सब लिखा गया, उस काल में प्राकृतिक वातावरण, सामाजिक व्यवस्था एवं राजधर्म भी तदनुकूल ही था। राम राज्य में मच्छर, सर्प आदि का भी भय नहीं था। तब भले कहीं भी बैठकर निर्विघ्न साधना की जा सकती थी। आज तो बन्द घर में भी बैठकर मच्छरदानी व पंखा चाहिए, तब घोर जंगल में कैसे साधना होगी? इसलिए हमें पुराकाल की कुछ उत्तमोत्तम व्यवस्थाओं को तत्काल में पूर्ण हितकारिणी मानते हुए भी वर्तमान प्रतिकूल काल में उसे उचित नहीं मानना चाहिए। जब भारत में नियोग प्रथा प्रचलित थी, उस समय के लोग उपरिवर्तित संयमित सुव्यवस्थाओं में रहते थे। वे कामशक्ति सम्पन्न होते हुए भी कामुक नहीं होते थे। स्त्री पुरुष परस्पर संयोग मात्र संतानोत्पत्ति के हेतु से ही करते थे। चाहे वह नियोग हो वा विवाह। जब प्रयोजन सिद्ध हो जाता था, तो कोई शारीरिक सम्बन्ध की अभिलाषा भी उनमें नहीं होती थी। तब वे निश्चित ही नियोग करने वा कराने के अधिकारी थे परन्तु आज जब मानव ने कामुकता में संसार के सभी गिरे से गिरे प्राणियों को भी पीछे छोड़ दिया है, जो व्यर्थ वीर्यादि बहाने में ही आनन्द मानते हैं और जिस लिए बीज का प्रयोग होना चाहिए, उससे भय खाते हैं। जहाँ स्वयं माता सर्पिणी बनकर वा भूखी कुतिया बनकर अपने ही भ्रूण को खा जाती है अर्थात् गर्भपात कर पापिनी बन जाती है, तो कोई परिवार नियोजन के नाम पर स्वेच्छाचारी होकर भोग लिप्सा में प्रतिदिन निरत रहते हैं, वे भला नियोग पर अंगुली उठाने के कहाँ अधिकारी रहे और न वे नियोग करने कराने के अधिकारी ही हैं।
आश्चर्य यह है कि जो लोग सत्यार्थ प्रकाश को भूमिका से लेकर तीसरे समुल्लास तथा आधे चौथे समुल्लास की महर्षि की प्रोज्जवल मान्यताओं, जिनको शतांश भी जीवन में उतारने की योग्यता नहीं रखते, वे सीधे नियोग प्रथा को लेकर शोर मचाते हैं। अरे! पहिले यह तो पढ़ लो कि ऋषि जितेन्द्रियता को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं? वे विवाहितों को भी कैसा बनने का परामर्श देते हैं? यदि ऋषि के बातों को मानो, तो गृहस्थ बनना भी असम्भव हो जायेगा, तब नियोग कौन कर वा करवा सकेगा? इस बात को कौन नकार सकता है कि ऋषि के द्वारा अनुमोदित गृहस्थ के लिए विरला ही खरा उतर सकता है। नियोग की योग्यता तो इससे भी बढ़कर है। तब कहाँ नियोग पर चर्चा करने चले हो। अच्छा तो यही है कि अपने अन्दर झांक कर देखें, फिर कीचड़ उछालें। भला जो व्यक्ति शरीर शास्त्र का क, ख, ग भी नहीं जानता, उसे एक योग्य सर्जन द्वारा की जाने वाली चीर-फाड़ पर शोर मचाने का क्या अधिकार है? अरे! पहले सर्जरी का प्रारम्भिक ज्ञान तो कर लो, उसके बाद सोचना कि सर्जन द्वारा की जाने वाली चीर-फाड़ हिंसा नहीं बल्कि सच्ची अहिंसा है। इसी प्रकार जो अति जितेन्द्रिय योगी पुरुष वा स्त्री हैं, वे ही नियोग करने कराने की योग्यता रखते हैं और वे ही इस विषय पर विशेष चिन्तन कर सकते हैं। सिद्धान्ततः विचार हर प्रबुद्ध निष्पक्ष व्यक्ति कर सकता है, जो भले ही पूर्ण जितेन्द्रिय न हो परन्तु इन्द्रियासक्ति को पाप तो मानता हो। इन्द्रियासक्ति को स्वाभाविक मानने वाले के मस्तिष्क में यह बात सात जन्म तक भी नहीं समा सकती कि नियोग अच्छा है, और बुरा तो उसे इस कारण कह रहा है क्योंकि समाज आज बुरा कहता है। इस समाज में क्या-२ पाप खुले वा छुपे हो रहे हैं, उधर ध्यान न समाज देता है और न आरोप लगाने वाले आज नियोग ही नहीं अपितु कई ऐसी वैदिक व्यवस्थाएं हैं, जो किसी भी निष्पक्ष सत्यमार्गी व्यक्ति को उचित प्रतीत होंगी परन्तु करना सम्भव नहीं है। जैसे वेद ने कहा कि यदि कोई हमारी गाय, घोड़ा वा मनुष्य को मारेगा, तो उसे गोली से मार देना चाहिए। यद्यपि यह आदेश पूर्णतः उचित व हितकारी है परन्तु आज की सामाजिक व राजव्यवस्था इसे करने नहीं देगी। हजारों निर्दोष प्राणियों के हत्यारे को मारने वालों को दण्ड देने वाला वीर पुरुष भी उसी प्रकार जेल में बन्द कर दिया जायेगा, जिस प्रकार कोई अन्य हत्यारा बन्द किया जा सकता है। तब यह कैसा अन्धा कानून है? इस अन्ये कानून के रहते आज वेद का उचित व उत्तम आदेश कैसा व्यर्थ हो गया है? तब क्या दोष वेदादेश को दिया जाये? उस उत्तम व्यवस्था को दिया जाये वा आज के पापपूर्ण तथाकथित समानता के व्यवहार का दम्भ करने वाली कानून व्यवस्था को दिया जाये, यह पाठक स्वयं सोचें। यदि यह व्यवस्था लागू करने भी दी जाये, तो परस्पर खून ही बहने लगेंगे। जिसमें ताकत होगी, वह कमजोर को अवसर पाकर मारता ही रहेगा। आज पापी को गोली मारने का स्तर रखने वाले भी तो विरले ही हैं। वैदिक आर्ष व्यवस्था वह भी है कि जो धनी दान नहीं करता और जो गरीब तप नहीं करता, उन दोनों को मार डालना चाहिए। (देखें विदुर नीति) आज यह व्यवस्था लागू हो, तो भी भयंकर रक्तपात हो जाये, क्योंकि आज तो दान मांगने वाले अर्थचोरों का भी एक जाल बिछा हुआ है, जो बलपूर्वक दान मांगेगा और न देने पर विदुर जी का प्रमाण देकर अदाता को मार डालेगा। उसी प्रकार भूखे नंगे शोषितों को रक्तशोषक थनी तप करने का उपदेश करेगा अन्यथा मार डालने को तत्पर रहेगा। इस कारण यह व्यवस्था भी वर्तमान में उचित नहीं, क्योंकि न तो आज तपस्वी भिक्षार्थी रहे और न परोपकारी धनी व्यक्ति रहे। इसलिए आज वैदिककालीन उत्तमोत्तम परन्तु इस प्रकार की तीक्ष्ण वा आपधर्म की व्यवस्थाओं को सहसा अपनाने की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण वातावरण को ही वेदानुकूल बनाने की आवश्यकता है। उसके पश्चात् ही उन "व्यवस्थाओं को लागू किया जा सकता है, अन्यथा योग्य व्यक्ति को भी नियोग का अधिकार नहीं होना चाहिए क्योंकि यद्यपि वह उचित कर रहा है, पुनरपि अनधिकारी लोग उसके स्तर को न जानकर स्वयं सन्तान हेतु नहीं बल्कि व्यभिचार में प्रवृत्त हो सकते हैं जिससे सामाजिक ढांचा चरमरा सकता है। हाँ, यदि कभी वैदिक साम्राज्य वा समाज स्थापित हो जाये, तो पुनः वे सारे नियम सहज लागू हो सकते हैं। परन्तु इतना भी स्मरण रहे कि तब भी नियोग सामान्य धर्म न होकर आपधर्म ही रहेगा, जबकि विवाह सामान्य धर्म ही रहेगा।
सत्यार्थप्रकाश उभरते प्रश्न गरजते उत्तर
आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

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