वासन्ती (आषाढ़ी) नवसस्येष्टि (होलकोत्सव) फाल्गुन शुदि पूर्णिमा
दुर्मिल सवैया
ऋतुराज वसन्त विराज रहा, मनभावन है छवि छाज रहा। बन-बागन में कुसुमावलि की, सुखदा सुषमा वह साज रहा ॥ यव गेहुँ चना सरसों अलसी, सब ही पक आज अनाज रहा। यह देख मनोहर दृश्य सभी, अति हर्षित होय समाज रहा ॥ उपलक्ष्य इसे करके जग में, शुभ होलक-उत्सव हैं करते। अधपक्व, यवाहुति दे करके, सब व्योम सुगन्ध से हैं भरते ॥ सब सज्जन-वृन्द अतः जग में, नव सस्य-सुयज्ञ इसे कहते। कुल-वैर-विसार स्नेह-सने, हुलसे सब आपस में मिलते ॥ चर पान इलायचि भेंट करें, निज मित्र-समादर हैं करते। हृदयंगम गायन-वादन से, मुद से सब हैं मन को भरते ॥
-पं० सिद्धगोपाल कविरत्न काव्यतीर्थकृत
ऋतुराज वसन्त का आविर्भाव हो चुका है। लगभग सवा मास व्यतीत हुआ है, जब उसकी अगवानी का उत्सव वसन्त पञ्चमी पर्व मनाया गया था, तब से अब प्रकृति की छटा में बहुत परिवर्तन आ गया है। उसका रूप दिनों दिन रम्य से रम्यतर होता जा रहा है। आज वसन्त श्री अपने यौवन पर है। वनोपवन और नगर-ग्राम में सर्वत्र उसका नयनाभिराम वरविकास मन को मोद से भर रहा है, चराचर जगत् ने इसी आनन्द से प्रफुल्लित होकर नवीन बाना बदल लिया है। वनोपवनों में नवविकसित कुसुमों की बहार है तो खेतों में परिपक्व यव और गोधूम के शस्यों की सुनहरी सरिता तरंगित हो रही है। पशुओं ने नवीन रोमावली के चित्र विचित्र अभिनव परिधान धारण किये हैं। पक्षिसमूह ने भी पुराने पर झाड़कर नूतन पक्षावली का परिच्छद पहना है। उनकी चारु चहचहाहट में सुन्दर सरसता का संचार हो गया है। कलकण्ठा कोकिला की कूक, मयूर की केका, तरुण तित्तिरि (तीतर) का तारस्वर तथा कलकूजन, कपोत का कलरव वायुमण्डल को मधुरिमा से परिपूर्ण कर रहा है। मलयाद्रि का धीर सुगन्ध समीर अठखेलियाँ करता चल रहा है। ऐसे उदार और मनोहर सुसमय में आषाढ़ी सस्य के शुभागमन की शुभाशा भारत की प्रधान जनता और सबके अन्नदाता कृषक समूह के मन में मोद भर देती है।
आषाढ़ी-शस्य (साढ़ी) की फसल भारत की सब फसलों में सर्वश्रेष्ठ है। वह सब फसलों की सिरमौर गिनी जाती है। भारत में अकाल पड़ने पर साढ़ी बहुत ही कम मारी जाती है, वह केवल भूखे भारत का ही पेट नहीं भरती, प्रत्युत पूर्व समय में सभी धन-धान्य समृद्ध यूरोप आदि विदेशों को भी करोड़ों मन अन्न पहुँचाती थी। ऐसे जीवनाधार सर्वपालकं सस्य की अवाई पर कृषकों का मन, जिन्होंने आषाढ़ से लेकर वर्षाभर कड़ी जुताई करके अपने खेतों की तैयारी की थी, आनन्द से क्यों न बल्लियों उछलने लगें।
इस अवसर पर उनका आनन्दोत्सव और रंगरेलियाँ मनाना स्वाभाविक ही है। यह भारतवर्ष की ही विशेषता नहीं, प्रत्युत अन्य देशों में भी नवशस्य के प्रवेश पर पर्व और उत्सव मनाये जाते हैं। ऋक्षराज रूस के हिमाच्छादित देश में फसल काटने पर कृषक अपने इष्ट-मित्रों को पक्वात्र से परितृप्त करके उत्सव मनाते हैं। भुवन-भास्कर की भूमि जापान में भी, जब धानों की फसल कटती है, तब धान की सुरा और चावलों की रोटियों के सहभोज होते हैं और गानवाद्यपूर्वक पर्व मनाया जाता है। यूरोप में सेण्ट वेलण्टाइन (St. Valentine's day ) का दिन और इंग्लैण्ड में मे पोल (May Pole) के उत्सव ग्रामीण कृषक जनता में ही जाग्रत हैं। उनकी सीधी-सादी सरल जीवन प्रणाली में ही उनका आदर होता है। विविध प्रकार के उद्योग-धन्धों में फँसे हुए, जीवन की घुड़दौड़ में रात-दिन व्यस्त, स्वार्थान्ध नागरिकों में इस प्रकार के उत्सवों के लिए उत्साह ही उत्पन्न नहीं होता।
किन्तु भारतीय उत्सव केवल आमोद-प्रमोद का ही साधन नहीं हैं। धर्मपरायण भारतीयों की प्रत्येक बात में धार्मिकता और वैज्ञानिकता की पुट लगी हुई है। जिस प्रकार वर्षाऋतु के चातुर्मास्य (चौमासे) के पश्चात् विकृत गृहों के परिमार्जन (लिपाई-पुताई) के लिए तथा शारद नवऋतु के प्रवेश पर, नवाविर्भूत रोगों के प्रतीकारार्थ होम यज्ञ द्वारा वायुमण्डल की संशुद्धि, नवप्रविष्ट शीतकाल के निवारक परिधानों के परिवर्तन और नवप्राप्त श्रावणी सस्य के नवीन अन्न, धानों की लाजाओं के होमने के लिए शारदीय नवसस्येष्टि (दीपावली) का पर्व नियत है, उसी प्रकार शीतकालीन वर्षा (मुहासा) के अनन्तर-मुहासा भी एक प्रकार का चौमासा ही समझा जाता है। आवासों की परिष्कृति के लिए तथा वसन्त की नई ऋतु बदलने पर अस्वास्थ्य के प्रतिरोधार्थ हवन से वातावरण के संस्कारार्थ, नवागत ग्रीष्मोचित हलके-फुलके श्वेत वस्त्रों के बदलने और नई आई हुई आषाढ़ी फसल के यवों (जौओं) से देवयज्ञ करने के लिए आषाढ़ी नवशस्येष्टि अभिप्रेत है।
(इसके प्रमाण श्रावणी नवान्त्रेष्टि (दीपावली) के प्रकरण में देखिए।) संस्कृत में अग्नि में भूने हुए अर्द्ध-पक्व अन्न को 'होलक' कहते हैं। इस विषय में निम्नलिखित प्रमाण द्रष्टव्य हैं
'तृणाग्निभृष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलकः । होला इति हिन्दी भाषा ।
' अर्द्धपक्वशमी धान्यैस्तृणभृष्टैश्च होलकः । (शब्दकल्पद्रुमकोश:)
होलकोऽल्पानिलो, मेदःकफदोषश्रमापहः ॥
भवेदथो होलको यस्य स तत्तद्गुणो भवेत् ।(भावप्रकाश)
अर्थ-तिनकों की अग्नि में भूने हुए अधपके शमीधान्य (फलीवाले अन्न) को 'होलक' (होला) कहते हैं। होला स्वल्पवात है और मेद (चर्बी), कफ और श्रम (थकान) के दोषों को शमन करता है। जिस जिस अन्न का होला होता है, उसमें उसी अन्न का गुण होता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि आदि में तृणाग्नि में भूने आषाढ़ी के प्रत्येक अत्र के लिए'होलक' शब्द प्रयुक्त होता था, किन्तु पीछे से वह शमीधान्यों (फलीयुक्त) के होलों के लिए ही रूढ़ हो गया था। हिन्दी का प्रचलित 'होला' शब्द इसी का अपभ्रंश है। आषाढ़ी नवान्नेष्टि में नवागत अधपके चवों के होम के कारण उसको 'होलकोत्सव' कहते थे। उसमें होलक या होले हुतशेष रूप से भक्षण किये जाते थे और उनके सत्तू (सक्तु) का प्रयोग भी इसी पर्व में प्रारम्भ होता था। सत्तू ग्रीष्म का विशेष आहार है और उसके पित्तादि दोषों को शमन करता है। जैसाकि कई अन्य पर्वों के वर्णन में बतलाया जा चुका है, भारतीयों के विशेष-विशेष पर्व विशेष-विशेष आहारों के प्रयोगों के आरम्भ के लिए निर्दिष्ट हैं। उसी प्रकार यह होलकोत्सव होलों और उनके बने हुए सत्तुओं के उपयोग के लिए उद्दिष्ट है।
वैदिक धर्मावलम्बियों में प्राचीन काल से यह प्रथा चली आती है कि नवीन वस्तुओं को देवों को समर्पण किये बिना अपने उपयोग में नहीं लाया जाता है। जिस प्रकार मानव देवों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार भौतिक देवों में अग्नि सर्वप्रधान है। वह विद्युत् रूप से ब्रह्माण्ड में व्यापक है और भूतल पर साधारण अनल, जल में बड़वानल, तेज में प्रभानल, वायु में प्राणापानानल और सर्व प्राणियों में वैश्वानर के रूप में वास करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्णजी कहते हैं-----
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥
अर्थ—मैं प्राणियों में वैश्वानररूप होकर देह के आश्रय रहता हूँ और प्राणापान वायु के साथ मिलकर चार प्रकार के (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) अन्न को पकाता हूँ।
देवयज्ञ का प्रधान साधन भौतिक अग्रि ही है, क्योंकि वह सब देवों का दूत है। वेद में उसको अनेक वार 'देवदूत' कहा गया है। वही सब देवों को होमे हुए द्रव्य पहुँचाता है, इसलिए नवागत अत्र सर्वप्रथम अग्नि के ही अर्पण किये जाते हैं और तदनन्तर मानवदेव ब्राह्मणों को भेंट करके अपने उपयोग में लाये जाते हैं।
श्रुति कहती है—'केवलाघो भवति केवलादी।'
अर्थ- अकेला खानेवाला केवल पाप खानेवाला है।
मनु महाराज इसी का समर्थन इस प्रकार करते हैं —
अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् ।
यज्ञशिष्टाशिनं ह्येतत् सतामन्नं विधीयते ॥
अर्थ- जो पुरुष केवल अपने लिए भोजन पकाता है, वह पाप भक्षण करता है। यज्ञशेष वा हुतशेष ही सज्जनों का (भोक्तव्य) अन्न विधान किया गया है।
इसलिए अब तक भी जनसाधारण में यह प्रथा प्रचलित है कि
जब तक नवीन अन्नों वा फलों को पूजा के प्रयोग में न लाया जाए, तब तक उनको लोकभाषा में 'अछूत वा छूते' कहते हैं।
तदनुसार ही आषाढ़ी की नवीन फसल आने पर नये यवों को होमने के लिए इस अवसर पर प्राचीन काल में नवशस्येष्टि, होलकेष्टि वा होलकोत्सव होता था।
जहाँ प्रत्येक गृह में पृथक्-पृथक् नवशस्येष्टि की जाती थी, वहाँ प्रत्येक ग्राम में सामूहिक रूप से सम्मिलित नवशस्येष्टि भी होती थी और उसमें सब लोग अपने-अपने घरों से यवादि आहवनीय पदार्थ लाकर चढ़ाते थे। वर्त्तमान समय में काष्ठ और कण्डों (उपलों) के ढेरों. के रूप में होली जलाने की प्रथा प्राचीन सामूहिक नवशस्येष्टियों का विकृत रूप है। उसमें आहवनीय सामग्री का हवन तो कुटिल काल की गति में लुप्त हो गया है और केवल काष्ठ तथा अमेध्य द्रव्यों का जलाना और यवों की बालों का भूनना रूढ़ि वा लकीर के रूप में रह गया है।
इस आषाढ़ी नवात्रेष्टि का उपर्युक्त देवयज्ञ द्वारा देवपूजन विद्वत् समादर, वायु-संशोधन, गृह-परिमार्जन तथा नवीन वस्त्र परिवर्तन धार्मिक और वैज्ञानिक स्वरूप है। इस अवसर पर गान-वाद्य द्वारा आमोद और हर्षोल्लास तथा इष्टमित्रों का सप्रेम सम्मेलन उसके आनुषङ्गिक उपयोगी लौकिक अङ्ग हैं। जो समय हमारे लिए वर्षभर तक अन्न प्रदान करते रहने की व्यवस्था करता है, उसको मंगलमूल वा सौभाग्यसूचक समझकर उसपर परमेश्वर के गुणानुवादपूर्वक आनन्दोत्सव मनाना स्वाभाविक ही है। परस्पर प्रेम परिवर्धन का भी यह बड़ा उपयुक्त अवसर है।
इस पर्व पर सब लोग ऊँच-नीच, छुटाई-बड़ाई का विचार छोड़कर स्वच्छ हृदय से आपस में मिलते हैं। यदि किसी कारणवश वर्ष में वैर विरोध ने मनों को अपना आवास बना लिया है तो उनको अग्निदेव की साक्षी में भस्मसात् कर दिया जाता है, अत: होली प्रेमप्रसार का पर्व है। यह दो फटे हृदयों को मिलाती है, एकता का पाठ पढ़ाती है, यह वर्षभर प्रेम में तन्मय हो जाने का सबसे उत्तम साधक है। आज घर-घर मेल मिलाप है, घर-घर वर्षभर के वैरी एक-दूसरे को गले लगाकर फिर भाई-भाई बन जाते हैं। आज बालवृद्ध वनिताओं की उछाहभरी उमंगें कलह-कालुष्य और वैमनस्य के विकारों का विलोप कर देती हैं। होली के शुभ अवसर पर भारत में हर्ष की कल्लोल-मालाएँ उठती हैं। यह पर्व प्रत्येक हिन्दू के घर भारतवर्ष में इस सिरे से उस सिरे तक समान रूप में मनाया जाता है।
होली का पवित्र पर्व वस्तुत: आनन्द और उल्लास का महोत्सव था, किन्तु काल की कराल गति से आजकल उसमें भी कदाचार और अभद्र दृश्य प्रवेश पा गये हैं। आजकल जिस प्रकार से हमारे हिन्दूभाई होली मनाते हैं, उसको देखकर क्या कोई भी बुद्धिमान, धार्मिक पुरुष यह मान सकता है कि यह होली जिसको देखकर शिक्षित और सज्जन विदेशी लोग हमें नीमवहशी (अर्द्ध बर्बर) का खिताब देते हैं, हमारे उन्हीं पूर्वपुरुषों की चलाई हुई हो सकती है कि जिनकी विद्या और बुद्धि को देखकर सारा संसार विस्मित है और जिनके रचित ग्रन्थों और शिल्प-निर्माणों को देखकर क्या स्वदेशी और क्या विदेशी सभी सहस्र मुख से उनकी उच्च सभ्यता की प्रशंसा करते हैं। क्या आजकल होली में गाली-गलौज या बकवास और अश्लील शब्दों का उच्चारण हमारे उन ऋषियों और ब्राह्मणों का चलाया हो सकता है, जिनके सिद्धान्त में मन में भी ऐसे अश्लील और जघन्य विचारों का सोचना तक पाप समझा जाता है? क्या आजकल की होली में बड़े भाइयों की स्त्रियों वा भाभियों से होली खेलना वा दूसरे शब्दों में कुचेष्टाएँ करना उन आर्यपुरुषों का चलाया हो सकता है, जो भाभियों को माता के समान समझते थे और उनको प्रणाम करते हुए भी उनके चरणों को छोड़ कर उनके अन्य अंगों पर दृष्टिपात तक करना पाप समझते थे।
देखिए, जिस समय श्रीमती सीता को रावण चुरा ले गया था, तब वे विलाप करती हुई अपने आभूषण और चीर मार्ग में फेंकती गई थीं। ये आभूषण एक पोटली में बन्धे हुए सुग्रीव के महामन्त्री हनुमान् ने उठाये थे।
वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड सर्ग ५४, श्लोक ९३-९४ के अनुसार 'एक पर्वत पर बैठे हुए पाँच वानरों को देख सीता ने अपना रेशमी दुपट्टा और मांगलिक आभूषण उतार दुपट्टे में बाँध उन वानरों के मध्य इस आशा से फेंक दिये कि सम्भव है, ये राम को मेरा वृत्तान्त बता सकें। जल्दी के कारण रावण सीता के इस कार्य को देख नहीं सका।'
किष्किन्धा काण्ड सर्ग ६, श्लोक १२५ से १३२ तक सुग्रीव द्वारा दुपट्टे में बँधे हुए आभूषणों का जब वर्णन किया गया और राम के आग्रह पर सुग्रीव उन आभूषणों को दिखाने के लिए राम के पास लाया, तब शोकसंतप्त, रघुकुलनायक, मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी अपने प्रिय भ्राता श्री लक्ष्मणजी से पूछते हैं कि भ्राता, देखो तो ये चीर और आभूषण तुम्हारी भाभी के ही हैं ? श्री लक्ष्मण यति के उत्तर को आदिकवि श्री वाल्मीकि ऋषि यों वर्णन करते हैं
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।
नूपुरे तु विजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥
- वा० रामायण कि० काण्ड, सर्ग ६, श्लोक १३४ आजकल भाभियों से होली खेलने के रसिया क्या उन्हीं मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लक्ष्मण यति के कुल से होने का अभिमान कर सकते हैं कि जिनका कथन ऊपर उद्धृत किया गया है? फिर आजकल होली में जो आर्यसन्तान मद्य, भाँग और दूधिया पीकर उन्मत्त होते हैं (दूध-जैसे अमृत समान पदार्थ को भांग जैसे मादक और बुद्धिनाशक द्रव्य में मिलाकर अनर्थ करते हैं) बुद्धि जैसे उत्तम और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के देनेवाले पदार्थ का नाश करके ईश्वर के अपराधी बनते हैं। उनसे बढ़कर और कौन पाप का भागी बन सकता है ? बुद्धि सा बहुमूल्य और श्रेष्ठ पदार्थ इस संसार में कोई दूसरा नहीं है। यह ईश्वर की देनों में से सबसे उत्तम देन है। बिना बुद्धि के लौकिक और पारमार्थिक कोई भी काम सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिए बुद्धि की शुद्धि के लिए प्रत्येक वैदिकधर्मी गायत्री में ईश्वर से नित्य प्रार्थना करते हैं कि 'धियो यो नः प्रचोदयात् ।' अर्थात् वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे। उस बुद्धि को होली में नशा पीकर भ्रष्ट और मलीन करनेवाले क्या कभी ऋषि मुनियों के माननेवाले और धर्मानुयायी हो सकते हैं, जिनके अग्रगन्ता महर्षि मनु ने अपने धर्मशास्त्र में मद्यपों के लिए यह प्रायश्चित्त बतलाया —
सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत् ।
तथा स काये निर्दग्धे मुच्यते किल्बिषात्ततः ॥
अर्थ-मद्य पीनेवाला पापी अग्नि से तपाई हुई मद्य पीकर स्वशरीर को नष्ट कर देवे।
जिस मद्यपान के लिए कठिन प्रायश्चित्त मनु भगवान् ने रक्खा है और उसकी महापातकों में गणना की है, आप समझ सकते हैं कि उससे बढ़कर कौन महापाप हो सकता है? कोई भंगड़ वा भंग पीनेवाला शायद यह शंका करे कि मनु महाराज ने तो स्वनिषेध वाक्य में केवल सुरा-मद्य शब्द का प्रयोग किया है, इसमें भाँग आदि का निषेध कहाँ से आ गया? ऐसी शंका करनेवाले महाशयों को सुश्रुताचार्य का यह वाक्य भी सुन रखना चाहिए-'बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारि तदुच्यते।', अर्थात् जो पदार्थ बुद्धि का नाश करे उसको मदकारि वा 'मद्य' कहते हैं। आप स्वयं सोच सकते हैं कि भाँग आदि जितने भी नशे हैं उनमें क्या कोई बुद्धि को बढ़ाता भी है ? यदि आप विचारेंगे और यूरोप आदि विदेश के डॉक्टरों और स्वदेशी वैद्यों तथा हकीमों की इस विषय में लिखित सम्मतियाँ देखेंगे तो आपको विदित होगा कि सब नशे न केवल बुद्धि का ह्रास ही करते हैं, किन्तु शरीर आदि का भी नाश कर डालते हैं।
कैसे खेद और शोक की बात है कि जिन लोगों का मद्य और मांस जातीय आहार समझा जाता था, वे तो उसको छोड़ते जाते हैं और ऋषि सन्तान उनका ग्रहण करती जाती है और फिर होली जैसे पवित्र पर्वों और उत्सवों को उनके प्रयोग से कलंकित और दूषित कर रही है। क्या हमारी होली की राक्षसीय लीलाओं को देखकर कोई भी विश्वास कर सकता है कि हम उन्हीं ऋषियों की सन्तान हैं, जिनकी विद्वत्ता, शूरवीरता, धर्मपरायणता का लोहा संसार मान रहा है। आजकल होली के अवसर पर ग्रामों में जो नवाब बनाकर निकाला जाता है क्या इससे बढ़कर भी कोई अमांगल्य और अभद्र दृश्य हो सकता है ? हमारे धर्मपरायण राम, कृष्ण, भीष्म, द्रोण, युधिष्ठिर आदि पूर्वपुरुषों की आत्माएँ हमारे इन दुश्चरित्रों को देखकर क्या कहती होंगी?
यह तो कुपढ़ों और निपट गँवारों अथवा अर्द्ध-शिक्षितों की लीलाएँ हुई। शिक्षित और सभ्यम्मन्य भी हिन्दुत्व और हिन्दू त्यौहारों की रक्षा की दुहाई देते हुए होली में वे हुल्लड़ मचाते हैं कि जिनको देखकर लज्जा को भी लज्जा आती है। वे अपने इष्ट-मित्रों, साथी-संगियों के वर वस्त्रों को लाल रंग से लथपथ करते उनके मुँह पर गुलाल लपेट कर तथा आँखों में अबीर झाँककर उनकी वह दुर्गत बनाते हैं कि उसको देखकर दया आती है। अब यह हुड़दंगापन नवीन सभ्यता के प्रचार से कुछ कम हो चला है, किन्तु दस-बीस वर्ष पूर्व तो हिन्दुओं के तीर्थस्थान-मथुरा, काशी, हरिद्वार आदि नगरों में तो किसी भलेमानस पथिक को अपने बहुमूल्य श्वेत वस्त्र लाल रंग से अछूते लेकर निकलना असम्भव था।
इस आधुनिक रंग बखेरने और गुलाल उड़ाने की कुप्रथा का मूल प्राचीन काल में यह प्रतीत होता है कि पुराने भारतवासी इस आमोद प्रमोद के पर्व पर कुसुमसार (इत्र) आदि सुगन्धित द्रव्यों को परस्पर उपहाररूप से व्यवहार में लाते थे। सम्भव है कि सम्मिलित मित्रमण्डली पर गुलाबपाश वा पिचकारियों द्वारा गुलाब जल छिड़का जाता हो और यतः इस वसन्तऋतु के अवसर पर सब वसन्ती बाना वा पीताम्बर धारण किये होते थे, इसलिए अनुमान होता है कि केशर घुले हुए गुलाब जल का छिड़काव होता हो। उससे पीतवस्त्रों के बिगड़ने की कुछ आशंका न होती होगी। आजकल के विकृत विदेशी लाल रंग का यही मौलिक शुद्ध स्वरूप अनुमान होता है। गुलाल का मूल भी पुष्प का पराग वा पुष्पों की पत्तियों का चूर्ण होगा, जो पटवासक के रूप में काम में लाया जाता होगा। यही बिगड़ कर आजकल लाल पुड़िया से चावलों के चूर्ण (आटे) के रूप में गुलाल बन गया है और आँखों को अन्धा करने और मानवमुखों को लाल वानरमुखाकृति कर देने के अतिरिक्त उसका कुछ भी उपयोग नहीं है। ये सारी अमर्यादित रंगरेलियाँ भारतीयों के उस विलासिता और कामक्रीड़ा के युग में प्रचलित हुई थीं, जबकि लक्ष्मी के लालों को इन्द्रियारामता और विषयवासना की तृप्ति के अतिरिक्त और कुछ न सूझता था। इस काम केलि के काल में ही वसन्त और होलिका के पवित्र प्रमोदपूर्ण ऋतूत्सव मदनोत्सव के रूप में परिणत हुए थे। जिनका विस्तृत वर्णन कविकुलगुरु कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तल' और 'मालविकाग्निमित्र' तथा श्रीहर्ष की 'रत्नावली' में विद्यमान है। श्रीकृष्ण चरित्र को कलंकित करनेवाले ब्रजमण्डल की उच्छृङ्खल होली का सूत्रपात भी इसी कामकौतुकप्रियता के कलुषित काल में हुआ था, जो भारत के आशावलम्बन सैकड़ों युवा-युवतियों को पापपंक में निमग्न करके उनके सर्वनाश का हेतु होती है। होलिकोत्सव की इन्हीं पाशविक-वृत्तियों वा अविद्यादानवी के विलासों के वश वह विद्याशून्य शूद्रों का पर्व कहलाता था वा सम्भव है कि आमोद-प्रमोद की अपेक्षाकृत मन की नीचवृत्तियों के विकास के कारण ही वह आर्यपर्वावली में चातुर्वर्ण्य में अवरिष्ठ समझे जानेवाले शूद्र का स्थानी शूद्रपर्व माना जाता हो।
प्राचीनकाल में होलिकोत्सव के आनन्दावसर पर शिक्षाप्रद अभिनयों के खेलने की भी रीति प्रचलित थी। भारत में दृश्यकाव्य वा अभिनयकला का प्रचार स्मरणातीत समय से चला आता है और उसने संस्कृत साहित्य के मध्यकालीन अभ्युदय काल में बहुत उन्नति की थी। यह कला मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा प्रदान का अमोघ साधन है, किन्तु भारत के अविद्यान्धकार के प्रसार के साथ-साथ उस कला की भी अवनति होती गई और वह इस समय केवल पाशविक वृत्तियों की उत्तेजना का साधन रह गई है। आजकल होली के अवसर पर भद्दे स्वांग निकाले जाते हैं, वे इन्हीं अभिनयों के विकृत रूप हैं। यदि उनको सुधारकर शुद्धस्वरूप में पुनः प्रचलित किया जाए तो उनसे जनसाधारण में उत्तम आदर्श के साथ-साथ सुरुचि और सुभाषा-प्रसार का अच्छा काम लिया जा सकता है। बङ्गप्रदेश में परिमार्जित बङ्गभाषा का प्रचार वहाँ सुललित पदों में अभिनीत नाटकों और यात्राओं द्वारा ही हुआ था। परम्परागत पुरानी उपादेय प्रथाओं वा संस्थाओं का लोप न करके उनको परिष्कृत रूप में प्रचलित करने से जनता का प्रचुर उपकार हो सकता है। सर्वसुधारों के समर्थक आर्यपुरुषों का ही यह भी कर्त्तव्य है कि वे होलिकोत्सव का उसके आनुषङ्गिक अङ्गोंसहित समुचित सुधार करके उसको परिमार्जित और पवित्र रूप से जनता में पुनः प्रचारित करें। प्रत्येक आर्यगृह में इस अवसर पर इस पद्धति के विधानानुसार करें। पौर्णमासेष्टि और नवान्नेष्टि होनी चाहिए और प्रत्येक आर्यपुरुष को वैर-विरोध विसारकर सब आर्यभाइयों से प्रीतिपूर्वक मिलकर प्रेम बढ़ाना चाहिए। इस समय संगीतमण्डलियों द्वारा श्रवणसुखद गीतवाद्य से हर्षोल्लास के प्रकाश और ईशगुणानुवाद से आत्मा के उत्कर्ष का आयोजन होना चाहिए।
पौराणिकों में होलिकोत्सव के विषय में यह कथा प्रचलित है कि इस अवसर पर अत्याचारी दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने अपने परमेशप्रेमी पुत्र प्रह्लाद के सजीव दाह के लिए अपनी मायाविनी भगिनी होलिका द्वारा चिता रचवाई थी। उसने सोचा था कि होलिका अपनी राक्षसी माया (हथकण्डों) से प्रह्लाद को जलवाकर आप चिता में से बचकर सुरक्षित निकल आएगी, किन्तु परमात्मा की असीम भक्तवत्सलता के कारण भक्तशिरोमणि सत्याग्रही प्रह्लाद का तो बाल भी बाँका न हुआ और राक्षसी होलिका ही उस चिता में भस्मसात् हो गई। उसी दिन से होलिका राक्षसी के दाह और भक्त प्रह्लाद के सुरक्षित रहने के उपलक्ष्य में होलिकोत्सव प्रचलित हुआ। इस पौराणिक दन्तकथा से भी हम सत्य-दृढ़ता वा सत्याग्रह की शिक्षा ले सकते हैं। संकटों का सागर उमड़े, आपत्तियों की आँधी चले, लोकनिन्दा की नदियाँ बहा दें, चाहे स्तुति के पहाड़ खड़े करें, परन्तु एक सत्यव्रती का कर्त्तव्य है कि वह अपने निश्चित पथ से कभी विचलित न हो। यदि पिता वा अन्य गुरुजन "भी " सत्यपथ से हटाकर कुमार्ग की ओर ले जाएँ तो उनकी बात भी न माननी चाहिए।
होली हमें सत्याग्रह के विजय का भी स्मरण दिलाती है। उसके द्वारा जहाँ जनता में नई उमंग, अपूर्व आशा एवं असीम आह्लाद का आविर्भाव होता है, वहाँ उससे धार्मिक और राष्ट्रीय आदर्शों की ज्वलन्त जागृति भी होती है।
पद्धति
यतः होली का पर्व भी दिवाली के समान मुहासे की वृष्टि के पश्चात् गृहों के परिमार्जन तथा संस्कार के लिए भी उद्दिष्ट है, इसलिए स्वसुभीते के अनुसार फाल्गुन शुदि चतुर्दशी की सायंकाल तक यह सब कृत्य समाप्त हो जाना चाहिए। फाल्गुन पूर्णिमा की प्रातः सामान्य पद्धति में प्रदर्शित प्रकारानुसार नव पीताम्बर वा श्वेताम्बर परिधान पूर्वक सामान्य होम करके नवशस्येष्टि के निम्नलिखित मन्त्रों से स्थालीपाक की ३१ विशेष आहुतियों दी जाएँ। स्थालीपाक नवागत आषाढ़ी शस्य के गोधूम वा यवचूर्ण (आटे) से बनाया गया मोहनभोग (हलुआ) हो, हवन के अन्य साकल्य में नवागत यव (जौ) विशेषता से मिलाये जाएँ।
यतः देवयज्ञ देवकार्य है और कर्मकाण्ड के सब ग्रन्थों में देवकार्य के पूर्वाह्न में ही करने का विधान है, इसलिए आषाढ़ी नवशस्येष्टि वा होलिकेष्टि भी पूर्वाह्न में करनी चाहिए। पौराणिकों का पूर्णमासी की रात्रि को होली जलाने का कृत्य कर्मकाण्ड-शास्त्र के विरुद्ध है----------
यजमानोक्तिः :- ओं तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीयप्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे कलिप्रथम- चरणेऽमुक….. संवत्सरे, …..अयने, …..ऋतौ, …..मासे, …..पक्षे, …..तिथौ, …..दिवसे, …..लग्ने, …..मुहुर्ते जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तदेशान्तर्गते …..प्रान्ते, …..जनपदे, …..मण्डले, …..ग्रामे/नगरे, …..आवासे/भवने अहम् …..कर्मकरणाय भवन्तं वृणे।
विशेष आहुतियों के मन्त्र ये हैं-----
(१)
ओं शतायुधाय शतवीर्याय शतोतयेऽभिमातिषाहे ।
शतं यो नः शरदो अजीयादिन्द्रो नेषदति दुरितानि विश्वा स्वाहा ॥
(२)
ये चत्वारः पथयो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी वियन्ति ।
तेषां यो अज्यानिमजीतिमावहात्तस्मै नो देवा: परिदत्तेह सर्वे स्वाहा ॥
(३)
ग्रीष्मो हेमन्त उत नो वसन्तः शरद्वर्षाः सुवितन्नो अस्तु ।
तेषामृतूनाथ शतशारदानां निवात एषामभये स्याम स्वाहा ॥
(४) इद्वत्सराय परिवत्सराय संवत्सराय कृणुता बृहन्नमः।
तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानां ज्योग्जीता अहताः स्याम स्वाहा।।
-गोभिलीय गृह्यसूत्र प्रपाठक ३। खण्ड ७, सूत्र १०, ११।।
मं. ब्रा. २, १, ९, १२
(५)
ओं पृथिवी द्यौः प्रदिशो दिशो यस्मै द्युभिरावृताः ।
तमिहेन्द्रमुपह्वये शिवा नः सन्तु हेतयः स्वाहा ॥
(६)
ओं यन्मे किञ्चिदुपेप्सितमस्मिन् कर्मणि वृत्रहन् ।
तन्मे सर्वः समृध्यतां जीवतः शरदः शतछं स्वाहा ॥
(७)
ओं सम्पत्तिर्भूतिर्भूमिर्वृष्टिज्यैष्ठ्यः श्रैष्ठ्यः श्रीः प्रजामिहावतु स्वाहा ॥ इदमिन्द्राय- इदन्न मम ।
(८) ओं यस्याभावे वैदिकलौकिकानां भूतिर्भवति कर्मणाम् ।
इन्द्रपत्नीमुपह्वये सीता सा मे त्वनपायिनी भूयात् कर्मणि कर्मणि स्वाहा ॥ इदमिन्द्रपल्यै – इदन्न मम ।
(९)
ओं अश्वावती गोमती सूनृतावती बिभर्ति या प्राणभृताम तन्द्रिता ।
खलमालिनीमुर्वरामस्मिन् कर्मण्युपह्वये ध्रुवाछ सा
मे त्वनपायिनी भूयात् स्वाहा ॥ इदं सीतायै- इदन्न मम ।
(१०) ओं सीतायै स्वाहा ।
( ११) ओं प्रजायै स्वाहा ।
(१२) ओं शमायै स्वाहा ।
( १३) ओं भूत्यै स्वाहा ।-पार० कां० २
(१४) ओं व्रीहयश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मेनीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् स्वाहा ॥ - यजु:० १८।१२
( १५)
ओं वाजो नः सप्त प्रदिशश्चतस्त्रो वा परावतः ।
वाजो नो विश्वैर्देवैर्धनसाताविहावतु स्वाहा ॥
--------------------------------------------------------------------------
१. ये मन्त्र गोभिलीयगृह्यसूत्र के नहीं हैं, मन्त्रब्राह्मण के हैं। मन्त्र हैं और सूत्र १०-११ लिखा हुआ है। पता भी अशुद्ध है। मन्त्र भी अशुद्ध छपे थे। हमने मूलपाठ से मिलान करके शुद्ध कर दिये हैं। - जगदीश्वरानन्द
( १६) ओं वाजो नो अद्य प्रसुवाति दानं वाजो देवाँ २ ॥ ऋतुभिः कल्पयाति । वाजो हि मा सर्ववीरं जजान विश्वा आशा वाजपतिर्जयेय स्वाहा ॥
( १७) ओं वाजः पुरस्तादुत मध्यतो नो वाजो देवान् हविषा वर्धयाति।
वाजो हि मा सर्ववीरं चकार सर्वा आशा वाजपतिर्भवेय स्वाहा ॥ |_- यजु: ० १८/३२-३४
( १८) सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् । धीरा देवेषु सुम्नयौ स्वाहा ॥
( १९) युनक्त सीरा वि युगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम् ।
विराज: नुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमाय वन् स्वाहा ॥
( २० ) लाङ्गलं पवीरवत्सुशीमं सोमसत्सरु। उदिद्वपतु गामविं प्रस्थावद्रथवाहनं पीबरीं च प्रफर्व्य स्वाहा ॥
( २१ ) इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषाभिरक्षतु । सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समां स्वाहा ॥
(२२) शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान् । शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तमस्मै स्वाहा ॥
(२३) शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम् । शुनं वस्त्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय स्वाहा ॥
(२४) शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम् । यद्दिवि चक्रथुः पयस्तेनमामुप सिञ्चतम् स्वाहा ॥
( २५) सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव । यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः स्वाहा ॥
( २६ ) घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः ।
सा न: सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत्पिन्वमाना स्वाहा ॥ - अथर्व० ३।१७।१-९॥
(२७) इन्द्राग्नीभ्यां स्वाहा ॥ इदमिन्द्राग्रीभ्याम् – इदन्न मम ।
(२८) विश्वेभ्यो देवेभ्य: स्वाहा ॥ इदं विश्वेभ्यो देवेभ्यः - इदन्न मम ।
(२९) द्यावापृथिवीभ्याध्य स्वाहा ।।
इदं द्यावापृथिवीभ्याम् इदन्न मम ।
(३०) स्विष्टमग्ने अभितत्पृणीहि विश्वाँश्च देवः पृतना अभिव्यक् सुगन्नु पन्थां प्रदिशन्न एहि ज्योतिष्मद्धे हाजरंन आयुः स्वाहा ॥ (३१) यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरमग्रिष्टत् स्विष्ट कृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहृतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामा-. न्त्समर्धय स्वाहा ॥ इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्न मम ।- शत० कां० १४।९।४।२४।
पूर्णाहुति के पश्चात् हुतशेष हलुवे को वितरण करके भक्षण किया जाए। अपराह्न में स्वसुभीते के अनुसार आर्यसमाज मन्दिर आदि में सम्मिलित होकर हर्षोत्सव और प्रीति सम्मेलन किया जाए। उससे पूर्व आर्यपुरुष आर्यबन्धुओं के घरों में जाकर उनसे प्रेम संवर्धनार्थ भेंट करें और उनके मध्य में किसी प्रकार का मनोमालिन्य हो तो उसको भी उदारतापूर्वक परस्पर क्षमा याचना और क्षमा-प्रदान द्वारा दूर कर देवें और वहाँ से मिल-मिलकर स्वच्छ और प्रेमपूर्ण हृदय से समाज-मन्दिर के उत्सव में पधारते रहें। इसके अतिरिक्त होली को पवित्र रूप देने में अपना योग प्रदान करें। युक्त होकर
गौरवगन्धा होली
मत बैठे वसन्त निहारो,
उठो होली खेलो उमंग बगारो ॥ टेक ॥
फूला फाग प्रेम रसिकों को, प्रीति पसार पुकारो।
मित्रो, परता त्याग आग में झगड़े झाड़ पजारो ॥ १ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
नवल पत्र पाये वृक्षों में निरखो आँख उधारो।
यों प्यारी उजड़ी जनता को कर प्रसन्न शृङ्गारो ॥ २ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
पूरा मेल करो आपस में वैर विरोध विसारी। भेद भिन्नता पास न झाँके ऐक्य प्रयोग पसारो ॥ ३ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥ सत्यागार बना लो मन को, मधुर वाक्य उचारो।
त्याग प्रसाद धर्म के द्वारा, कर्म-कलाप सुधारो ॥ ४ ॥ उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
गूदा एक फाँक दस भासें, ऊर्वारुक इव यारो।
शुद्ध भीतरी ऐक्य भाव पै, असदनेकता वारो ॥ ५ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥ देखो विपदा-वैतरणी को, धीर न हिम्मत हारो।
बन कैवर्त्त नीति-नैया के सबको पार उतारो ॥ ६ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
मार सहो निर्दय दुष्टों की, परन्तु न किसी को मारो।
ऐसे तप से पा सकते हो, जीवन के फल चारों ॥ ७ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
दास, गुप्त, वर्मा, शर्मा, सब अन्त्यज, डोम चमार ।
हिंसा हीन असहयोगी हो, कष्ट-कंटक संहारो॥ ८ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥ वीर! कहो अन्याय दम्भ को, न्याय नृसिंह बिदारौ।
दीन-देश प्रह्लाद भक्त को, सौंप स्वराज्य उबारौ ॥ ९ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
धर्म, दया आनन्द लोक में, निशि वासर विस्तारो। आर्यजाति को पारतन्त्र्य की अवनति से उद्धारो ॥ १० ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥ भाई! जीवन को भारत के भाल स्वतिलक पै वारो।
'शंकर' श्री गुरु गाँधीजी का, गौरव ज्ञान-प्रचारो ॥ ११ ॥
उठो, होली खेलो, उमंग बगारो ॥
-कविवर श्री पण्डित नाथूराम शर्मा 'शंकर'
cont....
No comments:
Post a Comment
ধন্যবাদ