देवता: पूषादयो देवताः ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: निचृदष्टिः स्वर: मध्यमः
पू॒षणं॑ वनि॒ष्ठुना॑न्धा॒हीन्त्स्स्थू॑लगु॒दया॑ स॒र्पान् गुदा॑भिर्वि॒ह्रुत॑ऽआ॒न्त्रैर॒पो व॒स्तिना॒ वृष॑णमा॒ण्डाभ्यां॒ वाजि॑न॒ꣳ शेपे॑न प्र॒जा रेत॑सा॒ चाषा॑न् पि॒त्तेन॑ प्रद॒रान् पा॒युना॑ कू॒श्माञ्छ॑कपि॒ण्डैः ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम (वनिष्ठुना) माँगने से (पूषणम्) पुष्टि करनेवाले को (स्थूलगुदया) स्थूल गुदेन्द्रिय के साथ वर्त्तमान (अन्धाहीन्) अन्धे साँपों को (गुदाभिः) गुदेन्द्रियों के साथ वर्त्तमान (विह्रुतः) विशेष कुटिल (सर्पान्) सर्पों को (आन्त्रैः) आँतों से (अपः) जलों को (वस्तिना) नाभि के नीचे के भाग से (वृषणम्) अण्डकोष को (आण्डाभ्याम्) आण्डों से (वाजिनम्) घोड़ा को (शेपेन) लिङ्ग और (रेतसा) वीर्य से (प्रजाम्) सन्तान को (पित्तेन) पित्त से (चाषान्) भोजनों को (प्रदरान्) पेट के अङ्गों को (पायुना) गुदेन्द्रिय से और (शकपिण्डैः) शक्तियों से (कूश्मान्) शिखावटों को निरन्तर लेओ ॥
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(पूषणम्) पुष्टिकरम् (वनिष्ठुना) याचनेन (अन्धाहीन्) अन्धान् सर्पान् (स्थूलगुदया) स्थूलया गुदया सह (सर्पान्) (गुदाभिः) (विह्रुतः) विशेषेण कुटिलान् (आन्त्रैः) उदरस्थैर्नाडीविशेषैः (अपः) जलानि (वस्तिना) नाभेरधोभागेन (वृषणम्) वीर्याधारम् (आण्डाभ्याम्) अण्डाकाराभ्यां वृषणावयवाभ्याम् (वाजिनम्) अश्वम् (शेपेन) लिङ्गेन (प्रजाम्) सन्ततिम् (रेतसा) वीर्येण (चाषान्) भक्षणानि (पित्तेन) (प्रदरान्) उदरावयवान् (पायुना) एतदिन्द्रियेण (कूश्मान्) शासनानि। अत्र कशधातोर्मक्प्रत्ययोऽन्येषामपीति दीर्घश्च। (शकपिण्डैः) शक्तैः संघातैः ॥
व्याख्यान:-
हे मनुष्यो! (वनिष्ठुना) याचन अर्थात् ग्रहण करने की इच्छा तथा नष्ट करने की प्रवृत्ति, याचू वर्षकर्मा - निषं. २.१६] इन दोनों ही प्रकार के कर्मों से (पूषणम्) पुष्टि करण की क्रिया सम्यक प्रकार से होती है। ध्यातव्य है कि शरीर एवं ब्रह्माण्ड दोनों में संयोग व वियोग किंवा सृजन वा विनाश दोनों प्रकार की प्रवृत्तियां साथ-२ चलती हैं। इनमें से एक के अभाव में ही सृष्टि प्रक्रिया समाप्त हो जायेगी। यहाँ महर्षि के 'याचनेन' पद के दोनों अर्थ ग्रहण करने चाहिए। यहाँ कोई 'याचनेन' पद से दोनों अर्थों का ग्रहण न करे, उसे 'वनिष्ठुना' पद 'वनु याचने' तथा 'बनु संभक्ती' इन दोनों धातुओं से व्युत्पन्न मानना चाहिए। तब भी ये दोनों अर्थ यहाँ निकलते हैं।
(स्थूलगुदया) स्थूल गुदा किंवा पुच्छभाग के द्वारा (अन्याहीन) अन्धे सर्प अपने क्रियाओं को करने में समर्थ होते हैं। हम अन्तर्जाल से जान सकते हैं कि जो सांप अंधे होते हैं, उनकी पूंछ मुख के समान मोटी होती है। वहीं गुदा भी होती है। उसी स्थूल गुदा से ही वह सांप अण्डा देता है। इसी कारण गुदा स्थूल होती है। Brahminy Blind Snake केवल मादा ही होती है। इनमें नर नहीं देखा गया है। इस कारण यह स्वयं ही बिना किसी नर के संयोग के गुदा से अण्डे देती है। इसी कारण कहा है कि स्थूल गुदा द्वारा अन्धे सर्प अपने कर्मों को करने में समर्थ होते हैं।
(गुदाभिः) गुदा या पुच्छभाग के द्वारा (विद्युत) विशेष रूप से टेढ़े मेढ़े गति करने वाले सर्प अपनी गत्यादि क्रियाओं को सम्यग्रूपेण करने में समर्थ होते हैं। यहाँ 'विद्रुतः' शब्द से शाकल सांप का ग्रहण किया जा सकता है। यह सर्प अपनी पूंछ वा गुदा भाग को मुख में दबाकर गोल घेरे के समान आकृति चारण करके पहिये के समान गति करता है। इस सर्प को अंग्रेजी भाषा में Hoop Snake कहते हैं। इस प्रकार के सर्प के विषय में वैज्ञानिकों को शंका है। ऐतरेय ब्राह्मण में भी एक स्थान पर इस प्रकार के सर्प की चर्चा है। आचार्य सायण ने भी अपने ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में इस सर्प की चर्चा की है। सम्भव है कि यह प्रजाति अब विलुप्त हो गयी हो। कई सर्प पूछ को हिलाकर अपने शिकार को आकर्षित करके उन्हें पकड़ लेते हैं। यहाँ भी गुदा वा पूंछ की भूमिका है। यहाँ गति के स्थान पर शिकार करने में भूमिका है। इस कारण गुदा के द्वारा इनके क्रियाशील रहने वा सम्यक क्रिया करने की चर्चा की गयी है।
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| Hoop Snake |
(सर्पान्) अन्य प्रकार के सांप (आन्त्रैः) उदरस्थ नाही (अगति जानाति प्राप्नोति येन तद् अन्त्रम् (उ.को. ४.१६५)) अर्थात् सर्प शरीर के ऊपर उभरे शल्कों के द्वारा ही गति करते हैं किंवा उसके शरीर में पाई जाने वाली हजारों मांसपेशियों रूपी नाहियों के द्वारा ही वह अपने सभी कर्मों को करने में समर्थ होता है।
(अप) किसी भी प्राणी के शरीर का एक महत्वपूर्ण एवं सबसे बड़ा घटक जल (वस्तिना) नाभि के निचले भाग में स्थित अंगों विशेषकर मूत्र उत्सर्जन तन्त्र के द्वारा ही शरीर में सम्यक् क्रियाएं कर पाता है। आयुर्विज्ञानी इस पर विशेष विचार कर सकते हैं कि बहुमूत्र वा मूत्रकृच्छ्र रोग में शरीर में विद्यमान जल अपने कर्मों को सम्यक रूप से कर पाने में कैसे असमर्थ होता है ?
(वृषणम्) नर प्राणी के अण्डकोष (आण्डाभ्याम्) अपने अवयव रूप अण्डों के सम्यक् क्रियाशील व बलवान् रहने पर ही शुक्र निर्माणादि कर्मों को सम्यक प्रकार से करने में समर्थ हो सकते हैं। उनमें दोष उपस्थित होने पर सम्पूर्ण अण्डकोष का कार्य सर्वथा बंद हो जाता है। (वाजिनम्) घोड़े, बेल आदि बलवान् पशु (शेपेन) अपने लिंग के द्वारा विशेष बल व गति से युक्त होते हैं। जिन घोड़ों को नपुंसक बना दिया जाता है, उनके बल व गति दोनों ही हीन हो जाते हैं। उनकी क्रियाशीलता में न्यूनता आ जाती है। यही अंग उनके बल-पौरुष का मुख्य आधार वा साधन है। इसी कारण इस अंग की चर्चा की गयी है।
(प्रजाम्) विभिन्न प्राणियों की सन्तान (रतसा) अपने पिता व माता के रेतः अर्थात् शुक्र व रजः के समर्थ होने पर ही सामर्थ्यवती होती है। शुक्र व रज के संयोग के बिना प्रजा का उत्पन्न होना ही असम्भव है और उनके निर्बल होने पर सन्तान भी निर्बल ही होगी।
(चाषान्) विभिन्न खाद्य पदार्थ (पित्तेन) आहार नाल में मिलने वाले पित्त आदि विभिन्न पाचक रसों के द्वारा ही अपना प्रभाव सम्यक् रूप से दर्शा सकते हैं। इसका तात्पर्य है कि इन पाचक रसों के अभाव में खाद्य पदार्थ न केवल शरीर को पोषण नहीं दे सकते हैं अपितु उस प्राणी को रोगी भी बना देते हैं।
(प्रदरान्) शरीर के अन्दर विशेषकर उदर में विद्यमान विभिन्न अवयव (पायुना) गुदा-इन्द्रिय के सम्यक कार्यशील रहने पर ही अपने अपने कार्य सम्यग्रूपेण करने में सक्षम होते हैं। जब मनुष्य व अन्य किसी भी प्राणी को कोष्ठबद्धता, अतिसार किंवा अर्श-भगन्दर जैसा कोई रोग हो जाये, तब उस मनुष्य के पाचनतंत्र के अन्य अवयव यथा आमाशय, गृहणी, दोनों प्रकार की आंतें, यकृत, प्लीहा व अग्नाशयादि अंग भी प्रभावित होते हैं अर्थात् वे भी सम्यग्रूपेण अपने-२ कार्य नहीं कर पाते हैं। (कुश्मान्) मस्तिष्क एवं इससे संचालित सभी अंग-प्रत्यंगों की नियन्त्रण व संचालन क्षमता
(शकपिण्डैः) मस्तिष्क एवं उससे संचालित अंग प्रत्यगों की शक्ति के सम्यक् संतुलन के द्वारा ही सम्यग्रूपेण कार्य कर पाती है। इस मंत्र में इसी अध्याय के प्रथम मंत्र से 'स्वाहा' पद की अनुवृत्ति समझनी चाहिए। इसी से हमने सम्यक क्रिया करने का भाव ग्रहण किया है।
भावार्थभाषाः -जिस-जिस से जो-जो काम सिद्ध हो, उस-उस अङ्ग वा पदार्थ से वह-वह काम सिद्ध करना चाहिये। भावार्थ- हे मनुष्यो! सृष्टि में संयोग-वियोग के गुण के द्वारा विभिन्न क्रियाओं व पदार्थों की रक्षा व पालन, अंधे सांपों का पुच्छ वा गुदा भाग से अंडे देना वा इसके सहयोग से शाकल सांप चलने का, सभी सांपों का मांसपेशियों के द्वारा होने वाले कर्मों, शरीर में मूत्र विसर्जन की सम्यक क्रिया के द्वारा शरीर में जल का सम्यक् कार्यशील रहना, अण्डकोषों में अवयवभूत अण्डों के स्वस्थ होने पर ही अण्डकोषों का समर्थ होना, पौरुष शक्ति सम्पन्न घोड़े आदि का बलवान् प्राणी का बलवान् रह पाना, शुक्र व रज की शुद्धता व स्वास्थ्य से ही स्वस्थ प्रजा का उत्पन्न होना, पित्त आदि पाचक रसों के द्वारा भोजन का पचना, मलादि विसर्जन की सम्यक् क्रिया के द्वारा शरीरांगों का स्वस्थ रह पाना एवं मस्तिष्कगत स्नायुओं के स्वस्थ व सबल रहने पर ही शरीर में अन्य अंगों का सम्यक् नियन्त्रण व संचालन आदि कर्म होते हैं, ऐसा तुम लोग जानो।


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