गीता एक उत्तम ग्रन्थ है। गीता के अनेक स्थलों पर वैदिक सत्यों को जिस गरमी और सरल भाषा में उद्द्घाटित किया है, वह देखते ही बनता है। अनेक देशी और विदेशी विद्वान् इस पर मुग्ध है।
निस्सन्देह गीता एक महनीय ग्रन्यरत्न है। पर हमें यह भूलना नहीं है कि वर्तमान में प्राप्त ७०० स्मोकी गीता के अनेक प्लांक और अध्याय तक सर्वथा वेद-विरुद्ध, बुद्धिविरुद्ध, ज्ञान-विज्ञान-विरुद्ध होने से श्रमान्य और त्याज्य हैं। एक ओर गीताकार के रचना-कौशल की यह अपूर्वता ! दूसरी घोर प्रक्षेप कारों की यह घिनौनी करतूत !! इस विचित्र स्थिति में गीता के विषय को लेकर पार्य विद्वानों में स्पष्टतः तीन वर्ग हो गये हैं। आर्य पण्डितों का एक वर्ग गीता को अपेक्षाकृत बहुत अधिक महत्व देता है। यह विद्वान् सम्पूर्ण गीता को ही वेदानुकूल मानते हैं। जहाँ-वहाँ गीता में इन्हें वेद-विरोधिता दीख पड़ती है, वहां भी अपने पूर्वाग्रह की रक्षा के लिए अर्थों में खींचतान करके गीता के माहात्म्य प्रवाह की धारा में ये विद्वान् सर्वथा बहे हुए, भति की ओर झुके दीख पड़ते हैं।
ये ही हैं जो 'वेद सप्ताह' तक में परम पवित्र वेदों के प्रवचन के स्थान पर गीता की कथा करते हैं। और यो प्रकारान्तर से वेद-बिरोध का पाप अपने मिर लेते हैं। गीता की बतिभक्ति या प्रन्धभक्ति में ये यहाँ तक भी बढ़ते हुए देसे गये हैं कि किसी की अन्त्येष्टि क्रिया के पश्चात् गरुड़ पुराण के पाठ की भांति ये गीता का पाठ करते धौर कराते हैं। पौराणिक जन को गीता-भक्ति और इन पायं पण्डितों की गीताभक्ति में कभी-कभी तो कोई भेदक रेखा सींचना कठिन हो जाता है।
दूसरे सेमे के कुछ थार्य विद्वान् है जो सम्पूर्ण गीता को प्रक्षिप्त, वेद विरोधी, महा अनिष्टकारी सबंधा त्याज्य एवं भग्राहा होने का डिण्डिम घोष करते हैं। यहाँ प्रथम वर्ग गीता को सम्पूर्णतया वैदिक सिद्ध करने के लिए अर्थों में खींच तान करता है वहाँ यह दूसरा वर्ग पूर्णतया अर्वदिक सिद्ध करने के लिए उसी राह को अपनाता है। बेचारी गीता के पीछे लट्ठ लेकर फिरना ही इनकी दृष्टि में सबसे बड़ी बेदभक्ति है। इनका वश चले तो ये एक-एक घर और एक-एक पुस्तकालय से गीता के ग्रन्थ को निकाल फेके और चौराहे पर उसकी होली बलाकर ही मनःशान्ति प्राप्त करें।
अतिवाद का यह दूसरा सिरा हैं। स्पष्ट है कि उक्त दोनों हीं वर्ग के विद्वानों की भावनाएँ अपने भाप में पवित्र होते हुए भी इनका परिणाम शुभ नहीं हो सकता । हमारे मत में सत्य इन दोनों के मध्य में ठहरता है। 'निरतिवाद' (अति बाद से परे मध्यम मार्ग) यहाँ भी हमें सत्य के दर्शन कराता है। हमें हर्ष है, कार्य विद्वानों में से अधिकांश इस तीसरी श्रेणी में हैं। इनकी मान्यता है :
१ - गीता विश्व साहित्य का एक अनुपम रत्न है, समुचित रूप में इसका समादर होना ही चाहिए। किन्तु गीता के मिथ्या माद्दाक्य की कहानियाँ प प्रेरक गपोड़ों से अधिक नहीं हैं। अतिस्तुति जहाँ सत्य की हत्या है कहाँ वास्तव में निन्दा करने का छिपा हुआ विचित्र प्रकार है। गीता की अति स्तुति से सच में गीता का गौरव नहीं बढ़ता। इतना ही नहीं, गीता का प्रति माहात्म्य वेदादि सत्यास्त्रों के प्रचार-प्रसार में निस्सन्देह बाधक तत्व है। विचारशील इस दोष के प्रति सजग रहते हैं। राजस्थान के राज्यपाल महामहिम डा० सम्पूर्णानन्द जो जब यह कहते हैं—"हमारे देश में गीता तथा उपनिषदों के पढ़ने का चलन एक फैशन-सा बन गया है गीता की गाया गाते रहकर वेदों की उपेक्षा करते जाना प्रावः उसी प्रकार है जैसे दूध की रक्षा की जाय और गौ को मुला दिया जाय। यदि वेद रहे तो उनमें से हजार गीता निकल सकती हैं किन्तु गीता से वेद की सृष्टि नहीं हो सकती" तो बढ़ एक बहुत बड़े सत्य को प्रकाशित करते हैं।
इस प्रकार प्रकट है कि गीता-जैसे महान् ग्रन्य की भी परम पवित्र वेद की तुलना में कोई मना नहीं। पर इतने मात्र से सीता की सत्यरा पोर उपयोगिता को न स्वीकारना और उससे लाभान्वित न होना परले तिरे का कठमुल्लापन ही माना जायेगा। आखिर हम वेदों में अतिरिक्त दर्शन, उपनिषद्, रहित मनुस्मृति प्रक्षेप रहित वाल्मीकीय रामायण, प्रक्षेप रहित महा भारत, सत्यार्थप्रकायादि ऋषि ग्रन्थों की गरिमा और उपयोगिता भी तो स्वीकार करते हैं। और इसने वेदों के गौरव को कोई हानि तो क्या- इनकी प्रामाण्यता की कसौटी वेद को रखने में बंद का गौरव ही बढ़ता है। फिर गीता के सम्बन्ध में ही संकीर्णता और अनुदारखा क्यों ? वेद की कसौटी पर गीता का जितना अम खरा उतरता है, वह हमे ग्राह्म है, जितना अंश वेद-प्रतिकूल है, वह अमान्य है। यों 'धाएं गीता' भारतीय जन-जीवन और विश्व मानव का हृदय हार बन कर भी वेद का गौरव बढ़ाने में ही सहायक हो सकती है।
(२) गीता महाभारत का प्रांग है जिस प्रकार महाभारत में प्रक्षिप्तांश की भरमार है उसी प्रकार गीता को भी प्रक्षेपकारों के हाथों प्रत्यधिक विकृत किया गया है। गीता में अनेक स्थल वेद विरोधी, परस्पर विरोधी और विभिन्न दार्शनिक उलझनों से पूर्ण है जो समय-समय पर विभिन्न मतवादी प्रक्षेपकारों की करामात के परिचायक हैं। इन प्रक्षिप्त मन की काई को हटाकर गीता का जो निर्मल जल के समान शुद्ध स्वरूप शेष रह जाता है वह वस्तुत: बड़ा ही कल्याणकारी एवं सद्धमंत्रापक है।
(३) महर्षि दयानन्द का गीता के सम्बन्ध में यही मत था। यह सत्य है कि महर्षि का प्रारम्भ में गीता के प्रति पौराणिकों के प्रकार का जो लगभग धन्य भक्ति का दृष्टिकोण था कालान्तर में उसमें पर्याप्त परिष्कार हुआ था। पर अन्त समय तक भी उनकी मान्यता गीता के सम्बन्ध में द्वितीय वर्ग की न्याई नहीं थी। उनकी निखरी हुई एवं मंजी हुई मान्यता को हम तृतीय वर्ग की हो कह सकते हैं।
'वार्य गीता' का प्राधार भी गही तृतीय वर्ग की विचारसरणि है।
सभी प्रकार के मतवाद, अन्धविश्वासमा और पापों के मूल अज्ञान के विरुद्ध दिव्य हृष्टि प्रदान कर सच में ऋषि दयानन्द ने विश्व मानव और मानवता का महान् उपकार किया है। मुझे लगता है कि यदि इस ज्ञान और विवेक की मशाल को हम छता से पकड़े रहें तो किसी भी विषय में हम स्वीकारात्मक विचार पद्धति को अपनाते हुए भी ठोकर खाने के खतरे से बचे रहेंगे।
स्वीकारात्मक विचार-पद्धति से मेरा आशय है कि बजाय इसके कि हम यह कहें 'हम गीता को नहीं मानते, गंगा को नहीं मानते, साधु या ब्राह्मण को नहीं मानते आदि २, हम यह कहें कि हम इनमें से प्रत्येक को मानते हैं हम राम को मानते हैं, कृष्ण को मानते हैं, हम गंगा और गीता को मानते हैं, हम व्रत, उपवास, तप, तीर्थ, दान, यज्ञ, साधु, ब्राह्मण, गो और शास्त्र आादि प्रत्येक को मानते हैं और सबसे अधिक मानते हैं क्योंकि हम सब प्रकार के प्रतिवाद मे परे इन सब को उनके शुद्ध और वास्तविक रूप में मानते हैं। हम इन सब तत्वों को इस रूप में मानते है जिससे व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और अखिल विश्व की हित-साधना हो। अज्ञान और अविवेक के हाथों में पड़कर वैदिक संस्कृति के ये आधार स्तम्भ हमारे उन्नायक ओर जीवन-पोषक होने के स्वान पर हमारे श्रचिन्तनीय पतन और पराभव के मूल कारण बन कर रह गये है। ज्ञान और विवेक का आश्रय लेते हुए उत्क्रान्ति के प्रवेश में हमें इन सत्य तत्वों को हो नहीं देना है।
तब पवित्र वेदों की पुण्यपताका हाथों में लेकर हमें अपने राम और कृष्ण को अपने गौरववान् महापुरुष के रूप में स्वीकृति देनी है। एतद् विषयक पूर्व और पश्चिम के सभी विद्वानों की प्रज्ञान और अविवेक पर आधारित भ्रान्त धारणाओं को चुनौती देते हुए हमें खुले गले से कहना है कि राम-कृष्णादि न ईश्वर थे, न अनैतिहासिक, वे हमारे महान् भारत के इतिहास-निर्माता प्रदर्श महापुरुष थे, हमारे यशस्वी पूर्वज थे। इसी प्रकार हमें कहना है- दान करना चाहिए, अवश्य करना चाहिए। किन्तु सत्पात्र को, कुपात्र को नहीं। 'श्राद्ध' करना चाहिए, अवश्य करना चाहिए - जीवित माता-पितादि पितरों का, मृतकों का नहीं (मृतक के लिए पितर संज्ञा ही सम्भव नहीं) तीर्थ सेवन करना चाहिए, अवश्य करना चाहिए-सत्य, सदाचरण एवं माता-पिता प्राचार्य आदि की सेवा एवं आज्ञा-पालन के रूप में स्थान विशेष का पर्यटन उपयोगी है, स्वास्थ्यवर्द्धक भी हो सकता है, किन्तु उससे किये हुए पापों का फल नहीं मिलेगा, यह गलत है।
साधु और ब्राह्मण हमारे राष्ट्र-जीवन की ध्वजा हैं। उन्हें हम मानते हैं। उनकी पूजा- अर्थात् सत्कार होना ही चाहिए । हाँ, सच्चे साधु और ब्राह्मण का ही, केवल नामधारी- देश और आदर्श को कलंकित करने वालों का नहीं। ठीक इसी क्रम में हमारा कहना है कि हम गीता को मानते हैं। गीता का जो अशा ऐतिहासिक सत्य है, शुद्ध है, वेदानुकूल है, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को सम्बल एवं शक्ति देने वाला है वह हमें स्वीकार्य है, गीता का जो अंश वेद विरुद्ध और मतवाद पर आधारित है वह त्याज्य एवं अग्राह्य है। असत् के त्याग व सत्य की स्वीकृति रूप यह स्वीकारात्मक या निर्माणात्मक मध्यम मार्ग ही राष्ट्रोन्नति और सामाजिक संक्रान्ति के अभियान को आगे बढ़ा सकेगा ।
युग पुरुष महर्षि दयानन्द ओर आर्यसमाज का नाम लेकर सिर्फ 'नम्ना' का पाठ करने वालों ने, न महर्षि दयानन्द को ही समझा और न आर्यसमाज के रूप में उनके वेदाधारित मानव निर्माण आन्दोलन या चरित्र निर्माण आन्दोलन को ही। ऐसा करते हुए इन सज्जनों की कोई दुर्भावना रही है, ऐसा मैं कभी भी नहीं मानता। ऋषि दयानन्द के महान मिशन में उनकी भक्ति और निष्ठा किसी से भी अधिक हो सकती है, पर अपने रूखे स्वभाव और शुष्क तर्कनाओं से इनके हाथों अनजाने में इस महान् मिशन की अपार हानि हुई है। इस प्रशुद्ध, चिन्तन प्रणाली और शुष्क कार्य पद्धति ने सबके सर्वाधिक हितैषी आर्य समाज को सब का सर्वाधिक विरोधी बनाकर खड़ा कर दिया है। यह ठीक है कि असत्य से समझौते का अर्थ साक्षात् मृत्यु का वरण है पर यह भी ठीक हैं कि सत्य जहाँ भी है वह शाश्वत और अमर है उसे मारने का प्रयत्न करने वाला स्वयं ही सर्वनाश की लम्बी-लम्बी बाँहों में समा जाता है। हम भूलें नहीं, सद् शान थोर सद्विवेक की यह कसौटी सर्वत्र ही हमारी रक्षा करती है। 1
'श्रार्थ गीता' के प्रणेता आदरणीय बन्धु श्री भवानीलाल जी भारतीय उच्च कोटि के आर्य विद्वान हैं। उनकी यह 'आर्य गोता' आर्य विद्वानों के बीच सेतु बन कर 'सत्य के ग्रहण और प्रसत्य के त्याग के लिए सदैव समुध चाहिए' इस ऋषि श्रादेश के अधिकाधिक पालन में सहायक होगी। अन्त में बड़े विश्वास पूर्ण शब्दों में हम यह कहना चाहेंगे कि गीता भारती वाड मय का अनुपम रत्न है। शत-सहस्र देशी और विदेशी विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। हमारा विश्वास है कि इस महान् कृतिका सशुद्ध रूम (आर्ष गीता) जहाँ गीता ग्रन्थ को और भी व्यापक बनायेगा नेद महिमा को बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध होगा।-[राजपालसिंह शास्त्री अध्यक्ष-मधुर प्रकाशन]
भारवि का 'किरातार्जुनीय' तथा माघ का 'शिशुपाल वघ' भी इसी पर भाषारित है। महाकवि श्रीहर्ष प्रणीत नैषध चरित' काव्य का मूल भी महाभारतीय 'नलोपाख्यान' ही है। इनके अतिरिक्त भी सस्कृत के उत्तरकालीन कवियों और नाटककारों ने अपनी-अपनी महनीय कृतियों का सृजन करते समय महाभारत के विविध प्रसङ्गों को ही अपने समक्ष रखा है। आकार की दृष्टि से तो महाभारत को एक विशाल सागर की उपमा देना ही ठीक होगा। भारतीय धर्म, दर्शन संस्कृति, परम्परा और चिन्तन की शताधिक धारायें इस महासागर में ग्राकर मिली हैं, इसमें यदि रत्न मिलते हैं तो घोघे भी । कौरव पाण्डवों के युद्ध की । मूल कथा के साथ-साथ इसमें नीति, आचार, धर्म, राजनीति तथा व्यवहार-नय का विवेचन करने वाले सहस्रों ऐसे प्रसंग उपस्थित किए गए हैं, जिनके कारण यदि इस ग्रन्थ को आर्य धर्म और सभ्यता का विश्वकोष भी कह दिया जाय तो कुछ भी अनुचित नहीं होगा। ऐसे ही उदात्त उपदेश प्रधान प्रसङ्गों में श्रीमद्भगवद्गीतां को भी गणना की जा सकती है, जो विश्व साहित्य को एक अनुपम वस्तु है ।
महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत अर्जुन विषाद की पृष्ठभूमि पर भगवद्गीता का कलेवर रचा गया है। आज तक इस ग्रन्थ का संसार की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और लाखों की संख्या में यह पुस्तक मुद्रित और प्रकाशित हो चुकी है। अनेक देशी, विदेशी विद्वानों ने इसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है और इसे आत्मो द्वार तथा विश्वकल्याण की कुञ्जी बताया है। भारत के अनेक क्रान्तिकारी शहीद मातृभूमि को स्वाधीन कराने के प्रयत्नों में जब फांसी के तख्तों पर मूले थे, तब उनके हाथों में गीता ही थी। आत्मा को भ्रमरता के रूप में देश के लिये सर्वस्व न्योछावर करने की भावना धौर बलिदान की प्रेरणा का उत्स गीता ही रही है।
२ - महाभारत में गीता की स्थिति
यद्यपि गीता महाभारत का ही एक भाग है, परन्तु इसे निर पेक्ष दृष्टि से ही अधिकतया पड़ा और समझा गया। आर्यसमाज में गीता के प्रसिद्ध समीक्षक पं० राजेन्द्रजी का यह कथन सत्य ही है कि अब तक गीता को एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में ही स्वीकार किया गया है। वस्तुतः वह महाभारत का मल्पायल्प धंदा है, महाभारत में उसकी क्या स्थिति है, इस सापेक्ष दृष्टि से अब तक उसका अध्ययन नहीं हुमा प्रस्तुत प्रसङ्ग में हमें इसी पर विचार करना है जैसा कि हम पहले कह चुके हैं महाभारत एक बृहद् काय ग्रन्थ है। उपाख्यान युक्त भारतसंहिता में एक लाख श्लोक हैं, ऐसी प्रसिद्ध मान्यता है। परन्तु उपाख्यानों को छोड़कर जो मूल भारत ग्रन्थ व्यास द्वारा बनाया गया उसमें केवल २४ हजार श्लोक ही थे यह भी इसी प्रसङ्ग में कहा गया है
चतुविशति साहस्त्री चक्रे भारत संहिता ।
उपास्पानंबिना तावद् भारते प्रोच्यते बुधः ॥
स्पष्ट है कि कृष्ण पायन प्रोक्त मूल ग्रन्थ इतना बड़ा नहीं था जितना कि वह प्राज उपलब्ध होता है। महाभारत के लगभग सभी प्राधुनिक प्रनुशीलन कर्ता इस बात से सहमत हैं कि समय-समय पर महाभारत में प्रक्षेप होते रहे हैं और यह निर्णय करना अत्यन्त है कि उसका कौनसा अंश मौलिक है और कौनसा कालान्तर में प्रक्षिप्त किया हुआ है। कृष्ण चरित्र के सुप्रसिद्ध ग्रालोचक बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय अपने गहन गम्भीर भारत अनुशीलन के प्राधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सम्प्रति उपलव्ध महाभारत में तोन तहें बिल्कुल स्पष्ट मिलती है। महाभारत का जो मौलिक भ्रंश है
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१ इद पातसहल तु लोकानां पुण्य कर्मणाम् । आादिपर्व १।१०१
उपास्यान: सह जेममा भारतमुत्तमम् ॥ भाविपर्व १।१०२
वह नितान्त उदार, विकार शून्य और प्रौढ़ कवित्व से पूर्ण है। दूसरा मंश तो स्पष्ट ही चतुर व्यक्तियों की कृति है जिसमें काव्य चातुरी और दार्शनिक व्याख्या का घटाटोप है महाभारत की तीसरी तह अनेक शताब्दियों से बनती चली आ रही है जिसे जो अच्छा लगा उसने वही मिला दिया। यह अंश सर्वथा ग्रप्रामाणिक है १। महाभारत के गम्भीर अध्येता चिन्तामणि विनायक वैद्य तथा २ 'गीता रहस्य' के लेखक लोकमान्य बाल गङ्गाधर तिलक भी ३ इसी निष्कर्ष पर पहुँचे है कि महाभारत में कालक्रम से अनेक हेर-फेर हुए है आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने भी महाभारत की श्लोक वृद्धि के अनेक प्रमाण देकर उसकी वृहत् काया को एक ऊँट के बोझे की उपमा दी है। महाभारत में प्रक्षेप विचार पर निम्न सामग्री अध्ययन करने योग्य है-इन पंक्तियों के लेखक द्वारा लिखा गया श्रीकृष्ण चरित का पाँचवाँ अध्याय-कृष्ण चरित के मौलिक उपादान ४ पं० राजेन्द्र लिखित गीता विमर्श ४ - महाभारत में प्रक्षेपण ६, स्वामी आत्मानन्द सरस्वती लिखित "वैदिक गोता" महाभारत में प्रक्षेप तथा सत्य प्रकाशन, द्वारा प्रकाशित 'शुद्ध महाभारत' एवं 'शुद्ध कृष्णायन' के सम्बन्धित अंश ।
महाभारत में गीता की स्थिति को लेकर कई मान्यतायें प्रचलित हैं। पं० राजेन्द्र जी जैसे विद्वानों की सम्मति में सम्पूर्ण गीता महा
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१. कृष्ण चरित बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय । अनुवादक जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, हिन्दी पुस्तक एजेन्सी कलकत्ता से प्रकाशित ।
२. महाभारत सीमामा
३ गीता रहस्य : धनुषादक - माधवराव सप्रे तृतीय मुद्रण १६१६ page ५२४ |
४ा एकादणसमुल्ला |
४ प्रकाशक-- पायंसाहित्य मण्डल, भजमेर ।
६. वेदमन्दिर प्रकाशन- मत रोलो
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