सत्यार्थप्रकाश मीमांसा - ধর্ম্মতত্ত্ব

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20 May, 2022

सत्यार्थप्रकाश मीमांसा

सत्यार्थप्रकाश मीमांसा

সত্যার্থপ্রকাশ আদি গ্রন্থে পাওয়া অত্যধিক অশুদ্ধি কেবল লিপিকর-শোধকের অযোগ্যতা এবং প্রস্তাবের কারণেই নয় বরং ইচ্ছাকৃত বিশ্বাসঘাতকতা, ফাঁকিবাজি এবং মক্কারী, কামচোরীর কারণে হয়েছে। লিপিকার-শোধক কেবল ভাষাগত ত্রুটি করেননি অপিতু ঋষির অভিপ্রায়ের বিরুদ্ধেও লেখা প্রক্ষিত করেছেন। [বেদ ও আর্যসমাজ, স্বামী শ্রদ্ধানন্দ জি]। মুদ্রক মুন্সী সমর্থদান এই কথায় স্বীকার করেছেন: যদি কোনও ভুল থাকে তবে পাঠকদের তা সংশোধন করা উচিত। (দ্বিতীয় সংস্করণ ১৮৮৪, 'নিবেদন' পৃ. ১. শোধ নং ৫)

जब सत्यार्थप्रकाश के बारे में मुझे सत्य का ज्ञान हुआ 

अमान्य' सत्यार्थप्रकाश' का आज तक का सबसे शुद्ध, परिश्रमयुक्त, शोधपूर्ण और वास्तव में मानक संस्करण ' पाठकों को सौंपते हुए मुझे प्रसरता एवं संतुष्टि की अनुभूति हो रही है। सत्यार्थप्रकाश के इतिहास में ऐसा परिश्रमसाध्य तार्किक कार्य आज तक नहीं हुआ, जिसमें २५ संस्करणों का तुलनात्मक अध्ययन करके समीक्षापूर्वक शुद्ध पाठ प्रस्तुत करने का प्रयास किया हो। यह समझिए कि यह एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक कार्य है और अनेक कारणों से एक क्रान्तिकारी संस्करण है। इस कार्य को सम्पन्न किये जाते समय ही कुछ अदूरदर्शी और ईर्ष्या द्वेषी लोगों ने इसमें बाधा डालने के अनेक प्रयास एवं षड्यन्त्र किये किन्तु परमात्मा की कृपा से यह पूर्ण हुआ और आज आपके हाथों में है।


इस अपूर्व परिश्रमसाध्य कार्य को कराने के पीछे एक विशेष घटना की विशेष प्रेरणा रही है। परोपकारिणी सभा, अजमेर ने जब मूलप्रति पर आधारित सत्यार्थप्रकाश का प्रकाशन ३७वें संस्करण के रूप में किया तो कुछ लोगों ने एक बार सारे आर्यजगत् में उसको लेकर हलचल सी उत्पन्न कर दी। कई ओर से उसकी आलोचना में आवाज उठी। सुनी सुनाई बातों के कारण विरोध की आवाज को हवा देने वालों में में भी शामिल था। इस बीच मुझे जानकारी मिली कि १ मार्च, २००५ को नवलखा महल, उदयपुर में सत्यार्थप्रकाश की स्थिति और भावी प्रकाशन योजना पर विचार करने के लिए आर्थविद्वानों की एक बैठक बुलाई गई है जिसमें आर्यजगत् के अधिकाधिक विद्वान् सम्मिलित होंगे। मैं भी मन में जिज्ञासा लिए वहां पहुंचा। बैठक में वरिष्ठ-कनिष्ठ लगभग पच्चीस-तीस विद्वान् उपस्थित थे।


स्वामी जगदीश्वरानन्द जी के संरक्षकत्व, आचार्य पं० विशुद्धानन्द जी मिश्र की अध्यक्षता और डॉ० भवानीलाल जी भारतीय एवं पं० राजवीर जी शास्त्री आदि वरिष्ठ विद्वानों की उपस्थिति में बैठक आरम्भ हुई। परोपकारिणी सभा के प्रतिनिधि के रूप में डॉ० सुरेन्द्रकुमार जी आये हुए थे। बैठक आरम्भ होते ही स्पष्ट हो गया कि यह बैठक केवल परोपकारिणी सभा के संस्करण का विरोध करने के ही लक्ष्य से बुलाई गई थी। उसमें पूर्व विद्वानों स्वामो वेदानन्द जी, पं० भगवदत्त जी, पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक तथा अन्य प्रकाशकों द्वारा सत्यार्थप्रकाश में किये गये हजारों परिवर्तनों संशोधनों पर कोई चर्चा नहीं हुई। हाँ, स्वामी जगदीश्वरानन्द जी द्वारा किये गये मनमाने परिवर्तनों पर कुछ चर्चा अवश्य हुई घुमा-फिराकर फिर परोपकारिणी सभा के संस्करण पर उस चर्चा को केन्द्रित कर दिया। मैंने देखा कि सुनियोजित रूप से सारे विद्वान् एक पक्ष में थे और डॉ० सुरेन्द्रकुमार अकेले एक पक्ष में थे। एक के बाद एक विद्वान उन पर प्रश्नों की वर्षा करने लगा। वे सहजभाव से, धैर्यपूर्वक सबके प्रश्नों आरोपों का उत्तर देने लगे और पूरे दिन उत्तर दिये। उनका पक्ष था कि परोपकारिणी का संस्करण सभी संस्करणों का मूल आधार संस्करण है, जिससे सभी संस्करणों ने सहायता ली है। वह ऋषि के मुख से प्रकट हुई उनको दुर्लभ वाणी है। सौभाग्य से अब वह प्रकाशित हो गया है। उसका विरोध न करके उससे लाभ उठाना चाहिये और सबको मिलकर एकरूप शुद्धतम संस्करण के प्रकाशन के लिए प्रयास करना चाहिये। सबके संस्करण पृथक् पृथक् हैं, सत्यार्थप्रकाश के लिए यह दुर्भाग्य तथा अहित की बात है। मैंने भी अनुभव किया कि डॉ० सुरेन्द्र जी अपने कथन को युक्ति प्रमाण के साथ सिद्ध कर रहे थे जबकि दूसरे विद्वान् खींचतान और अपनी स्वतन्त्र कल्पना करके अपने कथन को सिद्ध करने में लगे थे। बैठक के अन्त में, स्वामी जगदीश्वरानन्द जो और पं० विशुद्धानन्द जी ने डॉ० सुरेन्द्रकुमार जी के सभी पक्षों से सहमत न होते हुए भी उनकी तर्कशैली, योग्यता और प्रस्तुति की प्रशंसा की। फिर कुछ लोगों ने मिलकर सत्यार्थप्रकाश का एकमात्र संस्करण प्रकाशित करने के लिए एक


समिति का गठन किया पाठक याद रखें कि यह सारा कार्यक्रम रिकार्ड (आडियो) किया गया था। उदयपुर की दो दिन की बैठक एक ही दिन में सम्पन्न हो गई और सब लौटकर अपने अपने कार्यों में व्यस्त हो गये, किन्तु मेरे मन में तो उसी दिन से एक लगन पैदा हो गई, जिसने मुझे शान्ति से बैठने नहीं दिया। उदयपुर की बैठक में मुझे नयी जानकारियां मिली जिनसे सत्यार्थप्रकाश के विषय में मेरी पहली धारणा ही बदल गई थी। उस दिन उदयपुर से में चार विचार और संकल्प मन में लेकर लौटा, वे हैं---

१. अभी तक, गम्भीर अध्ययन न होने के कारण मेरी यह धारणा थी कि सत्यार्थप्रकाश में जो कुछ शुद्ध-अशुद्ध लिखा मिलता है वह ऋषि दयानन्द- कृत है और उसका एक अक्षर भी नहीं बदला जाना चाहिये तथ्यों की जानकारी मिलने पर अब मेरी वह धारणा बदल गई है। महर्षि की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए तथा सत्यार्थप्रकाश के हित के लिए उनके लिपिकरों और संशोधकों द्वारा की गई त्रुटियों को अवश्य दूर किया जाना चाहिये।


२. मैंने देखा है, और मुझे प्रामाणिक जानकारी भी प्राप्त हो गई है कि कोई सम्पादक प्रकाशक ऐसा नहीं है जिसने अपने संस्करण में द्वितीय संस्करण (सन् १८८४) की दृष्टि से कई कई हजार संशोधन न किये हों, और अभी भी उनमें सैकड़ों संशोधनों की जरूरत है। इस तरह सबके संस्करण अलग-अलग हो गये हैं। इससे भी ज्यादा कष्टदायक बात यह है कि एक प्रकाशक के संस्करण भी आपस में मेल नहीं खाते। हजारों परिवर्तन संशोधन स्वयं करके भी फिर वही लोग शोर मचाते हैं कि संशोधन नहीं करना चाहिए। मुझे उनका आचरण 'हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और जैसा पाखण्डपूर्ण लगा। जब सच्चाई सामने है तो वे उसको क्यों नहीं स्वीकार करते और संशोधन का उपाय क्यों नहीं करते? ऐसे लोगों ने ही प्रथम और द्वितीय संस्करण का झूठा झगड़ा खड़ा किया हुआ है।


३. यह सच्चाई सवा सौ वर्षों में सभी विद्वान् सम्पादकों द्वारा अपने-अपने संस्करण में संशोधन करने के बाद सामने आ चुकी है कि सत्यार्थप्रकाश का शुद्धतम संस्करण बनाने के लिए ऋषि के लेखकों-सम्पादकों द्वारा लापरवाही से छोड़ी गई त्रुटियों को ठीक करना ही पड़ेगा, तो उनको जल्दी से जल्दी कर लेना चाहिए। न करने में ऋषि की और उनके ग्रन्थ की हानि है; और जो अपने पूज्य ऋषि की हानि करता है वह ऋषिभक्त नहीं है। मैंने संकल्प लिया कि यदि कोई विद्वान् शुद्धतम संस्करण का कार्य करेगा, और यदि उसको कोई नहीं प्रकाशित करायेगा, तो मैं अवश्य कराऊंगा।


४. मैंने बैठक के बाद यह भी अनुभव किया कि इस कार्य को सुचारू रूप से सम्पन्न करने के लिए वर्तमान में कोई सर्वाधिक उपयुक्त और योग्य विद्वान् है तो वे डॉ० सुरेन्द्रकुमार जी है। मनुस्मृति पर किया गया उनका प्रक्षेपानुसन्धान और भाष्य का कार्य इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। उनको किसी प्रकार इस कार्य के लिए मैं तैयार करूंगा। साधनों के अभाव में कुछ समय तक इन विचारों को मन में लिए बैठा रहा। एक दिन मैंने निश्चय किया कि मैं अपनी भावना और संकल्प डॉ० साहब के सामने रखूंगा। जब मैंने यह विचार रखा तो उन्होंने मेरी बातों को टाल दिया। अवसर पाकर दूसरी बार फिर मैंने उनसे सत्यार्थप्रकाश के शोधपूर्ण सम्पादन के लिए निवेदन किया। फिर उन्होंने इस विवादभरे कार्य में न पड़ने की सलाह दी। डॉ० साहब शोधकार्य की आवश्यकता के पक्षधर होते हुए भी स्वयं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे, किन्तु मेरे मन में तो एक धुन सवार हो चुकी थी। मैं इस निर्णय पर पहुंच चुका था कि इस शोधकार्य के होने से ही सत्यार्थप्रकाश का, महर्षि का और आर्यसमाज का हित है। बार-बार अनुरोध करके अन्ततः डॉ० साहब को इस शोधकार्य के लिए तैयार करने में मैं सफल हो ही गया। जैसे-तैसे शोधकार्य आरम्भ हो गया। मामला अनुमान से बाहर का निकला। 

ज्यों-ज्यों चिन्तन होने लगा जटिलता पर जटिलता और समस्या पर समस्या सामने उभरती गई। उनके निवारण में सात वर्ष लग गये। अब वह कार्य आपके हाथ में है। इस शोधपूर्ण, शुद्धतम ऐतिहासिक संस्करण की अनेक विशेषताएं हैं


१. यह शोधकार्य मुख्यतः ऋषिप्रोक्त मूलहस्तलेख, मुद्रणप्रति और द्वितीय संस्करण (सन् १८८४) पर आधारित है, किन्तु अन्य २५ से अधिक प्रमुख संस्करणों से मिलान करके निश्चित मानदण्डों के आधार पर पाठों का निर्धारण किया गया है। लिपिकरों तथा आदि सम्पादकों से जाने अनजाने छूटी व्याकरण और वर्तनी आदि सम्बन्धी सभी प्रकार की 

२. त्रुटियों को इसमें यथामति दूर किया गया है, जो इस ग्रन्थ पर आरोप का आधार बनती थीं।


३. ४. ऋषि के समर्थन में अनेक टिप्पणियां देकर उनके मन्तव्यों की सप्रमाण पुष्टि भी की है। पौराणिक लिपिकरों द्वारा इस ग्रन्थ के साथ की गई प्रमादपूर्ण लीला का भी अनेक टिप्पणियों में तथ्यपूर्वक प्रदर्शन है। ऐसा कार्य सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशन के आरम्भिक समय में ही हो जाना चाहिए था। बाद में टुकड़ों टुकड़ों में कुछ कार्य हुआ जिसका दुष्परिणाम यह निकला कि सत्यार्थप्रकाश का प्रत्येक संस्करण एक दूसरे से भाषा की दृष्टि से भिन्न होता गया। किसी धर्मग्रन्थ के लिए यह प्रामाणिकता नाशक स्थिति है। डॉ० साहब ने इस संस्करण में यह प्रयास किया है कि इसका ऐसा परिष्कृत रूप बने जिस पर भविष्य में उंगली न उठे। ऋषिहितैषी, दूरदर्शी बुद्धिमान् जन तो इस बम के महत्त्व को समझेंगे, किन्तु पक्षपाती, सीमित बुद्धि और अदूरदर्शी


जन इसकी गम्भीरता को न समझ आरोप प्रत्यारोप में भी उलझ सकते हैं। मेरा ऐसे लोगों से निवेदन है कि उन्हें डॉ० साहब द्वारा लिखित मीमांसा पहले अवश्य पढ़कर यथार्थ स्थिति को समझना चाहिए, और यह भी समझना कि महर्षि और सत्यार्थप्रकाश का हित लिपिकरों तथा आदि सम्पादकों द्वारा छोड़ी गई त्रुटियों को सतत बनाये रखने में नहीं है, अपितु उनको शीघ्रातिशीघ्र ठीक करने में है; अतः त्रुटियां अवश्य दूर करनी चाहियें।


महर्षि दयानन्द कृत 'सत्यार्थप्रकाश' विश्वसाहित्य की एक अनमोल कृति है। ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्त


जो आर्ष ग्रन्थों की परम्परा रही है, यह उसी रत्नमाला का एक रत्न है। आर्यसमाज का तो यह एक धर्मशास्त्र है जिसमें उसके कर्तव्यों का वर्णन, सिद्धान्तों का निर्धारण और परम्परागत आप शास्त्रों का निष्कर्ष है। महर्षि ने इसकी रचना मानव समाज के कल्याण के लिए की है। यह सत्यासत्य का निर्णायक और प्रेरक आस ग्रन्थ है। महर्षि का जीवन भी सत्य पर आधारित था, इसलिए वे देवपुरुष थे, ऋषि थे, योगी थे और विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे, उन्होंने सम्पूर्ण भारतीय साहित्य का सत्यासत्य की दृष्टि से अध्ययन किया और भारतीय संस्कृति, सभ्यता और साहित्य के सम्पूर्ण सत्य के यथार्थ को सत्यार्थप्रकाश के द्वारा प्रस्तुत किया। इसलिए इसका नाम 'सत्यार्थप्रकाश' रखा।


ऐसे दिव्य ग्रन्थ का अधिक से अधिक लोगों में प्रचार होना चाहिये, इसी भावना से सत्यधर्म-प्रकाशन' की ओर से यह शोधपूर्ण शुद्धतम संस्करण प्रकाशित कर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकाशन के पीछे यह भावन रही है कि यह संस्करण बढ़िया से बढ़िया साजसज्जा के साथ आकर्षक रूप में निकाला जाये। इस अतीव महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को सुन्दर रूप में प्रस्तुत करके 'सत्यधर्म-प्रकाशन' अपना सौभाग्य समझता है। सभी मत-मतान्तरों के अनुयायी अपने धर्मग्रन्थों को पूरी श्रद्धा के साथ सुन्दरतम रूप से प्रकाशित करते हैं। हमारा भी यह कर्त्तव्य है कि हम सत्यार्थप्रकाश को प्रत्येक दृष्टि से ऐसा गौरवमय रूप दें कि उससे हमारी श्रद्धा भावना झलके।


वैदिक धर्म और ऋषि दयानन्द की विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने के लिए मैंने अपने जीवन में साहित्य प्रचार की साधना को लक्ष्य बनाया। जब मैंने प्रकाशन का निश्चय किया तो मेरे पास कुछ सौ रुपये की जमा पूंजी थी; किन्तु संकल्प के बल पर इस कार्य को 'सत्यधर्म प्रकाशन' के नाम से आरम्भ कर दिया। आज परमात्मा की कृपा से दो सौ पुस्तकें इसके अन्तर्गत प्रकाशित हो चुकी है। अच्छे कागज पर, उत्तम साज-सज्जा के साथ वैदिक साहित्य का प्रकाशन प्रचार करना, मेरा निश्चय रहा है। इस शोधपूर्ण सत्यार्थप्रकाश को दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। इस पर लाखों रुपये व्यय आये हैं। यदि आर्य जनता का आर्थिक सहयोग इस कार्य में मिले तो प्रकाशन का कार्य और बड़े स्तर पर किया जा सकता है। साहित्य प्रकाशन प्रचार का सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है। आशा है आप भी 'सत्यधर्म प्रकाशन' को सहयोग देकर ऋषि के कार्य को आगे बढ़ाने में योगदान करेंगे और ऋषि ऋण को कॉ० साहब का इस कार्य के लिए मैं शतशः धन्यवाद करता हूँ। श्री महेन्द्र सिंह आर्य (करनाल) का में इस कार्य को सुन्दर ढंग से सम्पन्न करने के लिए भी धन्यवाद करता हूँ।


उन्होंने बहुत सुन्दर कम्पोजिंग पूरी श्रद्धा के साथ की है, अपितु इसमें अतिरिका श्रम भी सेवाभाव से किया है। श्री रमेश आर्य, 'आर्य पुस्तक बन्धनालय, दिल्ली के प्रति भी मैं आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने इसको सुन्दर साज-सजा देकर, सुद- आकर्षक जिल्द बनाई है। उनका मार्गदर्शन मुझे सदा मिलता रहा है। उक्त दोनों सहयोगियों का सहयोग यदि मुझे प्राप्त नहीं होता तो इस ग्रन्थ का प्रकाशन सम्भव नहीं होता। अब पाठकों का सहयोग मुझे इस रूप में चाहिए कि वे इस परिश्रम और शोधपूर्वक तैयार किये गये धर्मग्रन्थ को श्रद्धापूर्वक पढ़े और लाभ उठायें, तभी शोधकर्ता सम्पादक का और मेरा परिश्रम सफल होगा।


आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक

प्रकाशक

सत्यार्थप्रकाश-मीमांसा

प्रथम अध्याय

लिपिकरों-शोधकों द्वारा की गई त्रुटियों को महर्षि के नाम पर

कब तक झेलते रहेंगे ?


दूसरी बार संशोधित सत्यार्थप्रकाश की मूलप्रति, मुद्रणप्रति और द्वितीय संस्करण (प्रथमावृत्ति, सन् १८८४) पर जब हम दृष्टिपात करते हैं, तो हम देखते हैं कि उनमें लिपिकरों आदिशोधकों के प्रमाद, अयोग्यता और कामचोरी के कारण अप्रत्याशित अशुद्धियाँ विद्यमान हैं, और उत्तरोत्तर इनमें वे अधिकाधिक होती गई हैं। १२८ वर्षों से छपते आ रहे सत्यार्थप्रकाश के संस्करणों के इतिहास से यह भी जानकारी मिलती है कि प्राय: प्रत्येक संस्करण में यथेष्ट सैकड़ों संशोधन सम्पादकों ने किये हैं और यह क्रम आज भी जारी है। संशोधनों ने सत्यार्थप्रकाश की यह दुःस्थिति निर्मित कर दी है कि किसी के भी संस्करण के सभी पाठ एक-दूसरे से नहीं मिलते इससे भी अधिक विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि एक प्रकाशक के सब संस्करण भी आपस में नहीं मिलते। सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण को प्रकाशित होते सवा सौ से अधिक वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और इसके सैकड़ों संशोधित संस्करण छप चुके हैं, उसके बाद भी आर्यविद्वान् इसका पाठान्तर रहित शुद्धतम एकरूप संस्करण उपलब्ध नहीं करा सके हैं। अशुद्धियों का ऐसा क्या जटिल स्वरूप है और इतनी संख्या कैसे हैं कि वे आज तक आर्यविद्वानों के वश में नहीं आ रहीं और न उनको एकमत कर पा रही हैं ? प्रश्न उठता है कि आखिर उनका उत्तरदायी कौन है? और क्या ऋषि दयानन्द को उन त्रुटियों का ज्ञान था ? और यदि ज्ञान था तो उनके विषय में उनका क्या मानना था ? आइये, सर्वप्रथम इन बिन्दुओं पर सप्रमाण विचार करते हैं। १. सत्यार्थप्रकाश में विद्यमान त्रुटियों का उत्तरदायी कौन ?


यह निर्विवाद सत्य है कि महर्षि दयानन्द वेदों तथा वैदिक शास्त्रों के मर्मज्ञ थे तथा वैदिक एवं लौकिक संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पंडित थे। वे संस्कृत भाषा, शास्त्र तथा सिद्धान्त-विषयक और स्व-अभिप्राय विरुद्ध त्रुटियाँ कदापि नहीं कर सकते थे पुनरपि सत्यार्थप्रकाश की दोनों पांडुलिपियों और द्वितीय संस्करण (१८८४) में बहुत सारी त्रुटियां मिलती हैं। वस्तुत: उनके जिम्मेदार उनके वेतनभोगी नौकर अर्थात् लिपिकर और आदि-शोधक रहे यह जानकारी हमें सत्यार्थप्रकाश की लेखन प्रक्रिया से मिलती है। लेखन सौकर्य के लिए और कार्याधिक्य होने के हैं, कारण महर्षि विभिन्न भाषाओं, जैसे- संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू के वेतनभोगी लेखक रखते थे, जो महर्षि के बोले हुए लेखों और पत्रव्यवहार आदि को लिखा करते थे। सत्यार्थप्रकाश को लिखाते समय भी महर्षि उसको बोलते जाते थे और तत्कालीन नियुक्त लिपिकर उसको लिखता जाता था। ग्रन्थ के पूर्ण होने पर उसकी प्रेसप्रति भी लिपिकरों ने ही तैयार की है। बोले हुए को लिखते समय लिपिकर से अक्षर, शब्द, वाक्य आदि त्रुटित रह जाते हैं, अथवा आगे पीछे भी लिखे जाते हैं, यह सहज बात है। सत्यार्थप्रकाश में भी लिपिकरों से इस प्रकार को त्रुटियाँ हुई है। बर्तनी और वाक्यरचना सम्बन्धी त्रुटियां लिपिकरों को अयोग्यता और प्रमाद से हुई हैं। क्योंकि लिपि लिखने वाले लिपिकर थे अतः लिपि-सम्बन्धी त्रुटियां भी उन्हीं की है। महर्षि किसी भी शब्द को एक ही प्रकार से बोलते थे किन्तु लिपिकर अपनी योग्यता-अयोग्यता के अनुसार उसको शुद्ध या अशुद्ध लिखते थे। एक लिपिकर अपनी भाषात्मक योग्यता-अयोग्यता के अनुसार किसी शब्द को एक प्रकार से लिखता था तो दूसरा उसको दूसरे प्रकार से लिखता था। लिपिकरों की अनेकता से ही एक ही लेखक के एक ही ग्रन्थ में वर्तनियों की अनेकता पाई जाती है। इतना ही नहीं अशुद्धियों में भी धीर अव्यवस्था पाई जाती है। अयोग्य लिपिकरों ने एक ही वास्य में, एक ही अनुच्छेद में और एक ही पृष्ठ पर आये एक शब्द को एक बार शुद्ध लिखा है तो दूसरी बार अशुद्ध लिखा है।

लिखाने के बाद उसको शुद्ध करने का दायित्व वेतनभोगी आदि-शोधकों का था सत्यार्थप्रकाश के शोधन का दायित्व पं० ज्वालादत्त शर्मा और पं० भीमसेन शर्मा का था, किन्तु उन्होंने भी अपने दायित्व का निर्वाह निष्ठापूर्वक नहीं किया। यद्यपि लिखे हुए का निरीक्षण संशोधन महर्षि स्वयं भी करते थे, किन्तु वे मुख्यतः सिद्धान्त और अभिप्राय पर ध्यान देते थे, भाषात्मक संशोधन के लिए वेतनभोगी लिपिकरों शोधकों पर ही निर्भर रहते थे। आगे उद्घृत महर्षि के पत्र व्यवहार से ज्ञात होता है कि महर्षि के लिपिकर और शोधक अयोग्य, प्रमादी, निष्ठाहीन, कामचोर, कुटिल और मक्कार थे। पौराणिक विचारधारा से प्रभावित होने के कारण वे महर्षि के समाजसुधारक क्रान्तिकारी विचारों के विरोधी थे, अतः मन-ही-मन महर्षि से विद्वेष रखते थे। यद्यपि महर्षि उनको उस समय के अनुसार अच्छा वेतन देते थे, फिर भी वे न तो ईमानदारी से काम करते थे और न महर्षि के प्रति हार्दिक सद्भाव रखते थे, और मौका लगते ही महर्षि के ग्रन्थों में उनके अभिप्राय विरुद्ध प्रक्षेप भी कर देते थे। पाठक याद करें, महर्षि को धोखा देने और विष देने वाले भी तो उनके वेतनभोगी नौकर ही थे। उन लोगों से काम लेना उस समय महर्षि की विवशता थी क्योंकि उस समय थे ही सब पौराणिक संस्कारी लोग। महर्षि द्वारा स्थापित पाठशाला में पढ़ने और वर्षों साथ रहने के बाद भी पं० भीमसेन महर्षि के देहान्त के कुछ वर्षों बाद कट्टर पौराणिक बन गया था। स्पष्ट है कि उसके पौराणिक संस्कार पहले से ही थे।


महर्षि को उक्त सब बातों का भलीभांति ज्ञान था और उन लोगों से संभावित अनिष्ट की आशंका का भी आभास था, अग्रिम प्रमाणों से यह सब स्पष्ट और प्रमाणित हो जायेगा। समयाभाव, कार्याधिक्य और उपयुक्त योग्य व्यक्तियों के अभाव में महर्षि के साहित्य का लेखन मुद्रण-संशोधन आशानुरूप सही नहीं बन सका। हाँ, मुंशी समर्थदान जी, महर्षि को निष्ठावान् और तुलनात्मक रूप से योग्य व्यक्ति मिले थे। जो कुछ और जितना सही हो पाया, वह उनके प्रयत्नों और सतर्कता का फल था। महर्षि और मुंशी जी का पत्र व्यवहार उक्त सभी बातों पर बहुत स्पष्ट और प्रामाणिक प्रकाश डाल देता है। महर्षि ने अपनी पीड़ा खुलकर अपने पत्रों में व्यक्त की है। सत्यार्थप्रकाश की मुद्रणप्रति में विद्यमान अशुद्धियों और उनकी बहुलता का भान महर्षि को था। तब महर्षि को लगा था कि मुंशी समर्थदान इस विकृति को ठीक कर सकते हैं, अत: उन्होंने मुंशी जी को यह पत्र लिखा था


(अ) "सत्यार्थप्रकाश में जो कोई ऐसा अनुचित शब्द हो, निकालकर, जो हमारे आशय के विरुद्ध न हो, वह शब्द उसके स्थान धरना और हमको लिखके सूचित करना कि यह शब्द धरे हैं। " (१९ अगस्त १८८३ को मुंशी जी के नाम लिखा ऋषि का पत्र, ' पत्र और पत्र-व्यवहार', भाग दो, पृ० ७६४) 

(आ) उत्तर में मुंशी समर्थदान ने सत्यार्थप्रकाश की मुद्रणप्रति (प्रेसप्रति) की विकृत स्थिति के विषय में महर्षि को यह लिखा था कि मुद्रण- हस्तलेख में बड़ी गड़बड़ी है। देखिए पत्रांश........आपने भाषा बदलने की आज्ञा दी, सो मालूम हुआ..कापी में बड़ी गड़बड़ी आती है, यह ध्यान रखके दोष निकालना चाहिये। हम यहाँ बनाते हैं तो बड़ी शंका रहती है।" (२८ अगस्त १८८३ को महर्षि के नाम लिखा मुंशी जी का पत्र )


(इ) इसी बीच वेदभाष्य के सम्बन्ध में भी महर्षि ने मुंशी जी को पत्र लिखा था, जो अन्य ग्रन्थों पर भी चरितार्थ होता है, क्योंकि लेखक शोधक वही व्यक्ति थे "जो कहीं पद छूटता है, यह भाषा बनाने वाले और शुद्ध लिखने वाले की भूल है। हम प्रायः इस बात में ध्यान नहीं देते, क्योंकि यह सहज बात है। अच्छा, जहां कहीं रह जाया करे तुम देख लिया करो..... और यहां लिखके भेज दिया करो।" (९ सितम्बर १८८२ का पत्र, भाग दो, पृष्ठ ६१२)


(ई) सत्यार्थप्रकाश के सन्दर्भ में लिखे एक अन्य पत्र में महर्षि ने मुंशी जी को लिखा था "जो कहीं भाषा असम्बद्ध हो, और अभिप्राय वा अक्षर मात्रा आदि से अशुद्ध हो, उसको तुम ही शोध लिया करो।" (१५ अक्तूबर १८८३ का पत्र, भाग दो, पृ० ६२० ) ( 3 ) सत्यार्थप्रकाश की 'मुद्रणप्रति' में रह गई भूलों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए मुंशी जी ने उनको शुद्ध करने की जिम्मेदारी पं० ज्वालादत्त की बताई, जिसको वह ईमानदारी से पूरी नहीं कर रहा था.


"शोधने में मेरी दृष्टि भी तो कच्ची है. यह काम ज्वालादत ही का है। उन्हीं को सावधानी से देखना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश का फारम अन्त में मैं एक बार देखता है, सो भी कोमा आदि चिह्नों के लिए देखता हूं। इसमें कोई भूल और भी दीख पड़ती है तो निकाल देता है, परन्तु प्रफ शोधना काम ज्वालादन ही का है।" (२७ अगस्त १८८३ का पत्र ) स्पष्ट है कि लिपिकरों और पं० ज्वालादत्त, पं० भीमसेन आदि शोधकों ने अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से नहीं किया, अपितु दुर्भावना और कामचोरी की प्रवृत्ति के कारण उलटी हानि भी की है। उनकी करतूतों को उजागर करते हुए उनके किये कार्य के प्रति महर्षि ने अपनी पीड़ा को अनेक पत्रों के माध्यम से समय समय पर प्रकट किया था। उनके विषय में महर्षि का अनुभूत और लिखित मन्तव्य कैसा था, पाठक ध्यान से पढ़


(ऊ) पं० भीमसेन शर्मा-" व्याकरण आदि शास्त्रों को पढ़ा है उतना ही पाण्डित्य है, अन्यत्र बालक है" (पत्र व्यवहार, पृ० ५१७) "भाषा बहुत ढीली बनाता है" (पृ० ५८६) "शोधे गये पुस्तकों में भूल बहुत निकलती है" (५० ५७२)। " भीमसेन को अत्यन्त अयोग्यता के कारण सब दिन के लिए निकाल दिया" (५० ५६२) । "भीमसेन बकवृत्ति और माजॉरलिंगी है" (५० ६६९)। भीमसेन को न हम अपने पास वा न अन्यत्र कुछ काम देना चाहते हैं। वह काम करने में अयोग्य और वह स्वभाव का भी बहुत बुरा आदमी है।"" केवल वह दम्भी और मिथ्याचारी है।" (पृ० ६७३) "वह न किसी आर्यसमाज में रहने के योग्य है।" (५० ६७३)।


(ए) पं० ज्वालादत्त शर्मा "हम नहीं जानते थे कि शोधने में तुम्हारी ऐसी कच्ची दृष्टि है। आगे भी ऐसा न होने पावे।" (पृ० ४५८)। पण्डित ज्यालादत के शोधने में बहुत गलती रहती है" (५० ४५८)। भीमसेन को तुमने जैसा चकवृत्ति समझा है वैसा ही हम बकवृत्ति और मार्जारलिंगी समझते हैं। वैसा ही उससे विलक्षण दम्भी, क्रोधी, हठी और स्वार्थसाधनतत्पर ज्वालादत्त भी है। मेरी समझ में भीमसेन का छोटा भाई ज्वालादत्त है। यदि उसको निकाल दोगे तो भी कुछ बड़ी हानि न होगी। क्योंकि वह कभी मन लगाकर काम न करेगा और उसकी ऐसी दृष्टि कच्ची है कि शोधने में अशुद्ध अवश्य कर देगा।"" अब उसने उदयपुर में जो भाषा बनाई है, सोधी गई तो कई एक के अर्थ में पदार्थ छोड़ दिया, कई एक पद अव्यय के छोड़ दिये, और कई एक पद आगे पीछे भी कर दिये है।" (५० ६६९. मुंशी समर्थदान को १७ मार्च १८८३ को लिखा पत्र)। " ज्वालादत्त जो भाषा बनाता है, ऐसा नहीं हो कि कहीं पोपलीला घुसेड़ डाले" (५० ७२६) । " अब के भाषा में कई पद छोड़ दिये हैं। कहीं अपनी ग्रामणी भाषा लिख देता है" (पृ० ७६३) । "तुम थोड़ी भाषा देख लिया करो। यह ज्वालादत्त तो विक्षिप्त पुरुष है... अब यह भाषा भी अच्छी नहीं बनाता किन्तु घास सी काटता है" (५० ७६६, मुंशी समर्थदान को २३ अगस्त १८८३ को लिखा पत्र ) ।


उक्त दोनों पंडितों पर महर्षि की संयुक्त टिप्पणी" ये दोनों (पं० भीमसेन और पं० ज्यालादत्त) एक से हो है, जैसा भूतनाथ वैसा प्रेतनाथ। इनसे चतुराई के साथ काम लेना, ये कामचोर है।" (५० ६०९, मुंशी समर्थदान को २९ अगस्त १८८२ को लिखा पत्र) (ऐ) पं० महादेव व कानपुरी पण्डित- "महादेव पण्डित के विषय में जो तुमने कुछ अनुमान किया, सो हमको नहीं दीखता। यह पण्डित धनार्थी है धर्मार्थी नहीं। जैसा कि कानपुर में एक पण्डित को रक्खा था और पश्चात्ख राब निकला। इन लोगों का विश्वास हमारे हृदय में तभी होगा कि जब उनका वर्तमान प्रत्यक्ष वा परोक्ष में एक सा देखा जाय।" (पू०६८३, लाला कालीचरण को २५ अप्रैल १८८३ को लिखा पत्र)


(आ) प० दिनेश राम-इसका मूलनाम दुलाराम था, स्वामी जी ने बदलकर 'दिनेशराम' रख दिया था। इसके विषय में प्राप्त विवरण इस कारण महत्त्वपूर्ण है कि वह महर्षि के पास रहने वाले पौराणिक लेखकों की कुटिल मनोवृत्ति पर प्रकाश डालता है। दिनेशराम के विषय में पं० देवेन्द्रनाथ रचित महर्षि के जीवन परित (५० ६०५) में यह विवरण मिलता है जिसे पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक ने भी उद्भत किया है "वह था बड़ा कपटी" विषकुम्भ पयोमुखम्"। स्वामी जी के सामने उनकी भलाई और पीछे बुराई करता। वह कहा करता था कि में स्वामी जी के ग्रन्थों में इस प्रकार के वाक्य मिला दूंगा कि उन्हें प्रलय तक भी उनका पता न लगेगा। स्वामी जी ने उसकी दुष्टता ताड़ ली और उसे अलग कर दिया।" (ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास, ५० ४१५) यह सन् १८७९ तक महर्षि के पास कार्यरत रहा।


(ओ) रामचन्द्र (लिपिकर) पौराणिक रूढ़िवाद के विरुद्ध आवाज उठाने तथा क्रान्तिकारी समाज सुधार के कारण उस समय के प्रायः सभी पौराणिक संस्कारी कर्मचारी मन-ही-मन में ऋषि के विरोधी थे। वे वेतन तो ऋषि से प्राप्त करके खाते थे किन्तु उनके प्रति निष्ठावान् न होकर मन में विद्वेष रखते थे। इसका एक प्रमाण रामचन्द्र नामक लिपिकर भी है। मुंशी समर्थदान जी निष्ठावान् मैनेजर थे। सत्यार्थप्रकाश की मुद्रणप्रति में, सत्यार्थप्रकाश के दशम समुल्लास के भक्ष्याभक्ष्य प्रसंग में पं० ज्वालादत्त शर्मा शोधक-लेखक ने चोरी से हाशिये पर एक मांसभक्षण-विधायक अनुच्छेद प्रक्षिप्त कर दिया। मुंशी जी ने उसको निकालने की अनुमति प्राप्त करने के लिए महर्षि के पास दिनांक १३.७.१८८३ को एक पत्र लिखा। आश्चर्य देखिये कि एक मैनेजर को वह पत्र अपने ही कार्यालय के एक कर्मचारी से छिपाकर, कार्यालय का प्रेषण नम्बर लगाये बिना ही डालना पड़ा जिससे विरोधी मानसिकता वाले कर्मचारी बात का बतंगड़ न बना दें। उस पत्र में मुंशी जी ने जो उस लेखक विषयक सत्य लिखा है उससे ज्ञात होता है कि महर्षि को कैसे कैसे विद्वेषी और निष्ठारहित लोगों से काम लेना पड़ रहा था। इससे कर्मचारियों की मनोवृत्ति का ज्ञान हो जाता है। मुंशी जी अपनी पीड़ा को इन शब्दों में लिखते हैं  " यह पत्र मैंने कार्यालय से पृथक् लिखा है, इसमें नम्बर नहीं डाला है. क्योंकि कार्यालय के पत्रों की नकल रामचन्द्र करते हैं और ये हम लोगों के विचार से सर्वथा पृथक् है, किन्तु विरुद्ध कहिये। इस पत्र का विषय खानगी (निजी) है कि विरोधियों को प्रकट होने से बड़ी हानि होती है। आर्यों के आचार्य का मन्त्रालय, आय ही के द्रव्य से बना, और नौकर सब अनार्य रखे जाएँ, वह भी एक काल की विचित्र गति का परिचय है। आर्यों के पैसे और सम्पत्ति का दर्द अनार्यों को कहाँ तक होता है, इसको भी विचारशील सोच सकते हैं।-आपका आज्ञाकारी समर्थदान मैनेजर" 

यह सच है कि महर्षि के पास रहने वाले अधिकांश कर्मचारी अर्थात् लेखक, शोधक, सेवक अनार्य थे। उन्होंने महर्षि का कोई कार्य निष्ठा से नहीं किया अपितु विगाड़ा भी है। यहाँ तक कि विष देकर महर्षि का प्राणहरण करने वाले भी उनके कर्मचारी ही थे। अतः महर्षि के ग्रन्थों को तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में रखकर उनका आकलन करना चाहिये, भावुकता में आकर नहीं। यह भी स्पष्ट है कि महर्षि के पास कार्यरत लिपिकरों, शोधकों, सेवकों आदि की मनोवृत्ति और कार्यशैली का अनुमान लगाने के लिए 'स्थालीपुलाक न्याय' से उक्त प्रमाण पर्याप्त है।

 (अ) छपे हुए द्वितीय संस्करण (१८८४) में विद्यमान रही अशुद्धियों को उसके मुद्रक मुंशी समर्थदान जी ने इन शब्दों में स्वीकार किया है "छापते समय ग्रन्थ के शोधने और विरामादि चिह्नों के देने में जहां तक बना बहुत ध्यान दिया, परन्तु शीघ्रता के कारण से कहीं भूल रह गई हो तो पाठकगण ठीक करलें।" (द्वितीय संस्करण १८८४, 'निवेदन' पृष्ठ १. शोधसं० ५)

 (अ) " चौदहवें समुल्लास में जो कुरान की मंजिल, सिपारा, सूरत और आयत का ब्योरा लिखा है उसमें और तो सब ठीक है, परन्तु आयतों की संख्या में दो-चार के आगे-पीछे का अन्तर होना संभव है, अत एव पाठकगण क्षमा करें।" (वहीं, आरम्भिक फरमे का पृष्ठ २, शोधसं० ५० ५ )


(अ-अ) उक्त पत्रों और सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि महर्षि तथा मुंशी समर्थदान सत्यार्थप्रकाश और उसको पांडुलिपियों में विद्यमान त्रुटियों को जानते और मानते थे कि यह " भाषा बनाने वाले और शुद्ध लिखने वाले की भूल है।'' अर्थात् ये भूलें लिपिकरों, मुद्रणलिपिकरों और आदि-शोधकों की हैं। पूर्वोक्त पत्रों- संदर्भों में, कुल मिलाकर महर्षि ने अपने ग्रन्थों में निम्न प्रकार की त्रुटियां होने की आशंका व्यक्त की है

१. भाषा में असम्बद्धता होना।

२. महर्षि के अभिप्राय के विरुद्ध प्रक्षेप होना।

३. अक्षर मात्रा आदि (वर्तनी) की अशुद्धि

४. पोपलीला घुसाना अर्थात् सिद्धान्तविरुद्ध प्रक्षेप रहना।

५. अक्षर, शब्द, वाक्य, आदि पाठों का त्रुदित

६. अनुचित शब्द का प्रयोग होना।

७. पदों को आगे-पीछे लिखना अर्थात् स्थानभ्रष्ट करना।

८. शोधन या प्रूफशोधन में अशुद्धियां छोड़ना।

९. "आदि" शब्द से मुद्रणदोष, संख्या दोष, विरामचिह्न आदि की अन्य त्रुटियां गृहीत की जानी चाहिये। इनमें से गम्भीर त्रुटि, जिसकी ओर पत्र में महर्षि ने स्वयं संकेत किया है, वह है-महर्षि के सिद्धान्त या अभिप्राय के विरुद्ध लिखा जाना' या पोपलीला का प्रक्षेप करना।' इससे स्पष्ट ज्ञान होता है कि महर्षि न केवल भाषागत अशुद्धियों के रहने का उल्लेख कर रहे हैं अपितु लिपिकरों द्वारा उनके सिद्धान्तविरुद्ध या अभिप्राय विरुद्ध प्रक्षेप या त्रुटियों के किये जाने पर भी आशंका प्रकट कर रहे हैं। इसके अनेक प्रमाण मिल भी गये हैं। (द्रष्टव्य है प्रमाण 'सत्यार्थप्रकाश मीमांसा' में पृष्ठ ९१-९९ पर)


(आ-आ) मुंशी जी को लिखे उक्त पत्रों के अतिरिक्त अपने ग्रन्थ के दो स्थलों पर भी महर्षि दयानन्द ने त्रुटियों की सम्भावना को स्वीकार किया है और उनको ठीक कर लेने का निर्देश दिया है। दो कथन द्रष्टव्य हैं यदि कहीं भ्रम से अन्यथा लिखा गया हो तो उसको शुद्ध कर लेवें।" (चतुर्दश समुल्लास, पृष्ठ १०४२) "इस ग्रन्थ ( सत्यार्थप्रकाश) में जो कहीं भूल-चूक से अथवा शोधने तथा छापने में भूल-चूक रह जाय, उसको जानने जनाने पर, जैसा वह सत्य होगा वैसा ही कर दिया जायेगा।" (भूमिका, पृष्ठ ९ पर)


महर्षि के इस उद्धरण पर उनके बारे में स्वामी श्रद्धानन्द जी सरस्वती की टिप्पणी पठनीय है "कैसे सरल शब्द है। अपने से भूल चूक की सम्भावना भी स्वीकार करते हैं और शोधने, छपवाने की अशुद्धियों को भी ठीक करने के लिए हर समय तैयार है।" (वेद और आर्यसमाज, पृष्ठ १३१)

 (इ-इ) पहली पीढ़ी के निष्ठावान् प्रबुद्ध आर्यजनों नेताओं ने जब सत्यार्थप्रकाश को गम्भीरता से पढ़ा, तो उन्हें भी यह आभास भलीभांति हो गया था कि इसमें बहुत सी अशुद्धियां विद्यमान हैं। वे लोग उन त्रुटियों को परोपकारिणी सभा के अधिकारियों के ध्यान में लाते भी थे। इसका प्रमाण यह है कि पं० लेखराम' आयपथिक' ने परोपकारिणी सभा के अधिकारियों का ध्यान इस ओर सर्वप्रथम आकर्षित किया और संशोधित संस्करण प्रकाशित करने का परामर्श दिया। इस तथ्य की जानकारी देने वाला, वैदिक यन्त्रालय के प्रबन्धक श्री शिवदयाल सिंह द्वारा श्री मोहनलाल बाबूलाल पांड्या, मन्त्री परोपकारिणी सभा को लिखा एक पत्र प्राप्त हुआ है जिसमें उक्त बातों का उल्लेख है। पत्र का सम्बन्धित अंश इस प्रकार है "नम्बर २५५ वैदिक मन्त्रालय प्रयोग १२-२.१८९० महाशय, नमस्ते सत्यार्थप्रकाश कुल ५९० रह गए हैं, अब सत्यार्थप्रकाश के छापने का उपाय करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश के शुद्ध छापने के लिए स्वामी जी महाराज की पुस्तकें चाहियेंगी। पंजाब के पं० लेखराम ने जो कुछ आक्षेप किये हैं, और और पंडित करते हैं, उनके दूर करने के लिए अब के जो सत्यार्थप्रकाश उपे, वह बहुत शुद्ध छपे। आपका दास-शिवदयाल सिंह मैनेजर "


(उ-उ) हम जानते हैं कि परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण की पंचम आवृत्ति का संशोधन पं० लेखराम जी ने किया था, जो व्यापक रूप में था। उन संशोधनों को परवर्ती प्रायः सभी प्रकाशकों ने अपनाया भी है। अधिकांश प्रबुद्ध आयंजन और विद्वान् अशुद्धियों के शोधन के पक्ष में रहे हैं, जैसे-पं० लेखराम स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, पं० भगवदत्त, पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु पं० युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी वेदानन्द सरस्वती, श्री जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पं० विश्वनाथ वेदोपाध्याय, आचार्य उदयवीर शास्त्री, आचार्य भद्रसेन, पं० महेशचन्द्र मौलवी 'आलिम फाजिल', पं० रामचन्द्र देहलवी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द सरस्वती, श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, डॉ० भवानीलाल भारतीय, स्थामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, पं० विशुद्धानन्द मिश्र व उनकी सम्पादक समिति, आप साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली, आर्य साहित्य मण्डल अजमेर, आर्य प्रतिनिधि सभाएं, आर्य संस्थाएं, सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा दिल्ली, आदि। आरम्भिक काल में कुछ ऐसे रूढ़िवादी भी आर्यसमाज में प्रकट हो गये थे जो यह कहने लगे थे कि सत्यार्थप्रकाश आदि में एक अक्षर का परिवर्तन भी न किया जाये। उन्हीं के कारण, ऋषिग्रन्थों में संशोधन करने और संशोधन न करने का विवाद भी उस समय बीज रूप में जन्म ले गया था। तब वैदिक यन्त्रालय के अध्यक्ष के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी सरस्वती ने अपना स्पष्ट अभिमत प्रकट किया था कि लिपिकरों-शोधकों के कारण सत्यार्थप्रकाश आदि में न केवल त्रुटियां उत्पन्न हुई हैं अपितु उन्होंने अवसर मिलते ही प्रक्षेप भी किये हैं। मुद्रणप्रति के दशम समुल्लास के भक्ष्याभक्ष्य प्रसंग में हाशिये (बगल के खाली स्थान) पर लिखे एक मांसभक्षण के समर्थक संदर्भ के विषय में खोज करके स्वामी श्रद्धानन्द जी ने बताया था कि उस सन्दर्भ का प्रक्षेप पं० ज्वालादत्त शर्मा ने किया है, क्योंकि वह लेख उसी का है। पं० ज्यालादत्त ने वह प्रक्षिप्त संदर्भ ग्रन्थकार द्वारा मुद्रणप्रति का निरीक्षण करने के बाद प्रेस में भेजते समय पीछे से मिलाया है, जिस पर मुद्रण के समय मुंशी समर्थदान जी का ध्यान चला गया था और उन्होंने उसकी जानकारी ग्रन्थकार महर्षि को दी थी (द्रष्टव्य मीमांसा भाग में पृष्ठ २८ और मूलग्रन्थ में पृष्ठ ५०० पर टिप्पणी)। ऐसी स्थिति में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के विषय में अपना यह अभिमत प्रकट किया था जो उपर्युक्त निष्कर्षों को पुष्टि करता है


(क) " वेद ईश्वरीय ज्ञान है, इसलिये निर्धान्त है। सत्यार्थप्रकाश मनुष्यकृत है और इसलिए उसमें भूल की सम्भावना है। प्रथम तो यही निश्चित नहीं है कि सत्यार्थप्रकाश में वही सब छपा है जो ऋषि दयानन्द ने लिखवाया था। जहां छापे की अशुद्धिया प्रत्येक संस्करण में दिखाई देती है वहाँ कई स्थानों में लिखे हुए ऋषि दयानन्द के हस्ताक्षर (हस्तलेख) सहित पुस्तक में प्रत्यक्ष संशोधन करने वाले पण्डितों का हस्ताक्षेप दिखाई देता है।" (वेद और आर्यसमाज, पृष्ठ १३४)

 (ख) "सारांश यह कि सत्यार्थप्रकाश के एक-एक शब्द का समर्थन अविद्यावश, स्वार्थ और झूठी लोकलजा में फंसकर ही किया जाता है। इसलिए अत्यन्त आवश्यक है कि द्वेष, पक्षपात और लोकलज्जा के झूठे भय को भुलाकर सत्यार्थप्रकाश को वही पद (साम्प्रदायिक स्मृति का) प्रदान किया जावे जो उसका वास्तव में अधिकार है।" (वही पुस्तक, पृष्ठ १३३-१३४)


(ग) "मनीषी समर्थदान का ऊपर दिया पत्र (जो मुंशी जी ने मुद्रणप्रति में, दशम समुल्लास में लिखे मांसभक्षण के समर्थन में हाशिये पर लिखे सन्दर्भ की जानकारी देने के लिए लिखा था)। पढ़कर मैंने ऋषि के पत्र व्यवहार की तिथिक्रम से पड़ताल की। तब मांस वाला हाशिये का लेख निःसंदेह पं० ज्वालादन का लिखा हुआ प्रतीत हुआ। पं० ज्यालादन के कई पत्र मिले जिनके साथ हाशिये (के लेख) के अक्षर मिल गये।" (वही पुस्तक, पृष्ठ १४०)


(घ) " ऊपर के लम्बे उद्धरण नीरस से तो अवश्य प्रतीत होते हैं, परन्तु इनके बिना यह ज्ञात होना कठिन था कि ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को बिगाड़ने का पौराणिक संस्कृतज्ञों ने कितना यत्न किया। यदि ऋषि दयानन्द के उपे ग्रन्थों का हस्तलिखित मल पत्रों मिलान किया जाए तो न जाने उनमें कितना भेद निकलेगा। ऊपर लिखा तो एक कारण है जिससे सत्यार्थप्रकाश के एक-एक अक्षर की जिम्मेवारी आर्यपुरुष नहीं ले सकते, परन्तु छापे की अशद्धया, लेखक तथा संशोधक पण्डितों की अयोग्यता और कुटिलता के अतिरिक्त एक बात और भी है।" (वही पुस्तक, पृष्ठ १४१)


स्वामी श्रद्धानन्द जी तथा स्वयं महर्षि के उपर्युक्त उद्धरणों से यह तथ्य पुष्ट हो जाता है कि सत्यार्थप्रकाश आदि में जो अत्यधिक अशुद्धियां मिलती हैं वे लिपिकरों-शोधकों की केवल अयोग्यता और प्रसाद के कारण ही नहीं है अपितु जान-बूझकर की गई मक्कारी, कामचोरी और शयरत के कारण भी हैं और लिपिकरी शोधकों ने न केवल भाषागत त्रुटियां हो की हैं अपितु ऋषि के अभिप्राय के विरुद्ध प्रदोष भी किये हैं। 

(ङ) ऋषि-ग्रन्थों में अशुद्धियां रहने के विषय में तथा महर्षि के लेखकों की मानसिकता के सम्बन्ध में पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक का मत भी उल्लेखनीय है—


"इन सब उद्धरणों से भले प्रकार स्पष्ट है कि स्वामी जी महाराज के साथी पण्डित लोग कितनी कटिल प्रकृति के थे...... सहानुभूति होना तो दूर रहा, ये लोग अपनी नीच प्रकृति के कारण स्वामी जी के कार्य को भले प्रकार नहीं करते थे....इन्हीं पण्डितों की अयोग्यता तथा कुटिलता के कारण स्वामी जी के स्वयं लिखे तथा इनके द्वारा लिखवाये ग्रन्थों में बहुत सी अशुद्धियां उपलब्ध होती है। स्वामी जी ने इन अशुद्धियों की ओर अनेक पत्रों में ध्यान दिलाया है।" (ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास, पृ० ४१६४१७)


(ए-ए) उक्त प्रकार के अनेक कारणों से ही ग्रन्थकार महर्षि ने सत्यार्थप्रकाश (द्वितीय संस्करण १८८४) के टाइटल और मुखपृष्ठ पर दो जगह एक महत्त्वपूर्ण और दूरदर्शितायुक्त वाक्य छपवाकर भाषात्मक तथा सम्पादकीय त्रुटियों का सारा दायित्व वेतनभोगी शोधकों पर डाल दिया था और स्वयं को उससे मुक्त कर लिया था। वह महत्त्वपूर्ण वाक्य है


"पण्डितज्वालादनभीमसेनशमभ्यां संशोधित:" (द्रष्टव्य आरम्भ के पृष्ठ ४ पर) 

अर्थात् ' सत्यार्थप्रकाश की भाषा का संशोधन सम्पादन पण्डित ज्वालादत्त और पं० भीमसेन ने किया है। यह वाक्य कई संस्करणों तक छपता रहा। यदि भाषा का उत्तरदायित्व ग्रन्थकार अपना मानते तो मुखपृष्ठ पर दो बार उक्त वाक्य प्रकाशित नहीं कराते 'वेदभाष्य' आदि अन्य अनेक ग्रन्थों पर भी इसी आशय का वाक्य आज तक मिलता है। जो विद्वान या पाठक महर्षि के उक्त कथनों की गम्भीरता पर ध्यान नहीं देते और उनके ग्रन्थों की लेखन प्रक्रिया को नहीं समझते, वे संदेहों और पूर्वाग्रहों में स्वयं भी भटक रहे हैं और सत्यार्थप्रकाश को भी भटकाये हुए हैं। जो भी विद्वान या पाठक ऋषि ग्रन्थों में विद्यमान अशुद्धियों के संशोधन में बाधा उपस्थित करता है वह जानी ऋषि के दिये पूर्वोक्त निर्देशों और अभिप्राय के विरुद्ध आचरण किया करता है। ऋषि के पत्रों से उनकी यह हार्दिक इच्छा व्यक्त होती है कि वे अपने ग्रन्थों को पूर्णतः अशुद्धिरहित देखना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने यथासंभव सभी प्रयास किये थे।


एक समय एक अभिमानी और अदूरदर्शी चिन्तनवाले आर्थविद्वान का पर्दापण परोपकारिणी सभा, अजमेर में हुआ। उसने अतिशय भावुकता में आकर (जिसे अज्ञानता भी कहा जा सकता है), पूर्वोक्त महत्त्वपूर्ण वाक्य को 'सत्यार्थप्रकाश' के मुखपृष्ठ से हटवा दिया, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि तब से सत्यार्थप्रकाश में अवशिष्ट सारी त्रुटियां और न्यूनताएं महर्षि के मत्थे पड़ गई, अर्थात् शुद्ध-अशुद्ध सब कुछ महर्षि का माना जाने लगा। उक्त वाक्य के निष्कासन ने जहां अवशिष्ट त्रुटियों का दायित्व महर्षि के सिर पर डाल दिया वहीं कुछ लोगों ने आगामी संस्करणों में संशोधन न करने का दुराग्रह भी दृढ़तर कर लिया। इसका दुःखद परिणाम यह सामने आया कि आर्य विद्वानों द्वारा मिल बैठकर एकमत से संशोधनपूर्वक सत्यार्थप्रकाश का जो एकमात्र शुद्धतम संस्करण प्रस्तुत होना चाहिए था वह आज १२८ से अधिक वर्ष बीतने पर भी प्रस्तुत नहीं हो सका। संशोधन तो अपेक्षित था और अत्यावश्यक भी था, अतः वह आयविद्वानों ने अपने-अपने स्तर पर अथवा आंशिक आंशिक रूप में किया, जिसका और दुष्परिणाम यह हुआ कि संशोधन या पाठान्तर होते-होते सत्यार्थप्रकाश (१८८४) का प्रत्येक संस्करण एक-दूसरे से भिन्न होता गया। इस प्रकार आर्यसमाज के संगठन की तरह उसका धर्मग्रन्थ भी विभिन्नताओं की बलि पढ़ गया सत्यार्थप्रकाश को अपना धर्मग्रन्थ कहने वाले आयंजन आज तक अपने पूर्वाग्रहों और अहंभाव को त्यागकर अपने धर्मग्रन्थ के लिए भी एकमत नहीं हो सके हैं, इससे बढ़कर उनका तथा 'सत्यार्थप्रकाश' का दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ?

हैं, इससे बढ़कर उनका तथा' सत्यार्थप्रकाश' का दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ?

इस दुःस्थिति के लिए अधिक उत्तरदायी संशोधन विरोधी विचारपक्ष है, क्योंकि सत्यार्थप्रकाश विषयक उनका अध्ययन सीमित, चिन्तन भावुकतापूर्ण एवं अदूरदर्शितायुक्त, पूर्वाग्रह रूढ़िवादी और महर्षि के पूर्वोद्धृत कथनों के विरुद्ध है, जो सत्यार्थप्रकाश के लिए अहितकर है। मेरे इस कथन के पीछे कुछ तर्कसंगत ठोस आधार है 

१. आज कोई भी प्रकाशक, चाहे वह सार्वदेशिक सभा हो, प्रान्तीय सभा हो, अन्य संस्था या न्यास हो, परोपकारिणी सभा हो, कितना भी दावा करे, किन्तु आज उपलब्ध सत्यार्थप्रकाश का एक भी संस्करण ऐसा नहीं है जो महर्षि के जीवनकाल में अर्थ प्रकाशित द्वितीय संस्करण (१८८४) का यथावत् रूप हो। सभी के प्रकाशनों में अनेक संशोधन हैं और वे सैकड़ों की संख्या में हैं। सबसे दुःखद तथ्य यह है कि प्रत्येक संस्करण एक दूसरे से भिन्न है, और उससे बढ़कर विडम्बना तो यह है कि एक प्रकाशक के संस्करण भी आपस में एक दूसरे से भिन्न है।


यदि संशोधनविरोधी कोई पाठक आज के दिन सत्यार्थप्रकाश में काँमा, विरामचिह्न तक न बदले जाने' तक की मंसा मन में पाले हुए है और यथावत् द्वितीय संस्करण (१८८४) चाहता है, तो वह कान खोलकर सुन ले कि आज के दिन उसकी कल्पना का कोई भी सत्यार्थप्रकाश नहीं है, क्योंकि उसकी अपेक्षानुसार कोई सत्यार्थप्रकाश छप ही नहीं रहा है। यह समझ लीजिए कि जितने द्वितीय संस्करण हैं उतने नये सत्यार्थप्रकाश हैं। यदि संशोधन करना किसी के मतानुसार दोष है तो आज उसके दोषी सभी प्रकाशक, सम्पादक, सार्वदेशिक सभा, प्रान्तीय सभाएं, संस्थाएं और न्यास हैं, चाहे वे बचने के कितने ही कुतर्क दें।


सभी सम्पादकों के द्वारा अपने अपने संस्करण में सैकड़ों संशोधन किये जाने की यह स्थिति यह सिद्ध करती है कि सभी के मत में सत्यार्थप्रकाश में संशोधन अपेक्षित एवं अपरिहार्य रहे हैं, और आज भी हैं, महर्षि के मतानुसार भी थे। इस तथ्य को कोई विचारशील नकार नहीं सकता। संशोधन की इस प्रक्रिया को क्रियात्मक रूप में स्वयं अपनाकर भी जो प्रकट रूप में संशोधनों की आवश्यकता को स्वीकार नहीं करता अथवा उनका विरोध करता है, वह निश्चय ही पाखण्ड कर रहा है, क्योंकि संशोधन का प्रारम्भ तो द्वितीय संस्करण (१८८४) के शुद्धिपत्र से ही आरम्भ हो गया था और आज भी जारी है। रोज कोई-न-कोई संशोधित नया संस्करण निकालने की घोषणा कर देता है, और निकल भी रहा है।


2. जब द्वितीय संस्करण (१८८४) का यथावत् रूप कोई सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित ही नहीं हो रहा है और उसमें सैकड़ों संशोधन कर लिये गये हैं, तो समझ में नहीं आता कि शेष सैकड़ों संशोधनों के करने में क्या आपत्ति है, और क्यों है? उनको किसलिए अशुद्ध रखा जा रहा है? अपितु यह कहा जाना चाहिए कि संशोधन न करने से वर्तमान और भविष्य में महर्षि दयानन्द और सत्यार्थप्रकाश की हानि ही हानि है। क्या महर्षि के कथनों के विपरीत जाकर, लिपिकरों आदिशोधकों की त्रुटियों को महर्षि के मत्थे मढ़ने का नाम श्रद्धालुता है ? और उन अवशिष्ट अशुद्धियों को चिरस्थायी बनाये रखना क्या सत्यार्थप्रकाश और महर्षि के लिए गौरव की बात है? यदि ऐसी बात है तो ये लोग द्वितीय संस्करण (१८८४) को यथावत् क्यों नहीं छाप लेते ?


3. संशोधनविरोधी लोग यह भी भूल रहे हैं कि सत्यार्थप्रकाश के संशोधन की एक लम्बी परम्परा रही है। वैदिक यन्त्रालय अजमेर से द्वितीय संस्करण के ३६ संस्करण प्रकाशित हुए हैं। उनमें विद्वत्-समितियों द्वारा प्रायः सभी में उत्तरोत्तर रूप से संशोधन किये जाते रहे हैं। ऐसी ही दुःस्थिति अन्य प्रायः सभी प्रकाशकों ने की है। इस प्रकार सारे संस्करण एक-दूसरे से भिन्न हो गये हैं। यह समझिये कि दर्जनों स्वतन्त्र द्वितीय संस्करणात्मक सत्यार्थप्रकाश बन गये हैं। जब सभी प्रकाशक, सम्पादक, सभाएं, न्यास अपने संस्करण में स्वल्पाधिक संशोधन के द्वारा यह स्वीकार कर चुके हैं कि सत्यार्थप्रकाश में संशोधन अपेक्षित और आवश्यक हैं तो क्यों न एक ही बार सारे संशोधन करके एक शुद्धतम एकरूप संस्करण प्रस्तुत किया गया? बार-बार सत्यार्थप्रकाश की दुर्गति क्यों की गई ? और आज भी क्यों की जा रही है ? यह ज्वलन्त प्रश्न सभी आर्य सम्पादकों पर बना रहेगा।


4. सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण के निरन्तर संशोधन करने का, या शुद्ध संस्करण के नाम से बार-बार नया संस्करण प्रकाशित करने का, या शुद्ध संस्करण पुनः प्रकाशित करने की नयी नयी योजना घोषित करने का, या शुद्ध संस्करण के प्रकाशन हेतु बैठकें करने का क्रम आज भी जो आर्यजगत् में जारी है, इन कार्यक्रमों से, अर्थापत्ति से तीन बातें सिद्ध होती हैं- १. इसका मतलब है, उनके मतानुसार सत्यार्थप्रकाश, द्वितीय संस्करण में अभी भी अशुद्धियां विद्यमान है, जो संशोध्य है। २. उनके मतानुसार, अब तक प्रकाशित सभी द्वितीय संस्करण अशुद्ध है, और महर्षि के जीवनकाल में अर्धप्रकाशित द्वितीय संस्करण (१८८४) भी अशुद्ध है, क्योंकि तभी तो उन्हें शुद्ध संस्करण प्रकाशित करने की आवश्यकता अनुभव हो रही है। ३. नया शुद्ध संस्करण प्रकाशित करने की घोषणा करके भी जो द्वितीय संस्करण में अशुद्धियां न होने की बात कहता है, वह उसका परस्परविरोध, पाखण्ड और दुराग्रह मात्र है या फिर राजनीतिवश वह ऐसा कह रहा है। जब अशुद्धियों का अस्तित्व स्वीकार नहीं है तो उनके द्वारा शुद्ध संस्करण छापने की योजना का अर्थ ही क्या रह जाता है ? कुल मिलाकर ये सब बातें इन सत्यों को पुष्ट कर रही हैं कि सभी के मतानुसार सत्यार्थप्रकाश में लिपिकर आदि द्वारा कृत अशुद्धियां अभी भी विद्यमान हैं और उनका संशोधन करना सभी अनिवार्य भी मानते हैं।


4. संशोधन विरोधी आयंजनों को यह भी जान लेना चाहिए कि द्वितीय संस्करण (१८८४) को यदि यथावत्प्र काशित कर दिया जाये तो लिपिकरों-शोधकों के प्रमाद और कामचोरी के कारण निर्मित त्रुटियों के रह जाने से वह इतना भ्रष्ट प्रकाशन होगा कि वर्तमान शिक्षित जगत् में वह स्वीकार्य और पठनीय ग्रन्थ ही नहीं कहलायेगा। इस कारण उसको आदर्श संस्करण के रूप में उद्धृत करना बेमानी है, और इसी कारण से उसमें संशोधन की महती आवश्यकता है। वह संशोधन भी सर्वांगपूर्ण होना चाहिए, आंशिक और बार-बार नहीं। इन्हीं अविचारित धारणाओं के कारण ही हमारे प्रकाशकों ने पं० लेखराम जी, स्वामी वेदानन्द जी सरस्वती, पं० भगवद्दत जी, पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक, स्वामी जगदीश्वरानन्द जी सरस्वती, डॉ० रामनाथ जी वेदालंकार आदि ने परिश्रम करके जो जो शुद्ध और ग्राह्य रूप प्रस्तुत किया था, उसका लाभ नहीं उठाया और अब तक भाषात्मक त्रुटियुक्त सत्यार्थप्रकाश प्रस्तुत करने में अथवा अपूर्ण संशोधन करने में ऋषिभक्ति और श्रद्धालुता माने बैठे हैं।


(ए-ऐ) सत्यार्थप्रकाश की इस त्रुटिमय स्थिति का आभास मुझे अपने जीवन में पहली बार तब हुआ था जब मैं १९७०-७१ में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में एम०ए० हिन्दी कक्षा में पढ़ रहा था। तब एक दिन' आरम्भिक हिन्दी भाषा एवं गद्य को विभिन्न संगठनों का योगदान' पाठ्यविषय पर चर्चा करते हुए हमारे एक प्रोफेसर ने यह कहकर चौका दिया था कि ''सत्यार्थप्रकाश की भाषा व सम्पादन साहित्यिक स्तर का नहीं है।" मैंने तब इस आक्षेप के परोक्ष उत्तर में गुरुकुल विश्वविद्यालय की शोध-पत्रिका 'गुरुकुल पत्रिका' में दो अंकों में समाप्य एक बृहत् लेख लिखकर उससे संतोष कर लिया था किन्तु उस वाग्बाण की पीड़ा की कसक आज तक मेरे हृदय में बनी हुई है। इस घटना ने मेरे हृदय में उस अस्तरीय' को खोजने की इच्छा का बीज-वपन कर दिया था।


बौद्धिक प्रौढ़ता आने के बाद भी कभी सत्यार्थप्रकाश को इस दृष्टि से नहीं देखा था कि 'इस में गणितीय और भाव भाषागत त्रुटियां विद्यमान हैं, वे किस कारण से हैं, और उनका निराकरण अब तक क्यों नहीं किया गया है' आदि। एक दिन एक और सकपका देने वाली बात हुई। लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व की बात है। उस समय मैं राजकीय महाविद्यालय झज्झर (हरियाणा) में हिन्दी प्राध्यापक था। छात्रों के शुद्ध उच्चारण और शुद्ध लेखन पर में विशेष ध्यान देता था। एक दिन एक छात्र ने पढ़ने के लिए सत्यार्थप्रकाश मांगा। मैंने उसे भेंट में एक प्रति दे दी। कुछ दिन बाद वह मेरे निवास पर आया। विषयवस्तु की प्रशंसा करने के बाद कहा कि "सर आप हमें कहते हैं कि अमुक-अमुक मात्रा वाला शब्द अशुद्ध है, इसमें तो वैसा ही लिखा है, फिर आप उसको अशुद्ध क्यों कहते हैं? 

इसी प्रकार गणित सम्बन्धी गलतियां भी हैं। सर! ऐसी गलतियां तो साधारण लेखक की पुस्तक में भी नहीं हुआ करती हैं और इसके लेखक को तो 'महर्षि ' लिखा हुआ है।'' मैंने उलट-पुलट कर कुछ स्थलों पर दृष्टि डाली और यह कहकर उस सरल श्रद्धालु को सन्तुष्ट किया कि" मुद्रण में ऐसी गलतियां हो जाती हैं। मुझे पता था कि मैं अनुचित उत्तर दे रहा हूं किन्तु इतनी गम्भीरता से कभी इस प्रहार को अनुभव भी तो नहीं किया था, जैसा उस छात्र के सामने कर रहा था। पुराने घाव में फिर चुभक-सी उठी किन्तु अंग्रेजी दवाई की तरह उपेक्षा' की गोली ने कुछ समय बाद उस चुभक को दबा दिया। फिर यह विचार आया कि सत्यार्थप्रकाश में छेड़छाड़ करने का न तेरा अधिकार है, न ज्ञान; जिसका होगा वही करेगा। किन्तु साथ ही यह भी विचार कांधा कि फिर' ये बड़े विद्वान्' यह कार्य क्यों नहीं करते जिनको ज्ञान भी और अधिकार भी है? 

क्यों नहीं सवा सौ से अधिक वर्षों की अवधि में उन्होंने यह कार्य किया? कुछ समय पश्चात् यह विचार फिर शान्त हो गया। समय-समय पर अनुभव और व्यवहार में आई ऐसी कई छुटपुट घटनाओं के अतिरिक्त इस क्रम में एक और महत्त्वपूर्ण घटना आ जुड़ी जिसने शिथिल पड़ी उस इच्छा को उभार दिया और कुछ करने की इच्छा को बलवती बना दिया। परोपकारिणी सभा, अजमेर (राजस्थान) ने महर्षि दयानन्द से आरम्भ हुई, द्वितीय संस्करण पर आधारित सत्यार्थप्रकाश को प्रकाशित करने की लगभग सवा सौ वर्ष और ३६ संस्करण पुरानी परम्परा और नीति का परित्याग करके, ३७वें संस्करण के रूप में महर्षिप्रोक्त और संशोधित मूल-हस्तलेख (मूलप्रति) पर मुख्यतः और मुद्रणप्रति तथा द्वितीय संस्करण पर गौणत: आधारित श्री विरजानन्द देवकरणि द्वारा सम्पादित सत्यार्थप्रकाश का ३७वां संस्करण अनेक परिवर्तनों, परिवर्धनों, संशोधनों के साथ प्रकाशित कर दिया। उसको लेकर कुछ लोगों ने आर्थविद्वानों में एक बवण्डर सा खड़ा कर दिया। बचण्डर का कारण जहां लोगों का इस विषयक अज्ञान था वहां यह भी था कि सौ वर्षों तक लोगों ने जिस सत्यार्थप्रकाश को देखा-पढ़ा था, उसके प्रति उनके संस्कार दृढमूल हो चुके थे। उस स्थिति में उन्हें "मूलप्रति संस्करण' एक अनावश्यक और अवांछनीय प्रकाशन प्रतीत हुआ, किन्तु इसके पीछे विरोध-भाव भी था।


इस पर व्यर्थ का खूब विवाद हुआ, लेख लिखे गये, चुटीले विशेषण चुन-चुन कर आरोप-प्रत्यारोप लगाये गये, पुस्तक भी विरोध में छापी गई, गोष्ठियां रखी गई बैठक आयोजित की गई, किन्तु कोई सर्वसम्मत समाधान नहीं निकला। दोनों पक्ष अपना अपना औचित्य सिद्ध करने तथा दूसरे को आरोपित करने में लगे रहे और आग्रहपूर्वक अपना अपना अभीष्ट संस्करण प्रकाशित करते रहे। सत्यार्थप्रकाश आर्यसमाज की राजनीति का माध्यम बन गया।


परोपकारिणी सभा के ३७ वें संस्करण के प्रकाशन के विरोधस्वरूप, द्वितीय संस्करण के पक्षधर विद्वानों और प्रकाशकों के द्वारा १ मार्च २००५ को नवलखा महल, उदयपुर में वयोवृद्ध वैदिक विद्वान् पं० विशुद्धानन्द जी मिश्र की अध्यक्षता में एक बैठक का आयोजन किया गया जिसमें आर्यसमाज के वरिष्ठ कनिष्ठ पच्चीस-तीस विद्वान उपस्थित थे। परोपकारिणी सभा के मन्त्री डॉ० धर्मवीर जी के अनुरोध पर मैं सभा का पक्ष रखने के लिए उस बैठक में पहुंचा था। वहां मैंने देखा कि सभा के संस्करण को लेकर सभी उपस्थितों में न केवल असन्तोष था, अपितु आक्रोश था। मुझे इस स्थिति का आभास भी नहीं था। मैं सामान्य भाव से गया था। कुछ तटस्थ जनों को छोड़कर सब विपक्ष में थे, मेरे मित्र भी, मेरे कनिष्ठ भी, मेरे वरिष्ठ भी। मैं अपने पक्ष में अकेला रह गया। चर्चा आरम्भ होने पर एक-एक के वाकु प्रहार ३७वें संस्करण पर होने लगे। मैंने सोचा भी नहीं था कि वरिष्ठ विद्वानों के प्रश्नों की बौछार भी मुझे झेलनी पड़ेगी। आडियो रिकार्डिंग की जा रही थी, अतः प्रत्येक उत्तर सावधानी के साथ देना था स्थिति को भापकर मैंने आत्मबल बटोरा और उसका सामना करने के लिए सन्तद्ध हो गया। चूंकि मैंने दोनों संस्करणों के विषय में पर्याप्त अध्ययन किया था इसलिए विद्वानों के प्रश्नों आरोपों और वाकुप्रहारों के बीच मैंने अपनी स्थिति को विचलित नहीं होने दिया। अब, " सत्यार्थप्रकाश न्यास, उदयपुर' से प्रकाशित संस्करण को देखकर मुझे उस बैठक की अपनी भूमिका पर आत्मतोष है, क्योंकि उसमें लगभग मेरे सभी सुझावों तकों को ग्रहण किया हुआ है। जैसे, मेरा पक्ष था- मूलप्रति संस्करण का यह पाठ ठीक है कि " जप मन से करना चाहिए (उदयपुर सं० तृतीय समु० पू० ४१) तथा नवम समु०५० २४६ पर "निर्बुद्धता उसको क्यों दी" के स्थान पर "बुद्धि क्यों दी" पाठ सही है। उदयपुर सं० में दोनों पाठ ग्रहण कर लिये हैं। मैंने कहा था कि 'मूलप्रति संस्करण' विरोध, विवाद, उपेक्षा का विषय नहीं है, अपितु उसका द्वितीय संस्करण के संशोधन में लाभ उठाना चाहिए। उदयपुर सं० ने आज उसके दो सौ के लगभग पाठ द्वितीय संस्करण के पाठ से उपयोगी मानकर ग्रहण कर लिये हैं। ऐसी ही बहुत सी अन्य बातें थीं, जो रिकोर्डिड है। यह भी सच है कि किसी संस्करण के लिए मेरे मन में कोई पूर्वाग्रह दुराग्रह भी नहीं था। मेरी भावना यह थी कि दोनों संस्करणों का भेद मिटकर एक ही सम्पूर्ण और शुद्धतम संस्करण प्रचलित हो। मैंने इस पावन लक्ष्य हेतु सहमत होने के लिए सभी का आह्वान भी किया था। गोष्ठी के उपरान्त वहां विद्वानों की एक समिति का गठन हुआ जिसका कार्य इस दिशा में आगे बढ़कर पूर्वाग्रहरहित हो, सत्यार्थप्रकाश का एक सर्वसम्मत शुद्धतम, प्रामाणिक संस्करण तैयार करना था।


दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि उस समिति का कार्य सही तटस्थ मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा। वह पूर्वाग्रही और अहंभरी तुच्छ बातों में उलझकर टांय-टांय फिस्स हो गया और इसके साथ ही सत्यार्थप्रकाश के 'एकरूप संस्करण का सपना भी बिखरकर चूर-चूर हो गया। अन्ततः सत्यार्थप्रकाश की दो शाखाएं प्रचलित ही रह गई। वर्षों तक, किसी भी विद्रुमण्डली द्वारा सत्यार्थप्रकाश के 'एकरूप संस्करण' विषयक तटस्य प्रवासन किया जाता देख सत्यधर्म प्रकाशन' के संचालक आचार्य सत्यानन्द जी नैष्ठिक के बार-बार के अनुरोध पर, मेरे मन में इस कार्य को करने का विचार बना सत्यार्थप्रकाश सम्बन्धी विगत विवादकाल में मुझे अनेक बार सत्यार्थप्रकाश के कई संस्करणों का अनुशीलन करने का अवसर मिला था। ज्यों-ज्यों इस विषयक अध्ययन गहन होता गया त्यों-त्यों उसमें लिपिकरों शोधकों द्वारा छोड़े गये त्रुटिपूर्ण' तत्त्व उभर कर सामने आते गये। विगत वर्षों की अवधि में मैंने अनेक विद्वानों, प्रकाशकों, पाठकों के समक्ष अनेक बार सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध उन' अस्तरीय' तत्त्वों और सिद्ध त्रुटियों' की चर्चा करके इस बात पर बल दिया कि उन सबको दूर करके एक शुद्धतम संस्करण तैयार किया जाये। आश्चर्य की यह बात रही कि कुछ व्यक्तियों को छोड़कर अधिकांश इस महत्त्वपूर्ण कार्य से विरत रहे। न उन्होंने इसमें रुचि ली, न मेरे द्वारा प्रस्तुत आपत्तियों का समाधान किया, और न इस दिशा में कोई प्रोत्साहन दिया। कुछ तो आशंकित विरोध के भय से मौन ही साध गये। हाँ, कुछ चिन्तक व्यक्ति ऐसे मिले जिनके हृदय में विद्रूप सत्यार्थप्रकाश के प्रति पौड़ा थी और वे इसका संशोधन करना आवश्यक मानते थे।


अस्तु, सभी पक्षों का उत्साहहीन और भविष्य के लिए हानिकारक दृष्टिकोण देखकर मैंने इस योजना पर तटस्थ शैली में शोधकार्य घोषणापूर्वक आरम्भ कर दिया। कुछ लोगों के चरित्र की विडम्बना तो देखिए कि जिस सकारात्मक पक्ष पर सक्रिय होना चाहिए था, वहां तो चुप रहे और नकारात्मक पक्ष में विरोध के लिए सक्रिय हो उठे। उन्होंने मेरे कार्य में गतिरोध पैदा करने का प्रयास भी किया और दुष्प्रचार तथा दुरभिसन्धि भी की। आश्चर्य तो यह है कि विरोध वितण्डा करने वाले व्यक्ति मेरे प्रश्नों का उत्तर न दे सके, किन्तु फिर भी विरोध करना उन्हें अवांछनीय प्रतीत नहीं हुआ। भविष्य में भी ऐसे अनर्गल विरोधी लोगों से पुनः पुनः सामना होता रहेगा, किन्तु मेरा भी दृढ़ संकल्प है कि सत्यार्थप्रकाश के शुद्धतम संस्करण के लिए प्रत्येक परिस्थिति का सामना किया जायेगा।


मुझे इस बात का निश्चय हो चुका है कि व्यर्थ विरोध वितण्डा करने वालों के पास न तो सत्यार्थप्रकाश सम्बन्धी आपत्तियों का उत्तर है और न उन्हें इस प्रकार के शोधकार्य के दूरगामी महत्त्व का अनुमान है, न उन्हें सत्यार्थप्रकाश को यथार्थ स्थिति का बोध है। उनके पास है केवल रूढ़िवादिता, कुंठित चिन्तन और अहंयुक्त पूर्वाग्रह ! लिपिकरों-शोधकों आदिसम्पादकों द्वारा मक्कारी, अयोग्यता और प्रमाद से की गई त्रुटियों को महर्षि दयानन्द के मत्थे डाल महर्षि को अपमानित रखने पर बल लगानेवाले वे जन यही नहीं सोचते कि वे कर क्या रहे हैं। विगत १२८ वर्ष हमारे विद्वानों ने सत्यार्थप्रकाश के प्रत्येक संस्करण में काट-छांट में खो दिये, किन्तु फिर भी एक शुद्ध संस्करण पाठकों को नहीं दे सके। उलटे प्रत्येक संस्करण में नये नये पाठान्तर उत्पन्न करके प्रत्येक संस्करण को एक दूसरे से भिन्न बनाकर उसकी हास्यास्पद और अप्रामाणिक स्थिति बना दी। हमारे श्रद्धालु पाठक भान्तिवश सत्यार्थप्रकाश की उस दुर्दशा को सुदशा और दुर्गात को सुगति माने बैठे हैं। अब स्थिति ऐसी बन गई है कि सभी सम्पादक और प्रकाशक अपने-अपने संस्करण को निजी अहं, आग्रह और प्रतिष्ठा का विषय बनाये हुए हैं। उनकी व्यक्तिगत भावनाओं की महत्ता के आगे उपेक्षित हुआ सत्यार्थप्रकाश अपनी विद्रूपता पर आंसू बहा रहा है और सब अपनी अपनी ढपलो की ताल और अपने अपने राग में मुग्ध हैं।


२. संशोधन विरोधियों की विडम्बनापूर्ण मानसिकता और व्यवहार सत्यार्थप्रकाश की सर्वांगपूर्ण संशोधन योजना का अविचारित रूप से विरोध-वितण्डा करनेवाले लोगों की कई विरोधाभासी और विचित्र मानसिकताएं देखने में आती हैं १. कुछ लोगों का तो शोधकार्य अथवा दूरदर्शिता से कोई सरोकार नहीं है। साधारण हिन्दी न जानने वाला और अयोग्य से अयोग्य व्यक्ति भी इस विषय में इस प्रकार टिप्पणी व निर्णय देता है जैसे वह इसका विशेषज्ञ हो। यह केवल स्वयं को बहुत बड़ा विद्वान्, सबसे अधिक बुद्धिमान् सत्यार्थप्रकाश का सच्चा हितैषी मानकर स्वयम्भू उग्रवादी नेताओं की तरह अपने को प्रथम पंक्ति का भक्त प्रदर्शित करता है और शोधकत्तां विद्वानों को पिछड़ी पंका का वह इस तथ्य को भुला देता है कि शोधकर्ता विद्वान् यदि तुमसे अधिक योग्य नहीं, तो कम-से-कम बराबर का विद्वान् और निष्ठावान् ऋषिभक्त तो है ही। ऐसे लोगों ने सत्यार्थप्रकाश को इतना


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