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24 October, 2023

कभी भी पराधीन नहीं रहा है भारत

कभी भी पराधीन नहीं रहा है भारत

भारत: हजारों वर्षों की पराधीनता : एक औपनिवेशिक भ्रमजाल

भारतीय इतिहास को लेकर विशेषतः 15 अगस्त 1947 के बाद क्रमश: जिस प्रकार कतिपय इतिहास लेखकों ने भारतवर्ष के प्रति, विशेषकर उसके सनातन धर्म के प्रति कुण्ठा, हीनता और ग्लानि जगाने का प्रयास किया है तथा राजकीय संरक्षण भी ऐसे लोग पाने में सफल हुए हैं, उसे देखते हुए मैं इस पुस्तक को लिखने को तत्पर नहीं था। क्योंकि इतिहास तथा अन्य अपरा विद्याओं का महत्त्व तभी है जब उनका उपयोग समकालीन समाज कर सके। परिवेश प्रतिकूल दिखता था। परन्तु मान्या विदुषी प्रो. कुसुमलता केडिया जी के आग्रह पर मैं इसे लिखने को प्रवृत्त हुआ। उनसे चले लम्बे विमर्श के द्वारा मुझे स्वयं कई विषयों पर अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई। यूरोपीय इतिहास का विशद अध्ययन करने के बाद भी भारतीय राजनीति में अपनी प्रारम्भिक सक्रियता के कारण मेरे चित्त पर समकालीन राजनैतिक मुहावरों की जो छाप थी, उसके कारण मुझे स्वयं भी यूरोप का साम्राज्यवादी विस्तार एक संगठित अभियान दिखता था। यद्यपि ऐतिहासिक तथ्य कहीं से भी इसकी पुष्टि नहीं करते थे।


अंग्रेज भारत में सफल हुए, इसका श्रेय उदार हिन्दू परम्पराओं को है और 200 वर्षों में धीरे-धीरे जो सफलता उन्हें मिली, वह उनकी बदनीयती को पहचानकर और भारत को धर्मान्तरित करने का उनका अभियान देखकर जाग्रत भारत ने 90 वर्षों में उनसे वापस छीन ली और उन्हें अपने धाम जाने को विवश कर दिया, तो इसका भी श्रेय हिन्दुओं के अद्वितीय समाज संगठन, बुद्धि कौशल, शौर्य, वीरता और नितान्त विपरीत परिस्थिति में भी यथाप्रसंग कभी झुककर, कभी कुछ पीछे हटकर, कभी वीरता से और कभी बुद्धि कौशल से शत्रु को घेर सकने की हिन्दुओं की अद्वितीय सामर्थ्य को है। श्रेष्ठ हिन्दू समाज ने अपने लाडले क्रान्तिवीरों और क्रान्तिकारी वीरांगनाओं को आज तक अपने चित्त में जीवन्त रखा है और आज भी उनका प्रसंग आने पर उसका भीतरी भाव उमड़ पड़ता है। बावजूद इसके कि शिक्षा और संचार माध्यमों के द्वारा सत्य की स्मृति को राज्यतंत्र के अनुचित बल प्रयोग के द्वारा मिटाने की अनथक कोशिशें हुई हैं और भारतीय वीरता की विराट धाराओं को लोक- चित्त की स्मृति से ही मिटा देने की चेष्टाएँ चल रही हैं।


प्राचीन सनातन धर्म की मनीषा की खण्डित खोज के द्वारा उपजे और फैले रेनेसां (प्राचीन का पुनर्जना) के बाद ही यूरोप के देशों में प्राण आये, यह तथ्य जानते हुए भी आधुनिक राजनीति में अपनी सक्रियता के कारण मैं इस सामान्य तथ्य को भी विश्लेषण के समय स्मरण नहीं रख पाता था कि भारत तो केवल यूरोप से तुलनीय है। यूरोप के किसी भी देश से तो भारत के प्रदेश ही तुलनीय हैं। उस दृष्टि से तो यूरोप आज भी स्विस, स्वीडिश, केल्त, पॉल्स, डेन्स, फिन, स्लाव, फ्रैंक, जर्मन, एंग्लोसेक्सन, नॉर्मन, हंगार, बल्गार, यवन (हेला), रोमन, स्पानिश, डच, पोर्तुगीज, स्कॉटिश, इंग्लिश, रूसी आदि संस्कृतियों में पूर्णतः विभक्त है और ईसाइयत को यूरोपियत के नाम पर प्रस्तुत करने की कोई भी कोशिश टिकाऊ नहीं दिखती, क्योंकि ईसाइयत यूरोप का सनातन सत्य नहीं है। उसे बहिष्कृत करने और सेकुलरिज्म के द्वारा उसके अमर्यादित फैलाव को मर्यादित करने के बाद ही यूरोप के विविध देश संसार में अपनी शक्ति से सिर उठा पाये हैं, इस तथ्य को भारत जैसे देशों के ईसाइयत के दबाव में जी रहे सेकुलर हिन्दू भले ही भूल जायें, परन्तु स्वयं यूरोप के प्रबुद्ध, सुसंस्कृत, जाग्रत और वीर लोग कभी भी भूल नहीं सकते।


इस बात का श्रेय पूरी तरह प्रो. कुसुमलता केडिया जी को है कि उन्होंने तीक्ष्ण तर्कों, अन्तर्दृष्टि और तथ्यों तथा आंकड़ों की प्रस्तुति के साथ यह भलीभाँति मेरे चित में अंकित कर दिया कि वस्तुतः यूरोप के पास तो ऐसी कोई भी संगठित दृष्टि, योजना या शक्ति नहीं थी। साम्राज्यवाद का विस्तार और अल्पकालिक सफलता केवल कालप्रवाह का परिणाम है।


यूरोपीय लोगों के पास ऐसी कोई भी बुद्धि या शक्ति नहीं है, जो विश्व के अन्य समाजों से सर्वथा भिन्न हो और कई मायनों में तो वे विश्व के अनेक समाजों से बहुत पीछे हैं। इसके अतिरिक्त यूरोप 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पहली बार परिकल्पित एक अवधारणा है। इसके पहले सम्पूर्ण मानवीय इतिहास में यूरोप नामक किसी भी वस्तु की कोई सत्ता नहीं थी। पहली बार यूरोपा देवी और यूरोप का प्रयोग बहुत छोटे क्षेत्र के लिए कुछ समय पहले अवश्य हुआ था, परन्तु उसका वर्तमान यूरोप से तो कोई भी सम्बन्ध नहीं था। यह यूरोप तो बमुश्किल 150 वर्षों की परिकल्पना है, जो अभी भी पूरी तरह यथार्थ में बदली हुई नहीं कही जा सकती। यूरोपीय संघ में ब्रिटेन सहित कई देश शामिल नहीं हैं और यूरोप कहे जाने वाले क्षेत्र में ईसाइयत के प्रसार से पहले के आध्यात्मिक प्रवाहों और उपासना पद्धतियों के प्रति जैसी तीव्रता से गहरी जिज्ञासा जगी हुई है और प्राचीन देवियों और देवताओं की आराधना तथा उनसे सम्बन्धित ज्ञान के प्रति जैसी गहरी ललक वहाँ फैल रही है, उससे इस बात की सम्भावना बहुत ही कम बचती है कि यूरोप एक संस्कृति के रूप में कभी भी कोई एक इकाई बन पायेगा। सूर्योपासना, जगदम्बा की उपासना आदि अनेक उपासना पद्धतियाँ वहाँ फिर से उभर रही हैं और यज्ञ संस्कृति का भी पुनः उन्मेष वहाँ सम्भव है। यों तो जैसा श्रीमद्भगवद्गीता ने सूत्र रूप में दर्शन का सार समझा दिया है. प्रत्येक कर्म के पाँच हेतु होते हैं- 1. अधिष्ठान, 2. कर्त्ता, 3. विविध प्रकार के करण, 4. विविध क्रियाएँ तथा 5. देव तदुनसार कर्मफल भी दैवाधीन है और विश्व में क्या होगा, क्या नहीं, यह तो महाकाल ही जानें। कालप्रवाह सनातन सत्य है। वही सबका नियामक है।


1688 ईस्वी तक यूरोप में राष्ट्र नाम की कोई भी वस्तु नहीं थी। स्पेन में 16वीं शताब्दी ईस्वी में जो विद्रोह हुए वे कुछ समूहों ने तत्कालीन सामन्तों के विरुद्ध किये थे और राष्ट्र राज्य नाम की कोई भी वस्तु कहीं नहीं थी। 1562 में जब फ्रांस में विविध ईसाई पंथ आपस में रक्तरंजित संघर्ष करने लगे, तब भी वहाँ कोई एक राज्य नहीं था, अपितु फ्रांस अनेक हिस्सों में बँटा हुआ था। यही स्थिति हॉलैंड और पुर्तगाल की क्रमश: 1572 और 1640 में थी। 1642 से 1649 ईस्वी तक इंग्लैंड के विविध राजनैतिक समूह आपस में एक दूसरे का गला काट रहे थे और राष्ट्र राज्य की कोई भी भावना सम्पूर्ण इंग्लैंड में 17वीं शताब्दी ईस्वी में दूर- दूर तक नहीं थी। केथोलिक चर्च के इशारे पर जब इंग्लैंड के एक हिस्से ने राजा चार्ल्स प्रथम को फाँसी की सजा दी और वह सजा भी धड़ से सिर को काटकर दी गई, तब तक ब्रिटेन में न तो अपने राज्य के प्रति कोई व्यापक लगाव था और न ही राष्ट्र राज्य जैसा कोई भी शब्द वहाँ की हवा में था। 1688 में जब पहली बार वहाँ लोगों को संसद में बोलने की पूरी आजादी दी गई तो उसी समय प्रोटेस्टेंटों को यह अधिकार भी दिया गया कि वे इंग्लैंड के कैथोलिकों को उनकी किसी भी गुस्ताखी के लिए सीधे पीट सकते हैं। न कोई प्राथमिकी, न कोई मुक़दमा, न कोई सुनवाई और न ही किसी न्यायिक निर्णय की प्रतीक्षा 1806 ईस्वी तक रोम साम्राज्य सम्पूर्ण यूरोपीय क्षेत्र को अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश कर रहा था और कोई भी यूरोपीय क्षेत्र उसके उत्तर में किसी राष्ट्र राज्य का तर्क नहीं दे पा रहा था, बल्कि अपनी धार्मिक पांथिक स्वतंत्रता की ही बात कर रहा था। पाधिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक स्वाधीनता तथा धार्मिक आकांक्षा की चाहत ने ही यूरोप में विभिन्न चर्चों के मध्य खूनी टकराव को रोकने के लिए और अपने समाज को थोड़ा खुलकर साँस लेने की स्वाधीनता देने के लिए राष्ट्र राज्य की अवधारणा का स्वरूप ग्रहण किया। इस प्रकार यूरोप के सभी राष्ट्र राज्य 200 वर्ष से कम ही पुराने हैं। इस तथ्य को भी भारत में बौद्धिक विमर्श में बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा जाता। ईसाइयत के रूप में यूरोप की कोई भी एक पहचान बनाने का प्रयास करने पर यूरोपीय क्षेत्र की विविध संस्कृतियाँ उसके विरुद्ध नया उन्मेष करेंगी और उनमें से अधिकांश सनातन धर्म की साधना की ओर बढ़ेंगी। फ्रांस की 1789 की क्रान्ति में भी किसानों द्वारा अधिक लगान वसूलने के विरोध में किया गया विद्रोह और भूमि पर स्वामित्व की चाहत ही थी। किसी राष्ट्र की बात उस क्रान्ति में नहीं की गई थी। 1799 से 1815 तक जब नेपोलियन बोनापार्ट यूरोप को चीर रहा था और जगह-जगह राज्यों की पुनर्रचना हो रही थी, तब तक भी राष्ट्र राज्य की कोई विशेष चर्चा कहीं सुनाई नहीं पड़ रही थी। जब नेपोलियन ने उत्तरी इटली में आस्ट्रिया को हराया और आस्ट्रिया के भीतर एक नये राज्य की स्थापना की, तब किसी ने नेपोलियन का विरोध राष्ट्रों के नाम से नहीं किया था।


1802 में जब पोप से नेपोलियन की संधि-वार्ता चल रही थी, तब मुद्दा केवल यह था कि राज्य और चर्च में किसका आधिपत्य प्रधान होगा। जाहिर है चर्च तो राष्ट्रीय होता नहीं, वह सार्वभौमता का दावा करता है। दूसरी ओर स्वयं नेपोलियन 19वीं शती ईस्वी के आरम्भ में लगातार यह कह रहा था कि वह उस पूरे यूरोपीय क्षेत्र में केवल एक राज्य चाहता है। स्वयं नेपोलियन ने जर्मनी, इटली, रूस, प्रशा और पोलैंड में केवल अपना अधीनस्थ राज्य ही चाहा था। ब्रिटेन में राष्ट्र भावना का उदय 19वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में नेपोलियन से आत्मरक्षा के मध्य हुआ। प्रोटेस्टेंट पंथ का उत्कर्ष वहाँ राष्ट्रभावना का निमित्त बना। अतः जो लोग 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक कतिपय अंग्रेज व्यापारियों के द्वारा भारत में की जाने वाली करतूतों को किसी इंग्लैंड नामक राष्ट्र का भारत में बढ़ता प्रभाव मानते या बताते हैं, उन्हें यूरोप के इन तथ्यों को जानना चाहिए।


इस स्थिति में भारत में अंग्रेजों के आने-जाने को किसी संगठित चर्च अथवा किसी व्यवस्थित राष्ट्रीय योजना की सफलता देखना और मानना गलत है। आज भी यूरोप के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वह भारत को अपने संकेतों पर चलने के लिए विवश कर सके, क्योंकि स्वयं यूरोपीय शक्ति नाम की कोई वास्तविक वस्तु विश्व में कहीं नहीं है। यह तो ईसाइयत की विफलता से परेशान कतिपय पादरी और उनके समर्थक बौद्धिक तथा राजनेता किसी यूरोपीय शक्ति की बात करते हैं। भारत को इससे विचलित नहीं होना चाहिए, अपितु समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। कम से कम इन पंक्तियों के लेखक को किसी संगठित, एकजुट, यूरोपीय शक्ति का उन्मेष भविष्य में दूर-दूर तक किसी भी सम्भावना तक के रूप में नजर नहीं आता। जहाँ तक संयुक्त राज्य अमेरिका की बात है, वह विश्व संस्कृति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है और उसके आन्तरिक स्वरूप में निरन्तर बदलाव आता गया है तथा आ रहा है। प्रबुद्ध अमेरिका भारत का स्वाभाविक राजनैतिक मित्र है। उसमें विविध अन्तःप्रवाह हैं, जिनका ज्ञान राज्य- संचालकों को रखना चाहिए।


यूरोप की शक्ति के अतिरिक्त भारतीय इतिहास में एक दूसरी शक्ति को बाहरी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। वह है इस्लाम की संस्कृति। परन्तु भारत में जो इस्लाम फैला, उसका तो किसी भी रूप में, किसी भी विदेश से, कोई सम्बन्ध नहीं है। सिवाय एक विचार के भारत में इस्लाम को अपनाने वाले लगभग सभी लोग हिन्दू सौ से अधिक संशोधन किये गये हैं, अतः वर्षों से मेरा सुझाव रहा है कि संविधान के भाग-4, अनुच्छेद-38 में यह व्यवस्था की जाये कि भारत का राज्य भारतीय संस्कृति की रक्षा करेगा।


इस पुस्तक के लिखने का प्रयोजन सर्वथा भिन्न है। इसका उद्देश्य वर्तमान राजनीति पर कोई टिप्पणी करना नहीं है अपितु इतिहास के तथ्यों को भारतीय समाज के समक्ष लाना ही इस पुस्तक का प्रयोजन है। भारत के विषय में जो नितान्त झूठी


धारणाएँ फैलायी गयीं, उनमें से मुख्य ये हैं-


1. भारत पर सिकन्दर ने आक्रमण किया। फिर मुसलमानों ने आक्रमण किया। फिर अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा कर शासन किया। उसके पहले स्वयं आर्य भी बाहर से आये थे, इसकी सम्भावना है। इस प्रकार भारत निरन्तर हजारों साल से पराधीनता में रहा है।


2. प्रामाणिक भारतीय इतिहास केवल वही है, जो किसी न किसी विदेशी ने भारत के बारे में लिखा है। भारत में इतिहास चेतना नहीं है और इसलिए यहाँ के लोगों ने जो लिखा है, वह इतिहास का आधार नहीं बन सकता।


3.भारत अनेक शताब्दियों तक मुस्लिम शासन में रहा। इसके बाद लगभग 200 वर्षों तक भारत अंग्रेजों के अधीन रहा।


प्रश्न यह उठता है कि नितान्त निराधार इन झूठों को फैलाने का कारण क्या था ? आखिर 1908 ईस्वी में जब गाँधी जी 'हिन्द स्वराज' लिख रहे थे, तो उन्होंने स्पष्ट कहा था कि मैं इस पुस्तक में वही लिख रहा हूँ, जो भारत का प्रत्येक व्यक्ति जानता है और जैसे वह सोचता है। मैं उसके ही ज्ञान और विचारों को वाणी दे रहा है। गांधी जी ने लिखा कि भारत को कभी भी तलवार के बल से पराधीन नहीं किया गया और थोड़े-से अंग्रेजी शिक्षित कठोर हृदय बौद्धिक भारतीयों के सिवाय शेष सम्पूर्ण भारत आज भी स्वाधीन है।


इसका अर्थ है कि भारत की हजारों साल की गुलामी का यह जो झूठ रचा गया, वह औपनिवेशिक 'कान्स्ट्रक्ट' तो है ही, परन्तु यह बलपूर्वक भारतीय शिक्षा संस्थानों द्वारा 1947 ईस्वी के बाद फैलाया गया। जब उपनिवेशवादियों ने ये अवधारणाएँ (कान्स्ट्रक्ट) रची थीं, तो उनका उद्देश्य बहुत स्पष्ट था। वे भारत के तेजस् को पुनः उभरने नहीं देना चाहते थे। इसीलिए गाँधी जी ने बारम्बार लिखा कि मैं भारत के उस तेजस् के पुनः उत्कर्ष के लिए काम कर रहा हूँ, जो सबसे अधिक भारत के किसानों और स्त्रियों में आज भी जीवन्त है और जो परम्परा से हमारे धर्माचायों, ब्राह्मणों, वैश्यों और राजाओं में रहा है, परन्तु इधर कुछ समय से मन्द पड़ गया है।


उपनिवेशवादियों और साम्राज्यवादियों द्वारा ऐसा किया जाना तो स्वाभाविक ही था। उन्होंने केवल भारत में यह नहीं किया। सम्पूर्ण अफ्रीका के विविध राष्ट्रों में भी यही पूर्वजों की संतति हैं। ऐसी स्थिति में इस्लाम को प्रमुखतः विदेशी लोगों द्वारा भारत में फैलाया गया नहीं माना जा सकता। इस्लाम की सफलता को विदेशी आक्रमणों की सफलता नहीं कहा जा सकता। जो लोग इस्लाम की सफलता को हिन्दू समाज की किन्हीं कमजोरियों से जोड़ते हैं, ऐतिहासिक तथ्य उनकी इस परिकल्पना को असत्य प्रमाणित करते हैं। इस्लाम मुख्यतः लोभ और कठोर दमन की लालसा से परिचालित राजनैतिक लोगों द्वारा अपनाया और फैलाया गया।


मन्दिरों का विराट पैमाने पर ध्वंस, मन्दिरों के ध्वंसावशेषों से मस्जिदों की रचना तथा अनेक स्थानों पर पुराने मन्दिरों में भी केवल ऊपरी फेरबदल कर उन्हें मस्जिद घोषित कर देना बल प्रयोग के ही उदाहरण हैं।


ऐसे बर्बर बल प्रयोगों को दूसरे समाज की कमजोरी से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। यह अवश्य है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश वाले क्षेत्र में ही नहीं, मलयेशिया और इण्डोनेशिया में भी इस्लाम का फैलाव बहुत हाल की घटना है। इस ऐतिहासिक तथ्य से अनजान हमारे बहुत-से राजनेता भारत के मुसलमानों को उपदेश देते समय इन दोनों देशों का हवाला देते हैं, परन्तु इन दोनों देशों में वस्तुतः तो इस्लाम अभी तक पूरी तरह फैला ही नहीं है। फैलने पर वह क्या रूप दिखायेगा, यह इतिहास से समझा जा सकता है। खोतान, तुर्कमेनिस्तान आदि भी पहले भारत और हिन्दू धर्म के ही क्षेत्र थे और आज उनकी स्थिति सर्वविदित है।


इस दृष्टि से अवश्य इस्लाम हिन्दुओं के लिए एक गम्भीर विचार की वस्तु है, क्योंकि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि विगत दो-तीन शताब्दियों के भीतर इस्लाम ने प्रचण्ड आक्रामकता दिखलाते हुए हिन्दू समाज को सिकुड़ने को बाध्य किया है और उस दृष्टि से हिन्दुओं को अपना भविष्य यदि इस्लाम से असुरक्षित दिखे तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती।


परन्तु इसका तो एक ही उपाय है- स्वयं की शक्ति बढ़ाने की बात हिन्दू समाज सोचे और यह भी सोचे कि वह इस्लाम से क्या सीख सकता है। आखिर सम्पूर्ण हिन्दू समाज की स्वीकृति से और उससे संवाद करते हुए तो भारत सहित सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में इस्लाम नहीं फैला है, अपितु एक दक्ष, कुशल, संगठित, संकल्पित, आक्रामक समूह के द्वारा ही वह फैलाया गया है। अतः उससे हिन्दू समाज को क्या सीखना है, यह हिन्दू धर्माचार्य तथा अन्य धर्मनिष्ठ बौद्धिक लोग विचार करेंगे।


वर्तमान भारतीय शासन हिन्दुओं के पक्ष में कोई निर्णय ले, इसकी कोई सम्भावना नहीं है। अत: शासन से इस विषय में किसी भी प्रकार की अपेक्षा न रखते हुए समाज के स्तर पर ही विचार करना उचित होगा। निक्षय ही इसमें वैधानिक उपाय ही सर्वोपरि हैं, क्योंकि भारत में विधि का ही शासन है। वर्तमान संविधान में अब तक समय के अनुसार अथवा शासक समूह की इच्छा के अनुसार किया। अफ्रीकी राष्ट्र हजारों साल तक विश्व के अत्यन्त गौरवशाली, समृद्ध और बलशाली राज्य रहे हैं। वे अत्यधिक सुसंस्कृत और ज्ञानवान भी रहे हैं, परन्तु उन्हें अविकसित या अंधकारग्रस्त प्रचारित किया गया। अमेरिकी सभ्यताओं- मय सभ्यता, इन्का सभ्यता, ऐजटेक सभ्यता तथा अन्य अमेरिकी इण्डियन सभ्यताओं को तो नष्ट ही कर डाला गया। जो समाज बच रहे, उनके भीतर असत्य के प्रचार के लिए शिक्षा की संस्थाएँ खड़ी की गयीं और संचार माध्यमों का भी सहारा लिया गया। यह स्वाभाविक ही हैं। चित्त पर झूठ की प्रबलता नहीं रहेगी तो भारत पुनः विश्व शक्ति बनकर उभर आयेगा। यही बात मैक्सिको, पेरू, ब्राजील और सम्पूर्ण अफ्रीका के लिए भी सत्य है। अतः 1947 ईस्वी के बाद भारत में जो झूठ फैलाया गया, उसका उद्देश्य स्पष्टतः यही है कि भारत की शक्ति न बढ़े। उसकी विराट सामर्थ्य को दबाकर रखना ही इतिहास के नाम पर फैलाये गये झूठ का प्रयोजन है। इस विषय में अनेक प्रयोग किये गये।


गाँधी जी बारम्बार यह कहते थे कि भारत वीरों का देश है और मेरी अहिंसा भी वीरता की ही सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। परन्तु 1947 ईस्वी के बाद भारत को वीरता से विमुख और कुछ विचित्र किस्म की शान्ति और कायरतापूर्ण सहिष्णुता का वाहक राष्ट्र प्रचारित किया गया। भारत के वीर चक्रवर्ती राजा सदा से दूर-दूर तक भारतीय संस्कृति और भारतीय प्रभुता की स्थापना के लिए, धर्ममय राज्य का प्रसार करने के लिए कार्य करते रहे हैं। उन्होंने सदा भारत से बाहर भी अपनी शक्ति का प्रसार किया है। इसी प्रकार भारतीय ब्राह्मणों, संन्यासियों, भिक्षुओं एवं विद्वानों ने भी दूर-दूर तक भारतीय संस्कृति का फैलाव किया है। इसी तरह भारत के व्यापारी एवं शिल्पी विश्व में सर्वत्र अपने व्यापार, शिल्प कौशल और साथ ही संस्कृति का प्रसार करते रहे हैं। परन्तु इन सब तथ्यों को उपेक्षित किया गया। प्रचार यह किया गया कि भारतीय तो कभी अपनी सीमाओं से निकले ही नहीं।


1947 ईस्वी के बाद एक नकली गाँधी को खड़ा किया गया। गाँधी जी ने यह कभी भी नहीं कहा था कि केवल मैं ही देशभक्ति की धारा का नेतृत्व करता हूँ। सभी को पता था कि भारत से अंग्रेजों को इसलिए जाना पड़ा, क्योंकि यदि वे नहीं जाते तो उन्हें स्वयं इंग्लैंड ही खोना पड़ता। भारत में क्रान्तिकारी देशभक्त वीर घर-घर में पुजित थे। आज़ाद हिन्द फौज और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की सम्पूर्ण भारत तथा विश्व में धूम मच चुकी थी। नौसेना के विद्रोह ने अंग्रेजों को भयभीत कर दिया था। उन्हें न केवल माल बल्कि जान भी जाने का पूरा खतरा हो गया था। परन्तु 1947 ईस्वी के बाद ऐसा प्रचार किया गया कि मानो भारत में गाँधी जी के नेतृत्व वाली धारा के सिवाय राष्ट्रभक्ति की और कोई धाराएँ रही ही नहीं और मानो अंग्रेजों ने गाँधी जी के महात्मा रूप से डर कर, बिना खड्ग और ढाल के, बिना लड़ाई और वीरता के, चमत्कृत होकर सत्ता का हस्तांतरण कर दिया। ऐसा प्रचार करना गाँधी जी के साथ भी अन्याय है और देश के साथ भी।


इसी प्रकार 7वीं से 17वीं शताब्दी तक के भारत के विषय में यह प्रचार किया गया कि वह मुस्लिम काल है। जबकि तथ्य यह है कि उस सम्पूर्ण अवधि में भारत के अधिकांश हिस्सों में हिन्दुओं के ही राज्य थे। उन दिनों किसी अधिक प्रतापी भारतीय राजा के महत्त्व को मानकर उसे वार्षिक नजराना या भेंट देते रहकर अपने राज्य का संचालन करते रहने की व्यवस्था करना राजनीति का एक सामान्य अंग था। फलस्वरूप अकबर और औरंगजेब दोनों के ही समय अनेक हिन्दू राजाओं ने यह आवश्यक राजनैतिक युक्ति अपनावो और अपने-अपने राज्यों में वे हिन्दू शास्त्रों तथा हिन्दू धर्म के अनुसार ही शासन करते रहे। ऐसे शासन को मुस्लिम शासन नहीं कहा जा सकता। अधिकांश समय तो दिल्ली से आगरा तक और कुछ छोटे-छोटे हिस्सों में अन्यत्र मुस्लिम रियासतें रहीं तथा उससे कई गुना बड़े भाग पर हिन्दू शासन रहे इन तथ्यों को छिपाने की कोशिश इतिहास नहीं है। योजनापूर्वक भारतीयों के चित्त में ग्लानि और कुण्ठा भरने की कोशिश यह अवश्य है।


यह तथ्य भी छिपाया गया कि छत्रपति शिवाजी के समय से भारत के अधिकांश हिस्सों पर मराठों, राजपूतों, जाटों आदि की संयुक्त हिन्दू शक्ति का ही शासन था और जब अंग्रेज़ आये तो भारत में मराठे सर्वाधिक शक्तिशाली थे। इसी प्रकार यह तथ्य भी छिपाया गया कि 1858 ईस्वी के बाद पहली बार भारत में अंग्रेजों का राज्य लगभग आधे हिस्से में छल-बल से स्थापित हुआ और 90 वर्षों के भीतर उखाड़ फेंका गया। यह तथ्य भी छिपाया गया कि उस अवधि में जिन भारतीय राजाओं ने ब्रिटेन का अधिराजत्व मान लिया था, वे ऐसा मान्य राजनैतिक परम्परा और भारतीय शास्त्रों में प्रतिपादित राजनय के अन्तर्गत ही कर रहे थे। यदि शत्रु छल-बल से प्रबल हो जाये, तो कुछ समय तक उसके साथ संधि, विग्रह, यान और छल आदि सहज राजधर्म है। इसके स्थान पर समस्त राजाओं को देशद्रोही या देशभक्ति से शून्य प्रचारित करने की घृणित कोशिशें की गयीं।


इसी प्रकार अस्पृश्यता के जातिगत रूप का प्रसार पहली बार मुस्लिम आधिपत्य वाले क्षेत्रों में हुआ और बाद में अनुसूचित जाति के नाम पर एक बड़ा वर्ग बनाकर उसे अधिक विकराल रूप में अंग्रेजों द्वारा प्रस्तुत किया गया, इस पर भी विश्व के अन्य समाजों में तथाकथित निचले वर्ग जितने बड़े पैमाने पर होते रहे हैं, उसकी तुलना में सम्पूर्ण अनुसूचित जाति सम्पूर्ण हिन्दू समाज का सप्तमांश से भी कम है, यह तथ्य भी योजनापूर्वक छुपाया गया।


विश्व में अन्य समाजों की क्या स्थिति रही है, इसका कोई भी सन्दर्भ न लेते हुए और वैश्विक तथ्यों को सामने रखे बिना तथा किसी तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य के बिना केवल भारत के दोषों की अतिरंजित चर्चा कर भारतीय लोकमानस में ग्लानि भरना, हताशा फैलाना और राष्ट्रीय अवसाद की मनोदशा रचने का प्रयास करना राष्ट्रीय दृष्टि से अपराध है, परन्तु जो लोग नहीं चाहते कि भारत पुनः अपनी शक्ति से खड़ा हो और विश्व में अपने स्वाभाविक स्थान को पाने में सफल हो, वे तो ऐसे काम करेंगे ही।


यह सही है कि 1947 ईस्वी में भारत राष्ट्र के एक बड़े हिस्से को मुस्लिम उग्रवाद और अलगाववाद के पक्ष में समर्पित कर दिया गया और इस दृष्टि से भारत के विरुद्ध कार्यरत शक्तियों को एक बड़ी सफलता मिली। साथ ही भारत में औपनिवेशिक निरन्तरता वाला राज्यतंत्र जारी रखा गया और हिन्दू धर्म को राज्य का वह संरक्षण मिलना भी बन्द हो गया, जो 1947 ईस्वी तक सभी हिन्दू रियासतों और राज्यों में मिल रहा था। इस प्रकार भारतीय राज्य अधिकृत रूप से भारतीय संस्कृति का संरक्षक नहीं रह गया, अपितु वह एक नयी ही संस्कृति फैलाने का साधन बनने लगा। इसके बाद भी इतने वर्षों में भारत एक बड़ी शक्ति बनकर उभरता दिख ही रहा है। हमारे नये युवकों और युवतियों के चित्त में वैसी कोई ग्लानि नहीं है, जो हजारों साल की गुलामी का झूठा मिथक रचकर सबके मन में भरने की कोशिशें की जाती रही हैं। अतः स्पष्ट है कि भारत के विषय में स्वामी विवेकानन्द, श्री अरविन्द और महात्मा गाँधी द्वारा की गई भविष्यवाणियाँ या भविष्य दर्शन निश्चय ही सत्य होंगे तथा भारत पुनः विश्व में एक विराट शक्ति बनकर उभरेगा । किसी विराट बलशाली सत्ता को आप झूठे प्रचारों और मिथ्या अवधारणाओं के द्वारा आखिर कैसे बहलाये रख सकते हैं।


विश्व के अन्य समाजों के विषय में भारत की भावी पीढ़ी अधिकाधिक अवगत हो रही है। वह अपने वास्तविक इतिहास को भी जाने, अपने बल, वीरता और विक्रम को जाने, अपने सद्गुणों और सामर्थ्य को जाने, तो निश्चय ही उसमें उचित आत्मविश्वास का संचार होगा और वह भारत को पुनः भारत बनाने में अपना योगदान देने के स्वधर्म के पालन के लिए प्रेरित होगी। जहाँ तक देश के प्रति शत्रु- भाव रखने वाले लोगों या तत्त्वों का प्रश्न है, वे तो इतिहास के सत्य को छिपायेंगे ही। इसी में उनका उद्देश्य सघता है।


इस पुस्तक का प्रयोजन तो प्रामाणिक इतिहास के तथ्यों को और भारत के स्वभाव के सत्य को सामने लाना है। इस पुस्तक की रचना के समय दिये गये तथ्यों की पुष्टि में जितने आंकड़े और विवरण हमने एकत्र किये, उनके केवल एक अंश का ही उपयोग सम्भव हो सका है, क्योंकि सम्पूर्ण उपयोग से पुस्तक का आकार बहुत बड़ा हो जाता। अतः इसका कलेवर जितना अधिक सीमित रखना सम्भव था, उतना रखा गया है। समर्थन में दिये गये सन्दर्भ भी थोड़े ही दिये गये हैं, उनसे कई गुना अधिक सन्दर्भ हमारे पास सुरक्षित हैं। भविष्य में बड़े आकार की पुस्तक प्रकाशित करते समय उन सभी का उपयोग अवश्य किया जायेगा। प्रबुद्ध पाठक पुस्तक में दिये गये तथ्यों के विषय में कोई नयी जानकारियाँ चाहें, वे कृपा कर हमसे अवश्य सम्पर्क करें। उनका स्वागत है। इसी प्रकार यदि किन्हीं कृपालु पाठकों को पुस्तक में कोई तथ्यात्मक त्रुटि प्रतीत हो, तो कृपा कर प्रमाणों सहित लेखक को अवश्य अवगत करायें। त्रुटि सही पाये जाने पर अगले संस्करण में निश्चय ही संशोधन कर लिया जायेगा, क्योंकि हमारा आग्रह सत्य और तथ्यों का है। सभी प्रबुद्ध पाठकों से अनुरोध है कि अपनी राय और सुझावों से दोनों लेखकों को अवश्य अवगत करायें।


मध्यप्रदेश के माननीय उच्च शिक्षा, संस्कृति एवं जनसम्पर्क मंत्री पंडित लक्ष्मीकान्त शर्मा जी को कोटिशः साधुवाद। मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी और उसके संचालक डॉ. गोविन्द प्रसाद शर्मा को हार्दिक साधुवाद। अखिल भारतीय साहित्य परिषद के सह- संगठन मंत्री श्री श्रीधर गोविन्द पराड़कर जी का आभार, जिन्होंने पुस्तक को पूर्ण करने की निरन्तर प्रेरणा दी।


प्रो. रामेश्वर प्रसाद मिश्र

यह पुस्तक क्यों लिखी गई ?


मैं एक विकास अर्थशास्त्री हूँ। मैंने विकास के बारे में अध्ययन के अंग के रूप में भारत की गरीबी और पिछड़ेपन का विश्लेषण किया तथा इस क्रम में भारत और इंग्लैंड के अन्तः सम्बन्धों का अध्ययन किया। भारत की गरीबी और भारत के भावी विकास की सम्भावनाओं को समझने के लिए 1947 ईस्वी से पूर्व की स्थिति का अध्ययन करते हुए मैंने पाया कि भारत की गरीबी का जो मूल कारण रहा है औपनिवेशिक शोषण वह तो अभी भी चल रहा है। वे ही ढाँचे हैं, वे ही नीतियाँ हैं, वही दृष्टि है, वे ही लक्ष्य प्रतीत होते हैं। ऐसा क्यों है? इस दृष्टि की जड़ें भारतीय इतिहास और परम्परा में तो कहीं मिलती नहीं। तब यह दृष्टि और ये लक्ष्य कहाँ से आए? जो ढाँचा चल रहा है, उसके पीछे क्या दृष्टि थी? क्या है? इसकी पड़ताल करते हुए मुझे यूरोप को समझना आवश्यक लगा।


वर्षों पूर्व मैंने एमिल लुडविग रचित 'नेपोलियन बोनापार्ट' पढ़ी थी। उसमें यूरोप का जो चित्र खींचा गया था, उसे देखते हुए यह स्पष्ट था कि यूरोप के किसी भी 'नेशन' को तब तक समझा नहीं जा सकता, जब तक यूरोप को न समझा जाये। इसी क्रम में यह भी लगा कि भारत आदि के 'नेशन स्टेट्स' के चरित्र को भी यूरोप को समझे बिना नहीं जाना जा सकता। क्योंकि 'नेशन' कोई अलग इकाई नहीं है, पिछले दो-ढाई सौ वर्षों के इतिहास को समझने के लिए। इसी प्रकार भारत की स्वाधीनता के बाद का समय, काल की कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है। न्यूनतम 200 वर्षों के इतिहास को देखने पर ही यूरोप व शेष विश्व के बहुविधि सम्बन्धों को समझा जा सकता है। लूट का जो इकतरफा हस्तांतरण शेष विश्व से यूरोप को होता रहा है तथा हो रहा है, उसे समझने के लिए न्यूनतम 200 वर्षों का यूरोपीय एवं वैश्विक इतिहास समझना आवश्यक है कम से कम प्रत्येक ग़ैर- यूरोपीय देश को स्वयं का इस अवधि का इतिहास समझने के लिए यूरोप का भी इसी अवधि का इतिहास समझना ही होगा।


भारत के आर्थिक इतिहास पर लिखने के क्रम में मुझे यूरोप तथा भारत के प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास को जानने की जरूरत अनुभव हुई। इस बीच मेरी भेंट प्रो. रामेश्वर प्रसाद मिश्र से हुई, जिनसे पूज्य श्री रामस्वरूप जी ने मुझे साग्रह मिलवाया था। तब हम दोनों ने मिलकर यूरोप के इतिहास पर लिखने की एक दसवर्षीय योजना बनाई, जिसमें दस खण्डों में यूरोप पर ग़ैर-यूरोपीय अध्येताओं द्वारा लिखा जाना था - 'एन आउटसाइडर्स व्यू ऑफ़ यूरोप'।


अध्ययन के क्रम में यह स्पष्ट हुआ कि यूरोप नामक इस क्षेत्र का यह अधिकृत नामकरण ही 19वीं शती ईस्वी का है थोड़ा पहले इस नाम की वहाँ हलकी फुलकी चर्चा कहीं-कहीं शुरू हुई थी, परन्तु तब यह नाम वहाँ केवल जिब्राल्टर के आसपास के क्षेत्रों के लिए दिया गया था। पूरे इलाके के लिए यूरोप नाम तो 19वीं शती ईस्वी में ही प्रचारित हुआ। यह भी स्पष्ट हुआ कि यूरोप के ये विविध इलाके पिछले 200 वर्षों में ही 'नेशन स्टेट' बने हैं। विकराल आपसी कलह, खूनी टकराव, जबर्दस्त मारपीट और निरन्तर टूटन के बीच से ये इलाके क्रमश: अलग-अलग 'नेशन' बने। इनके पुराने नाम भिन्न थे। इनके इलाके घटते-बढ़ते रहे थे। इनमें से किसी को किसी राष्ट्र का संगठित समाज नहीं कहा जा सकता। इनका 'नेशन स्टेट' भी हाल की और 'ट्रांजिटरी' घटना है। स्पष्ट है कि भारत को समझना है तो केवल 'नेशन स्टेट' की 'ट्रॉजिटरी' घटना के


सन्दर्भ में और उस घटना के दिन से प्रारम्भ करके तो नहीं समझा जा सकता। सनातन धर्म हिन्दू धर्म के प्रकाश में ही भारत को समझा जा सकता है। हिन्दू धर्म से भिन्न भारत का क्या महत्त्व है, यह कोई भी बता नहीं पाता। इस्लाम और ईसाइयत को भी यहाँ स्थान प्राप्त है, यह तो कोई भारत की विशेषता नहीं कही जा सकती। क्योंकि अन्य देशों में भी कहीं इस्लाम और कहीं ईसाइयत को यहाँ से अधिक स्थान प्राप्त है। हाँ, हिन्दू राष्ट्र होकर भी भारत में इन पंचों को स्थान दिया है, यह अवश्य एक विशेषता है, जो कि हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में ही है। ऐसी स्थिति में धर्म का विचार ही प्रधान है। स्पष्ट है कि इस धर्म का रेलिजन या मजहब से कोई भी सम्बन्ध नहीं है।


इस बीच एक राष्ट्रभक्त संन्यासी स्वामी सुबोधगिरि महाराज से सम्पर्क आया। वे दो बार काशी पधारे। वे रात-दिन विदेशी आक्रमणों की, भारत की पराजय की भारतीय समाज के बिखराव की चिन्ता में डूबे रहते थे कि इसका समाधान कैसे हो? भारत पुनः तेजस्वी राष्ट्र कैसे बने ? मुझे ये सारी बातें विचित्र लगतीं। क्योंकि भारत पर तो कोई विदेशी आक्रमण कभी हुआ ही नहीं।


अलेक्जेण्डर के भारत आने की कोई चर्चा स्वदेशी साहित्य में कहीं है ही नहीं। यवन (ग्रीक) स्त्रोत में आया सन्दर्भ संदिग्ध और अस्पष्ट है। साथ ही, महाभारत में यवन राज्य उत्तरी भारतवर्ष का एक प्रान्त वर्णित है। स्वयं यूनानी स्रोतों में उस क्षेत्र को 'ग्रीस' कभी भी नहीं कहा गया। उस क्षेत्र को ग्रीस नाम तो रोमनों ने आक्रमण के समय सीमान्त पर बसे एक गाँव के नाम से दिया, जबकि प्राचीन यवन साहित्य में भी उस क्षेत्र का नाम यवन और हेला ही है और आज भी वे स्वयं को 'हेलेनिक रिपब्लिक' ही कहते हैं।


महाभारत, मनुस्मृति तथा अनेक प्राचीन भारतीय इतिहास ग्रन्थों में यवन क्षेत्र को भारतीय क्षेत्र मानते हुए विस्तार से वर्णन है, तब यवन क्षेत्र विदेशी कैसे हुआ? भारत पर सफल विदेशी आक्रमण कब हुआ? उत्तर, दक्षिण, पूर्व- कहीं से तो हुआ ही नहीं। पश्चिम की बात कही जाती है, तो पश्चिम में ऐसे कौन शक्तिशाली राज्य थे, जो भारत से अधिक बलशाली थे। ईरान तो स्वयं बुरी तरह लुटा-पिटा था, पराजित था। मंगोलों की मार से पूरा अरब क्षेत्र और यूरोप के अधिकांश इलाके टूटे-फूटे, भयभीत, त्रस्त थे यह मुझे यूरोप के विस्तृत इतिहास के ज्ञान के कारण ज्ञात था अतः मुझे आश्चर्य होता था कि अरब या यूरोप या ईरान आदि में भारत विजय की इच्छा ही कैसे जगेगी? यह तो सम्भव ही नहीं ये सब तो इतने कमजोर देश थे कि मंगोलों की एक ही चोट में गिर गये थे।


भारत को असंगठित बताने वाली बात मुझे अत्यधिक अटपटी लगती। भारत यदि ऐसा ही असंगठित होता तो अंग्रेजों को भारत से भागने को विवश करने के समय 1947 में भारत में इतने करोड़ों हिन्दू कैसे बच रहे होते? राजपूताना में, दक्षिण में, मध्य भारत में जगह-जगह हिन्दू राजाओं की भव्य और गौरवशाली परम्परा कैसे जीवन्त रहती? 1947 में भारत में 350 हिन्दू रजवाड़े कैसे बचते? वे सब मुसलमान या ईसाई कब के बना लिये गये होते? क्योंकि न तो क्रिश्चियन शासक, न ही मुस्लिम शासक पराजित समाजों को कभी भी पुराने धर्म में निष्ठावान रहने देते।


जिसे मुस्लिम काल कह दिया जाता है, वह तो हिन्दुओं के राज्य विस्तार, यश और गौरव का काल है। जावा, सुमात्रा, स्याम देश बनो, इण्डोनेशिया, मलयेशिया सभी जगह उन दिनों हिन्दुओं का राज्य फैल रहा है और सनातन धर्म की सुगन्ध चारों ओर व्याप्त हो रही है। ऐसी स्थिति में दिल्ली से आगरा के बीच तथा कुछ अन्य छोटी- छोटी जगहों में अगर हिन्दू पूर्वजों के मुसलमान बने उत्तराधिकारी अपनी-अपनी जागीरें बनाने में सफल हुए हैं और उन्हें चला रहे हैं, जो कि सम्पूर्ण भारत का अष्टमांश भी नहीं है और जिसके कुल हिस्से से कई गुना अधिक फैला हुआ भारत का राज्य या हिन्दुओं का राज्य विदेशों में दूर-दूर तक है, तो वह अवधि मुस्लिम काल किस आधार पर कही जायेगी? आखिर काल निर्धारण का कोई तो आधार होगा? कोई अनुपात बोध तो इतिहास में आवश्यक है?


विश्व इतिहास का मुझे ज्ञान है। पड़ोसी देशों की स्थिति का मुझे ज्ञान है। फिर, यह भी दिखता है कि हमारे यहाँ लाखों मूर्तियाँ हैं जिनके नाक, हाथ भर कटे-टूटे हैं। मुसलमानों, ईसाईयों की चलती तो ये मूर्तियाँ पूरी तरह नष्ट कर डाली गई होतीं। जैसा विश्व में सर्वत्र इन्होंने किया है। यहाँ यदि ये मूर्तियाँ पूरी तरह नष्ट नहीं हुई तो इसका एकमात्र कारण यहाँ हिन्दुओं का प्रभावी रहना ही है। हिन्दू वीरता से डरकर ही मुस्लिम और ईसाई शासक इन मूर्तियों को पूर्णतः नष्ट करने से विरत रहे हैं। शायद छिप-छिपकर इन्हें इस प्रकार अंग-भंग करने अथवा कुरूप बनाने की चेष्टाएँ होती रही हैं, जो उन लोगों की विवशता दिखाता है।


यह भी लगता कि 1947 ईस्वी के पूर्व भारत में हिन्दू महासभा का विशाल संगठन कहाँ से आ गया यदि हम ऐसे ही असंगठित थे? यूरोप में तो ऐसा विशाल एक भी राजनैतिक संगठन नहीं है। और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहाँ से आ गया? यूरोप एवं अरब में तो ऐसा विशाल-विराट एक भी सांस्कृतिक सामाजिक संगठन नहीं है। अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य देखें तो चीन मंगोलों से पिटा। फिर, ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, फ्रांस आदि ने उस पर अपमानजनक संधियाँ थोपीं इस्लामी बिरादरी दुनिया भर में टूटी- फूटी है, हमेशा आपस में लड़ती ही रहती है। फिर, यह हिन्दू समाज को असंगठित किसकी तुलना में कहा जा रहा है?


वीर सावरकर की पुस्तक 'भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ' में भारतीय गौरव की गाथा का उल्लेख है। मैंने प्रो. मिश्र से पूछा- आपने पढ़ा है वे बोले-हाँ पर इन्हें वे लोग भावुक राष्ट्रवादी मानते हैं। यद्यपि वे थे प्रचण्ड बौद्धिक । परन्तु इन्हें उद्धृत करने पर बौद्धिक क्षेत्रों में मुँह फेर लिया जायेगा।


तब मैंने राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् की पाठ्यपुस्तकें मँगाई, जो ज़्यादातर कम्युनिस्टों ने लिखी हैं। वहाँ भी ये ही तथ्य निकले। परन्तु व्याख्याएँ बिल्कुल उल्टी निकलीं। छोटे-छोटे रियासतदारों को वहाँ सुल्तान और रियासतों को सल्तनत बताया गया है। 200-250 सालों के अन्तराल को उल्लेखनीय ही नहीं माना है। और मुस्लिम आक्रमणों की निरन्तरता बता दी है। 4, 6 य 10 साल लड़-भिड़कर किसी तरह राज्य करने वालों को भारत का सुल्तान बताया है और उसी कालखण्ड में भारत में चोलों, चेरों, पाण्ड्यों, सातवाहनों आदि के विशाल साम्राज्य हैं, भारतीय विद्या, कला, साहित्य, शिल्प की उन्नति हो रही है, उनको मानो इतिहास सम्बन्धी निष्कर्षो में गणनीय ही नहीं माना गया है। तथ्य कुछ लिखे हैं इन्होंने स्वयं प्रतिपादन कुछ और कर रहे हैं। मुझे लगा अजीव बात है।


स्वाधीनता आन्दोलन का परिदृश्य याद आता है। किम बाबू, लोकमान्य तिलक, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, श्री अरविन्द, महात्मा गाँधी, लाला लाजपत राय, श्याम जी कृष्ण वर्मा, बिपिनचन्द्र पाल, रासबिहारी बोस, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, शचीन्द्रनाथ सान्याल, दुर्गा भाभी, सुभाषचन्द्र बोस, भगवतीचरण वोहरा, वीर सावरकर, बाबा सावरकर, चाफेकर बंधु कैसी बड़ी प्रतिभाएँ थीं। विश्व की और भारत की कैसी प्रामाणिक जानकारी रखते थे। उन दिनों के श्रेष्ठ हिन्दी कवियों को. ही देखें महाप्राण निराला, महाकवि प्रसाद, महादेवी जी, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर जी, कैसे श्रेष्ठ कवि आज़ादी के बाद भी हमें अपनी तेजस्विता का निरन्तर बोध रहा है। कहीं भी हीनता-भाव नहीं है हममें।


आज भी हमारे सभी शंकराचार्य- पूज्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ, पूज्य स्वामी स्वरूपानन्द, पूज्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती पूज्य स्वामी विजयेन्द्र सरस्वती, स्वामी संवित् सोमगिरि महाराज, स्वामी दयानन्द महाराज, स्वामी सत्यमित्रानन्दगिरि महाराज, स्वामी गुरुशरणानन्द, श्री रामदेव, श्री श्री रविशंकर, श्री आठवले का स्वाध्याय परिवार, युग निर्माण योजना, माता अमृतानन्दमयी स्वामी चिदानन्द, स्वामी अवधेशानन्द, श्री मुरारी बापू, संत कौशल किशोर, सुधांशु महाराज, सनातन धर्म महामण्डल, धर्मसंघ, सनातन संस्था किसी में कोई हीनताबोध नहीं है। 

फिर ये निराधार निष्कर्ष कहाँ टिकेंगे? इन पाठ्यपुस्तकों भर को पढ़कर जो प्रभावित हों, वे तो अल्पज्ञानी होंगे। इनका संकट तो इनकी अपनी बुद्धि में है। वह देश का संकट तो नहीं है। मुझ जैसे एक ग़ैर-इतिहासकार को, जिसे यूरोप के इतिहास का ज्ञान था, जिसने केवल 250-300 पुस्तकें इस विषय पर पढ़ी थीं, पर एक दृष्टि थी, विज़न था, बौद्धिक स्पष्टता थी, उसे ही ये निष्कर्ष हास्यास्पद दिखते हैं, तो भारत के मेधावी लोगों को ये क्या प्रभावित करेंगे? इन लोगों के द्वारा रचित न तो इतिहास में कोई दम है, न साहित्य में। इनकी कविताएँ, कहानियाँ, आलोचनाएँ पढ़ लीजिये। भयंकर अज्ञान, कुण्ठा और हीनताजन्य विकृतियाँ सर्वत्र दीखती हैं। ये दयनीय तो हैं, चिन्तनीय नहीं।


तब इतिहास का सत्य पुन: कैसे देश में प्रसारित हो? निरर्थक हीनता-बोध, आत्मग्लानि, दैन्य-भाव और कुण्ठा कैसे हटे? गौरवशाली इतिहास के उत्तराधिकारियों में यह जो अकारण हीनता आ गई है, वह कैसे दूर हो? अपना वैभव, वीरता, गौरव और पराक्रम इन्हें पुन: कैसे स्मरण आये?


पुरुषार्थी जन के लिए यह कोई संकट नहीं है। उदाहरण मेरे सामने है - स्वर्गीय भाई जी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार एवं श्री जयदयाल गोयन्दका का एक गीता प्रेस के द्वारा इन्होंने क्या कर दिखाया। विश्व ईसाइयत का कुचक्र था कि हिन्दुओं के शास्त्र एवं मूल ग्रन्थ गायब हो जाएँ, उनकी भ्रामक व्याख्याएँ बची रहें। पर दो लोगों ने संकल्प एवं पुरुषार्थ से उसे विफल कर दिया। अतः मुझे लगा इतिहास के तथ्यों पर छोटी-छोटी पुस्तकों से ही काम हो जायेगा। बड़े-बड़े फंड्स एवं प्रकाशन की, सत्ता-संरक्षण की कोई जरूरत नहीं। भाँति-भाँति से सत्य का प्रचार हो। छोटी पुस्तकें छपें। एक तरफ एन.सी.ई.आर.टी. के द्वारा प्रकाशित चीजें हों, दूसरी तरफ ये तथ्य हों। जानकार विद्वान इन्हें लिखें। क्या मुश्किल काम है? इसी भावना से पुस्तकों की यह 'बौद्धिक राजसूय' श्रृंखला प्रारम्भ की जा रही है।


श्रद्धेय श्री रामस्वरूप जी के नहीं रहने के बाद से प्रो. रामेश्वर प्रसाद मिश्र जी को मैं उनके स्थान पर ही देखती हूँ। रामस्वरूप जी की इच्छा थी कि इस अद्वितीय प्रतिभाशाली व्यक्ति से ईश्वर काम करा लें बस यही पर्याप्त होगा। शेष तो काल प्रवाह है। मिश्र जी मेरे परिचय क्षेत्र में अकेले ऐसे विद्वान हैं, जिन्हें भारतीय धर्मशास्त्रों और विशाल संस्कृत साहित्य का - वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, महाभारत तथा अन्य श्रेष्ठ काव्यों का और सभी महत्त्वपूर्ण स्मृतियों का ज्ञान है और साथ ही जिन्हें यूरोप का ईसाइयत का और सम्पूर्ण यूरोपीय इतिहास, आधुनिक अंग्रेजी साहित्य तथा आधुनिक यूरोपीय दर्शन और चिन्तन का विस्तृत ज्ञान है। इस्लाम का भी उनका ज्ञान पर्याप्त है। ऐसी स्थिति में इन विषयों पर तुलनात्मक जानकारी रखते हुए प्रामाणिक लेखन सुगम कार्य है। इतिहास के अपने विस्तृत अध्ययन को पुस्तक रूप में प्रस्तुत करने में प्रो. मिश्र अब तक यह कहकर झिझकते रहे हैं कि इनके पाठक कहाँ हैं? भारत का कौन-सा समकालीन प्रभावशाली समूह है, जो इनका कोई उपयोग करना चाहेगा अथवा इन्हें गम्भीरता से पढ़ना चाहेगा। उनका यह आग्रह कालप्रवाह के सिद्धान्त पर गहरी श्रद्धा के सन्दर्भ में समीचीन नहीं है, यह मेरे आग्रह पर उन्होंने अब मान लिया है। कौन किस ज्ञान की ओर कब उन्मुख होगा, यह तो कालदेवता ही जानें। परन्तु हमें स्वधर्म पालन तो करना ही चाहिए।


पुस्तक के लिखने के क्रम में हमारे और मिश्र जी के बीच शताधिक बार लम्बी और वैचारिक ऊष्मा से भरी बहसें हुई। विस्तृत विचार-विमर्श के क्रम में दोनों ओर से अनुकूलता के कारण अधिकांश तथ्यों पर हमारी सहमति बनी है। प्रस्तुत पुस्तक इसी का परिणाम है।


मध्यप्रदेश के यशस्वी संस्कृति, उच्चशिक्षा एवं जनसम्पर्क मंत्री माननीय श्री लक्ष्मीकान्त जी शर्मा तथा मध्यप्रदेश के संस्कृति एवं उच्च शिक्षा विभाग को साधुवाद तथा हार्दिक आभार। मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी और उसके संचालक प्रो. गोविन्द प्रसाद शर्मा का भी हार्दिक आभार, जिन्होंने पुस्तक के प्रकाशन का दायित्व वहन किया। अखिल भारतीय साहित्य परिषद के सह-संगठन मंत्री श्रीयुत श्रीधर गोविन्द पराड़कर जी का हार्दिक आभार । उनकी प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से पुस्तक समय पर प्रकाशित हो सकी है।


पुनश्चः यह श्रृंखला आगे बढ़ेगी। हमें विश्वास है कि इसके व्यापक प्रसार में और अनेकों संस्करणों के प्रकाशन में हमारे उदार सम्पन्न परिवारों से, कुलों और व्यक्तियों से भरपूर सहायता प्राप्त होगी। ऐसे बहुत से लोग हैं, जो इस उदार सहयोग के साथ अपने किसी यशस्वी और पुण्यात्मा पूर्वज का स्मरण करने के क्रम में नामोल्लेख चाहेंगे। जो लोग ऐसा कोई भी प्रस्ताव करेंगे, उनके लिए पुस्तक के अलग संस्करण उनकी सामर्थ्य के अनुसार छापते हुए उनके अभीप्सित पूर्वज या गुरुजन के नाम का अलग से एक पृष्ठ में सविवरण उल्लेख किया जा सकेगा। ऐसे सभी संस्करणों की समस्त प्रतियाँ उचित पाठकों में वितरण के लिए उन्हें सुलभ होंगी। इसके द्वारा सत्य का अधिकाधिक प्रचार होगा और हमारी स्मृति पोषित होगी। स्मृति ही आकांक्षा और संकल्प का आधार है। पुण्यकर्मों के लिए पुण्य आकांक्षाएँ और पुण्य संकल्प तथा पुरुषार्थ आवश्यक है। उनका आधार पुण्य स्मृति ही है। हमें विश्वास है कि अपने इतिहास की सत्य जानकारी का प्रचार करना प्रत्येक धर्मनिष्ठ सज्जन नर-नारी अपना कर्तव्य समझते हैं और बौद्धिक राजसूय के इस कार्य में सफलता सुनिश्चित है। 

प्रो. कुसुमलता केडिया
तथ्यों की कसौटी पर भारतीय इतिहास

भारतीय इतिहास के बारे में इन दिनों प्रचारित धारणा यह है कि वहाँ लगभग हमेशा विदेशी हमलावरों के काफ़िले आते गये, जीतते और बसते गये और राज्य करते रहे। इस प्रकार हिन्दुस्तान का समाज रूपी कारवाँ बनता गया और बढ़ता गया। यह धारणा 1920 ईस्वी के बाद फैली और 1947 ईस्वी के बाद स्वयं भारतीय राज्य द्वारा संरक्षित कतिपय लोगों द्वारा देश भर में फैलायी गयी। उसके पूर्व भारत में यह बात कभी भी कोई नहीं कहता था। क्योंकि सत्य से इस बात का कोई सम्बन्ध है ही नहीं यह पूर्णतः साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी 'कॉन्स्ट्रक्ट' है निरा फ़रेब है। इस 'कॉन्स्ट्रक्ट' का कोई वास्तविक आधार, कोई सत्य, कोई प्रमाण, किसी तथ्य का समर्थन इसके पीछे नहीं है। यह नव-प्रचारित धारणा तथ्यों की कसौटी पर कहाँ तक सच है, यह देखने की बहुत जरूरत है थोड़ी भी छानबीन करते ही यह प्रचार धुंआ- धुंआ होकर उड़ जाता है। इस साम्राज्यवादी झूठ की आधारहीनता देखकर आश्चर्य होता है क्या किसी समाज या राष्ट्र के विषय में ऐसी निस्सार, निराधार, निरर्थक, अनर्थक और असत्य बातें ऐसे घड़ल्ले से कही जा सकती हैं? और स्वयं को पढ़े- लिखे कहने वाले एक छोटे-से समूह में वे स्वीकार भी हो सकती हैं? क्या कोई शिक्षित समूह इतना भी विमूढ़ और अज्ञता के प्रति ऐसा भी समर्पित हो सकता है। आइए देखते हैं।

इतिहास के पुराने कालखण्ड को तो प्रागैतिहासिक काल कह दिया जाता है, क्योंकि ईसाई विद्वानों की आस्था है कि मानवीय सभ्यता के विकास का अधिकतम समय छह हज़ार वर्ष ही है। उनके लिए बाइबिल की मान्यता अकाट्य है। बाइबिल तो सृष्टि की रचना ही छः हजार वर्ष पूर्व की गई मानती है। विज्ञान ने उस मान्यता को उपहास योग्य सिद्ध कर दिया तो अब उसकी नई व्याख्या यह की जा रही है। कि वस्तुत: छह हज़ार वर्ष ही सभ्यताओं की कुल ऐतिहासिक अवधि है। जबकि रामायण, महाभारत एवं पुराण भारत के प्रामाणिक इतिहास-ग्रन्थ हैं और इनमें भारत का लाखों वर्षों का प्रामाणिक इतिहास व्यवस्थित रूप में अभिलिखित है, सुरक्षित है।

चलिए, केवल यूरोखीस्तों द्वारा मान्य अवधि को ही लें तो महाभारत युद्ध का काल 3138 ईस्वी पूर्व का है और कलियुग का प्रारम्भ ईसा पूर्व 3102 ईस्वी में हुआ यह सर्वमान्य है। इस प्रकार, कम से कम 5100 वर्षों का भारत का इतिहास अभिलेखीय साक्ष्यों पर आधारित है। 78 ईस्वी से प्रारम्भ शक संवत् के 556वें वर्ष में अर्थात् 634 ईस्वी में पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख में लिखा है कि कलियुग के 3735 वर्ष बीत चुके हैं। इसी प्रकार, चोल सम्राट परान्तक प्रथम के 943 ईस्वी के अभिलेख में कलियुग के 4044 वर्ष बीत चुकने का उल्लेख है? इस प्रकार आज 5111 वर्ष हुए। क्योंकि परान्तक प्रथम के उक्त अभिलेख के बाद 1067 वर्ष बीत चुके हैं। इन 5100 वर्षों को तो ऐतिहासिक काल प्रबुद्ध ईसाई भी मानेंगे और उनके शिष्य भी

जहाँ तक आर्य आक्रमण की गल्प का प्रसंग है, सर्वविदित है कि यह परिकल्पना सर्वप्रथम 1786 ईस्वी में विलियम जोन्स ने ही एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के अपने एक प्रसिद्ध भाषण में इस आधार पर प्रस्तुत की कि संस्कृत और अन्य यूरोपीय भाषाओं का एक सामान्य स्रोत (कॉमन सोर्स) है 1585-88 ईस्वी में गोवा में आए फ्लोरेन्स के व्यापारी मर्चेन्ट सासेटी ने तो केवल यह कहा था कि संस्कृत से कुछ प्रमुख यूरोपीय भाषाओं की समानता है। मैक्समूलर, जो कि एक प्रसिद्ध भारत द्वेषी एवं वेद-विद्वेषी ईसाई है, उस तक ने यह स्पष्ट कहा था कि आर्य नामक कोई भी नस्ल कभी भी कहीं भी नहीं हुई। यूरोप के जो विद्वान आर्य नस्ल के पक्ष में कुछ अनुकूल हैं, वे भी उसे एक सम्भावना मात्र मानते हैं। आर्य आक्रमण के निश्चित प्रचारक केवल कतिपय ईसाई मिशनरी और भारत के भारत-द्वेषी कम्युनिस्ट तथा अन्य मतान्ध लेखक मात्र हैं। अतः उनके खण्डन में समय नष्ट करना उन्हें वह महत्त्व देना है, जिसके वे पात्र नहीं हैं। इसके अतिरिक्त तथ्य- शून्य मतान्ध आर्य आक्रमणवादियों को तो उनके उदयकाल में ही श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी, प्रो. एस. श्रीकान्त शास्त्री, महामहोपाध्याय गंगानाथ झा, श्री डी.एस. त्रिवेद, श्री एल.डी. कल्ला तथा बाद में श्री भगवतदत्त शर्मा जैसे दिग्गज विद्वान प्रामाणिक तथ्यों द्वारा आधारशून्य ठहरा चुके हैं। महाभारत से कम से कम पचास हजार वर्ष पूर्व का प्रामाणिक इतिहास है भारतीय ग्रन्थों में

यों, महाभारत युद्ध के पूर्व के भी न्यूनतम 5 लाख वर्षों का भारतीय इतिहास प्रामाणिक साक्ष्यों से पुष्ट है। परन्तु अभी तो अधिकृत पढ़ाई में उसे 'होमो इरेक्टस' या 'होमिनिड' मानव का काल कहते हैं और 'होमो सेपियन' का काल भारत में 75,000 ईसापूर्व ही माना जाता है। तर्क के लिए इस दृष्टि को भी मान लें तो कम से कम 50 हज़ार वर्षों का प्रामाणिक इतिहास भारतीय इतिहास-ग्रन्थों में विद्यमान है

ब्रह्मा के मानस पुत्रों मूलतः एकादश प्रजापतियों भृगु, अंगिरा, अत्रि, - मरीचि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता वसिष्ठ, नारद और दक्ष से ही जीवों का सृष्टि विस्तार है। इनके साथ ही ब्रह्मा जी ने ख्याति, भूति, संभूति, क्षमा, प्रीति, सत्रति, ऊर्जा, अनसूया, प्रसूति ये नौ दिव्य कन्याएँ भी रचीं, जो क्रमशः भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, ऑगरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वशिष्ठ की पत्नी हुई। नारद ब्रह्मचारी हैं। साथ ही अपने योगबल से वे महर्षि कश्यप के पुत्र बनकर प्रजापति नारद भी बने। प्रचेता ने सोमवंशी कन्या मारिषा से विवाह कर प्रजा विस्तार किया। दक्ष के वंश में स्वायम्भुव मनु और शतरूपा सम्पूर्ण पृथ्वी के प्रथम शासक हुए, जो ब्राह्मण एवं क्षत्रिय – दोनों ही वर्णों के एक साथ थे। या तो सभी वर्णों के कहा जा सकता है उन्हें, या फिर वर्णातीत धर्मशास्त्रों के अनुसार उन दोनों का बड़ा बेटा प्रियव्रत विश्व का प्रथम क्षत्रिय है। चक्रवर्ती सम्राट प्रियव्रत के सात पुत्र हुए, सातों को एक- एक महाद्वीप शासन के लिए प्रियव्रत ने सौंप दिए।

जम्बूद्वीप का जो हिस्सा भारतवर्ष कहलाया, वह प्रियव्रत के पौत्रों में से एक नाभि के पुत्र वेदज्ञ ऋषि ऋषभ के पुत्र (नाभि के पौत्र) राजर्षि भरत के नाम से भारतवर्ष कहलाया। पहले यह अजनाभ वर्ष कहलाता था। एक व्यापक मत यह है कि वैवस्वत मनु ने जलप्रलय के बाद इस क्षेत्र का, जिसके उत्तर में हिमालय व दक्षिण में समुद्र है, भरण-पोषण किया, इसलिए उन मनु का ही एक नाम भरत भी है और उनके द्वारा रक्षित यह क्षेत्र भारतवर्ष है।' एक अन्य मत से मनु-पुत्री इला का सोमपुत्र बुध से विवाह हुआ, जिससे ऐल वंश चला ऐल वंश के महान सम्राट नहुष के पुत्र ययाति की दो पत्रियाँ थीं एक ब्राह्मणी देवयानी, दूसरी क्षत्राणी शर्मिष्ठा । देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु हुए शर्मिष्ठा से अनु, दहा और पुरु। पुरुवंश में महान विश्व विजयी सम्राट दुष्यन्त व उनके तेजस्वी पुत्र सर्वदमन भरत हुए, उनके नाम से यह भारतवर्ष कहलाया। परन्तु यह मत अल्पमान्य है। क्योंकि इस देश का भारतवर्ष नाम उससे प्राचीनतर है। पुरु से भी पूर्व इस देश का नाम भारतवर्ष था। इससे प्रकट है कि मूल नाम भारतवर्ष अत्यन्त प्राचीनकाल से स्वयं मनु के काल से चला आ रहा है और उसी की पुष्टि अन्य भरतों से होती रही है, यही प्रमाणित होता है। सर्वदमन भरत के वंश की एक शाखा में आगे चलकर पाण्डव-कौरव हुए। महान तेजस्वी गंगापुत्र देवव्रत भीष्म, पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम आदि भी हुए। ययाति के ही वंश की यदु शाखा में भगवान श्रीकृष्ण हुए। चन्द्रवंशी यदुवंशी परम तेजस्वी क्षत्रिय हैं। आभीरों का वंश इससे नितान्त अलग है।

सूर्य वंश में मनु पुत्र इक्ष्वाकु अयोध्या के प्रथम राजा हुए। इसी वंश में पुरंजय काकुत्स्थ, रघु, अज, दशरथ, भगवान राम, लव कुश आदि हुए। ब्रह्मा के पाँच मानसपुत्र भृगु, अंगिरा, मरीचि, अत्रि, वशिष्ठ आदि से ब्राह्मण वंश चले। जिनमें - भार्गव, आंगिरस, वशिष्ठ, काश्यप, भारद्वाज, आत्रेय, प्रभृति, तेजस्वी तपस्वी एवं राजा हुए। भृगु, जमदग्रि, परशुराम, शुक्राचार्य, उर्व, च्यवन, आप्नवान् आदि प्रसिद्ध भृगुवंशी हैं। उधर ब्राह्मणी माँ, क्षत्रिय पिता से उत्पन्न यदु वंश में हैहय वीतिहव्य, कार्तवीर्य अर्जुन आदि प्रख्यात सम्राट हुए। मनु के बाद सूर्यवंश के 121 प्रतापी सम्राट हुए। चन्द्रवंशियों में भी शताधिक तेजस्वी सम्राट हुए। ये सब महाभारत युद्ध से कम से कम 50 हजार वर्ष पूर्व हुए ऐतिहासिक शासक हैं।

आचार्य भगवद्दत्त ने भारतवर्ष का वृहद इतिहास, खण्ड-1 में प्रामाणिक रूप से भारतवर्ष के इतिहासके कम से कम 16000 ईसापूर्व से विशद प्रामाणिक विवरण दिए हैं। इसीलिए हिन्दुओं के शासन की भारत में कालावधि हमने परिशिष्ट-1 में 16000 ईसापूर्व से ही गिनी है, जो कि न्यूनतम कालावधि है। यद्यपि वस्तुतः कम से कम पचास हजार ईसापूर्व से भारतीय इतिहास के विशद ऐतिहासिक विवरण साहित्यिक साक्ष्यों में विद्यमान हैं।

महाभारत में तत्कालीन भारतवर्ष का विशद वर्णन है। जिनमें प्रमुख राज्यों में अभी के प्रसिद्ध राज्यों के साथ ही उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में बाह्लीक, परम काम्बोज, काम्बोज, शक, यवन, मत्स्य, खुश, उत्तर कुरु, उत्तर मद्र हैं। उत्तरी भारतीय राज्य हैं- कश्मीर, काम्बोज, दरद, पारद, पारसीक, तुषार, हूण, चीन, ऋचीक, हर हूण । पूर्वोत्तर राज्य है प्राग्ज्योतिष, शोणित, लौहित्य, पुण्ड, सुह्य, कौकट पश्चिमी राज्य हैं- त्रिगर्त, साल्व, मद्र, सिंधु, सोवीर, कैकय, गांधार, शिवि, पहव, यौधेय, सारस्वत, आभीर, शूद्र, निषाद शेष वर्तमान भारतीय राज्य तो हैं ही स्पष्ट है कि महाभारत काल में चीन, हेला (यवन राज्य), तिब्बत, अफगणस्थान, ईरान (पारसीक राज्य) आदि सभी भारतीय क्षेत्र थे। इनमें हजारों अत्यन्त तेजस्वी भारतीय राजा हुए हैं। भारत के इस विराट इतिहास को आधुनिक यूरोप के समक्ष रखकर देखना और तुलना करना कालप्रवाह का अज्ञान ही है। अयोध्या, हस्तिनापुर, पाटलिपुत्र और उज्जयिनी रही हैं हजारों वर्षों तक भारत

की राजधानी महाभारत कालीन भारतवर्ष में ययाति के पुत्र अनु के वंशज आनवों का शासन पारसीक क्षेत्र (ईरान) में था। ऐलवंशियों एवं तुर्वसु के वंशजों ऐलों-यवनों का शासन यवन राज्य में था, जो आज भी 'ऐलों' या 'हेलेनिक रिपब्लिक' कहा जाता है। उसे केवल अंग्रेजी में 'ग्रीस' कहते हैं। ययातिपुत्र द्र के वंशजों का शासन आयरलैंड और इंग्लैंड से काम्बोज तक था और मध्य भारत में भी कई क्षेत्रों में उनका राज्य रहा। भारतीय शकों का शासन पृथा (पर्धिया), सीथिया, खोतान, कजाकस्तान में रहा। भारतीय हूणों और भारतीय मूल के चीन वंशियों का शासन सम्पूर्ण चीन, उत्तर चीन, अपर म्लेच्छ आदि क्षेत्रों पर था। महाभारत काल में चीन भी भारत का अंग था और 15वीं शताब्दी ईस्वी तक यूरोप में प्राप्त अधिकांश नक्शों में चीन को भारत का ही अंग दिखाया जा रहा था। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चीन, तिब्बत, यवन, हूण, शक, बाह्रीक, किरात, दरद, काम्बोज, गांधार, तुषार (तुर्कमेनिस्तान और तुर्की), सिन्धु, सौवीर, काश्मीर, आभीर, पारद आदि के राजा उत्तरी और पश्चिमोत्तर भारतीय क्षेत्रों से भेंट देने आये थे।

महाभारत के बाद के 5100 वर्षों की और उसके पूर्व के कुछ हजार वर्षों की ही बात कहें, तो भारतीय इतिहास ग्रन्थों के अनुसार तीन हज़ार वर्षों तक भारतवर्ष में भरतवंश की राजधानी हस्तिनापुर थी। स्वयं पार्जिटर ने महाभारत से पूर्व के 95 राजाओं की सूची दी है, जिनका औसत काल वह 20 वर्ष मानता है, यद्यपि पूर्व के राजा दीर्घजीवी होते थे महाभारत काल भले वह बहुत बाद बताता है, पर पार्जिटर की गणना से भी महाभारत के पूर्व के लगभग 2000 वर्ष तो भारतीय सभ्यता का गौरव काल मान्य ही है। हस्तिनापुर, उज्जयिनी, पाटलिपुत्र, उसके पूर्व कई हज़ार वर्षों तक अयोध्या भारतवर्ष के चक्रवर्ती सम्राटों की राजधानी रही थी। भरत वंश के बाद ईसा पूर्व 2133 से ईसा पूर्व 1995 तक ( 138 वर्ष) प्रद्योत वंश का भारत के बड़े हिस्से में राज्य रहा। तदुपरान्त शिशुनाग वंश के राजाओं ने देश के बड़े हिस्से पर राज्य किया, जिनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस वंश का राज्य 1995 से ईसा पूर्व 1635 तक ( 360 वर्ष) रहा। इसी शिशुनाग वंश में चौथे प्रतापी सम्राट हुए बिम्बसार, जिनके समय में भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण ईसा पूर्व 19वीं शताब्दी (1807 ईसापूर्व) में हुआ। अबुल फ़जल और कश्मीरी महाकवि कल्हण दोनों के अनुसार भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण ईसा पूर्व 14वीं शताब्दी में हुआ 500 वर्षों का यह अन्तर गवेषणा का विषय है।"

इक्ष्वाकु वंश में ही भगवान बुद्धदेव हुए। उनके पुत्र राहुल, राहुल के पुत्र प्रसेनजित, प्रसेनजित का प्रपौत्र सुरथ और उससे सुमित्र। इसके बाद इक्ष्वाकु वंशीय शासन का अन्त हो गया। यद्यपि वंश प्रवाह बना रहा। श्री गुरु नानकदेव इसी वंश में हुए हैं। 

बृहद्रथ के वंश में जरासंध सहित 22 राजा हुए, जिन्होंने एक हजार वर्षों तक मगध साम्राज्य पर शासन किया। मगध सम्राट बिम्बिसार के पुत्र हैं सम्राट अजातशत्रु, उनके पौत्र उदयन। उदयन के पुत्र नंदिवर्द्धन और पौत्र महानंदी। महानंदी को ईस्वी पूर्व 1635 में महापद्मनंद ने पराजित किया। नंद वंश का शासन सौ वर्ष चला। अन्तिम नंद सम्राट घननंद को चन्द्रगुप्त मौर्य ने ईस्वी पूर्व 1535 में पराजित किया। नंदवंश के समय में भी मगध का शासन व्यास नदी तक विस्तृत था। मौर्य वंश का शासन 316 वर्षों तक चला। आचार्य पाणिनि का यही काल है ईसापूर्व - 15वीं शती चन्द्रगुप्त मौर्य के अन्तिम वंशज बृहद्रथ मौर्य को उनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने ईसा पूर्व 1219 में मार डाला। शुंग वंश का शासन तीन सौ वर्ष तक चला और उसके बाद कण्वों का शासन 85 वर्ष तक भारत के बड़े हिस्से में रहा। कण्व वंश के अन्तिम राजा सुशर्मा को उनके सेवक आन्ध्रों ने पराजित कर दिया। इस प्रकार, 1161 वर्षों तक भारत के सबसे बड़े साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र रही। इसके बाद 506 वर्षों तक सातवाहन साम्राज्य भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य रहा, जिसकी राजधानी गोदावरी तट पर प्रतिष्ठान (पैठन) थी सातवाहनों को द्वितीय गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने ईसा पूर्व 328 में हराया और तब से पुनः पाटलिपुत्र ही भारत के सबसे बड़े साम्राज्य की राजधानी बना, जो 7वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक बना रहा अर्थात् - लगभग एक हज़ार वर्षों तक इस प्रकार पाटलिपुत्र भारत के सबसे बड़े साम्राज्य की राजधानी दो हज़ार एक सौ वर्षों से भी अधिक समय तक रहा है। पहले 1161 वर्षों तक निरन्तर । फिर 506 वर्षों के अन्तराल के बाद पुनः 1000 वर्षों तक निरन्तर । यद्यपि चक्रवर्ती सम्राटों की अधीनता स्वीकार करने के साथ भारत में हमेशा से अनेक राज्य होते रहे हैं।

खनीय है कि प्राचीन भारत के ऐतिहासिक अभिलेखों में हिमवन्त से दक्षिण महोदधि तक तथा बंग से यवन प्रान्त तक के विस्तृत विवरण हैं। उदीच्य, निचय, भरत जनपद, मध्यदेश, पांचाल, कोशल, प्राज्य, विदेह, पुण्डु, अंग, कीकट, काशी, वत्स, चेदि, उशीनर, संजय, खाण्डव, मत्स्य, शाल्य, शिवि, यदु केकय, गान्धार, पार्थ, काम्बोज, पारसीक, यवन आदि के विवरण दर्शाते हैं कि उत्तरी भारत का जो पूर्व पश्चिम विस्तार है, उसमें खाण्डव और कुरुक्षेत्र मध्य में हैं। जितना म्यांमार से कुरुक्षेत्र, उतना ही कुरुक्षेत्र से पश्चिम फैला था प्राचीन भारतवर्ष यही स्थिति उत्तर की भी है। चीन, हूण, आदि भारत के अंग थे, जैसा कि उल्लेख हो चुका है। कनिष्क और सातवाहनों का काल

भारतीय कुषाण सम्राट कनिष्क का काल ईसापूर्व तेरहवीं शती है। कुषाण सनातनधर्मी राजा थे। पुरुषपुर (पेशावर) उनकी राजधानी थी। वर्तमान बैक्ट्रिया प्राचीन भारत का अंग था। बल्ख, बुखारा, गांधार, पर्चिया, खोतान, चीनी तुर्किस्तान - ये सभी भारत के अंग थे और ईसा की पहली शती तक यहाँ कुषाण वंश शासन करता था। कनिष्क के समय तक पारसीक, यवन, बौद्ध आदि सभी सनातनधर्मी ही माने जाते थे। इसीलिए कनिष्क ने सभी का सम्मान किया। उसके पुत्र-पौत्र प्रतापी सम्राट हुए।

जो शिक्षित जन भारत के विषय में यवन यात्रियों के विलुप्त ग्रन्थों के छिट पुर अंशों के विवादास्पद अनुवादों के आधार पर भारत का तथाकथित 'प्रामाणिक' इतिहास रचने का दावा करते हैं और वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों, सूत्रों, कल्पों, शिक्षा शास्त्रों, व्याकरण-शास्त्रों, छन्द-शास्त्रों, ज्योतिष-शास्त्रों, पुराणों, महाभारत और रामायण जैसे विराट विद्वत्तापूर्ण, प्रामाणिक अभिलेखीय साक्ष्यों को पढ़ने की इच्छा तक नहीं करते, उन पर दया ही उचित है।

परम्परागत प्रमाण हैं कि सम्राट अशोक का राज्याभिषेक 1472 ईसापूर्व में हुआ भारतीय यवन नरेश मिलिन्द का काल 320 ईसापूर्व से 307 ईसापूर्व है। कुमारिल भट्ट का जन्म 557 ईसापूर्व में हुआ। आचार्य शंकर का जन्म ईसापूर्व 509 मैं में हुआ। उन्होंने ईसापूर्व 500 में सन्यास ग्रहण किया। उनका निर्वाण 477 ईसापूर्व में हुआ। मठों में सुरक्षित अभिलेख ऐतिहासिक प्रमाण हैं।

गुप्त साम्राज्य का प्रारम्भ ईसापूर्व 327 में हुआ। महाराज विक्रमादित्य का जन्म

ईसापूर्व 101 में और राज्यारोहण ईसापूर्व 57 में हुआ।"

मालव- नरेश यशोधर्मा ने मिहिरकुल को 528 ईस्वी में हराया, तब दक्षिण भारत में पल्लव सम्राटों और चालुक्य सम्राटों का शासन था। गुप्त वंश के चक्रवर्ती शासन के अन्त के समय कलिंग में महाराज पृथ्वी-विग्रह और उत्तर में मौखरि वंश शासन कर रहे थे। बंगाल में गौड़ वंश का शासन था।" डी. देवहूति की पुस्तक 'हर्ष एक राजनैतिक अध्ययन' (आक्सफोर्ड, दिल्ली) में पाँचवीं से सातवीं शती ईस्वी की राजनैतिक दशा का विहंगम अवलोकन है।

सम्राट हर्षवर्धन के समय (606-647 ईस्वी) से कन्नौज उत्तरी भारत की राजधानी बना, जो 11वीं शताब्दी के अन्त तक उत्तरी भारत का सबसे प्रमुख नगर था।" इतिहास के विषय में मनमानी विलियम जोन्स के शिष्यों की गुरुभक्ति

हुआ यों कि प्रसिद्ध ब्रिटिश पादरी विलियम जोन्स ने 28 फरवरी, 1793 ई. को कोलकाता में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के एक सेमीनार में एक लेख पढ़ा।* इस लेख में यवन यात्री मेगस्थनीज़ की 'इंडिका' के एक अंश को किसी अंग्रेजी लेखक द्वारा उद्धृत किये जाने का उसने हवाला दिया। यहाँ पाठकों को बता दें कि 'इंडिका' उन दिनों एक अप्राप्य ग्रन्थ था। उसके लिखे जाने व लुप्त होने के बहुत समय बाद कुछ इतालवी लेखकों ने अपनी रचनाओं में उसकी चर्चा भर की थी। ऐसी एक चर्चा में एक लेखक ने यह लिखा था कि मेगस्थनीज़ की इंडिका में यह लिखा गया है कि अलेक्जेंडर ने पोलिबाध में सेण्ड्राकोटस से भेंट की थी। परन्तु यह सेण्ड्राकोटस कौन था, यह ज्ञात नहीं है। सहज बुद्धि से यह 'समुद्रगुप्त' भी सम्भव है। उसी लेखक के सहारे से 18वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में 1793 ई. में विलियम जोन्स ने 'इण्डिका' की रचना के शताब्दियों बाद, उसके एक तथाकथित अंश के बारे में बाद में उद्धृत एक अनुमान मात्र के आधार पर अपनी मनमानी व्याख्या द्वारा पहली बार दावा किया कि उक्त सेण्ड्राकोटस तो भारतीय राजपुरुष चन्द्रगुप्त मौर्य ही हैं, जो बाद में मगध नरेश बने। इस प्रकार विलियम जोन्स ने इस कल्पना को तथ्य रूप में प्रस्तुत कर निम्नांकित दो मनमानी स्थापनाएँ चलायीं-

(1) सिकन्दर (अलेक्जेंडर या अलिग्जन्दर) 'ग्रेट' (महान) था। वह भारत की सीमा के भीतर तक आ गया था। (2) चन्द्रगुप्त मौर्य का काल ईसा पूर्व 16वीं शताब्दी में (ईसा पूर्व 1535) नहीं, वरन ईसा पूर्व चौथी सदी में था।

मात्र अनुमान के आधार पर, कल्पना से भारतीय इतिहास रच देने की यह कला साम्राज्यवाद की विशेषता बनी। भारतीय साक्ष्य यह बताते हैं कि ईसा पूर्व चौथी सदी में भारत के महान चक्रवर्ती सम्राट समुद्रगुप्त का शासनकाल था और उनके बाद प्रतापी गुप्तवंशी सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भारत के चक्रवर्ती सम्राट हुए, जिन्होंने सीमान्त क्षेत्रों में बसे यवन क्षत्रपों को भारत से खदेड़ा, सम्पूर्ण गान्धार क्षेत्र जिनके शासन के अन्तर्गत था तथा पारसीक प्रदेश की भी उनसे संधि थी और पारसीक देश की सीमाएँ यवन राज्य को छूती थीं। भारत की सीमाएँ यवन प्रान्त तक थीं, अतः वैसे भी यवनों का भारत में फैलना एक सामान्य बात ही होती, परन्तु एक संदिग्ध अनुमान को ही व्यवस्थित कालक्रम निर्धारण का आधार बना लेना, एक अति उर्वर, कल्पनाप्रवण परन्तु सत्यनिष्ठा से शून्य चित्त एवं मस्तिष्क का लक्षण है। अलिग्जन्दर की सच्चाई: भारतीय शौर्यगाथा सुन आगे बढ़ा ही नहीं

भारतीय स्रोतों में किसी भी अलेक्जेंडर या सिकन्दर के भारत पर आक्रमण का उल्लेख नहीं है। 'एनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना' (प्रधान सम्पादक बर्नार्ड केने, प्रकाशक अमेरिकन कॉरपोरेशन, न्यूयार्क, सन् 1829, नया संस्करण 1971) में पृष्ठ क्र. 537540 तक सिकन्दर के बारे में यह बताया गया है 'अलेक्जेंडर या अलिग्जन्दर (भारतीय भाषा में इसे ही अलक्षेन्द्र कहा है) मकदूनिया या मासदुनिया का राजा था। वह मासदूनिया के पल्ला नगर से चला और दजला-फरात नदियों के किनारे बढ़ते-बढ़ते पाटल तक पहुँचा। वहाँ से तक्षशिला की ओर बढ़ा और फिर वापस मकराने के रास्ते काबुल लौट गया। भारत के सम्राट की सेना और उस सेना के हाथियों की वाहिनी का शौर्य सुनकर उसने आगे बढ़ने का साहस नहीं किया और लौट गया।' एनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना में यह भी लिखा है कि अलिग्जन्दर को पारसीक लोग अपने में से ही एक मानते थे, क्योंकि शताब्दियों तक पारसीक सम्राटों का आधिपत्य मकदूनिया तथा अन्य ग्रीक नगर राज्यों तक था।"

नौ में से एक यूनानी रियासत थी मासदूनिया भारत-विद्वेष से भरे लोग जिन सामान्य तथ्यों तक का ध्यान नहीं रखते, उनमें से कुछ की चर्चा यहाँ आवश्यक है-

अलिग्जन्दर की माँ मिस्र की राजकुमारी थीं और मिस्री लोग उसे अन्त तक अपना व्यक्ति मानते रहे, जबकि पारसीक लोग उसे अपना व्यक्ति मानते थे। उन दिनों यूरोपीय क्षेत्र का नाम यूरोप नहीं था यूरोप नाम से कोई अस्तित्व ही किसी क्षेत्र का तब नहीं था।

(2) अलिग्जन्दर स्वयं को हेल या हेला कहता था। उसकी भाषा संस्कृत का एक अपभ्रंश रूप यवन भाषा थी। ग्रीक भाषा नामक ऐसी कोई भाषा विश्व में कभी भी नहीं थी, जिसे उसे बोलने वाले 'ग्रीक' कहते हों यवन या हेला भाषा को 'ग्रीक' नाम रोमनों ने दिया। क्योंकि जिस जगह यवनों से रोमनों का युद्ध हुआ, उस जगह का नाम 'ग्राइ' या 'ग्राम' था। अंधकार युग में अर्थात् चर्च द्वारा यूरोप में पहले के ज्ञान का सम्पूर्ण निषेध और विनाश किये जाने के युग में यूरो-क्रिश्चियन लोगों ने भी वही नाम अपना लिया और अंग्रेजी में उसे ग्रीक कहने लगे। परन्तु यवन लोग आज भी स्वयं को हेला या हेलेनिक ही कहते हैं, ग्रीक नहीं।

(3) अलिग्जन्दर सनातनधर्मी था। बहुदेववादी था। परमसत्ता को सर्वव्यापी मानता था। उसका ईसाइयत से किसी भी प्रकार का दूर-दूर तक कोई भी सम्बन्ध जोड़ पाना सम्भव नहीं है।

(4) रोमनों की अधीनता में ईसापूर्व 146 में आने के बाद मासदुनिया का विखण्डन चार जागीरों में कर दिया गया और वे सभी रोमन राज्य के जिले बन गये।

(5) विसिगोर्थो, हूणों, अवारों, आस्ट्रोगोथों के बाद 8वीं शती ईस्वी में मासदूनिया मुख्यतः स्लावों का क्षेत्र बन गया। जिस ऐल या हेला जाति का अलिग्जन्दर था, उस प्रजाति के थोड़े-से लोग मुख्यतः नगरों में और कुछ अंचलों में इन दिनों खेती-किसानी का काम करते हैं। शेष यवन लोग आज स्लाव, बल्गार, तुर्क, यहूदी, सर्व और हूण नस्ल के हैं। जहाँ तक अलिग्जन्दर के धर्म और संस्कृति की बात है, वह आज के मासदूनिया में पूर्णतः विलुप्त है। आज वहाँ मुख्यतः अनेक क्रिश्चियन पंथ हैं, कुछ यहूदी हैं और कुछ मुसलमान भी हैं, परन्तु अलिग्जन्दर के धर्म का अनुयायी आज वहाँ एक भी व्यक्ति नहीं है। न वह धर्म बचा है, न वह भाषा, न संस्कृति। भाषा के पुनरुज्जीवन का कुछ प्रयास अवश्य हो रहा है। भारत निन्दक लोग सिकन्दर या अलिग्जन्दर के किन गुणों के समक्ष भारत को तौल रहे हैं, यह स्पष्ट नहीं है। (विवरण के लिए देखें, एनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना, अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण, मूल 1829, नया संस्करण 1971, अमेरिकाना कॉर्पोरेशन, न्यूयॉर्क, भाग- 18, एम से मैक्सिको तक की एन्ट्री वाले खण्ड में मासदूनिया एन्ट्री, पू. 43-45 तथा पर्नेल्स न्यू इंग्लिश एनसाइक्लोपीडिया में अलिग्जन्दर' पृ. 130-131 और 'मासदूनिया' पृ.3775-76) 1

यहाँ यह बताना भी प्रासंगिक है कि ईसा पूर्व 7वीं शताब्दी से सिकन्दर के समय तक सम्पूर्ण यवन क्षेत्र नौ अलग-अलग राज्यों में विभाजित था। इन नौ में से एक छोटा राज्य था मासदुनिया या मकदूनिया" वस्तुतः मकदूनिया कभी स्वयं को ग्रीस नहीं कहता था। अन्य यवन राज्य मकदूनिया को पारसीक प्रभाव वाला क्षेत्र मानते थे। स्पार्टा और अत्तिका यवन क्षेत्र के अन्य प्रमुख नगर राज्यों में से थे।

दुर्भाग्यवश भारत में अकारण भारत निन्दा की उद्दण्डता करने वाले सत्यद्रोही लोगों की विद्वत् समाज में भर्त्सना की कोई विधि विहित व्यवस्था एवं परम्परा इन दिनों नहीं है, अतः कुछ लोग अज्ञानवश या किन्हीं अन्य कारणों से तथा कुछ अन्य लोग विदेशों के प्रति सप्रयोजन निष्ठावश मकदूनिया के राजा सिकन्दर की विजय की गल्प गढ़कर भारत की काल्पनिक कमजोरियाँ गढ़ते-गिनाते हैं, परन्तु मकदूनिया स्वयं हजारों वर्ष तक एक क्षत-विक्षत रियासत मात्र रही है, यह छिपाना तो प्रज्ञापराध है। सर्बिया के दक्षिण और हेलों के उत्तर बसी यह रियासत प्राचीन भारतीयों की ही थी। भारतीय दरद जन एवं यवनों का एक हिस्सा वहाँ शासन कर रहा था।

सिकन्दर के पिता फिलिप द्वितीय को एक अन्य भारतीय पारसीक नरेश ने हराया। उस हार का बदला लेने के लिए सिकन्दर ने पारसीक प्रान्त पर आक्रमण किया और जीता। बाद में मकदूनिया पर रोमनों ने कब्जा कर लिया। फिर स्लावों ने उसे गुलाम बनाया। तदुपरान्त बल्गार लोगों ने बल्गारों से उसे बिजेताइन साम्राज्य ने छीना 13वीं शती ईस्वी में बल्गारिया ने पुनः उसे अपने अधीन कर लिया। 14वीं शती ईस्वी में उस पर सर्बिया का राज्य हो गया। फिर कुछ समय वहाँ तुर्कों का राज्य रहा। फिर 200 वर्षों तक लड़कर उस पर ईसाई अपना राज्य बनाने में सफल हुए उनमें स्लाव एवं वल्गार नस्ल के लोग ही मुख्य थे बहुत दिनों तक युगोस्लाविया के अधीन रहकर 1993 में वह अभी 17 वर्ष पहले स्वाधीन मकदूनिया गणतंत्र बना है।

मकदूनिया की कुल लम्बाई लगभग ढाई सौ किलोमीटर है और औसत चौड़ाई लगभग 60 किलोमीटर। इस प्रकार, वह उत्तरप्रदेश के पुराने गोरखपुर जिले या गाजीपुर जिले से आकार में छोटा है। सिकन्दर के समय मकदूनिया की कुल आबादी लगभग दो लाख थी आज भी मकदूनिया एक अलग राष्ट्र है, जिसका कुल क्षेत्रफल 25,713 वर्ग किलोमीटर या 9779 वर्ग मील है और उसकी कुल आबादी सन् 2010 ईस्वी में लगभग 21 लाख थी। उसे 'रेपब्लिका मेकेदोनीजा' कहा जाता है। अतः भारत निन्दक दयनीय सिकन्दरवादी किसके सन्दर्भ में भारत के दोष गिनाते हैं, कुछ तो सोचें।

2200 वर्षों बाद कहने लगे 'ग्रेट' 1100 ईसा पूर्व से 800 ईसापूर्व तक का यवन इतिहास अंधकार युग कहा जाता है। उसके पूर्व वहाँ मोसीनी सभ्यता का राज्य था ईसा पूर्व 380 में पारसीक नरेश क्षयार्श (देरिउस) ने यवन क्षेत्र के सभी नौ राज्यों को जीत लिया था।" 45 वर्षों बाद अपने देश मकदूनिया की इसी हार का बदला लेने की प्रतिज्ञा सिकन्दर ने पूरी की। उसे यह अवसर युवावस्था के प्रारम्भ में ही मिल गया, क्योंकि मकदूनिया में राजवध की लम्बी परम्परा थी तथा सिकन्दर के कुछ मित्रों ने एक समारोह में अचानक आक्रमण कर सिकन्दर के पिता को मार डाला था। 22 मई, 334 ई.पू. को उसने गागा मेला की लड़ाई में पारसीक सेना की टुकड़ी को हराया। बाद में उसने वह पूरा क्षेत्र पारसीक नरेश को लौटा दिया। बहुत छोटी रियासत का एक महत्त्वाकांक्षी वीर युवा राजकुमार था सिकन्दर या अलिग्जन्दर उसकी वीरता प्रशंसनीय है परन्तु उसकी कुल शक्ति बहुत थोड़ी थी। वह एक रियासतदार ही था।

अलेक्जेंडर को उसके समय के किसी भी इतिहास लेखक ने 'ग्रेट' या महान नहीं कहा था उसे 'ग्रेट' पहली बार 19वीं शताब्दी ईस्वी में ईसाई मिशनरियों ने कहा" यद्यपि सिकन्दर ईसाई नहीं अपितु सनातनधर्मी यवन था और वह बहुदेवपूजक था। उसकी वीरता की प्रेरणा सनातन धर्म के यवन रूप से मिली प्रेरणा थी। बेचारे मिशनरी ईसाइयों को अपना लज्जास्पद अतीत 'ढकने के लिए एक सनातनधर्मी यवन की आड़ लेनी पड़ी और उसकी ही स्तुति अतिरंजित रूप से करनी पड़ी, उनकी यह विवशता समझी जा सकती है। सात

महान साम्राज्य जिनसे भिड़ने का साहस नहीं कर पाया सिकन्दर सिकन्दरवादी भारतीयों की आत्महीनता दूर करने के लिए कतिपय ऐतिहासिक तथ्यों की चर्चा उचित है। जिस समय मकदूनिया में सिकन्दर हुआ और उसने मिल तथा पारस के कुछ हिस्सों को जीता, ठीक उसी समय तत्कालीन विश्व में कम से कम सात निम्नांकित महान साम्राज्य मौजूद थे, जिनमें से एक की ओर भी ताकने का साहस युवक सिकन्दर ने नहीं किया। यह उचित ही था। वह वीर था। उन्मत्त मूढ़ नहीं था। अपनी कुल ताकत वह जानता था। उसे 19वीं शताब्दी ईस्वी में अचानक विश्वविजयी बताने लगना कल्पना तो है, सत्य नहीं है। तत्कालीन सात महान साम्राज्य ये थे-

(1) भारत का महान गुप्त साम्राज्य : भारत के महान सम्राट समुद्रगुप्त और उनके बाद महान सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय, जो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कहलाये। जोन्स के चेलों के असर से इनका समय चौथी शती ईस्वी बताया जाने लगा है, जबकि वस्तुत: ये ईसा पूर्व चौथी शती में हुए तथा सिकन्दर के समकालीन हैं। गुप्तों की राजधानी पाटलिपुत्र थी और उनका राज्य काश्मीर तक फैला था। स्वयं ग्रीक स्रोतों के अनुसार पाटलिपुत्र के सम्राट की वीरता की गाथा सुनकर सिकन्दर झेलम नदी के तट से वापस लौटा, भिड़ने का साहस नहीं किया। पौरव राज्य से उसके युद्ध का अत्यन्त संदिग्ध संकेत ही कुछ ग्रीक स्रोतों में है। वे भी यही मानते हैं कि पाटलिपुत्र से कश्मीर तक फैले भारतीय साम्राज्य से भिड़ने का साहस सिकन्दर में नहीं था। किसी भारतीय स्रोत में तो सिकन्दर का उल्लेख है ही नहीं। प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार जे. सी. रेविल ने भी अपनी 'वर्ल्ड हिस्ट्री' (खण्ड-3, अध्याय-5, पृ.- 66) में यही लिखा है कि सिकन्दर को अपनी सेनाओं के दबाव से बिना लड़े भारत की सीमा से लौट जाना पड़ा।

(2) महान मंगोल साम्राज्य : महान सनातनधर्मी मंगोल सम्राट शिआंगनू से भिड़ने का साहस सिकन्दर ने कभी नहीं किया। उन दिनों मंगोल साम्राज्य 2000 किलोमीटर लम्बा और 4000 किलोमीटर चौड़ा था। इसका क्षेत्रफल 80 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक था। मकदूनिया से 500 गुने से भी अधिक बड़ा आगे चलकर इसी मंगोल वंश में चार अत्यन्त प्रतापी एवं विश्वविख्यात सम्राट हुए (1) मोदुन, (2) अत्तिला या अतिबला, (3) चिनगिज हान और (4) कुवलय हान (कुबलई खान)। मंगोलों ने चीन पर 1700 वर्षों तक शासन किया। ये सभी सनातनधर्मी बहुदेवपूजक शासक थे। बौद्ध धर्म एवं हिन्दू धर्म दोनों के महान संरक्षक।

(3) महान कार्थेज साम्राज्य : महान अफ्रीकी साम्राज्ञी कार्थेज, जो भारतवंशी थीं और जिनका वास्तविक नाम कुछ अन्य था। सम्भवतः उनका नाम कृतिका या कृतिना था क्योंकि ये विशाल कृति राष्ट्र की स्वामिनी थीं, जो बाद में छोटा होकर भी आज तक विद्यमान है। प्राचीन अभिलेख नष्ट कर उनका यह कल्पित या बिगड़ा हुआ नाम ईसाई मिशनरियों ने प्रचारित किया। भारतीय पाण्डा-वंश की साम्राज्ञी कार्थेज या कृतिजा का शासन सिकन्दर के समय ही उसके पड़ोस के यूनानी राज्य सिसली तक था साम्राज्ञी कार्थेज पर आक्रमण का साहस सिकन्दर ने कभी नहीं किया। इन्हीं महान साम्राज्ञी के वंश के शासन में बाद में एक विश्वविख्यात सेनापति हानिबल हुए जिन्होंने रोम साम्राज्य के अनेक हिस्सों पर कब्जा कर लिया। हानिबल की प्रसिद्धि थी कि जो भी सेनापति या सम्राट उसके सामने पड़ता, उसके बल की हानि ये अवश्य करेंगे। भारतीय वंश की साम्राज्ञी कार्थेज या कृतिजा बहुदेवपूजक सनातनधर्मी थीं Ps

(4) महान रोमन साम्राज्य : मकदूनिया से सटे उत्तरी, उत्तर-पूर्वी एवं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में सिकन्दर के समय भी रोमन साम्राज्य फैला हुआ था। सिकन्दर की इनसे भिड़ने की हिम्मत कभी नहीं हुई।" वस्तुतः रोम पर शक (हूणों) का शताब्दियों राज्य रहा है। शक, भारतीय मूल के हूण ही हैं। हूण भी मूलतः भारतीय ही हैं। भारत के दो प्राचीन जनपद रहे हैं- शक राज्य एवं हूण राज्य, जो उत्तर एवं उत्तर-पश्चिम में थे। ये महाभारत में सहभागी थे और युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आदर सहित उपस्थित थे।

(5) महान भ्रमण साम्राज्य : महान सामन या श्रमण साम्राज्य, जिनसे रोमन साम्राज्य तीन-तीन बार हारा, चौथी बार रोमनों और सामनों में संधि हो गयी। सिकन्दर कभी भी सामनवंशी (श्रमण) वीरों से लड़ने का साहस नहीं जुटा पाया यह बौद्धों का साम्राज्य था।

(6) महान इंका साम्राज्य : दक्षिणी अमेरिका में फैले महान इंका साम्राज्य से भिड़ने का साहस सिकन्दर कभी नहीं कर पाया। सिकन्दर जब अपने उत्कर्ष के शिखर पर था, तब भी उसके द्वारा विजित कुल क्षेत्र ईका साम्राज्य के बराबर ही था। गुप्तों, मंगोलों, रोमनों और कार्थेज के साम्राज्य से तो उसका साम्राज्य बहुत छोटा था"

(7) महान ब्राजील साम्राज्य : महान ब्राजील साम्राज्य जो मकदूनिया से लगभग तीन सौ गुना विशाल था। ब्राजील 2000 वर्षों तक अविजित राष्ट्र था। सिकन्दर ने इससे भिड़ने का साहस कभी नहीं किया ?"

इस प्रकार ये सात महान साम्राज्य थे, जिनसे कभी टकराने का साहस सिकन्दर नहीं कर पाया। इसके अतिरिक्त घना और कांगो जैसे शक्तिशाली राष्ट्र थे, जिनसे टकराने की हिम्मत सिकन्दर कभी कर नहीं सकता था। ऐसे अपने समय के सैकड़ों अन्य राजाओं में से एक राजा सिकन्दर को विश्वविजयी बताने वालों की चितदशा और मनोदशा का अनुमान सहज सम्भव है। शताब्दियों तक यवन (ग्रीस) भारतीय प्रभाव क्षेत्र था यहाँ यह भी स्मरण उचित होगा कि शताब्दियों तक पूरा यवन राज्य (ग्रीस) भारतीय प्रभावक्षेत्र में रहा था। पुराणों के अनुसार, यवन प्रदेश (ग्रीस) भारतवर्ष के उत्तरापथ का अंग है। महाभारत में भीष्मपर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व में नौवें अध्याय में भारतवर्ष के लगभग ढाई सौ जनपदों का उल्लेख है, जिनमें उत्सवसंकेत, त्रिगर्त, चीन, उत्तरम्लेच्छ, अपरम्लेच्छ, हूण, गान्धार, पारसीक, बाह्रीक, पहव, यवन, दरद आदि जनपद शामिल हैं। भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में दोनों पक्षों की सेनाओं का वर्णन है, जिनमें से कौरव सेना के बायें भाग में कृपाचार्य के नियंत्रण में शक, पव (ईरान), यवन (ग्रीस) आदि देशों के तथा भीष्म के नियंत्रण में सिन्धु, पंचनद, सौवीर और बाहीक (बल्ख बुखारा) तथा दुर्योधन के नियंत्रण में गान्धार (अफगानिस्तान) आदि राज्यों के सैनिक गिनाये गये हैं।" यों भीष्म पितामह जो सम्पूर्ण सेना के हो सेनापति थे, पर बाह्रीक आदि उनकी विशिष्ट सेना के अंग थे। सम्पूर्ण महाभारत में यवन नरेश एवं यवन सेना का वर्णन भरा पड़ा है। पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' में, पतंजलि के 'महाभाष्य' में और सम्राट अशोक के पाँचवें तथा तेरहवें प्रस्तर अभिलेख में यवनों को भारत के ही जन कहा गया है। विष्णुपुराण में यवन जनपद को भारत का ही अंग बताया गया है। मनु स्मृति के अनुसार भारत की जिन बारह क्षत्रिय जातियों ने यज्ञादि क्रियाओं और यज्ञोपवीत संस्कार को त्याग दिया, वे क्रमश: वृषल हो गयीं। इन बारह क्षत्रिय जातियों में काम्बोज, यवन, शक, दरद, प, किरात, चीन, द्रविड़, पौण्ड्रक, पारद आदि शामिल हैं। विष्णु पुराण के अनुसार भारत खण्ड के पश्चिमी भाग में यवन रहते हैं।" वस्तुतः 19वीं शताब्दी से पहले ग्रीस को कभी भी यूरोपीय देश नहीं कहा जाता था यूरोप ने ग्रीक भाषा ग्रीस से कभी नहीं सीखी, क्योंकि ग्रीक यानी यवन लोग कभी भी स्वयं को ग्रीक नहीं कहते थे। यूरोप ने जो तथाकथित ग्रीक सीखी है, यह रोम के द्वारा सीखी है। जैसे कोई मंगोलिया या रूस के द्वारा संस्कृत सीखे, उस तरह की यह बात है।

यहाँ यह तथ्य स्मरण कर लेना आवश्यक है कि प्राचीन यवन क्षेत्र के लोग अलक्षेन्द्र (अलिग्जन्दर) के बाद के दो हजार वर्षों तक भी कभी अपने को ग्रीक नहीं कहते तथा अपने देश को ग्रीस नहीं कहते हैं। सभी यवन सदा स्वयं को 'हेलें' कहते थे और कहते हैं, जो वस्तुतः 'ऐलों' का ही रूप है। भारतीय इतिहास के. अनुसार भी मनुपुत्री इला के वंशज ऐल कहलाये और ऐलों ने यवन क्षेत्र पर राज्य किया। ऐल ही सभी यवन ग्रन्थों में उनके सर्वोच्च महानायक कहे गये हैं।" आज भी जिस देश को मुख्यतः इंग्लैंड और अंग्रेजी भाषी लोग ग्रीस कहते हैं, उस देश के लोग स्वयं अपने देश को ग्रीस नहीं कहते, अपितु 'ऐला' कहते हैं और उस देश का अधिकृत नाम आज भी 'ऐलिनिक दिमोक्रेतिया है तथा राजधानी का नाम 'अतिना' है। 'ग्रीस' उसका इंग्लिश शॉर्टम है। अंग्रेज़ी में भी उसका पूरा नाम आज भी 'हेलेनिक रिपब्लिक' है, ग्रीस नहीं।

होमर ने अपने महाकाव्य 'इलियड' में इन्हें 'हेलें' या 'हेलेन' कहा है साथ ही पारसीक क्षेत्र से सटे 'हेलों' को होमर ने 'यवोन्स' कहा है। जो यवनों का ही पर्याय है। महाकवि होमर ईसापूर्व पहली सहस्राब्दी के कवि हैं। अतः वे प्रामाणिक साक्ष्य हैं। उन्होंने यवनों के लिए 'दानव' या 'दामोइ' तथा अहिमक या अहियोइ शब्दों का भी प्रयोग किया है। यवनों की उस भाषा को जो संस्कृत का ही रूप थी, 'ग्रीक' नाम तो 17वीं-18वीं शती ईस्वी में रोमन ईसाइयों द्वारा दिया गया है। ईसापूर्व पहली शती में सनातन धर्मी रोमनों ने दूसरे सनातन धर्मी राज्य यवन क्षेत्र को जब जीता, तो रोम के निकटवर्ती एक यवन नगर का नाम 'ग्राइ' था, जिससे रोमन लोग उनकी भाषा को भी 'ग्राइक्स' (ग्राइ या ग्राम या ग्राह्य नामक नगर में बोली जाने वाली भाषा) कहने लगे।" यह 'ग्राइक्स' एक लेटिन नाम है यूरोपियों ने मुख्यत: लेटिन पढ़ी थी और लेटिन के हो सहारे प्राचीन यवनों को ग्राइक्स या ग्रीक कहने लगे । यवन प्रान्त का ग्रीस नाम भी 18वीं शती ईस्वी का चलाया हुआ हैं, जैसे भारत का 'इंडिया' यूरोपीय ईसाइयों ने उसका ग्रीस नाम चला दिया। 1821 में पहली बार वह क्षेत्र स्वतंत्र हुआ है।" तब से वह स्वयं को ऐलदेश या हेलेनिक गणतंत्र ही कह रहा है। वस्तुतः प्रथम शताब्दी ईसापूर्व से 19वीं शताब्दी ईस्वी के 2 हजार वर्षों तक यह क्षेत्र पराधीन रहा और इसीलिए मूल यवन या हेला भाषा नष्टप्राय हो गई। क्रिश्चियन यूरोप में जिसे ग्रीक कहा जाता है, वह वस्तुत: हेलों की भाषा का लेटिनीकृत रूप है। भारत यदि स्वाधीन एवं स्वधर्मरत रहे तो वह मूल हेला भाषा के पुनरुज्जीवन में सहायक बन सकता है, जो संस्कृत के द्वारा ही सम्भव है। कुछ दृष्टान्त लें-संस्कृत 'कर्पास' (हिन्दी कपास) को हेला (ग्रीक) में 'कर्पासो' कहते हैं, अदरख (संस्कृत 'श्रृंगवेर') को हेला में 'जिंगिबेर' कहते हैं। 

संस्कृत 'पिप्पली (हिन्दी पीपर) को हेला में 'पेपरी' कहते हैं। शर्करा (शकर) को हेला में 'सक्खारों' कहते हैं। इसी प्रकार संस्कृत अग्र अग्रसर, अग्रगति, अग्रगामी आदि के समतुल्य हेला का 'एगो' है। पक्ष (पंख) के समतुल्य 'फतेरो', 'द्रविण' (धन और पराक्रम) के समतुल्य 'दरोओ' (पुरस्कार), 'अन्य' के समतुल्य हेला का अलोस (अन्य), हेलि ( सूर्य का एक संस्कृत नाम) के समतुल्य हेला भाषा का हेलिअस या हेलिअ आदि है। संस्कृत में अग्रिपूत विशेषण पवित्र व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है ला में इसी का समानार्थी आणिओस' है। संस्कृत का पुर ही हेला में 'पोलिस' है, जो अंग्रेजी में भी 'मेट्रोपोलिस' जैसे शब्दों में प्रयुक्त हो रहा है। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ 'मिलिन्द पन्हों' (पालि में) यवन मूल के भारतीय नरेश मिलिन्द की कथा है, जो वेद, पुराण, इतिहास तथा न्याय, वैशेषिक, सांख्य एवं योग के ज्ञाता थे तथा ईसापूर्व दूसरी शती में हुए बताये जाते हैं। उसी समय मध्यप्रदेश के विदिशा में यवन नरेश अवन्तिकदास के दूत हेलियदारस या ऐलियदारस (हेलियोडॉरस) ने एक स्तम्भ लेख अंकित किया है, जहाँ स्वयं को 'यवनदूत' कहा है और लिखा है त्रीणि अमृतपदानि नेयन्ति स्वर्ग दमो यज्ञं अप्रमादं (दम, यज्ञ एवं दान तथा अप्रमाद ये तीन अमृतपद हैं, जो स्वर्ग ले जाते हैं) ।" इससे स्पष्ट है कि यवन भाषा संस्कृत का ही प्राकृत के सदृश एक रूप है। 1218 ईसापूर्व के एक मिली अभिलेख में भी यवनों को 'अहियव' कहा है, जो सागरवासी लोगों का प्रतिरोध करते हैं।" स्पष्ट है कि ईसा से कम से कम 1200-1500 वर्ष पूर्व यवन क्षेत्र को यवन, अहियव और हेला या हेलेन कहा जाता था। बाद में वह भाषा लुप्तप्राय हो गई। यूरोपीयों द्वारा ग्रीक कही जाने वाली भाषा यवन भाषा का लेटिनीकृत एवं रोमनीकृत रूप है, मूल यवन भाषा नहीं 1976 ईस्वी के शिक्षा कानून द्वारा ऐलों के देश में जो तुर्कीकृत ग्रीक (हेला) भाषा पढ़ाई जा रही है, वह यथासमय अपने मूल रूप को प्राप्त कर लेगी, यह आशा है। यवन क्षेत्र के विषय में भारत के यूरण्डपधियों का अज्ञान कैसा गहरा है, इसकी एक झलक मात्र हमने यहाँ प्रसंगवश दी है। कुल 12 वर्ष का राज्यकाल है सिकन्दर का आगे अब पुनः बात करें अलिग्जन्दर या सिकन्दर की मासदूनिया या मकदूनिया नरेश सिकन्दर 22 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा और 33वें वर्ष में ही मर गया। इस प्रकार, कुल 12 वर्ष उसका शासनकाल था ।" इन 12 वर्षों में वह लगातार युद्धरत रहा और अन्त में युद्ध से ही थककर ज्वरग्रस्त होकर मर गया। वह निश्चय ही एक वीर क्षत्रिय था। परन्तु उसे विश्वविजयी बताना असत्य है और उसकी भारत पर विजय बताना भी असत्य है। सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय सीमान्त क्षेत्रों से भी यवन क्षत्रपों को भगा दिया गया था ।" 

एक हजार वर्षों का गौरवशाली इतिहास

महाभारत के बाद 2800 वर्षों तक भारत पर किसी विदेशी ने आक्रमण नहीं किया, यह तो भारत निन्दक भी मानते ही हैं। सिकन्दर के इस तथाकथित हमले के बाद अगला हमला भारत पर सातवीं शताब्दी ईस्वी में हुआ बताया जाता है। उसके तथ्यों पर हम आगे चर्चा करेंगे। यहाँ केवल यह तथ्य स्मरण करना उचित होगा कि सिकन्दर के इस तथाकथित आक्रमण से पहले, महाभारत युद्ध के बाद से 2800 वर्ष बीत चुके थे। इस पर तो सर्वसम्मति है कि इन 2800 वर्षों में भारत पर किसी भी प्रकार के आक्रमण का साहस किसी विदेशी ने नहीं किया। यद्यपि इस अवधि में विश्व के अनेक राष्ट्रों और देशों में निरन्तर विदेशी आक्रमण होते रहे थे। 2800 वर्षों तक भारत की ओर किसी ने ताकने का साहस नहीं किया तो यह निश्चय ही भारत की अपरिमित शक्ति का प्रमाण है। परन्तु इस शक्ति की कोई भी चर्चा सिकन्दर के काल्पनिक आक्रमण का शोर मचाने वाले लोग नहीं करते हैं। वे इन 2800 वर्षों को कुछ इस तरह गिनते हैं मानो ये केवल 28 दिन हों। इसी प्रकार, चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से 7वीं शताब्दी ईस्वी तक के 1000 वर्षों से अधिक के समय को भी कुछ इस प्रकार से नगण्य दर्शाया जाता है मानो यह केवल 1000 घण्टों की बात हो। पहले सिकन्दर आया, फिर मुसलमान आये, फिर अंग्रेज़ आये यह एक साँस में गिनाया जाता है। अत: इन 1000 वर्षों (चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से 7वीं शताब्दी ईस्वी तक) के भव्य भारतीय इतिहास का संक्षेप में स्मरण कर फिर तथाकथित मुस्लिम हमले की सच्चाई पर चर्चा करना उचित होगा। जोन्स की परस्पर विरोधी स्थापनाएँ

चौथी शताब्दी ईसा पूर्व भारत में गुप्त वंश, सातवाहन वंश, कण्व वंश, कुषाण वंश और खारवेल वंश के अत्यन्त शक्तिशाली राज्य रहे। जिन लोगों ने चौधी शताब्दी ईसा पूर्व के विषय में ब्रिटिश पादरी विलियम जोन्स की स्थापनाओं को अंगीकार कर लिया है और उस समय भारत में पाटलिपुत्र में घननंद का राज्य माना है तथा उसके तत्काल बाद ग्रीक सेनापति सेल्यूकस निकेटर की लड़ाई चन्द्रगुप्त द्वितीय से न मानकर चन्द्रगुप्त मौर्य से होना माना है, उनके अनुसार सम्राट अशोक का शासन तीसरी शताब्दी ईस्वी माना जाता है और भगवान बुद्ध का काल भी उन्होंने ईसा पूर्व छठीं शताब्दी ही माना है। कुछ अन्य ने उनका काल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक माना है। यद्यपि स्वयं विलियम जोन्स ने बुद्ध का परिनिर्वाण ईसा पूर्व 17वीं शताब्दी में माना है। परन्तु भगवान बुद्ध का समय चूँकि सम्राट बिन्दुसार और उनके पुत्र अजातशत्रु का समय है, अतः विलियम जोन्स द्वारा मानी गयी बुद्ध निर्वाण की तिथि यदि माननी हो तो चन्द्रगुप्त मौर्य का समय ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी मानना पड़ेगा। तब चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य के होने की कल्पना स्वतः ध्वस्त हो जाती है। तथ्य यह है कि विलियम जोन्स के समय तक चन्द्रगुप्त नाम के गुप्त सम्राट के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी और केवल चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम ही तत्कालीन इतिहासकारों के बीच तथा 'पुराणिक क्रोनोलॉजी' नामक ग्रन्थ के लेखक श्री मांकड़ के अनुसार भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण का समय ईसा पूर्व 2051 है " जबकि 'इंडियन क्रोनोलॉजी' के लेखक डी. एस. त्रिवेद के अनुसार भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण का समय ईसा पूर्व 16वीं शताब्दी है।" अबुल फजल ने ईसा पूर्व 1366 में और कल्हण ने ईसा पूर्व 1332 में भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण माना है।" विलियम जोन्स द्वारा ईसा पूर्व 1027 ईस्वी में बुद्ध निर्वाण मानना चीनी परम्परा के अनुसरण में है, क्योंकि चीन में यही मान्यता है। इस मान्यता के द्वारा विलियम जोन्स ने अनजाने ही सिकन्दर से चन्द्रगुप्त मौर्य के भेंट होने का अपना अनुमान स्वयं ही खण्डित कर दिया, क्योंकि भगवान बुद्ध बिम्बिसार के समय में थे और बिम्बिसार शिशुनाग वंश का चौथा प्रतापी शासक है। उसके बाद शिशुनाग वंश में और पाँच प्रतापी शासक हुए, जिनका कुल शासनकाल लगभग 200 वर्ष रहा। उसके बाद पाटलिपुत्र में 100 वर्ष तक नंद वंश का शासन चला और तब चन्द्रगुप्त मौर्य घननंद को मारकर गद्दी पर बैठे। अतः यदि विलियम जोन्स भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण का और इस प्रकार बिम्बिसार का समय ईसा पूर्व 11वीं शताब्दी मानते हैं तो चन्द्रगुप्त मौर्य का समय स्वतः ही इसके लगभग 300 वर्षों बाद ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी में मानना होगा, न कि चौथी शताब्दी में। जबकि विलियम जोन्स चन्द्रगुप्त मौर्य का समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी मानते हैं, केवल एक संदिग्ध उल्लेख की संदिग्ध व्याख्या के आधार पर, जिसे मूल रूप में विलियम जोन्स ने कभी नहीं पढ़ा, न पढ़ सकते थे क्योंकि मूल ग्रीक (यवन) भाषा उन्हें आती ही नहीं थी।

इसी प्रकार सम्राट अशोक का समय भी सिकन्दर से बहुत पहले का है पन्द्रहवीं शती ईसापूर्व का। जबकि विलियम जोन्स के अनुयायी लोग अशोक का शासनकाल ईसा पूर्व 272 से 232 ही मानते हैं और महान शुंग वंश तथा कण्व वंश का समय भी तदनुसार क्रमश: ईसा पूर्व दूसरी एवं पहली शताब्दी ही मानते हैं जो कि सिकन्दर के बाद का समय है। भारतीय परम्परा के अनुसार अशोक का समय ईसापूर्व पन्द्रहवीं शती है।" जोन्सवादियों ने 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास एक ही झटके में गोल कर दिया। एक कल्पना गढ़कर उसी के आधार पर बिना किसी प्रमाण के।

इसी प्रकार परम्परा से जहाँ सातवाहन वंश का शासन ईसा पूर्व नौवीं से चौथी शताब्दी तक माना जाता है, वहीं विलियम जोन्स के अनुयायियों के अनुसार सातवाहन वंश पहली से पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक था सातवाहन वंश के तीस शासकों ने 400 वर्षों तक राज्य किया खारवेल वंश ने शुंग वंश के बाद राज्य किया था। अतः इनका शासन भी परम्परा से ईसा पूर्व 10वीं शताब्दी है, जबकि आधुनिक अनुमान से ईसा पूर्व पहली शताब्दी शुंग शासन प्रारम्भ होने की तिथि मानी जाती है। खारवेल कलिंग देश के लेखक डी.एस. त्रिवेद के अनुसार भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण का समय ईसा पूर्व 16वीं शताब्दी है।" अबुल फ़जल ने ईसा पूर्व 1366 में और कल्हण ने ईसा पूर्व 1332 में भगवान बुद्ध का परिनिर्वाण माना है" विलियम जोन्स द्वारा ईसा पूर्व 1027 ईस्वी में बुद्ध निर्वाण मानना चीनी परम्परा के अनुसरण में है, क्योंकि चीन में यही मान्यता है। इस मान्यता के द्वारा विलियम जोन्स ने अनजाने ही सिकन्दर से चन्द्रगुप्त मौर्य के भेंट होने का अपना अनुमान स्वयं ही खण्डित कर दिया, क्योंकि भगवान बुद्ध बिम्बिसार के समय में थे और बिम्बिसार शिशुनाग वंश का चौथा प्रतापी शासक है। उसके बाद शिशुनाग वंश में और पाँच प्रतापी शासक हुए, जिनका कुल शासनकाल लगभग 200 वर्ष रहा। उसके बाद पाटलिपुत्र में 100 वर्ष तक नंद वंश का शासन चला और तब चन्द्रगुप्त मौर्य घननंद को मारकर गद्दी पर बैठे। अतः यदि विलियम जोन्स भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण का और इस प्रकार बिम्बिसार का समय ईसा पूर्व 11वीं शताब्दी मानते हैं तो चन्द्रगुप्त मौर्य का समय स्वतः ही इसके लगभग 300 वर्षों बाद ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी में मानना होगा, न कि चौथी शताब्दी में जबकि विलियम जोन्स चन्द्रगुप्त मौर्य का समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी मानते हैं, केवल एक संदिग्ध उल्लेख की संदिग्ध व्याख्या के आधार पर, जिसे मूल रूप में विलियम जोन्स ने कभी नहीं पढ़ा, न पढ़ सकते थे क्योंकि मूल ग्रीक (यवन) भाषा उन्हें आती ही नहीं थी।

इसी प्रकार सम्राट अशोक का समय भी सिकन्दर से बहुत पहले का है पन्द्रहवीं शती ईसापूर्व का। जबकि विलियम जोन्स के अनुयायी लोग अशोक का शासनकाल ईसा पूर्व 272 से 232 ही मानते हैं और महान शुंग वंश तथा कण्व वंश का समय भी तदनुसार क्रमशः ईसा पूर्व दूसरी एवं पहली शताब्दी ही मानते हैं जो कि सिकन्दर के बाद का समय है। भारतीय परम्परा के अनुसार अशोक का समय ईसापूर्व पन्द्रहवीं शती है।" जोन्सवादियों ने 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास एक ही झटके में गोल कर दिया। एक कल्पना गढ़कर उसी के आधार पर बिना किसी प्रमाण के।

इसी प्रकार परम्परा से जहाँ सातवाहन वंश का शासन ईसा पूर्व नौवीं से चौथी शताब्दी तक माना जाता है, वहीं विलियम जोन्स के अनुयायियों के अनुसार सातवाहन वंश पहली से पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक था सातवाहन वंश के तीस शासकों ने 400 वर्षों तक राज्य किया

खारवेल वंश ने शुंग वंश के बाद राज्य किया था। अतः इनका शासन भी परम्परा से ईसा पूर्व 10वीं शताब्दी है, जबकि आधुनिक अनुमान से ईसा पूर्व पहली शताब्दी शुंग शासन प्रारम्भ होने की तिथि मानी जाती है। खारवेल कलिंग देश के राजा थे और उन्होंने उत्तर में मथुरा और मगध तक तथा दक्षिण में गोदावरी तट तक अपना साम्राज्य फैलाया था।"

अशोक की प्रजा थे हेला या ऐल (ग्रीक) अशोक के शिलालेख संख्या-8 में उनके समकालीन यवन राजाओं का उल्लेख है* अशोक का साम्राज्य हिन्दूकुश से बंगाल तक तथा हिमालय से दक्षिण में पेनार नदी (चैत्र) तक था ।" वर्तमान अफगानिस्तान के कान्धार और जलालाबाद में अशोक के शिलालेख मिले हैं, जिनमें यावनी एवं आरमाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अनुसार यवन (ग्रीक) लोग भी अशोक की प्रजा थे इसीलिए उनके लिए उनकी लिपि में अभिलेख लिखाये गये, जबकि वर्तमान भारत के मुख्य क्षेत्र में उनके उसी समय के सभी अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं। यह तो सर्वविदित है कि अशोक के बाद यवन देश में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ था। उसके पहले सम्पूर्ण यवन क्षेत्र में सनातन धर्म के ही अन्य रूपों का प्रसार था। यवन देवी देवताओं का अनेक वैदिक देवताओं से साम्य है।" अलिग्जन्दर का समय वस्तुतः अशोक के बहुत बाद का है। उसके समय उसके पड़ोस में श्रमणों यानी बौद्धों का विशाल साम्राज्य था, जिसे यूरो-क्रिश्चियन लेखक 'सामन' राज्य कहते हैं।

चालीस वर्षों तक प्रतापी सम्राट अशोक ने वर्तमान भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान एवं ईरान तक राज्य किया। उसके राज्य की सीमाएँ वर्तमान यवन (ग्रीस) देश तक फैली हुई थीं। कनिष्क की भी प्रजा रहे यवन और पारसीक सम्राट अशोक के बाद जो प्रतापी सम्राट कनिष्क हुए (ईसापूर्व 13वीं शती), जिनकी राजधानी पुरुषपुर या पेशावर थी और जिनका साम्राज्य गान्धार तथा चीनी तुर्किस्तान तक था, ईरान और यूनान में उनका व्यापक प्रभाव था, वहाँ के राजा कनिष्क के क्षत्रप थे। कनिष्क एक महान भारतीय सम्राट थे। उस समय तक भी यवन, पारसीक, बौद्ध और शैव आदि सनातन धर्म यानी मूलतः एक ही धर्म के अलग-अलग पंथ के अनुयायी माने जाते थे। त्रिपिटक का प्रामाणिक भाष्य कनिष्क ने ही तैयार करवाया और बौद्धों की चौथी संगीति भी उसने आयोजित की थी।" साथ ही वह शिव एवं विष्णु का भी उपासक था। उसके सिक्कों में जहाँ शिव, विष्णु तथा बुद्ध के चित्र अंकित मिले हैं, वहीं जरथुस्त्र और यूनानी देवी-देवताओं के भी कनिष्क के वंश में हुविष्क और वासुदेव भी अत्यन्त प्रतापी शासक हुए। कनिष्क कुषाणवंशी है वासुदेव शिवभक एवं विष्णुभक्त थे तथा उनके सिक्कों में भगवान शिव की प्रतिमाएँ अंकित मिली हैं ईसा पूर्व चौथी सदी में गुप्त वंश का वैभवशाली शासन प्रारम्भ हुआ, जो भारत के सम्राट थे और जिनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इनमें से चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम और स्कन्दगुप्त महान सम्राट हुए। बाद में गुप्त वंश के शासकों नृसिंह गुप्त, बालादित्य, बुद्धगुप्त आदि ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया और नालन्दा में भव्य विहार भी बनवाये । परन्तु बौद्ध बनने के बाद वे हूणों से हार गये।

समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय (चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य) तथा कुमारगुप्त प्रथम ने वैदिक अश्वमेध यज्ञों के आयोजन किये थे और बौद्ध तथा जैन धर्मों को भी संरक्षण दिया था। ईसा पूर्व 57 में विक्रम संवत् का प्रवर्तन करने वाले महान भारतीय सम्राट विक्रमादित्य परमप्रतापी, विद्यावान, न्यायविद, शूरवीर राजपुरुष थे महाकवि कालिदास, महान नाटककार विशाखदत्त, महान कोशकार अमरसिंह, महान गणितज्ञ आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्स इन विक्रमादित्य के ही समय में हुए उनकी यशोगाथा पुराणों, कथासरित्सागर, बैताल पच्चीसी, गाथा सप्तशती, ज्योर्तिविदाभरण आदि ग्रन्थों में भरी पड़ी है।

दिल्ली में महरौली में तथा नालन्दा (बिहार) में गुप्त वंश की वास्तुकला के अनूठे प्रमाण मिले हैं। वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला और धातुविज्ञान गुप्त राजाओं के राज्य में अत्यन्त उन्नत था 5 महान सातवाहन साम्राज्य
यदि जोन्सवादियों के अनुसार सातवाहन वंश को प्रथम शताब्दी ईस्वी से प्रारम्भ और पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक चला हुआ भी मानें तो भी यह सर्वमान्य है कि सातवाहन साम्राज्य इस अवधि का एक अत्यन्त प्रतापी साम्राज्य था ।" जो वर्णाश्रम धर्म का निष्ठावान अनुयायी था तथा बौद्ध और जैन मठों, मन्दिरों और विहारों को भी प्रचुर दान अनुदान देता था। भारत में बसे शकों और यवनों से इनके वैवाहिक सम्बन्ध भी हुए और युद्ध भी हुए। वस्तुतः शक, हूण, यवन आदि अन्य भारतीय क्षत्रियों की ही भाँति भारतीय थे। उन्हें भारतीय समाज एवं शास्त्रों में कभी भी बाहर का माना, देखा या कहा नहीं गया है।

महान संस्कृत वैयाकरण आचार्य पाणिनि का समय आधुनिक विद्वान लोग ईसा पूर्व 600-300 के बीच का मानते हैं। पाणिनि के सूरों पर वार्तिक लिखने वाले वररुचि कात्यायन चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में हुए राजनीतिशास्त्र का अद्वितीय ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' महामति चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में लिखा। अनेक पुराणों के वर्तमान रूपों की रचना भी इसी अवधि में हुई आधुनिकों द्वारा बतायी जाती है "

विक्रमादित्य के समय में महान खगोलशास्त्री आर्यभट्ट हुए उसी समय ज्योतिर्विद वराहमिहिर भी हुए महान अद्वैत आचार्य शंकर का समय आधुनिक विद्वान 7वीं शताब्दी ईस्वी मानते हैं। कुछ अन्य के अनुसार शंकराचार्य का समय 8वीं शताब्दी ईस्वी है। जबकि परम्परा उनका समय ईसा पूर्व छठी शती रखती है" 

नेपाल में यादव वंश का शासन

छठी शताब्दी ईस्वी में ही नेपाल में गोपाल वंश के शासन का प्रारम्भ आधुनिक इतिहासकार मानते हैं। यद्यपि परम्परागत नेपाली इतिहासकारों के अनुसार नेपाल में यादव वंश के शासन का प्रारम्भ ईसा पूर्व 2831 में माना जाता है गुप्त सम्राटों के समय नेपाल भी उनके अधीन था।" 

प्रतापी गुप्त वंश

गुप्त सम्राटों की राजधानी अयोध्या और पाटलिपुत्र दोनों थीं। बाद में उज्जयिनी भी उनकी राजधानी रही। उन्होंने 375 ईसापूर्व से छठी शताब्दी ईस्वी तक शासन किया?" लगभग एक हजार वर्षों तक। वस्तुतः सिकन्दर चन्द्रगुप्त द्वितीय का ही समकालीन है, चन्द्रगुप्त मौर्य का नहीं। इनसे ही डर कर उसकी सेनाओं ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया था।" गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त परमप्रतापी तथा विजिगीषु सम्राट थे।" इसी वंश में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए, जिन्होंने तत्कालीन सौराष्ट्र के शक शासकों को पराजित कर उनका राज्य अपने साम्राज्य में मिलाया था। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के बाद इस वंश में कुमारगुप्त प्रथम एवं स्कन्दगुप्त जैसे तेजस्वी सम्राट हुए। स्कन्दगुप्त ने हूणों की विराट सेना को पराजित कर भारत से बाहर धकेल दिया था। बाद में हूणों ने छठी शताब्दी ईस्वी में पुनः भारत पर आक्रमण किया। तब उन्हें मालवा के प्रतापी नरेश यशोधर्मा ने तत्कालीन गुप्त सम्राट की सहायता से हराया। मध्यप्रदेश के मंदसौर में यशोधर्मा के दो कीर्ति स्तम्भ हैं, जिनके अनुसार उसने ब्रह्मपुत्र से पश्चिमी समुद्र तक और हिमालय से महेन्द्रगिरि पर्वत तक राज्य किया था।"

गुप्त काल के गौरवपूर्ण इतिहास का उल्लेख आधुनिक भारतीय एवं विदेशी इतिहासकारों ने साक्ष्यों और अभिलेखों की प्रचुरता के कारण किया है। यद्यपि जहाँ यादव एवं अन्य परम्परानिष्ठ इतिहासकार उनका काल ईसापूर्व चौथी शती से मानते हैं, वहीं आधुनिकतावादी इतिहासकारों ने उनका समय 320 ईस्वी से प्रारम्भ माना है। रमेशचन्द्र मजूमदार का मानना है कि कुषाण साम्राज्य के बाद भारतीय केन्द्रीकृत राज्य सत्ता में बिखराव शुरू हुआ, जिसे गुप्त साम्राज्य ने थामा। यद्यपि उस समय भी कुषाणों का राज्य पश्चिमी पंजाब से गान्धार तक था।

महाराज श्रीगुप्त, महाराज श्री घटोत्कच एवं महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के शासन के आरम्भिक विवरण मिले हैं। वाकाटक साम्राज्ञी प्रभावती गुप्त, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री हैं, अपने दो अभिलेखों में घटोत्कच महाराज का उल्लेख करती हैं पुराणों के अनुसार गुलों का साम्राज्य बिहार से प्रयाग और अयोध्या तक रहा। 

महान सम्राट विक्रमादित्य

महान सम्राट विक्रमादित्य का विशेष स्मरण आवश्यक है, क्योंकि उनका चलाया विक्रम संवत् भारतवर्ष में सर्वसमादृत है। यूरोखीस्त इतिहास लेखकों की भारतीय शिष्य परम्परा में सम्राट विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता संदिग्ध मानी जाती है, परन्तु यह इस विद्वत् सम्प्रदाय का अतिसाहस मात्र है। विक्रमादित्य के पक्ष में अत्यन्त समृद्ध ऐतिहासिक महत्त्व के साहित्य साक्ष्य प्रभूत हैं। स्वयं विक्रमादित्य की सम-सामयिक रचना 'गाहा सत्तसई' (गाथा सप्तशती) में उन्हें सिंह पुरुष, परम पराक्रमी तथा परम दानी कहा है “

डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित की पुस्तक आदि विक्रमादित्य' में उनकी ऐतिहासिकता के प्रभूत साक्ष्य दिये गये हैं। इनमें मुख्य हैं-

(1) अंकलेश्वर-मन्दसौर से प्राप्त प्रथम शती ईस्वी का स्तम्भ चौकीलेख, जो जलाशय बनवाने से सम्बन्धित है। 
(2) डॉ. वि. श्री. वाकणकर द्वारा संग्रहीत प्रथम शती ईस्वी की एक मुद्रा, जिसमें कृत संवत् का उल्लेख है।
(3) उज्जयिनी से प्राप्त 'राजा विक्रम' अंकित ताम्र-मुद्राएँ S
(4) महाकवि सुबन्धु द्वारा पहली शती ईस्वी में रचित 'वासवदत्ता' में विक्रमादित्य का उल्लेख।
(5) राजा भोज कृत श्रृंगार प्रकाश' में विक्रमादित्य कालिदास संवाद का होना 
(6) कथा सरित्सागर, बेताल पंचविंशतिका आदि में विक्रमादित्य का उल्लेख 
(7) ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण' (विक्रम संवत् 33 अर्थात् ईसापूर्व 24 में रचित) में दी गई यह जानकारी कि विक्रम परम पराक्रमी, दानी और विशाल सेना के सेनापति थे जिन्होंने रूम (रोम) देश के शकाधिपति को जीतकर फिर उनके द्वारा विक्रम की अधीनता स्वीकार करने के बाद उन्हें छोड़ दिया', जैसी कि भारतीय चक्रवर्ती सम्राटों की परम्परा रही है

महाप्रतापी सम्राट विक्रमादित्य की वीरता, विद्या, विनय, दानशीलता एवं न्यायशीलता भारतीय साहित्य में अतिप्रशंसित है उनकी सभा में धन्वन्तरि क्षपणक, अमरसिंह, कालिदास, शंकु, वराहमिहिर, वररुचि, वेतालभट्ट एवं घटकपर ये नौ रत्न थे, जो आयुर्वेद, काव्य, गणित, ज्योतिष, व्याकरण, कोषकार आदि क्षेत्रों के धुरन्धर दिग्गज थे।" विक्रमादित्य एवं सातवाहन समसामयिक सम्राट हैं। 

सारांश

इस प्रकार हम पाते हैं कि भारतीय इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। वर्तमान कल्प की ही बात करें, तो प्रजापति दक्ष के वंश में मनु एवं शतरूपा के वंशज सम्पूर्ण पृथ्वी के शासक हुए। इस क्षेत्र का भरण-पोषण मनु ने किया, अतः उनका नाम भरत भी है। उनके द्वारा रक्षित राष्ट्र भारतवर्ष है, जिसकी सीमा महाभारत काल तक उत्तर में सम्पूर्ण चीन, हूण देश, त्रिविष्टप, उत्तर-पश्चिम में गान्धार, पारसीक, पृथा (पर्चिया), बैक्टिरिया, यवन (हेला), कैकय, काम्बोज, बाह्रीक, पहव, दरद, पारद, शक, खस, तुषार प्रान्तों तक थी। पूर्व में कामरूप, प्राग्ज्योतिष, शोणित, लौहित्य, पुण्डू। दक्षिण में कन्याकुमारी तक।

भारत में सूर्यवंश एवं चन्द्रवंश में सहस्रों महान शासक हुए। धनुर्विद्या, युद्धविद्या और शस्त्रविद्या के सर्वोच्च ज्ञाता एवं प्रसारक भारतीय ब्राह्मण एवं ऋषि ही रहे हैं। ब्राह्मणों और क्षत्रियों में सहस्रों वर्षों तक एकता एवं एकात्मता रही है उनमें परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध भी अनुलोम विवाह के रूप में सहज ही होते रहे हैं। सूर्यवंश महाराज इक्ष्वाकु का वंश है, जिसमें काकुत्स्थ, रघु, अज, दशरथ, श्रीराम, लव-कुश आदि हुए, जिनके ही वंश में भगवान बुद्ध हुए। बुद्ध पुत्र राहुल के पौत्र के पौत्र के बाद कुल 121 प्रतापी सम्राटों के उपरान्त इक्ष्वाकु वंश के शासन का अन्त हो गया। यद्यपि इस वंश के अनेक तेजस्वी वंशज भारत में आज भी हैं। श्री गुरु नानकदेव इसी वंश में हुए वे वंशज आज शासक नहीं हैं, परन्तु कल की कौन जानता है।

चन्द्रवंश या सोमवंश में इला एवं बुध के वंशज ऐल हुए, जिन्होंने यवन प्रान्त तक राज्य किया। इसी वंश में महाराज ययाति से ब्राह्मणी देवयानी ने यदु और तुर्वसु को जन्म दिया और क्षत्राणी शर्मिष्ठा ने अनु, द्रह्यु और पुरु को पुरु वंश में ही दुष्यन्त और भरत हुए। इसी वंश में कौरव पाण्डव हुए। चन्द्रवंश की एक शाखा में भगवान श्रीकृष्ण हुए। महाभारत के बाद भी तीन हजार वर्षों तक पुरुवंशी या भरतवंशी ही भारत के चक्रवर्ती सम्राट रहे। फिर प्रद्योत वंश फिर शिशुनाग वंश, जिसमें बिम्बसार, अजातशत्रु तथा महाराज 1 उदयन हुए। उनके पौत्र को महापद्मनन्द ने हराया। तब सौ वर्ष तक नन्दवंश का शासन चला। फिर चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश का 316 वर्ष शासन रहा। फिर शुंगों, काण्वों, सातवाहनों, कुषाणों, गुर्ले, खारवेलों, मालवों आदि के परम प्रतापी सुराज्य हुए।

आधुनिक काल में ईस्वी सन् के प्रारम्भ के आसपास हुए महान सम्राट विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त प्रभृति शताधिक महानतम सम्राटों की इस अविछिन्न शृंखला का वर्तमान में स्मरण न कर अलिग्जन्दर (जो कभी भारत आया ही नहीं) या इस्लाम या अंग्रेजों का रोना रोते रहने वालों को गहरी सहानुभूति और उपचार की आवश्यकता है। उनके भीतर अपने महान प्रतापी पूर्वजों की स्मृति जगे, ऐसी अनुकम्पा प्रभु श्रीराम एवं योगेश्वर श्रीकृष्ण करें, यही प्रार्थना है।

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ईस्वी सन् के बाद का गौरवशाली काल

जोशुआ मसीह यानी ईसा को एकमात्र प्रभुपुत्र मानने वाले 'न्यू टेस्टामेंट' में आस्थावान ख्रीस्तपंथी लोग ईस्वी सन् के बाद के इतिहास को ही मुख्य महत्त्व देते हैं। भारत में उनकी विद्या संततियों का इन दिनों विद्या क्षेत्र में पर्याप्त प्रभाव है। अतः ईस्वी सन् के बाद के गौरवशाली काल का अलग से उल्लेख उचित है।

ईसा की कई शती पूर्व हुए सातवाहन साम्राज्य और कनिष्क का साम्राज्य दोनों ही यूरो भारतीय विद्वानों के अनुसार ईस्वी सन् के बाद की घटनाएँ हैं। गुप्त वंश के विराट गौरवशाली कालखण्ड को भी वे इसी अवधि का मानते हैं। हम इनका उल्लेख पहले अध्याय के अन्त में संक्षेप में कर आए हैं।

महान सम्राट हर्षवर्धन एवं सात अन्य महान भारतीय साम्राज्य 

गुप्तों की अधीनता में रहे मौखरि वंश ने बाद में उत्तरी भारत में स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित किया, जो छठी शताब्दी में प्रबल रहा। तदुपरान्त वर्धनों ने वह राज्य ले लिया।

स्थानेश्वर (थानेश्वर) एवं कन्नौज का वर्धन वंश छठीं एवं सातवीं शताब्दी ईस्वी का महाप्रतापी वंश हुआ है। महाकवि बाणभट्ट ने इसे श्रीकण्ठ देश का शासक कहा है। वंश के संस्थापक महाराज पुष्यभूति थे उनके वंश में नरवर्धन, राज्यवर्धन आदित्यवर्धन के उपरान्त प्रभाकरवर्धन सम्राट हुए। जिनके बड़े पुत्र महाराजाधिराज राज्यवर्धन और छोटे पुत्र महाराजाधिराज हर्षवर्धन हुए। प्रभाकरवर्धन ने हूणों को हराया था। हूण भी भारतीय राजा ही थे। अन्य राज्यों सिन्धु, गान्धार, लाट और मालवा का उल्लेख भी बाण ने किया है। उत्तर में हूण गान्धार तथा सिन्धु राज्यों से प्रभाकरवर्धन के संघर्ष का उल्लेख बाण ने किया है। महाराज हर्षवर्धन की प्राग्ज्योतिषपुर के सम्राट भास्करवर्मन से संधि थी। गौड़ नरेश (बंगाल नरेश) शशांक को पराजित कर हर्षवर्धन ने सम्पूर्ण उत्तरी भारत, गान्धार क्षेत्र एवं सिन्धु सौवीर पर राज्य किया। उनके समय चीनी यात्री हुएन चंग (हेनत्सांग) भारत आये थे। यह सातवीं शती ईस्वी के पूर्वार्ध की घटना है। वलभी (गुजरात) के सम्राट ध्रुवभट्ट या ध्रुवसेन द्वितीय महाराज हर्षवर्धन के दामाद थे। पुलकेशिन से हर्ष का युद्ध हुआ था। हर्षवर्धन एक महान सम्राट थे।' इस अवधि में भारत के ये अन्य सात प्रतापी साम्राज्य अलग-अलग क्षेत्रों में हुए-

(1) पाण्ड्य वंश जो ईसा पूर्व चौथी शती से चौदहवीं शती ईस्वी तक 1800 वर्षों तक भारत का विराट साम्राज्य रहा मेगस्थनीज से लेकर मार्को पोलो तक विदेशी यात्री इसकी यशोगाथा गाते रहे हैं।

(2) पल्लव वंश जो पहली से नौवीं शती ईस्वी तक कलिंग से कांची + तक राज्य करता रहा।

(3) चोल वंश : जो पहली से चौदहवीं शती ईस्वी तक लगभग 1350 वर्ष प्रतापी रहा।

(4) चालुक्य वंश जो उत्तर चढ़ावों सहित 650 वर्षों तक छठी से तेरहवीं शती ईस्वी पूर्व दक्षिण भारत में चमकता रहा तथा बंगाल, म्यांमार, अण्डमान निकोबार तक फैला।

(5) मैत्रक वंश: इस वंश के राजपूतों ने सौराष्ट्र, मालवा और विन्ध्य क्षेत्र में पाँचवीं से आठवीं शती ईस्वी तक राज्य किया। 

(6) परमार वंश मालवा क्षेत्र में दसवीं शती ईस्वी से परमारों का भव्य साम्राज्य विकसित हुआ। महाराज सिन्धुराज ने परमार साम्राज्य को बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, मालवा, छत्तीसगढ़, महाकौशल, लाटदेश, अपरांत, चोल देश तक फैलाया। उनके पुत्र परम प्रतापी परम धार्मिक शूरवीर सम्राट महाराज भोज दान, वीरता, विद्या, विज्ञान, विक्रम और वैभव में अतुलनीय थे। 999 ईस्वी से 1055 ईस्वी तक उन्होंने विस्तृत क्षेत्र पर राज्य किया। उनकी प्रशस्ति में उन्हें महाराजाधिराज कहा गया है। धारा नगरी उनकी राजधानी थी। विशाल भोज तालाब उन्होंने ही बनवाया था। धार में वाग्देवी की दिव्य मूर्ति, भोजपुर का शिव मन्दिर, बेतवा नदी पर भव्य बाँध, सुन्दर पुष्करिणी, धारायंत्र, अद्वितीय वास्तु, अति श्रेष्ठ प्रतिमा शिल्प एवं कश्मीर, चित्तौड़ सहित अनेक नगरों में भव्य मन्दिरों का निर्माण, राज्य में सरस्वती सदनों का निर्माण उनके कीर्तिस्तम्भ हैं।

(7) महान राष्ट्रकूट साम्राज्य जो 8वीं से 10वीं शती ईस्वी तक सम्पूर्ण वैभव से दीप्त रहा। जिसकी राजधानी नासिक थी। बाद में मालखण्ड राजधानी बना दुर्ग, गोविन्द प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ कृष्णदेव प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय, अमोध वर्ण प्रथम एवं द्वितीय, इन्द्र प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय आदि महान शासक इस वंश में हुए विराट मन्दिरों के निर्माण संस्कृत एवं कन्नड़ साहित्य के महान संरक्षक, एलोरा के कैलाशनाथ मन्दिर के निर्माता किसी समय मालवा से कांची तक इनका साम्राज्य रहा। बाद में इनके प्रतिनिधि परमारों ने मालवा में अलग साम्राज्य स्थापित किया।

म्यांमार तक शासन किया चालुक्यों ने

वातापी यानी बादामी (बीजापुर जनपद) के चालुक्यों का वंश मनु महाराज के वंशज ऋषि हारित के कुल में उत्पन्न हुआ था छठी शती ईस्वी से चालुक्यों का दक्षिण भारत से म्यांमार तक साम्राज्य रहा। दो सौ वर्षों तक इस वंश का प्रताप- सूर्य चमका बादामी के चालुक्यों का अभिलेख ऐतिहासिक साक्ष्य है।

महाराज जयसिंह पृथ्वीवल्लभ के द्वारा वर्धित इस वंश में सम्राट पुलकेशिन प्रथम परमप्रतापी सम्राट हुए, जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किया था। 543 ईस्वी का ऐहोल अभिलेख इनकी कीर्ति गाता है। इन्होंने दक्षिण भारत में एक बड़ा साम्राज्य स्थापित किया। चालुक्य अयोध्या के चन्द्रवंशी नरेशों के वंशज थे। विक्रम संवत् 1287 का सम्राट वीर धवल एवं सोमसिंह परमार का अभिलेख दर्शाता है कि वशिष्ठ ऋषि ने यज्ञवेदी से उनके पूर्वज परमार को उत्पन्न किया, जिनमें से धौमराज एवं धंधूक चालुक्यों के पूर्वज हैं। यही बात 1344 विक्रम संवत् के सिरोही (पाटनारायण) अभिलेख में भी कही गई है। जहाँ अर्बुद गिरि पर यज्ञ का उल्लेख है। जबकि 1151 ईस्वी की बड़नगर की चालुक्य प्रशस्ति में चालुक्यों को दानवों के संहार के लिए ब्रह्मा द्वारा गंगाजल से उत्पन्न किया गया बताया गया है।

चालुक्य वंश में 21 राजा हुए और उन्होंने छठी शताब्दी ईस्वी के मध्य से 13वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ तक यानी 650 वर्षों तक दक्षिण भारत में शासन किया। पुलकेशिन द्वितीय का साम्राज्य नर्मदा से कावेरी तक था। बाद में इस राज्य का कुछ हिस्सा पल्लव नरेशों ने जीत लिया। 8वीं शताब्दी ईस्वी में चालुक्यों को राष्ट्रकूटों ने हराया और लगभग 150 वर्ष इनका राज्य क्षेत्र सिकुड़ा रहा। परन्तु 10वीं शताब्दी ईस्वी से चालुक्य फिर उभरे और उन्होंने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाकर 13वीं शताब्दी के आरम्भ तक राज्य किया। चालुक्यों की ही एक शाखा पूर्वी (वेंगिके) चालुक्य ने 7वीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ से 12वीं शताब्दी के अन्त तक दक्षिण भारत में कृष्णा और गोदावरी क्षेत्र से शासन आरम्भ कर 11वीं शताब्दी ईस्वी में बर्मा (म्यांमार) बंगाल और अण्डमान-निकोबार तक अपना राज्य फैलाया। इस पूर्वी चालुक्य वंश में 27 प्रतापी राजा हुए, जिसमें से 26वें राजा राजराज महान ने चोलों से सम्बन्ध स्थापित किया और अपने राज्य को और अधिक बढ़ाया। तब से चालुक्य वंश और चोल वंश एक हो गए और इनका साम्राज्य भी विस्तृत हो गया। 

प्रतापी चेर एवं चोल वंश

चेर शासकों ने 27 ईस्वी से 233 ईस्वी तक कुल 207 वर्ष केरल में राज्य किया। इस वंश के संस्थापक उदयन केरल थे। ईलम केरल इसम्पोरइ इस वंश के अन्तिम शासक थे। यवन यात्री टालेमी ने भी इनका वर्णन किया है।"

चोल वंश दक्षिण भारत का एक अत्यन्त प्रतापी वंश था, जो ईसा की प्रथम शताब्दी से ही तमिलनाडु में शासन कर रहा था। चोल वंश के प्रथम नरेश करिकाल थे और उनका सिंहलों (श्रीलंका) से वर्षों युद्ध चला। उन्होंने कावेरी नदी के तट पर 150 किलोमीटर लम्बे तटबंध का निर्माण किया और कावेरीपत्तनम् को राजधानी बनाया। पल्लवों और पांड्यों से हुए युद्ध में इनका राज्य घटता-बढ़ता रहा, परन्तु 9वीं शताब्दी से इनकी शक्ति का फिर से उत्कर्ष हुआ और ये 13वीं शताब्दी ईस्वी के अन्त तक शासन करते रहे। अशोक के अभिलेखों में भी चोल मण्डलम् को एक स्वतंत्र राज्य कहा है।" 

निरन्तर हिन्दू शासन पहली से 20वीं शती ई. तक

विजयालय, आदित्य, परांतक प्रथम, राजराज प्रथम, राजेन्द्र प्रथम, राजादित्य प्रथम, राजाधिराज प्रथम, वीर राजेन्द्र, राजेन्द्र द्वितीय एवं राजेन्द्र तृतीय तथा राजेन्द्र चतुर्थ, कुलोत्तुंग प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय ये चौदह प्रसिद्ध चोल सम्राट हुए। राजराज प्रथम का शासन मैसूर, कुर्ग, तमिलनाडु और श्रीलंका तक था। उसकी राजधानी तंजौर थी जहाँ उसने राजराजेश्वर नामक प्रसिद्ध शिवमन्दिर बनाया। 11वीं शताब्दी के चोल सम्राट राजेन्द्र प्रथम के पास अत्यन्त शक्तिशाली नौसेना थी। उन्होंने राज्य की सीमाएँ बढ़ाते हुए अण्डमान निकोबार द्वीप समूह को जीता तथा बंगाल और बिहार को भी जीता एवं मगध पर आधिपत्य कर लिया। बीच में उनका पराभव हुआ। बारहवीं शती ईस्वी के प्रारम्भ में चालुक्यों और चोलों का वंश एक ही हो गया। तब से उन्होंने कलिंग पर पुनः आधिपत्य स्थापित कर लिया। 14वीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति से हुए बड़े युद्ध के बाद से चोल वंश का शासन बिखर गया, परन्तु कुछ ही समय बाद उस पूरे क्षेत्र पर फिर से हिन्दुओं का नया साम्राज्य विजयनगर साम्राज्य स्थापित हो गया।"

दक्षिण भारत के अन्य प्रतापी राजवंश हुए पल्लव वंश, पांड्य वंश और राष्ट्रकूट वंश जैसा ऊपर उल्लेख है चेर वंश ने केरल क्षेत्र में शताब्दियों तक राज्य किया।" पल्लव वंश ने तमिलनाडु क्षेत्र के बड़े हिस्से में पहली शताब्दी ईस्वी से 9वीं शताब्दी तक राज्य किया।" इन्हीं पल्लव नरेशों ने महाबलिपुरम् की स्थापना की और वहाँ पाँच भव्य रथमन्दिर बनाये। इनकी राजधानी कांची मन्दिरों का नगर ही हो गई थी।"

पांड्यों ने आधुनिक मदुरा से त्रावणकोर तक के क्षेत्र में पहली शताब्दी ईस्वी से 14वीं शताब्दी ईस्वी तक राज्य किया।" इनकी राजधानी मदुरा थी। 13वीं शताब्दी ईस्वी में मार्को पोलो चीन से वापसी में भारत भी आया और उसके यात्रा-वृत्तान्त में पांड्य देश की समृद्धि का वर्णन है।" पांड्यों के बाद यह क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य का अंग हो गया ।" इस प्रकार वस्तुतः यह क्षेत्र ईसा के बाद भी छोटे इलाकों को छोड़कर 2000 वर्षों तक हिन्दू शासन में ही रहा। उसके पहले 50000 वर्षों तक तो था ही।

राष्ट्रकूट वंश की राजधानी नासिक थी। बाद में वह मालखंड हुई। दंतिदुर्ग ने 736 ई. में राष्ट्रकूट वंश की स्थापना की 10वीं शताब्दी ईस्वी तक राष्ट्रकूटों ने दक्षिण भारत के एक बड़े क्षेत्र में राज्य किया 

600 वर्षों तक अखण्ड रहा महान विजयनगर साम्राज्य

इस प्रकार चोलों ने पहली से चौदहवीं शती पूर्वार्ध तक 1350 वर्ष राज्य किया। पल्लव, राष्ट्रकूटों आदि के भी राज्य रहे। पाण्ड्यों ने 1800 वर्ष राज्य किए। चोलों के बाद विजयनगर साम्राज्य एक बड़ा राज्य बना 14वीं शताब्दी ईस्वी से दक्षिण भारत में महान विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई, जो 300 वर्षों तक दक्षिण भारत की सबसे बड़ी शक्ति बनी रही।" इसकी राजधानी विजयनगर थी। विजयनगर के महान शासकों ने दक्षिण भारत के अनेक मुस्लिम राज्यों को परास्त कर नष्ट किया और उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया। वस्तुत: विजयनगर साम्राज्य उसके बाद भी निरन्तर अपने घटते-बढ़ते क्रम में बना रहा और उसके उत्तराधिकारी मैसूर के राजा चामराज वाडियार ने स्वेच्छा से भारत संघ में अपने राज्य का विलय राष्ट्रभक्ति की प्रचण्ड भावना से कर दिया। इस प्रकार, थोड़े व्यवधानों के साथ 600 वर्षों तक यह अखण्ड हिन्दू साम्राज्य छाया रहा।" चोलों, चेरो, पाण्ड्यों, पल्लवों, राष्ट्रकूटों, सातवाहनों आदि के द्वारा 2000 वर्षों में भी हिन्दू शासन की निरन्तरता बनी रही।

जो लोग भारत के कुछ हिस्से में दो-ढाई सौ वर्षों तक या कहीं-कहीं उससे कुछ अधिक समय तक भारतीय मूल के तथा हिन्दू कुलों में उत्पन्न इस्लाम मतावलम्बियों के शासन को हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म तथा हिन्दू राजनीति का विशेष दोष मानते और देखते हैं और महाभारत से बीसवीं शती ईस्वी तक के पाँच हजार वर्षों में व्यापक क्षेत्रों में हिन्दू साम्राज्यों की व्याप्ति को हिन्दू धर्म, समाज एवं राजनीति की यशोगाथा के रूप में नहीं देखते, वे सम्भवतः किसी प्रकार की विचित्र देशभक्ति से प्रेरित हो सकते हैं। परन्तु उनकी यह देशभक्ति की भावना तथ्यों पर आधारित न होकर या तो हिन्दुत्व से द्वेष पर आधारित है, जो व्यवहार में भारतद्रोह और सामडोह दोनों ही सिद्ध होती है या फिर वे हिन्दुत्व को लेकर किसी ऐसे मूढ़ तामसिक अहंकार से प्रेरित है, जिसमें कालप्रवाह और सृष्टि चक्र का कोई भी ज्ञान शेष नहीं है। न तो उन्हें निरन्तर चलने वाले देवासुर संग्राम की गाथा का कोई ज्ञान है और न ही सृष्टि चक्र के आरोही अवरोही क्रम का 

दोषदर्शी दुःखी लोग हिन्दुओं का वैभव नहीं याद रख पाते 

जिस अवधि में भारत की कुछ जागीरों पर भारतवंशी मुसलमानों के कब्जे से दुखी ये भावुक लोग हिन्दू धर्म के दोषों की खोज में जुट जाते हैं, उसी अवधि में वही हिन्दू धर्म तिब्बत, खोतान, कम्पूचिया, म्यांमार, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा, कालीमर्दन (बोर्नियो), स्याम (थाईलैंड), मलयेशिया आदि में किस प्रकार अपना प्रभाव फैलाता रहा था, इसका तो मानो इन दुखकातर दोषदर्शी हिन्दुओं द्वारा कोई स्मरण ही नहीं रखा जाता।

इस अवधि में स्वयं अरब में 7वीं से 10वीं शताब्दी तक जिस प्रकार हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति ने व्यापक प्रभाव डाला, उसका तो मानो कोई संज्ञान ही नहीं लिया जाता ऐसी बौद्धिक होनता की दशा में चीन, जापान, मैक्सिको, मिस्र और सुमेर सभ्यता पर पड़े हिन्दू प्रभावों का स्मरण तो हीनग्रन्थि से भरे आधुनिक विद्वानों के लिए सम्भव ही नहीं है। यहाँ इन प्रभावों का संक्षेप में स्मरण उचित होगा। 

भारत का चीन पर प्रभाव

चीन पहले भारतवर्ष का ही अंग था। 15वीं शताब्दी तक चीन को समस्त यूरोपवासी व अरब लोग इंडी या भारत का ही हिस्सा कहते मानते थे। चीन भारत से सटा है और जब वहाँ का राज्य अलग था, तब भी वह सदा ही भारतीय संस्कृति का अंग रहा है। स्वाधीन भारत में बौद्धिक तमस शिक्षित जनों में व्याप्त है, जिससे वे यूरो-क्रिश्चियन बुद्धि के जोशीले अनुयायी हैं सम्भवत: पद, धन आदि के अतिशय लोभ में। इसीलिए वे पर्याप्त अध्ययन नहीं करते और तैयार माल के सेल्समैन या प्रचारक बन जाते हैं।

महाभारत काल में चीन भारत का राज्य था। बाद में भी, भारतीय विद्वान ही वहाँ विद्या का प्रसार करते रहे हैं। जब भारत में बौद्ध धर्म फैला तो भारत के इस सहज अंग रहे चीन देश में भी बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए पंडितों को आदरपूर्वक बुलाया जाने लगा। हानवंशी सम्राट मिती ने ईस्वी सन् 65 में अपने 18 विद्वान भारत की विद्या के अध्ययन के लिये भेजा क्योंकि उन दिनों भारत की विद्या की सम्पूर्ण विश्व में ख्याति थी।" चीन तो पहले भारत का सहज अंग और बाद में पड़ोसी मित्र ही रहा है।

ये विद्वान भारत आकर 11 वर्ष रहे और लौटते समय अपने साथ अनेक बौद्ध ग्रंथ तो ले ही गये, अनुरोधपूर्वक दो बौद्धभिक्षुओं को भी ले गये।" इन विद्वान बौद्धभिक्षुओं के नाम थे- काश्यप मातंग और धर्मरक्ष। जब ये बौद्धभिक्षु भगवान बुद्ध की प्रतिमा के साथ चीन की राजधानी अपने सफेद घोड़ों पर चढ़कर पहुँचे तो राजा मैंने इनकी अगवानी की और नगर के पश्चिममी द्वार के समीप बनवाये गये एक सुन्दर मन्दिर में भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी। इस मन्दिर का नाम रखा गया- 'लोयङ्ग' जिसका अर्थ है- श्वेत अश्व या सफेद घोड़े।" काश्यप मातंग मगध के थे परन्तु उन दिनों गांधार में रह रहे थे।" धर्मरक्ष भी मगध के ही थे। मातंग तो चीन में एक वर्ष और जीवित रहे परन्तु धर्मरक्ष वहाँ अनेक वर्ष तक रहे और कई बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया।"

207 ईस्वी में बौद्ध भिक्षु धर्मपाल चीन गये और उन्होंने अनेक वर्ष लगाकर बौद्ध विनय-ग्रंथ 'प्रातिमोक्ष-सूत्र' का चीनी भाषा में अनुवाद किया। कुछ समय बाद दो अन्य भारतीय विद्वान चीन गये और उन्होंने वहाँ रहकर 'धम्मपद' का अनुवाद किया।" तीसरी शताब्दी के अंत से निरंतर वहाँ सैकड़ों भारतीय पंडित जाने लगे और चौथी शताब्दी में सम्पूर्ण उत्तरी चीन बौद्ध बन गया। 5वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कश्मीर नरेश के महामात्य का विद्वान पुत्र कुमारजीव चीन गया और वहाँ उसका बहुत स्वागत हुआ। उसने 12 वर्षों में संस्कृत और पालि के 100 ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। साथ ही, महाकवि अश्वघोष और दार्शनिक नागार्जुन की जीवनियाँ भी चीनी भाषा में लिखीं " कुमारजीव ने 1000 से अधिक चीनी शिष्य बनाये जिनमें से ही एक था- फाहियान जो अपने गुरु के जीवन काल में ही भगवान बुद्ध को जन्मभूमि भारत आया, यहाँ अनेक नगरों और तीर्थस्थानों की यात्रा की तथा लौटकर सजीव यात्रा का वृतांत लिखा

कुछ वर्षों बाद दक्षिणी चीन में भी बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा तथा अनेक भारतीय विद्वान वहाँ रहकर संस्कृत और पालि भाषा के ग्रंथों के अनुवाद चीनी भाषा में करने लगे । छठी शताब्दी के आरम्भ में चीन में 3000 से अधिक भारतीय बौद्ध भिक्षु चीनी राजाओं द्वारा बनवाये गये विहारों में रह रहे थे।" सातवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के समय में चीनी यात्री व्हेनत्सांग भारत आये और 16 वर्षो तक यहाँ रहे।" लौटते समय भगवान बुद्ध की एक सवा तीन फुट ऊँची स्वर्ण प्रतिमा, साढ़े तीन फुट ऊँची दूसरी रजत प्रतिमा, सैकड़ों चंदन निर्मित प्रतिमाएँ, बोधगया में स्थापित वज्रासन के 115 ग्रेन टुकड़ें और 657 बौद्धग्रंथ ले गये उसके 42 वर्ष बाद उसी 7वीं शताब्दी में ईचिंग भारत आये और वे भी अपने साथ अनेक ग्रंथ ले गये।" 8वीं शताब्दी में चीनियों ने भारतीय पंचांग के अनुसरण में अपना पंचांग विकसित किया।" बीच में कुछ उतार-चढ़ावों के बाद 11वीं शताब्दी में पुनः बौद्धधर्म का कुछ प्रभाव बढ़ा।

महान मंगोल साम्राज्य में हिन्दू एवं बौद्ध धर्म का वैभव

फिर एक शताब्दी तक प्रगति रुकी रही परन्तु महान मंगोल सम्राट चिनगिजहान 13वीं शताब्दी में चीन के शासक बने और उन्होंने बौद्ध धर्म तथा सनातन धर्म को भरपूर राज्याश्रय दिया ।" उसके बाद कुवलय हान (कुबलाई खान) चीन के शासक हुए जिनका शासन चिगगिज हान की ही तरह चीन, मंगोलिया, बल्गेरिया, सर्बिया, हंगरी (हूणगिरि), रूस और नावे तक था।" हूणों और मंगोलों ने चीन पर 1700 वर्षों तक शासन किया।" उनके समय वहाँ राज दरबार में कश्मीरी शैव पंडितों और भारतीय बौद्ध भिक्षुओं की अत्यधिक प्रतिष्ठा रही। वस्तुत: यूरोईसाई विद्वानों ने भयवश मंगोलों और हूणों को अलग-अलग जातियों दिखाया है। हूण और मंगोल एक ही हैं। ये सनातनधर्मी हैं। बौद्ध मांचू भी हूण ही हैं और मिंग भी हूण या मंगोल ही हैं। इस बात की प्रचण्ड सम्भावना है कि ये सभी मूलतः भारतवंशी ही हैं। इस विषय में इतिहास की विशद शोध अपेक्षित है। हूण ही हान भी कहलाए। चीन में प्रारम्भ से हानों का शासन रहा। कम से कम 1700 वर्षों तक चीन हानों और मंगोलों तथा मांचुओं एवं मिंगों के अधीन रहा है।

 महाकाल हैं मंगोलों के इष्टदेव

मंगोलों के इष्टदेव महाकाल हैं तथा गंगाजल वहाँ आज भी परम पवित्र माना जाता है। जैसा ऊपर उल्लेख हो चुका है, 15वीं शती ईस्वी तक चीन को हिन्द या भारतवर्ष या इंडी ही कहा जाता रहा है। क्रिस्टोफर कोलम्बस जब 1492 में चीन और भारत की खोज में चला तो उसके लिए मार्गदर्शक के रूप में मार्को पोलो द्वारा लिखित वे यात्रा संस्मरण थे, जो उसने भारत और चीन पर लिखे थे। मार्को पोलो को रानी इसाबेल तथा फर्डिनांड से जो पत्र मिले थे, उनमें स्पष्ट लिखा था- 'महान कुबलइ खान सहित भारत के सभी राजाओं और लाईस के लिए'।

भारत चीन की अभिन्नता

सम्पूर्ण चीन में ईसा की पहली शताब्दी में ही बौद्ध धर्म फैल चुका था, क्योंकि प्राचीन भारत का चीन सहज अंग था। भारतीय पंडित तथा वीर महाभारत काल में ही वहाँ बड़ी संख्या में थे अर्जुन के उत्तर कुरु और चीन देश जाने का वर्णन है ही। चौथी शती ईस्वी में भिक्षु कुमारजी वहाँ गये। उन दिनों सम्पूर्ण मध्य एशिया में अनेक बौद्ध विद्या केन्द्र थे। कुमारजी वहाँ सभी जगह मान्य विद्वान थे। उन्होंने चीनी भाषा में एक सौ से अधिक संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद किये। कश्मीर से सैकड़ों बौद्ध विद्वान चीन गये, जिनमें शीर्षस्थ थे- संघभूति, संघदेव, पुण्यत्राता, विमलाक्ष बुद्धयश, बुद्धजीव, धर्ममित्र और धर्मपरा इनमें से अधिकांश विद्वान ब्राह्मण ही थे। कासगर के राजा ने चौथी शती ईस्वी में एक समारोह में तीन हजार बौद्ध भिक्षुक बुलवाये थे।

इसी प्रकार क्षत्रिय कुल के श्री गुणवर्मन भी एक श्रेष्ठ बौद्ध भिक्षु हुए। उन्होंने कश्मीर से जावा और श्रीलंका तक बौद्ध धर्म का प्रचार किया। जावा के राजा उनके प्रभाव से बौद्ध बन गये। जब जावा पर पड़ोसी सेनाओं ने आक्रमण किया तो राजा ने आचार्य गुणवर्मन से पूछा कि बौद्ध धर्म क्या ऐसी स्थिति में युद्ध का आदेश देता है, गुणवर्मन ने कहा- 'हाँ, राजा का धर्म है शत्रुओं और दस्यु दलों का दमन'। राजा लड़े और विजयी हुए। बाद में आचार्य गुणवर्मन को स्वयं चीनी सम्राट ने सादर आमंत्रित किया। 431 ईस्वी में जब गुणवर्मन नानकिंग पहुँचे, राजा उनके स्वागत को स्वयं आये और उन्हें जैतवन विहार का मठाधिपति बनाया गुणवर्मन ने एक वर्ष में ग्यारह संस्कृत ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। इसी समय पाँचवीं छठी शती ईस्वी में मध्यदेश से गुणभद्र, काशी से प्रज्ञारुचि, उज्जयिनी से उपशून्य तथा बंगाल- असम से ज्ञानभद्र, जिनयशस् तथा यशोगुप्त भी वहाँ गये। इसी समय कौशल नरेश ने कपिलवस्तु पर आक्रमण किया तब बुद्धभद्र और विमोक्षसेन ने उनका सामना श्रीरतापूर्वक किया। बाद में ये लोग स्वात घाटी में उड्डियान तथा गान्धार क्षेत्र में काबुल के पास बामियान के शासक हुए और बामियान में विराट बुद्ध प्रतिमा बनवाई, जो अभी कुछ दिनों पहले मजहबी उग्रवादियों ने ध्वस्त की है।

उज्जयिनी के आचार्य परमार्थ भी पाटलिपुत्र में रहने के कारण गुप्त राजाओं के द्वारा चीन भेजे गये थे। इस प्रकार चीन सहस्रों वर्षों से भारत का आत्मीय राज्य रहा है। फाहियान हुएनत्सांग आदि चीनी यात्रियों के विवरण भी हमारे लिए महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्ष्य हैं।" 

कोरिया और जापान में भारतीय संस्कृति का प्रसार

चौथी शताब्दी ईस्वी से भारतीय बौद्धभिक्षु कोरिया जाकर वहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार करने लगे। छठवीं शताब्दी से जापान में भारत का बौद्ध धर्म लोकप्रिय होने लगा। 8वीं और 9वीं शताब्दी में जापान में बौद्ध धर्म परम उत्कर्ष पर था और तब से आज तक जापान और कोरिया में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार है।

तिब्बत, खोतान, कम्पूचिया, म्यांमार, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाइलैंड (स्याम ) और जावा सुमात्रा में भारतीय संस्कृति का प्रसार

तिब्बत में भारतीय संस्कृति का प्रभाव ईसा की पहली शताब्दी के पहले से है। चौथी से वहीं भारतीय बौद्ध विद्वान जाने लगे। 7वीं शताब्दी से वहाँ बौद्धधर्म का व्यापक प्रसार हो गया महान भारतीय विद्वान शांतिरक्षित पद्मसंभव और कमलशील ने तिब्बत में बौद्ध धर्म तथा तंत्र का व्यापक प्रचार किया 11वीं शताब्दी में वहाँ अनेकों कश्मीरी पंडित गये तथा प्रतिभाशाली बौद्धाचार्य अतिशा भी वहाँ इसी शताब्दी में पहुँचे जिनकी अनेक चमत्करी कथाएँ तिब्बत में आज तक प्रचलित हैं।" उनके शिष्यों के प्रभाव से कुछ समय बाद तिब्बत का राष्ट्रधर्म बौद्धधर्म होगया। कर्मफल और पुनर्जन्म का सिद्धान्त वहाँ सर्वमान्य हो गया। बाद में मंगोल शासकों की अधीनता में भी तिब्बत में बौद्ध धर्म फलता-फूलता रहा 15वीं शताब्दी ईस्वी से वहाँ ताले- लामा या दलाई लामा या प्रमुख लामा के अवतार का सिद्धान्त सर्वमान्य हो गया  तब से अब तक 13 ताले-लामा या दलाई लामा हो चुके हैं और 14वें की भी प्रतिष्ठा हो चुकी है।" कम्युनिस्ट चीन वहाँ सर्वनाश का प्रयास कर रहा है परन्तु तिब्बत का राष्ट्र धर्म बौद्ध धर्म ही है। 

खुतन या खोतान (कुस्तन )

चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के हरे- भरे मैदान को खोतन देश कहा जाता है। यह क्षेत्र तिब्बत और सोवियत संघ के यारकंद क्षेत्र के मध्य में है। उसके दक्षिण-पश्चिम में गांधार (अफगानिस्तान) और दक्षिण में भारतवर्ष है। चीनी यात्री व्हेनत्सांग के अनुसार इस क्षेत्र का प्राचीन नाम 'कुस्तन' है। 'कु' का अर्थ है भूमि या पृथ्वी इस प्रकार, पृथ्वी ही जिसका स्तन है, उस राज्य का नाम 'कुस्तन' पड़ा। कहानी यह है कि भारत के एक प्राचीन राजा ने यहाँ वैश्रवण देवता के मन्दिर में पुत्र की याचना की थी जिससे उन्हें पुत्र लाभ हुआ था। इस राजपुत्र को पृथ्वी ने स्वयं ही वैश्रवण देवता के आदेश से स्तनपान कराया था। तभी से इस देश का नाम 'कुस्तन हुआ। इस प्रकार, कुस्तन पर समय- समय पर कभी भारतीय और कभी चीनी सम्राटों का आधिपत्य रहा। आज भी वहाँ के आधे निवासी चीनी हैं और आधे भारतीय। यह तो निर्विवाद है कि सम्राट अशोक का इस देश पर राज्य था। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में यहाँ विजयसम्भव नामक राजा राज्य करते थे। उन दिनों वहाँ बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार हुआ। राजा विजयसम्भव के वंश में आठवें राजा हुए- विजयवीर्य । इसी वंश में ग्यारहवें राजा हुए विजयजय इन्होंने चीन की राजकुमारी से विवाह किया था। विजयजय के तीन पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र भिक्षु बन गया और वह धर्मानंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरा पुत्र विजयधर्म राज्य का स्वामी बना छठी शताब्दी में खोतन एक शक्तिशाली राष्ट्र था। विजयधर्म का पुत्र विजय सिंह उस शताब्दी में एक प्रतापी राजा हुआ। विजय सिंह के पुत्र विजय कीर्ति के समय यहाँ विदेशी आक्रमण हुआ। इन दिनों यह क्षेत्र चीन के प्रभाव में था। 5वीं शताब्दी के प्रारम्भ में चीनी यात्री फाहियान भारत यात्रा के समय खुतन या खोतान भी गया था उसने तत्कालीन खोतान की समृद्धि का वर्णन किया" फाहियान के विवरण से खोतान भारतवर्ष के ही एक राज्य की तरह दिखता है। उसने वहाँ जगन्नाथपुरी की प्रसिद्ध रथ यात्रा की ही तरह एक रथ यात्रा उत्सव को अपनी यात्रा के समय देखा था जिसका विस्तृत वर्णन किया है। उसने यह भी बताया है कि कुस्तन में चार बड़े संघाराम है। फाहियान के मूल चीनी संस्करण में इन संघारामों की संख्या चौदह बतायी गयी है। भारतीय अनुवाद में सम्भवत: राहुल सांकृत्यायन ने इसे घटाकर चार कर दिया।

7वीं शताब्दी के मध्य में व्हेनत्सांग भारत के साथ खोतान भी गया था। व्हेनत्सांग के अनुसार खोतान के राजा भारतीय सम्राट वैरोचन के वंशज हैं।" वत्सराज उदयन ने भगवान बुद्ध के जीवनकाल में ही यहाँ एक भव्य मन्दिर बनवाया था। यहाँ पूरी तरह भारतीय संस्कृति का ही प्रसार था। 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण किया और इसे जीतकर 25 वर्षों तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हैं। परन्तु उनमें भारतीय संस्कार शताब्दियों तक बने रहे " 13वीं शताब्दी ईस्वी में चीन और मंगोलिया से आस्ट्रिया तक फैले विशाल मंगोल साम्राज्य के सनातनधर्मी राजाओं का आधिपत्य यहाँ के मुसलमानों ने स्वीकार कर लिया था। मंगोलों ने इनकी उपासना पद्धति को बदलने की कभी इच्छा नहीं की।" इतालवी यात्री मार्को पोलो ने 13वीं शताब्दी ईस्वी के खोतान की समृद्धि का वर्णन किया ।" यहाँ पर खुदाई से मध्यकालीन भारतीय राजाओं के कई सिक्के मिले हैं। साथ ही, यक्षिणियों और गन्धर्वो की तथा गोमाता की मूर्तियाँ और मोहरें भी मिली हैं। तथागत बुद्ध की एक मूर्ति भी प्राप्त हुई है। एक भित्ति के अवशेष पर भगवान बुद्ध की 'मार- विजय' के चित्र भी अंकित मिले हैं। खोतान देश की राजधानी खोतान नगर से लगभग 30 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में एक पर्वत की गुफा में भोजपत्र पर खरोष्ठी लिपि में लिखे 'धम्मपद' की प्रति भी मिली है और वहाँ से कुछ दूर एक स्तूप भी मिला है। सम्पूर्ण खोतान क्षेत्र में पुरातात्विक खुदाई में अनेक बौद्ध विहार और मन्दिर तथा मूर्तियाँ और मोहरें मिले हैं।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि चौथी शती ईस्वी के इन चीनी तीर्थयात्री फाहियान का मूल नाम 'कुंग' है। फाहियान का अर्थ है धर्माचार्य फाहियान ने तिब्बत, स्याम, म्यांमार, गोवी मरुस्थल, मंगोलिया, कुस्तन (खोतान), तुर्किस्तान, समरकन्द, पामीर पठार, गान्धार, कैकय, खुश, दरद, शिवि, तक्षशिला, पुरुषपुर (पेशावर), हिदा (हेला), स्वात प्रदेश से लेकर मथुरा, कन्नौज, श्रावस्ती, कपिल वस्तु, कुशीनगर, पटना, गया, काशी, उड़ीसा होते हुए, श्रीलंका तक की यात्रा की थी। भारत से सटे इन सभी इलाकों में तब हिन्दू धर्म एवं बौद्ध धर्म का व्यापक प्रभाव था।

पुः नान एवं कम्बुज राष्ट्र

ईसा की प्रथम शताब्दी में ही सम्पूर्ण हिन्द चीन, म्यांमार, थाई देश, मलेशिया, जावा - सुमात्रा में हिन्दू राज्य थे जिसे इन दिनों कम्बोडिया या कम्पूचिया कहा जाता है, वह उन दिनों कम्बुज राष्ट्र कहलाता था। चीनी लोग इसे पुःनान कहते थे। पुःनान में वर्तमान चीन का एक अंश, लाओस, स्याम और मलाया भी समाहित थे। इस सम्पूर्ण पुनान पर 600 वर्षों तक हिन्दू राज्य रहा। बाद में इसके खण्ड हो गये। उन खण्डों पर भी अगले 900 वर्षों तक हिन्दू राज्य रहा। इस प्रकार 1500 वर्षों तक इस सम्पूर्ण क्षेत्र में हिन्दू राज्य रहे। यह वह अवधि है, जिसमें उत्तर भारत के एक छोटे से क्षेत्र में मुस्लिम जागीरे हो जाने पर कतिपय अनपढ़ लोग उसे भारत में मुस्लिम काल या हिन्दू पराजय का काल कहते हैं और इन्हीं आधारों पर हिन्दू धर्म की निन्दा करते हैं।

दक्षिण भारतीय ब्राह्मण नरेश कौडिन्य ने ईसा की पहली शताब्दी में यहाँ सोमवंशी शासन की स्थापना की। कौडिन्य की पत्नी राजकुमारी सोमा नागवंशी कन्या थी। कहा जाता है कि सोमा से उत्पन्न होने से यहाँ के शासक सोमवंशी कहलाए परन्तु यह सम्भावना भी प्रबल है कि कौडिन्य सोमवंशी ही हों, क्योंकि सोमवंशियों के दक्षिण भारत में शताब्दियों तक राज्य रहे हैं। इसी सोमवंश में तीसरी शताब्दी ईस्वी में चन्द्रवर्मा नामक प्रसिद्ध राजा हुए 5वीं शताब्दी में यहाँ जयवर्मा का राज्य था जिनके शैव होने की चर्चा चीनी वृतांत में मिलती है। वृतांत से पता चलता है कि वहाँ हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों को समान संरक्षण प्राप्त था। इस देश में 1500 वर्षों तक हिन्दू राजाओं ने राज्य किया। कम्बोडिया में हुए अन्य प्रतापी हिन्दू राजा हैं- श्रुतवर्मा, श्रेष्ठवर्मा (छठी शताब्दी ईस्वी), रुद्रवर्मा, भववर्मा, महेन्द्रवर्मा, ईशानवर्मा (सातवीं शताब्दी), इन्द्रवर्मा (नौवीं शताब्दी) यशोवर्मा 9वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध) ( रुद्रवर्मा के शासनकाल में अनेक प्रसिद्ध हिन्दू विद्वान वहाँ हुए, ऐसा एक राजकीय अभिलेख से पता चलता है ।" भववर्मा ने अनेक भव्य शिवमन्दिर एवं विष्णुमन्दिर बनवाये । राजा महेन्द्रवर्मा के एक अभिलेख से पता चलता है कि उन्होंने भारत में प्रसिद्ध गया के विष्णुपाद की ही तरह एक शिवपाद की स्थापना की थी। राजा ईशानवर्मा के शासन में हिन्दू संन्यासियों के लिए अनेक मठ और आश्रम बनवाये गये। साथ ही, कई नये भव्य मन्दिर भी बनवाये गये। इसी प्रकार, राजाधिराज इन्द्रवर्मा के शासन में भी अनेक शिव मन्दिर, दुर्गा मन्दिर तथा हिन्दू संन्यासियों के लिए आश्रम बनवाये गये राजाधिराज यशोवर्मा ने अड्कोर थोम् नामक एक प्रसिद्ध नया नगर बसाया और उसे ही अपनी राजधानी बनाया । राजधानी का सबसे विशाल और भव्य भवन था नगर के मध्य में स्थित तीन खण्डोंवाला विराट शिव मन्दिर जिनके भग्नावशेष अभी भी हैं।" जो दीवारें बच रही हैं उनमें अत्यन्त सुन्दर, सजीव और कलात्मक चित्र हैं।

10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से कम्बोडिया के हिन्दू राजाओं ने बौद्ध धर्म को विशेष संरक्षण दिया। 12वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वहाँ सूर्यवर्मा द्वितीय सिंहासन पर बैठे जिन्होंने अड्कोर वत् का विश्वविख्यात वैष्णव मन्दिर बनवाया। इस मन्दिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत की पचासों घटनाएँ कलात्मक रूप में चित्रित हैं। भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्द्धन धारण, नरकासुर वध, स्यमंतक मणिहरण आदि के चित्र भी थे। भगवान शिव द्वारा कामदहन का भी बहुत आकर्षक चित्र था। देवासुर संग्राम, समुद्र मंथन और शेषसायी विष्णु के चित्र भी इन दीवारों में मिले हैं। बाद में बौद्धों ने इस मन्दिर में भगवान विष्णु के स्थान पर भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ स्थापित की। 19वीं शताब्दी ईस्वी तक यहाँ बौद्धों ने शासन किया। हिन्दू राजाओं के शासन काल में कम्बोडिया में अनेक संस्कृत विद्यालय भी चलते थे। वेद-वेदांगों के अध्ययन, संन्यासियों के आश्रमों के प्रबंध तथा रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत के अखण्ड पाठ यहाँ होते रहते थे और साथ ही अनेक वैदिक यज्ञ भी होते थे, ऐसा अभिलेखों से पता चलता है। इन्हीं अभिलेखों से मन्दिरों की व्यवस्था का भी विवरण मिलता है। 10वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में आये अरब देश के एक यात्री मसूही ने लिखा कि 'कम्बोडिया भारत का ही हिस्सा है। 

चम्पा और हिन्द-चीन क्षेत्र में 1800 वर्षों तक रहा हिन्दू शासन

हिन्द-चीन क्षेत्र में भी पहली शताब्दी ईस्वी से 16वीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ तक हिन्दू राजाओं का ही राज्य था। जिसे आज वियतनाम कहा जाता है, 1600 वर्षों तक उसका नाम चम्पा था। चम्पा राज्य की राजधानी का नाम भी चम्पा ही था। चम्पा के प्रसिद्ध हिन्दू सम्राटों में प्रमुख हैं- श्रीमार, धर्मराजश्री, श्रीभद्रवर्मा, गंगाराज, पांडुरंग और इन्द्रवर्मा द्वितीय भद्रवर्मा ने 'मोसन' में एक विशाल शिव मन्दिर बनवाया था जो शताब्दियों तक चम्पा का राष्ट्रीय तीर्थस्थल रहा। श्रीभद्रवर्मा चारों वेदों का प्रकांड पंडित भी था। उनके उत्तराधिकारी गंगाराज भी एक प्रतापी राजा थे। अंतिम अवस्था में गंगा के तट पर रहने के लिए वे भारत चले आये। जिससे मौका देखकर चीन ने जल और थल दोनों मार्गों से चम्पा पर आक्रमण कर दिया परन्तु उसे हारना पड़ा। बदला लेने के लिए चीनियों ने कुछ समय बाद दुबारा आक्रमण किया और विजय पाने पर चम्पा की सोने चाँदी की हजारों मूर्तियों को गलवा कर एक लाख सेर सोना और कई लाख सेर चाँदी साथ ले गए। बाद में अन्य राजाओं ने चम्पा में पुनः भव्य मन्दिर बनवाये। 12वीं शताब्दी के मध्य में चम्पा और कम्बोजिया में युद्ध हुआ जिससे दोनों ही हिन्दू राज्यों को क्षति पहुँची।

13वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस पर मंगोलों ने अधिकार कर लिया। परन्तु सनातनधर्मी मंगोलों ने यहाँ के मन्दिरों और वैदिक अध्ययन तथा यज्ञ परम्परा को कोई क्षति नहीं पहुँचायी। 16वीं शताब्दी के बाद से चम्पा का हिन्द- चीन के दूसरे क्षेत्रों से युद्ध तीव्र होने लगा और 19वीं शताब्दी से यहाँ बौद्ध धर्म का प्रसार व्यापक हो गया। कम से कम 1800 वर्षों तक चम्पा में हिन्दुओं का भव्य शासन रहा। जहाँ अभी 200 वर्षों पूर्व तक हिन्दुओं का शासन था और आज भी भारत से गये लोगों का ही बौद्धों के रूप में शासन है तथा प्रजा भी मूलतः भारतवंशियों के ही समान वंश वाले हैं, उस देश के प्रति भारत शासन और हिन्दू समाज में कोई भी भावपूर्ण स्मृति तथा आत्मीयता आज नहीं दिखती, यह आत्मविस्मृति का दुःखद लक्षण है। 

हिन्दू स्याम देश

वर्तमान थाइलैंड या थाईदेश शताब्दियों तक स्याम कहा जाता था और वहाँ हिन्दू राजा राज्य करते थे। ईस्वी सन् के प्रारम्भ से बहुत पहले से 16वीं शताब्दी तक इसका नाम स्याम ही था। इसकी राजधानी का नाम तब अयोध्या था। 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में डचों ने अयोध्या में कोठी बनायी। बाद में वहाँ स्पेनिश, अंग्रेज, फ्रेंच और पुर्तगीज व्यापारी भी आ बसे । उनके साथ ईसाई पादरी बड़ी संख्या में आये। उधर हिन्दू राजा ने इन्हें चर्च बनाने और ईसाइयत के प्रचार की अनुमति दी। बाद में इन लोगों ने मिलकर स्याम को थाइलैंड के रूप में प्रचारित किया। आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से स्याम के नवशिक्षित लोग भी अपने देश को सकारात्मक रूप में थाइलैंड कहने लगे यद्यपि देश के भीतर अभी भी स्याम नाम प्रचलित है और वहाँ अभी भी हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों का प्रभाव है। अंग्रेजी शिक्षित स्याम जनों ने 1948 ईस्वी में पहली बार इसे औपचारिक तौर पर थाइलैंड कहा। 'थाइ' का स्याम की भाषा में अर्थ है स्वतन्त्र 'लँड' शब्द अंग्रेजी से लिया गया

स्याम देश में अब तक मिले शिलालेखों में पहला लेख पूर्वी शताब्दी ईस्वी का है। जिसमें वैष्णव व्यापारियों के एक समूह द्वारा विष्णु मन्दिर बनवाने का उल्लेख है। उससे तब तक वहाँ भारतीयों के व्यवस्थित रूप से बसने का प्रमाण मिलता है। कौन्डिन्य का शासन स्याम देश पर भी था। सम्भवत: बहुत बाद में स्याम एक स्वतन्त्र राष्ट्र बना। राजा इन्द्रादित्य प्रथम ने सुखोदय को स्वतन्त्र स्याम राष्ट्र की राजधानी बनाया। 13वीं शताब्दी के एक अभिलेख से पता चलता है कि इन्द्रादित्य प्रथम 1218 ईस्वी में राज्यारूढ़ हुआ। बाद में स्याम देश की राजधानी अयोध्या हो गयी। 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक अयोध्या ही स्याम देश की राजधानी रही। 17वीं शताब्दी के ईस्वी के उत्तरार्द्ध में बैंकॉक को राजधानी बनाया गया। इन्द्रादित्य के बाद हुए श्रेष्ठ स्वामी नरेश हैं- रामराजा (13वीं शती ई.), सूर्यवंश राम, रामाधिपति, रामराजा द्वितीय (तीनों 14वीं शताब्दी ई.), परमराजाधिराज (15वीं शती ई.), वरधीरराज ( 16वीं शती ई.) और इन्द्रराज (17वीं शती ई.) 17वीं शती ई. से यह देश विभिन्न यूरो-क्रिश्चियन व्यापारियों एवं पादरियों का शिकार होने लगा। तब भी यहाँ हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म का प्रभाव बना रहा। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यहाँ भूमिबल अतुल्यतेज का शासन था।

सूर्य, विष्णु, गणेश, शिव, लक्ष्मी और बुद्ध का उपासक

देश यहाँ के प्रसिद्ध मन्दिरों में अरुण मन्दिर (अरुणवत्) जो सूर्योदयकालीन उपासना का मन्दिर है; पंचपुरीमन्दिर, माँङ-सिंह मन्दिर आदि प्रसिद्ध हैं। " स्याम देश की विशेषता यह है कि यहाँ के हिन्दू मन्दिरों में भगवान बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार ही दर्शाया गया है। अनेक हिन्दू मन्दिरों में बाद में बौद्ध प्रतिमाएं स्थापित कर दी गयीं।" देवनगर में एक प्रसिद्ध मन्दिर में गणेश, शिव, विष्णु और लक्ष्मी की मूर्तियाँ हैं और साथ ही भगवान बुद्ध की अनेकों मूर्तियाँ भी हैं। स्याम देश का शासन शताब्दियों तक मनुस्मृति में वर्णित शासन व्यवस्था से साम्य रखने वाले रूप में चलता रहा है। राजा, सेनापति, मंत्री, पुरोहित, अग्रमहिषी (पटरानी), न्यायाधीश, प्रधानमंत्री (सुरिज वंश), कोषाध्यक्ष या राजकोषाधिपति आदि इस व्यवस्था के प्रमुख अंग थे। राजा वर्ष में एक बार तीर्थयात्रा अवश्य करते हैं और नंगे पैर जाकर ही मन्दिरों में पूजा करते हैं।" नामकरण, मुंडन, कर्ण-भेद आदि के संस्कार भी वहाँ प्रचलित हैं। बौद्ध भिक्षुओं की संख्या भी विशाल है जो विहारों में रहते हैं। विहारों का प्रबंध राज्य करता है। 

म्यांमार या ब्रह्म देश पर शताब्दियों रहा है हिन्दू शासन

म्यांमार या वर्मा का सम्बन्ध भी पहली शताब्दी ईस्वी के भी काफी पहले से भारत से रहा है। 4. 13वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक यहाँ भारतीय राजा राज्य करते थे। मंगोलों के आक्रमण के बाद उनका राज्य कमजोर हुआ और तब स्याम देश के राजा बर्मा के बड़े हिस्से में राज्य करने लगे। 16वीं शताब्दी से बर्मा पुनः भारतवंशी राजाओं के शासन में रहा। इस बीच वहाँ अंग्रेजों, डचों, पुर्तगीजों ने अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश की। 19वीं शताब्दी में बर्मा के अलग-अलग हिस्सों में ब्रिटिश एवं फ्रेंच नियंत्रण तथा प्रभाव बढ़ने लगा। 1948 में बर्मा एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया। 1961 में बर्मा के कुछ हिस्सों पर चीन ने कब्जा कर लिया। बर्मा में आज भी हिन्दू संस्कृति एवं बौद्ध संस्कृति की गहरी छाप है। 

मलय राष्ट्र में हिन्दू वैभव

मलयेशिया में भी ईसा पूर्व से भारतीय प्रभाव रहा है।" यहाँ का प्राचीन नाम सुवर्णभूमि रहा है इससे जुड़े क्षेत्र कालीमर्दन, जावा एवं सुमात्रा द्वीप, जो सुवर्णद्वीप कहलाते थे" अब ये इंडोनेशिया का अंग हो गए हैं। कासरित्सागर और जातक कथाओं में सुवर्णद्वीप भारत का अंग ही वर्णित है। 5वीं शताब्दी ईस्वी के एक अभिलेख के अनुसार, उस समय यहाँ एक हिन्दू राजा राज्य कर रहे थे। आठवीं शती ईस्वी से यहाँ भारत से आए शैलेन्द्रवंशी राजाओं ने राज्य किया।" शैलेन्द्र वंश का शासन यहाँ चौदहवी शती ईस्वी तक रहा। शैलेन्द्रों के शासन में मलयेशिया ने बहुत उन्नति की एवं अत्यधिक समृद्धि प्राप्त की।" 9वीं एवं 10 वीं शती ईस्वी के अरब यात्रियों ने इसकी समृद्धि के वर्णन किए हैं। चीनी लेखकों ने भी यहाँ की तत्कालीन समृद्धि का वर्णन विस्तार से किया है। स्याम देश के दक्षिण में स्थित मलयेशिया में मलय राज्य (मलका) सबाह एवं सरावाक सम्मिलित हैं। मलयेशिया 13 राज्यों का संघ है। जोहोर, केदाह (केदार), नगरी पलंग, तरंगनु, पीनांग आदि डच राज्य हैं। आज भी यहाँ 10 प्रतिशत से अधिक भारतीय हैं। मलाया प्रायद्वीप में शताब्दियों तक हिन्दू शासन रहा। वहाँ शिव, गणेश, पार्वती, नंदी आदि की पूजा की मूर्तियों सहित अनेक चिन्ह मिले हैं। 'फः नो' पर्वत पर एक वैष्णव मन्दिर के भग्र अंश मिले हैं।

हिन्दू संस्कृति का उत्कर्ष बोर्नियो में

बोर्नियो में मिले प्राचीन शिलालेखों से वहाँ हिन्दू संस्कृति का साक्ष्य मिला है 140 लेखों में ब्राह्मणों को गोदान एवं भूमिदान का उल्लेख है।" सभी प्रमुख हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ एवं मन्दिर- अवशेष यहाँ मिले हैं।42 मलयेशिया में पन्द्रहवीं शती ईस्वी में पहली बार कुछ मुसलमान व्यापारी भारत से गए। शीघ्र ही, उन्होंने वहाँ मुस्लिम आक्रमण की पृष्ठभूमि बनाई। 

क्रमशः ऐसे फैला मलयेशिया में इस्लाम

मलय देश के एक राजा परमेश्वर के पुत्र को मुसलमानों ने मुसलमान बनाने में सफलता पा ली। उसे एक मुस्लिम सुन्दरी से प्यार हो गया था। विवाह की शर्त थी इस्लाम कबूलना। राजकुमार मुसलमान बन गया और उसका नाम पड़ा सिकन्दर शाह। सिकन्दर शाह के वंशजों में मुजफ्फर शाह, मंसूर शाह और अलाउद्दीन हुए, जिन्होंने आक्रमण कर एक इलाके में कब्जा कर उसे मलक्का का नाम दिया।" फिर स्वयं को मलक्का का सुलतान घोषित कर वे शेष मलयेशिया को दार-उल- इस्लाम बनाना अपना फर्ज बताने लगे और धीरे-धीरे 16वीं शताब्दी में मलयेशिया पर अपना कब्जा जमा लिया।" अंग्रेज़ व्यापारियों को रियायतें देकर इन्होंने ब्रिटेन से दोस्ती बढ़ाई। ब्रिटिश व्यापार एवं प्रभाव बढ़ता रहा।" मुसलमानों ने अपनी जनसंख्या बढ़ाने पर मुख्य ध्यान दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में मलाया में कम्युनिस्टों के विद्रोह हुए, जिन्हें दबाने के लिए अंग्रेजों ने मुसलमान जागीरदारों का साथ दिया। अंग्रेजी प्रोत्साहन से मलयेशिया 1963 में एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाए, जिसमें मुस्लिम तुंकु अब्दुर्रहमान प्रधानमंत्री बने। इधर वहाँ इस्लामी उग्रवादी लगातार हिन्दुओं, बौद्धों आदि का सफाया करने में लगे हैं। भारतवर्ष में कोई निष्ठावान हिन्दू प्रधानमंत्री नहीं होने से मलयेशिया में हिन्दू हितों की रक्षा नहीं हो रही है। वस्तुतः सम्पूर्ण मलयेशिया पर एक दिन के लिए भी मुस्लिम राज्य नहीं रहा है। परन्तु भारत के पंथ निरपेक्ष हिन्दू शासकों को मलयेशिया के इतिहास का भी ध्यान नहीं है। वर्तमान में यहाँ के प्रधानमंत्री अब्दुख बिन अहमद बदामी हैं। मलयेशिया में प्राचीन मलाया, बोर्नियो एवं सरावाक राज्य सम्मिलित हैं। 1940 ईस्वी में मलाया में ब्रिटिश शासन के अधीन जो जनगणना हुई थी, उसमें 45 प्रतिशत लोग चीनी थे, 11 प्रतिशत भारतीय तथा 34 प्रतिशत मलय जिनमें से 20 प्रतिशत ही मुस्लिम थे। अतः बीसवीं शती ईस्वी तक वहाँ कभी मुस्लिम शासन था ही नहीं। इसलिए जो भारतीय नेता मुस्लिम मलयेशिया में भारतीय संस्कृति का स्थान देखते हैं, उनके अज्ञान को क्या कहा जाए? बीसवीं शती ईस्वी में भी वहाँ बौद्ध और हिन्दू मिलकर मुसलमानों से अधिक हैं, फिर भी इस्लामी उग्रवाद हिन्दुओं एवं बौद्धों के दमन में लगा है।

 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पहली बार मुस्लिम राष्ट्र बने हैं मलयेशिया, पाकिस्तान, बांगलादेश 

इस प्रकार हम पाते हैं कि मलयेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पहली बार बने इस्लामी राष्ट्र हैं। जबकि इन क्षेत्रों में शताब्दियों तक हिन्दू प्रभुत्व रहा है।

पचास वर्षों से पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं का सफाया करने की उग्रवादी रणनीति चली। जबकि मलयेशिया में अभी टकराव चल रहा है। इन दिनों इंडोनेशिया के अंग बने सुमात्रा एवं जावा तथा कालीमर्दन (बोर्नियो ) 16वीं शताब्दी तक हिन्दू राज्य थे। यद्यपि तेरहवीं शताब्दी में जब मार्को पोलो सुमात्रा गए, तब वहाँ एक बड़े हिस्से 'फलक' क्षेत्र में इस्लाम फैल चुका था। 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में सम्पूर्ण सुमात्रा इस्लामी राज्य बन गया। 18वीं शती ईस्वी से वहाँ से बोर्नियो (कालीमर्दन) आदि में इस्लामी प्रचारक जाने लगे। पन्द्रहवीं शती ईस्वी में पहली बार जावा में इस्लाम का प्रचार शुरू हुआ। जबकि पहली शती से 15वीं शती तक वहाँ हिन्दू शासन ही था। प्रारम्भ में मुसलमान समुद्री तट पर हिन्दू राजा की अधीनस्थ प्रजा बनकर बसे। बीच-बीच में वे विद्रोह कर उठते सोलहवीं शती ईस्वी में उन्होंने शक्ति बढ़ाकर जावा में अचानक सत्ता हथिया ली। इस प्रकार 1500 वर्षों तक चले हिन्दू राज्य का वहाँ भी अन्त हो गया। हिन्दुओं को भागकर बाली द्वीप में शरण लेनी पड़ी। परन्तु बाली के राजवंश का भी जावा के मुसलमान शासकों ने अन्त कर दिया। 18वीं शती ईस्वी में कालीमर्दन पर भी मुस्लिम शासन स्थापित हो गया। इस प्रकार सुवर्ण भूमि एवं सुवर्ण द्वीप दोनों ही मुस्लिम कब्जे में चले गए। परन्तु जिसे भारत में मुस्लिम काल कहा जाता है, उस सम्पूर्ण अवधि में जावा, सुमात्र, बोर्नियो एवं मलयेशिया में हिन्दू राज्य था, यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है। जावा में बोरोबुदुर और प्रापावान मंदिर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के गौरवस्तम्भ हैं बोरोबुदर मंदिर अत्यंत विशाल एवं भव्य है तथा विश्वविख्यात है। 

शताब्दियों हिन्दू रहा है इंडोनेशिया

6000 द्वीपों में बसे इंडोनेशिया में वस्तुतः ईसा के हजारों वर्षों पहले से ही हिन्दू राज्य रहा था। इसमें पाँच बड़े द्वीप हैं, जिनमें से सुमात्रा, जावा एवं कालीमर्दन (बोर्नियो) का उल्लेख ऊपर हो चुका है। दूसरी शती ईस्वी पूर्व में यहाँ हिन्दू नरेश देववर्मन का राज्य था। चौथी शती से प्रारम्भ श्रीविजय राज्य का विस्तार इंडोनेशिया से मलाया एवं सुमात्रा, जावा तक था। तेरहवीं शती ईस्वी का कीर्तिनगर राज्य और चौदहवीं शती ईस्वी का मध्योपहित राज्य इंडोनेशियाई इतिहास के अत्यन्त समृद्ध राज्य हुए हैं। पन्द्रहवीं शती ईस्वी से सुमात्रा से कुछ मुसलमान प्रचारक इंडोनेशिया पहुँचे और क्रमशः वहाँ अपना समूह बढ़ाने लगे।" इसी अवधि में वहाँ डच, पुर्तगीज और अंग्रेज़ व्यापारी एवं ईसाई पादरी भी पहुंचे। 17वीं शती ईस्वी में डचों ने इंडोनेशिया के बड़े हिस्से में अपना प्रभाव फैला लिया।" उन्होंने इंडोनेशिया की आर्थिक और राजनैतिक संरचनाएँ बलपूर्वक बदलीं। कम्युनिस्टों एवं मुस्लिम समूहों का विद्रोही रूपों में उभार हुआ, तभी यूरोपीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। जापान ने इंडोनेशिया पर कब्जा कर लिया। 1949 में सुकणों के नेतृत्व में इसे स्वाधीनता मिली। 1950 में वहाँ स्वतंत्र गणराज्य बना। 1965 में कम्युनिस्टों ने सत्ता उलटनी चाही तो सेना ने कम्युनिस्टों का व्यापक संहार किया। 1968 में सेनापति सुहत राष्ट्रपति बने" आज भी अनेक प्रमुख इंडोनेशियाई नेताओं के नाम वहाँ हिन्दू प्रभाव के परिचायक हैं- सुकर्णपुत्री मेघावती, अतिबल आदि इंडोनेशिया की राष्ट्रभाषा को 'भाषा' ही कहा जाता है। वह आठ करोड़ लोगों की भाषा है। यूरो-क्रिश्चियन प्रभाव से उसे रोमन लिपि में लिखा जाता है। इन दिनों वहाँ का राजधर्म इस्लाम है, परन्तु 1500 वर्षों तक वहाँ हिन्दू संस्कृति का प्रभाव था तथा शताब्दियों तक वहाँ हिन्दू राजाओं के राज्य थे। आज भी वहाँ मुसलमानों के अतिरिक ईसाई एवं हिन्दू बड़ी संख्या में है। ईसाई मुसलमानों के बीच दंगे अक्सर भड़कते रहते हैं। वर्तमान में श्री सुशील बमबांग युधयान राष्ट्रपति हैं। 

मुस्लिम रणनीति से हिन्दू लोग सीखें

स्पष्ट है कि आज मुस्लिम बने इन अनेक देशों में शताब्दियों हिन्दू शासन रहा है। अतः हिन्दू राष्ट्रों को क्रमशः मुस्लिम राष्ट्र में किस प्रकार रूपान्तरित किया जाता है, इसके अध्ययन के लिए इंडोनेशिया, मलयेशिया, पाकिस्तान और बांगलादेश के इतिहास का गहरा अध्ययन अपेक्षित है। इसी में से भविष्य के विश्व में हिन्दुओं के कर्तव्य का स्वरूप भी निश्चित होगा। यह विचार मुख्यतः धर्माचार्यों द्वारा ही - करणीय है।

जहाँ तक अभी के भारतीय राजपुरुषों की बात है, यह गहरे दुःख की बात है कि वे इतिहास और संस्कृति के विषय में इतना कम जानते हैं कि हृदय फटने लगता है। स्वयं भारतीयता के पक्षधर राजपुरुष भी भारत के मुसलमानों को इण्डोनेशिया और मलयेशिया के मुसलमानों जैसा बनने का उपदेश कुछ इस तर्ज में देते हैं मानो ये दोनों देश 12-1300 वर्षों से मुसलमान हैं और फिर भी यहाँ रामकथा तथा हिन्दू धर्म के मन्दिर या बौद्ध मन्दिर आदि बचे हुए हैं। ऐसे लोगों को क्या कहा जाये ?

वस्तुत: ये देश अभी 200 वर्ष पूर्व तक हिन्दू बहुल थे। इसीलिए यहाँ हिन्दू मन्दिर बचे हुए हैं और रामकथा भी शेष है। हिन्दू, बौद्ध और ईसाई मिलकर आज भी वहाँ बहुत बड़ी संख्या में हैं। स्वयं इस्लाम की किसी भी बड़ी या मुख्य धारा में गैर-इस्लामी किसी पंथ के प्रति उस समय तो आज तक सहिष्णुता नहीं देखी गयी, जब वे बहुमत में हों और उनका ही शासन हो। सारी सहिष्णुता केवल वहीं देखी जाती है, जहाँ भित्र पंथ और धर्म के लोग प्रबल हैं और उनका शौर्य जीवन्त है। जैसे-जैसे इस्लाम की आज तक मुख्य धारा रही प्रवृत्तियाँ किसी भी देश में प्रबल हो उठती हैं, वैसे-वैसे वे हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म जैसे धर्मों का समूल नाश करने का यत्न करती देखी जाती हैं। यद्यपि जागृत अन्तर्राष्ट्रीय जनमत के दबाव से और विश्व नागरिकता के सिद्धान्त के वास्तविक प्रचार से सम्भव है कि इस्लाम की भी ऐसी कोई धारा कल को मुख्य धारा बन जाये, जो हिन्दू धर्म से समायोजन और समता में श्रद्धा रखे। आखिर करोड़ों भारतीय मुसलमान अपने दैनन्दिन जीवन में शेष हिन्दुओं से बराबरी का ही व्यवहार करते देखे जाते हैं। यद्यपि तबलीग के बाद या किसी कट्टरता के उभार के दौर में उनके व्यवहार में भयंकर हिंसा और क्रूरता का दिखना भी उतना ही व्यापक तथ्य और सत्य है। हिन्दुओं को मुस्लिम कार्यनीति एवं रणनीति का अध्ययन कर उससे आत्मविस्तार की पद्धति सीखनी चाहिए। इसमें कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

हिन्दू एवं बौद्ध श्रीलंका

श्रीलंका में आज भी बौद्ध संस्कृति है। वहाँ के सिंहली भी मूलतः भारतीय हैं और तमिल भी तमिल मुख्यतः हिन्दू हैं और सिंहली बौद्ध बौद्ध शासन सेना और हिंसा में पूरी श्रद्धा रखता है और हिन्दू तमिलों के शस्त्रधारी लड़ाकुओं के संगठन का हाल ही में व्यापक संहार किया है।

सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र एवं चार संन्यासियों को 'सद्धर्म' के प्रचार हेतु श्रीलंका भेजा था। लंकानरेश तिष्य ने 'सद्धर्म' की दीक्षा ग्रहण की। बाद में राजकुमारी संघमित्रा भी लंका गईं। अशोक के समय इसे तामपर्णी कहा जाता था।

ईसा पूर्व दूसरी शती से दूसरी शताब्दी ईस्वी तक लंका पर तमिलों का राज्य था। ये हिन्दू सम्राट थे। कुछ समय बाद वहाँ बौद्ध सिंहली राजा राज्य करने लगे। गया के विद्वान ब्राह्मण बुद्धघोष बुद्धवचन से प्रभावित हो बौद्ध बने। उन्होंने लंका जाकर त्रिपिटक की टीकाओं का पाली में अनुवाद किया। पाँचवीं शती तक वहाँ बौद्ध राजा हुए।

छठी शती में वहाँ के राजा पुनः हिन्दू हो गए। 11वीं शती ईस्वी तक वहाँ हिन्दू राज्य रहा। फिर बारहवीं शती से वहाँ पुनः बौद्ध शासन हुआ। सत्रहवीं शती में वहाँ कैथोलिक पुर्तगालियों ने डरा-धमकाकर और लालच देकर बड़े पैमाने पर लोगों को ईसाई बनाया। बाद में प्रोटेस्टेंट डच पहुँचे। तब भी 18वीं शती ईस्वी में वहाँ कीर्ति श्री राजसिंह राजा थे। वे हिन्दू थे और बौद्धों को पूरा संरक्षण देते थे। 16वीं से 18वीं शती तक बड़े हिस्से में हिन्दुओं का और शेष में बौद्धों का शासन रहा। इस प्रकार विगत 2200 वर्षों में श्रीलंका में 1300 वर्षों तक हिन्दुओं का और 900 वर्षों तक बौद्धों का शासन रहा है।

श्रीलंका में आज भी हिन्दुओं के कई विशाल मन्दिर हैं। तमिल भाषी हिन्दू वहाँ एक चौथाई हैं। अनेक बौद्ध मन्दिरों में भी ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र और कार्तिकेय की मूर्तियाँ हैं। श्रीलंका की आधी आबादी बौद्ध है।" वहाँ सैकड़ों बौद्ध विहार हैं। वहाँ सुदृढ़ बौद्ध संघ हैं। श्रीलंका में समन्तकूट पर प्रसिद्ध विष्णु पद है।" बौद्ध लोग उसे 'बुद्धपद' कहते हैं। मुसलमान ईसाई उसे 'आदम का पैर' कहते हैं। बौद्धों के अनुसार जब भगवान बुद्ध लंका पधारे तो पहला चरण यहीं धरा था। प्रतिवर्ष चैत्र मास में नववर्ष उत्सव में बौद्ध इसका दर्शन-पूजन करते हैं और हिन्दू भी इसे विष्णुपद मानकर पूजते हैं।

अनुराधापुर, कल्याणी एवं काण्डि या श्रीखंड में अनेक मठ, मन्दिर एवं विहार हैं। अनुराधापुर में ही सीता माता से जुड़े अनेक स्थल भी हैं- अशोकावाटिका, अग्रिपरीक्षा-स्थल आदि। श्रीखंड (काण्डि) में भगवान बुद्ध का एक पवित्र दाँत भी सुरक्षित है। मन्दिर के द्वार पर संस्कृत में लिखा है- "सद्धर्म के पारिजात इस पवित्र श्रीदन्तधातु को हम भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं। इस मन्दिर की तीन चाभियाँ हैं - एक सीलोन के राज्यपाल के पास रहती है, दूसरी श्रीखंड के महानायक के पास, तीसरी एक बौद्ध गृहस्थ के पास गुरु पूर्णिमा पर इसका विशेष दर्शन किया जाता है और हाथी पर स्वर्णपात्र में दाँत को रखकर जुलूस निकाला जाता है। मन्दिर की दीवार पर अनेक सुन्दर चित्र हैं। जो पाप-पुण्य के फलों को तथा नरक के दंडों को दर्शाते हैं।

सातवीं से सत्रहवीं शती ईस्वी हिन्दू विस्तार की अवधि है

इस प्रकार यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि जिन दिनों भारत के में भारतीय मुसलमान इस्लाम फैला रहे थे, उन्हीं दिनों भारत के बहुतांश पर हिन्दू धर्म का वैभव छाया था तथा इंडोनेशिया, मलयेशिया, जावा, सुमात्रा, वियतनाम, कुछ क्षेत्रों कम्पूच्या, कोरिया, चीन, जापान, तिब्बत, श्रीलंका, म्यांमार आदि में हिन्दू धर्म एवं बौद्ध धर्म का महान विस्तार भी हो रहा था। अतः उस अवधि को हिन्दू पराजय या हिन्दू संकुचन की अवधि मान पाना सम्भव नहीं है। अपने भारतीय भिन्नधर्मियों या विधर्मियों के प्रभाव को अनावश्यक एवं अतिरंजित रूप में विकराल दिखाना न तो मुसलमानों के साथ न्याय है, न हिन्दुओं के साथ हिन्दु विस्तार एवं संकोच के परिदृश्य का संकेत 'परिशिष्ट-5' में द्रष्टव्य है। 

अरब शताब्दियों तक हिन्दू प्रभाव में रहा

स्वयं अरब में शताब्दियों तक हिन्दू प्रभाव रहा है। पैगम्बर मोहम्मद के पहले अरब में तो सनातन धर्म का विस्तार था ही, इस्लाम के उदय के बाद भी अरब पर हिन्दू संस्कृति का प्रभाव शताब्दियों तक बना रहा। मुसलमानों में चार मुख्य श्रेणियाँ गिनायी जाती हैं- शेख, सैयद, मुगल और पठान। इनमें से सैयद वंश के प्रवर्तक हैं- जैनुल आबदीन। जो एक भारतीय माता की संतान हैं। उनकी माँ सिन्धु देश की हिन्दू थीं। सैयद वंश का विस्तार इन्हीं जैनुल आबदीन के वंश से हुआ ।" प्रमुख वंश इसी सैयद वंश के लोग दक्षिण में बहमनी राज्य के संस्थापक बने वे सिन्धु क्षेत्र के थे, भारतीय मूल के थे। इसीलिए उनका शासन भी विधर्मी का शासन तो है, विदेशी का नहीं।

इस्लाम के उदय के शताब्दियों पहले विश्वभर में व्यापार का आदान-प्रदान था। विशाल समुद्री नौकाएँ एवं यान इस व्यापार के मुख्य माध्यम थे। भारतीय सामान विशेषकर यहाँ के वस्त्र, मसाले और रत्न अरब में अत्यन्त लोकप्रिय थे। भारत के विद्वानों और वैद्यों का अरब में बहुत सम्मान था।

मक्का के मन्दिरों में ब्राह्मण पुजारी होते थे

बाह्रीक भारत का एक प्रमुख जनपद था जिसे अब बल्ख कहते हैं। वहाँ नौबहार (नव वसंत) नामक एक प्रसिद्ध मन्दिर था जहाँ वैदिक यज्ञ होते रहते थे इस मन्दिर में हरे रंग की रेशमी पताकाएँ बहुत ऊँचाई तक लहराती रहती थीं। वस्तुतः झण्डों का यह हरा रंग ही बाद में भी मुसलमानों में चलता रहा जो उन्होंने बलख के हिन्दुओं से ही लिया है। यज्ञ में प्रधान पुरोहित को ब्रह्मा कहते हैं। इसे ही अरबों ने ब्रह्मका या बरमका कहा है। मक्का के मन्दिरों के प्रधान पुजारी को भी बरमका कहा जाता था। शेष ब्राह्मण पुजारियों को मुस्लिम अरबों ने बरमक लिखा है जो ब्रह्मक का ही वहाँ प्रचलित रूप है

प्रसिद्ध मुस्लिम अरबी लेखक इबुनुल फकीह ने अपनी पुस्तक 'किताबुल बुल्दान' में लिखा है कि 'बलख के उस विश्वविख्यात नवबहार मन्दिर में भारत चीन और काबुल (गांधार) के बादशाह (सम्राट) भी दर्शन के लिए आते थे और देव प्रतिमाओं को प्रणाम करते थे।' यह भी वर्णन है कि यहाँ वसंतोत्सव बड़े उल्लास से होता था। अनेक अन्य अरबी लेखकों ने भी इसका वर्णन किया है। कतिपय ईसाई लेखकों के अनुसार यह मन्दिर बाद में बौद्ध मन्दिर बन गया था।

 इराक में भारतीय विद्वानों का सम्मान

जब 7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बलख या बलख पर आक्रमण किया तब इस मन्दिर को मस्जिद बना दिया और पुजारियों तथा पंडितों को पकड़कर मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये वहाँ बगदाद के खलीफा ने इन पंडितों को भारतीय चिकित्सा शास्त्र (आयुर्वेद), ज्योतिष, साहित्य और पंचतंत्र, हितोपदेश आदि नीतिग्रंथों का अरबी में अनुवाद करने कहा 204 पंडितों ने शीघ्र ही अरबी सीख ली और यह कार्य किया। उन दिनों जो खलीफा थे उनका नाम मंसूर था जिन्होंने इन पंडितों से ज्ञान साधना ग्रहण कर 'अनल हक' का वह प्रसिद्ध वाक्य कहना प्रारम्भ किया जो 'अहं ब्रह्मास्मि' का अरबी अनुवाद है। जिसके विरुद्ध तत्कालीन कई मौलानाओं ने फतवे दिये थे। जिससे मुस्लिम प्रजा के विद्रोह का ध्यान रख मंसूर ने 'अनलहक' कहना छोड़ दिया। परन्तु उनके समय से गणित और ज्योतिष के अनेक भारतीय विद्वान बगदाद बुलाये जाने लगे। उनके द्वारा किये गये अनुवादों के प्रभाव से अरब और इराक में चिकित्सा, गणित, नीति-शास्त्र, दर्शन और साहित्य का विकास हुआ।

मंसूर के बाद हुए खलीफा हारून रशीद जब बीमार पड़े तो उनकी चिकित्सा के लिए भारत से ही वैद्य बुलाये गये इन नदीम की किताब 'किताबुलफेहरिस्त' के मुताबिक चाणक्य की राजनीतिशास्त्र की पुस्तक का भी अरबी में अनुवाद किया गया था। साथ ही अनेक तंत्र ग्रंथों का भी अरबी और फारसी में अनुवाद हुआ था। नीतिकथा पंचतंत्र का फारसी में नौवीं शताब्दी में 'कलेला दमना' नाम से अनुवाद हुआ था जो बाद में अरबी में भी अनुवाद हुआ। इसके काव्यात्मक अनुवाद के लिए हारून रशीद ने अरबी कवि अब्बान को एक लाख दरहम बख्शीश दी थी। अरबी और तुर्की मुसलमानों के जरिये पंचतंत्र यूरोप पहुंचा और उसका अनेक यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। वहाँ कवि अश्वघोष रचित 'बुद्धचरितम्' का अरबी में 'बोआसफ' नाम से 10वीं शताब्दी में अनुवाद हुआ। 'बोआसफ' बोधिसत्व का फारसी रूप है।" 8वीं शताब्दी में ही आर्यभट्ट की पुस्तक 'आर्यभटीयम्' का अरबी अनुवाद 'अरजबंद' और 'अरजबहर' नाम से हुआ। 8वीं शताब्दी से तीन शताब्दियों तक बगदाद में खलीफाओं के दरबार में हिन्दू ज्योतिषी रखे जाते रहे  कई पीढ़ियों तक बगदाद में प्रधानमंत्री पद मुसलमान बने भारतीय पंडितों को ही दिया जाता था । जिन्हें तब भी बरामका (ब्रह्म) कहा जाता था।

9वीं और 10वीं शताब्दी में इन्हीं प्रधानमंत्रियों की आज्ञा से चरक संहिता और सुश्रुत संहिता का फारसी और अरबी में अनुवाद हुआ * पशु-चिकित्सा और सर्प विद्या के ग्रंथों का भी दोनों भाषाओं में अनुवाद हुआ। भारतीय संगीत शास्त्र की पुस्तकों के भी अनुवाद हुए।" यरुशलम में एक अरबी विद्वान मुतहरीर ने 'किताबुल बिदअ-व-तारीख' (विद्या व इतिहास का ग्रंथ ) नामक पुस्तक में भारत के हिन्दू धर्म का वर्णन करते हुए लिखा है कि 'हिन्दुस्तान में नौ सौ संप्रदाय हैं जिनमें से 45 मुख्य हैं जो दो मुख्य धाराओं में बँटे हैं- समनी (भ्रमण) और बरहमनी (ब्राह्मण) । ये हिन्दू लोग मुसलमानों को अपवित्र मानते हैं और मुसलमान जिस चीज को छू दें, उसे फिर ये नहीं छूते। गाय को ये माँ जैसी मानते हैं। ब्राह्मण लोग शराब और माँस को हराम समझते हैं। इस पुस्तक में अग्रिहोत्री ब्राह्मणों का पुनर्जन्म सिद्धांत का और शिव पूजा तथा दुर्गा पूजा का भी विस्तार से वर्णन है। 

बाद में अनेक अरबी और तुर्क विद्वानों ने संस्कृत सीखी और भारत भी आये। जिनमें से याकूबी और अलबरूनी प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार, अरब के ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति पर भारत का बड़ा ऋण है ।

घनिष्ठ रहे हैं मिश्र -भारत सम्बन्ध 

विदेशों में फैले भारतीय प्रभाव के प्रसंग में ईसापूर्व की तीन प्राचीन सभ्यताओं का उल्लेख भी सम्यक् एवं यथास्थान ही माना जाना चाहिए। ये हैं- प्राचीन मित्र, कार्थेज तथा मय सभ्यताएँ ।

प्राचीन मिश्र और भारत का घनिष्ठ सम्बन्ध विश्वविदित है। इस बात के संकेत हैं कि पांड्य देश से ही गये लोगों ने मिश्री सभ्यता का विकास किया था हम ईश, शिव, शक्ति, विष्णु, सूर्य आदि देवताओं की पूजा मिश्र में भी होती थी । ब्रह्म के अर्थ में राम शब्द को मिश्र में 'रा' कहते थे वर्ण-व्यवस्था भी हिन्दुओं की ही तरह वहाँ थी उनके शिष्टाचार और उत्सव भी हिन्दुओं के सदृश थे वे सर्वप्रथम राजा 'मेनस' को मानते थे जो 'मनु' का ही मिश्री रूप है। वैसे भी भविष्य पुराण के अनुसार, महर्षि कण्व मिश्र गये थे और वहाँ उन्होंने दस हजार म्लेच्छों को संस्कृत का ज्ञान कराया था मिश्र की ममियों पर लिपटा हुआ वस्त्र भारतीय है और आबनूस की लकड़ी भारत से वहाँ जाती थी। नील नदी का उद्गम स्थान एक झील हैं। यह भी पुराणों में ही वर्णित है।

कार्थेज और मय सभ्यता भारतीय ही हैं

मैक्सिको की मय सभ्यता वस्तुतः भारतीय सभ्यता का ही रूप है, यह आज विश्व में अधिकांश विद्वान मानते हैं। मय मन्दिरों की भित्तियों पर हिन्दुओं की पौराणिक गाथाएँ उत्कीर्ण हैं। दक्षिणी यूरोप के इतिहास में सबसे बड़ी शक्ति रही कार्थेज सभ्यता भी भारत के पश्चिमी तट से गये पणियों द्वारा ही विकसित हुई थी। उत्तरी अफ्रीका से फ्रांस, ब्रिटेन, स्पेन और नार्वे तक किसी समय इनकी सत्ता थी । ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी से 7वीं शताब्दी ईस्वी तक के 1500 वर्षों तक कार्थेज एक बहुत बड़ी सभ्यता थी जिसकी संस्थापक थीं पणि साम्राज्ञी दीदो इन्होंने ग्रीकों और रोमनों को कई बार पराजित किया और सिसली पर कार्थेज का शताब्दियों तक कब्जा रहा। कार्थेज के विश्वविख्यात सेनापति हनिवाल ने रोमनों को कई बार हराया था जब रोमन अधीनता स्वीकार कर लेते तो उन्हें अपनी श्रद्धा के अनुसार राज्य चलाने के लिए अनुमति मिल जाती थी। ईसा पूर्व 44 में जूलियस सीजर ने कार्थेजों को पराजित किया। भारतवंशियों द्वारा विकसित कार्थेज सभ्यता सूर्योपासक एवं सनातन धर्मी थी।

विश्व से भारत का सम्बन्ध सदा से रहा है और है 

ईसा पूर्व की शताब्दियों में भारत के अरब, अफ्रीका तथा रोम एवं अन्य वर्तमान यूरोपीय क्षेत्रों से सघन व्यापारिक सम्बन्ध थे। ये सम्बन्ध छठीं शताब्दी ईस्वी तक गहरे रहे, क्योंकि तब तक रोम भी सनातन धर्म का ही अनुयायी था। चौथी- पाँचवीं और छठी शताब्दी ईस्वी के रोमन शासकों के सिक्के दक्षिण भारत में खूब मिले हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत के व्यापारी रोम में अपना माल खूब भेजते थे और वहाँ से ये सिके प्राप्त करते थे। भारत के राजदूत रोम में निरन्तर रहे थे, इसके तथ्य मिले हैं" भारतीय माल पश्चिम एशिया के बाजारों में खूब बिकता था। चीन का सामान भी भारत के बन्दरगाहों से पश्चिमी एशिया एवं यूरोप में जाता था। पारसीक सभ्यता व्यापार में अति समृद्ध थी। पारसीक जहाज में ही इत्सिंग चीन से भारत आया था

भारतीय बौद्ध भिक्षु वज्रबोधि ने 720 ईस्वी के अपने यात्रा-वृत्तान्त में लिखा है कि जब वे श्रीलंका बन्दरगाह पहुंचे, तो वहाँ 35 पारसीक जहाज खड़े देखे PM वस्तुतः अरब तथा सम्पूर्ण यूरोपीय क्षेत्र से भारत का व्यापार ईसापूर्व से निरन्तर चलता रहा था तब कहीं न तो जीसस का अस्तित्व था, न पैगम्बर मोहम्मद का न कहीं ईसाइयत थी और न ही इस्लाम ईसाइयत और इस्लाम से बहुत पहले से भारत के लोग विश्व को और विश्व के लोग भारत को जानते थे। भारतीय इस्पात से बनी तलवार की प्राचीन अरबी साहित्य, जो इस्लाम से बहुत पहले का है, में बड़ी प्रशंसा है दूसरी ओर अदन में बना इत्र भारत आता था और विश्व भर के बाजारों में भी जाता था। भारतीय धान कर्णफूल के चावल विश्व भर में बिकते थे और अरब में उसे 'कुरनफूल' कहते थे ओमान या यमन का व्यापारिक केन्द्र दावा एक बड़े 1 बन्दरगाह भी था। वहाँ चीन, यवन राज्य, भारत और अरब से व्यापारी आते थे। एक बहुत बड़ा वार्षिक मेला भी वहाँ लगता था, जिसमें इन सब देशों के व्यापारियों के भाग लेने के ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं। 

बसरा तक थी भारत की सीमा विश्वविख्यात थी।

भारतीय नौ सेना पारसीक धर्म के अनुयायी सम्राट खुसरू द्वितीय के समय पहलवी भाषा में लिखे गये एक वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि भारत के सम्राट पुलकेशिन द्वितीय ने खुसरू तथा उनके राजकुमारों को कुछ भेंट भेजी थी। भेंट उपहार का आपसी व्यवहार इनमें होता ही रहता था।

अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में से एक में भी सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की राजसभा में पारस के दूत सहित पारसीक नरेश खुसरू द्वितीय और उनकी पत्नी शीरीं दर्शाये गये हैं। सम्राट हर्षवर्धन के समय भी भारत का पारस (फ़ारस) और अरब से घनिष्ठ सम्बन्ध था। यह महाकवि बाणभट्ट लिखित 'हर्षचरितम्' से प्रमाणित है। वहाँ पारस, शकस्थान और तुरुष्क जनपदों का वर्णन है। 

सदा से तेजस्वी रहे वीर भारतीय नरेश

भारतीय नरेश तब राजधर्म का पालन करते हुए दूरस्थ देशों पर आक्रमण करते ही रहते थे। इतिहासकार तवारी ने 9वीं शती ईस्वी में एक भारतीय नरेश द्वारा फिलिस्तीन पर आक्रमण का विशद वर्णन किया है। भारतीय नौसेना तो विश्वविख्यात ही रही है। उन दिनों 9वीं शती ईस्वी में भी बसरा को भारत का द्वार (देहलीज) कहते थे। तबारी ने लिखा है कि बसरा के रियासतदार को हमेशा युद्ध के लिए तत्पर रहना होता था कभी भारत के नौ सैनिक उसके क्षेत्र में बढ़ आते और कभी अरब के बहू लुटेरे

इस प्रकार हजारों वर्षों तक भारत वीरता का अतुलनीय उपासक, तेजस्वी और ज्ञान- सम्पन्न देश रहा है। इसके चक्रवर्ती सम्राट सदा ही विश्व भर में आधिपत्य के लिए जाते रहे हैं। यह अवश्य है कि सनातन धर्म की मर्यादा के अनुसार विजय के बाद वे स्थानीय लोगों को ही राज्य करने देते थे और अपना आधिपत्य मात्र मानने की अपेक्षा रखते थे। यही सनातन राजधर्म रहा है। इसी राजधर्म से प्रेरित होकर भारत के महान सम्राटों और वीर सैनिकों ने अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप (यूरोप तो वस्तुतः कोई अलग क्षेत्र कभी था ही नहीं, वह वृहत्तर भारत से सटा एक समुद्र की ओर धँसा हुआ इलाका मात्र रहा है, जिसे पहली बार यूरोप नाम 19वीं शताब्दी ईस्वी में ही दिया गया है), उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव (जो बहुत पहले पूरी तरह आबाद क्षेत्र थे और इस तथ्य को दर्शाने वाले नक्शे अन्वेषकों को मिल चुके हैं तथा उनके विषय में वैज्ञानिक छानबीन के बाद नक्शों की प्रामाणिकता स्वीकार की जा चुकी हैं) आदि विश्व के सभी भूभागों में समय-समय पर शौर्यपूर्ण अभियान किये थे और भारत के विद्वान मनीषी भी विश्व के प्रत्येक भाग में सनातन धर्म का सन्देश फैलाने जाते ही रहते थे।

ज्ञान, वीरता और तेजस्विता सदा से ही भारत के गुण रहे हैं। इस अर्थ में सचमुच ही भारत विश्व का जगद्गुरु रहा है। तेजस्वी, वीर और प्रज्ञा सम्पन्न भारत सनातन धर्म की चेतना का विश्व भर में प्रसार करता रहा है। यह एक तरह से आत्मज्योति का विस्तार था और ब्रहम ज्योति की साधना थी। विजय क्षत्रियों का सहज धर्म है, परन्तु विजय का अर्थ नृशंसता नहीं होता। इसी भाव से अवगत भारतीयों ने प्रारम्भ में खुद को मुसलमान या ईसाई कहने वाले लोगों का भी स्वागत किया और अगर वे भारत में सुशासन करते तो भारतीयों को उनसे कोई भी आपत्ति नहीं होती, क्योंकि सुशासन सनातन धर्म के पालन में ही है।

यदि ब्रिटिश लोगों ने, जैसा कि उनमें से अधिकांश चाहते भी थे, परन्तु मिशनरियों के उन्माद और दबाव के आगे बेबस थे, भारत में सनातन धर्म के अनुसार शासन किया होता, तो भारतीय निश्चय ही उन्हें भी भारत का ही एक अंग मान लेते, परन्तु तब न तो वे ईसाइयत के प्रसार का पापपूर्ण आग्रह करने की मूढ़ता और असभ्यता करने की स्थिति में होते और न ही भारत का धन ब्रिटेन ले जाने का पापपूर्ण कार्य करते। क्योंकि यदि सचमुच वे किसी विश्व सभ्यता और विश्व नागरिकता में विश्वास करते, तो फिर भारत के लोगों, भारत के धर्म और संस्कृति तथा भारतीय समाज-व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, विद्या-परम्परा और शिल्प-परम्परा का पोषण ही उन्हें भारत में अपना राजधर्म नजर आता। 

जो लोग किसी एक पंथ या मजहब या रेलिजन या विचार को विश्व भर में थोपने की पापपूर्ण अभिलाषा रखते हैं, वे केवल पापी हैं और उनका वध धर्म है। आधुनिक यूरो-क्रिश्चियन विधि में भी उनके लिए प्राणदण्ड का ही प्रावधान है। आप यदि हमारे धर्म और संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं, तो आप आततायी हैं और सनातन धर्म यानी हिन्दू धर्म ने सदा ही यह प्रेरणा दी है कि आततायी का वध बिना किसी अधिक विचार या दुविधा में पड़े कर देना चाहिए, यही धर्म है, यही विधि है, 'लॉ' है जो हमारे देवताओं, हमारी ज्ञान परम्पराओं, हमार विद्या-परम्पराओं, हमारी पूजा पद्धतियों, हमारे मानदण्डों, हमारे धर्म केन्द्रों, हमारे तीर्थों और हमारे श्रद्धा केन्द्रों पर आघात का प्रयास करे, वह विश्व मानवता के समक्ष अपराधी है और अपराधी को दण्डित करना 'लॉ' है, धर्म है अभी जो अन्तर्राष्ट्रीय विधि है, उसमें भी यह अपराध है।

यह अलग बात है कि उसमें न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया कुछ बहुत स्वस्थ नहीं है। विचारपूर्वक और विश्व के अनुभवों से सीखकर उसे स्वस्थ बनाया जा सकता है। अभी यह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायिक प्रक्रिया स्वस्थ नहीं है, इसीलिए यूरोप और अमेरिका संकट पड़ने पर अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में नहीं जाते, अपितु अपने-अपने देश और सभ्यता के शत्रुओं का खुलकर संहार करते हैं और समूल नाश की योजना बनाते हैं। कश्मीर के प्रश्न पर नेहरू जी का संयुक्त राष्ट्र संघ में जाना किसी भी प्रकार न तो न्याय की भारतीय परम्परा के अनुकूल था और न ही अन्तर्राष्ट्रीय परम्पराओं के अनुरूप |

यह प्रचार कि भारतीय राज्य और राजागण अपनी सीमा से बाहर कभी भी आक्रमण नहीं करते रहे हैं, घोर अज्ञान से उपजा प्रचार है अथवा जानबूझकर किया जा रहा दुष्प्रचार है। भारत एक तेजस्वी देश है और जब भी यह पुनः तेज की साधना करेगा तो विश्व भर में एक श्रेष्ठ विश्व नागरिकता का समतामूलक प्रसार इसका सहज धर्म होगा। उसके लिए यदि सैन्य अभियान करने की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति नहीं होती, तो यह अच्छा ही है, परन्तु फिर उसके लिए ऐसी नयी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रचना में भारतीय मनीषा को भी अपना योगदान देना होगा, जो विश्व नागरिकता के स्वस्थ विकास के लिए प्रयास करे। यह बौद्धिक पुरुषार्थ होगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ का मानवाधिकार घोषणा-पत्र कई मामलों में अच्छा है। इसी प्रकार अन्य संस्कृतियों का संहार न करने के पक्ष में अन्तर्राष्ट्रीय जनमत बना हुआ है। परन्तु इन सभी व्यवस्थाओं का लाभ भारत में कतिपय दस्यु दल उठाना चाहते हैं। उन्होंने साम्राज्यवादियों द्वारा प्रचारित आधारहीन कल्पनाओं जैसे आर्य आक्रमण - सिद्धान्त, आर्यों के किसी नस्ल विशेष का होने का सिद्धान्त, भारत में कोई विशेष विषमता होने का प्रचार, भारतीय समाज में कतिपय अभूतपूर्व दोष होने का प्रचार और भारत में वनवासियों के किसी अलग नस्ल के होने का प्रचार तथा उन्हें आदिवासी बताने का प्रचार आदि दुष्ट प्रचारों के द्वारा भारत में एक झूठा सांस्कृतिक विभाजन करने के लिए आकाश-पाताल एक रखा है जब इतिहास के तथ्य उनके विरुद्ध हो गये, तो उन्होंने मौखिक इतिहास (ओरल हिस्ट्री) की आड़ में ब्रिटिश काल में समाज में उभरी विकृतियों का अतिरंजित प्रचार करने वाले प्रशिक्षित लोगों के मौखिक 'इंटरव्यू' कर भारतीय समाज में अति भयंकर छुआछूतवाद और भेदवाद होने का एक नकली इतिहास गढ़ना शुरू कर दिया है जिनसे 'इंटरव्यू लिए जा रहे हैं, वे अमेरिकी एवं कम्युनिस्ट खेमों द्वारा प्रशिक्षित लोग हैं, जो एक प्रकार की राजनैतिक बयानबाजी कर रहे हैं और वहाँ इतिहास के रूप में रिकार्ड किया जा रहा है।

यूरोप और अमेरिका में 19वीं शताब्दी ईस्वी तक जिन समाजों और स्त्रियों सहित जिन विभिन्न वर्गों के साथ भेदभाव हुआ है, उन सभी के साथ इसी प्रकार के न्याय की कोई अन्तर्राष्ट्रीय माँग उठे और आन्दोलन चले, तब तो ऐसे लोगों को सत्यनिष्ठ माना जा सकता है। परन्तु सदा ही विदेशों से धन और विचार लेकर फिर ऐसे सब विषयों को केवल भारत तक सीमित रखकर केवल भारत के विषय में बुराइयों का विशेष प्रचार करना और उससे जुड़ी विभेदकारी मांगें तथा विघटनकारी हलचलें करना किसी भी सच्ची भावना का परिणाम नहीं हो सकता। यह कंटक- वर्धन है।

राजधर्म की पुनः प्रतिष्ठा आवश्यक

कण्टक शोधन राजधर्म है और वर्तमान संविधान में भी उसके पर्याप्त प्रावधान हैं। 1947 ईस्वी के बाद अनेक बार भारत के राजपुरुषों ने भारत के अलग-अलग समूहों के नागरिक अधिकार पर्याप्त समय के लिए निलम्बित या स्थगित रखे हैं। अतः आज विभिन्न आतंकवादी समूह जो कुछ कर रहे हैं, उससे निपटने के लिए वर्तमान राज्य के पास भरपूर शक्ति है और भारतीय सेना तथा अर्धसैनिक बल इसमें सर्वथा समर्थ हैं। ऐसी स्थिति में यदि इन आतंकवादी समूहों रूपी राष्ट्र के कण्टकों का शोधन नहीं किया जाता और किसी न किसी बहाने इन कंटकों के द्वारा किये जा रहे जनवध को किसी नागरिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति का आवरण देकर खुले अपराध और अत्याचार के प्रति उदासीनता जारी रखी जाती है, तो यह राजधर्म का स्पष्ट उल्लंघन है और उसके लिए केवल राजपुरुष दोषी हैं। इन सब समस्याओं के लिए भारतीय नागरिकों में किसी राष्ट्र चेतना की कमी ढूंढ़ना और बता प्रज्ञापराध है। संसार भर में वहाँ के राज्य द्वारा अपने राष्ट्र के बहुसंख्यकों के रेलिन या मज़हब या मत का अधिकृत वैधानिक संरक्षण होता है। भारत विश्व का ऐसा एकमात्र राज्य है, जिसका संविधान यहाँ के बहुसंख्यक हिन्दुओं के धर्म हिन्दू धर्म को अधिकृत वैधानिक संरक्षण नहीं देता। इस प्रकार हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और भारतीय संस्कृति के विशेष संरक्षण के राजधर्म का पालन भारत में नहीं किया जा रहा है। इस विषय में प्रबुद्ध जनमत जाग्रत किया जाना चाहिए और वर्तमान संविधान के भाग-4, अनुच्छेद-38 में एक छोटा-सा संशोधन लाया जाना चाहिए कि 'भारत का राज्य भारतीय संस्कृति का संरक्षण करेगा और समाज में भारतीय सांस्कृतिक चेतना के उत्कर्ष के लिए काम करेगा।' इस प्रकार राजधर्म का पालन करता हुआ भारतीय राज्य भारत के गौरवशाली इतिहास को वर्तमान और भविष्य में भी चरितार्थ करना अपना धर्म मानेगा।

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सातवीं शताब्दी के बाद भारत

आधुनिक भारत में इतिहास के क्षेत्र में कार्यरत कई कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं सत्यों का के प्रचार से और उसे कांग्रेस शासन में मिले एकाधिकारपूर्ण संरक्षण से सर्वाधिक भ्रांति अरब और इस्लाम को लेकर फैली है। उस विषय में आधारभूत स्मरण आवश्यक है। हजारों साल से भारत और अरब का व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध रहा है। बसरा, मक्का, ओमान, अदन आदि समृद्ध व्यापारिक केन्द्र रहे हैं। अरब की प्राचीन सभ्यता भारत जैसी ही विकसित थी वहाँ दर्शन, साहित्य, कला, व्यापार, वाणिज्य, धर्म-संस्कृति, प्रतिमा निर्माण, मूर्ति-शिल्प, स्थापत्य, वास्तु एवं समाज व्यवहार की एक समृद्ध परम्परा थी। भारत की सीमा पहले अरब के सीमांत तक फैली थी। तब दोनों पड़ोसी राष्ट्र थे। अरब सहित सम्पूर्ण अफ्रीका से भारत के गहरे सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। यह अवश्य है कि अरब का बड़ा इलाका मरुस्थल होने से वहां जीवन कठिनाई से भरा था। परन्तु दक्षिणी हिस्सों में, हिन्द महासागर के अरब की खाड़ी से जुड़े इलाके से लेकर, फारस की खाड़ी तक तथा उत्तर में कृष्ण सागर, प्रशान्त महासागर और भूमध्य सागर से सटे इलाकों में भारत की ही तरह विश्व की प्राचीन सभ्यता रही है। मिस्र की प्राचीन सभ्यता तो प्रसिद्ध है ही, मेसोपोटामिया सभ्यता भी इसी क्षेत्र में थी। सिन्धु सारस्वत सभ्यता से इन सभ्यताओं का घनिष्ठतम संबंध था। मेसोपोटामियाई, मिली, चीनी और सैंधव लिपियां विश्व की प्राचीनतम लिपियां हैं। वन और कृति राष्ट्र में भी अतिप्राचीनकाल से लेखन होता रहा है। मेसोपोटामिया में ईसा के चार हजार वर्ष पूर्व के अभिलेख मिले हैं।'

बाबुल की सभ्यता के भी प्राचीन अभिलेख मिले हैं। वहां के शासक हमुरबि के लगभग 2000 ईसा पूर्व के अभिलेख मिले हैं। वह सूर्योपासक समाज था। मिस्र में ईसा पूर्व चौथी सहस्त्राब्दी के शासकों की वंशावलियां मिली है। यमन में व्यवस्थित राज्य ईसा की प्रारंभिक शताब्दी में ही था। बाद में वहां पारसीकों ने शासन किया। हिरा, किन्दा तामी, असद, खुफिया, सुलैम, हवाजिन, पत्र, गाजा, मसान, कल्ब आदि के राज्य वहां ईसा पूर्व में थे। लोबान, धूप, सुगंध और इत्र के विश्व विख्यात केंद्र वहां इस्लाम के जन्म से सैकड़ों साल पहले से थे।

इन सब से अनजान आधुनिक इतिहासकारों में से कुछ का कहना है कि सातवीं शताब्दी ईस्वी में ही पहली बार अरब जहालत से सभ्यता की ओर बढ़ा। ऐसे कहना प्राचीन समृद्ध और सुसंस्कृत अरब स्त्री-पुरुषों का अकारण अपमान है। स्वयं कुरैश कबीले की समृद्ध धार्मिक परंपरा का अज्ञान इसमें निहित है। सूर्य, शिव तथा विभिन्न देवियों के उपासक अरब लोग सुसंस्कृत लोग थे। भारत से उनका घनिष्ठ संबंध था। स्वयं मुहम्मद साहब के एक चाचा का नाम अब्दुल शम्श अर्थात सूर्यदास था। एक अन्य चाचा का नाम अब्दुल मनात अर्थात देवीदास था। पंडों का बेटा होने से ही मुहम्मद साहब के प्रति वहाँ का समाज शुरू में उदार रहा।

यह भी कहा जाता है कि सातवीं शताब्दी से ही भारत पर अरबों ने आक्रमण शुरु कर दिया था। यह असत्य एवं निराधार है। अरबों के पास मुस्लिम खलीफा की गद्दी बहुत थोड़े समय रही। वैसे भी इस्लाम वंश-परम्परा या कौमियत से ज्यादा महत्त्व मजहब को देता दिखता है। पैगम्बर के दामाद और गोद लिये बेटे हजरत अली की हत्या के बाद पैगम्बर साहब के अपने वंश का तो वंशनाश ही हो गया, ऐसा दिखता है विस्तृत जानकारी तो अरब इतिहास के गम्भीर अध्येता ही दे सकेंगे। बहरहाल, पाँचवें खलीफा के समय से ओमैय्या वंश ने खलीफा की गद्दी दमिश्क में कायम की दमिश्क सीरिया की राजधानी है। सीरिया में भारत के पणियों का शताब्दियों राज्य रहा था। भारतवंशी साम्राज्ञी कार्थेज (मूल नाम अज्ञात) का सीरिया से स्पेन तक शासन था। वहाँ मिले अनेक अभिलेख इस बात के साक्ष्य हैं कि सीरिया हित्ती सभ्यता का बड़ा केन्द्र रहा था हित्तियों की सभ्यता और उनके देवता हिन्दू ही हैं। अनुमान है कि क्षत्रिय शब्द से खत्तिया बना और फिर खत्तिया ही हिलिया हो गया। दजला नदी के तट पर ईसा पूर्व 1100 में 'बगदाद' नामक नगर था जो संस्कृत 'भग्' धातु का ही क्षेत्रीय रूप है। बगदाद से अल जजीरा तक हित्ती सभ्यता का विस्तार था सूर्य, मित्र, वरुण, अग्रि आदि देवता वहाँ पूज्य थे सीरिया से हिली शासकों का प्राप्त सिक्का भगवान शिव एवं सिंहवाहिनी जगदम्बा दुर्गा के चित्रों वाला है। स्कन्दस्वामी कार्तिकेय के भी चित्र मिले हैं। अतः सीरियावासी मुसलमान बनने से पहले हिन्दुत्व से ही प्रभावित रहे हैं। 

सीरिया सनातन धर्मी रहा है

उमय्या वंश के खलीफाओं के काल में कुछ जलदस्युओं ने भारतीय तटवर्ती क्षेत्रों में लूट की कोशिश की। उनमें से कुछ पारसीक मूल के थे, कुछ तुर्क लुटेरों की इन हरकतों को हमला बताना हास्यास्पद है। इनमें से किसी को कीकण के जाटों ने काट डाला, किसी को सिन्ध और गुजरात के लोगों ने न ये राजा थे, न इन्हें मारने वाले राजा थे। यह तो लुटेरों की नागरिकों के द्वारा पिटाई का प्रकरण है। कुछ लुटेरे डर कर दमिश्क और बगदाद वापस गए। इस बीच खलीफा की गद्दी बगदाद चली गई। बगदाद, दमिश्क सहित सम्पूर्ण सीरिया, इराक और तुर्की 11वीं शताब्दी तक गहरे बौद्ध प्रभाव में थे इस्लामी उग्रवाद ने क्रमशः बौद्ध स्मृतियाँ मिटाई हैं। फिर भी, 9वीं 10वीं शती के अनेक साहित्यिक ग्रन्थ तुर्की भाषा में मिले हैं, जो बौद्ध ग्रन्थ हैं, इस्लामी नहीं।"

यह बौद्ध परंपरा का ही अनुसरण था कि जब इस्लाम फैला और कुरान शरीफ में उतरी आयतें जीवन की विविध समस्याओं के संदर्भ में स्पष्ट निर्देश के लिए पर्याप्त नहीं लगीं तो प्रारंभिक मुसलमानों से पूछा जाने लगा कि अमुक स्थिति आने पर पैगंबर मोहम्मद और उनके साथी क्या करते थे। यह ठीक वैसी ही बात है जैसे बौद्ध धर्म में यह बताया जाता था कि अमुक समस्या या स्थिति के उपस्थित होने पर तथागत क्या करते या कहते थे। इसी परंपरा के अनुसरण में हदीस लिखी गई है। बौद्ध परंपरा का अनुसरण ही सुन्ना या हदीस के संकलन की प्रेरणा बना। इसीलिए पैगम्बर और खलीफाओं की जीवनी रचे जाने का महत्व बढ़ा। ये जीवनियाँ इतने विस्तार से लिखी जाने लगीं क्योंकि ऐसे सूक्ष्म और विशद वर्णनों की वहाँ प्रशस्त बौद्ध परम्परा रही है, जो उससे पहले को हिन्दू धर्मशास्त्रों की परम्परा का ही परिणाम थी। विकसित साहित्य परंपरा के अभाव में इस्लाम का यह विशाल साहित्य रचा जाना संभव नहीं था। 

पन्द्रहवीं शती ईस्वी तक तुर्की, इराक, सीरिया में रहा हिन्दू-बौद्ध प्रभाव 

पैगम्बर मुहम्मद की प्रशंसा में जो पहला महाकाव्य तुर्की भाषा में लिखा गया, वह पन्द्रहवीं शती ईस्वी के आरम्भ का है। उसके पहले वहाँ यूनुस अमीर तथा अन्य रहस्यवादी कवि ही हुए, जो बौद्ध एवं हिन्दू दर्शन से स्पष्टतः प्रभावित हैं। इससे प्रमाणित है कि शासक द्वारा इस्लाम स्वीकार करने के सात सौ वर्षों बाद तक तुर्की, इराकी एवं सीरियाई समाज में भारतीय प्रभाव गहराई तक छाए रहे।" जैसे आजकल के हिन्दी लेखकों में मुस्लिम व ईसाई प्रभाव गहराई तक व्याप्त है। तुर्की की राजधानी अंकारा से 95 मील पूर्व स्थित हनुशश में सिंहद्वार मिले हैं, जो भारतीय राजाओं के प्रासाद के राजद्वार जैसे हैं।" हशश हिसी साम्राज्य की राजधानी था सीरिया में 1 तो बौद्ध एवं पारसीक प्रभाव हाल तक था फ्रेंच आधिपत्य के बाद ही ये मिटे हैं। 1946 में सीरिया स्वतंत्र हुआ है। जहाँ तक इराक की बात है, वह 1921 में फ्रेंच एवं अमेरिकी प्रभाव से मुक्त हुआ है।

कासिम कोई राजा नहीं था, लुटेरा था

दमिश्क से हटकर इराक की राजधानी बगदाद में खलीफा की गद्दी 750 ईस्वी में स्थापित हुई अब्बासी खलीफा पारसीक सभ्यता एवं हिन्दू सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित थे और वहाँ हिन्दू पंडित, वैद्य, ज्योतिषी, गणितज्ञ आदि आते- जाते रहते थे। स्वयं फरिश्ता का कहना है कि 664 ईस्वी में गान्धार क्षेत्र (अफगानिस्तान) में पहली बार कुछ सौ लोग मुसलमान बने। 750 ईस्वी के बाद तो बेचारे अरव लोग, फिर वे सैनिक हों या लुटेरे, भारत पर आक्रमण की हैसियत ही नहीं रखते थे विविध तुर्क एवं पारसीक लुटेरों की लूट की कोशिश का दोष अरब शासकों पर डालना सही नहीं है। यद्यपि ये लुटेरे अरब के होते तो भी इनका चरित्र भिन्न नहीं होता। इन्हें इन कामों की प्रेरणा तो इस्लाम से ही मिली। इन लुटेरों को भारत के लोगों ने थाणे, भाँच, देवल और सिन्ध से बार-बार भगाया इराकी जागीरदार हज्जाज ने लुटेरों की जो एक वाहिनी भेजी, उसे भी सिन्धु नरेश दाहिर ने पीट कर भगा दिया।

इसी इराकी जागीरदार हज्जाज के दामाद, पारसीक (प्राचीन भारतीय) क्षेत्र के मोहम्मद बिन कासिम ने भी सिन्ध में लूटपाट के लिए ही घुसपैठ की थी। लूट के साथ-साथ उसने हिन्दू स्त्रियों पर अत्याचार भी बहुत किये, पर यह दुराचरण यदि इस्लाम की मूल प्रेरणा है, तब भी केवल दुराचरण की भयंकरता के कारण कासिम को आक्रमणकर्त्ता राजा तो नहीं कहा जा सकता। इसीलिए कासिम लुटेरे की घुसपैठ को भारत पर विदेशी आक्रमण बताना या मानना तो विमूढ़ता और अज्ञान है। उसे भारत पर अरबों का हमला बताना तो और भी बड़ा झूठ है ही साथ ही यह तथ्य भी सदा स्मरण रखने योग्य है कि उन दिनों उत्तरी भारत में बंगाल तक पालों का राज्य था। असम, नेपाल आदि में भी हिन्दू राज्य ही थे। बिहार में कर्णाट वंशियों, गुप्ता सेनों और खैरवारों के राज्य थे। कन्नौज में राष्ट्रकूटों और गहरवारों के राज्य थे कल्चुरियों, चन्देलों, यादवों, कछुवाहों, परमारों, चालुक्यों, चाहमानों, गोहिलों, लोहारों, शिलाहारों, गंगों, काकतियों, सोमवंशियों, नागाओं, होयसलों, चोलों, सातवाहनों, पाण्ड्यों आदि के विशाल राज्य थे। 

लुटेरा कासिम

स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों के वर्णन से स्पष्ट है कि 17 साल के लफंगे छोकरे कासिम की पूरी तैयारी धन की लूट की थी और वस्तुतः नये अपनाये गये इस्लाम ने उन्हें स्त्रियों के साथ अत्यचार की विशेष प्रेरणा दी थी। यद्यपि दुराचारियों द्वारा धन की लूट के साथ ऐसे दुराचरण करने की घटनाएँ विश्व के प्रत्येक समाज के दुराचारियों में देखी जाती हैं। अपनी लूट को बाद में औचित्य की शक्ल देने के लिए मज़हब या मतवाद से जोड़ना भी मामूली बात है।

 नई मस्जिदों का सच

युवावस्था की देहरी पर कदम रख रहे मोहम्मद बिन कासिम ने जब देवल में लूटपाट मचाई तो सिन्ध के राजा को, जिनका मूल नाम ज्ञात नहीं और जिन्हें मुस्लिम इतिहासकार दाहिर बताते हैं, उन्हें लूट की खबर लगी और उन्होंने लुटेरे को दण्ड देने के लिए अपनी सेना को भेजा। हज्जाज को कासिम ने जो चिट्ठी भेजी थी, वह इतिहासकारों द्वारा उद्धृत की जाती है, उससे दो बातें साफ होती हैं। एक तो यह कि वह लुटेरा लफंगा था और दूसरा यह कि वह कपटी और धोखेबाज था। लुटेरों का झुण्ड क्षेत्र के जिस किसी भव्य मन्दिर को देखता, उसी में जबरन घुसकर वहाँ अजान दिलवाता और फिर उसके मस्जिद होने का ऐलान कर दिया जाता। जिन इलाकों में भय और लोभ से वहाँ के स्थानीय लोग मुसलमान बन गये, वहाँ कुछ समय बाद चबूतरे और मीनार खड़े कर दिये गये। इसे ही नई मस्जिदों का निर्माण कहा गया, जो कि मन्दिरों पर पापपूर्ण कब्जा और देवस्थान को भ्रष्ट करने का मानवताद्रोही दुष्कर्म मात्र है। 

छल-कपट और धोखा

लुटेरे कासिम ने कहीं भी राजा दाहिर की सेना के साथ सीधी लड़ाई नहीं की, बल्कि सीधी लड़ाई से वह लगातार बचता रहा। स्थानीय लोगों को लूटने और मुसलमान बनाने पर ही ध्यान दिया जाता रहा। जब देवालयपुर (वर्तमान में कराची) के जागीरदार को मार-मारकर मुसलमान बनाया गया और उसका नाम 'इस्लामी' रखा गया, तब वह इस्लामी, जो कुछ समय पूर्व तक राजा दाहिर का एक विनम्र जागीरदार था, दाहिर के दरबार में नये रूप में गया। दाहिर ने उसे दुत्कार कर भगा दिया, तब उक्त स्थानीय जागीरदार इस्लामी (जो कल तक हिन्दू था) और कासिम दोनों की सेनाओं ने दाहिर पर आक्रमण किया। इतिहासकारों ने बताया है कि दाहिर की सेनाओं ने कासिम के गिरोह को रौंदना और मसलना शुरू किया। कासिम ने बन्दी बनाई गई स्त्रियों को डरा-धमका कर उनसे पुकार लगवायी, जिससे दाहिर उधर अपने 'गो, ब्राह्मण एवं स्त्रियों के रक्षक' होने के धर्म के पालन के उत्साह में अकेले ही बढ़ गए और बुरी तरह फँस गए, और इस प्रकार संयोगवश घिरकर वे मारे गए। इसे किसी भी तरह किसी विदेशी शासन का भारत पर आक्रमण नहीं कहा जा सकता। हाँ, लफंगों का कपट-जाल जरूर कहा जाएगा।

स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार उपरोक पापी जागीरदार इस्लामी की ही तरह ब्राह्मणाबाद के जागीरदार तथा अन्य अनेक प्रमुख हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के बाद उस क्षेत्र में उनकी सहायता से ही लूटपाट की गई। तीन वर्षों तक सिन्ध प्रान्त में ऐसी लूटपाट चलती रही। कासिम किसी भी राज्य का राजा नहीं था। अतः उसकी इस लूटपाट को भारत पर आक्रमण बताना कुछ वैसा हीं है, जैसे सीमा पार के तस्करों और अपराधियों द्वारा आज भारत में हो रही घुसपैठ को भारत पर आक्रमण बताया जाने लगे।"

नेपाल में शताब्दियों से पहले राजा भोज और उसके बाद भास्करदेव तथा अन्य राजाओं का शासन रहा। बिहार में मिथिला अंचल में गौड़ देश के पाल के साथ ही कर्णाट वंशी राजाओं का शासन था कुछ हिस्सों में गुप्त वंश का", कुछ में सेन वंश का और कुछ में खैरवारों का शासन था। कन्नौज में राष्ट्रकूटों और गहरवालों के प्रतापी शासन रहे" यदुवंशियों, कछवाहों, कल्चुरियों, चन्देलों, चोलों, चालुक्यों, पाण्डयों, राष्ट्रकूटों, सातवाहनों आदि सभी के विराट राज्यों और राजवंशों पर प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है ।

भारतीय मुसलमान महमूद गजनवी

महमूद गजनवी, क्योंकि गजनी नामक एक रियासत का मालिक था, इसलिए उसके द्वारा भारत में की गई लूटपाट एवं बर्बरता को भारत पर किया गया आक्रमण बताने का चलन है, परन्तु गजनी और गोर दोनों ही भारत के गान्धार क्षेत्र की छोटी- छोटी रियासतें थीं। गजनी वही इलाका है, जहाँ हिन्दू राजा शिलादित्य कुछ समय पूर्व राज्य कर रहे थे।

महान हिन्दू सम्राट जयपाल

खुरासान शताब्दियों से भारत का ही राज्य था। उसके शासक बाहीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी के अन्त में वे बौद्ध से मुसलमान बन गये। इन्हीं क्षत्रिय वंशी शासकों का एक सेवक गजनी नामक भारतीय रियासत का 10वीं शताब्दी के आरम्भ में शासक बन गया। इसका नाम था अलप्तगिन, जो पुराने क्षत्रिय (अब मुस्लिम) धनियों का हिन्दू सेवक था। उसकी रियासत गजनी वस्तुतः बाह्रीक (बल्क) राज्य का एक अंग थी गजनी के बगल में अफगानिस्तान के ज़्यादा बड़े क्षेत्र में ब्राह्मण नरेश जयपाल का शासन था। यह क्षेत्र उद्भांडपुर राज्य कहलाता था, जिसे मुसलमानों ने ओहिन्द या उन्द कहा है। महाराज जयपाल का सिन्धु नदी के उद्गम से लिंगन या लामघन तक और कश्मीर से मुल्तान तक शासन था। जब अलगिन की मृत्यु हुई तो उसका दामाद सुबुक्तगिन गजनी रिसायत का जागीरदार बना। इस जागीरदार ने आसपास के इलाके में भी लूटपाट शुरू कर दी। वह इलाका राजा जयपाल का था अतः महाराज जयपाल ने कन्नौज के प्रतिहार नरेश व दिल्ली- अजमेर के चौहान नरेश की सेना के साथ महमूद के मुकाबले के लिए अपनी सेना भेजी। लामघन नामक स्थान में मारकाट हुई और सुबुक्तगीन को लौटना पड़ा। यही लामधन वही स्थान है, जिसके पास तुरंता में सम्राट अशोक का एक शिलालेख मिला है, जिससे प्रमाणित है कि गजनी विगत 1000 वर्षों से अधिक से भारत का एक क्षेत्र था। 1997 ईस्वी में सुबुक्तगीन मर गया और उसका बेटा महमूद गजनी का जागीरदार बना। महमूद ने भी आदतन लूटपाट शुरू की और महाराज जयपाल से बदला लेने के लिए उनकी राजधानी पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर) पर भी लूट के लिए चढ़ाई कर दी। यह तथ्य कुछ लोग जानबूझकर छिपाते हैं कि महमूद की माँ जाबुली एक क्षत्राणी थी और स्वयं महमूद तीन पीढ़ी पहले क्षत्रिय रहे पूर्वजों के वंश में हुआ था

जमकर युद्ध हुआ

पुरुषपुर में दोनों पक्षों में जमकर लड़ाई हुई, जिसमें संयोगवश जयपाल हार गये और उनके पुत्र आनन्दपाल शासक बने ।" आनन्दपाल के एक राजकुमार ब्राह्मणपाल ने की लूट महमूद रोकने के लिए पुनः प्रयास किया और ओहिन्द में दोनों पक्षों के बीच लड़ाई हुई। संयोगवश आनन्दपाल कई लड़ाइयों में जीत के बाद एक बार हार गये।" राजा आनन्दपाल की सहायता के लिए 1008 ईस्वी में कश्मीर, उज्जयिनी, कालिंजर, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं ने भी सैन्य टुकड़ियाँ भेजी थीं युद्ध में आनन्दपाल जीत रहे थे। मुस्लिम इतिहासकारों का कथन है कि अचानक आनन्दपाल की हाथियों की सेना में बारूद के एक धमाके से अथवा शायद आग के किसी गोले से जो महमूद की सेना ने फेंका था, भगदड़ मच गई और हिन्दू सेनाओं ने यह समझ लिया कि हमारी पराजय हो गई। इस भ्रम का लाभ उठाकर महमूद ने लूटपाट शुरू की और सात दिन तक नगरकोट नामक शहर में लूटपाट की। लूट का माल 1000 ऊँटों पर लादकर गजनी ले जाया गया।

प्रजा की लूट को रोकने के लिए राजा आनन्दपाल ने संधि कर ली। परन्तु संधि का लाभ उठाकर महमूद लूट फैलाता ही चला गया। जाहिर है, यह किसी राजा का लक्षण नहीं है। यह तो गुलामों के वंश का व्यवहार है। इस अवधि में जिन महान हिन्दू राजाओं ने मुसलमान बने हिन्दूवंशी महमूद गजनवी का वीरतापूर्ण विरोध किया, उनका गौरवपूर्ण उल्लेख कल्हण ने 'राजतरंगिणी' में किया है, जिससे भी यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन भारतीय विद्वान इसे देशी और विदेशी के युद्ध के रूप में नहीं, अपितु धर्मनिष्ठ एवं पापिष्ठ क्षत्रियों के मध्य युद्ध के रूप में देखते थे।" कल्हण की दृष्टि ही प्रामाणिक है और मुसलमान बने दासवंशी जागीरदार महमूद गजनवी के पापाचार एक विधर्मी और पापिष्ठ जागीरदार के पापकर्म कहे जायेंगे, न कि किसी विदेशी का भारत पर आक्रमण। महमूद अपनी हार का बदला लेने हमला करता था। उसे उद्घांडपुर, कन्नौज, दिल्ली एवं अजमेर के राजाओं ने पीटा था। अतः यह भारतीय राजाओं की अपनी लड़ाई है। किसी विदेशी का हमला नहीं महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि हिन्दू राजा धर्मनिष्ठ थे, उन्होंने गजनी की मस्जिदें नहीं तोड़ीं, यद्यपि हिन्दू दृष्टि से वे पाप का केन्द्र थीं, पर मजहबी उपासना केन्द्र थीं। गजनवी ने लाखों मन्दिर तोड़े, क्योंकि इस्लाम ऐसे मज़हबी उन्माद की प्रेरणा देता है-राक्षसी कर्म की। वैसे क्षत्रिय धर्म तो यही है कि पाप का केन्द्र बनी उस गजनी की मस्जिदें भी ध्वस्त कर दी जातीं। 

बबर लुटेरा

बार-बार पिटने पर प्रतिशोध पर तत्पर और उन्मत्त महमूद गजनवी ने मथुरा, कन्नौज, ग्वालियर, कालिंजर, काश्मीर और सोमनाथ के मन्दिरों को नष्ट किया और लूटपाट की हिन्दू राजाओं में ऐसा उन्माद नहीं उभरा। यह संयम उचित था या अनुचित, इस पर आज बहस हो सकती है। सभी मुस्लिम इतिहासकारों ने उसके द्वारा लूटी गई विशाल धनराशि सोना-चांदी, हीरामोती, जवाहरात का उलेख किया है और उसके द्वारा किये गये बर्बर अत्याचारों का भी गौरवगान किया है। बाद में उन्मत्त गजनवियों का एक प्रमुख लुटेरा बनारस तक गया था और वहाँ भी लूटपाट की थी हिन्दुओं में यह विमर्श अवश्य होना चाहिए कि यदि किसी हमलावर के दरबारी लोग मन्दिरों के तोड़ने पर गर्व कर सकते हैं तो ऐसे पापाचार के प्रेरक तथाकथित उपासना स्थलों को तोड़ना हिन्दू राजाओं का सहज धर्म क्यों नहीं होना चाहिए। शान्तिपूर्ण इबादत स्थलों का संरक्षण राजधर्म है और उपासना को आवरण बनाकर दूसरों पर पापाचार का प्रशिक्षण दे रहे स्थलों को नष्ट करना भी राजधर्म है। 

तेजस्वी त्रिलोचनपाल

जैसी कि वोरों की परम्परा है, आनन्दपाल के पौत्र त्रिलोचनपाल ने महमूद के साथ मजबूरी में पितामह द्वारा की गई संधि तोड़ दी हिन्दू तथा मुस्लिम सेनाओं के मध्य 1014 ईस्वी में भारी मारकाट हुई कई बार के युद्ध के बाद 1015 ईस्वी में भीमपाल ने महमूद गजनवी को हरा दिया। परन्तु भीमपाल ने भी कोई मस्जिदें नहीं तोड़ीं, न ही मुल्लाओं का कत्लेआम किया। इसे राजधर्म से विचलन माना जा सकता है। 1018 ईस्वी में महमूद ने पुनः आक्रमण किया और इस बार वह जीत गया। फलतः उसने मथुरा की बुरी तरह लूटपाट तो की ही, श्री श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर कब्जा कर, उसे ध्वस्त कर, वहाँ चबूतरे और मीनार बनाकर मस्जिद घोषित कर दिया इस प्रकार अनेक बार इन विधर्मी एवं पापिष्ठ भारतीय मुस्लिम राजाओं को विफलता हाथ लगी, परन्तु कई बार वे विजयी भी हुए विजय पाते ही ये मुस्लिम राजा उन्मत्त हो धर्मकेन्द्रों का नाश करते । 1018-1022 ईस्वी के बीच महमूद ने ग्वालियर और कालिंजर की लूट की तथा 1025 ईस्वी की विजयादशमी के आसपास भगवान सोमनाथ का मन्दिर भी लूटा।" यह निश्चय ही बारम्बार गम्भीर विमर्श एवं अनुशीलन का विषय है कि जब भारतीय हिन्दू राजा मस्जिदें नहीं तोड़ते, भारतीय मुस्लिम राजा नशे में डूबे ये पापकर्म क्यों करते हैं? यदि बुतपरस्ती को पाप का केन्द्र मानकर मन्दिर तोड़ना मजहब है तो निश्चय ही पापाचार की प्रेरक मस्जिदें तोड़ना हिन्दू राजधर्म कहा जाएगा। तेजस्वी हिन्दू सम्राट महाराज भीमपाल की मृत्यु 1929 ईस्वी में हुई। कन्नौज, कालिंजर, ग्वालियर और सम्पूर्ण दक्षिण तथा पूर्वी एवं पश्चिमी भारत तब तक हिन्दू राज्य ही था। 

वीर हिन्दुओं का तेजस्वी प्रतिकार

जब महमूद सोमनाथ को लूटकर लौट रहा था, तो राजपूताने के हिन्दू राजाओं ने उस पर संयुक्त आक्रमण किया, जिनसे डर कर महमूद चुपके-चुपके सिन्ध का रेगिस्तान पार कर आगे बढ़ने लगा, जहाँ उसकी पूरी सेना को भयंकर कष्ट झेलने पड़े कुछ समय बाद, 1030 ईस्वी में महमूद मर गया ।" वह अत्याचार, दुराचरण, लूट और क्रूरता का साक्षात् रूप एक भारतीय था। हिन्दू संस्कृति का महान केन्द्र रहा गजनी महमूद के समय पाप का केन्द्र बन गया। महमूद ने पारसीक राज्य और इराक की भी कई जागीरों पर कब्जा किया था। वहाँ के मुसलमान शासकों को मारा और बौद्ध, पारसीक तथा मुस्लिम समाज को लूटा था। तब तक उस क्षेत्र में बौद्ध भी बड़ी संख्या में थे। 

4100 वर्षों की शान्ति को भी याद रखें

महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उत्तर एवं उत्तर-पश्चिम भारत में अधिकांश जागीरों पर हिन्दुओं ने पुनः आधिपत्य कर लिया। स्वयं गजनी पर पारसीकों के वंशजों ने अधिकार कर लिया जिस महमूद गजनवी द्वारा 1008 ईस्वी से 1027 ईस्वी के मध्य बीस वर्षों में अपने आसपास के इलाके में शुरू के 12 वर्षों तक और बाद में 8 वर्षों तक दूरदराज के इलाकों में की गई लूटपाट और क्रूरता को 11वीं शती ईस्वी के आरम्भ में यानी महाभारत के उपरानत लगभग 4100 वर्षों बाद किसी विदेशी रियासतदार या राजा द्वारा किया गया आक्रमण बताया जाता है, वह भारत के एक पापिष्ठ मुस्लिम द्वारा किया गया राक्षसी आचरण मात्र है। साथ ही इन 4100 वर्षों की शान्ति को भी याद रखना चाहिए, क्योंकि इतनी लम्बी शान्ति-अवधि भारत की शक्ति का द्योतक है। वस्तुतः सिकन्दर तो कभी भारत आया ही नहीं था, अतः महमूद का राक्षसी अत्याचार महाभारत के 4100 वर्षों बाद हुआ पहला पापाचारी विस्तार है। यों यह भी विदेशी आक्रमण तो है नहीं। एक पापाचारी उन्माद मात्र है, जिसे इस्लाम की आड़ में किया गया। विश्व में तो 4100 वर्षों की इस अवधि में निरन्तर युद्ध चलते रहे थे ग्यारहवीं शती ईस्वी के प्रारम्भिक 20 वर्षों की लूटपाट तथ्य है, पर 160 वर्षों तक फिर किसी मुस्लिम लुटेरे की हिम्मत इधर ताकने की नहीं पड़ी , यह भी तथ्य है। 

बुरी तरह हारा गोरी

गजनवी की मृत्यु के 161 वर्षों बाद 1191 ईस्वी में पुनः क्षत्रियों से मुसलमान बने वंश के आततायी मोहम्मद घोरी या गोरी ने दिल्ली और अजमेर की जागीर पर आक्रमण किया। उसे बुरी तरह हारना पड़ा।

अपने हिन्दू पूर्वजों के कुल के कलंक बने मुसलमान महमूद गजनवी के वंश का नाश हो चुका था और हिन्दू पाटनों (पठानों) के एक अन्य मुस्लिम वंशज उस पर राज्य कर रहे थे। घूर नामक एक नयी जागीर बनाकर उस पर घूरी क्षत्रियों के मुस्लिम वंशज राज्य कर रहे थे।" मुसलमान बनने पर भी इनकी क्षात्रवृत्ति बनी रही। आसपास लूटपाट करते हुए कुछ समय बाद इस घोरी जाति का मुखिया शहाबुद्दीन मोहम्मद घोरी गजनी का भी शासक बन बैठा। यह घोर या घूर गान्धार क्षेत्र में गजनी के पड़ोस की ही एक छोटी रियासत थी।

जमकर धुनाई हुई तो घोरी भागा

गजनी का स्वामित्व हथिया कर शहाबुद्दीन मोहम्मद घोरी या धूरी भी आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने लगा। पहले 1175 ईस्वी में उसने मुल्तान के भव्य सूर्यमन्दिर एवं पवित्र तीर्थस्थान को लूटा। वह पूरा हिन्दू क्षेत्र ही तब तक था।" उसके बाद उसने पड़ोस के भट्टी राजपूतों की रियासत उच्च या ऊच पर आक्रमण किया। तत्कालीन भट्टी जागीरदार का वध उसकी महत्त्वाकांक्षी रानी ने कर दिया और घूरी से संधि कर उससे अपनी बेटी ब्याह दी, क्योंकि उसकी नजर में वह उसका पुराना पड़ोसी ही था । उच्च की रानी से रिश्ता बनाकर उसका सहयोग लेकर घूरी ने पड़ोसी गुजरात के अन्हिलवाड़े पर सन् 1178 ईस्वी में आक्रमण किया, जहाँ उसकी जमकर धुनाई हुई और वह डर कर भागा, तो न उच्च में रुका, न मुलतान में, बल्कि बिल्कुल सीमान्त के क्षेत्र गजनी जाकर ही रुका। महाराज भीमदेव द्वितीय द्वारा की गई पिटाई से डरा-सहमा घूरी अगले 20 वर्षों तक गुजरात की ओर ताकने का साहस नहीं जुटा सका।

दुबारा हारा गोरी, अगली बार जीता

भीषण पराजय के 14 वर्षों बाद 1191 ईस्वी में उसने दिल्ली-अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण किया और हार कर वहाँ से भी फिर भाग खड़ा हुआ !* परन्तु शक्ति संग्रह कर अगले वर्ष पुनः उसने उसी तराइन में युद्ध किया और पृथ्वीराज चौहान को पराजित करने में सफल हो गया, थोड़े समय बाद हिन्दुओं ने अजमेर को मुसलमानों से पुनः जीत लिया।

दिदी-विजय भारत-विजय नहीं है

जैसा ऊपर कह आए हैं, वैदिक काल से 19वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक कभी भी दिल्ली भारतवर्ष की राजधानी नहीं रही थी और न ही किसी बहुत बड़े चक्रवर्ती सम्राट की ही यह राजधानी थी। नंदों और मौयों की राजधानी पाटलिपुत्र श्री महान गुप्त वंश की राजधानी पाटलिपुत्र ही थी विक्रमादित्य की राजधानी उज्जयिनी थी। राजा भोज की राजधानी धार थी शुगों की राजधानी भी पाटलिपुत्र ही थी। सातवाहनों की राजधानी गोदावरी तट पर प्रतिष्ठान या पैठन थी। राष्ट्रकूटों की राजधानी नासिक थी। खारवेलों की राजधानी पुरी थी चालुक्यों की राजधानी वातापी थी चोलों की राजधानी उरगपुर या उदपूर और कावेरीपत्तनम थी। पाण्डों की राजधानी मदुरा थी। सम्राट हर्षवर्द्धन की राजधानी थानेश्वर और कन्नौज थी। कनिष्क की राजधानी पुरुषपुर या पेशावर थी। तोमरों की राजधानी अवश्य पहली बार 11वीं शताब्दी के मध्य में दिल्ली बनी, परन्तु तोमर भारतवर्ष के चक्रवर्ती सम्राट कभी भी नहीं थे। वे अनेक राजपूत वंशों में से एक थे। दिल्ली को लगभग आधे भारत की राजधानी तो 1912 ईस्वी में अंग्रेजों ने पहली बार बनाया। 15 अगस्त, 1947 को वह खण्डित भारत राज्य की राजधानी पहली बार बनी। पाकिस्तान वाले हिस्से की राजधानी उस दिन करांची बनी। 

शेष भारत में थे विशाल हिन्दू राज्य

शहाबुद्दीन मोहम्मद घूरी या धोरी द्वारा दिल्ली अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान पर विजय का अर्थ भारत विजय किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसी समय चोलों, चालुक्यों, पालों, होयसलों, सेन वंश तथा राजपूत के अनेक वंशों के बड़े राज्य भारतवर्ष में फल-फूल रहे थे और गुजरात में ही वे महान राजा भीमदेव द्वितीय राज्य कर रहे थे, जिन्होंने तराइन युद्ध के कुछ वर्षों पूर्व ही शहाबुद्दीन मोहम्मद घूरी को बुरी तरह हराया था।" अपने पाप परायण स्वभाव के अनुरूप घूरी या घोरी ने दिल्ली की भयंकर लूटपाट की और वहाँ से माले गनीमा यानी लूट का माल बटोरा और अपने एक मनपसन्द गुलाम को दिल्ली की जागीर पर बैठाकर सारा माल असबाब लेकर गजनी लौटा। परन्तु रास्ते में ही पंजाब के गक्खर क्षत्रियों ने दिन दहाड़े तम्बू में घुसकर उसे मार डाला थोड़े समय बाद मुसलमानों को हटाकर अजमेर पर हिन्दुओं ने पुनः अधिकार कर लिया।

यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रत्यक्ष हैं, जिन पर मनन आवश्यक है। 1179 ईस्वी में गोरी या घूरी ने गजनवियों के एक दीवान से पेशावर छीना समरकंद, खुरासान आदि में मुसलमान जागीरदारों से उसके युद्ध हुए। समरकंद में वह बुरी तरह पिटा और बंदी बना भारी रकम देकर छूटा। स्वयं उसके राज्य के बिरका जैसे उसके सेनापतियों ने और स्वयं पूरी के गुलामों ने उसके विरुद्ध युद्ध किये। गक्खरों से युद्ध में काश्मीर नरेश चक्रदेव ने घूरी की मदद की। अन्य कई हिन्दू नरेशों ने भी उसकी मदद की। तब यह युद्ध हिन्दुत्व और इस्लाम का कहाँ से कहा जाएगा? स्पष्ट है कि तत्कालीन राजा भूरी को अपने जैस ही एक जागीरदार या राजा मान रहे थे। भूरी ने खुले तौर पर हिन्दुत्व के विरुद्ध युद्ध कभी भी घोषित नहीं किया। दूसरी ओर, मौका पाते ही, हिन्दू धर्म का विनाश करने को ये सभी मुस्लिम जागीरदार और नवाब वगैरह उन्मत्त रहते इस प्रकार ऐसे सब लोग कृतन, अनैतिक चरित्रहीन, दोमुँह छली और विश्वासघाती तो कहे जाएँगे, पर हिन्दुत्व से खुले युद्ध का साहस कभी भी इन्होंने नहीं किया, अतः कायर और कमजोर भी कहे जाएँगे। इससे यह निष्कर्ष तो निकला है कि इस्लाम का नाम लेकर सार्वभौम नैतिक आचरण आज तक देखने को नहीं मिला। अतः हिन्दू ऐसे मामलों में उन पर कभी विश्वास नहीं कर सकते करना नहीं चाहिए। पर इसमें हीनता तो इस्लाम की है। हिन्दू समाज की निन्दा का इसमें से कोई बिन्दु नहीं उभरता । 

गुलाम तक ने कुछ नहीं गुना गोरी को

अपने जिस गुलाम को घूरी या घोरी दिल्ली में बैठा गया, उस गुलाम ने अगले ही वर्ष खुद को दिल्ली का शासक घोषित कर दिया। उधर 1202 ईस्वी में एक गुलाम ने स्वयं गजनी उससे छीन ली थी। भारतीय सैनिकों की सहायता से ही उसे गजनी वापस मिली। अतः भारतीयों की वीरता असंदिग्ध है। मुस्लिम शासकों या सेनापतियों की नैतिकता अवश्य संदिग्ध है। गजनी हो या घूरी वे जितनी बार जीते, उससे अधिक बार हारे। अपवाद केवल उनकी बर्बरता है। शक्ति तो उनकी सामान्य ही है। चाटुकारों का गायन अलग बात है। अगले वर्ष दिल्ली का शासक कुतुबुद्दीन ऐबक बन गया " यह अवश्य है कि अगले वर्ष पुनः घोरी ने कन्नौज के राजा जयचन्द पर चढ़ाई की और चंदावर की लड़ाई में उनको हरा कर मार डाला । परन्तु कन्नौज से भी लूट का माल लेकर मोहम्मद घूरी गजनी ही भाग गया। उस गजनी, जिसे भारत पर निरन्तर आक्रमण के प्रचारक इतिहासकार भारत से बाहर का एक देश बताते हैं। घूरी या घोरी ने न तो कभी दिल्ली पर स्वयं राज्य किया और न ही कन्नौज पर भूरी कभी भी सर्वस्वीकृत राजा नहीं बना उसके गुलाम और अधीनस्थ उससे युद्ध तथा दगा करते रहे। उस अर्थ में वह एक व्यवस्थित राजा नहीं कहा जाएगा। लुटेरों- आततायियों का अगुआ ही कहा जाएगा। 

1192 ईस्वी में बुरी तरह हारा पूरी गिरोह

1192 ईस्वी में पूरी और कुतुबुद्दीन की संयुक्त सेनाओं को हिन्दू राजाओं की संयुक्त सेना ने भलीभाँति पराजित किया और पीटा। भूरी और ऐबक दोनों घायल हुए। भागे अजमेर क्षेत्र में जा लिये। फिर लौट गए।

शुरू में कन्नौज पर भी कुतुबुद्दीन ने ही राज्य किया। शीघ्र ही कन्नौज का राज्य स्वयं कुतुबुद्दीन ने अन्य मुसलमान रिश्तेदारों को दे दिया।" कुतुबुद्दीन भी अरब नहीं था, अपितु वृहत्तर भारत के एक क्षेत्र का मूल निवासी था और पारसीक तथा गान्धार क्षेत्र में इस्लाम के फैलाव के समय उसके पूर्वज मुसलमान बने थे। कुतुबुद्दीन ऐवक ने 1193 ईस्वी से 1203 ईस्वी तक लगातार कमीज, ग्वालियर और कालिंजर के हिन्दू शासकों से युद्ध किया। इस बीच अजमेर पर पुनः हिन्दुओं ने अधिकार कर लिया था। अतः कुतुबुद्दीन ने अजमेर के हिन्दू शासक से भी लड़ाई लड़ी और दिल्ली का वास्तविक शासक वह केवल 1206 ईस्वी से 1210 ईस्वी तक लगभग चार वर्ष ही रह सका।" मुसलमान लुटेरों की ही परम्परा का पालन करते हुए उसने मेहरौली की प्रसिद्ध वेधशाला में मीनार खड़ी कर दी और वहाँ के मन्दिरों में तोड़- फोड़ के द्वारा थोड़ा बदलाव लाकर उन मन्दिरों को मस्जिद और वेधशाला को कुतुबमीनार का नाम दे दिया। किसी मौलिक निर्माण के लिए उसके पास वक्त ही कभी नहीं था। कुतुबमीनार नाम आज भी जारी रखना तो धींगामुश्ती है 

13वीं शती में पूर्व हिन्दू रहे गुलामों ने जबरन बढ़ाई मुस्लिम आबादी पहली बार 

समलैंगिक यौनाचार के व्यसन के अभ्यस्त मुस्लिम जागीरदारों की परम्परा में ही कुतुबुद्दीन ने कई गुलाम अपने मनोरंजन और सेवा के लिए पाले और इनमें से गान्धार के हिन्दू पूर्वजों की संतति एक खूबसूरत गुलाम अल्तमश या इल्तुतमिश ने उसका मन इतना मोह लिया कि उसने अपना उत्तराधिकारी उसे ही घोषित कर दिया और अपनी बेटी भी उसे ब्याह दी। ये गुलाम हिन्दुओं से बलपूर्वक मुसलमान बनाए गए कुलों के थे। इनकी कुल स्मृति सजीव थी और चित्त में देश था। अतः इन्होंने अवसर पाते ही हर हथकण्डे के द्वारा हिन्दुओं को अपने जैसा मुसलमान बनाना शुरू किया। इसके लिए बहुत अत्याचार किए। 13वीं शती ईस्वी में पहली बार भारत में मुस्लिम आबादी कुल 2 लाख से बढ़कर लगभग 15 लाख हो गई। साढ़े छः सौ प्रतिशत की वृद्धि । 

मुसलमान जागीरदारों की करतूतें

कुछ ही दिनों के भीतर सिन्ध के जागीरदार कवाचा ने, जिसके पूर्वज स्वयं हिन्दू से मुसलमान बने थे, स्वयं को सिन्ध का शासक घोषित कर दिया और पंजाब पर भी अपना हक़ जताने लगा। उधर अलीमदन नामक एक जागीरदार ने 1206 ईस्वी में ही खुद को सुल्तान घोषित कर दिया। इस बीच ग्वालियर और रणथम्भौर के हिन्दू राजाओं ने फिर से अपने-अपने राज्यों को अपने नियंत्रण में ले लिया।" गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक के गुलाम इस्तुतमिश का विरोध खुद दिल्ली में कई मुसलमान अमीर करने लगे, जिनसे दिल्ली के पास इल्तुतमिश को लड़ाई लड़नी पड़ी तराइन में 1216 में एक अन्य युद्ध इल्तुतमिश को अपने विरोधी मुसलमान जागीरदार से लड़ना पड़ा और कवाचा से लाहौर में लड़ना पड़ा। कबाचा को इल्तुतमिश ने सिन्ध नदी में जिन्दा डुबो दिया 1226 ईस्वी में इल्तुतमिश का रणथम्भौर के हिन्दू राजा से युद्ध हुआ और कुछ समय बाद ग्वालियर के राजा से 1234 ईस्वी में इल्तुतमिश ने मालवा के हिन्दू शासक से भेलसा या विदिशा में युद्ध किया।" इसके बाद इल्तुतमिश ने उज्जैन के प्रसिद्ध नगर को लूटा। जब इल्तुतमिश ने सिन्ध नदी के मुहाने पर बसे शहर बानियान पर आक्रमण किया, तब उस अभियान में ही इल्तुतमिश बीमार पड़ गया और 1236 ईस्वी में वह मर गया। दिल्ली जागीर पर तमाम विरोधों के बावजूद उसने 26 वर्षों तक शासन किया, परन्तु ग्वालियर के राजा मंगलदेव को वह 1232 ईस्वी में ही हरा पाया और वहाँ उसका शासन केवल चार वर्षों तक ही रहा।" उसी प्रकार, मालवा में उसका शासन केवल कुछ महीने ही रहा। वह मुख्यतः दिल्ली का जागीरदार रहा। 

चिनगिज हान से डर गया इल्तुतमिश

महान मंगोल सम्राट चिनगिज हान तेमोचीन इल्तुतमिश पर 1221 ईस्वी में आक्रमण करने ही वाला था कि इल्तुतमिश ने डर कर कीव (अफगानिस्तान) के शाह को शरण देने से इंकार कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर चिनगिज हान लौट गये गुलामवंशी इल्तुतमिश का बड़ा बेटा नसीरुद्दीन महमूद बंगाल की एक छोटी जागीर में नवाबी करने भेजा गया था, परन्तु अप्रैल 1129 ईस्वी में वह मर गया  जिसके कारण इल्तुतमिश ने अपनी बेटी रशिया को दिल्ली जागीर की गद्दी सौंपी, परन्तु मुस्लिम अमीरों ने औरत के सामने सिर झुकाना कबूल नहीं किया। रजिया के विरुद्ध विद्रोह भड़कते रहे, परन्तु उसने अपने एक ताकतवर अफ्रीकी हब्शी गुलाम याकूत से शादी कर ली चार वर्ष तक (1236-1240 ) रशिया गद्दी पर रही। फिर अमीरों ने रजिया और उसके गुलाम पति दोनों का क़त्ल कर डाला । अफ्रीका में मुसलमान लोग गैर-मुसलमानों को बलपूर्वक गुलाम बनाते थे गुलामवंशी रजिया को अफ्रीकी से इसीलिए प्रेम हो गया दोनों की पीड़ा एक थी। 

केवल दिल्ली जागीर तक सीमित शासन

रजिया के कत्ल के बाद 6 वर्ष तक दिल्ली जागीर में भारी अराजकता रही इस बीच दिल्ली इलाके में जिन हिन्दू रियासतों पर मुस्लिम गुलामों, अमीरों एवं लड़ाकुओं ने कब्जा किया था, उनमें से अधिकांश पर हिन्दुओं ने पुनः अपना राज्य लड़ कर प्राप्त कर लिया। इससे घबराकर अमीरों ने गुलाम इल्तुतमिश के छोटे बेटे नासिरुद्दीन महमूद को 10 जून, 1246 को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया वह 20 वर्षों तक दिल्ली में गद्दी पर रहा। परन्तु उसका शासन केवल दिल्ली रियासत तक था ।" राजपूताना, मालवा, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड सम्पूर्ण बंगाल, बिहार, विदिशा, उज्जयिनी, चन्देरी, धार और सम्पूर्ण दक्षिण भारत में उन दिनों हिन्दुओं का ही राज्य था

1266 ईस्वी को इल्तुतमिश के दामाद नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई तब तक गुलाम वंश के सुल्तान इल्तुतमिश द्वारा दिल्ली के बाजार से खरीदा गया एक पुराने पाटण हिन्दूवंश का गुलाम अपने कौशल से ताकतवर बन चुका था। दामाद के मरते ही गुलाम बलबन या बालिन् गद्दी पर बैठ गया और गयासुद्दीन सुल्तान की उपाधि धारण की ।" बलबन वस्तुतः वृहत्तर भारत के गान्धार से सटे क्षेत्र का था, जिसे मंगोल लोग पकड़कर ले गये थे। मंगोलों से उसे जमालुद्दीन ख्वाजा ने अपने शौक के लिए खरीदा। जमालुद्दीन से दिल्ली के बाज़ार में उसे इल्तुतमिश ने खरीदा था। इस प्रकार वह दिल्ली के बाजार में खरीदा गया खूबसूरत युवा गुलाम था और सनातनधर्मी पूर्वजों का वंशज था। इल्तुतमिश ने उसे अपना खासदार (खिदमतगाह) तैनात किया। रूप- गुणों द्वारा खिदमत करते-करते वह शासक बनने में सफल रहा। उसके गद्दी पर बैठते ही उसकी दिल्ली के उन अमीरों से ठन गई, जो खुद को तुर्की मूल का अत्यन्त श्रेष्ठ बताते थे। बलबन या बालिन् ने फौज़ को मजबूत बनाकर उन अमीरों को कुचला। फिर अलवर राज्य के मेवाती राजपूतों से उसका युद्ध हुआ। फिर उसकी मध्य उत्तरप्रदेश के शासकों से लड़ाई हुई और विन्ध्य के वनवासी समूहों से भी। गंगा-यमुना के दोआब में उसे हिन्दू राजाओं से अनेक लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं।" मेवातियों, दोआबा के राजपूतों, विन्ध्य क्षेत्र और बंगाल के राजाओं सभी ने बलबन या बालिन् को लगातार युद्ध के लिए विवश किया। 

महान मंगोलों की विजय यात्रा करोड़ों मुसलमानों का सफाया

इसी बीच रूस, पोलैण्ड, रोमन साम्राज्य, हंगरी, ज्यार्जिया, तुर्की, पारसीक राज्य को रौंदती सनातनधर्मी मंगोल सेनाएँ काबुल तक आ धमक मंगोलों ने लाखों ईसाइयों एवं मुसलमानों का वध किया तथा स्पेन से गान्धार तक अपनी धमक पैदा कर दी " महान बौद्ध मंगोल सम्राट कुबलय हान (कुबलाई खान) की सेनाएँ बुखारा को रौंदती हुई काराकोरम दरें और उत्तर-पश्चिमी सीमान्त तक आ गई। उधर बंगाल के स्थानीय शासकों ने अपनी प्रभुसत्ता स्वतंत्र घोषित कर दी।" बलबन ने अमीन खाँ को बंगाल भेजा, पर वह वहाँ हार गया। क्रुद्ध बलबन ने अमीन ख़ाँ को फाँसी की सजा दी और उसका सर काटकर दिल्ली गेट पर टांग दिया गया ।" बलवन ने तिरमित को सेनापति बनाकर भेजा। वह भी हार गया ।" तब बलबन खुद बंगाल गया और बेटे बुगरा को साथ लिया। स्थानीय शासकों को हराकर वह 1280 ईस्वी में लौटा। एक वर्ष के भीतर ही बंगाल में पुनः हिन्दू राजा सुदृढ़ हो गये। लौटते ही तैमूर की सेनाओं से पंजाब में टकराना पड़ा। बलबन ने दूसरे बेटे मुहम्मद को लड़ने भेजा अन्ततः 9 मार्च, 1285 ईस्वी को मंगोलों ने मुहम्मद को मार डाला " मुसलमान दरबारियों ने मुहम्मद को शहीद कहा। बेटे की मौत से 80 वर्षीय बलबन टूट गया 20 वर्षों में एक दिन भी वह दिये जागीर की गद्दी पर चैन से बैठ नहीं सका था। 1287 ईस्वी में बलबन की मृत्यु हो गई। बलबन का पूरा समय लड़ते और संधियाँ करते या हारते ही बीता।" उसे भारत के श्रेष्ठ राजाओं से निरन्तर बुद्ध करना पड़ा। उसे भारत का शासक केवल मूर्ख व्यक्ति ही कह सकते हैं। अधिकांश भारत में तब हिन्दू शासन था। 

अपने जीजा के वंश का वंशनाशक अलाउद्दीन

इसके बाद दिल्ली जागीर की गद्दी पर 18 साल का लड़का मुहजुद्दीन कैकाबाद बैठा, जो बलबन के बेटे बगरा ख़ाँ का बेटा था। दो वर्षों में ही उसकी हत्या कर जलालुद्दीन फिरूज ने उसकी लाश यमुना नदी में बहा दी जलालुद्दीन फिरून भी गान्धार क्षेत्र का मुसलमान था, जिसके पूर्वज थोड़े ही समय पूर्व हिन्दू थे। दिल्ली के अमीरों ने जलालुद्दीन फिरूज का तगड़ा विरोध किया, तो उसे किलेखरी रियासत में ही रहना पड़ा। फिर अमीरों को जमीन और जागीर तोहफे में देकर 70 वर्षीय जलालुद्दीन ने खिलजी की उपाधि धारण की और दिल्ली रियासत की गद्दी पर बैठा उसे लगातार संधियाँ और समझौते करने पड़े। पाँच वर्ष संधियाँ, सुलह समझौते कर बीत गए। इसी बीच उसके भतीजे अलाउद्दीन ने, जो कड़ा (इलाहाबाद) में एक जागीरदार बनाया गया था, फौज इकट्ठी कर चाचा की हत्या कर दी ।" चचेरे भाइयों को भी मार डाला और खुद 1296 ईस्वी में दिल्ली जागीर की गद्दी पर बैठ गया। 100 इसी बीच मंगोलों ने पुनः आक्रमण किया। लूटपाट कर वे दिल्ली के पास ही बस गये थे। जलालुद्दीन ने उनके मुखिया को अपनी बेटी ब्याह दी थी और इन्द्रप्रस्थ, गियासपुर तथा किलखड़ी के महल दहेज में दिए थे। अलाउद्दीन ने अपने इस जीजा के सम्पूर्ण वंश की छल से हत्या कर दी । 

अलाउद्दीन के समय भारत हिन्दू शासकों से शासित रहा

रिश्तेदारों का हत्यारा अलाउद्दीन जब दिल्ली जागीर की गद्दी पर बैठा, तब सम्पूर्ण राजपूताने, गुजरात, मालवा, उज्जैन, धार, माण्डू चन्देरी, देवगिरि, आदि पर हिन्दुओं का ही शासन था। 17 वर्षों तक अलाउद्दीन लगातार इन सब स्थानों के "हिन्दुओं से लड़ता रहा। अन्तिम 3 वर्षों में उसे दक्षिण भारत में कुछ हिन्दू राजाओं से वार्षिक नजराना पाने की हैसियत में आने में कुछ सफलता मिली। वह भारत का शासक एक दिन भी नहीं रह पाया। वह भारत का शासक बनता तो एक भी व्यक्ति हिन्दू नहीं रह पाता।

बहुत बड़े इलाके में था हिन्दू शासन

अलाउद्दीन के समय उसके राज्य से बहुत अधिक बड़े इलाके में हिन्दुओं का शासन था। केवल 3 वर्ष अलाउद्दीन का राज्य बड़ा रह पाया। इस काल में देश में अधिकांशतः हिन्दू राज्य रहे दक्षिण में पाण्ड्य, चोल, चेर, चालुक्य, राष्ट्रकू व सातवाहनों का काल था वह

मेगस्थनीज चौथी शताब्दी ईसापूर्व में जब भारत आया था, तब उसने पाण्ड्य देश का नाम सुना था और 'इंडिका' में उल्लेख किया था। मेगस्थनीज ने लिखा है कि, 'हरिकृष्ण की पुत्री से पाण्ड्यों का वंश चला है। सर्वविदित है कि पाण्ड्य देश में मातृसत्तात्मक व्यवस्था शताब्दियों रही है। कन्याकुमारी से त्रावणकोर तक तथा उत्तर में कोयम्बटूर से नागपट्टनम् तक (लगभग सम्पूर्ण केरल व तमिलनाडु) पाण्ड्य देश था। बाद में पेरिप्लस (लगभग 80 ईस्वी) और टालमी (140 ईस्वी) ने भी पाण्ड्य देश की सम्पन्नता का अपने यात्रा वृत्तान्तों में उल्लेख किया। मानगुड़ी किलारमरुदन तथा नक्कीगर नामक दो तमिल महाकवियों ने मजेलियन का पण्ड्य राजा के रूप में गौरवगान किया है। 'पुत्रपात्तु' तमिल का अत्यन्त प्रसिद्ध महाकाव्य है, जो इन पांड्य नरेश के बारे में है।" चीनी यात्री युआनच्वांग ने सातवीं शताब्दी के अपने यात्रा वृत्तान्त में भी पाण्ड्य राजाओं का उल्लेख किया है। 863 ईस्वी तक पाण्ड्य नरेश अत्यन्त प्रभुतासम्पन्न रहे परन्तु उसके बाद वे पल्लवों और चोलों की अधीनता में रहे। 11वीं शताब्दी ईस्वी से 16वीं शताब्दी ईस्वी तक पाण्ड्य राजाओं ने ही वेवर नदी के दक्षिणी हिस्से से केपकामोरिन तक और पूर्व में कोरोमंडल तट से लेकर त्रावणकोर रियासत के सम्पूर्ण क्षेत्र पर राज्य किया। 5 14वीं शताब्दी में कुछ समय के लिए अवश्य पाण्ड्यों ने अलाउद्दीन खिलजी से संधि कर उसे नियमित वार्षिक नजराना देना शुरू किया।" 14वीं शताब्दी में ही लगभग 38 वर्षों तक पाण्ड्यों के एक हिस्से में एक मुस्लिम सूवेदार ने अपना हुक्म चलाया और फिर पाण्ड्य विजयनगर साम्राज्य के अधीन हो गए।" इस प्रकार, छोटे से अन्तराल को छोड़कर इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर 16वीं शताब्दी के मध्य तक हिन्दुओं का ही राज्य रहा।" बाद में भी बड़े हिस्से में हिन्दू शासन बना रहा। 

पाण्ड्यों, पाइयों, चोलों का गौरवशाली काल

पूर्व में बतलाया जा चुका है कि पाण्डयों और पत्रों ने वर्तमान तमिलनाडु के बड़े हिस्से पर कई शताब्दियों तक राज्य किया। विशेषकर जिसे भारत का मुस्लिम काल बताया जाता है, उस अवधि के प्रारम्भिक वर्षों में इस क्षेत्र में पहले पाण्डयों, फिर पाइयों और फिर चेरों, चालुक्यों, चोलों और राष्ट्रकूटों का राज्य रहा। उन ऐतिहासिक तथ्यों को अनदेखा करना इतिहास का उपहास होगा। मुस्लिम काल बताई जाने वाली अवधि में हुए प्रमुख पाण्ड्य राजाओं के नाम और शासन की अवधि निम्नांकित है-

द्वितीय परमेश्वर वर्मन (728-731 ई.), नंदिवर्मन द्वितीय (731-796 ई.), दंतिवर्मन (796-847 ई.), नंदिवर्मन तृतीय (847-862 ई.) बीच की कुछ अवधि पल्लवों की अधीनता में रहने के बाद 13वीं शताब्दी ईस्वी से के वैभव का वर्णन मिलता है- पुनः पाण्डयों

मारवर्मन सुन्द्र पाण्ड्य प्रथम (1216-1237 ई.), मारवर्मन सुन्द्र द्वितीय पाण्ड्य (1238-1251 ई.), जातवर्मन सुन्द्र पाण्ड्य प्रथम (1251-1268 ई.), मारवर्मन कुलशेखर (1268-1308 ई.)। मारवर्मन कुलशेखर के समय ही मार्कोपोलो पाण्ड्य राज्य में आया था और उसने वहाँ की समृद्धि और सुशासन की अतिशय प्रशंसा की। मारवर्मन कुलशेखर के बाद सुन्दर पाण्ड्य और वीर पाण्ड्य में आपसी कलह शुरू हो गई और सुन्दर पाण्ड्य ने अलाउद्दीन खिलजी को सन्देश भेजकर मलिक काफूर को वीर पाण्ड्य पर आक्रमण के लिए बुलाया था। इस कलह का लाभ उठाकर चेर राजा रविवर्मन ने 1315 ईस्वी में पाण्ड्य क्षेत्र के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया। 

पल्लवों ने उड़ीसा से पेन्नार नदी तक के हिस्से पर ईस्वी सन् की पहली शताब्दी के पूर्व से ही अपना प्रभाव फैलाया था। पल्लव वंश के संस्थापक का समय निर्विवाद नहीं है। परन्तु इस वंश के चौथे प्रतापी राजा सिंहपोत ने धर्वी शताब्दी ईस्वी के मध्य में अपना राज्य वैभव चारों ओर फैलाया। उसके पौत्र पलाल चोल नोलंब प्रथम ने 9वीं शताब्दी ईस्वी में अपने राज्य में अनेक सुन्दर शिव मन्दिर बनवाए। महेन्द्र प्रथम ने उनका उत्तराधिकार सँभाला और यह परम्परा जारी रखी। अन्य प्रमुख पल्लव राजा और उनका शासनकाल निम्नांकित है-

विष्णु गोप (16वीं शती ईस्वी), सिंह विष्णु (छठी शती ई.), महेन्द्र वर्मा प्रथम (सातवीं शती ई.), महेन्द्र वर्मा प्रथम (सातवी शती ई. पूर्वार्ध), नरसिंह वर्मा प्रथम (सातवीं शती ई. मध्य), अयप्प देव (909-925 ई.), अन्यगा (925-940 ई.), एकवाक (940-967 ई.), नन्यनोलंब (967-970 ई.), पाल चोल द्वितीय (976-980 ई.), वाल्यदेव (980-1005 ई.), इरिवनोलंब (1005-1025 ई.), उदय आदित्य (1025-1039 ई.), त्रैलोक्यमल्ल नैन्यनोलंब (1039-1049 ई.) (दक्षिणी पूर्वी तमिलनाडु में पहली शताब्दी ईस्वी से बहुत पहले से पोलों का राज्य था। अशोक के अभिलेख में चोल राज्य का उल्लेख है। तथाकथित मुस्लिम काल बताई जाने वाली अवधि में हुए प्रसिद्ध चोल राजा निम्नांकित हैं- विजयालय (850-871 ई.), आदित्य (871-907 ई.), परान्तक प्रथम (907-947 ई.), गान्धारादित्य (947-957 ई.), परान्तक द्वितीय (957-973 ई.), मदुरान्तक उत्तम (973-985 ई.), राजराज प्रथम (9851016 ई.), राजेन्द्रदेव प्रथम (1016 1044 ई.), राजाधिराज प्रथम (1044-1054 ई.), राजेन्द्रदेव द्वितीय (1054- 1064 ई.), वीर राजेन्द्र (1064-1069 ई.), अधिराजेन्द्र (1069-1070 ई.), राजेन्द्र तृतीय कुलातुंग (1070-1122 ई.), विक्रम चोल (1122-1135 ई.), कुलोतुंग द्वितीय (1135-1150 ई.), राजराज द्वितीय (1150-1173 ई.), राजाधिराज द्वितीय (1173-1179 ई.), कुलोत्तुंग तृतीय ( 1179-1218 ई.), राजराज तृतीय (1218- 1248 ई.) और राजेन्द्र चतुर्थ (1246-1279 ई.) ।

चोलों ने अपने राज्यकाल में अनेक महान निर्माण कराये, जैसे कावेरी नदी के किनारे सौ मील लम्बे बाँध का निर्माण, तंजौर के राजराजेश्वर शिव मन्दिर का निर्माण 10वीं शताब्दी ईस्वी में कराया 11वीं शताब्दी ईस्वी में अनेक विशाल मन्दिर बनवाये और गंगैकोंड में एक विशाल कृत्रिम झील बनवायी, जिस पर 15 मील लम्बा तटबंध था। मदुरै, श्रीरंगम्, कुभकोणम्, रामेश्वरम् आदि में अनेकों भव्य मन्दिर और सर्वाग सुन्दर मूर्तियाँ चोल कला और चोल वास्तुकला के अनूठे उदाहरण हैं। विशालगोपुरम् और अधिष्ठान पीठ से शीर्ष बिन्दु तक भव्य प्रतिमा अलंकरण इन मन्दिरों की प्रसिद्ध विशेषता है। 

श्रेष्ठ शासनतंत्र

चोल प्रशासनतंत्र अपनी सुव्यवस्था के लिए प्रसिद्ध रहा है। चोल राज्य छः मण्डलों में विभक्त था, जिनमें से प्रत्येक को चोलमण्डलम् कहते थे। प्रत्येक मण्डलम् के अन्तर्गत अनेक कोट्टम (संभाग) और प्रत्येक कोट्टम के अन्तर्गत अनेक नाडु (जिले) होते थे। नाडु में कुर्रम (ग्राम समूह) और ग्राम होते थे। गाँवों की महासभा के पास प्रचुर अधिकार थे और गाँवों के सभी वयस्क निवासी नियमतः प्रतिवर्ष महासभा के लिए सदस्य चुनते थे। प्रत्येक ग्राम सभा के अपने कोषागार थे। चोल राजाओं के पास विशाल थल सेना तो थी ही, सुदृढ़ नौसेना और जहाजी बेड़े भी थे बोलों का अन्तराष्ट्रीय व्यापार प्रसिद्ध था सिंचाई की बड़ी-बड़ी योजनाएँ और प्रशस्त सड़कों का निर्माण चोल राज्य की सामान्य विशेषताएँ थीं। 

राष्ट्रकूटों का वैभव

दक्षिण भारत के बड़े हिस्से में शताब्दियों तक शासन करने वाला एक अन्य प्रसिद्ध राजवंश है राष्ट्रकूट वंश 736 ईस्वी में दंतिदुर्ग नामक राष्ट्रकूट राजा की राजधानी नासिक थी। बाद के राष्ट्रकूट राजाओं ने मान्यखेत (मालखण्ड) को राजधानी बनाया। 10वीं शताब्दी ईस्वी तक इसके अनेक प्रतापी राजा हुए. मुख्य हैं- जिनमें मुख हैं- कृष्ण प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय, गोविन्द द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ, अमोघवर्ष प्रथम एवं द्वितीय आदि। बाद में राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर ली, परन्तु भारतीय परम्परा में ऐसी पराधीनता का वस्तुतः केवल प्रतीकात्मक अर्थ होता था, क्योंकि सम्मान प्रकट करना और वार्षिक भेंट देना भी इसमें मुख्य था। अतः अधीन रहकर भी अपने क्षेत्र के वास्तविक शासक वे ही बने रहते थे। 

प्रतापी चालुक्य

दक्षिण भारत का एक अन्य प्रमुख राजवंश था चालुक्य वंश, जो ईसा की आरम्भिक शताब्दी से ही प्रसिद्ध था, परन्तु छठी शताब्दी ईस्वी के मध्य में हुए पुलकेशिन प्रथम एक अत्यन्त प्रतापी चालुक्य राजा हुए। इस वंश के वैभव और गौरव पर विगत अध्याय में विचार हो चुका है। पुलकेशिन प्रथम की राजधानी वातापी थी और उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किया था। उनके वंश में कीर्तिवर्मा प्रथम एवं द्वितीय, विक्रमादित्य प्रथम एवं द्वितीय, पुलकेशिन द्वितीय, विनयादित्य और विजयादित्य प्रमुख राजा हुए। पुलकेशिन द्वितीय का राज्य नर्मदा से कावेरी तक था। चालुक्य नरेश विजयादित्य ने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया और इस वंश का राज्य 13वीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ तक रहा। चालुक्य राजाओं ने अनेक विशाल हिन्दू मन्दिरों का निर्माण कराया। पुलकेशिन द्वितीय के भाई विष्णुवर्धन कुब्ज ने कृष्णा और गोदावरी नदियों के मध्य में वेंगी राज्य की स्थापना की और ये लोग वेंगी के चालुक्य कहलाए। बताया जा चुका है कि इस वंश में 27 प्रतापी शासक हुए और 13वीं शताब्दी ईस्वी में चोल नरेश राजेन्द्र चतुर्थ की पुत्री से चालुक्य नरेश राजेन्द्र का विवाह हुआ। इस प्रकार 13वीं शताब्दी ईस्वी के अन्त तक चालुक्य वंश का शासन विशाल क्षेत्र में चलता रहा।

कल्याणी के चालुक्यों की एक अलग ही शाखा चली, जिसके संस्थापक तैलव थे।" इस वंश ने भी 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक शासन किया। इस प्रकार सातवीं से तेरहवीं शताब्दी ईस्वी को भी मुस्लिम काल ही गिनाने वाले लोग यदि देशद्रोही नहीं हैं तो झूठे यानी सत्यग्राही अवश्य हैं।

महान कलचुरियों का 1000 वर्षों तक शासन 

कर्नाटक में कलचुरियों ने लगभग 150 वर्षों तक शासन किया। कलचुरि नरेश उचित ने 925-950 ईस्वी तक शोलापुर और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में राज्य किया। इनका अन्तिम प्रतापी राजा विज्जाल था, जो 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ। ग्यारहवीं शती ईस्वी के प्रारम्भ के परम प्रतापी कलचुरि नरेश गांगेयदेव ने अपने विक्रम से विक्रमादित्य की उपाधि अर्जित की थी। महाकौशल, मालवा और उत्तरी महाराष्ट्र में तो तीसरी शती ईस्वी से 12वीं शती ईस्वी तक एक हज़ार वर्षों तक कल्चुरियों ने राज्य किया। कलचुरि नरेश कर्णदेव ने प्रतापी मालव नरेश भोजराज को भी हरा दिया था। बाद में चन्देलों से वे हारे ।" विन्ध्य क्षेत्र के एक हिस्से में भी कल्चुरियों का शताब्दियों राज्य रहा। उत्तरप्रदेश एवं बिहार के भी थोड़े हिस्सों में वे कुछ समय शासक रहे थे।

 400 वर्षो तक रहे होयसल

कर्नाटक में ही 11वीं से 14वीं शताब्दी ईस्वी तक होयसलों का राज्य रहा। होयसलों ने 11वीं शताब्दी में धारा के परमार नरेश पर आक्रमण किया था, जिसका बदला लेने के लिए परमारों ने कुछ समय बाद उन पर आक्रमण किया, परन्तु होयसल नरेश द्वारा वह आक्रमण विफल कर दिया गया।" प्रथम होयसल नरेश थे नृपकाम, - जिन्होंने 1022-1047 ईस्वी तक राज्य किया।" होयसल वंश में बल्लाल प्रथम, विष्णुवर्धन, नरसिंह प्रथम, बाल द्वितीय, नरसिंह द्वितीय, सोमेश्वर प्रथम तथा नरसिंह तृतीय एवं चतुर्थ प्रतापी राजा हुए। 14वीं शताब्दी ईस्वी में मालिक काफूर ने होयसलों पर आक्रमण किया और हार गया। तब राजा बलात से काफूर ने 14 दिन के युद्धविराम का प्रस्ताव किया, जिसे बल्ल मान गए।" होयसलों ने युद्धविराम का सच्चाई से पालन किया, परन्तु मुस्लिम सेनापति काफूर ने वचन भंग किया और वंचना की तथा छलघात से आक्रमण कर दिया। उन्होंने बल्लाल की हत्या कर डाली और उनकी खाल में भूसी भर कर चौराहे पर टाँग दिया। परन्तु अलाउद्दीन खिलजी का इस इलाके में बहुत थोड़े समय तक कब्जा रह सका। बाद में यह क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य में मिल गया। * होयसल साम्राज्य की लूट से अलाउद्दीन खिलजी ने अपना खजाना अवश्य भरा परन्तु इस विजय के अगले ही वर्ष से वह भयंकर बीमार पड़ गया, उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया और वह हरेक पर शंका करने लगा। तीन वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई।" इस प्रकार, वस्तुतः होयसलों के राज्य में मुस्लिम शासन एक दिन के लिए भी नहीं रहा। यद्यपि प्रतीकात्मक रूप से वह तीन वर्षों तक वहाँ से नजराना पाता रहा।

प्रतापी गंग वंश

दूसरी शताब्दी ईस्वी से 11वीं शताब्दी ईस्वी तक मैसूर राज्य और उड़ीसा में गंगवंशीय राजाओं का राज्य रहा। 5110वीं शताब्दी में गंग नरेश राजामल्ल चतुर्थ के मंत्री चामुंडराय ने श्रवणबेलगोला में भगवान गोमटेश्वर की साढ़े 56 फुट ऊँची विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया महादेव, रामचन्द्र भिल्लम, जयतुंडि, सिंहज, हरपालदेव, कम्पिलदेव आदि इसके प्रसिद्ध राजा हुए। इनमें से 13वीं शताब्दी ईस्वी 150 में सिंहण यादव ने उड़ीसा, मैसूर और गुजरात के बड़े हिस्से में राज्य किया।" उसके बाद रामचन्द्रदेव एक अन्य प्रतापी राजा हुआ जिसने अलाउद्दीन खिलजी का डटकर मुकाबला किया। दो बार के प्रबल युद्ध के बाद अलाउद्दीन खिलजी की विशाल सेना से उसे हार माननी पड़ी, परन्तु इस युद्ध को अलाउद्दीन ने भी बहुत महंगा पाया और इसीलिए दोनों के बीच संधि हो गई संधि की शर्त में रामचन्द्रदेव द्वारा अलाउद्दीन को वार्षिक नजराना मात्र देना पड़ा। अपने क्षेत्र का शासन वह पूर्ववत करता रहा। जब अलाउद्दीन ने काकतीय वंश के नरेश प्रतापरुद्रदेव द्वितीय पर आक्रमण किया, तब इस संधि के कारण रामचन्द्रदेव को प्रतापरुद्रदेव के विरुद्ध अलाउद्दीन की सेना का देना पड़ा, जिसके कारण प्रतापरुद्रदेव के साथ वैसी ही संधि हुई जैसी रामचन्द्रदेव के साथ हुई थी। इस संधि के फलस्वरूप ये दोनों ही नरेश अलाउद्दीन खिलजी को वार्षिक नजराना अवश्य देते रहे परन्तु वस्तुत: ओरंगल में प्रतापरुद्रदेव का और उड़ीसा, मैसूर तथा गुजरात के पूर्वी हिस्से पर रामचन्द्रदेव का ही राज्य चलता रहा। 

सेउण यादवों का गौरव

सेठण यादवों ने नौवीं से 15वीं शती ईस्वी तक सात सौ वर्षों तक दक्षिण भारत के एक बड़े क्षेत्र पर शासन किया। उधर देवगिरि से नासिक तक सेउण राज्य में सेउणवंशीय यादवों का राज्य चला जो सन् 834 से 1334 ईस्वी पाँच सौ वर्षों तक पूरे वैभव के साथ फलता-फूलता रहा। इस वंश के प्रतापी राजाओं में मुख्य हैं दृढ़प्रहार (825-850 ई.), सेउणचन्द्र ( 850-875 ई.), भिल्लामा प्रथम (900-925 ई.), भिल्लामा द्वितीय (950- 1000 ई.), भिल्लामा तृतीय (1025- 1052 ई.), सेठणचन्द्र द्वितीय ( 1069-1100 ई.), भिल्लामा चतुर्थ (1173-1192 ई.), सिंहण (1200-1247 ई.), सिंहण द्वितीय (1311-1313 ई.), हरपाल (1313-1318 ई.)। बाद के दो सौ वर्षों में इनका प्रताप क्रमश: घटता गया। प्रसिद्ध धर्मशास्त्रज्ञ हेमाद्रि ने 13वीं शती ईस्वी के अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ चतुर्वर्ग चिन्तामणि के वृत्तखण्ड में सेउण देश को दण्डकारण्य के परिसर से देवगिरि तक बताया और देवगिरिपुर की महिमा की बतायी है। श्री जे.एन. सिंह यादव ने अपनी पुस्तक 'यादवाज़ थ्रू द एजेस' के प्रथम खण्ड के आठवें अध्याय में सेठण देश की सीमा नासिक से देवगिरि (दौलताबाद) तक बतायी है। महादेव यादव के कालेगाँव अभिलेख में गोदावरी नदी को सेउण देश का आभूषण या सेउण देश की शोभा बताया है और उसे गोदावरी नदी के दोनों ओर विस्तृत बताया है जिसमें नासिक अहमदनगर के कुछ हिस्से तथा मद्र देश के कुछ हिस्से, औरंगाबाद जिला एवं खानदेश शामिल हैं। जबकि यादव नरेश ऐकमदेव के अधी पट्टिका के अनुसार सेउण देश की सीमा उनके शासन में नर्मदा नदी तक विस्तृत थी। आर. जी. भण्डारकर का कहना है कि गुजरात में 15वीं शताब्दी ईस्वी में अहमद शाह के समय मुसलमान दरबारियों ने सेठण देश का ही नाम खानदेश कर दिया। यह एक महत्त्वपूर्ण राजवंश था।" खानदेश नामक इस सेउण देश में मुस्लिम शासन बमुश्किल डेढ़ सौ वर्ष रहा, जबकि यादवों का शासन सात सौ वर्षों तक रहा। परन्तु हमारे मुस्लिम भक्त सेक्युलर इतिहासकारों को केवल मुस्लिम शासन ही स्मरण रहता है। दयनीय स्मृतिभ्रंशता का यह मामला है।

कदम्ब वंश

चौथी शताब्दी ईस्वी से कोंकण क्षेत्र में कदम्ब वंश के राजाओं ने जो शासन प्रारम्भ किया था, यद्यपि वह तथाकथित मुस्लिम काल के पहले समाप्त हो गया था तथापि बाद में उस क्षेत्र में कई बार कदम्बों ने होयसलों को भी पराजित किया। 

काकतीय वंश

वारंगल में काकतीय वंश का प्रतापी शासन 12वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक रहा। काकतीय वंश के प्रतापी शासकों में काकतीय रुद्रदेव सर्वप्रमुख हैं महान धर्माचार्य हेमादि ने भी इनका उल्लेख किया है कालेगाँव पट्टिका में काकतीय नरेश त्रिकलिंग का उल्लेख है जो भिल्लामा पंचम से पराजित हुए थे। " गणपति देव एक अन्य प्रमुख काकतीय नरेश थे। इन्होंने एक समय सम्पूर्ण आन्ध्रप्रदेश पर शासन किया था।

छः सौ वर्षों तक प्रतापी रहा महान विजयनगर साम्राज्य

गलत रूपों में मुस्लिम काल बताये जाने वाले समय में दक्षिण भारत में एक अन्य प्रतापी साम्राज्य हुआ विजयनगर साम्राज्य इस पर संगम वंश ने 14वीं और 15वीं शताब्दी में राज्य किया। बाद में सालुव वंश और उसके उपरान्त तुलुव वंश का राज्य यहाँ 16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक रहा। विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध शासन हैं- हरिहर प्रथम और बुक्का प्रथम (1344-1377 ई.), हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.), बुक्का द्वितीय (1405-1406 ई.), देवराय प्रथम (1406-1422 ई.), विजय राय (1422-1426 ई.), देवराय द्वितीय (1426-1446 ई.), मल्लिकार्जुन (1446-1465 ई.), सालुव नरेश नरसिंह (1486-1491 ई.), धर्मराय इम्मादि नरसिंह (1491-1503 ई.), वीर नरसिंह (1505-1509 ई.), कृष्णदेव राय (1510- 1530 ई.), अच्युतदेव राय (1530-1542 ई.), सदाशिव राय (1542-1576 ई.), अरविन्द नरेश रामराय (1542-1565 ई.), तिरुमल (1570-1571 ई.), श्रीरंग प्रथम (1572-1582 ई.), वेंकट द्वितीय (1585-1614 ई.), वेंकट तृतीय (1630-1642 ई.)। बाद में भी विजयनगर साम्राज्य मैसूर राज्य के रूप में बीसवीं शती ईस्वी तक बना रहा। थोड़े व्यवधानों के साथ, छः सौ वर्षों तक यह प्रतापी हिन्दू राज्य दीपित रहा है। 

चतुर्दिक हिन्दू राजाओं की विपुलता के काल को मुस्लिम काल बताना सत्यद्रोह

इस प्रकार हम पाते हैं कि 7वीं से 17वीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिण भारत में अधिकांशतः हिन्दुओं का ही राज्य रहा। विजयनगर साम्राज्य, चेर, चोल और चालुक्य साम्राज्य, पांड्य और सातवाहन साम्राज्य, कदम्ब वंश, काकतीय वंश और गंग वंश के साम्राज्य, यादव वंश और सेउण वंश का राज्य तथा विजयनगर साम्राज्य एवं मैसूर राज्य इन सबको अनदेखा करना और भारत में शताब्दी से 17वीं - शताब्दी तक के समय को मुस्लिम काल के शासन की तरह प्रचारित करना देशद्रोह और धर्मद्रोह तो है ही, सत्य से सम्पूर्ण द्रोह भी है।

मध्यकाल के 1100 में से 800 वर्षों तक काश्मीर में हिन्दू ही शासक रहे

दक्षिण भारत के अतिरिक्त उत्तरी, मध्य, पूर्वी और पश्चिमी भारत के बीच के बड़े हिस्सों में भी मुस्लिम काल बताये जाने वाले कालखण्ड के अधिकांश में हिन्दुओं का ही शासन रहा है। स्वयं कश्मीर शताब्दियों से तो हिन्दुओं द्वारा शासित था ही, इस तथाकथित मुस्लिम काल में भी लगभग 300 साल ही वहाँ मुस्लिम शासन रहा है। जबकि 8वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक के 1100 वर्षों में वहाँ लगभग 800 वर्षों तक तो हिन्दुओं का शासन रहा। महाभारत काल के पूर्व वहाँ महाराज गोनर्द का शासन था। फिर, अशोक के समय से क्षेमगुप्त के समय तक और फिर रानीदित्ता तथा उसके बाद राजा उद्यान देव के समय तक वहाँ हिन्दुओं का ही शासन था। 11वीं शताब्दी ईस्वी तक के आरम्भ का वहाँ का इतिहास महाकवि कल्हण कृत राजतरंगिणी में है और उसके बाद का इतिहास जौनराज, श्रीवर और प्राज्ञभट्ट के संस्कृत ग्रन्थों में है।

कुछ लोभी हिन्दू लोग मुसलमान बनकर पापाचार करने लगे

14वीं शताब्दी के अन्तिम राजा उद्यान देव भी किसी युद्ध में पराजित नहीं हुए, अपितु उनके मंत्री ने छलपूर्वक उनकी हत्या की और फिर दिल्ली के मुसलमान नवाबों की कृपा पाने के लिए वह वहाँ शमसुद्दीन नाम से शासन करने लगा।

16वीं शताब्दी ईस्वी में अकबर ने काश्मीर को कब्जे में लिया। थोड़े दिन वहाँ अकबर का राज्य रहा। फिर अफगान सेनापति अहमदशाह दुर्रानी ने वहाँ कब्जा कर लिया। इसे ही अब्दाली कहा जाता है। मराठों से इसने 1761 ईस्वी में पानीपत में संयोग से विजय पा ली थी। 50 वर्षों के भीतर काश्मीर पर महाराजा रणजीत सिंह ने अधिकार कर लिया।

बंगाल में कथित मुस्लिम काल में आठ सौ वर्ष तो हिन्दुओं ने ही राज्य किया 

थोड़े से समय तक कतिपय मुसलमानों और ईसाइयों द्वारा जो क्षेत्र सर्वाधिक दबाए गए, उनमें मुख्य हैं बिहार और बंगाल तब भी, जिसे भारत के इतिहास का मुस्लिम काल बताया जाता है, उसमें आठ सौ वर्षों तक तो यहाँ भी हिन्दुओं ने ही शासन किया। शेष समय भी, मुख्यतः स्थानीय लोगों ने ही शासन किया। जहाँ मुस्लिम अधीनता भी भी, वहाँ भी मुस्लिम राजा मुख्यतः हिन्दू राजाओं पर ही निरंतर निर्भर रहे। इसी प्रकार अंग्रेजों ने केवल हिन्दू एवं देसी मुसलमानों के सहारे अपना प्रभाव फैलाया। शासक तो वे लगभग आधे भारत में कुल 90 वर्ष ही रह पाए। वह भी हिन्दुओं के सहयोग से। अतः अकारण आत्महीनता की कोई आवश्यकता है नहीं। आत्ममनन अवश्य अपेक्षित है, क्योंकि आज भी कुछ प्रमुख हिन्दू यूरोपीय ईसाइयों के सेवक बने हुए हैं।

इस सम्पूर्ण बंग क्षेत्र पर तथा पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर बंगाल यानी गौड़ देश पर भी पहले मौर्यों एवं गुप्तों का साम्राज्य रहा। उसके बाद महान गौड़ नरेश शशांक ने शासन किया। फिर यह महान सम्राट हर्षवर्धन के राज्य का अंग हो गया। तदुपरान्त कामरूप के महान सम्राट भास्कर वर्मा के वंश का यहाँ शासन रहा। तदुपरान्त प्रसिद्ध पालवंशी शासकों ने यहाँ राज्य किया, जिनमें मुख्य हैं- गोपाल (750-770 ई.), धर्मपाल (770-810 ई.), देवपाल (810-850 ई.), सुरपाल (850-854 ई.). नारायणपाल (854-908 ई.), राज्यपाल (908-940 ई.), गोपाल द्वितीय (940- 960 ई.), विग्रहपाल द्वितीय (960-988 ई.), महीपाल (988-1038 ई.), नभपाल (1038-1055 ई.), विग्रहपाल तृतीय (1055-1070 ई.), महीपाल द्वितीय (1070- 1075 ई.), सुरपाल द्वितीय (10761077 ई.), रामपाल (1077-1120 ई.), कुमारपाल (1120-1125 ई.), गोपाल तृतीय (1125-1140 ई.), मदनपाल (1140- 1155 ई.), गोविन्दपाल (1155-1159 ई.)। इस प्रकार 18 पालवंशी राजाओं ने चार सौ वर्षों से अधिक यहाँ राज्य किया। 

इसी अवधि में यहाँ सेनवंश का उत्कर्ष उभरा। सेन वंश का शासन यहाँ लगभग एक सौ वर्ष रहा। विजयसेन ने पहले उत्तरी बंगाल पर अधिकार जमाया। फिर बाल सेन ने बारहवीं शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध में राज्य किया। तदुपरान्त उनके पुत्र लक्ष्मणसेन ने तेरहवीं शती ईस्वी के आरम्भ तक सम्पूर्ण बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के उत्तरी हिस्सों में शासन किया। उन दिनों वाराणसी तक उनका राज्य फैला था। महाकवि जयदेव इनके ही शासन में रहे। हलायुध जैसे धर्मशास्त्रज्ञ इनकी सभा में थे।

नृशंस हत्यारे लुटेरे बख्तियार खिलजी का सर्वस्व हरण कर लिया कामरूप- नरेश ने

13वीं शती ईस्वी के प्रारम्भ में बख्तियारुद्दीन खिलजी ने सहसा नदिया पर छलघात से आक्रमण किया और नृशंस मारकाट की। वह हत्यारा वहाँ व्यापारी दल का भेष धरकर घुसा था इन कायरों में वीरतापूर्ण आक्रमण की प्रवृत्ति नहीं रही। महान विद्याकेन्द्र एवं धर्मकेन्द्र उद्यन्तपुर पर धोखा देकर आक्रमण कर हज़ारों बौद्ध विद्वानों एवं भिक्षुओं का वध किया तथा विराट पुस्तकालय जला दिया।" वह क्रूर और कायर लुटेरा वहाँ रुका नहीं, कामरूप की ओर बढ़ा और वहाँ बुरी तरह हारा। इस नृशंस हत्यारे लुटेरे द्वारा पवित्र बौद्ध भिक्षुओं एवं विद्वानों की क्रूर हत्या की खबर पा क्षुब्ध क्रुद्ध कामरूप- नरेश सेना सहित इस आततायी पर टूट पड़े। बख्तियार के पास दस हज़ार मुस्लिम घुड़सवार सैनिक थे। उनमें से नौ हजार नौ सौ को कामरूप की हिन्दू सेनाओं ने काट डाला। बख्तियार किसी तरह सौ घुड़सवार बचाकर भागा और मुँह छिपाता घूमा तथा अगले ही वर्ष तक घुल-घुलकर मर गया। विक्रम संवत् 1262 में वह पिटा, 1263 में मर गया। कतिपय भारतद्वेषी इस बात का बहुत रोना रोते हैं कि दस हज़ार घुड़सवारों ने पचास हजार बौद्ध विद्वानों को मार डाला, पर इस महान भारतीय वीरता का उल्लेख तक नहीं करते कि फिर उनमें से 9900 मार डाले गए और वह दुष्ट आततायी भी फिर खड़ा नहीं हो सका, दम तोड़ बैठा।

बख्तियारुद्दीन लुटेरा उग्रवादी था। शासक तो था नहीं लूटता पाटता बढ़ा और हार कर लौटा तथा मर गया। इस बीच कई अन्य अपराधी एवं आतंकवादी- उग्रवादी प्रवृत्ति के दुष्ट लोग इस्लाम की आड़ लेकर बख्तियार जैसी लूट-पाट करने लगे। बख्तियार द्वारा की गई विनाश लीला के समाचारों से हिन्दू एवं बौद्ध समाज में अफरा-तफरी मच गई थी। इसका लाभ उठाकर कई जगह ये आततायी लुटेरे इस्लाम की आड़ लेकर जागीरें छीन बैठे इलियास शाह नामक एक अपराधी ने पेंडुआ और इकडला की रियासतों पर कब्जा कर लिया। शेष बंगाल में राजा गणेश और उनके वंशजों का शासन चलता रहा।

मुस्लिम उग्रवाद के संरक्षक सूफियों की बाढ़ 

अचानक बंगाल में सूफी फकीरों की बाढ़ आ गई। कुछ सूफी लोग हिन्दुओं के आध्यात्मिक झुकाव तथा उदार हृदय का अनुचित लाभ ले आध्यात्मिक 'इश्क' का प्रचार करते थे, परन्तु छिपकर मुस्लिम उग्रवाद एवं आततायी राजनीति को संरक्षण और सहयोग देते तथा जासूसी का काम करते थे। इसके अत्यन्त प्रामाणिक एवं विशद साक्ष्य उपलब्ध हैं। इनकी शह पर कमजोर इलाके चिह्नित किये जाते और वहाँ अचानक मुस्लिम उग्रवादी लुटेरे तथा हत्यारे हमलाकर तबाही और जबरन मुसलमान बनाने का काम करते। इस प्रकार मुस्लिम आबादी बढ़ाई जाती रही। ऐसे ही एक सूफी कुतबुल आलम शेख नूरूल हक ने, जिसे हिन्दू राजा गणेश का संरक्षण प्राप्त था, उत्तरप्रदेश में जौनपुर के जागीरदार इब्राहीम शर्की को बंगाल पर हमले का सन्देशा 1410 ईस्वी में भेजा। शर्की कुख्यात उग्रवादी मुसलमान था, जिसने जौनपुर में जबरन कब्जा कर, वहाँ सभी प्रमुख मन्दिरों को नष्ट कर, उसके ध्वंसावशेषों से एक बड़ी मस्जिद - अटाला मस्जिद बनवाई थी। उसने जौनपुर में हिन्दू विद्याओं का समूल नाश करने का प्रयास किया और वहाँ मुस्लिम विद्या का बड़ा केन्द्र पोषित किया था। हिन्दुओं के भवन गिरवाये तथा मुसलमानों के भव्य भवन बनवाने में राजकीय संरक्षण और सहयोग दिया था। इस कुख्यात उग्रवादी का जासूस था सूफी फकीर बना शेख नूरुल हक। सूफी के तब तक बहुत अनुयायी बन चुके थे।

दनुजमर्दन हिन्दू राजा के घर में सूफियों की सेंध 

राजा गणेश ने बंगाल के नवाबों की आपसी जंग में चतुराई से काम लेकर शासन पर आधिपत्य पाया था । उग्रवादी मुसलमानों का दमन करने के कारण ही उसे 'दनुजमर्दन देव' की उपाधि दी गई थी। जौनपुर के नवाब ने जासूस सूफी फकीर के इशारे पर बंगाल पर हमला किया, तो राजा गणेश ने उसे मार भगाया इसके बाद भी 1418 ईस्वी तक वह कुशलतापूर्वक शासन करता रहा। उसकी मृत्यु के बाद, सूफी नूरुल हक ने उसके बड़े लड़के राजकुमार यदु को फुसलाकर मुसलमान बना लिया और उसका जलालुद्दीन नाम रख दिया अतः हिन्दू प्रजा ने उसे राजा बनाये जाने का विरोध किया और छोटे बेटे महेन्द्र को गद्दी सौंपने का प्रयास किया परन्तु सूफी फकीर के इशारे पर सभी मुसलमान और कुछ सूफी के भक्त हिन्दू लोग परम्परा की दुहाई देकर बड़े बेटे को गद्दी दिए जाने का आग्रह कर बैठे। तब से बंगाल के एक हिस्से में इस छल के कारण मुस्लिम शासन शुरू हुआ परन्तु सातवीं से चौदहवीं शती ईस्वी के 800 वर्षों में तो बंगाल-बिहार में अखण्ड हिन्दू शासन ही रहा। परन्तु यह मुस्लिम शासन कुल 24 वर्ष ही रहा वह भी, वस्तुतः एक हिन्दू राजा को ही छल से मुसलमान बनाने के द्वारा मुस्लिम शासन सम्भव हुआ।

बाद में यहाँ पुनः हिन्दू शासन हुआ। फिर पन्द्रहवीं शती ईस्वी के अन्तिम दशक में यहाँ 24 वर्षों तक हुसेनशाह सैयद ने छल-बल से तथा सूफियों के सहयोग से पुनः शासन किया। उसने 24 वर्षों में हज़ारों मन्दिर गिरवाये तथा सैकड़ों मस्जिदें बनाईं 100 हिन्दू धर्म के उन्मूलन का व्यवस्थित प्रयास किया, हिन्दू मन्दिर एवं विद्याकेन्द्र तथा अत्र क्षेत्र नष्ट किए तथा सैकड़ों खैरातखाने चलवाये जहाँ मुसलमानों की खाना व छाया मिलती और हिन्दू गरीबों-भिखारियों को मुसलमान बनने को प्रोत्साहित किया जाता । यही नीति उसके बेटे ने अपने 15 वर्षीय शासन में अपनाई  इस प्रकार मुस्लिम आबादी बढ़ाई गई।

धर्मातरण द्वारा राष्ट्रांतरण भारत की मुख्य समस्या

इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत की समस्या धर्मांतरण है। जो कल तक हिन्दू थे, वे ही मुसलमान बनकर नृशंस पापाचार करने लगे। राक्षस हो गए। अतः हिन्दू समाज के समक्ष मुख्य समस्या ऐसे धर्मांतरण को समाप्त करने की है। ऐसा करना राजधर्म है। किसी भी सामाजिक अन्याय के कारण यह धर्मांतरण कभी नहीं हुआ। यह तो छल-बल से ही हुआ धर्मांतरित व्यक्ति बेहतर मनुष्य बनते कभी देखे नहीं गए। राक्षसी पापाचार अवश्य उनमें से अनेक ने किए। चित्त की किसी उदात्त वृत्ति या न्याय जैसी सात्विक आकांक्षा का धर्मांतरण से कोई भी संबंध सम्पूर्ण इतिहास में नहीं रहा है।

बाद में बंगाल के कुछ हिस्सों पर कुछ वर्षों अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के अधीनस्थ सूबेदारों-जागीरदारों का शासन रहा। इन्हीं में से एक सूबेदार कासिम खाँ से पुर्तगालियों की मुठभेड़ हुई। फिर स्वतंत्र सूबेदारों का राज्य बंगाल में रहा, जो सिराजुद्दौला के वक्त तक रहा। अंग्रेज़ों ने उसके एक रिश्तेदार को फोड़कर षड़यंत्र द्वारा सिराजुद्दौला की जागीर मीर जाफर को दिलवा दी, क्योंकि वह कम्पनी को रियासतें देने को राजी था बंगाल के अन्य हिस्सों पर हिन्दू जागीरदारों का प्रभुत्व बना रहा। छल-नीति से ईस्ट इण्डिया कम्पनी उन जागीरों के भी राजस्व अधिकारों को हथियाने में सफल रही। पर इसमें फिरंगियों की वीरता की कोई भूमिका नहीं थी छल और धोखाधड़ी की भूमिका अवश्य थी 18वीं शती में पुन: बंगाल मराठों की अधीनता स्वीकार कर चुके (औरंगजेब

के पड़पोते) शाहआलम द्वितीय के नियंत्रण में रहा। इसके बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अफसरों व कर्मचारियों ने षड्यंत्र से बंगाल की दीवानी हथिया ली इस प्रकार वस्तुत: लगभग कुल तीन सौ वर्ष बंगाल में विविध स्थानीय मुस्लिम सूबेदारों का प्रभाव रहा और उन्होंने वहाँ इस्लाम को अत्याचार व भेदभावपूर्वक बढ़ाया भी खूब, परन्तु साथ-साथ हिन्दू जागीरदारों की भी वहाँ कई जागीरें 19वीं शती ईस्वी तक बनी रहीं ।" पूरा बंगाल और पूरा बिहार मुसलमानों के पूर्ण अधीन एक भी दिन नहीं रहा। आंशिक अधीनता ही रही । मुसलमान राजा भी सदा निर्भर हिन्दू राजाओं पर ही रहे, जिन्हें वे जागीरदार कहते रहे।

उड़ीसा में निरन्तर हिन्दू शासन

बंगाल से आन्ध्र तक फैले विशाल ओड़िया क्षेत्र में निरन्तर हिन्दू शासन बना रहा P20 बीच में 1568 से 1572 तथा 1592 से 1605, कुल लगभग 18 वर्ष, उड़ीसा में मुस्लिम दबदबा अवश्य रहा। शेष पूरे समय सातवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक सम्पूर्ण तथाकथित मुस्लिम काल में उड़ीसा में हिन्दुओं का ही शासन बना रहा। कलिंग साम्राज्य का भव्य इतिहास तो सुविदित है ही। मौर्यवंश के बाद चेर वंश, तदुपरान्त खारवेल वंश के गौरवशाली राज्य यहाँ रहे। गुप्त सम्राटों का शासन यहाँ था। फिर हर्षवर्धन का और तदुपरान्त भंज वंश का यहाँ प्रतापी शासन रहा

9वीं शताब्दी ईस्वी से यहाँ गंगवंश का अत्यन्त गौरवशाली शासन रहा, जो तीन सौ वर्षों चला, जिनमें 70 वर्ष तक शासन करने वाले शासक अनन्तवर्मा सर्वाधिक प्रतापी थे। उनके पास अति सुदृढ़ नौसेना थी । पुरी का भगवान जगन्नाथ मन्दिर तो गंगों ने बनवाया ही, सुशासन एवं सुव्यवस्था स्थापित रखी। उत्तर एवं दक्षिण दोनों ओर से मुसलमानों ने आक्रमण किए, परन्तु गंगवंशी राजाओं ने उड़ीसा में हिन्दू प्रभुत्व बनाये रखा तथा हमलावर मुसलमानों को बारम्बार हराया * केवल अलाउद्दीन खिलजी के समय उड़ीसा दया और उसे वार्षिक नजराना देना मंजूर किया चौहदवीं शती मध्य में फीरोज तुगलक ने हमला किया, पर बड़ी संख्या में हाथियों का उपहार पा सन्तुष्ट हो गया सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से अठारहवीं शताब्दी के मध्य के दो सौ वर्षों तक उड़ीसा के राजाओं ने पहले अकबर, फिर बंगाल के नवाबों को अपने से बड़ा शासक मानकर उन्हें नियमित नजराना देना मंजूर किया " अठारहवीं के उत्तरार्द्ध से उन्नीसवीं शती ईस्वी के पूर्वार्द्ध तक यह मराठों के प्रभुत्व का क्षेत्र रहा। उसी समय नागपुर के भोंसला नरेश ने यहाँ का राजस्व वसूलने का ठेका ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया 1877 ईस्वी से यहाँ भी विक्टोरिया का शासन घोषित हो गया। 

बिहार एवं झारखण्ड में मुस्लिम शासन की स्थिति

16000 ईसापूर्व से 14वीं शती ईस्वी तक वर्तमान बिहार का सम्पूर्ण क्षेत्र हिन्दू शासन के अधीन था। यद्यपि तेरहवीं शती ईस्वी के आरम्भ में इख्तियारुद्दीन खिलजी ने नालन्दा, विक्रमशिला और उद्यन्तपुर विश्वविद्यालयों को नष्ट किया और हज़ारों विद्वान बौद्धिकों की अकारण हत्या की थी। तब भी बौद्ध धर्म वहाँ कायम रहा। शाहाबाद, पटना, मुंगेर एवं भागलपुर क्षेत्र में अवश्य बड़ी संख्या में बलात् लोगों को मुसलमान बनाया गया ।

जहाँ तक, तेरहवीं शती ईस्वी के आरम्भ में बख्तियारुद्दीन द्वारा अचानक किए गए संहार की बात है, यह सही है कि विश्व इतिहास में चन्द दिनों के भीतर इतनी विशाल संख्या में बुद्धिजीवियों की हत्या कभी भी नहीं की गई है, जैसी इस उग्रवादी मुस्लिम आततायी ने की। कम्युनिस्टों ने विश्व में कई लाख बुद्धिजीवियों-बौद्धिकों की हत्या की है, पर 75 वर्षों की लम्बी अवधि में और विश्व भर में फैले क्षेत्र में, विशेषतः रूस, सोवियत संघ और चीन में परन्तु इस तथ्य का दूसरा पक्ष यह है कि हिन्दुओं ने तो आसायी उग्रवादी मुस्लिम का सफाया कर दिया कुछ ही दिनों के भीतर, परन्तु लेनिन, स्तालिन और माओ की मण्डली का सफाया करने में रूसी तथा चीनी एवं हंगार तथा पोल्स्का के देशभक्तों ने आज तक सफलता नहीं पाई है। चालीस वर्ष से अधिक हो गए। भारत में भी कम्युनिस्ट उग्रवादियों ने लगभग तीन हजार बौद्धिकों की हत्या की है और उन्हें सेक्युलरवादियों का प्रबल राजकीय तथा न्यायिक संरक्षण भी प्राप्त है। परन्तु आगामी बीस-पचीस वर्षों में उनका सफाया सम्भव है। अतः भारत की स्थिति गौरवास्पद है, निन्दास्पद नहीं ।

असम में शताब्दियों रहा हिन्दू शासन

महाभारत काल में कामरूप में महाराज भगदत्त का शासन था तीन हज़ार वर्षों तक उनके वंशजों ने वहाँ शासन किया बाद में वहाँ मौयों का शासन रहा सम्राट अशोक का शासन वहाँ था ही ।" उनके वंश के अन्तिम राजा बृहद्रथ से सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने शासन छीना।" शुंग वंश का शासन सम्राट वसुमित्र के बाद क्रमश: तीसरी शती ईस्वी तक रहा।" गुप्तवंश का भी शासन कामरूप में रहा P फिर वहाँ विजयवर्मा, कुमारवर्मा, भालवर्मा, त्यागसिंह प्रभृति 13 श्रेष्ठ राजा हुए तदुपरान्त पुन: वहाँ भगदत्त के वंशजों का शासन हो गया । ब्रह्मपाल, रत्नपाल, इन्द्रपाल, गोपाल, हर्षपाल, धर्मपाल एवं जयपाल- ये सात प्रतापी राजा इस वंश में पुनः हुए।
 
समूल नष्ट कर दिया गया बख्तियार खिलजी

फिर वहाँ बंगाल के पालों का शासन हो गया और तदुपरान्त सेनवंश का जब बख्तियार खिलजी ने बंगाल-बिहार में सेनवंशी शासकों की राजधानी और विद्याकेन्द्र को नष्ट कर कामरूप की ओर कूच किया, तब उसी सेनवंशी कामरूप- नरेश ने उसे विक्रम संवत् 1262 के चैत्र मास की त्रयोदशी को श्री रामनवमी के चार दिन बाद लगभग समूल नष्ट कर दिया। सौ घुड़सवारों के साथ दुम दबाकर भागे बख्तियार ने अगले ही वर्ष दम तोड़ दिया। गुवाहाटी के निकट महानद ब्रह्मपुत्र के पवित्र तट पर वर्षिवैर-कनाड नामक गाँव में एक चट्टान पर संस्कृत में लेख है, जिसमें संतोष व्यक्त किया है कि आततायी तुरुष्क नष्ट कर दिये गये हैं। इस शिलालेख में उस वीर योद्धा नरेश का नाम नहीं दिखता । सम्भवतः बाद में वह अंश छिपे तौर पर कुछ मुसलमानों ने मिटा दिया। तब तक इस क्षेत्र का नाम कामरूप ही था। इसके कुछ समय बाद वहाँ अहोम शासक हुए उनने ही यहाँ का नाम अहोम रखा और फिर असम या आसाम नाम पड़ा।

तेरहवीं शती पूर्वार्द्ध से 19वीं शती ईस्वी के मध्य तक यहाँ अहोमों का राज्य रहा, जिनमें प्रतापसिंह, गदाधरसिंह, जोगेश्वर सिंह आदि प्रसिद्ध हैं 1838 ईस्वी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पहले छलपूर्ण संधि कर फिर बहाना बनाकर राजकुमार पुरन्दरसिंह को गद्दी से हटाकर वहाँ कम्पनी ने राजस्व मामलों पर नियंत्रण कर लिया 20 वर्षों बाद वहाँ कम्पनी को हटाकर ब्रिटिश शासन ने सम्पत्ति एवं संसाधनों पर कब्जा कर लिया, जो 90 वर्षों बाद भारत के स्वाधीन होने पर समाप्त हुआ। इस प्रकार वस्तुतः असम में निरन्तर हिन्दू शासन रहा है।" यद्यपि बंगाल से मुस्लिम छापामार वहाँ विगत 300 वर्षों से छापामारी हमला करते रहे हैं कुछ समय नियंत्रण भी जमाते रहे हैं। पुराने कामरूप का बड़ा हिस्सा भारत-विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान को मिला, इसका कारण इन्हीं मुस्लिम घुसपैठियों की उग्रवादी गतिविधियाँ थीं।

लगातार बढ़ रही मुस्लिम आबादी भीषण खतरा है

सातवीं शती ईस्वी में सम्पूर्ण भारत की जनसंख्या लगभग 8 करोड़ थी। कुल मुसलमान यहाँ केवल 200 थे। आठवीं में ये बढ़कर 2000 हुए। नौर्वी- जबकि दसवीं में इनकी आबादी नहीं बढ़ी। बल्कि घटी। ग्यारहवीं शती में 12 करोड़ भारतीयों में कुल 50 हजार मुसलमान थे। तेरहवीं में 15 लाख और चौदहवीं में 20 लाख ही हो पाए। क्योंकि लाखों का सफाया किया जाता रहा। पन्द्रहवीं में भी ये ज्यादा नहीं बढ़ पाए। सोलहवीं में कुछ बढ़कर लगभग 75 लाख मुसलमान हो गए कुल 18 करोड़ की आबादी का 4 प्रतिशत सत्रहवीं में डेढ़ करोड़, अठारहवीं में ढाई करोड़ और उन्नीसवीं में 6 करोड़ मुसलमान भारत में हो गए। बीसवीं में ये साढ़े नौ करोड़ हुए।

विभाजन के बाद बांग्लादेश पाकिस्तान में हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया गया और इक्कीसवीं शती के प्रारम्भ में अविभाजित भारतीय क्षेत्र में कुल 28 करोड़ मुसलमान हैं. अर्थात् कुल जनसंख्या का लगभग एक चौथाई (25 प्रतिशत) हो चुके हैं। इनका इतिहास देखते हुए यह हिन्दुओं के लिए भयंकर खतरा है। हिन्दुओं को सन्तुलन बनाना होगा।

हम पाते हैं कि मुस्लिम आबादी में अचानक बढ़ोत्तरी केवल वंशनाश और समूल नाश का दबाव बनाकर, सामूहिक बलात्कार, हत्या, हिंसा के दबावपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाकर, युद्ध की दशा में ही की गई है। इस प्रकार, मुस्लिम आबादी की वृद्धि एक राजनैतिक लक्ष्य का अभिन्न अंग है। उसका किसी सामान्य मजहबी प्रवृत्ति से कोई सीधा रिश्ता नहीं मतही राजनीति से ही सीधा रिश्ता है। अतः समर्थ हिन्दू राजनीति हो उसका समाधान है। भारत में मुस्लिम आबादी में वृद्धि का संकेत 'परिशिष्ट-7' में द्रष्टव्य है।

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अपने प्रभुओं को तो याद कीजिए भारतद्वेषी बंधु

भारत के प्रति अहेतुक विद्वेष रखते दिख रहे कतिपय भारतद्वेषी बंधु भारतीय साक्ष्यों को संदिग्ध और भारतीय पंडितों को अप्रामाणिक मानकर चलते हैं। परन्तु जिन्हें वे प्रामाणिक विद्वान मानते हैं, उन यूरो-किश्चियन लोगों के मतों को भी वे कहाँ मानते हैं ?

दुर्भाग्यवश आज स्थिति यह हो गई है कि स्वयं ब्रिटिश, फ्रेंच, जर्मन आदि विद्वानों ने भारत के विषय में जो तथ्य अपनी यूरोपीय बुद्धि से दिए हैं, उन्हें तक भारत के सेक्युलरिस्ट मूढ़ न तो जानते, न याद रख पाते हैं। सी. कॉलिन डेवीज ने 1949 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से भारतीय प्रायद्वीप के ऐतिहासिक नक्शे छापे थे, उनके बारे में तक हमारे दीनहीन तथाकथित आधुनिक सेक्युलर इतिहासकार वह एवं संज्ञा है।

'एन इंडियन एटलस ऑफ़ इंडियन पेनिनसुला' नामक इस पुस्तक के नक्शों को और साथ में दिए उनके विवरणों को पढ़ने पर किसी प्राथमिक स्तर के विद्यार्थी को भी भारतीय इतिहास की मोटी जानकारी हो जाएगी और हज़ारों साल की गुलामी' के जुमले को वह केवल पागलों या देशद्रोहियों का प्रलाप ही समझेगा। यहाँ पहले इन नक्शों व तथ्यों का ही यथावत् और सार संक्षेप उल्लेख पर्याप्त होगा।'

उक्त एटलस में 'पृष्ठ-5 पर पहला नक्शा भारतीय क्षेत्र की भौगोलिक सीमा को दर्शाता है, जिसमें स्पष्टतः अफगानिस्तान, तिब्बत, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका सहित सम्पूर्ण भारतीय भूभाग चित्रित है।

 ईसापूर्व 500 में भारत

दूसरा नक्शा ईसापूर्व 500 के भारत पर है। इसमें उत्तरी भारत के सोलह महाजनपदों का और सम्पूर्ण दक्षिणापथ तथा श्रीलंका का चित्रण है। महाजनपदों में गांधार, काम्बोज, कुरु, मत्स्य, शूरसेन, पांचाल, मल्ल, कोसल, वत्स, काशी, विदेह, मगध, चेरि, अवंती, भोज, विदर्भ, अश्मक, कलिंग, आन्ध्र, अंग, वज्जि आदि का उल्लेख करते हुए कॉलिन डेवीज इन्हें तत्कालीन महान शक्तियाँ (ग्रेट पायर्स) कहता है। इसके अतिरिक्त हिमालय और गंगा के मध्य शाक्यों, कालामों, भग्गगणों, कोलियगणों, मॅरियों और लिच्छवियों के प्रतापी राज्यों का उल्लेख वह करता है। स्पष्टतः इसमें पश्चिम में वर्तमान अफगानिस्तान से पूर्व में सम्पूर्ण बंगाल तक और उत्तर में काम्बोज से दक्षिण में कन्याकुमारी तक का समस्त क्षेत्र चित्रित है। गजनी, काबुल, बुखारा और सीर दरिया, आमू दरिया और हेरात भारतीय सीमा में ही स्पष्ट दिखते हैं।

अशोक का साम्राज्य

पाँचवाँ नक्शा अशोक के साम्राज्य का है, जिसे कालिन डेवीज 250 ईसापूर्व मानते हैं। यद्यपि अकाट्य भारतीय प्रमाण अशोक का शासनकाल ईसापूर्व पन्द्रहवीं शती बताते हैं। आज यह तथ्य भी सर्वमान्य है कि अशोक ने कहीं भी स्वयं को बौद्धधर्म का अनुयायी नहीं कहा है। वह केवल 'सद्धर्म' की बात कहता है। स्वयं कालिन डेवीज की टिप्पणी है (पृ. 12 पर) कि 'शिलापट्टों एवं स्तम्भ लेखों से इस बात का कोई अनुमान सम्भव नहीं है कि वह किस धर्म को मानता था। जो धर्म- महामात्र उसने नियुक्त किये थे, उनका मुख्य काम धर्म, करुणा और दान-भावना का व्यापक प्रसार तथा प्रबन्ध है।'

अशोक के काल के इस चित्र में स्पष्टतः अशोक का साम्राज्य यवन (ग्रीक) सीमा तक विस्तृत दर्शाया गया है आकसिआ पेरोपनिसदै आदि अशोक के साम्राज्य के अंग हैं। तिब्बती क्षेत्र का एक हिस्सा, सम्पूर्ण नेपाल, सम्पूर्ण बंगाल, कलिंग, ताम्रलिति, आन्ध्र सिद्धपुर, सौरा, सिन्ध, सम्पूर्ण पंजाब आदि तो हैं ही। पाटलिपुत्र अशोक की राजधानी है। दक्षिण में केरल वंश, चोल, पाण्ड्य आदि के राज्य भी दर्शित हैं।

महाराज कनिष्क का साम्राज्य

अगला (छठा) नक्शा 150 ईस्वी का है, जिसमें दिखाया है कि महाराज कनिष्क के उत्तराधिकारियों का राज्य उत्तर में खोतान और उत्तर-पश्चिम में पार्सिया तक विशद था। काश्मीर तो उसके राज्य का बिल्कुल भीतरी हिस्सा था। काशी, प्रयाग, मथुरा, इन्द्रप्रस्थ, मेरठ, सिन्ध, पंजाब, सम्पूर्ण उत्तराखण्ड उस राज्य में हैं। उन दिनों दक्षिण भारत में आन्ध्रों, चोलों, चेरों और पाण्ड्यों का शासन है तथा राजपूताने में विविध राजाओं का मगध साम्राज्य कलिंग से नेपाल तक तथा सम्पूर्ण पूर्व में विस्तृत है। यह सब इस नक्शे में दर्शाया है।

विश्वव्यापी भारतीय व्यापार

इसी एटलस में सातवाँ नक्शा प्राचीन भारत के व्यापारिक मार्गों का दिया है, जिसमें थलमार्ग व जलमार्ग दोनों दर्शित हैं। थलमार्ग में पाटलिपुत्र से काबुल तक सीधी सड़क दर्शाई है, जो आगे बैक्ट्रिया से बढ़कर सम्पूर्ण यूनान को पार करती कृष्णा सागर के तट तक जाती है। अरब, पतरा और गर्य को जाने वाली सड़कें भी हैं। इधर दक्षिण में उज्जयिनी, भृगुकच्छ, प्रतिष्ठान होती हुई चै मदुरा, कन्याकुमारी तक जाती है। स्पष्ट है कि ये सड़कें हजारों वर्ष पूर्व बनीं और इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका भारतीयों की थी

जलमार्ग भी अनेक स्थलों से गये हैं। एक फारस की खाड़ी से होकर गुजरता है, दूसरा अरब के दक्षिणी क्षेत्र से लाल सागर होकर आगे जाता है। भारत में पश्चिमी तट के अनेक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह इस जलमार्ग के प्रमुख केन्द्र हैं। दक्षिणी हिस्से में मलाबार सहित अनेक बन्दरगाह हैं, मध्य में भड़ोंच है, उत्तर-पश्चिम में सिन्धुतट पर महत्त्वपूर्ण स्थल हैं। अदन मध्य का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। तदनुसार ईसापूर्व सातवीं शती से भी पहले भारत का रोम, इजिप्त, पर्थिया, सोमालिया, सीरिया, आर्मेनिया, काकेशिया आदि से स्थल मार्ग से व्यापार होता था और रोम, ग्रीस, अरब आदि से जलमार्ग से वस्त्रों, रखों, आभूषणों, मिर्च-मसालों का व्यापार होता था। चेरों, पाण्ड्यों और चोलों के राज्य में अनेक प्रमुख बन्दरगाह थे। मलाबार से अदन नित्य ही जहाज आते-जाते थे। इधर पूर्व में दिल्ली, प्रयाग, वाराणसी, मार्ग उत्तर की ओर चीनी रेशम मार्ग से जुड़ता था तथा पूर्व में चम्पा, स्याम, कम्बुज, मलय देश तक जाता था। श्रीविजय, यवद्वीप, बाली और कोर्निया जलमार्ग से जुड़े थे।

 विराट हिन्दू साम्राज्यों का समय

दसवाँ महत्त्वपूर्ण नवशा है- नौवीं शती के अन्त और दसवीं शती ईस्वी के आरम्भ में भारत की स्थिति का कुछ दयनीय मूढ़ों के अनुसार यह समय भारत की गुलामी का है। बहरहाल, कॉलिन डेवीज बताता है कि उन दिनों भारत में सर्वाधिक प्रतापी राष्ट्राध्यक्ष थे प्रतिहार महाराज भोज प्रथम और फिर महाराजा महेन्द्रपाल प्रथम जिनकी राज्य सीमा मुलतान सहित सम्पूर्ण पंजाब और काश्मीर, नेपाल और मगध तथा समस्त मध्यक्षेत्र तक थी। बंगाल में पालों का राज्य था। उड़ीसा में गंगवंशियों का दक्षिण में राष्ट्रकूटों, चोलों, चेरों और पाण्ड्यों का भारत में किसी भी मुसलमान शासक का इतने बड़े क्षेत्र पर एक दिन भी राज्य नहीं रहा। इन दस सम्राटों में से प्रत्येक का साम्राज्य सम्पूर्ण इंग्लैंड से बहुत अधिक बड़े क्षेत्र में था। 

गजनवी - गोरी मात्र लुटेरे हैं

अगला नक्शा तुकों के गुलाम रहे वंश के महमूद गजनवी की लूटों और चढ़ाइयों को दर्शाता है, जिससे पता चलता है कि महमूद भारत के गजनी से चला, बल, लायघन, अमृतसर, लाहौर, थानेसर तक पहुँचा। फिर लाहौर, मुलतान आदि को लूटता वह लौटा। अगली बार वह दिल्ली और आगे तक बढ़ा, फिर लौटकर सोमनाथ को लूटता हुआ वापस लौट गया। नक्शा स्पष्ट बताता है कि गजनी एक भारतीय रियासत थी और महमूद ने भारतीय क्षेत्र में बहुत थोड़े इलाके में ही लूटमार की, उसकी तुलना में उसने फारस, मेसोपोटामिया आदि में बहुत विस्तृत इलाके में लूटमार की। अगर किसी हिस्से में किसी लुटेरे का धावा करना उस देश की गुलामी का लक्षण है, तब तो महमूद ने बलख, बुखारा, अफगानिस्तान, फारस, ईरान और मेसोपोटामिया को भी गुलाम बनाया, यह मानना होगा परन्तु यह इनमें से कहीं का शासक नहीं बना, केवल लुटेरा ही रहा। लूट-लूटकर गजनी लौटता रहा। उसकी मृत्यु के दस वर्षों के भीतर उसका राज्य नष्ट हो गया।" उस पर गोरियों ने, जो उसके अधीनस्थ ताल्लुकदार थे, कब्जा कर लिया। गोर भी एक भारतीय रियासत थी। 

ग्यारहवीं शती में हिन्दू सम्राट थे भारत के शासक 

महमूद गजनवी के समय भारत के विशाल क्षेत्र में तोमरों, चौहानों, सोलकियों, परमारों, कछवाहों, प्रतिहारों, चंदेलों, कल्चुरियों, पालों, कलिंगों, चालुक्यों, चोलों आदि के विशाल राज्य थे, जो महमूद द्वारा लूटे गए इलाके से कई गुना विशाल थे, यह भी नक्शा - 12 स्पष्ट दर्शाता है। अतः महमूद गजनवी की याद करना और तत्कालीन महान प्रतापी हिन्दू सम्राटों का स्मरण न करना यदि पागलपन नहीं है तो फिर देशद्रोह ही है। वस्तुतः यदि भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों का भय न हो तो इन महान राजाओं के वंशज तथा इन स्वतंत्र रहे राज्यों के श्रेष्ठ नागरिक इन सभी इलाकों को पराजित व पराधीन बताने वाले और इस प्रकार मुस्लिम शासकों की दलाली में छूट रचने वाले उन सेकुलर एवं वामपंथी भड़ैतों को पीट-पीटकर मार ही डालें, जो राज्य की अनुचित छाया के तले झूठे इतिहासकार बने हैं ये लोग किसी भी कसौटी पर इतिहासकार नहीं है।

अलेक्जेण्डर डाउ अठारहवीं शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध में भारत आया था उसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आदेश दिया था कि भारत में हम सफल हों, इसके लिए हिन्दू धर्म और समाज की मान्यताओं के बारे में तथा मुसलमानों द्वारा हिन्दुस्थान को जीतने की प्रक्रिया के विषय में तथ्यपूर्ण सूचनाओं को संग्रहीत कर पुस्तकें लिखो। उसने फरिश्ता लिखित 'हिन्दुस्तान की तवारीख', अबुल फ़ज़ल रचित 'आईने अकबरी', 'तुजुके जहाँगीरी', मोहम्मद शूफिया रचित 'मीरातुल वारिदात', मिर्ज़ा कासिम रचित 'शाहजहाँनामा', 'रोजनामा' तथा 'आलमगीरनामा' और नज़ीर बख्तियार रचित 'मीरात आलम आदि के आधार पर दो भागों में 'द हिस्ट्री ऑफ हिन्दोस्थान' लिखा, जिसे यथासम्भव प्रामाणिकता से लिखा माना जाता है।

'डाठ बताता है कि 'मुस्लिम इतिहास लेखक अनावश्यक शब्दाडम्बरों से भरी,अतिरंजनापूर्ण और शायराना किस्म की तबियत से लिखते हैं तथ्य और तर्क पर ध्यान देना उनकी फितरत नहीं है अतिशय वाचलता उनकी आदत है। उन्हें पढ़ते समय पाठक उनके शब्दाडम्बर की भूल-भुलैया में भटकता रह जाता है, तथ्य पकड़ में नहीं आते। जबकि इस्लाम से पहले का पर्शिया की भाषा का जो लेखन है, वह मेरे पास है। वह सम्यक्, स्पष्ट और तथ्यात्मक है। जैसा प्राचीन ग्रीस और रोम में विद्वान लिखते थे या जैसा आधुनिक यूरोप में लिखा जाता है।

पाटण के निवासी ही पठान कहलाए

डाउ बताता है कि " फरिश्ता ने अपेक्षाकृत प्रामाणिक लेखन किया है। फरिश्ता ने हिन्दुस्तान के पाटण का भी इतिहास लिखा है। पाटण पारसीक प्रदेश और भारत के मध्य में स्थित राज्य है। पाटण के रहने वाले लोग भी 'पाटण' कहे जाते हैं। इन दिनों प्रचलित 'पठान' शब्द पाटण से ही बना है।" वस्तुतः अहिगणों की एक शाखा है पाटण या पठान अहिगणस्थान ही अफगानिस्तान कहलाया। इस प्रकार अफगानिस्तान आज भी नाम के रूप में मूल भारतीय पहचान को बनाये हुए है।"

पठान पहले श्रमण (बौद्ध) थे

डाउ बताता है कि  पाटण लोग समन (श्रमण बौद्ध) राजवंश के थे। मुस्लिम खिलाफत को इन्होंने पसन्द नहीं किया। बुखारा में अपनी स्वतंत्र रियासत बना ली। इसी वंश में अलितगी हुआ अलिसगी ने दसवीं शती ईस्वी में मुस्लिम बनकर गजनी में मुस्लिम शासन की नींव डाली तथा पारस और तार्तार क्षेत्र की सीमा पर प्रभाव फैलाया। गजनी के ये पाटण (डाउ इन्हें पाटण ही लिखता है, जो वस्तुत: अहिगणों की एक शाखा है। इस प्रकार गजनवी वंश मूलतः हिन्दू ही हैं। हिन्दू अहिगणों के वंश में उपजे हैं। बाद में हिन्दोस्थान में आगे फैलने की कोशिश करते रहे।

चंगेज खान के मन में हिन्दुओं के प्रति गहरा आदर था।

डाउ लिखता है- "जब एशिया के महान विजेता चिनगिज हान ने अरब देशों की ओर कूच किया तो हिन्दोस्थान के भीतर प्रवेश का उसने विचार ही नहीं किया। नहीं तो गजनी का नामोनिशान मिट जाता पश्चिम एशिया की तरह भारतवर्ष से भी इस्लाम का सफाया हो जाता और हिन्दोस्थान का इतिहास भी कुछ और होता, तब यहाँ इस्लाम का फैलाव हो ही नहीं सकता था।

हिन्दू क्षेत्र में रहने से जीवित बचे रह गये गजनवी गोरी वंश

इस प्रकार यहाँ अलेक्जेण्डर डाठ दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों को गिना रहे हैं- 

(1) महान मंगोल भारत का गहरा आदर करते थे।

(2) इसी आदर के कारण वे भारत की सीमा से लौट गये, नहीं तो वे आगे बढ़कर भारत से इस्लाम का सफाया कर देते और तब इस्लाम आज कहीं होता ही नहीं। चंगेज खान के मन में हिन्दुओं और बौद्धों के प्रति गहरा आदर था, इसीलिए उसने भारत के मुसलमानों को भी हिन्दुस्थानी समझकर छोड़ दिया। गजनी-पूर मूलतः हिन्दू रियासतें थीं ही भारतीयों और मंगोलों की नज़र में तब इन गजनवियों- गोरियों की हैसियत केवल दृष्ट लुटेरों की थी, इसीलिए ये बच गये, वरना मंगोल इन्हें कब का साफ़ कर देते। इस प्रकार हिन्दू क्षेत्र में बसने से ये गजनवी-गोरी जीवित बचे।

ये दोनों ऐतिहासिक तथ्य महत्वपूर्ण हैं। मंगोलों के भीतर भारत और हिन्दू धर्म के प्रति गहरे आदर ने हिन्दुस्थान के मुसलमानों को जीवनदान दिया। अतः सभी मुसलमानों को हिन्दू धर्म के प्रति गहराई से कृतज्ञ होना चाहिए और हिन्दुओं का अतिशय आदर करना चाहिए। अगर तथ्य का प्रचार किया जाए, तो निश्चिय ही मुलसमान एक कृतज्ञ कौम के रूप में ऐसा आदर अवश्य करेंगे।

अभी तो उग्रवादी इस्लाम के चाटुकार सेक्युलरिस्टों ने गजनी-गोरी को जाने कितना महत्त्वपूर्ण प्रचारित कर रखा है। जबकि उनकी कुल हैसियत दस्युदलों की थी। अन्यथा चौहान, तोमर, कछवाह, प्रतिहार, चन्देल, परमार, कलचुरि, पाल, सोलंकी, चालुक्य, कलिंग, चोल में से एक-एक साम्राज्य में इन्हें कुचलने की भरपूर सामर्थ्य थी। कुछ दयनीय लोग बाद में इस्लाम के फैलाव का दोष उन महान परम पूजनीय हिन्दू सम्राटों को देते हैं। जबकि ग्यारहवीं-बारहवीं शती ईस्वी में विराट हिन्दू वैभव और ऐश्वर्य के समक्ष इनकी कोई हैसियत ही नहीं थी। अभी के नक्सलियों एवं अन्य आतंकवादियों जैसी स्थिति में ही तब थे ये मुस्लिम दस्यु दल। निश्चय ही इन्होंने मन्दिरों के ध्वंस का राक्षसी पापाचार किया, पर वह राक्षसी कर्म था, कोई राजसी कार्य नहीं। बाद के परिदृश्य को अतीत में आरोपित करना उचित नहीं। बाद में भी, भारत में मुस्लिम शासकों में से अधिकांश का चरित्र विचित्र रूप से मिश्रित प्रकार का रहा हिन्दुओं पर प्रायः उनकी निर्भरता बनी रही और दूसरी।

और ये मुस्लिम उग्रवादियों का संरक्षण भी करते रहे। हिन्दुओं को जानना चाहिए कि बारहवीं से सोलहवीं शती ईस्वी के पाँच सौ. वर्षों में भारत में कुछ हिस्सों में इस्लाम का फैलाव महाकाल के रहस्यमय नियमों का, कालप्रवाह का परिणाम है। वह न तो इस्लाम की किसी अन्तर्निहित शक्ति का परिणाम है और न ही वह हिन्दू धर्म की किसी अन्तर्निहित कमजोरी का प्रमाण है। तर्क-बुद्धि से सब कुछ समझा नहीं जा सकता।

इसी भूमिका में डाठ बताता है कि मुस्लिम फौजों को रसद की पूर्ति कैसे होती है।" डाउ यह भी बताता है कि "हिन्दुस्थान में अन्न का प्रचुर उत्पादन है। इसलिए भरपूर आपूर्ति आसानी से होती रहती है। लगभग सभी इलाकों में हर साल दो से तीन फसलें ली जाती हैं।" वह यह भी बताता है कि मुस्लिम फौजों की तनख्वाह साठ रुपये प्रतिमाह से दो सौ रुपये प्रतिमाह तक है।

ब्राह्मणों के विरुद्ध झूठा प्रचार

पहले अध्याय में ही डाठ बताता है कि "आधुनिक क्रिश्चियन यूरोपीय यात्रियों ये हिन्दुओं, विशेषतः ब्राह्मणों के बारे में यूरोप में बिल्कुल गलत और झूठी जानकारी दी है। जिससे यूरोपीय लोग बेकार ही ब्राह्मण विरोधी हो गये हैं, जो कि अनुचित है और अन्यायपूर्ण है। मैं खुद पहले ऐसी ही धारणाओं से ग्रस्त था। विद्वान ब्राह्मणों से सम्पर्क के बाद मुझे ज्ञात हुआ कि मेरी जानकारी कितनी गलत थी। ब्राह्मण तो संयमी सदाचारी और विद्वान होते हैं। 

भारत के इस्लामीकरण की योजना है, यह तथ्य है

डाठ का यह विवरण यहाँ देने का यह उद्देश्य बिल्कुल भी नहीं है कि पाठक यह भ्रान्ति पाल लें कि संगठित मिल्लत द्वारा भारत के इस्लामीकरण के योजनाबद्ध और चरणबद्ध प्रयास नहीं हो रहे हैं। निश्चय ही तबलीग से दीक्षित प्रबुद्ध मुसलमानों का लक्ष्य भारत का और विश्व का सम्पूर्ण इस्लामीकरण है'ला गर्बिया ला शर्तिया इस्लामिया इस्लामिया' यह उनका नारा है। परन्तु वे कोई दैवी शक्ति नहीं हैं कि उनकी आकांक्षा सिद्ध होगी और संकल्प सफल होगा।

पाप को नष्ट करना पुण्य है

प्रबुद्ध और जागृत धर्मनिष्ठ हिन्दुओं का परमकर्तव्य है कि वे मुस्लिम एवं ख्रीस्तीय साम्राज्यवादी और मजहबी तथा रेलिजस योजनाओं, विचारों, धारणाओं, मान्यताओं को जानें और अगर उनमें तनिक भी धर्म संस्कार, धर्मनिष्ठा एवं धर्मबुद्धि है तो इन योजनाओं और मान्यताओं में जो कुछ असत्यपूर्ण या पापमय है, उसे विफल और विनष्ट करने का पुण्यकर्म यथाशक्ति अवश्य करें वैसे ही जैसे कि स्वयं अपने समाज के भीतर व्याप्त असत्य और पाप को नष्ट करना वे अपना कर्तव्य मानते हैं। क्योंकि हिन्दू धर्म पंथ, रेलिजन या मजहब के आधार पर कर्तव्य की दृष्टि से कोई भी भेदभाव नहीं सिखाता। अतः सार्वभौम सिद्धान्तों के आधार पर ही निर्णय लिये जाने चाहिए।

हिन्दुओं को सर्वप्रथम तो अपने बीच में विद्यमान एजेण्टों और ऐसे हद्बुद्धि तथा दीनहीन बुद्धि वाले तथाकथित शिक्षितों को अच्छी तरह जानना चाहिए जिनका अज्ञान भयावह है। इस अज्ञान के कारण ही भ्रामक एवं अनर्थकारी अनुवादों के द्वारा हिन्दुओं का भयंकर अनिष्ट हुआ है और हो रहा है जिसके कुछ दृष्टान्त आगे दिये जायेंगे।

वस्तुतः उस काल को मुस्लिम काल कहना ऐसा ही है, जैसे चीन द्वारा 20,000 किलोमीटर भारतीय क्षेत्र हथियाने के वर्ष 1962 से भारत को चीन का गुलाम हो गया बताना ।

धर्म निरपेक्ष यानी अधर्मी था गजनवी

स्मरणीय है कि गजनी कभी भी कोई राष्ट्र नहीं था। एक रियासत थी। जैसे अन्य भारतीय राजा आपस में लड़ते थे, वैसा ही महमूद नामक यह भारतीय मुस्लिम जागीरदार अन्यों से लड़ा। अन्तर केवल यह है कि हिन्दू राजा मर्यादा मानते थे, महमूद गजनवी भयंकर राक्षसी, बर्बर नृशंस एवं महापापी तथा विधर्मी था पर वह किसी भिन्न राष्ट्र का न था। विधर्मी था, धर्मशून्य था, धर्मनिरपेक्ष था, पर विदेशी नहीं था।

निरन्तर हिन्दू विस्तार की अवधि चौथी से सोलहवीं शती ईस्वी

ग्यारहवीं शताब्दी में चोलों और चालुक्यों के भारतीय राज्य कितने विशाल थे, यह नक्शा क्र.-13 में कॉलिन डेवीज ने दर्शाया है। चौदहवाँ नक्शा यह दर्शाता है कि कैसे इसी अवधि में हिन्दू राज्य सुमात्रा, जावा, बोर्नियो, वाली, कम्बोडिया, चम्पा, मलय देश, दक्षिणी म्यांमार आदि में फैले " उसने इसे शीर्षक भी दिया है- 'हिन्दू एक्सपेंशन इन दि आकिपेलगो' जिस अवधि को विदेशी हिन्दू विस्तार की अवधि मानते हैं, उसे आत्मनिन्दक लोग संकुचन की अवधि बताते हैं चौथी शती ईस्वी से सोलहवीं शती ईस्वी तक हिन्दुओं ने इन देशों में राज्य किया ।" ये राज्य स्पष्ट सैनिक आक्रमण द्वारा प्राप्त किए गए थे। इसके अतिरिक्त तिब्बत, चीन, जापान आदि में भारत का बौद्धिक- सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक प्रभाव इसी अवधि में फैला। इस प्रकार चौथी से सोलहवीं शती ईस्वी महान हिन्दू विस्तार, वैभव एवं साम्राज्य- प्रसार का युग है। पराभव का नहीं। यह भी एक गढ़ा गया झूठ है कि भारतीयों ने कभी भारत की सीमा से बाहर आक्रमण नहीं किया। सदा से वीर और प्रतापी भारतीय नरेश बाहर आक्रमण करते रहे हैं। परन्तु सदा मर्यादित धर्ममय युद्ध करते हुए। 

लूट, पापाचार अलग है, राजनैतिक आक्रमण अलग

जहाँ तक भारत में मुस्लिम शासन की बात है, उससे जुड़ी मुख्य चीज यह है कि सर्वप्रथम तो इस्लाम के नाम पर की गई लूटों, अकारण हत्याओं और अत्याचारों की बात है, उन राक्षसी कर्मों की जिम्मेदारी तो मजहबी मतान्धता और अनैतिकता की है, उसका एक तो हिन्दुओं की किसी कमी या दोष से कोई रिश्ता नहीं, दूसरे मुस्लिम लुटेरों, डाकुओं और हत्यारों द्वारा किए गए पाप अलग कोटि के माने जाएँगे तथा मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं पर किए गए आक्रमण अलग कोटि के दोनों को मिलाना अनुचित है भले ही दोनों में कुछ समानताएँ हैं। जैसा स्पष्ट हो चुका है मुहम्मद बिन कासिम लुटेरा था, राजा नहीं। उसकी लूट पापाचार है, परन्तु राजनैतिक आक्रमण नहीं। राजनैतिक आक्रमण केवल राजा करता है और सेना के साथ करता है। इसी प्रकार सिन्ध, राजस्थान, गुजरात में मारे गये छापे भी राजनैतिक आक्रमण नहीं माने जायेंगे। पापाचार वे अवश्य हैं। उस पर चर्चा करनी है तो इस्लाम में अन्तर्निहित दोषों की चर्चा करें, हिन्दू राजनीति के दोषों की नहीं।

उग्रवादी मज़हबी प्रेरणा के दोषों को जानें

हाँ, महमूद गजनवी एक भारतीय रियासत का जागीरदार था, जिसने लोभ से तथा पाप की प्रेरणा से अन्य भारतीय हिस्सों पर आक्रमण किया, लूट लूट के की तथा मूर्तियाँ एवं मन्दिर तोड़ने और जबरन मुसलमान बनाने का पाप किया। यह राजनैतिक पापाचार एवं राक्षसी कर्म है, क्योंकि पड़ोसी रियासतों पर चढ़ाई तो हिन्दू राजा भी करते थे, पर वे ऐसे पाप नहीं करते थे। अतः महमूद गजनवी के पापपूर्ण कृत्यों को इस्लामी मजहबी प्रेरणा में अन्तर्निहित दोषों के रूप में देखना होगा। इसमें हिन्दुओं को किसी कमजोरी का कोई प्रसंग नहीं है। 

तुर्की या अरब से नहीं आई थी सेना

छोटे-छोटे राज्य उन दिनों केवल भारत में न थे, अरब, तुर्की, ईरान, इराक, यूनान, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सर्वत्र थे। गजनी के इस जागीरदार को भी मदद के लिए तुर्की या अरब से कोई सेना नहीं भेजी गई थी, जैसा क्रूसेड के समय विविध यूरोपीय राज्य मुसलमानों के विरुद्ध करते थे। वैसा यहाँ कुछ नहीं हुआ था । अतः क्रिश्चियन यूरोपीयों के पढ़ाये पाठ से गजनवी के पापों को नहीं देखना चाहिए। हिन्दू दृष्टि से वह एक राक्षस पापिष्ठ था। कोई वीर विदेशी राजा नहीं भारत का ही एक पापिष्ठ जागीरदार।

वीरता में कम नहीं हैं हिन्दू

इस्लाम के नाम पर किए गए पापों और क्रूरताओं तथा छल से कई बार हिन्दू राजा हार गए तो इसका यह अर्थ नहीं कि हिन्दू वीरता में कम हैं या मूर्खतापूर्ण ढंग से उदार हैं या उनमें किन्हीं मानवीय गुणों की कोई कमी है। 

बहस के मुद्दे

इस्लामी अनाचार मजहबी उन्माद और लूट की लिप्सा, दोनों था। पर यह किसी भी अर्थ में राजनैतिक वीरता नहीं है और विदेशी आक्रमण नहीं है। बहस के मुद्दे केवल ये बनते हैं-

(1) इस्लाम में खुले राक्षसी दुष्कर्मों को मजहबी प्रेरणा है या नहीं? है तो क्यों?

(2) क्या हिन्दुओं को इसके प्रत्युत्तर में आततायी समूहों पर बढ़कर प्रहार करने की नीति अपनानी चाहिए और उसमें नीति-अनीति, मर्यादा अमर्यादा की नई परिभाषा गढ़नी चाहिए? ऐसी आततायी मजहबी प्रेरणा को धर्म माना जाए या घोर अधर्म? क्या इन घोर अधर्म के केन्द्रों पर बढ़कर प्रहार करना धर्म है? यदि हाँ, तो क्या आज हम कहीं भी ऐसा कर पा रहे हैं? नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों? हमें इसके उत्तर में क्या गजनी की और गजनवी के पूरे इलाके की सभी मस्जिदें तोड़ डालनी चाहिए थी और ऐसी मजहबी पढ़ाई के सभी केन्द्रों को जिन्दा जला डालना चाहिए था या नहीं? अगर आप आज ऐसा नहीं कर रहे हैं, जब इस्लाम के नाम पर 'डायरेक्ट एक्शन' की भयंकर मारकाट के जरिये भारत का विशाल भूभाग इस्लामी शासन के नियंत्रण में पाकिस्तान और बांगलादेश के नाम से लाया जा चुका है और आपके पास एक केन्द्रीकृत सेना है, 'स्टैंडिंग आर्मी' है, पहले से अधिक शस्त्रास्त्र हैं, तो उन दिनों जब इन लुटेरों की हैसियत बेहद कम थी, महान हिन्दू राजागण किन सिद्धान्तों के आधार पर सारी मस्जिदें नष्ट कर देते? इस पर गम्भीर विमर्श आवश्यक है।

इन्हीं प्रश्नों पर विमर्श करणीय है। हिन्दुओं की कमी गिनाने का तो इसमें कोई प्रसंग ही नहीं बनता। ये ही प्रश्न गोरी के सन्दर्भ में भी उठेंगे, क्योंकि गोर भी एक भारतीय रियासत है। फिर ये ही प्रश्न गुलाम वंश को लेकर उठेंगे।

जलालुद्दीन फिरूज उर्फ खिलजी वंश को लेकर विदेशी मूल की बातें कुछ लोग उठाते हैं। यद्यपि वह गान्धार क्षेत्र का था और हिन्दू पूर्वजों की संतति मुसलमान था। परन्तु मूल प्रश्न तो उपरोक्त ही हैं। क्योंकि खिलजियों की मंगोलों से भी भिड़न्त हुई थी और बाद में मुस्लिम मंगोलों का भी सामूहिक क़त्लेआम अलाउद्दीन ने किया। यह मामला उन दिनों देशी-विदेशी का नहीं, पड़ोसी राज्यों में आक्रमण का ही था। खिलजियों को भी अरब या तुर्की की सेना का सहयोग नहीं मिला था। वे अपनी ही सेना लेकर या जुटाकर लड़ रहे थे। अतः प्रश्न लड़ाई में पालनीय मर्यादा का और मन्दिरों मूर्तियों के अकारण विध्वंस रूपी पापाचार का है। यदि भिन्न धर्म वालों के उपासनागृह तोड़ना राजा का धर्म है तो फिर हिन्दुओं को उस धर्म के पालन की प्रेरणा देनी होगी। राजनैतिक निकष और मानक तो सार्वभौम ही होते हैं और होना चाहिए। 

पाप का दोष प्रेरणा और प्रेरितों पर आहतों या शिकारी पर नहीं

इन प्रश्नों पर गम्भीर विमर्श के बिना हिन्दुओं के दोष या कमियाँ गिनाने लगना किसी शान्त इतिहास-लेखन का लक्षण नहीं है। सार्वभौम कसौटियों पर ही कोई ऐतिहासिक विश्लेषण सम्भव है। एक साथ अलग-अलग मानक और निकष अपनाना तो विक्षिप्त चित्त का लक्षण है। अगर मुसलमानों के वे राक्षसी दुष्कर्म राजनैतिक कर्म का सामान्य अंग हैं तो फिर वे हिन्दुओं के द्वारा भी करणीय हैं। यदि वे पाप हैं। तो दोष पाप की प्रेरणाओं का है, पाप का शिकार बने समाज का नहीं।

एक अरब से अधिक हैं हिन्दू स्वधर्म ही विचारणीय -

आज हिन्दू निश्शेष नहीं हो गए हैं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व में कुल जितने मुसलमान हैं, उतनी ही संख्या आज भारत-नेपाल श्रीलंका-म्यांमार के समस्त हिन्दुओं की है। विदेशों में बसे हिन्दुओं को भी मिला लें तो हिन्दू संख्या अधिक ही बैठेगी। अतः किसी अस्तित्व रक्षा की आतुरता का कोई प्रसंग नहीं है। शान्त चित्त से सार्वभौम निकयों के आधार पर ऐतिहासिक विवेचना आवश्यक है। यह सही है कि यदि आप निहावान हिन्दू हैं तो अकारण मारे गये एक-एक हिन्दू के विषय में पढ़ते ही आपका खून अवश्य खौलेगा, परन्तु हम पुनर्जन्म में श्रद्धावान है पुनर्जन्म पूर्ण सत्य है, यह योग से साक्षात्कृत है। अतः उन महान हिन्दुओं के उत्सर्ग के प्रति श्रद्धा ही सम्यक है। प्रधानतः विचारणीय विषय केवल हिन्दुत्व की रक्षा है। मृत्यु का निमित्त कब, क्या बना, यह गौण विषय है।

इसी के साथ यह तथ्य भी स्मरणीय है कि अलाउद्दीन खिलजी के पहले तो भारत में प्रायः सम्पूर्ण देश में हिन्दुओं का ही शासन था। गजनी और गोरी दो ही रियासतें थीं, जहाँ से निकलकर लुटेरे लूटपाट कर फिर-फिर लौट जाते थे। देश में लोमरों चौहानों प्रतिहारों, सोलंकियों, कछवाहों, कल्चुरियों, चन्देलों, पालों, चालुक्यों, वैगि, भंज-गंग वंश, चोलों, कदम्बों, काकतीयों, होयसलों, यादवों, पाण्डयों आदि का राज्य था तथा हिन्दुओं का चीन, तिब्बत और जापान पर भी व्यापक प्रभाव था। स्याम, सुमात्रा, जावा, बोर्नियो, बाली, कम्पूच्या, चम्पा, मलय देश तथा द्वीप, म्यांमार, सर्वत्र हिन्दुओं का राज्य था, जो गजनी-गोरी से बहुत बड़ा क्षेत्र है।

यह भी स्मरणीय है कि 1296 से 1317 ईस्वी तक अलाउद्दीन हर बार लूट- लूटकर दिल्ली लौटता रहा और हर बार ये विजित इलाके पुनः हिन्दुओं द्वारा वापस ले लिए जाते रहे। अन्ततः अन्तिम पाँच वर्ष गहरे दुःख में बिताकर 1316 में वह मर गया और शेष अधिकांश इलाके भी पुनः हिन्दुओं ने हथिया लिए। देश के आधे से भी अधिक भाग में अलाउद्दीन के शासन को नजराना देने की मंजूरी की बात करें तो वह 1307 से 1311 ईस्वी के चार वर्षों ही रही। उसके बाद अकबर के समय ही ऐसा हो सका।

मुस्लिम सुल्तानों को वार्षिक नजराना देना कबूल कर हिन्दू राजा संधि के राजधर्म का धर्मशास्त्रीय कर्तव्य निभा रहे थे। उस अवधि को केवल इस आधार पर भारत में मुस्लिम शासन की अवधि बताना मतिमूढ़ता है। हिन्दुओं के देश में उग्रवादी मुसलमानों का पापपूर्ण उभार ही उसे कहा जायेगा। जिन लोगों ने केवल उपासना पद्धति के रूप में इस्लाम अपनाया, वे नितान्त भिन्न श्रेणी के कहे जायेंगे। भारत में उग्रवादी इस्लाम ऐसे ही है, जैसे किसी हृष्ट-पुष्ट देह में कुछ फोड़े हो जाएँ कुछ समय के लिए तो वह देह उन फोड़ों की नहीं हो जाती देह तो देहधारी व्यक्ति की ही रहती है। अपने अत्याचार, नारकीय आचरण, दुर्गन्धित पापाचार और घृणित स्वरूप के कारण यह उग्रवादी मुस्लिम उभार हिन्दू राष्ट्र के शरीर में फोड़ों की भाँति थे और हैं। राष्ट्र तो तब भी हिन्दू ही था। राष्ट्र के बहुलांश पर शासन उस सम्पूर्ण अवधि में हिन्दुओं का ही रहा है। उस पूरी अवधि में भारत हिन्दू राष्ट्र ही रहा है।

सत्य यह है कि भारत के लगभग सभी मुसलमान हिन्दुओं के ही वंशज हैं। उनमें जो भी सामर्थ्य है, वह सब सामर्थ्य हिन्दुओं में भी भरपूर है अतः यदि अपने पंथ के सिवाय शेष सभी पंथों की उपासना को झूठ का प्रसार या पाप का, बदी का, जहालत का, गुनाह का फैलाव मानने का हक़ किसी राजा को है और उस आधार पर दूसरों के उपासना स्थलों को मटियामेट कर देना उचित राजनीतिक कर्तव्य है, तो फिर यही निकष सर्वमान्य हो जाना चाहिए। हिन्दुओं में ऐसे बहुत लोग निकल आएँगे, जो इसकी इच्छा करने लगेंगे। हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग कर्त्तव्य, अलग-अलग नैतिकता और अलग-अलग मर्यादाएँ नहीं तय की जा सकतीं। आज अनेक हिन्दू-द्रोही लोग इस्लामी या ईसाई या कम्युनिस्ट एकपंथवाद की सेवा में ऐसे विचित्र विभेदक अलगाव की पैरवी करते हैं और हिन्दुओं को कुछ विचित्र से उपदेश देते हैं पर वे तो मान्य नहीं हो सकते। हिन्दू-मुसलमान में कोई अन्तर नहीं है, न होना चाहिए। साथ-साथ रहना है तो समान नीति, समान कर्त्तव्य और समान निकष मानने होंगे।

एक अन्य स्मरणीय तथ्य यह है कि 1857 ईस्वी में ब्रिटिश भारत में भारतीयों को निःशस्त्र बना दिया गया। तब शान्तिपूर्ण प्रदर्शन, आन्दोलन और बुद्धिबल ही साधन बचा। उधर धृष्ट अंग्रेजी साम्राज्यवादी अचानक नैतिकता और शान्ति तथा सभ्यता की डींगें मारने लगे थे। उनकी सीधे पोल खोलने पर सीधा संवाद सम्भव नहीं था। अतः सभ्य भाषा में उन्हें घेरा जाने लगा। उनकी अनीति और लूट को तथ्यों के आधार पर सामने रखना जहाँ आवश्यक लगा, वहीं 'सिविलाइजिंग मिशन' के उनके दावे के जवाब में उन सद्गुणों में भी भारत की श्रेष्ठता के तथ्य प्रस्तुत किए गए, जिन सद्गुणों के आधुनिक इंग्लैंड में होने का दावा साम्राज्यवादी कर रहे थे। उसी क्रम में भारत को अहिंसा-प्रधान दूसरों के साथ बर्बरता को अधर्म मानने वाला , समाज सिद्ध किया गया।

1947 ईस्वी के बाद गाँधी जी को आड़ बनाकर कुछ ऐसी व्याख्या श्री नेहरू के प्रोत्साहन से की गई, मानो भारत में राजनैतिक कौशल, चतुराई, कंटक-शोधन, दुष्ट दलन, वीरता और तेजस्विता का सर्वथा अभाव रहा हो। परन्तु यह तो सर्वथा असत्य है।

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मुगल वंश और मुस्लिम शासन के कुछ तथ्य

भारत में मुगल वंश के शासन की महिमा कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने बहुत गाई है। यह उनके लिए स्वाभाविक ही है, क्योंकि इसके जरिये वे अकबर को केन्द्र बनाकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच आपसी भाईचारे की एक विशेष शक्ल विकसित करना चाहते हैं। अगर यह कामना किन्हीं सार्वभौम और सर्वमान्य आधारों पर टिकी हो, तो यह निश्चय ही स्वागत योग्य कामना है। परन्तु जिस तरह के तर्क दिये जाते हैं, उनसे इस कामना के सार्वभौम होने अथवा सच्चे अर्थों में सदाशयी होने का कोई भी प्रमाण नहीं मिलता।

बाबर की सच्चाई कुल 5 वर्ष लड़कर मर गया

सबसे पहले तो मुग़ल वंश के शासन के ही तथ्यों पर ध्यान देना उचित होगा। बाबर वास्तव में सनातनधर्मी मंगोलों का वंशज था, जो तब तक मुसलमान बन चुके थे। वह 1524 ईस्वी में पंजाब में दाखिल हुआ। 1530 ईस्वी में वह मर गया। 1526 ईस्वी में पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को उसने हरा दिया और कुल चार वर्षों तक दिल्ली और आगरा इन दो रियासतों का मालिक बना। इस अवधि में उसे लगातार मेवाड़ नरेश राणा संग्रमसिंह तथा अन्य राजपूतों से और बंगाल-बिहार के उन अफगान सरदारों से जो जगह-जगह लूटपाट कर जागीरदार बन गए थे, लड़ते रहना पड़ा था। इस प्रकार वस्तुतः वह लड़ते-लड़ते ही मर गया।। उसके चाटुकार भक्त उसे भारत में मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक कहते हैं। उसी समय भारत में विद्यमान विराट राजपूताना संघ, बंगाल, कामरूप, मालवा, गोंडवाना, बरार, ओडिसा, गुजरात, गोलकुण्डा, विजयनगर आदि के साम्राज्य सम्भवतः इन चाटुकारों की दृष्टि में भारत नहीं हैं।

बाबर ने पानीपत जीतने के बाद दिल्ली, आगरा जागीरों पर अधिकार कर बुन्देलखण्ड, बिहार व बंगाल के कुछ हिस्सों में छापे मारे। इसी क्रम में वह पाँच वर्ष बीतते-बीतते, लड़ते-लड़ते मर गया। उस समय उससे दस गुने बड़े इलाके में शताब्दियों से हिन्दुओं के राज्य थे।

लड़ा, पिटा, भागा, फिर लड़ा और मर गया हुमायूँ

हुमायूँ ने दिल्ली-आगरा संभालने के बाद मालवा- गुजरात पर आक्रमण किया और कुछ महीने ही वहाँ उसका प्रभाव रहा। फिर वहाँ हिन्दू शासक प्रबल हो गये। फिर हुमायूँ ने बंगाल की ओर धावा बोला, जहाँ सासाराम (बिहार) के एक जागीरदार के ताकतवर बेटे शेर ने ही उसे धूल चटा दी फिर कन्नौज में भी वह पिटा और भाग गया। भागकर काबुल, कन्दहार में लड़ता-भिड़ता रहा। 15 साल बाद फिर लाहौर पर चढ़ाई की। फिर दिल्ली और आगरा को पुनः जीता, और विजय के कुछ दिनों बाद ही मर गया।

बंदी का सिर काटकर गाजी बना अकबर

अकबर ने 1556 ईस्वी में हेमू से पानीपत में लड़ाई की हेमू विक्रमाजीत कहलाते थे। उन्होंने सम्पूर्ण उत्तरी भारत का शासन सम्हाल रखा था। यद्यपि आदिलशाह को उन्होंने नाममात्र को राजा मान रखा था। हेमू ने उदार-भाव से सभी वर्गों को सेना में रखा था। युद्ध में हेमू के घायल होते ही अफगान और पठान सैनिक डर कर भाग खड़े हुए। हिन्दू सैनिक भी घबड़ा गए। घायल हेमू बन्दी बना लिया गया। असली लड़ाई बैरम ख़ाँ लड़ रहा था। 14 साल के किशोर अकबर को 'गाजी' दर्शाने लिए बैरम खाँ ने बन्दी हेमू का सिर अकबर से कटवाया। काफिर यानी ग़ैर- मुसलमान का सिर काटने वाले को इस्लाम में 'गाजी' कहा जाता है।" भले ही क़ैद में बंद व्यक्ति का सिर काटा जाए।

कुछ राजपूतों ने अकबर को अपने जैसा क्षत्रिय माना

1561 ईस्वी तक उसके पास केवल पंजाब, दिल्ली और आगरा की रियासतें थीं।" अगले वर्ष उसने मालवा पर चढ़ाई की और जीत गया। तभी आमेर के राजा भारमल्ल ने, जिस पर अजमेर के एक मुस्लिम जागीरदार ने आक्रमण कर पुत्र को बंधक बना लिया था; अपने राज्य को बचाने के लिए अकबर की आधीनता स्वीकार कर अपनी बेटी उन्हें ब्याह दी।

वस्तुतः अनेक ऐसे राजपूतों ने, जिन्होंने अकबर और उसके वंश से सम्बन्ध बनाया, उन्होंने उसे अपने जैसा क्षत्रिय ही माना। उपासना पद्धति सम्बन्धी आस्था किसी व्यक्ति, कुल, वंश या समूह को एक नितान्त भिन्न शील और लक्ष्य वाला जीव बना डालती है, यह संस्कारी परन्तु अप्रबुद्ध हिन्दुओं के गले ही नहीं उतरता। यानी चित्त में ठहरता ही नहीं। घूरी के समय से कई भारतीय राजा-रानी यही चूक करते रहे हैं, जबकि कई अन्य प्रबुद्ध राजा इस्लाम के नाम पर कुछ लोगों में उभरने वाले पापमय आवेगों और अर्घ्य के प्रति पूर्णतः सजग थे। भारमल्ल ऐसे प्रबुद्ध राजा नहीं थे। उनकी क्षत्राणी बेटी मुसलमान बनकर धर्मशून्य हो रही है, यह उन्हें सूझा ही नहीं।

इसी क्षत्राणी से अकबर का बड़ा बेटा सलीम जहाँगीर जन्मा" भारमल के बेटे भगवानदास और गोद लिए पोते मानसिंह को अकबर के दरबार में ऊंचे ओहदे दिए गए। अपनी समझ से भारमल्ल ने कूटनीतिक चतुराई की थी। उन्होंने आमेर (जयपुर) को मुग़लों की लूट तथा बरबादी से बचा लिया और उसे राजपूताने की सबसे धन-सम्पन्न रियासत बना लिया।

मुसलमानों से ब्याही गई क्षत्राणी के बेटों में हिन्दू संस्कारों का सम्पूर्ण विलोप 

इस प्रकार अकबर स्वयं सनातनधर्मी मंगोलों के वंश में उत्पन्न मुसलमान है और उसके बाद सलीम क्षत्राणी का पुत्र है।" सलीम का बेटा खुर्रम जोधपुर के राजपूत उदयसिंह की बेटी जगत से उत्पन्न हुआ। यही शाहजहाँ कहलाया। जिसकी दादी माँ और माँ दोनों हिन्दू धीं, ऐसे खुर्रम शाहजहाँ से औरंगजेब पैदा हुआ, जिसने इस्लामी असहिष्णुता की पराकाष्ठा का परिचय दिया। अतः मामला देशी या विदेशी अथवा अरब-तुर्क बनाम भारतीय का बिल्कुल नहीं है। मामला पापिष्ठ, अत्याचारी, भेदभावपूर्ण शासन बनाम मर्यादित धर्ममय श्रेष्ठ शासन का है। किसी विदेशी ने देश को गुलाम नहीं बनाया, न किसी विदेशी मुसलमान का सम्पूर्ण भारत पर कभी भी आक्रमण हुआ, अपितु भारत के मुसलमान शासकों में से बहुलांश ने जितना उनके वश में सम्भव था, उतना अत्याचार किया। ऐसे अत्याचार पहले भी इस्लाम, ईसाइयत आदि के उदय से हजारों वर्ष पूर्व उच्च तथा प्रख्यात ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न दुष्ट पापी करते रहे हैं, जिन्हें राक्षस, अधर्मी, पापी आदि कहा गया। महत्त्व नस्ल या कुल या पंथ का नहीं, आचरण और कर्म का है। यह अवश्य है कि मजहबी प्रेरणा तंत्र की इसमें बड़ी भूमिका है।

गजनवी गोरी सब हिन्दू पूर्वजों की संतति हैं

मुगल वंश के इन तथ्यों के साथ ही सम्पूर्ण मुस्लिम शासन के भी कतिपय तथ्यों का स्मरण आवश्यक है, जिनकी कुछ चर्चा पूर्व में हो चुकी है। गजनी और धूरी या गोरी मूलतः भारतीय रियासतें थीं और इनमें हजारों वर्षों तक हिन्दुओं का ही शासन रहा था, यह हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं। गजनी ने लूटपाट के लिए चाहे जहाँ-जहाँ तक अभियान चलाये, परन्तु वस्तुतः उसका नियंत्रण भारतवर्ष में बहुत ही थोड़े इलाके में और थोड़े समय ही रह पाया। वैसे भी वह स्वयं को सदा गजनी का ही सुल्तान मानता रहा। हिन्दोस्तान का सुल्तान तो उसे कतिपय चाटुकारों ने प्रचारित किया है और स्वाधीन भारत में हिन्दुत्व से अकारण विद्वेष करने वालों ने दरबारियों के उस प्रचार को स्थापित तथ्य की तरह मान्यता दे दी है।

अब तो जालम बिन साहिबान तक को भारत के एक नगर मुल्तान का जागीरदार बताकर दसवीं शती ईस्वी से ही भारत में इस्लामी हुकूमत की जड़ें दिखाई जाती हैं, परन्तु तथ्य यह है कि जालम बिन साहिबान ने केवल एक काम किया था मुल्तान के प्रसिद्ध आदित्य मन्दिर अर्थात् सूर्य मन्दिर में स्थापित भगवान सूर्य की प्रतिमा को नष्ट कर दिया था और उसका विरोध करने वाले पुरोहित को जान से मार डाला था। एक व्यक्ति की हत्या और एक मूर्ति को नष्ट करना ही यदि शासन की स्थापना है तो ऐसी बात करने वालों पर केवल हँसा जा सकता है। जालम बिन साहिबान एक दिन के लिए भी भारत के किसी भी हिस्से में शासन की हैसियत में नहीं था।

गजनी वंश के विषय में विचार हो ही चुका है। अलप्तगिन उस खुरासान का जागीरदार था, जो मूलतः हिन्दू शासन में हजारों वर्षों तक रह चुका था।" गजनी के छोटे-से इलाके में उसने एक छोटी-सी रियासत बनायी। बाद में उसके गुलाम सुबुगिन ने उससे वह रियासत छीन ली और खुद को बगदाद के खलीफा के सामने बहुत बड़े बुतशिकन के रूप में पेश कर उनसे प्रशंसा प्राप्त की, क्योंकि उसने गजनी की रियासत के बड़े-बड़े मन्दिरों को नष्ट किया था और वहाँ स्थापित प्रतिमाओं को तोड़कर उनके कुछ अंश खलीफा के सामने सबूत के रूप में पेश किये थे स्पष्ट है कि तब तक गजनी हिन्दू धर्म का क्षेत्र था। महमूद के बावजूद।

राजपूतों के घूरी वंश में उभरा मुहम्मद गोरी भी भारतीय क्षेत्र का ही एक मुसलमान था, जिसके कुल ने हिन्दू धर्म त्याग कर इस्लाम को अपनाया। विदेशी वह किसी भी अर्थ में नहीं था। ये घूरी लोग कहीं के भी राजा नहीं थे, साधारण जागीरदार थे।" किसी बड़े देश पर आक्रमण केवल राजा किया करते हैं, लुटेरे क़िस्म के जागीरदारों की लूट और डकैती को किसी राष्ट्र पर आक्रमण नहीं कहा जाता। 

गुलामवंशी रियासतदार कभी भी भारत के शासक नहीं थे

1206 से 1290 तक दिल्ली रियासत की गद्दी पर जिन दस गुलामों ने कब्जा जमाये रखा, उन्हें भी भारत का शासक बताना शासन और भारत दोनों के ही विषय में घोर अज्ञान है। वह अवधि किसी चक्रवर्ती सम्राट की नहीं थी। यद्यपि एक अर्थ में ठीक उसी समय भारत में अनेक बड़े-बड़े सम्राट थे जिनके सामने इन गुलाम जागीरदारों की कोई भी हैसियत नहीं थी।

महान हिन्दू राज्यों की व्याप्ति: पाल और पाण्ड्य साम्राज्य

बंगाल में महान पाल वंश था, जिसका शासन बंगाल से कश्मीर तक और हिमालय से नर्मदा तक था। जावा के शैलेन्द्र वंश से भी इस साम्राज्य के दूत सम्बन्ध थे और शैलेन्द्र वंशी सम्राट ने नालन्दा में एक बौद्ध बिहार की स्थापना भी 9वीं शताब्दी ईस्वी में सम्राट देवपाल की अनुमति से की थी" पाल वंश का शासन 12वीं शताब्दी तक उत्तरी भारत के बड़े हिस्से में बना रहा। इसी प्रकार पाण्ड्यों का शासन 16वीं शताब्दी तक दक्षिणी भारत के बड़े हिस्से में रहा। केप कामोरिन तथा कारोमण्डल तट से त्रावणकोर तक इनका शासन लगभग 1600 वर्षों रहा, जो बीच-बीच में घटता-बढ़ता रहा।" ऐसे विशाल राज्य के स्वामी को स्मरण न कर दिल्ली के जागीरदारों को ही भारत का शासक बताना किस मानसिकता का द्योतक है, यह स्पष्ट है।

चोल और केरल साम्राज्य

दक्षिण भारत के चोल और चेर या केरल साम्राज्य भी आकार में बहुत बड़े थे और वैभव में अतुलनीय थे। दसवीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक चोलों ने विशाल क्षेत्र में राज्य किया और चोल प्रशासन अत्यधिक व्यवस्थित और संगठित था तथा ग्राम पंचायत प्रणाली पर आधारित था। चोल मण्डलम् के प्रशासन पर विस्तृत अध्ययन हुए हैं। चोल वास्तु, शिल्प, मूर्तिकला आदि भी इतिहास के सुविदित तथ्य हैं। मदुरई, रामेश्वरम्, श्रीरंगम, तंजौर, कुंभकोणम् आदि के विशाल मन्दिर चोलों द्वारा दसवीं से तेरहवीं शताब्दी ईस्वी में ही बनवाये गये 14वीं शताब्दी में जब चोल साम्राज्य का यह रूप बदला, तब भी उसका बड़ा अंश विजयनगर साम्राज्य के रूप में हिन्दू शासन का ही क्षेत्र बना रहा।"

चालुक्यों का साम्राज्य विस्तार

चालुक्य सम्राट भी 12वीं शताब्दी ईस्वी तक भारत के बहुत बड़े हिस्से के स्वामी रहे। पुलकेशिन प्रथम ने छठी शताब्दी ईस्वी में चालुक्य साम्राज्य की स्थापना की थी और अश्वमेध यज्ञ भी किये थे। पुलकेशिन द्वितीय, विक्रमादित्य प्रथम, विक्रमादित्य द्वितीय कीर्तिवर्मा प्रथम, कीर्तिवर्मा द्वितीय और विजयादित्य जैसे प्रतापी चालुक्य राजा जिस वंश ने दिये", उस वंश को भारत के महान शासकों में न गिनकर जिनकी रति केवल गुलाम वंश में है, उनके संस्कार और चित्त को समझना बहुत आसान है। चालुक्यों से देवगिरि के यादवों ने ही शासन प्राप्त किया था, न कि किन्हीं मुसलमानों ने इस प्रकार हिन्दू साम्राज्य की निरन्तरता उस पूरे क्षेत्र में बनी रही थी।

वैभवशाली यादव

देवगिरि के यादवों ने 12वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक वैभवशाली साम्राज्य चलाया।" गुजरात और कर्नाटक के बहुत बड़े क्षेत्र में उनका शासन रहा। 13वीं शताब्दी ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी ने इस साम्राज्य के वैभव से ललचाकर इस पर आक्रमण अवश्य किया था। परन्तु यह आक्रमण उसे बहुत महँगा पड़ा।

उसके पूर्व अलाउद्दीन ने गुजरात के महान हिन्दू सम्राट राजा कर्णदेव पर आक्रमण किया था और उनकी श्रेष्ठ और परम सुन्दरी कन्या को छीनने का प्रयास किया था, जिससे वह कन्या भागकर यादव महाराज रामचन्द्र देव की शरण में जा पहुँची थी, जिसका बहाना बनाकर खिलजी ने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया था और गुजरात की बहुत बड़ी हिन्दू सेना भी उसके साथ थी, क्योंकि नरेश की पराजय के बाद वह सेना उसके नियंत्रण में आ गयी थी।" हिन्दू सेना के बल पर ही अलाउद्दीन यादव नरेश पर विजय पाने में 14वीं शताब्दी ईस्वी में सफल रहा, परन्तु इस युद्ध से वह इतना टूट गया कि लौटने के तत्काल बाद वह अत्यधिक अस्वस्थ हो गया और चार वर्षों तक बुरी तरह बीमार रहकर, शारीरिक रोगों और मनोरोगों दोनों के साथ 02 जनवरी, 1316 ईस्वी को वह मर गया ।" उसकी बुद्धि यादव सम्राट से युद्ध के समय से ही नष्ट हो गयी थी और उसका गुलाम, जिससे उसके यौनाचार के सम्बन्ध थे काफूर ही सेनापति बनकर इसके बाद युद्ध लड़ता रहा था। अलाउद्दीन - खिलजी को इस युद्ध के बाद से अपनी बीवियों और लड़कों पर भरोसा नहीं रहा। निर्णय लेने की उसकी क्षमता नष्ट हो गयी। इस प्रकार यादव नरेश से टकराना बहुत महँगा पड़ा।

प्रचार सामग्री अलग है, इतिहास अलग

इतने महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक महत्त्व के तथ्यों की उपेक्षा कर केवल पाँच वर्ष के लिए भारत के शहरी क्षेत्रों से नजराना और भेंट वसूलने की हैसियत में आ जाने को सम्पूर्ण भारत का शासक बताना ऐतिहासिक बुद्धि के अभाव का सूचक है। हाँ, वह एक प्रकार की राजभक्ति का लक्षण अवश्य है। ऐसा लगता है कि इस तरह का इतिहास लिखने वाले कलमकार किन्हीं शासकों को प्रसन्न करने के लिए प्रचार सामग्री लिख रहे हैं और प्रामाणिक तथ्यों की उपेक्षा कर रहे हैं।

अवध की सचाई

जहाँ तक अवध क्षेत्र की बात है, गोरी के समय भारत में आये उसके कुछ सहायकों ने बहुत धीरे-धीरे अवध के इलाके में जमीनें खरीदी और बसते गये तथा थोड़ी संख्या बढ़ने पर एक इलाके के जागीरदार बन गये। बाद में दिल्ली के सुल्तानों की सेवा का वचन देकर उन्होंने उनसे कुछ मदद हासिल की और जौनपुर के हिन्दू राज्य को जीतने में सफलता पाई। अकबर के समय ही वस्तुतः अवध पर स्पष्ट मुस्लिम शासन माना जा सकता है। परन्तु अवध का यह शासन अनेक हिन्दू जागीरदारों और रियासतदारों की मदद से ही चलता रहा और इसीलिए हिन्दुओं ने कभी भी उसे नितान्त पराया नहीं माना। स्वयं अयोध्या में निरन्तर हिन्दू राजा राज्य करते रहे। अवध को अपना मानने के कारण ही जब अवध के नबाव के साथ ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अफसरों ने गद्दारी की और उनकी सेना को भंग करने को कानूनी छल-कपट की आड़ लेकर विवश कर दिया, तो उस सेना के हज़ारों ब्राह्मण-क्षत्रिय तथा यादव सिपाही कुपित हो गये और सम्पूर्ण अवध में कम्पनी को पीटने की तैयारी होने लगी। अवध के इन्हीं किसान परिवारों की बड़ी संख्या तथाकथित रॉयल बेंगाल आर्मी में थी, जो वस्तुतः ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा खड़ी की गई एक सुरक्षा एजेन्सी ही शुरू में बतायी गयी थी और बाद में अचानक कम्पनी ने उसे सेना कहना शुरू कर दिया। इस तथाकथित रॉयल बेंगाल आर्मी में सबसे ज्यादा ब्राह्मण सैनिक ही थे और 1857 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दण्डित करने के लिए जो अभियान प्रारम्भ हुआ, उसमें इन्हीं सैनिकों की अग्रणी भूमिका थी।

महान सम्राट गांगेय देव विक्रमादित्य

महान कलचुरि नरेश सम्राट गांगेय देव विक्रमादित्य 11वीं शताब्दी ईस्वी के एक महान सम्राट थे वे जितने बड़े साम्राज्य के स्वामी थे, उतने बड़े तो दिल्ली के कोई भी सुल्तान अधिकांश समय हो ही नहीं पाये। केवल कुछ वर्षों के लिए अवश्य इन सुल्तानों का राज्य महाराज गांगेय देव के राज्य के आकार से थोड़ा बड़ा रहा। महाराज गांगेय देव 11वीं शताब्दी ईस्वी में उत्तरी भारत के सर्वशक्तिमान सार्वभौम सम्राट थे और उनसे टकराने की हिम्मत महमूद गजनी ने एक दिन भी नहीं की थी। यद्यपि महमूद गजनी 1030 ईस्वी तक खुद को गजनी का सुल्तान बताता। रहा और महाराज गांगेय देव 1015 से 1040 ईस्वी तक उत्तरी भारत के एक प्रतापी सम्राट बने रहे।

तथ्य यह है कि गजनी और गोरी दोनों ही संधि देखकर सुरक्षित राष्ट्रों से आगे बढ़ते थे और उन्होंने कभी भी रास्ते के सभी सम्राटों से टकराने का साहस नहीं किया, बल्कि लूट की अपनी रणनीति पर ही उनका चित्त एकाग्र रहा। मुहम्मद गोरी को उसके चाटुकार दिल्ली सल्तनत का संस्थापक बताते हैं, परन्तु सत्य यह है कि लूट के बाद हर बार वह अपनी राजधानी वापस लौट जाता था और दिल्ली की जागीर उसके कुछ प्रतिनिधि सँभालते रहते थे।

महाराज भीमदेव ने मार भगाया था गोरी को

यह तथ्य आसानी से भुला दिया जाता है कि 1137 ईस्वी से उसने भारत में लूटपाट शुरू की थी और 40 साल बाद भी उसकी कुल हैसियत यह थी कि 1178 ईस्वी में गुजरात के महान चालुक्य सम्राट भीमदेव द्वितीय ने उसे बुरी तरह मार भगाया " बाद में उसने पंजाब के एक छोटे-से जागीरदार, अपनी ही बिरादरी के खुसरो मलिक को लूटकर उससे जो धन पाया, उसका इस्तेमाल लूट की ताकत बढ़ाने में किया और धीरे-धीरे दुबारा बलवान हो गया। यह खुसरो मलिक महमूद गजनवी का प्रतिनिधि था और इसकी लूट के बाद ही गजनवी वंश का अन्त माना जाता है, जिससे स्पष्ट है कि गजनवी वंश की भारत में वास्तविक हैसियत क्या थी ?

महाराजा पृथ्वीराज से भी पिटकर भागा था गोरी

1178 ईस्वी में महाराज भीमदेव द्वितीय द्वारा मार भगाये जाने के बाद 14वें वर्ष में 1191 ईस्वी में उसने दिल्ली पर चढ़ाई की कोशिश की, जहाँ से महाराज पृथ्वीराज ने उसे बुरी तरह मार भगाया और युद्ध क्षेत्र से भागकर उसने अपने प्राण बचाये" इतिहास-लेखक को तो शान्त-चित्त से तथ्य प्रस्तुत करना चाहिए। गोरी की जीत की चर्चा उत्साह से करने वाले उसकी पिटाई, हार और पलायन की भी चर्चा वैसे ही उत्साह में करें, तभी वे सचमुच इतिहासकार कहे जा सकेंगे। खुद को हिन्दू मानकर हिन्दुओं की तनिक सी पराजय से दुःखी होकर हताश हो जाना या फिर हिन्दुत्व से विद्वेष रखकर केवल उसकी।

बाद में 1192 ईस्वी की लड़ाई में उसने महाराज पृथ्वीराज को पराजित करने में तात्कालिक सफलता अवश्य पा ली, परन्तु इसके बाद वह सीधे अपने राज्य को लौट गया।" दिल्ली पर उसका अधिकार 1192 ईस्वी में भी नहीं हो पाया था ।" वह तो अगले वर्ष उसके एक गुलाम ने दिल्ली की जागीर पर छल-बल से कब्जा किया, जिसका नाम कुतुबुद्दीन ऐबक है। इस प्रकार दिल्ली पर तो मुहम्मद गोरी का शासन उन वर्षों में कभी हुआ ही नहीं।

कुल तीन वर्ष दिल्ली जागीर पर रहा गोरी का प्रतिनिधि

1193 ईस्वी के बाद 10 वर्षों तक गोरी लगातार गजनी के इलाके में ही युद्धरत रहा और 1203 ईस्वी में किसी तरह वह 3 वर्ष के लिए दिल्ली का जागीरदार बन पाया ।" उस अवधि में भी वह दिल्ली में तो कभी रहा ही नहीं और इस प्रकार तथ्यतः वह दिल्ली की गद्दी पर कभी नहीं बैठा 1206 ईस्वी में जब वह लाहौर से गजनी जा रहा था, उस समय पंजाब के खोखरों ने छुरा मारकर उसका वध कर डाला। 

दस्यु के सिवाय बाबर - हुमायूँ की कोई हैसियत नहीं भारतीय इतिहास में

जहाँ तक मुगल राजवंश की बात है, बाबर और हुमायूँ वस्तुतः भारत में शासन कर नहीं पाये। कुल 4 वर्ष के लिए बाबर ने एक इलाके में अधिकार किया और लड़ते-लड़ते ही मर गया।" हुमायूँ तो 26 वर्षों में से 15 वर्ष भारत से बाहर ही भागा-भागा फिरता रहा और वस्तुतः कुछ महीनों के लिए ही वह भारत के छोटे से हिस्से में शासक हो पाया। 

अकबर से शुरू है भारत की मुगलिया जागीर

अकबर ने अवश्य दीर्घकाल तक भारत के बड़े हिस्से में कब्जा जमाने में सफलता पाई, परन्तु इसके लिए तत्कालीन राजपूतों पर उसकी निर्भरता सर्वविदित है और केवल इस्लाम के बल पर अकबर एक दिन को भी सफल नहीं हो सकता था। हिन्दुओं के ऐसे विराट समर्थन को पाकर भी और मुख्यतः हिन्दू शक्ति पर निर्भर होकर भी तथा स्वयं बाद में मुस्लिम मतान्धता से मुक्त होने की इच्छा रखते हुए भी अकबर के शासन में हिन्दुओं के विरुद्ध लगातार मजहबी प्रचार चलते रहे और हिन्दुओं के विरुद्ध तथा मुसलमानों के पक्ष में सरकारी खजाने का बहुत बड़ा धन लगातार लगाया जाता रहा। यद्यपि यह भी उतना ही सत्य है कि अकबर के समय हिन्दुओं का सबसे कम दमन हुआ। जजिया हटा, गोवध रुका, मन्दिरों के निर्माण से प्रतिबन्ध हटा और पुराने मन्दिरों के पुनरुद्धार पर से प्रतिबन्ध हटा। क्योंकि अकबर पूर्णत: हिन्दू सेनानियों पर निर्भर था।

हिन्दुओं पर निर्भर अकबर की इस्लामी मतान्धता क्या दर्शाती है?

इससे केवल यह पता चलता है कि इस्लाम में अभी तक ऐसी कोई धारा के सूत्र स्पष्ट नहीं हो सके हैं कि जिनके आधार पर वह ग़ैर-मुसलमानों के प्रति आत्मीयता, प्रेम और बराबरी का कोई व्यवहार सिखा सकती हो। ऐसी कोई भी अधिकृत धारा आज तक इस्लाम में उभरी देखी नहीं गई है। अतः जाग्रत हिन्दुओं को इस्लाम के इस पक्ष की उपेक्षा कभी भी नहीं करनी चाहिए। उपेक्षा करने पर वह प्रज्ञापराध कहलायेगा। हिन्दुओं पर निर्भर अकबर के समय हिन्दुत्व के प्रति मुस्लिम मतान्धता की अत्याचारी मार कुछ कम तो हुई, पर जारी रही इस्लामी मतान्धता का दबाव उसे घेरे रहा।

शेष मुग़लों में था हिन्दू रक्त

जहाँ तक जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब के शासन की बात है, लगभग 100 वर्षों तक (1606 ईस्वी से 1707 ईस्वी तक ) चले इस शासन में राज्यकर्ता के शरीर में हिन्दू रक्त बह रहा था, फिर भी उनके शासन में उदारता नहीं देखी गयी। इससे इस्लाम के द्वारा दी जाने वाली प्रेरणाओं के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। इनमें से किसी ने भी हिन्दुओं और मुसलमानों को अपनी प्रजा समान रूप से मानने का कोई भी व्यवहार नहीं किया। यह एक गम्भीर चिन्तन का विषय है। रक्त से आधे हिन्दू, पर आचरण में कट्टर मुसलमान ही रहे ये तीनों यह है मजहब का प्रचण्ड दबाव। हिन्दुओं को सोचना चाहिए कि वे भी राज्यकर्त्ताओं पर दबाव बनाये रखने का तंत्र कैसे रखें।

अकबर की मृत्यु के समय हिन्दुओं के सहयोग से चल रहा राज्य काबुल से प्रयाग, पटना होते हुए बंगाल तक तथा काश्मीर से सौराष्ट्र, खानदेश और बरार तक था। इसमें भी राजपूतों, बंगीय हिन्दुओं तथा मध्यप्रदेश के हिन्दू नरेशों की राज्य में हिस्सेदारी थी। सम्पूर्ण गोंडवाना अर्थात् महाकौशल और छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार का बहुत बड़ा हिस्सा, गुजरात का अधिकांश हिस्सा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र, तमिलनाडु और केरल उस शासन के अधीन एक दिन को भी नहीं था। यह पूरा क्षेत्र मिलाकर आधे से थोड़ा ही कम भारत है। इस प्रकार अकबर का शासन आधे से थोड़े ही अधिक भारत में था और वह शासन किसी भी अर्थ में केवल मुसलमानों का शासन नहीं था। उस समय सम्पूर्ण राजपूताने में राजपूतों का राज्य था, जो अकबर को भेंट और नजराने देते थे। यही स्थिति बंगाल के हिन्दू शासकों की थी और मालवा के हिन्दू शासकों की भी।

यह जितना मुसलमानों का राज्य था, उतना ही हिन्दुओं का भी। यद्यपि शासन मुसलमानों के प्रति पक्षपात से वैसा ही भरा था, जैसा कि विगत 63 वर्षों से भारतीय राज्य है। इस्लाम को पूरा राजकीय संरक्षण, हिन्दुत्व को कोई भी अधिकृत राजकीय संरक्षण नहीं। विधिक रूप से आज भी यही स्थिति है। इस दृष्टि से नेहरू जी आदि अकबर की ही परम्परा के उत्तराधिकारी दिखने लगते हैं। ऐसा शासन सदा ही मजहबी उग्रवाद को अनजाने ही प्रेरिता करता है।

मज़हबी उग्रवाद का पुनः उभार

अकबर की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने जहाँगीर और शाहजहाँ के राज्य में इस्लाम के उग्रवादी स्वरूप ने फिर से अपना रंग दिखाना शुरू किया। जहाँगीर ने कांगड़ा पर चढ़ाई की, अफ़गानों से भी उसका टकराव हुआ और मेवाड़ के राणा अमरसिंह से भी उसका प्रचण्ड युद्ध हुआ, परन्तु शीघ्र ही वह विलासिता में डूबता चला गया po

हिन्दू हृदय सम्राट छत्रपति शिवाजी

शाहजहाँ का शासन वस्तुतः मुस्लिम आधिपत्य वाले इलाकों में किसी भी प्रकार की वृद्धि नहीं कर पाया। इसी समय हिन्दू हृदय सम्राट महानतम वीरों में से एक छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के उत्कर्ष ने मुग़ल आकांक्षाओं को तोड़कर रख दिया। वस्तुतः श्री शिवाजी महाराज के पिताजी विजयनगर साम्राज्य के एक महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी थे और राजनीति तथा सैन्य नीति के जानकार थे।" उनकी माँ जीजाबाई एक परम तेजस्विनी धर्मनिष्ठ हिन्दू स्त्री थीं। साथ ही महाराष्ट्र में एक परम तेजस्वी धर्माचार्य समर्थ गुरु श्री स्वामी रामदास का आध्यात्मिक सूर्य चमक रहा था। इन सबके प्रभामण्डल ने और इन सबकी शिक्षा और दीक्षा ने पूर्वजन्म के श्रेष्ठ संस्कारों को लेकर उत्पन्न छत्रपति शिवाजी महाराज के तेजस् को निखारा और उन्होंने अद्वितीय राजनैतिक तथा कूटनैतिक और रणनैतिक बुद्धि कौशल, सैन्य तैयारी और सैन्य आक्रमण की दक्षता का परिचय देते हुए मुग़ल साम्राज्य को खोखला कर डाला ( छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर न्यायोचित विचार एक स्वतंत्र पुस्तक में ही सम्भव है। यहाँ केवल प्रासंगिक चर्चा ही की जा सकती है।

प्रारम्भ से ही उन्होंने पूरी रणनैतिक कुशलता से कार्य किया और रायगढ़, पुरन्दर, सिंहगढ़, चाकन आदि के दुर्गों को नियंत्रण में ले लिया। बाद में जावली पर आधिपत्य किया और 1659 ईस्वी में अत्यधिक कुशलता से मुस्लिम सेनानायक अफजल खाँ की छाती बघनखे से फाड़ डाली और इसके बाद बीजापुर के सुल्तान की सेनाओं को पराजित कर अपनी शक्ति का विस्तार किया "

औरंगजेब के मामा शाइस्ता खाँ ने जब शिवाजी को घेरा तो शिवाजी ने पूरे कौशल से रात्रि में अचानक उसे दबोच लिया किसी तरह भागकर और अपने एक बेटे को गंवाकर तथा अपनी तीन अँगुलियाँ खोकर शाइस्ता खाँ ने अपनी जान बचायी" औरंगजेब ने धूर्ततापूर्वक जयपुर के महाराजा जयसिंह को उनसे युद्ध करने भेजा, जिनके कारण छत्रपति महाराज श्री शिवाजी को 1665 ईस्वी में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी जयसिंह ने शिवाजी को जो वचन दिया था, औरंगजेब ने वचनभंगी बनकर उसे भंग कर दिया और शिवाजी को नजरबन्द बना लिया" बड़ी कुशलता से शिवाजी उस झूठे व्यक्ति के महल से भागने में सफल हुए और तब उन्होंने औरंगजेब के विरुद्ध प्रचण्ड अभियान प्रारम्भ किया डरकर औरंगजेब ने उन्हें राजा की उपाधि प्रदान की तथा दोनों के बीच दो वर्षों तक संधि रही," परन्तु बाद में फिर मुसलमानों ने इस संधि को भंग किया जिससे पुन: शिवाजी को उन्हें कुचलना पड़ा 1674 ईस्वी में रायगढ़ के दुर्ग में छत्रपति श्री शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ और उन्होंने हिन्दवी स्वराज की स्थापना का विराट अभियान छेड़ दिया "

वीर महाराजा छत्रसाल का शौर्य

वीर बुन्देला नरेश महाराज छत्रसाल ने भी पहले शिवाजी के विरुद्ध औरंगजेब का साथ दिया महाराज छत्रसाल या महाराज जयसिंह की हिन्दुत्व-निष्ठा एवं देशप्रेम व धर्मनिष्ठा असंदिग्ध है। फिर भी, एक कुछ समय तक दूसरा पूरे समय औरंगजेब के साथ रहा। इससे प्रमाणित है कि यह कभी भी खुला हिन्दू-मुस्लिम युद्ध नहीं था। कम्युनिस्ट मतवाद के प्रभाव से इसे दो स्पष्ट विरोधी वर्गों के युद्ध की तरह न देखकर समग्रता से समझना चाहिए। मुसलमानों की और इस्लाम की हिन्दुओं से खुले युद्ध की हिम्मत 1946 ईस्वी से पूर्व कभी भी नहीं पड़ी। अंग्रेजों और कांग्रेस के संरक्षण में ही वे यह कर सके। अतः हिन्दुओं को अपनी शक्ति और वीरता का गौरवपूर्ण स्मरण सदा रखना चाहिए। हिन्दुओं को मजहबी उग्रवाद से डरने का कोई कारण नहीं। उससे निपटने के उपाय ही विचार योग्य हैं। हिन्दू एक वीर जाति हैं।

महाराजा छत्रसाल को जब औरंगजेब का घिनौना हिन्दुत्व-विरोधी रूप दिख गया तो उन्होंने खुलकर छत्रपति महाराज शिवाजी का साथ दिया। 1665 से 1671 ईस्वी के बीच उन्होंने पूर्वी मालवा में हिन्दू राज्य स्थापित कर दिया। पना उनकी राजधानी थी। 60 वर्षों तक उन्होंने वैभवशाली हिन्दू राज्य चलाया। 1731 ईस्वी में वे परलोक सिधारे छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के पचास वर्ष बाद तक उन्होंने अपना हिन्दू राज्य जीवन्त और वैभवमय रखा। कहा गया है- "छत्ता तेरे राज में। दिप-दिप धरती होय ॥ अर्थात् महाराज छत्रसाल ! आपके राज्य में धरती हीरे सी दमकती है। यह भी कि "इत चम्बल, उत बेतवा, इत नर्मदा, उत टोंक। छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस॥" महाराज छत्रसाल अजेय योद्धा थे। 60 वर्ष तक उनकी ओर मुग़लों में आँख उठाने की हिम्मत नहीं रही औरंगजेब की मृत्यु के 24 वर्षों बाद तक बुन्देलों का राज्य वैभव दीसत रहा । 

शिवाजी की सैन्य शक्ति और राज्य शक्ति का निरन्तर विस्तार

शिवाजी की सैनिक शक्ति और नौसैनिक शक्ति निरन्तर बढ़ रही थी, उनका राज्य महाराष्ट्र से कर्नाटक तक विस्तृत था और उनके समय मराठों की वीरता से मुगलों की चूलें हिल गयी थीं 1680 ईस्वी में मराठों की शक्ति प्रचण्ड थी और मराठा आधिपत्य में वस्तुतः सम्पूर्ण दक्षिणी भारत आ गया था तथा राजपूतों की भी मराठों से संधियाँ थीं स्वयं वारेन हेस्टिंग्स के समय सम्पूर्ण राजपूताना, सम्पूर्ण मध्यप्रदेश, विदर्भ, बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात मराठा प्रभाव में ही थे तथा मैसूर का हिन्दू राज्य भी पूरे वैभव के साथ था?" इस प्रकार वस्तुतः शिवाजी के उत्कर्ष के बाद से भारत के अधिकांश हिस्सों में हिन्दू शासन ही स्थापित माना जाना चाहिए।

जर्जरित हो टूटता गया औरंगजेब

बाद में शिवाजी के न रहने पर शेष 27 वर्षों तक औरंगजेब ने अवश्य अपने राज्य को दक्षिण में भी फैलाने की पूरी कोशिश की परन्तु इसमें सफलता उसे 24 वर्षों के निरन्तर युद्धों के बाद मिली। पहले तो उसने अपने भाइयों का वध किया। 1659 ईस्वी तक तो वह मुख्यतः भ्रातृवध के अभियान में ही लगा रहा था। इसके बाद अगले 48 वर्षों तक उसने अपनी शक्ति को बढ़ाने की लगातार कोशिश की थी। यद्यपि स्वयं उसके पुत्र उसके विरोधी रहे। अपने एक बेटे को उसने 1676 ईस्वी में गुप्त रूप से मरवा डाला। यह शिवाजी की मृत्यु के चार वर्ष पूर्व की घटना है। इससे स्पष्ट है कि औरंगजेब तक कितना असुरक्षित और भयभीत तथा विक्षिप्त-चित्त हो चुका था। औरंगजेब के दूसरे बेटे को भारत छोड़कर भागकर फ़ारस में शरण लेनी पड़ी, जहाँ वह 1704 ईस्वी में मर गया तथा तीसरा बेटा भी बाद में उत्तराधिकार की लड़ाई में मारा गया। कलह, छल-घात, भीतरी दुःख से जर्जर औरंगजेब टूटता चला गया। उसमें आन्तरिक हीनता और हीनता घर करती गई। दरबारी चाटुकार उसकी झूठी डींगें हाँककर ये तथ्य छिपाते हैं।

पहली बार 1661 ईस्वी में औरंगजेब ने काला मऊ को जीता और फिर असम की ओर बढ़ा, जहाँ उसे संधि करनी पड़ी। यह सही है कि संधि में अहोम राजाओं ने उसे सालाना नजराना के रूप में बड़ी रकम देना मंजूर किया, परन्तु असम में शासन तो हिन्दुओं का ही रहा आया। औरंगजेब की प्रसिद्धि मुसलमानों के बीच इसलिए बढ़ी कि उसके दरबार में मक्का के शरीफ तथा अन्यं मुस्लिम देशों के राजदूत मौजूद रहते थे। इस प्रकार औरंगजेब ने खुद को केवल मुस्लिम शासन का प्रतिनिधि खुलकर बना दिया। जबकि हिन्दुओं की मदद लेता रहा। यह कृतघ्नता क्या उसे इस्लाम ने सिखाई ?

राजपूताने में हिन्दुओं का राज्य निरन्तर

राजपूतों से उसकी पहली महत्त्वपूर्ण लड़ाई 1679 ईस्वी में हुई, जिसमें मेवाड़ और मारवाड़ दोनों के राजा मिल गये और अन्त में औरंगजेब को 1681 ईस्वी में उनसे संधि करनी पड़ी। इस प्रकार औरंगजेब के समय भी मेवाड़ और मारवाड़ पर हिन्दू राजपूतों का ही राज्य बना रहा। 1686 ईस्वी में बीजापुर और गोलकुण्डा को औरंगजेब ने जीता और शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी सम्भाजी को पकड़कर औरंगजेब के सेनापतियों ने मार डाला तथा रायगढ़ पर अधिकार कर लिया और सम्भाजी के बेटे को अपने दरबार में लाकर बंदी बनाकर रखा। यह शिवाजी द्वारा मुग़ल साम्राज्य को दी गई करारी हार का बदला लेने की कोशिश थी। 

हिन्दू राज्य ही रहे तंजौर-त्रिचनापल्ली

1691 ईस्वी में औरंगजेब ने तंजौर और त्रिचनापल्ली पर चढ़ाई की, उन राजाओं से भी संधि हुई और वे भी वार्षिक नजराना औरंगजेब को देने लगे, परन्तु तंजौर और त्रिचनापल्ली पर हिन्दू राजाओं का ही राज्य बना रहा। दरबारियों की दृष्टि से औरंगजेब का यशोगान करना वास्तविक इतिहास लेखन नहीं है। जिन क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से हिन्दू शासन रहा और हिन्दू धर्मशास्त्रों तथा राजधर्म की हिन्दू अवधारणाओं के अनुसार शासन चलता रहा, उन क्षेत्रों को भी मुस्लिम कब्जे का क्षेत्र बताना असत्य है और अनुचित है। 

अलवर, पटियाला, मथुरा, मालवा, बुन्देलखण्ड में हिन्दू राज्य

मथुरा और उसके आसपास के सम्पूर्ण इलाके में भी जाटों का ही राज्य बना रहा। बुन्देलखण्ड और मालवा में भी हिन्दुओं के राज्य बने रहे । पटियाला रियासत के एक हिस्से में और अलवर में हिन्दू शासन बहुत दिनों तक रहा।" स्वयं मराठों ने शीघ्र ही अपनी शक्ति वापस प्राप्त कर ली भयंकर पैशाचिक विनाशलीला के बावजूद वह अधिकांश भारत में प्रत्यक्ष मुस्लिम शासन स्थापित नहीं कर सका। हिन्दू राजा साँध कर उसे वार्षिक नजराना देते रहे, जो राजनैतिक बुद्धि मात्र थी। उसे इस्लामी शासन बताना इस्लाम की अहेतुकी भक्ति करना है।

कुपित, क्षुब्ध, उन्मत्त पापाचारी के कारनामे

इन सबसे चिढ़कर औरंगजेब ने 1679 ईस्वी में अपने इलाके के हिन्दुओं पर जजिया थोप दिया तथा सल्तनत के ऊँचे पदों पर हिन्दुओं को नियुक्त करना बन्द कर दिया नये हिन्दू मन्दिर बनाने पर रोक लगा दी। काशी के विश्वनाथ मन्दिर और मथुरा के श्री केशवदेव मन्दिर को तोड़ डाला " मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह के नाबालिग बेटे को अपने कब्जे में लेकर उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की।" हिन्दुओं का हर प्रकार से अपमान करने वाले नियम-कायदे बनाये और मस्जिदों की सीढ़ियों पर हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को बिछवाया, ताकि उन पर मुसलमानों के पैर पड़ें इसलिए फिरंगियों को मौका दिया गया।

ऐसे भयंकर पापपूर्ण और अत्याचारपूर्ण मुस्लिम शासन को देखकर ही तत्कालीन हिन्दू राजाओं और प्रबुद्ध हिन्दुओं ने बहुत बड़ी संख्या में फिरंगियों को बढ़ावा देने की सोची जाग्रत हिन्दुओं को यह पता था कि ये फिरंगी ईसाई मुख्यतः मुसलमानों से लड़ते हुए ही यहाँ तक पहुँचे हैं और इसलिए वे अपनी कूटनैतिक बुद्धि से मुसलमानों के विरुद्ध इन अंग्रेजों को सिपाही भरती करने देने की छूट देते रहे। यह बात अलग है कि फिरंगी गैर-वफादार और विश्वासघाती सेवक निकले, सुरक्षा प्रहरियों की तैनाती की छूट पाकर उन्होंने उन्हें अपनी एक निजी ईसाइयत की सेवा में समर्पित सेना बनाने की कोशिश की, जिसकी सच्चाई जानने पर भारतीय राजाओं ने उन्हें दण्डित करने का प्रयास किया और स्वयं सेना के धर्मनिष्ठ सैनिकों ने भी इन धर्मद्रोही तथा स्वामिद्रोही फिरंगियों को कुचलने का अभियान छेड़ दिया ।

सजग रहे हिन्दू समाज

इस प्रकार मुगल वंश और मुस्लिम शासन के ये कुछ तथ्य केवल यह बतलाते हैं कि इस्लाम के प्रति हिन्दुओं को तब तक सजग रहना होगा, जब तक इस्लाम के भीतर कोई मानवतावादी और समतामूलक धारा नहीं उभरती। ऐसा उभरना असम्भव नहीं है, क्योंकि आखिर मुसलमान भी मनुष्य ही हैं और मुख्यतः तो भारतीय मुसलमान हिन्दू पूर्वजों के ही वंशज है हतारों वर्ष उनमें हिन्दू संस्कार ही रहे। इस्लाम की विविध व्याख्याएँ होती रही है और समय के अनुसार तथा ग़ैर-मुसलमानों की तेजस्विता, निर्भयता और वीरता के सम्मुख आवश्यकता पड़ने पर इस्लाम के भीतर से भी एक समतामूलक और मानवीय आध्यात्मिक व्याख्या से सम्पन्न धारा का विकास होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि प्रबुद्ध विश्व जनमत के समक्ष इस्लाम की भी जवाबदेही है और मुसलमानों को इसी दुनिया में रहना है तथा सबके साथ घुल- मिलकर ही रहना है। सबके विरुद्ध जेहाद छेड़कर वे जीवित नहीं रह सकते, क्योंकि दूसरों के भी धर्म और वंश उन्हें भी सम्मानपूर्ण जीवन की प्रेरणा देते हैं और वीरता में दूसरे समाज भी मुसलमानों से कम नहीं हैं। इसलिए अन्ततः एक सार्वभौम आचरण संहिता के सूत्रों को इस्लाम को भी अपनाना ही पड़ेगा।

हिन्दुओं पर अकारण अत्याचार पाप हैं।

परन्तु इस्लाम के द्वारा हिन्दुत्व पर जो अकारण अत्याचार किये गये हैं, हिन्दुओं के मन्दिरों का धर्म-केन्द्रों का और विद्या-परम्पराओं का अकारण और अनुचित विध्वंस किया गया है और हिन्दुओं के भीतर के दोष दर्शाने और प्रचारित करने में जो अनावश्यक और अवांछित परिश्रम किया गया है, प्रचार में धन लगाया गया है, वह सब अनुचित है। इस्लाम के उग्रवादियों द्वारा किये गये ऐसे प्रयासों से हिन्दू धर्म को पहुंचायी गयी चोट और क्षति से तिलमिलाकर जो लोग स्वयं हिन्दू समाज में नित नये दोषों के अनुसंधान में प्रवृत रहते हैं, उन्हें हिन्दू कुलों में उत्पन्न होने पर भी हिन्दू समाज का सच्चा हितैषी और हिन्दू हित के लिए समर्पित व्यक्ति मान पाना बहुत कठिन लगता है। ऐसा लगता है कि इन लोगों की नीयत हिन्दू धर्म को स्वस्थ, तेजस्वी और वीर बनाने की ही है, परन्तु किसी समाज को धिक्कारने, उसके मनोबल को तोड़ने और लगातार शत्रु की सफलताओं का अतिरंजित प्रचार करने से वह लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा।

मज़हबी उग्रवाद को समझें : राक्षसी उन्माद की जड़ों को जानें

अतः देश और संस्कृति की रक्षा के लिए ध्यान इस्लाम मजहब की आड़ में पनपे उन दोषों की ओर देना चाहिए, जो अधिकांश अनुयायियों को असहिष्णु, पापिष्ठ, पक्षपाती भेदभावपूर्ण, धर्मद्रोही और मन्दिर तथा पूजास्थलों एवं मूर्तियों का उन्मत्त विध्वंसक बनाता है। इस राक्षसी उन्माद की जड़ों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, न कि हिन्दू समाज की निन्दा पर।

प्रणम्य है हिन्दू वीरता, अभिनन्दनीय है हिन्दू धैर्य

ऐसे बर्बर, नृशंस और राक्षसी उन्माद के सम्मुख भी जो हिन्दुत्व टिक गया, उसकी वीरता प्रणम्य है, उसका धैर्य अभिनन्दनीय है, उसकी विद्या अनुकरणीय है, उसका शील वंदनीय है और उसका इतिहास गौरव योग्य है। धन्य है और स्तुत्य है महान हिन्दू समाज और उसकी विश्व में अप्रतिम वीरता । धिक्कार है उन्हें जो इस्लाम के नाम पर होने वाले राक्षसी उन्माद को न धिक्कार कर उससे पीड़ित होने वाले समाज के दोषों के अनुसंधान में रति रखते हैं। मानो इस्लाम या ईसाइयत के अनुयायी समाजों में दोष नहीं है या मानो उनके तो दोष भी वंदनीय हैं और केवल हिन्दुओं के दोषों का अतिरंजित गान ही करणीय है।

भारत के किस क्षेत्र में कितनी अवधि तक मुस्लिम शासन रहा है और हिन्दू शासन के समक्ष उसकी आनुपातिक अथवा कालिक स्थिति क्या है, इसकी एक संक्षिप्त सूची 'परिशिष्ट-1' में दी जा रही है, जो पुस्तक के अन्त में द्रष्टव्य है।

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कैसा था तत्कालीन इंग्लैंड

प्रचार किया जाता है कि मुसलमानों के बाद अंग्रेज भारत के शासक बने । इस प्रकार भारत की पराधीनता कायम रही। परन्तु यह सत्य नहीं है। एक तो पूरे भारत में एक भी दिन मुस्लिम सत्ता नहीं रही। दूसरे, जब अंग्रेज नागरिक आए पहली बार, तब तक भारत के बड़े हिस्से पर मराठों का शासन था, मुसलमानों का नहीं। ब्रिटेन के अंग्रेज़ व्यापारियों के सेवक और एजेंट के रूप में अंग्रेज यहाँ हाथ जोड़ते हुए अपने इंग्लिश मालिकों के लिए व्यापार करने आए थे। वे कोई भारत पर आक्रमण करने नहीं आए थे। उनकी यह हैसियत ही नहीं थी कभी भी।

भारतीयों के भीतर अकारण या सकारण आत्मग्लानि, आत्मदैन्य, हीनता और हताशा भरने का जिन्हें रोग की हद तक नशा है, ऐसे आधुनिक भारतीय शिक्षितों का एक प्रभावशाली वर्ग बन चुका है। परन्तु दुःखद यह है कि इन्हें न तो भारत के विषय में कुछ ज़्यादा ज्ञान है, न ईसाइयत और इस्लाम के विषय में और न ही उस इंग्लैंड के विषय में, जिसके वे आज तक बिन-खरीदे गुलाम हैं और जिसकी तुलना में भारत की निन्दा करते वे अघाते नहीं हैं। यहाँ इंग्लैंड का अति संक्षिप्त इतिहास बताते हुए तत्कालीन इंग्लैंड की दशा की जानकारी पाठकों को देना आवश्यक लग रहा है।

मोटे तौर पर भौगोलिक दृष्टि से इंग्लैंड के दो भाग हैं- (1) हाईलैंड और (2) लो लैंड उत्तर एवं पश्चिम का प्राचीन पर्वतीय इलाका 'हाईलैंड' है। तराई और मैदान वाला शेष भाग 'लो लैंड' है। बीच का हिस्सा 'मिडलैंड' कहलाता है। हाईलैंड अधिक नम और ठंडा है जिनमें से झीलों वाला उत्तर पश्चिमी इलाका सबसे नम है। पहाड़ों और झीलों से पटा हुआ। यहाँ की सबसे ऊँची चोटी है 3210 फुट ऊँची स्केफेल जो सरगमाथा का नवमांश और नंदादेवी शिखर का अष्टमांश है। भारत में इतनी ऊँची तो विंध्य क्षेत्र की कई पहाड़ियां हैं। इस जिले के पश्चिम में कोयला खदानें हैं और ईटन घाटी में चूना पत्थर और बलुआ पत्थर की खदानें हैं। हाईलैंड के दक्षिण में जो मिडलैंड है, वह निचला पठारी क्षेत्र है जहाँ अब कृषि पशुपालन और खेती होती है।

भेड़ों और खेतिहर जानवरों का पालन तथा छोटे-छोटे व्यापार ही वहाँ शताब्दियों तक मुख्य धंधे रहे हैं। खेतिहर मजदूरों और दासों की ही आबादी इंग्लैंड में सबसे अधिक थी और मुख्य व्यवसाय खेती ही था। उत्तर पूर्व, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम समुद्री चैनल और समुद्र से घिरे इंग्लैंड के केवल उत्तर में स्कॉटलैंड की भूमि है। टिन, चीनी मिट्टी, कोयला, लौह अयस्क, बलुआ पत्थर, चूना पत्थर इसके मुख्य खनिज हैं। खेती और पशुपालन ही मुख्य व्यवसाय रहा है। यार्क, डर्बी, नटिंघम आदि कोयला क्षेत्र यहाँ रहे हैं। उन्नीसवीं शती ईस्वी के आरंभ तक गेहूं और जौ उगाना, फल उगाना, मछली पालन तथा भेड़ पालन इंग्लैंड के व्यवसाय थे। भारत विशेषतः बंगाल के कुछ इलाकों से राजस्व की लूट से मिली संपदा ने इंग्लैंड को ज्ञात इतिहास में पहली बार धनी बनाया। उसके पहले तक वह शताब्दियों तक भूखों, कंगालों, अनाथों और दस्यु दलों का क्षेत्र रहा है।

यह सर्वविदित है कि इंग्लैंड का मूल समाज विविध जातियों और नस्लों का मिश्रण है। कृति, मीनी, मीसीनी, आयोनियन, डेन, केल्त, नार्वेजियन, रोमन, वेल्स, पोर्तुगीज, स्काट, फिन, फ्रैंक, नॉर्मन, फ्लेमिंग, हूजनॉट, आइरिश, जर्मन, गॉल, एंगल्स, सेक्सन, मगयार, वाइकिंग, सार्सेन, चील्डियन, ब्रिटन, स्कैंडिनेवियाई, बरो, जूट आदि नस्लें वहाँ मिश्रित रूप में हैं। इधर कुछ अफ्रीकी और भारतीय लोग भी वहाँ रहने लगे हैं। मूल के प्रारम्भ में यह तरह दलदली और जंगलों से भरा इलाका था। तब इसका नाम इंग्लैंड या ब्रिटेन नहीं था। यहाँ उत्तरी इलाकों से (तब उस पूरे क्षेत्र का नाम यूरोप भी नहीं था, जिसे आज यूरोप कहा जाता है।) छिटपुट शिकारी समूह आते, चले जाते। जंगलों के बीच खदानों में टिन और सोना तथा सागर तट पर मोती मिलते थे, जिससे उत्तरी सौदागर या व्यापारी और लुटेरे ( वहाँ शताब्दियों तक दोनों एक ही रहे हैं) वहाँ आते, माल लेकर चले जाते। कुछ धीरे-धीरे बसने लगे। ज्यादातर इलाकों में अधिकांश समय वर्षा होती या बादल छाए रहते। मछुआरों और बहेलियों के झुण्ड जहाँ-तहाँ बसते-उजड़ते रहे। चकमक पत्थर और खड़िया की खदानें कई जगह मिलीं, जिनका उपयोग ये समूह करने लगे। हिरण की सींग और मरे हुए जानवरों की हड्डियों से खुदाई की जाती। ईसापूर्व 2000 में वहाँ ताँबे का चलन बढ़ा, ईसापूर्व 1000 में लोहे का भी प्रयोग होने लगा। यह बताने का प्रयोजन हैं, उन दिनों वहाँ कोई भी सभ्यता नहीं थी, जबकि यह वह समय है, जब भारत में महान साम्राज्य थे- नंदों, मौयों, मल्लों, वत्सों, पांचालों, शौरसेनों, कुरुओं, मत्स्यों आदि के। महाभारत तो उससे 2000 वर्ष पूर्व हो चुका था। उन दिनों भारत के एक- एक महाजनपद की आबादी एक करोड़ से ऊपर थी। उन्हीं दिनों इंग्लैंड की कुल आबादी कुछ हजार थी। भारत में 20 से अधिक महाजनपद उन दिनों, जो सम्पूर्ण इंग्लैंड से जनसंख्या में पाँच हजार गुना बड़े थे। सम्पूर्ण भारत की आबादी तत्कालीन इंग्लैंड से एक लाख गुनी ज्यादा थी। यह स्मरण रहे तो ज्ञात होगा कि इंग्लैंड की हैसियत भारत पर शासन की कभी भी क्यों नहीं। जिस दिन इंग्लैंड का भारत पर शासन होता, उस दिन भारत में एक भी हिन्दू नहीं बचा रहता। सब ईसाई बना डाले जाते, जैसे स्वयं इंग्लैंड में किया गया था।

उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण ग्रेट ब्रिटेन का कुल क्षेत्रफल मध्यप्रदेश से थोड़ा कम है। उसकी वर्तमान में जनसंख्या भी लगभग उतनी ही है जितनी वर्तमान मध्यप्रदेश की है। परन्तु ईसा से 1000 वर्ष पूर्व उस पूरे इलाके की कुल आबादी केवल हजारों में थी।

उन दिनों शताब्दियों तक इंग्लैंड में यह दृश्य था कि सुअरों के झुण्ड हज़ारों की संख्या में उत्तर में फैले बाँज के जंगलों से घुस आते थे। सुअर पालन इंग्लैंड में तब से आज तक, दो हजार से अधिक वर्षों से मुख्य व्यवसाय है। साथ ही गाय, बैल, घोड़े और भेड़ें भी वहाँ भारी संख्या में उत्तर से आ घुसते थे। ये ही वहाँ शताब्दियों तक जीविका, व्यापार, वाहन एवं संचार के साधन रहे। घोड़े युद्ध आते थे, परन्तु घोड़ों की जानकारी इंग्लैंड वालों को बहुत बाद में हुई । अभी तक जो तथ्य मिले हैं, उनसे यही ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम भारत से गये पणियों (फिनों) ने इंग्लैंड में सौ-सौ के समूहों की कुछ बस्तियाँ बसाय। फिर भारतीय मूल के ही दह्यु और सूर्योपासक केल्त वहाँ बसे स्वयं ट्रेवेल्यान कहते हैं कि- "जिन्हें आज केल्त कह दिया जाता है, वे केल्त पूर्व के इंग्लैंड में आ बसे में काम लोग हैं, जिनके बाल काले होते थे। पणि (फिनिशयन) व्यापारी वहाँ आते थे। बाद में केल्त आये, जिनके बाल लाल हैं। ईसा से 500-600 वर्ष पूर्व वहाँ पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में गेहूँ की खेती पहली बार शुरू हुई। लगभग सौ सौ की बस्तियाँ बसने लगीं। फिर पूर्वी यूरोप से अनेक समूह वहाँ प्रायः आने लगे। उधर उत्तर में स्कैंडिनेविया से भी विविध जातियाँ 1 केल्त, ट्यूटन, सेक्सन, जूट पिक्ट, गाल, वेल्स, स्काट, इवेरियाई, वहाँ आई वाइकिंग, डेन, नार्वेजियाई, बीकर, बेलगाये आदि। जंगली और दलदली इंग्लैंड में सब अलग-अलग जगह बसते रहे। कभी-कभी लड़ते टकराते भी रहे। भेड़ों का पालन यहाँ एक मुख्य व्यवसाय बना। उन दिनों उस देश की कुल आबादी 5 लाख से भी कम थी।" यह संपूर्ण ग्रेट ब्रिटेन की जनसंख्या थी। इंग्लैंड की कुल लगभग तीन लाख जनसंख्या ही उस समय थी। वर्तमान मध्यप्रदेश वर्तमान इंग्लैंड से ढाई गुना बड़ा है। अविभाजित मध्यप्रदेश इंग्लैंड से साढ़े तीन गुना बड़ा था। इंग्लैंड लगभग छत्तीसगढ़ के बराबर है। जनसंख्या, शिक्षा, संस्कृति किसी भी स्तर पर ईसा पूर्व तीसरी शती तक ब्रिटेन एक अत्यंत अविकसित समाज था। यह वह समय है, जब भारत में गुप्तकाल का स्वर्ण युग था ।

सम्भवतः भारतीयों ने बनाये विशाल शिव मन्दिर

प्रारम्भ में इंग्लैंड में भारतीय पणि व्यापारी ही आते और चले जाते। बाद में सूर्योपासक केल्त यहाँ बसे। परन्तु उसके भी पहले बीकर कहे जाने वाले लोग इंग्लैंड में बसे थे। उन्होंने वहाँ विशाल शिलाखण्डों से स्टोनहेंज बनाये, जो भव्य शिव- मन्दिरों जैसे हैं। इसी प्रकार अवेवरी कहे जाने वाले प्रस्तर दुर्ग भी उन्होंने बनाये। आज यह स्टोनहेंज और अवेवरी पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल हैं। अनुमान है कि ये भारतीय लोग ही थे और इनमें से जो सम्पन्न और राजा लोग थे, उनके चषक- पात्र भी यहाँ आये पुरावशेषों के रूप में पाये गये हैं। 

इनके बाद इंग्लैंड में केल्त बसे, जो शिकारी, बुनकर, बढ़ई, लोहार, कमेर, तमेर, सुनार, भेड़ पालक, पशुपालक, मछुआरे और योद्धा थे। इनमें से पशुपालक निरन्तर चरागाहों की खोज में घूमते रहते। केल्त लोग छोटे-छोटे घरों में रहते थे और बाड़ लगाकर खेती करते थे। दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी इंग्लैंड में बेहतर खेती होती। नौका चालन, व्यापार और खनन कर्म इसी क्षेत्र में ज़्यादा हुआ। ईसा से 150 वर्ष पूर्व यहाँ भारतीय राजाओं की तर्ज पर सोने की मोहरें भी चलती थीं, जो ब्रिटिश संग्रहालय में संगृहीत हैं। केल्तों के पुरोहित भारतवंशी द्रह्यु या ड्रयूड लोग थे। रोमन भी बहुदेववादी थे, परन्तु जूलियस सीजर ड्रयूड पुरोहितों से बहुत चिढ़ता था। कुछ समय बाद यहाँ उत्तरी गाल वंश का राज्य हो गया। रोमनों ने ईसापूर्व 41 में ब्रिटेन पर आक्रमण किया।

17 रियासतों में बँटा था इंग्लैंड

इसी समय इस (आज इंग्लैंड कहे जा रहे) इलाके में केल्त और सेक्सन लोग ज़्यादा प्रभावी हो गये। उन दिनों इसका नाम इंग्लैंड नहीं था। यह सत्रह राज्यों में बँटा क्षेत्र था। उत्तर में केलिडोर्निया नामक रियासत थी, जो पिक्ट लोगों की थी।" उससे दक्षिण तरफ ट्रिमोन्टियम" मध्य भाग में छः अलग-अलग राज्य थे- (1) ब्रिगेन्तेस (जहाँ शीशे की खदानें बाद में मिलीं), (2) एबूरेकम, (3) लिन्डम, (4) देवा, (5) एक्वे (जहाँ आज बॉक्सटन है) और (6) राताए। पूर्वी हिस्से में उत्तरी तरफ आइसेनी राज्य था, दक्षिण तरफ ट्रिनोवान्तेस।" ट्रिनोवान्तेस राज्य की राजधानी था लान्डीनियम् (जो बाद में लंदन कहलाया)। दक्षिणी मध्य हिस्से में दो राज्य थे- (1) केटुवेल्लाउनी और (2) बेलगाए। पश्चिमी ओर वेल्स राज्य कर रहे थे, जिनके राज्य का नाम सिल्योरेस था। दक्षिण पश्चिम में तीन राज्य थे- (1) कार्नवाल (जहाँ टिन की खदानें हैं), (2) इस्का डुम्नानिरम और (3) ड्यूरोट्रिजेस दक्षिण पूर्व में कांती राज्य था, जहाँ लौह-अयस्क की खदानें हैं।" इस प्रकार कुल 17 अलग-अलग राज्य थे, जो हर एक भारत के किसी एक जिले के बराबर ही थे।

तत्कालीन प्रमुख शहर (लान्डीनियम के अतिरिक्त) ये थे हार्डनाट, इलक्ले, देवा, इस्का, ग्लेवम, वेन्ता सिलूरम, एक्वा सूलिस, दुनोवेरिया, वेन्ता बेलगारम, केलेवा, केमुलोडनम, वेंता आइसनारम, लिन्डम, राताए आदि। ये वस्तुतः बड़े कस्बे थे। नगर नहीं। सारांश यह कि आज न वे नाम बचे हैं, न वे लोग जो वहाँ तब थे।

रोमनों की दासता में इंग्लैंड

ईसापूर्व पहली शताब्दी में दक्षिणी इंग्लैंड पर रोमनों का राज्य हो गया। रोमन लोग इंग्लैंड को 'उत्तरी-पश्चिमी' देश कहते थे। उस समय उत्तरी हिस्से में केवल केल्त, डेन और सेक्सन लोग राज्य कर रहे थे। बीकर समाज अदृश्य हो चुका था। रोमन लोगों को अपनी सभ्यता पर बड़ा गर्व था और वे केल्तों, सेक्सनों, डेनों तथा अन्य इंग्लैंडवासियों का बहुत गहरा तिरस्कार करते थे और उन्हें बर्बर कहकर अपमानित करते थे। रोमनों ने यहाँ कई हिस्सों में पहली बार सड़कें बनवाईं। पूरे इलाके में लेटिन भाषा को चलाया। रोमन लोग सनातनधर्मी एवं बहुदेवपूजक थे। दक्षिणी इंग्लैंड के सभी जागीरदार रोमनों को नियमित नजराना देने लगे। नजराने में इंग्लैंड का सोना भी रोमनों को भेंट किया जाता था। रोमनों ने स्थानीय संस्कृति को ज़्यादा नष्ट नहीं किया। उन दिनों रोमनों का अपना संवत् चलता था, जो ईसापूर्व 755 से चल रहा था। तदनुसार रोमनों ने 711वें वर्ष में अर्थात् ईसापूर्व 44 में प्रितानियों को जीत लिया था।"

वैदिकी ने रोमनों का प्रचण्ड विरोध किया

जिस तेजस्वी सूर्योपासक केल्त रानी ने रोमनों का प्रचण्ड विरोध किया, उसका नाम वैदिकी या बौदिकी है। एक लाख बीस हजार सैनिकों को लेकर वह रोमन सेना पर टूट पड़े और उसे काटने लगे। रोमनों की सैन्य शक्ति अधिक थी, अतः अन्त में वे ही जीते। तब वैदिकी ने स्वर्ण पात्र में सुरक्षित भयंकर विष पहले अपनी दोनों वीर बेटियों को पिलाया और फिर स्वयं भी पी लिया। बाद में सेक्सनों और ट्यूडरों ने उस वीर वैदिकी की सम्पूर्ण जाति का विनाश कर दिया। अब उसे ब्रिटेन का गौरव बताया जाता है।

फ्रांस को जीतकर जूलियस सीजर इंग्लैंड की ओर बढ़ा था, परन्तु वह उत्तरी इलाके में नहीं जा पाया। दक्षिणी इंग्लैंड में उन दिनों दस से अधिक जागीरें थीं, जिनमें से एक केटुवेलोनी जागीर पर सिम्बेलाइन नामक राजा राज्य करता था। उसने रोमनों से संधि कर ली और रोमन व्यापारियों तथा शिल्पियों को राज्याश्रय दिया। वह अपने सिक्के भी चलाता था, जिसमें स्वयं को 'रैक्स ब्रिटानम्' (राजा ब्रितान) कहता था। बाद में उसने कोलचेस्टर की जागीर पर भी आधिपत्य कर लिया। लंदन उसी ने बसाया।

प्रितानी या ब्रिटन कहा रोमनों ने यहाँ के लोगों को

बाद में रोमन यहाँ छा गये। रोमनों के समय ही लंदन विकसित हुआ। वह लेटिन सभ्यता का केन्द्र बन गया। यद्यपि उसे लांडीनियम नाम केल्तों ने दिया था। रोमनों के समय दक्षिणी इंग्लैंड को 'ब्रिटन' कहा जाने लगा। क्योंकि वहाँ 'ब्रिटन' नस्ल के लोग रहते थे। रोमनों को नगरों के विकास का अभ्यास था। उन्होंने इंग्लैंड में लंदन, सिल्वेस्टर, कोल्चेस्टर आदि शहर विकसित किए। रोमनों ने कई बार ब्रिटन्स और केल्त जनों का जनसंहार किया। उनके बल के प्रभाव से धीरे-धीरे दक्षिणी इंग्लैंड पूरी तरह रोमनों का दास हो गया। बताया जाता है कि केल्तों, डेनों और सेक्सनों की तुलना में रोमन कम नृशंस हत्यारे थे। धर्म की दृष्टि से रोमन सनातनधर्मी अतः उदार थे। उन्होंने 400 वर्षों तक ब्रिटेन पर शासन किया। उत्तरी पिक्टों और ब्रिगेन्तेस जनों के बारम्बार आक्रमण से उत्तरी रोमन बस्तियाँ उजड़ने लगीं।

बाद में, ईसाइयत के विस्तार के बाद रोमन सभ्यता नष्ट हो गई, क्योंकि युद्ध में पादरियों ने सदा अधिक शक्तिशाली राजाओं का साथ दिया और बदले में ईसाइयत को संरक्षण हस्तगत किए। रोमनों को विश्वास हो गया कि ईसाई पादरी राजद्रोही होते हैं और उन्हें मारा तथा सताया जाने लगा। परन्तु फ्रांस व जर्मनी के हमलावरों का साथ देकर पादरियों ने अपनी रक्षा की

इंग्लैंड पर विविध जर्मन एवं फ्रेंच जातियों का हमला

जब रोमनों ने इंग्लैंड से अपना कब्जा हटा लिया, तब वहाँ चार सौ वर्षों तक अराजकता की स्थिति रही। एक ओर लगभग 500 पादरियों ने ईसाइयत का प्रचार तेज कर दिया। दूसरी ओर जर्मनी से और उत्तरी क्षेत्र से नार्डिक लोगों, जूटों, डेनों तथा नार्सजनों ने जगह-जगह हमला कर ब्रिटेन पर कब्जा कर लिया।" छठीं से आठवीं शती ईस्वी आते-आते सेक्सन नस्ल के डकैतों और लुटेरों ने इंग्लैंड के बड़े हिस्सों पर कब्जा कर लिया।" बाद में नार्डिकों के एक समूह ने इंग्लैंड पर धावा बोल दिया।" उधर फ्लेमिश, टयूटन, जर्मन, हूजनाट, हेनू तथा आइरिश समूहों ने जगह-जगह अपनी रियासतें बना लीं।" नार्डिकों ने केल्त जनों को मार भगाया हत्याएँ, लूट और अत्याचारों द्वारा भागने को विवश कर दिया। कई हिस्सों में गोथों, जूटों, बंडालों, लम्बाडौँ आदि ने भी कब्जा कर लिया।" उन दिनों इन सभी लोगों के युद्ध मुख्यतः तलवार, भाले, बरछी और ढाल से होते थे।" धनुष-बाण का चलन वहाँ पहली बार दसवीं शती ईस्वी में हुआ, जबकि हूणों, मंगोलों और भारतीयों में वह हजारों वर्ष पूर्व से प्रचलित था। सेक्सन, केल्त, नार्मन, डेन आदि सभी समाज बहुदेववादी थे।" ईसाइयत का तब तक उस इलाके में कोई प्रभाव नहीं फैला था। पर हर युद्ध में पादरी लोग विजेता का साथ देकर कुछ रियायतें पा लेते थे। उदार बहुदेववादी वे सभी लोग ईसाइयों को वैसी ही उदारता से स्थान दे देते जैसा भारत के हिन्दू शासक देते हैं।

स्मरणीय है कि उन दिनों वहाँ इन पादरियों को भी अधिक शिक्षा नहीं प्राप्त थी। सन् 1001 ईस्वी में एक ईसाई पादरी ने बताया था कि नार्मन्डी का कोई भी पादरी बड़ी मुश्किल से ही बाइबिल पढ़ पाता है।

डेन, जूट और नार्समैन, जिन्होंने ब्रिटेन के कई हिस्सों पर छठी से आठवीं शती ईस्वी तक आक्रमण कर आधिपत्य जमाया, वे सभी बहुदेववादी थे, जिन्हें ईसाई पादरियों ने 'हीदन' कहा है। ऐंग्लो सेक्सन भी पहले बहुदेववादी थे। वे वहाँ चौथी से बारहवीं शती ईस्वी तक क्रमशः फैले।" इतिहासकार जॉन ओ फेरेल के अनुसार तथ्य यह है कि सबसे पहले सूर्योपासक केल्तों को ही सेक्सनों के द्वारा ब्रिटन कहा गया। बाद में पन्द्रहवीं सोलहवीं शती ईस्वी में पहली बार बाकी लोगों को भी ब्रिटन कहा जाने लगा।

जो सेक्सन इस इलाके में राज्य करने लगे, उन्हें ही एंग्लो-सेक्सन कहा जाने लगा। बाद में वे ही इंग्लिश भी कहलाए। खूंखार डकैती, हत्या और लूटपाट सेक्सनों की मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं। सेक्सनों के पास घोड़े नहीं थे। वे पैदल ही धावा करते थे। धीरे-धीरे, लगभग 250 वर्षों में ये सेक्सन इंग्लैंड के बड़े हिस्से में छा गए। यद्यपि केल्त पश्चिमी इंग्लैंड के एसेक्स, ससेक्स और केंत रियासतों के स्वामी तब भी बने रहे। उधर दक्षिणी पश्चिमी हिस्से पर वेल्स जनों ने कब्जा कर रखा था। आज इंग्लैंड में अधिकांश स्थानों के प्रचलित नाम सेक्सनों द्वारा रखे गए हैं, पर कई नाम डेन मूल के भी हैं और कुछ केल्त तथा वेल्श मूल के।

ब्रिटिश इतिहासकार जान ओ फेरेल के अनुसार सातवीं शती ईस्वी तक इंग्लैंड में ईसाइयत नाम मात्र को थी। अन्य इतिहासकारों के अनुसार वह 9वीं शती ईस्वी में ही फैली है। वहाँ की अनेक प्रथाएँ मिनी लोगों जैसी थी। वहाँ युद्ध के देवता मंगल (ट्यूस), महायुद्ध के देवता वोदन तथा ज्ञान, वाणी एवं गर्जना के देवता तॉर या थार थे तथा अनेक देवता और देवियों की पूजा होती थी। इन देवताओं के नाम से ही आज तक ट्यूसडे, वेडनेसडे, थर्सडे चल रहे हैं।

इंग्लैंड के अनेक जनपदों का नाम सेक्सन मूल का है। ससेक्स का अर्थ है दक्षिणी सेक्सन, मिडलेक्स का अर्थ है, मध्यक्षेत्रीय सेक्सन और एसेक्स का अर्थ है पूर्वी सेक्सन। तीन सौ वर्षों तक बल्कि उससे भी अधिक समय तक वहाँ सैकड़ों जागीरदार थे, जो अपनी-अपनी जागीरों के मालिक बन बैठे थे। इसी बीच वहाँ हूण सम्राट ने निरन्तर आक्रमण किये और कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। पाँचवीं शती ईस्वी से ही इंग्लैंड के पूर्वी हिस्सों पर हूण सम्राट अत्तिला का कब्जा हो गया।

457 ईस्वी में केंट रियासत पर डेनमार्क के जूटों ने कब्जा कर लिया। एंगल्स ने ईस्ट ऐंग्लिया (पूर्वी इंग्लैंड) पर कब्जा कर लिया। मर्सिया जागीर बसायी। मर्सिया का अर्थ है- सीमा की ओर मार्च करना। सेक्सनों ने पहले दक्षिणी हिस्से पर कब्जा कर ससेक्स राज्य बनाया। फिर मिडिल सेक्स और एसेक्स पर भी। फिर नार्थम्बरलैंड पर भी। 300 वर्षों तक सैकड़ों जागीरदार अपनी-अपनी जागीरों के मालिक रहे, ऐसा इतिहासकार नार्मन डेविज बताते हैं। बाद में दसवीं शती ईस्वी में वेसेक्स एक बड़ा राज्य बना। उधर पश्चिम में केल्तों के राज्य बने रहे। इस प्रकार रोमनों के जाने के बाद इंग्लैंड पर हूणों, केल्तों, सेक्सनों, वाइकिंगों, डेन्स, जूट, एंगल्स, आस्ट्रोगॉथ आदि के राज्य कायम रहे।

युद्ध, लूट, डकैती के अतिरिक्त एंग्लो सेक्सन जाति की मुख्य रुचि खेती में थी। उनके मकान केवल लकड़ियों के बने होते थे। रोमन भवन उन्होंने उजाड़ कर नष्ट कर डाले थे। उत्तर में नार्थम्ब्रिया और स्ट्राथक्लाइड, मध्य में मर्सिया और दक्षिण में वेसेक्स - ये प्रमुख सेक्सन राज्य बने १० पश्चिमी हिस्से में वेल्स और केल्त राज्य कर रहे थे। इन राज्यों के भीतर सैकड़ों रियासतें थीं। ब्रिटिश इतिहासकारों का कहना है कि पाँचवीं से आठवीं शती ईस्वी का ब्रिटेन अन्तहीन युद्धों में फँसा समाज था। यद्यपि इनमें से सभी धार्मिक दृष्टि से बहुलतावादी समाज थे। रियासतदार भी आपस में लड़ रहे थे और जनगण भी (हिस्ट्री ऑफ़ इंग्लैंड के लेखक जी.एम. ट्रेवेल्यान के शब्दों में, "पब्लिक एंड प्राइवेट वार वाज दि रूल रेदर देन एक्सेप्शन" राजाओं और लोगों के आपसी युद्ध उन दिनों वहाँ नियम ही थे, अपवाद नहीं।) यह भी कि युद्ध, आक्रमण एवं रक्तपात तत्कालीन सेक्सन इंग्लैंड में सामान्य दशाएँ थीं। इसी युद्ध-दशा का लाभ लेते हुए, महाविनाश का समय निकट बताकर, मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलने का लोभ जगाकर, धर्मभीरु बहुदेवपूजक अंग्रेजों को ईसाई पादरी फुसला-फुसलाकर ईसाई बनाने में रत थे उनका धैर्य, श्रम, निष्ठा और साहस प्रशंसनीय तो है ही।

इन ढाई-तीन सौ वर्षों के निरन्तर युद्धों के बीच, वाइकिंग लोगों ने सातवीं शती ईस्वी के आरम्भ में पश्चिम के वेल्श जनों पर आक्रमण कर दिया ये नाविक तथा लुटेरे थे। उन्होंने वेल्श जनों का जनसंहार प्रारम्भ कर दिया। कुछ हजार वेल्या जीवित बच पाए।" परन्तु सेक्सन राजाओं ने वेल्श जनों को उनकी अपनी पूजा-पद्धति व जीवन-पद्धति जारी रखने की अनुमति दे दी आज के अंग्रेजों के भीतर केल्त- पूर्व के समाजों का भी रक्त है, केल्त जनों का भी, सेक्सन का भी। परन्तु वेल्श जनों ने अपना वंश पृथक् सुरक्षित रखा है। इसी बीच वेल्श जनों के बीच पादरियों ने ईसाइयत का सर्वाधिक प्रचार किया। जबकि एंग्लो-सेक्सन लोग तब तक आदिदेव आदिन और तोर नामक देवी की पूजा करते थे। उनके यहाँ सच बोलने का बहुत सम्मान था। वीरता और अभय वहाँ सर्वसमादृत गुण थे। वे उदार थे। पादरियों ने इसका लाभ उठाकर ईसाइयत के प्रचार में उपयोग किया। कुछ समय बाद वे कुछ रियासतदारों का संरक्षण पाने में सफल हो गए और बलपूर्वक तथा नृशंसतापूर्वक ईसाइयत फैलाने लगे

राजाओं को पेगन प्रजा की सामूहिक हत्या की प्रेरणा दी पादरियों ने

 कुछ समय बाद क्रिश्चियन चर्च के पादरियों के बहकावे में आकर नये ईसाई बने कुछेक राजाओं के मुख्य लोगों ने सेना के साथ बहुदेवपूजकों की सामूहिक हत्याएँ, उन्हें जिन्दा जलाना शुरू कर दिया। कोलम्बा, ग्रेगरी, आगस्टीन और पेट्रिक नामक पादरियों ने पहले समाज में ईसाई सुसमाचार फैलाने का प्रयास किया। फिर ग्रेगरी के सेवक एडविन को साथ मिलाने में सफल रहे। एडविन नॉर्थम्बिया रियासत का शासक था। पादरियों ने उसे ही पूरे इंग्लैंड का का राजा प्रचारित करना शुरू किया, परन्तु तब भी इंग्लैंड में बहुदेववाद इतना व्यापक था कि पादरियों को भयंकर उत्पीड़न के जरिये ही अपना पंथ फैलाने में मदद मिली पोप ग्रेगरी ने ऐसे हत्याकाण्डों को खूब प्रोत्साहित किया। आगस्टीन नामक पादरी ने इसमें बढ़- चढ़कर हिस्सा लिया। उसने केंट रियासत में बर्बरतापूर्वक लोगों को ईसाई बनाया जो नहीं बनते, उनको सामूहिक रूप से गाँव के गाँव, इलाके के इलाके जला दिए जाते।

क्रिश्चियन स्त्रियाँ धर्मांतरण की प्रेरक बनीं

बाद में, आगस्टीन अपने उपपंथ से भिन्न, अन्य ईसाई पंथों के अनुयायियों को भी मरवाने लगा, जिसका स्वयं चर्च के एक हिस्से ने विरोध किया। कुछ दिनों बाद नार्थम्बिया रियासत का राजा भी ईसाई पादरियों के प्रभाव में आ गया। इसमें मुख्य भूमिका इन राजाओं की क्रिश्चियन स्त्रियाँ निभाती थीं।" उदार बहुदेववादी राजा या जागीरदार प्रायः क्रिश्चियन कन्याएँ भी ब्याह लेते थे वे धीरे-धीरे समझा- बुझाकर पति को क्रिश्चियन बनने राजी करती थीं।

संगठित, भरमाने वाला और आक्रामक चर्च


स्वयं क्रिश्चियन लोगों ने यह बारम्बार लिखा है कि उदार बहुदेववादी लोगों के पुजारियों तथा पंथाचार्यों का कोई सुदृढ़ संगठन नहीं होने से वे चर्च के सामने हारते चले गए, क्योंकि चर्च संगठित और आक्रामक है। फिर, चर्च ने मर्सिया के राजा पेंडा को भी पटा लिया। विभिन्न जातियों की आपसी लड़ाई और प्रतिरोध- भावना को भड़काकर चर्च अपना काम करता था। वे हर राजा को उकसाते कि अगर आप क्रिश्चियन बन गए तो अन्य राजाओं पर आपको स्वतः श्रेष्ठता प्रास हो जाएगी, क्योंकि जीसस सारे विश्व का स्वामी है। प्रायः सभी चर्च पादरी अनिवार्यतः राजनीतिज्ञ होते रहे हैं। वे राजनीति पर परोक्ष नियंत्रण में निपुण होते हैं।

बहुदेववादियों से पिटे पादरी तो विदेश से हमलावरों को न्यौत दिया

इस बीच डेन्स और नार्समेन पादरियों से नाराज हो गए और उन्हें पीटना शुरू कर दिया। तभी, सम्भवतः पादरियों के आमंत्रण पर वाइकिंग योद्धाओं के एक समूह ने इंग्लैंड पर आक्रमण कर दिया। यह आठवीं शती के अन्त और नौवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ की घटना है।" वाइकिंग कुशल नाविक थे। वाइकिंग लोगों का सहारा लेकर सशक्त पादरियों ने सभी लोगों के समक्ष एक विकल्प रखना शुरू किया - ईसाई बपतिस्मा ग्रहण करो या फिर मृत्युदण्ड स्वीकारो। ऐसे में ईसाई अत्याचारों से बचने के लिए भागे सेक्सनों को डेन्स लोगों ने शरण दी। परस्पर खूब मारकाट मची।

पाँच वर्षों तक किया जनसंहार

लगभग 35000 वाइकिंग योद्धाओं ने धनुष-बाण की सहायता से एक लाख से अधिक डेन्सों और सेक्सनों का संहार किया।" पाँच वर्षों तक लगतार व्यापक संहार की यह श्रृंखला चली।" वैसे डेन्स भी प्रचण्ड वीर थे और उनके तेज आक्रमणों का सीधा सामना वाइकिंग नहीं कर पाते थे। कुछ समय बाद वाइकिंग लोग, जो स्वयं बहुदेवपूजक थे, पादरियों के विरोधी बन गए।" तब पादरियों ने औरों का सहारा लिया। हालाँकि वे पिटे भी खूब।

बढ़ता गया बलपूर्वक ईसाईकरण

नौवीं शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में इंग्लैंड के सैनिक और राजा लोगों ने पहली बार घुड़सवारी सीखी। पहले वहाँ घोड़े थे ही नहीं। उत्तरी यूरोप से ये लोग घोड़े लाए। पराजित डेन्स लोगों को तब तक बलपूर्वक ईसाई बनाया जा चुका था। यहां यह उल्लेख अवश्यक है कि 10वीं शती ईस्वी के मध्य तक इंग्लैंड के नगरवासियों तक में किसी भी इलाके में स्वयं के 'इंग्लिश' होने की कोई भी भावना नहीं थी। साथ ही यह माना जाता था कि हर जाति या समूह के लोग अपनी-अपनी मर्यादा में रहें, यही स्वाभाविक है। वाइकिंग लोगों की राजधानी यार्क पर जब वेसेक्स के राजा एथेल्स्टन ने कब्जा कर लिया, तो सभी लोगों को बड़ा आघात लगा कि यह तो मर्यादा का त्याग है। एथेल्स्टन ने वेल्स क्षेत्र के 5 राजाओं को हराया, जिनसे हर वर्ष 20 पौण्ड सोना, 300 पौण्ड चांदी और 25 हजार बैल नजराने में लेने पर करार हुआ। स्कॉट और केल्त राजाओं से भी ऐसे ही करार हुए।

कोढ़ और सिफलिस

सातवीं शती ईस्वी में इंग्लैंड में कोढ़ व्यापक था। तब नियम बना कि कोढ़ी घर से बाहर एक काला लम्बा लबादा पहनकर ही निकलें, जिस पर कोढ़ी होने का चिह्न अंकित हो। चलते हुए घंटियां या तुरही बजाएँ और चिल्लाते रहें 'हम गंदे हैं, दूर रहिये'। उन्हें सार्वजनिक जगहों पर जाने, पानी पीने तथा किसी चीज को छूने पर रोक थी। कोढ़ियों को अलग रखने के विस्तृत नियम बने। उन्हें एक कर्मकाण्ड के जरिये मृत घोषित कर दूर सुनसान जंगल में रहने भेज दिया जाता। 16वीं शती के आरम्भ में जाकर कोढ़ घटा तो सिफलिस का रोग व्यापक हो गया।

इस अवधि में इंग्लैंड की स्थिति क्या थी, इसका वर्णन जॉन ओ फेरेल ने अपनी पुस्तक 'एन अटर्ली इम्पार्शल हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटेन' में संक्षेप में किया है। वे बताते हैं कि इंग्लैंड और फ्रांस के जागीरदार आपस में लगातार लड़ रहे थे। जोन ऑफ़ ऑर्क नामक युवती ने इंग्लैंड की सेनाओं को हरा दिया। रिचर्ड ने खूब मनमानी की। किसानों को सामन्तों ने उकसाया। अन्य सामन्तों ने उनका विरोध किया। छलघात में किसानों की हत्या हुई। राजघराने में निरन्तर षड़यंत्र और हत्याएँ चलती रहीं। सुधार के नाम पर मेरी ने पाँच वर्षों तक निरन्तर इंग्लैंड के केघोलिकों को हजारों की संख्या में जलवाया। पांथिक मतवादी उन्माद से यूरोप में एक करोड़ से अधिक व्यक्ति मारे गये, जो कि सम्पूर्ण यूरोप में 'ब्लैक डैथ' (प्लेग महामारी) से मरने वालों की संख्या से कहीं अधिक है।

अनपढ़ थे अधिकांश पादरी

तब तक इंग्लैंड में फैले ज्यादातर पादरी बाइबिल के भजन वाचिक परम्परा से ही गाते थे, उनका मनमाना अर्थ करते थे तथा लेटिन लिखना पढ़ना नहीं जानते थे। पादरियों के दबाव से अल्फ्रेड नामक राजा ने लेटिन की पढ़ाई का कुछ प्रबन्ध किया। यह वह समय है, जब भारत में चोलों, चालुक्यों, प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों आदि के भव्य साम्राज्य थे। उसके पूर्व महाराज भोज, श्रीहर्ष तथा सातवाहनों के विशाल साम्राज्य रह चुके थे। तक्षशिला, नालन्दा, उदन्तपुरी, विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय शताब्दियों से विश्वविख्यात थे। वाल्मीकि और व्यास के सहस्राब्दियों बाद की यह बात है। कालिदास, शूद्रक, मुद्राराक्षस जैसे महान कवि व नाटककार, महान गणितज्ञ आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि हो चुके थे। अद्भुत लौह-स्तम्भों के निर्माण की विधा, वास्तुशिल्प, कला, धातु-विज्ञान, मूर्ति-विज्ञान आदि परम उत्कर्ष को प्राप्त कर चुके थे। महान गुप्त साम्राज्य का स्वर्णयुग बीत चुका था। विद्या, कला, विज्ञान, गणित, संगीत - सभी में अद्वितीय ऊँचाइयों को प्राप्त किया जा चुका था। 

पैगनों के पुस्तकालय जलाए क्रिश्चियन पादरियों ने

उसके बाद की इस नवीं शताब्दी ईस्वी में इंग्लैंड में स्वयं ज़्यादातर पादरियों को पढ़ना-लिखना नहीं आता था, जनसाधारण तो अनपढ़ थे ही। केवल कुछ राजवंशों में शिक्षा थी। बहुदेववादी डेन्सों में शिक्षा थी, पर पादरियों ने उनकी शिक्षा और पुस्तकालय सब नष्ट कर दिये । 'लॉ' यानी विधि का अंग्रेजी शब्द मूलतः डेन्सों से ही आया है। डेन्सों में विधि-विशेषज्ञ धर्माचार्य होते थे। पादरियों ने लगभग सबको मार डाला। जो बचे उन्हें दास बनाकर रखा।" दसवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक इंग्लैंड में युद्ध, अज्ञान, दासप्रथा और लूटमार का ही एकाधिपत्य रहा।

फ्रेंच इंग्लैंड की भाषा बनी

ग्यारहवीं शती ईस्वी के मध्य में उत्तरी यूरोप के नार्मण्डी के लोगों ने इंग्लैंड पर आक्रमण किया" नार्मनों का राजा फ्रेंच बोलता था। केल्त, सेक्सन, डेन्स, नार्समेन, वाइकिंग आदि के बाद अब इंग्लैंड में नार्मन लोग छाने लगे ।" इन्होंने पुराने जागीरदारों का व्यापक संहार किया। नार्मनों के पास संगठित घुड़सवार सेनाएँ थीं। इसीलिए वे जीतते चले गए। ज़्यादातर जागीरदारों ने नार्मनों के समक्ष समर्पण कर दिया।

मिट्टी के दुर्गों ने विजयी बनाया नार्मनों को

नार्मनों को मिट्टी के गुम्बदाकार दुर्ग बनाना भी आता था। जो लकड़ी के घरों से अधिक सुरक्षित होते थे। पुराने सेक्सनों, डेन्स आदि के अधिकांश घर लकड़ी के थे। कच्ची मिट्टी के जो घर वे बनाते थे, वे भी दुर्ग जैसे या गुम्बदाकार नहीं होते थे। खुले खुले होते थे। उन पर खुला सैनिक आक्रमण, जो मुख्यतः पैदल सैनिकों का होता था, आसान था। नार्मन दुर्ग अपेक्षाकृत सुरक्षित थे।" पत्थरों आदि के जैसे दुर्ग शताब्दियों से भारत में बन रहे थे, वैसा कुछ भी बनाना ग्यारहवीं शती ईस्वी के इंग्लैंड में किसी को नहीं आता था। 

सैकड़ों जागीरदारों की आपसी लड़ाइयाँ

लगभग 200 वर्षों तक नार्मनों और सेक्सनों में जगह-जगह मारकाट चलती रही। यह एक प्रकार से सैकड़ों जागीरदारों की आपसी लड़ाई थी। भारत में उन दिनों होने वाले संगठित युद्धों से उनकी कोई तुलना नहीं है। चर्च के पादरी लोग कभी इस जागीरदार को पटाते, कभी उसको। मुख्यतः विजय की लालच में जागीरदार चर्च का साथ देते। अराजकता का लाभ उठाता चर्च छल-बल से बढ़ता रहा। तब भी चर्चा के बीच भी भयंकर लड़ाइयाँ चलतीं। पादरियों और जागीरदारों के अतिरिक्त उन दिनों इंग्लैंड के लगभग सभी लोग केवल अपने-अपने गाँव में ही जीवन गुजार देते थे तथा पूर्णतः अनपढ़ थे। 'इंग्लैंड का इतिहास' के लेखक जे.एम. ट्रेवेल्यान लिखते हैं- 'अल थेन, बिशप, शेरिफ और बॅरें सभी 11वीं शती में इस फिराक में रहते कि विजेता के साथ निजी तौर पर रिश्ते रखे जायें।

उत्तराधिकार की कूटनीति के विशेषज्ञ पादरी

नार्मण्डी के राजकुमार को विद्या का शौक हुआ तो रोम के पादरियों को बुलाकर उसने राजवंश की शिक्षा की व्यवस्था की। शिक्षा केवल पादरियों के यहाँ तक सीमित थी। जागीरदारों के घराने में भी ज्यादातर अनपढ़ थे। जगह-जगह लकड़ी या मिट्टी के घर थे। बारहवीं शती में कई जगह पत्थरों का ढेर खड़ाकर भी घर जैसा कुछ बनने लगा।

अन्ततः नार्मन राजघराने को ईसाई बनाने में पादरी सफल रहे। चर्च ने राजा का गौरवगान किया, राजा ने चर्च को संरक्षण दिया। तथापि निरन्तर आन्तरिक झगड़े और युद्ध चलते ही रहे। चर्च ने चुन-चुनकर नार्मन जागीरदारों को ही बिशप बनाया। चर्च ने ही राजाओं के उत्तराधिकार के झगड़े खड़े कर राज्य को वशवर्ती बनाने का कौशल इसी समय इंग्लैंड में विकसित किया, जो 600 वर्षों बाद भारत में सफलतापूर्वक दोहराया गया।

800 वर्ष पूर्व 6 राज्यों में बँटा था ब्रिटेन

बारहवीं शती ईस्वी के आरम्भ में इंग्लैंड में 6 बड़े राज्य थे (1) मर्सिया, (2) नार्थम्बिया, (3) वेसेक्स (4) स्काटलैंड, (5) ईस्ट एग्लिया, (6) वेल्श। एक ओर राजाओं के बीच अपने-अपने राजवंशों की वृद्धि की चिन्ता थी और बहुदेववादी होने के कारण वे ईसाइयत के नए पंथ के प्रति कोई विद्वेष नहीं रखते थे, दूसरी ओर संगठित चर्च चुपचाप छल-बल से शक्ति-विस्तार में जुटा था। राजाओं द्वारा अपना उत्तराधिकारी चुनने की परम्परा थी और राजा चचों के खेल से अपरिचित ही होते थे। उत्तराधिकार के झगड़ों को चर्च उलझाता व शक्ति-विस्तार करता। चर्च की मदद से बारहवीं शती में नार्मनों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो गया। तब तक पूरा इंग्लैंड ईसाई नहीं बना था। केवल नार्मन राजा क्रिश्चियन बन गए थे। प्रजा में बहुत ही कम लोग ईसाई थे।

पैगनों का नृशंस उत्पीड़न कराया पादरियों ने

गैर-ईसाइयों, सनातनधर्मियों (पैगन्स) का नृशंस उत्पीड़न एवं अपूर्व जनवध पादरियों की प्रेरणा से प्रारम्भ हुआ। सोलहवीं शती ईस्वी तक वहाँ पैगन्स को चुन-चुनकर मारा जाता रहा। इसी बीच इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य 100 वर्षीय युद्ध भी चला, जो वस्तुतः इंग्लैंड से छोटी-छोटी सैनिक टुकड़ियाँ फ्रांस जाकर लूटतीं तथा मौज-मस्ती करर्ती।" फ्रांस में भी अनेक रियासतें थीं। कोई एक राजा तो था नहीं। लुटेरों की इन टुकड़ियों को भेजे जाने को हो बाद में इंग्लैंड-फ्रांस के मध्य सौ वर्षों की लड़ाई बताया गया। जबकि तब तक न तो इंग्लैंड एक राष्ट्र था, न फ्रांस ।

लूट, डकैती, महामारी का दौर

इंग्लैंड के साधारण लोग उसी राजा (जागीरदार) का सम्मान करते थे, जो पड़ोसियों को, यथा फ्रेंच क्षेत्र को लूटे, मारकाट करे। बाँटकर वहाँ के अभिजन समृद्ध और सुखी होते। लूट के माल को परस्पर इस बीच इंग्लैंड में एक तथाकथित संसद भी बन गई, जो ऐसी लूट को बढ़ावा देती थी। चार पीढ़ियों तक अंग्रेज लुटेरों के झुण्ड फ्रांस में घुसकर हत्याएँ व लूट करते रहे।" यही है सौ वर्षीय युद्ध। इसके पहले वे स्काटलैंड को लूटते थे। इसी बीच फ्रांस और इंग्लैंड में किसानों के जबर्दस्त विद्रोह हुए मुख्यतः चौदहवीं शती ईस्वी में। फिर, प्लेग की भयंकर महामारी फैली, जिसे 'ब्लैक डेथ' कहा गया।'

लुटेरों, डकैतों, कंगालों, भिखमंगों का देश

इंग्लैंड लुटेरों, जल-दस्युओं, डकैतों, कंगालों और भिखमंगों का क्षेत्र बन गया। चर्च भीषण अत्याचार कर समाज को कठोर अनुशासन में रखता। स्त्रियों को भयंकर रूप में दबाया व मारा-पीटा जाता। पादरियों के अत्याचारों का विरोध करने वाली स्त्रियों को डायन कहकर जिन्दा जला दिया जाता या खौलते कड़ाह में गर्म तेल में तल दिया जाता या काँटेदार कुर्सी में पत्थर बाँधकर स्त्री को तालाबों या झील में डुबोकर मारा जाता या अंग-भंग कर दिया जाता। 

रेनेसां

इन सबके विरुद्ध धीरे-धीरे इंग्लैंड में रेनेसां शुरू हुआ। चर्च का विरोध हुआ। लोगों का जीवन दारुण विपदा से भर उठा था। तभी, रेनेसां के असर से पहली बार पता चला कि पृथ्वी बहुत बड़ी है और प्रशान्त महासागर से आगे बढ़ने पर हम कोई पाताल में नहीं धंस जाएँगे, बल्कि हिन्द या इंडी नामक अतिसम्पन्न देश मिलेगा। इसी इंडी की खोज में जलदस्यु, डकैत और लुटेरे निकल पड़े। उन्हें रानी की छूट थी कि लूटकर जो लाओगे, उसमें रानी को हिस्सा दोगे - शेष अंश लूटने वाले का। इसी प्रक्रिया में से लूट के माल में आत्मीय साझेदारी की तीव्र भावना के साथ-साथ इंग्लैंड में क्रमशः राष्ट्र राज्य होने का भाव जगा। राज्य को सर्वाधिक शक्तिशाली बनाया गया। चर्च का वह संरक्षक बना। तभी राज्य ने सैन्य-शक्ति सुदृढ़ की और 16वीं शती ईस्वी के अन्त में पहली बार वहाँ एक तथाकथित नौसेना गठित की गई, जो वस्तुतः थोड़ी बड़ी नावों का एक सैनिक बेड़ा मात्र था। उस समय के इंग्लैंड की दशा पर वेनिस के एक दूत ने लिखा, "संसार में और कोई देश ऐसा नहीं है, जहाँ इतने ज़्यादा चोर और ठग हों, जितने इंग्लैंड में हैं। लोग केवल दिन के मध्य भाग में अकेले कहीं आते-जाते हैं। शेष समय साहस नहीं कर पाते। लंदन में तो कोई रात में घर से निकलने का साहस ही नहीं कर पाता।''""

डकैतों के झुण्ड शाही जंगलों के भी हिरणों का शिकार कर डालते।" लोग एक दूसरे की बात-बात में पिटाई कर देते। जूरियों को खरीद लिया जाता। स्वयं अंग्रेज इतिहासकार लिखते हैं उन दिनों आज का यह यूरोपीय क्षेत्र लम्बवत् राष्ट्र- राज्यों में विभक्त नहीं था। अपितु क्षैतिज (अनुप्रस्थ) रूप में विभक्त था पादरियों, नोबुलों (जागीरदारों), साधारण लोगों और दुष्ट बदमाशों के निगमों, संघों और जागीरों में। जो स्थानीय रीति-रिवाजों, नियमों, ख्रीस्तीय मठों तथा जागीरदारों के घरों की परम्पराओं से चलते थे अलग-अलग वर्गों में अलग-अलग नियम-कायदे, अलग-अलग अनुशासन।

घबड़ाकर भागे साहसी लुटेरे इंग्लैंड से

यह था वह समय, जब चर्च से सताये गये अथवा डकैती-छिनैती के लोभ से प्रेरित लोग इंग्लैंड तथा अन्य देशों से धन की खोज में, विशेषतः इन्डी की खोज में अपने-अपने देशों से भागे। तब तक न वहाँ कोई राष्ट्र राज्य था, न व्यवस्थित सेना, न संविधान। पन्द्रहवीं शती ईस्वी में पहली बार इंग्लैंड में थोड़ा बड़े पैमाने पर कपड़ा बनने लगा, अन्यथा केवल जागीरदारों और पादरियों के पास कपड़े होते थे, जनसाधारण पेड़ों की छाल, पत्तों अथवा धनियों की ऊनी उतरन से ही काम चलाते थे। सुधार आन्दोलनों ने चर्च की राक्षसी ताकत घटाई, संसद का विकास किया और राजकीय कानूनों को महत्त्व देना शुरू किया। व्यापार पर भी राजकीय नियम लागू किये गये। अब तक हर व्यापारिक कस्बा या श्रेणी (संगठन) अपने नियम-कायदे खुद बनाता था। तब भी राजा ही वहाँ सर्वोपरि मान्य था। वह एक प्रिवी कौंसिल की मदद से शासन करता जिसमें जागीरदार और पादरी सदस्य होते थे। राजा और प्रिवी कौंसिल वहाँ की पार्लियामेंट की नियमित कक्षाएँ लेते और उन्हें राजकीय नियम समझाते-सिखाते ।" राजा ही वहाँ ख्रीस्तपंध का सर्वोच्च संरक्षक था। रोमन कैथोलिक चर्च की व्यवस्थाएँ राजा ने ध्वस्त कर दीं और प्रोटेस्टेण्ट चर्च को राजकीय संरक्षण दिया। भेड़ पालन को प्रोत्साहन दिया गया और पर्याप्त ऊनी कपड़े बनने लगे। ऊनी कपड़े का व्यापार बढ़ गया। धन के लालच में बड़े व्यापारी व जागीरदार किंसानों के खेत छीनकर बाड़ाबंदी कर बड़े पैमाने पर भेड़ें पालते। खेत छीने जाने पर ज़्यादातर किसान भिखारी बन गये। वे चर्च के सामने खड़े भीख माँगते।

पुअर लॉज यानी भिखमंगों की कोड़ों से पिटाई

तभी इंग्लैंड में 'पुअर लॉज' बनाये गये, जिनमें यह नियम बना कि गरीब और भिखमंगे शहरों में प्रवेश न करें। तगड़े भिखमंगे जबर्दस्ती पकड़ लिए जाते और उनसे बेगार कराई जाती। इसी बेगारी और पिटाई से डरकर ज़्यादातर बेरोजगार और कंगाल तगड़े लोग छोटी-छोटी नावों में बैठ इंडी आदि की खोज में चल दिये, जहाँ भाग्य आजमा सकें।

17वीं शती ईस्वी में इंग्लैंड की नर्सरी स्कूल में सभ्य घरों के बच्चे गाते-
'कुत्ते भोंक रहे हैं बरबस, यहाँ-वहाँ हर थान;
भिखमंगे आ रहे उमड़ते, सुनो, सुनो धर ध्यान।'
नर्सरी गीत की अगली पंक्तियाँ हैं-
'कोई देता है सफेद ब्रेड, कोई देता ब्राउन;
कुछ हैं उन्हें जमाते चाबुक, क्यों आये तुम टाउन; भागो, भागो, तुरत यहाँ से जाओ वापस गाँव, ऐ भिखमंगो, हटो यहाँ से, नहीं तुम्हारा ठाँव।

इंग्लैंड में उन दिनों बने 'पुअर लॉज' में यही प्रावधान था कि भिखारी यदि शहर में आएँ तो चाबुक मार-मारकर उन्हें भगा दिया जाए।

वापस छीनी गईं मुफ्तखोर पादरियों के मठों की जमीनें

दूसरी ओर चर्च-पादरियों के अत्याचारों के विरुद्ध उभरे प्रचण्ड जनान्दोलनों के दबाव से, चचर्चा के द्वारा लोगों से जो जमीनें छीन ली गई थीं, वे वापस किसानों को कीमत लेकर लौटाने की राजाज्ञा हुई। फिर, उस पढ़ाई को सभ्य घरानों तक फैलाने का कानून बना, जो 11वीं से 16वीं शती ईस्वी तक केवल पादरियों और चर्च-मठों तक सीमित थी। चर्च-मठों और पादरियों ने इस बात तक का प्रचण्ड विरोध किया कि हमारे अतिरिक्त अन्य सभ्य-सुसंस्कृत जेन्टिलमेन परिवारों के पुरुषों को भी पढ़ाया जाए। स्त्री-शिक्षा तो वहाँ तब तक पूर्ण वर्जित थी ही। 

शिक्षा का प्रारम्भ

उसी समय 16वीं शती ईस्वी में इंग्लैंड में पहली बार कॉलेज व यूनिवर्सिटी खुर्ली, पर ये यूनिवर्सिटी वस्तुतः 100-200 छात्रों वाली ही थीं और कॉलेज 20- 25 छात्रों वाले, बस। इसके पूर्व चौदहवीं शती ईस्वी में 8 या 10 या 12 पादरियों की पढ़ाई के लिए, जो पाठशालाएँ ख्रीस्तीय मठों में होती थीं, जिन्हें 'कान्वेन्ट' कहा जाता था, उन्हें ही बाद में यूनीवर्सिटी कहा जाने लगा। इनमें खीस्तीय केनन लॉ, सिविल लॉ, फिलॉसफी तथा अरबी गणित और अरबी पुस्तकों पर आधारित चिकित्सा-शास्त्र (जो स्वयं भारत का ही अरब में गया ज्ञान था) ही पढ़ाये जाते थे। सर्वसाधारण के लिए शिक्षा तब भी वर्जित ही रही आई। पहले तो चचाँ

की जमीन शिक्षा केन्द्रों के नाम पर वापस ली गई, फिर वे जमीनें ऊँचे दामों पर किसानों को बेची जाने लगीं और दरबारियों ने इसमें काफ़ी कमीशन कमाया। भ्रष्टाचार पराकाष्ठा तक जा पहुँचा। उधर 'चर्च-मठों' और ननरीज में व्यभिचार के भयंकर किस्से पूरे इंग्लैंड में फैल रहे थे।" लगभग 7000 पादरी उन दिनों पूरे इंग्लैंड में थे, जब 16वीं शती ईस्वी में उनके मठों की जागीरें छीनी गई। ये 7000 ही तब तक शिक्षित थे, साथ में राजपरिवारों के लगभग 1000 लोग।' शेष सम्पूर्ण इंग्लैंड (लगभग 10 से 12 लाख लोग) सर्वथा अशिक्षित था। यह सारी पढ़ाई तब तक लेटिन में ही होती थी। अंग्रेजी में तब तक कोई पढ़ाई नहीं होती थी। पादरियों का प्रचार था कि संसार के केंद्र में है जेरुसलम जहां जोशुआ मसीह जन्मा। 

16वीं शती के अन्त में पहली बार शुरू हुई इंग्लैंड में अंग्रेजी

जिन दिनों भारत में संस्कृत, पालि एवं प्राकृत में महान ग्रन्थों की रचना के शताब्दियों बाद गुरु नानकदेव, नामदेव, कबीर, रविदास, सूरदास, आदि हिन्दी में महान साहित्यिक एवं आध्यात्मिक रचनाएँ रच चुके थे तथा महाकवि गोस्वामी तुलसीदास अद्भुत महाकाव्य 'रामचरितमानस' रच रहे थे और मीराबाई के भजन भारत में सर्वत्र गाए जा रहे थे, तथा मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, गुजराती, ओडिया, बंगला, असमिया, कश्मीरी आदि में अत्यन्त श्रेष्ठ साहित्य रचा जा रहा था, उन दिनों, सोलहवीं शती ईस्वी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड में पहली बार 'बाइबिल' का अंग्रेजी भाषा में प्रकाशन हुआ और इंग्लैंड के 'जेंटिलमेन' को अंग्रेजी पढ़ने का अधिकार पहली बार दिया गया। यह वह समय है, जब भारत के गाँव- गाँव में पाठशालाएँ थीं और उसमें हर वर्ग तथा हर जाति के शिक्षक तथा छात्र नियमित साहित्य, व्याकरण, गणित, विज्ञान, कलाएँ आदि पढ़ रहे थे। इसके कुछ समय बाद, अंग्रेजी कवि शेक्सपियर ने रचनाएँ लिखीं, जो वस्तुतः डेढ़ सौ साल बाद, 18वीं शती ईस्वी में जाकर लोकप्रिय हुई। इंग्लैंड में सर्वसाधारण को तब तक भी शिक्षा का कोई अधिकार नहीं था। प्रारम्भिक अंग्रेजी 200-250 वर्षों बाद क्रमशः विकसित हो सकी।

विनाश लूट और पुनर्वितरण के बाद संसद का क्रमशः विकास 

11वीं शती ईस्वी में नॉर्मन लोग जब इंग्लैंड के बड़े हिस्से में जूटों, डेनों, वाइकिंगों, पिक्टों, रुजनाटों, सेक्सनों आदि का दमन कर उनके सभी राजाओं को वशवर्ती मित्र बनाने में सफल हो गये, तब वे दक्षिणी इंग्लैंड पर अपने कब्जे को सुदृढ़ करते हुए उत्तरी इंग्लैंड को भी वशवर्ती बनाने का प्रयास कहीं शक्ति और कहीं युक्ति के बल पर करने लगे। दक्षिण में तो उन्होंने पुराने सामन्तों और जागीरदारों में से जो निष्ठावान और भरोसेमन्द दिखे, उन्हें अपनी शर्तों पर जागीर चलाने को दे दी। परन्तु उत्तर का हिस्सा आसानी से झुकने को तैयार नहीं था।

नार्मनों की जीत में इंग्लैंड के पादरियों की कूटनीति और छल की निर्णायक भूमिका रही थी। नार्मन सेनापति विलियम के पास लंदन को हरा सकने योग्य सैनिक शक्ति नहीं थी। तब विलियम ने खुद को नार्मन्डी के ड्यूक रिचर्ड के प्रपौत्र एडवर्ड का वारिस प्रचारित किया, जो झूठ था। लंदन में तब सेक्सन लोगों की बहुलता थी। इन लोगों ने विलियम के दावे को नहीं माना, बल्कि उसका नाम ही दोगला (बास्टर्ड) रख दिया। विलियम ने लंदन के पश्चिम और उत्तर के कई गाँवों को आग लगा दी। आग जब शहर की ओर बढ़ती दिखी, तो डरकर लंदनवासियों ने समर्पण कर दिया। 1066 ईस्वी के क्रिसमस पर विलियम को पादरियों द्वारा ताज पहनाया गया। लेकिन बाहर उस समय भी चारों ओर आग फैल रही थी, जिससे भगदड़ मच गई। समारोह स्थल पर केवल विलियम और मुख्य पादरी बचे। 150 शासन के बल पर नार्मनों ने धीरे-धीरे अपना प्रभुत्व बढ़ाया, परन्तु इसके लिए नृशंस अत्याचारों और हत्याकाण्डों का बड़े पैमाने पर सहारा लिया गया। दक्षिण के यार्क इलाके से उत्तर के दरहम तक लगभग 500 किलोमीटर लम्बाई और 100 किलोमीटर चौड़ाई के कुल 50000 वर्ग किलोमीटर के इलाके में विलियम के कई हजार सैनिक फैल गये और प्रत्येक गाँव को महीनों तक आग के हवाले करते रहे। लूट का यह क्रम वर्षों तक चलता रहा।" उत्तरी इंग्लैंड तब भी अधीनता में नहीं आया। तब नार्मनों ने वहाँ के कुछ जागीरदारों को पटाया, परन्तु डेनों और वाइकिंग लोगों से नार्मनों के युद्ध वर्षों तक चलते रहे। विलियम ने इंग्लैंड के पुराने 'लैंड लॉईस' के खेत और इलाके छीनकर कब्जे में लेकर उन्हें अपने अनुयायियों के बीच बाँट दिया। फ्रेंच भाषी सामन्तों को बाहर से लाकर बसाया गया और लूट के माल का तथा लूटी गई जागीर का बँटवारा इन लोगों को किया जाता रहा।

राजा और उसके द्वारा बसाये गये सामन्तों (बैरॅन्स) के बीच ईसाई पादरी अपनी योजनाएँ चलाते रहे और जनता में स्वयं के दैवी होने की साख जमाते रहे। इस बीच नॉर्मन राजा ने पूरे इंग्लैंड में अपने ही कानून चलाने की कोशिश की। नार्मनों, सेक्सनों, केल्त जनों सहित सभी को वे ही कानून मानने अनिवार्य कर दिये, जो उन लोगों के लिए असह्य और अस्वीकार्य थे। राजा ने हर मोहल्ले में एक अपनी अदालत बनायी। इंग्लैंड के एक तिहाई हिस्से को राजा का वनक्षेत्र घोषित कर दिया गया और वहाँ के लिए वन-न्यायालय (फारेस्ट कोर्ट) बनाये गये, जिसके द्वारा जंगल की वस्तुओं के प्रयोग पर और परम्परा से जिन पशुओं-हिरणों आदि का शिकार भोजन के लिए लोग करते थे, उनके शिकार का निषेध कर दिया गया। शिकार करने वाले की या तो आँखें फोड़ दी जातीं या मृत्युदण्ड दिया जाता। इस सबका परिणाम यह हुआ कि इंग्लैंड में गरीबी बढ़ती गई और वनों पर निर्भर जनता भूखों मरने लगी।

फ्रेंच पादरियों और बिशपों को नॉर्मन राजाओं ने बाहर से लाकर बड़े पैमाने पर इंग्लैंड में बसाया। सेक्सन लोगों के पुराने पूजास्थलों को तोड़ डाला। ज्यादातर जगह तो कोशिश यह रही कि पूजास्थलों के मलवे का अधिकतम उपयोग किया जाये। बंधुआ मजदूरी के द्वारा नये बड़े-बड़े चर्च बनवाये गये। यह सब रोम के पोप के इशारे पर हुआ। पहले सेक्सन मन्दिरों के पुजारी अपनी पत्नी के साथ रहते थे। अब पोप के आदेश से नया नियम लागू हुआ कि चर्चा में केवल सेलीबेट यानी अविवाहित ही रहेंगे। दूसरी ओर यह आदेश भी था कि पढ़ाई केवल चर्चा के भीतर और केवल बाइबिल तथा क्रिश्चियन लॉ की और साथ ही चर्च द्वारा स्वीकृत पाठ्य सामग्री की ही होगी। शीघ्र ही सम्पूर्ण इंग्लैंड में प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति अविवाहित हो गया और जीवन भर अविवाहित रहने को विवश हो गया। परिणाम यह हुआ कि थोड़े ही समय में इंग्लैंड में केवल अवैध संतानों का चारों ओर जाल बिछ गया। इंग्लैंड में भयंकर व्यभिचार छा गया। इसी बीच नॉर्मन चर्च को धार्मिक न्यायालय की शक्ति दे दी गई। लौकिक विषयों के न्यायालय राजा और उनके अधिकारियों के अधीन कर दिये गये। और पादरी राजा के अधीन घोषित किये गये। की हैसियत भी हो गई। परन्तु इसके साथ ही सभी बिशप और इस प्रकार राजा की धर्माचार्य उधर सभी सिविल अफसर और शिक्षित जनों वाले प्रत्येक व्यवसाय में अविवाहित लोग ही बच रहे।" जनसाधारण अनपढ़ था और उसे धर्म सम्बन्धी किसी भी मामले में किसी निर्णय का अधिकार नहीं था। फलस्वरूप पादरियों ने भीषण मनमानी और अत्याचार शुरू किये।

12वीं शताब्दी ईस्वी में हेनरी प्रथम दक्षिणी इंग्लैंड का राजा बना था। इसी समय मुसलमानों से ईसाइयों के प्रचण्ड युद्ध शुरू हो गये थे। मुसलमानों ने इसे जेहाद कहा और ईसाइयों ने इसे 'क्रूसेड' कहा। क्रूसेड के उन्माद से आस्थावान ईसाइयों में अद्भुत असहिष्णुता फैलो और कुछ समय बाद ईसाइयत के प्रत्येक पंच का अनुयायी ईसाइयत के ही दूसरे पंथ के अनुयायियों की बस्तियों को जलाने लगा तथा लोगों को जिन्दा जलाने का यह सिलसिला 500 वर्षों तक समय-समय पर चलता रहा। हेनरी द्वितीय ने अराजकता और भय की स्थिति का फायदा उठाकर अपना बनाया कॉमन लॉ सम्पूर्ण इलाके में स्थिर किया, जिसके पीछे फ्रेंच कानूनों की प्रेरणा थी।" उसके बाद हेनरी द्वितीय आया और फिर एडवर्ड प्रथम। एडवर्ड प्रथम के ही समय में तथाकथित संसद का विकास हुआ। यद्यपि इस बीच इंग्लैंडवासियों के बहुलांश का वंशनाश हो चुका था। बचे हुओं को चर्च और राजा का विनम्र सेवक बनाया जा चुका था।

पार्लियामेंट का अर्थ

पार्लियामेंट का मूल शब्द है पार्लियामेंटम्, जिसका अर्थ है वार्ता स्थल (पार्ले या टॉकिंग शॉप)। सामन्तों के एकत्रीकरण को यह नया नाम दिया गया था। इस पार्लियामेंट में कोई व्यक्ति चुनकर नहीं आते थे और वोट देने का भी कोई नियम या कोई परम्परा वहाँ नहीं थी। व्यवहारतः वह राजा की परिषद् थी। राजा अपने अधीनस्थ न्यायलयों के प्रतिनिधियों में से चुनकर इस परिषद् में लोगों को बुलाता था।

14वीं शती ईस्वी के मध्य में राजभक्त इन सांसदों से जब राजा ने पूछा कि वे अपने-अपने इलाके में किन कानूनों से शासन करते हैं, तो अलं वारेने ने अपनी तलवार म्यान से खींचकर चमकाई और कहा कि 'इस कानून से। राजा एडवर्ड प्रथम शान्त रहा। क्योंकि जवानी में वह इन सामन्तों की ताकत देख और जान चुका था। धीरे-धीरे राजा अपने निष्ठावान न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाता रहा और इन न्यायालयों का क्षेत्राधिकार भी बढ़ाता गया। इसी बीच काली मृत्यु (ब्लैक डेथ) के नाम से प्रसिद्ध प्लेग की महामारी में इंग्लैंड की आधी आबादी मौत की नींद सो गई। विपदा की उस भयंकर स्थिति में राजा की मनमानी के विरोध का किसी को साहस न रहा।

यह वह समय था, जब भारत में महान बोल, चालुक्य, चेदि और भोजराज परमार के साम्राज्य हो चुके थे और मराठों तथा राजपूतों के विशाल राज्य, दक्षिण भारत में विजयनगर साम्राज्य, असम में विविध हिन्दू भूपतियों के राज्य, बंगाल में पाल वंश और उसके बाद इलियास शाही का राज्य, उड़ीसा में गंग वंश का राज्य तथा दिल्ली में भारतीय मुसलमान लोदी वंश का शासन था।

पहले हजारों किसानों को छलघात से मरवाया और फिर रियायतों की 

घोषणा की राजा के अधीन कार्यरत चर्च, बड़े सामन्त और छोटे सामन्तों की प्रतिनिधि उस संसद में किसानों का कोई भी प्रतिनिधि नहीं होता था। 1381 ईस्वी में किसानों के विशाल जत्थों ने अचानक सामन्तों को मारना शुरू कर दिया। सामन्त भाग-भागकर राजमहल में जा खुपे। किसानों ने चारों ओर से उन्हें घेर लिया। उन दिनों इंग्लैंड का राजा रिचई द्वितीय था, जो 4 साल पहले 10 साल की उम्र में गद्दी पर बिठाया गया था। किसान सामन्तों के अत्याचारों से क्रुद्ध थे, परन्तु राजा के प्रति भक्तिभाव रखते थे। राजा ने सामन्तों के इशारे पर किसानों को वार्ता के लिए बुलाया और उनसे मीठी बातें करते रहे। दूसरी ओर सामन्तों की सेनाओं ने किसानों के नेताओं का वध करने के बाद किसानों का भी क्रत्लेआम शुरू कर दिया।

जब किसानों में क्रोध उभरा तो राजा ने अचानक उनको रियायतें देने की घोषणा कर दी। यद्यपि इन की गई रियायतों में से अधिकांश पर कोई अमल नहीं हुआ, तो भी आगे से किसान प्रतिनिधियों को भी संसद में बुलाया जाने लगा। राजा ने स्पष्ट कहा कि हम इन प्रतिनिधियों को इसलिए बुला रहे हैं कि हम इनके बारे में बेखबर न रहें, इनके मन की बात जानते रहें। परन्तु व्यवहार में संसद में किसानों के प्रतिनिधियों को केवल बैठने को अनुमति थी। किसी भी कानून को बनाते समय न तो उनसे कोई राय ली जाती थी और न ही उनकी सहमति प्राप्त की जाती थी। महत्त्वपूर्ण मसलों पर तो छोटे सामन्तों को भी मौन रहकर केवल बड़ों की बहसें चुपचाप सुनने का ही आदेश था।

इसी प्रक्रिया में से 15वीं शती ईस्वी के प्रारम्भ में हाउस ऑफ़ कॉमन्स और हाउस ऑफ लाईस आकार लेने लगे। उन दिनों इंग्लैंड में 60 बड़े लॉईस थे, जिनमें से प्रत्येक अपनी-अपनी निजी सेना रखते थे। एक सेना राजा की अलग होती थी, जो रॉयल सेना कहलाती थी। परन्तु राजा को सदा इन 60 लॉर्ड्स में से बहुमत को अपनी ओर मिलाकर रखना पड़ता था, तब भी राजा वहाँ सर्वोपरि और सर्वमान्य थे।

रिचर्ड द्वितीय के समय एक बार संसद की बैठक में इन लॉईस ने माँग की कि अपने भ्रष्ट और व्यभिचारी चांसलर को कृपा कर हटा दें। इस पर राजा ने कहा- "मैं संसद को खुश करने के लिए अपनी किचन के निम्नतम (लोलिएस्ट) नौकर तक को नहीं हटाऊँगा। चांसलर को हटाने की तो कल्पना भी मत करिये।" उस समय तो सब लॉईस चुप रहे, परन्तु कुछ समय बाद उन्होंने राजा के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। थेम्स नदी के किनारे रॉडकॉट का युद्ध हुआ, जिसमें राजा की सेना हार गई। राजा ने भागकर एक टॉवर के नीचे शरण ली, बाद में बीच-बचाव से शान्ति हुई। यह थी इंग्लैंड में संसद के विकास की प्रक्रिया।

बाद में क्रमशः हाउस ऑफ कॉमन्स में चुने गये प्रतिनिधि बैठने लगे, परन्तु इन प्रतिनिधियों का चुनाव कभी भी बालिग वोट के आधार पर तब तक नहीं होता था। 19वीं शताब्दी ईस्वी में जाकर ही बालिग वोट के आधार पर प्रतिनिधियों को चुने जाने के नियम बने।

पन्द्रहवीं शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध में इंग्लैंड को दुनिया की बहुत कम जानकारी थी


पन्द्रहवीं शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध में इंग्लैंड को केवल पश्चिमी यूरोप, ग्रीस, इजिप्ट, फारस, इराक, भारत, चीन और रूस की जानकारी थी। रूस का वह वृहत्तर क्षेत्र, जो बाद में सोवियत संघ बना, इंग्लैंड के लिए अज्ञात था। अफ्रीका के ऊपरी हिस्से उसे विदित थे, क्योंकि वे इंग्लैंड के पास ही थे, पर अफ्रीका के भीतरी हिस्सों की उसे कोई जानकारी नहीं थी। आस्ट्रेलिया की भी उसे कोई जानकारी नहीं थी। उसी शताब्दी में कोलम्बस इंडी की खोज में निकला। बाद में वास्कोडिगामा कालीकट पहुँचा। 1

यूरोप के विभिन्न देश पन्द्रहवीं शती उत्तरार्द्ध में दुनिया की खोज के लिए छटपटा उठे, क्योंकि रेनेसां के बाद उन्हें पहली बार पता चला कि दुनिया बहुत बड़ी है। पर उनका अज्ञान ऐसा था कि वे मानते थे कि जहाँ हम पहुँचे, वह पूरा इलाका हमारा राज्य। हमें असभ्य गैर-ईसाइयों को जीतकर उन्हें सभ्य ईसाई बनाना है। ईसाइयत के पहले के यूरोप को जो ज्ञान था, वह 11वीं से 14वीं शती ईस्वी तक ईसाइयों ने पूर्णतः नष्ट कर डाला था तथा उसे अज्ञात घोषित कर प्रतिबंधित कर दिया था। 15वीं शती ईस्वी में छिप छिपकर उस प्राचीन ज्ञान के कुछ अंश सामने लाए जाने लगे। तब वहाँ नई जिज्ञासा जगी। अज्ञान, चर्च के द्वारा कठोर दमन एवं प्रचण्ड अनुशासन ने इनके प्राणों में नई छटपटाहट और प्रबल एकपंथवादी उन्माद भर दिया था। 'रेलिजन' की सही हिन्दी है 'एकपंथवाद'। वह सचमुच अफीम की तरह नशा और उन्माद देता है। मार्क्स की 'रेलिजन' के बारे में टिप्पणी यूरोपीय रेलिजन की भूमिका के ज्ञान पर आधारित थी।

वस्तुत: यूरोप के विभिन्न देशों के पारम्परिक राजाओं ने ईसाइयत को केवल इस आशा से प्रश्रय दिया था कि वह प्रजा को विनम्र आज्ञाकारी बनायेगी। चर्च ने राजाओं-रानियों को यही भरोसा दिलाया था। एक सीमा तक वह बात सच थी। प्रजा की आज्ञाकारिता फ्रांस के प्रत्येक राज्य में तो अद्वितीय रूप में थी। इंग्लैंड में थोड़ी कम थी। परन्तु तब भी रानी के पास बहुत शक्ति थी। एडवर्ड षष्ठम की मृत्यु के बाद हेनरी अष्टम की दोनों बेटियों मेरी और एलिजावेथ में से किसी को गद्दी मिलनी थी। कुछ दरबारी दोनों की हत्या का षड़यंत्र रच रहे थे। मेरी बड़ी थीं, वे रानी बनीं। परन्तु उसने स्पेन के राजकुमार फिलिप से विवाह का निश्चय किया। इससे इंग्लैंड के लोग नाराज हो गये। प्रोटेस्टेंट पादरी वाट ने कैथोलिक फिलिप से रानी के विवाह का विरोध किया। इस विरोध को राजद्रोह माना गया। वाट को मार डाला गया।

उत्साहित मेरी ने गैर-कैथोलिकों को फाँसी देने, उत्पीड़ित करने, सामूहिक रूप से जला डालने के 'हेरेसी लॉ' को पुनः लागू कर दिया। परन्तु इससे ब्रिटिश भद्रजन, जो अब थोड़े खुले मन के हो गए थे, कुपित हो गए। धीरे-धीरे मेरी का विरोध बढ़ा। पाँच साल तक आन्तरिक दबाव झेलकर 17 नवम्बर, 1558 को वह मर गई। तब 25 वर्षीय एलिजाबेथ रानी बनी एलिजाबेथ ने इंग्लैंड के भीतर आत्मगौरव जगाया एलिजाबेथ को लेटिन भाषा का ज्ञान था। यद्यपि उसके विरोधी उसे 'इटालियन इंग्लिश' कहते थे। क्योंकि वह कुछ इतालवी दार्शनिकों से प्रभावित थी। इसीलिए उसने कैथोलिकों और प्रोटेस्टेण्टों के झगड़े शान्त किए। उसी ने 'एंग्लिकन चर्च' की स्थापना की, जिसकी संरक्षक वह स्वयं बनी। अपने शासन के अन्तिम वर्षों में उसने अंग्रेजी की पढ़ाई को पहली बार प्रोत्साहित किया।

भारत में ब्रिटिश शासन की सचाई

एलिजावेथ ने इंग्लैंड की गरीबी दूर करने के लिए व्यापारियों को खूब प्रोत्साहन दिया। उन दिनों यूरोप के हर देश में व्यापार, डकैती और लूट परस्पर पर्याय थे। हर यूरोपीय देश (तब तक वे यूरोप नहीं कहलाते थे, वस्तुतः हर क्रिश्चियन देश) के ये डकैत छिनैत और लुटेरे व्यापारी एक दूसरे को लूट लेते, मार डालते। बल का खेल था। एलिजाबेथ ने अपने व्यापारियों से दूर देश जाने कहा। समुद्र में अंग्रेज़ों की डचों, पुर्तगीजों, स्पेनिशों, फ्रेंचों से भयंकर मारकाट होती। अत: अपने-अपने देश में या राज्य में आपसी समर्थन के लिए कम्पनियाँ बनने लगीं। इंग्लैंड में भी कई कम्पनियाँ बनीं। रानी एलिजाबेथ ने सभी को अनुमति दी कि अपने खर्च और अपनी 'रिस्क' पर जाओ, लड़ो, लूटो, लूटकर लाओ और मुझे उसमें हिस्सा देकर शेष आपस में बाँट लो। अंग्रेज़ व्यापारियों की कुछ टुकड़ियाँ उत्साह से भरकर मास्को में जार के दरबार पहुँची और आगरा में पहले अकबर, फिर जहाँगीर के दरबार में भी हाजिरी बजाई। यह सत्रहवीं सदी ईस्वी के आरम्भ की घटना है। अकबर के समय तो इजाजत नहीं मिली, पर जहाँगीर से इजाजत लेकर हॉकिन्स ने सूरत में गोदाम और दफ़्तर किराये पर लिया। यह 1608 ईस्वी की बात है। तीन साल बाद हॉकिन्स को लौटना पड़ा। फिर पाल केनिंग, विलियम एडवर्ड व टामस रो आए। सत्रहवीं शती ईस्वी के आरम्भ में इन फिरंगियों की भारत में यह स्थिति थी कि इन्हें मुगलों और मराठों के द्वारपाल व चपरासी भी चप्पड़ मार देते, झिड़क देते। पठान लोग उन्हें सड़कों पर लूट लेते। इसीलिए इन्होंने पठान पिंडारियों के बारे में जमकर लिखा व प्रचार किया, मानो सारे देश में उन्हीं का राज हो, जबकि असलियत यह है कि उन दिनों देश के बड़े हिस्से में मराठों का राज्य था। कहीं-कहीं सुनसान पाकर पठान पिंडारी लूट करते थे। टामस रो ने बड़े धैर्य से धंधा जमाया। धीरे-धीरे आगरा, अहमदाबाद, मुम्बई, पटना, कासिम बाज़ार, राजमहल और कोलकाता में दुकानें खोल लीं। उन्होंने जहाँगीर के साथ ही विजयनगर साम्राज्य के हिन्दू शासकों को भी प्रसन्न कर उनसे भी व्यापार की अनुमति प्राप्त कर ली।

मिशनरी उन्माद से भरे ये व्यापारी जीसस का साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्र देखते रहते थे। लगभग 100 वर्षों तक वे व्यापारिक शक्ति ही बढ़ाते रहे। इस बीच डच और पुर्तगीज व्यापारी भी भारतीय राजाओं की आज्ञा ले-लेकर व्यापार करने लगे थे। भारतीय राजा इन्हें विदेशी व्यापारी मानकर देश का व्यापार बढ़ाने के उद्देश्य से अनुमति दे रहे थे। जबकि ये लोग पंथोन्माद से भरकर जीसस का राज्य स्थापित करने का स्वप्र देख रहे थे। भारतीयों को किसी एकपंथवादी उन्माद का अधिक ज्ञान नहीं था, यद्यपि इस्लाम का उन्माद ये देख चुके थे पर वह उन्माद सैन्य-बल के साथ उमड़ता था। निरीह से दिख रहे व्यापारी मन ही मन ऐसे हास्यास्पद सपने पाले हैं, यह वे नहीं जान पाए। इधर अंग्रेजों ने धीरे-धीरे सूरत, मुम्बई, मद्रास व कोलकाता में अपने अड्डे बना लिए। फिर वे इन्हें मुम्बई, मद्रास व कोलकाता की प्रेसीडेन्सी कहने लगे। इनके लिए कम्पनी के जो अफ़सर तैनात किए जाते, उन्हें कम्पनी के डायरेक्टर कहा जाता था। कतिपय विमूढ़ नवशिक्षित भारतीय इन्हें उन इलाकों के बड़े राजनैतिक पदाधिकारी मानते हुए इतिहास लिखते हैं। जबकि स्पष्टतः वे निजी व्यापारिक कम्पनियों के निजी निदेशक मात्र थे।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक निजी कम्पनी के शेयर होल्डर्स आपस में मिलकर एक 'कोर्ट ऑफ़ प्रोप्राइटर्स' बनाते थे यानी कम्पनी के मालिकों की परिषद् । यह परिषद् प्रतिवर्ष 24 कम्पनी निदेशक तैनात करती थी। जब भारत के व्यापार से मुनाफा होने लगा तो फिरंगी व्यापारियों का लालच बढ़ा। वे शेयरों को ऊँचे दाम पर छिपे तौर पर खरीदने-बेचने लगे। इससे खूब भ्रष्टाचार फैला। तब एक नियम बनाया गया कि प्रोप्राइटर्स की बैठक में मत देने का अधिकार केवल उसे होगा, जो एक हजार पाँड के शेयर कम्पनी के खरीदेगा। यह भी नियम बना कि एक वर्ष में केवल 6 डायरेक्टर चुने जायेंगे। कोर्ट ऑफ़ प्रोप्राइटर्स केवल व्यापार और वाणिज्य में दिलचस्पी रखने वालों की ही संस्था बनी रही।

वस्तुतः ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से वर्तमान यूरोप के विविध देशों में जो अनेक कम्पनियाँ बनी थीं, उनमें से लंदन के व्यापारियों ने 1600 ईस्वी के अन्तिम दिनों में एक कम्पनी बनायी थी और महारानी एलिजाबेथ ने उसे इस आधार पर व्यापार का अधिकार दिया था कि कम्पनी रानी को उचित कमीशन देगी। इस कम्पनी का पहला व्यापारिक पोत 1608 ईस्वी में स्ररत पहुँचा था। परन्तु पुर्तगालियों से इसकी टक एट हो गई। अन्न 4 वर्ष बाद हा यह कम्पनी सूरत में व्यापार शुरू कर पाई और वह भी तत्कालीन मुग़ल बादशाह का फ़रमान पाने के बाद। टॉमस रो ने जहाँगीर के समय अपनी चतुराई से 1617-18 ईस्वी में व्यापार के कुछ विशेष अधिकार प्राप्त किये थे और 1640 ईस्वी में विजयनगर साम्राज्य के शासकों के प्रतिनिधि से मद्रास नगर के व्यापार के बारे में अधिकार प्राप्त किये थे। 1669 से 1677 ईस्वी के बीच कम्पनी ने मुम्बई में अपना कारोबार और उसके भवन आदि विकसित किये और तब 1687 ईस्वी में कम्पनी का मुख्यालय सूरत से मुम्बई लाया गया। कम्पनी के ही एक वफ़ादार सेवक जॉब चार्नाक ने बंगाल के नवाब से विनम्रतापूर्वक प्रार्थना कर भागीरथी की दलदली भूमि पर बसे सूतानाटी नामक गाँव में अपनी फैक्टरी और उसके दफ्तर आदि बनाने की इजाजत हासिल की। बाद में कोलिकाता और गोविन्दपुर नामक दो गाँव को उसमें और जोड़ दिया गया। ये तीनों गाँव ही आगे चलकर कोलकाता नगर के रूप में विकसित हुए हैं।

नवाब इब्राहिम ख़ाँ को अपनी खुशामद और नजराने से खुश करने के बाद कम्पनी ने वहाँ व्यापार के लिए सीमा शुल्क के भुगतान से माफी पा ली। कम्पनी के ही एक सर्जन हेमिल्टन ने फर्रुखशियर का इलाज किया, जिससे उन्होंने भी खुश होकर सीमा शुल्क से मुक्ति का फ़रमान जारी कर दिया।

लंदन में इसी समय 'दि इंग्लिश कम्पनी ट्रेडिंग टू दि ईस्ट इण्डीज' नामक एक और व्यापारिक संस्था बनी। दोनों कम्पनियों के बीच जबर्दस्त होड़ चली और अन्त में लंदन के व्यापारियों के दबाव से 1708 ईस्वी में दोनों कम्पनियों में समझौता हुआ और उनका साझा नाम रखा गया 'दि यूनाइटेड कम्पनी ऑफ़ दि मर्चेन्ट्स ऑफ़ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू दि ईस्ट इण्डीज'। इसी का प्रचलित नाम बाद में भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी बना रहा।

इंग्लैंड के व्यापारियों ने ब्रिटिश शासकों से कभी भी इस बात की इजाजत नहीं ली थी कि वे भारत में कोई राजनैतिक कार्यवाही और उसके अन्तर्गत सैनिक कार्यवाही करेंगे। वे तो एक तरह से सशस्त्र चौकीदार रखने की आड़ में सैनिक टुकड़ियाँ भरती कर रहे थे। यहाँ तक कि 1857 में भी सैनिक कार्यवाही का निर्णय ब्रिटिश केबिनेट ने नहीं लिया था।

ईसाईयत के विरोधी थे नवजागरण के प्रबुद्ध आध्यात्मिक विचारक

यहाँ उन दिनों इंग्लैंड की जो हालत थी, उसके कुछ और प्रासंगिक तथ्यों का पुनः संकेत आवश्यक है। भारत में ब्रिटिश शासन के प्रयास की जो अवधि अब प्रच्चारित की जाती है, उस अवधि में और उससे तत्काल पहले की अवधि में इंग्लैंड में कोई ऐसा शासक या शासक वर्ग था ही कहाँ, जो ऐसे प्रयासों की कोई योजना बनाता। धन की असीमित लालसा से हाथ-पैर मार रहे, दोन-होन, असंस्कृत और स्वयं इंग्लैंड में कोई हैसियत न रखने वाले तथा रोजगार, धंधे और मुनाफे की तलाश में बाहर भटक रहे, हाथ-पैर मार रहे लोगों को ही शासक वर्ग या साम्राज्य- संस्थापक वर्ग कहने लगे, तब तो विश्व-इतिहास के सर्वमान्य आधार ही ध्वस्त हो जाएँगे।

नवजागरण के बाद इंग्लैंड में मध्ययुगीन क्रिश्चियनिटी की आस्थाओं का तीव्र विरोध शुरू हो गया था। ब्रिटेन में जो नये दार्शनिक आए, वे क्रिश्चियनिटी के विरोधी तथा बहुदेववाद के समर्थक थे। जो लोग केवल एक ही ईश्वर में श्रद्धा रखते थे, वे भी यह नहीं मानते थे कि केवल एक ही प्रभुपुत्र हुआ है और वह है जोशुआ मसीह।" इस प्रकार वे लोग आध्यात्मिक तो थे, परन्तु क्रिश्चियन नहीं थे।" भौतिकशास्त्र और गणित में जो खोजें हुईं, उन्होंने नक्षत्रों की गति, पृथ्वी की गति और नियम आदि के बारे में जो ज्ञान अर्जित किया, उसने मध्ययुगीन क्रिश्चियनिटी की नींव हिलाकर 
रख दी। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त, गति और वेग के नियम आदि ने बुद्धिनिष्ठा जागृत की। दार्शनिक जॉन लॉक ने यह मत प्रतिपादित किया कि शासन और शासित प्रजा के मध्य एक तरह का सामाजिक अनुबन्ध होता है और क्रिश्चियन शासक को चर्च की मध्यस्थता से दैवी अधिकार प्राप्त होने की आस्था असत्य है।" थॉमस पेन नामक राजनीतिशास्त्री ने भी इन्हीं विचारों को आगे बढ़ाया। दार्शनिक डेविड ह्यूम ने प्रकृति के सिद्धान्तों और नियमों पर विशेष बल दिया और क्रिश्चियनिटी के दैवी हस्तक्षेप के विशेष स्वरूप को अमान्य ठहरा दिया।" मेरी विलस्टोन क्राफ़्ट नामक लेखिका और इतिहासकार ने चर्च और उसकी मान्यताओं के नाम पर हो रहे क्रिश्चियन स्त्रियों के घृणित और बर्बर शोषण के विरुद्ध 'फेमिनिज्म' का आन्दोलन पूरी शक्ति से फैलाया।"

इस प्रकार वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की एक पूरी श्रृंखला इंग्लैंड में उभरी, जिनमें से प्रायः कोई भी नास्तिक नहीं थे। वे सभी सर्वोच्च सत्ता पर और दैवी सत्ता पर पूर्ण विश्वास रखते थे। लेकिन आस्था पर और 'डिवाइन रेवलेशन' पर टिकी क्रिश्चियनिटी पर उन्हें कोई आस्था नहीं थी और वे उसे पूरी तरह अस्वीकार करते थे। इनमें बर्नार्ड शॉ और बट्रॅण्ड रसेल जैसे शीर्षस्थ दार्शनिक भी थे। वे विश्व को प्राकृतिक नियमों से संचालित मानते थे और इस प्रकार सत्य तथा ऋत की भारतीय अवधारणाओं के बहुत निकट थे। दूसरी ओर क्रिश्चियनिटी के भीतरं भी जॉन वेस्ले जैसे दार्शनिक उभरे, जिन्होंने बड़े परिश्रम से क्रिश्चियनिटी को बौद्धिक गरिमा दी। उस समय जब अधिकांश पादरियों पर व्यभिचार के आरोप लगाये जा रहे थे, जॉन वेस्ले जैसे लोग इन आरोपों से मुक्त रहे।

केथोलिकों की पिटाई का कानून रद्द करने के विरोध में भड़के दंगे

तीरी ओर केथोलिक पंथ के विरुद्ध इंग्लैंड में प्रचण्ड भावना प्रबल हो रही थी और स्थिति यह हुई कि तर्कबुद्धि के नये प्रभाव में आई हुई सरकार ने जब केथोलिकों को पीट सकने के अधिकार को समाप्त करना चाहा, तो प्रोटेस्टेण्ट समूहों ने दंगे शुरू कर दिये, जो 'गोर्डन रायट' के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हैं।" केथोलिकों के प्रति इंग्लैंड में गहरी घृणा बढ़ती गई, उन्हें लगता था कि इंग्लैंड में स्वतंत्रता और सहिष्णुता की जो भावना आई है, वह इन केथोलिकों के कारण खत्म हो जायेगी, क्योंकि ये केथोलिक सम्राटों विशेषकर फ्रांस और स्पेन के अंधे समर्थक हैं तथा इंग्लैंड के विरुद्ध उक्त षड्यंत्र रचते रहते हैं। इस प्रकार इंग्लैंड के उदार और सहिष्णुता समर्थक लोग ही केथोलिकों के विरुद्ध थे। परिणाम यह हुआ कि गोर्डन के दंगों में विलियम ब्लैक जैसे प्रसिद्ध कवि तक चपेट में आ गये, यद्यपि वे स्वयं पोप की सत्ता के विरोधी थे। ब्लेक का मानना यह था कि जीसस इंग्लैंड आए थे और इंग्लैंड के पर्वतों पर घूमे थे।

मध्ययुगीन ईसाईयत के विरुद्ध प्रबुद्ध जनों की पहल

1768 ईस्वी में लंदन में रॉयल एकेडमी स्थापित हुई, जिसमें अनेक लेखक कलाकार और चित्रकार शामिल हुए और उन्होंने कला को क्रिश्चियन आस्थाओं से मुक्त तथा वैज्ञानिक निष्कर्षों से पुष्ट सिद्धान्तों पर आधारित किये जाने का आन्दोलन चलाया। रॉयल एकेडमी के प्रभाव से पहली बार इंग्लैंड में वहाँ के कैलेण्डर को वैज्ञानिक गणना के अनुसार ठीक करने का अभियान चलाया। इसके पहले तक वहाँ कैलेण्डर के रेलिजस आधार और पारम्परिक मान्यताओं के आधार ही मान्य थे।

दासों की खरीद-बिक्री के धन्धे में लिप्त इंग्लैंड

विज्ञान, गणित, संस्कृति और दर्शन के इन अनेक अभियानों के साथ ब्रिटेन में नया उत्साह आ रहा था और दूसरी ओर भारत तथा अन्य देशों में गये व्यापारी अधिकाधिक धन ला रहे थे, इसके आधार पर सम्पूर्ण ब्रिटेन में पहली बार एक राष्ट्रीय भावना का जन्म अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में हुआ, इसके पहले तक इंग्लैंड में एक राष्ट्र होने की कोई भी भावना ज्ञात इतिहास में नहीं थी।

यहाँ यह भी स्मरणीय है कि 17वीं शताब्दी के अन्त तक इंग्लैंड दासों के व्यापार में पूरी तरह लिप्त था और 1672 ईस्वी तक में इंग्लैंड की रॉयल अफ्रीकन कम्पनी ने अपने चार्टर में अन्य वस्तुओं के साथ गुलामों की भी दरें लिख रखी थीं।" मानो वे भी सोने और हाथी दाँत की ही तरह एक मूल्यवान और खरीद-बिक्री के योग्य वस्तु हों। गुलामों के व्यापार के पक्ष में तर्क यह दिया गया कि अफ्रीकी मनुष्य नहीं हैं।" उनके आत्माएँ नहीं होतीं और वे पशु ही हैं। यह भी कहा गया कि वे क्रूर हैं, अज्ञानी हैं, सुस्त हैं, धूर्त हैं, दगाबाज हैं, खूनी हैं, चोर हैं, भरोसेमन्द नहीं हैं और अंधविश्वासी हैं।"घृणा के इस अभियान में उनके बालों की और उनकी देह से उठने वाली गंध तक की खिल्ली उड़ाई गई।" और उनके विषय में जुगुप्सा पैदा की गई। यह कहा गया कि वे ओरांगउटान नामक अर्धमानुष की तरह हैं। यह जुगुप्सा अभियान यहाँ तक आगे गया कि उनके बालों में रहने वाली जूं और मल त्याग से निकलने वाले पेट के कीड़ों तक की तुलना अंग्रेजों और यूरोपीयों की जूं तथा कीड़ों से करके पहले को निकृष्ट और स्वयं को सुन्दर जूं और कीड़ों वाला बताया गया। यह था तत्कालीन अंग्रेजों की सभ्यता का स्तर, जिसकी प्रशंसा करते भारत के नवशिक्षित अघाते नहीं।

क्रूर अमानवीय व्यवहार

दासों को किस तरह जंजीरों में बाँधकर क्रूरता के साथ समुदी जहाजों में डालकर ले जाया जाता था और कैसी अमानवीय दशा में रखा जाता था, उसके रोंगटे खड़े कर देने वाले वर्णनों पर सैकड़ों पुस्तकें छप चुकी हैं।" यहाँ उस जुगुप्साजनक वर्णन पर विस्तृत प्रकाश डालना उचित नहीं है। परन्तु दासों को खरीदते समय अंग्रेज तथा अन्य यूरोपीय जो व्यवहार करते थे, वह कितना शर्मनाक था, इसका कुछ संकेत पर्याप्त होगा। निर्वसन दास स्वी-पुरुषों के सम्पूर्ण शरीर को छूकर देखा जाता था, जिसमें गुप्त-अंग भी शामिल थे। यह सब अत्यन्त शर्मनाक था। दासों के शरीर के एक-एक अंग, हाथ, पैर, छाती, पीठ, जाँध, ठोड़ी, नाक और दाँत तक छू-छूकर देखे जाते थे। यहाँ तक कि कांगो के राजा ने इन व्यापारियों से इस बात पर गहरी अप्रसन्नता व्यक्त की कि दासों से इतना अधिक अपमानजनक व्यवहार किया जाता है और कहा कि 'सभ्यता का तकाजा है कि ऐसा कुछ व्यवहार करना भी हो तो सम्बन्धित व्यक्ति को एकान्त में ले जाकर करें, सबके सामने नहीं। 

कामान्ध नस्लवाद के रेलिजस आधार

जहाँ एक ओर अंग्रेज तथा अन्य यूरोपीय जन अपनी नस्ल की श्रेष्ठता का दावा कर रहे थे, वहीं वे काले रंग वाली सुन्दर अफ्रीकी दास स्त्रियों के साथ दैहिक सम्पर्क खुलकर बनाते थे और इसमें उन्हें अपनी श्रेष्ठता के चलते कोई झिझक नहीं होती थी। 

'हाउ स्वीट दि नेम ऑफ़ जीसस साउण्ड्स' नामक पुस्तक के लेखक जॉन न्यूटन ने जहाँ दासप्रथा का भरपूर समर्थन किया, वहीं इस बात पर थोड़ा अफसोस जाहिर किया कि जंजीरों से न बाँधी गई दास अफ्रीकी स्त्रियों से सफेद चमड़ी वाले अंग्रेज तथा अन्य लोग खुलकर बड़े भद्दे ढंग से दैहिक सम्पर्क बनाते थे। वस्तुतः हर जहाज में जो दासों को ले जाता था, एक तिहाई ऐसी ही आकर्षक अफ्रीको स्त्रियाँ होती थीं। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि पूर्व में अफ्रीका में मुसलमान बने राजाओं और सामन्तों तथा व्यापारियों ने ईसाई गोरों को दास बनाकर भी उनका व्यापार किया था और साथ ही अफ्रीकी लोगों का भी दास व्यापार किया था। गोरे ईसाई भी मुख्यतः अफ्रीकी मुसलमानों को इस प्रकार दास बनाकर ले जाते थे और इस तरह दास-व्यापार के पीछे रेलिजस मान्यताएँ भी कारक थीं।

जहाँ तक सभ्यता के दावे की बात है, स्वयं जमैका तत्कालीन इंग्लैंड से कई गुना सुन्दर और समृद्ध शहर था तथा उसकी दो से तीन मंजिली भव्य इमारतें, सुन्दर बगीचे और अत्यन्त आकर्षक फूल सभी यूरोपीयों को स्वर्ग की याद दिलाते थे। यहाँ तक कि अनेक यूरोपीयों ने यह कहा भी कि वस्तुतः जमैका ही ईडन गार्डन रहा होगा।" यह सब संकेत केवल यह दर्शाने के लिए हैं कि तत्कालीन इंग्लैंड सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, राजनैतिक, सैनिक, आर्थिक किसी भी दृष्टि से भारत पर शासन की हैसियत में ही नहीं था।

असभ्य बर्बर व्यवहार की आकस्मिकता का लाभ मिला फिरंगियों को 

सभ्यता और संगठन की दृष्टि से वस्तुतः तत्कालीन इंग्लैंड जमैका और भारत से बहुत नीचे था। सत्य तो यह है कि भारतीयों ने उस निम्र बौद्धिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक स्तर की कल्पना ही नहीं की थी, जिस स्तर पर तत्कालीन अंग्रेज व्यापारी और अन्य लोग जी रहे थे। भारतीयों ने इन्हें अपने ही समान मनुष्य माना और इसीलिए प्रारम्भिक सौ वर्षों में इन्हें काफी सुविधाएँ पारम्परिक व्यवहार के आधार पर देते चले गये। यद्यपि यह भी अपनी जगह सही है कि हिन्दू राजा मुसलमानों के द्वारा किये जाने वाले बर्बर और अमानुषिक व्यवहार से इतने तंग थे कि उन्हें लगता था कि शायद अंग्रेज इनकी तुलना में बेहतर मित्र सिद्ध हों। हिन्दुओं और मुसलमानों की टकराहट तथा स्वयं हिन्दू राजाओं की आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते ही अंग्रेज व्यापारियों को भारत में इतना अधिक फैलने का मौका मिला, यह ऐतिहासिक तथ्य है। परन्तु लगान की उगाही का अधिकार लेकर जैसी क्रूरता और नृशंसता कम्पनी के लोगों ने की तथा करायी, उसका कोई अनुमान भारतीयों को पहले से नहीं था। इन क्रूरताओं और नृशंसताओं के कारण अचानक भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति कुछ समय तक भय सा छा गया। परन्तु शीघ्र ही उन्होंने इनके प्रतिकार के उपाय सोचने शुरू कर दिये।

18वीं शती ईस्वी में थोड़े ही अंचलों में थी कम्पनी की प्रभुता

18वीं शताब्दी के अन्त में भी भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रभाव केवल बिहार, बंगाल और कर्नाटक उड़ीसा के कुछ क्षेत्रों में ही सीमित था। अन्य राज्यों से, विशेषकर कर्नाटक क्षेत्र के राजाओं से उनकी सहायक संधियाँ ही थीं। भारत के आधे से अधिक भूभाग में 18वीं शताब्दी के अन्त में मराठों और राजपूतों का ही आधिपत्य था।

सहायक संधि वह अस्त्र है, जिसके द्वारा बहुत ही छलपूर्वक अंग्रेजों ने भारत के अनेक राजाओं से पहले तो बड़ी विनम्रता से और कुशल व्यापारी के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर व्यापार के अधिकार प्राप्त किये और बाद में अपने अधिकारों को राजनैतिक स्वरूप देकर सैनिक कार्यवाहियाँ प्रारम्भ की दीं। यदि वे नैतिक होते और साहसी तथा वीर होते तथा पहले ही अपने राजनैतिक इरादे घोषित कर देते, जो कि भारतीय शास्त्रों के अनुसार राजपुरुषों का धर्म है तो कभी भी कोई भी भारतीय राजा उन्हें भारत के लोगों को सैनिक रूप में भरती नहीं करने देता। अंग्रेजों का तर्क तो यह था कि हम अपने व्यापार तथा व्यापारिक कोठियों आदि की रक्षा के लिए सिपाहियों की भरती कर रहे हैं। बाद में उनका दूसरा तर्क यह बना कि 'हम अपने द्वारा भरती किये गये सिपाहियों से आपकी भी रक्षा कर सकते हैं श्रीमान'। इस तरह व्यापार में झूठ, अनीति, कृतघ्नता, वचनभंग और छल का तथा व्यापारी का वेष धरे राजपुरुषों के केवल धूर्त और कायर होने का तथा छिपकर और घात लगाकर लड़ाइयाँ करने का चलन जितने बड़े पैमाने पर इन अंग्रेजों ने चलाया, वह भारतीय इतिहास में अभूतपूर्व था। निश्चय ही मुसलमानों के झुण्ड भी छलघात करते थे, पर वे घोषित तौर पर आक्रमण तो किया ही करते थे। 

300 वर्षों में तिल-तिल बढ़े फिरंगी व्यापारी

अंग्रेजों ने कभी भी स्वयं को आक्रामक के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। वीर राजपुरुषों का यह अनिवार्य लक्षण माना जाता है कि वे घोषणा करके आक्रमण करें और अपने राजनैतिक लक्ष्य सार्वजनिक रूप से घोषित रखें। अंग्रेजों ने ऐसा कभी नहीं किया। इस प्रकार भाषा और व्यवहार दोनों के स्तर पर जिस स्तर की अनीति और छल को अंग्रेजों ने फैलाया, वह भारतीय इतिहास में अभूतपूर्व है। तब भी, इस सारे कपटजाल के बावजूद वे भारत में धीरे-धीरे 1498 से 1857 तक के 360 वर्षों में तिल-तिल बढ़े। 1857 ईस्वी में पहली बार ब्रिटिश शासन खुलकर भारत के विरुद्ध सक्रिय हुआ और अगले 90 वर्षों में फेंक दिया गया। 

भारत के लोग तो सम्पूर्ण यूरोपीय क्षेत्र को हजारों वर्षों से जानते ही थे

भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से ब्रिटेन के समर्थक और प्रशंसक स्वयं ब्रिटेन से भी अधिक हैं। जो बात किसी भी अंग्रेज ने कभी नहीं मानी और जिसका श्रेय स्वयं अंग्रेजों ने भी कभी नहीं लिया, उस सबका श्रेय भी अंग्रेजों को देने को तत्पर भारतीयों की एक बड़ी संख्या यूरो-भारतीय शिक्षा के जारी रहने के कारण भारत में तैयार हो गयी है। यहाँ तक कि ऐसे भी लोग हैं, जो यह मानते हैं कि वास्कोडिगामा का कालीकट तट पर पहुँचना ही भारत में अंग्रेजी राज्य की शुरुआत है। जबकि तथ्य यह है वास्कोडिगामा वस्तुतः एक भारतीय व्यापारी के साथ ही, उसकी कृपा पर और उसका अनुसरण करते हुए कालीकट पहुँचा था, उसने कोई भी खोज नहीं की।

हॉलैण्ड, इंग्लैंड और फ्रांस के व्यापारियों का भारत में आना, उस समय के उन व्यापारियों के लिए अवश्य एक नई और अभूतपूर्व बात थी, क्योंकि वहाँ का समाज मध्ययुगीन क्रिश्चियनिटी के प्रभाव से और चर्च की बर्बर और अमानुषिक रूप से दमनकारी नीतियों के दबाव से इतना टूटा-फूटा और आत्म-विस्मृत हो चुका था कि उसके लिए दुनिया की हर जानकारी एक खोज थी और एक नई चीज थी। परन्तु भारत के लोग तो यह तथ्य जानते ही थे कि भारतीय व्यापारी हजारों वर्षों से मित्र, यमन, सऊदी अरब सहित सम्पूर्ण अफ्रीका और संयुक्त राज्य अमेरिका तक जाते रहे हैं। जहाँ तक यूरोप की बात है, उस सम्पूर्ण क्षेत्र को पहले तो भारत से तथा जिसे इन दिनों एशिया कहा जाता है, उस महाद्वीप से जुड़ी हुई और समुद्र की ओर धँसी हुई एक धरती के रूप में इसी महाद्वीप के अंग के रूप में जाना जाता था। अतः भारत के व्यापारियों और राजाओं के लिए उन लोगों का भारत में व्यापार करने आना, हजारों साल पुरानी परम्परा का ही एक नया चरण था और इसीलिए उचित प्रार्थना करने पर तथा विनम्र आचरण और आदर के प्रतीक स्वरूप भेंट-नजराना देने पर उन्हें स्वाभाविक ही व्यापार करने की अनुमति उसी तरह दी जा रही थी, जैसे पहले लोगों को दी जाती रही थी। अतः भारत के लिए वह एक नितान्त सामान्य बात थी। 

भेंट, नजराने, सलामी, अधीनता से फैलाया व्यापार

जैसा पूर्व में उल्लेख है, लंदन के व्यापारियों का एक प्रतिनिधि पहले तो रानी एलिजाबेथ का पत्र लेकर 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अकबर के दरबार में आगरा में हाजिरी लगाने पहुँचा था। 29 घोड़ों का नजराना भी वह साथ में लिये था।" खुश होकर अकबर ने व्यापार की इजाजत देने का फ़रमान जारी करने को कहा, पर शाही फ़रमान तैयार करने की औपचारिकताओं में वक्त लगा और इस बीच अकबर का देहावसान हो गया।" अन्त में 24 अगस्त, 1608 ईस्वी को विलियम हॉकिन्स इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम की चिट्ठी लेकर अकबर के बेटे सलीम जहाँगीर के दरबार में हाजिर हुआ और विनती की। जहाँगीर ने इजाजत तो दे दी, परन्तु इस शर्त के साथ कि विलियम हॉकिन्स हमेशा जहाँगीर के साथ रहेगा। जहाँगीर उसे 'इंग्लिश ख़ाँ' कहता था। अपने एक मित्र को लिखी चिट्ठी में हॉकिन्स ने यह दुखड़ा रोया है कि उसका सारा वक्त जहाँगीर की खुशामद में बीत जाता है, पर कम्पनी के हित के लिए उसे यह करना पड़ रहा है। इतनी खुशामद के बावजूद हॉकिन्स जहाँगीर से कुछ ज़्यादा नहीं हासिल कर सका और पुर्तगीजों और अंग्रेजों के आपसी झगड़ों से तंग आकर जहाँगीर ने दोनों को भारत में व्यापार बन्द करने की आज्ञा जारी कर दी। 2 नवम्बर, 1611 ईस्वी को हॉकिन्स को वापस जाना पड़ा।

ओछा आचरण बना अपमान का कारण

बाद में पॉल केनिंग, विलियम एडवर्ड और टॉमस रो इंग्लैंड के राजा का पत्र लेकर दरबार में फिर हाजिर हुए। इनमें सबसे ज़्यादा चतुर था टॉमस रो, जो 1615 ईस्वी में भारत आया। उसने जहाँगीर की इजाजत हासिल कर ली और सूरत में व्यापार फिर बढ़ने लगा। परन्तु अंग्रेजों, डचों, फ्रेंच और पुर्तगीज व्यापारियों का भारत में व्यवहार भारतीय व्यापारियों की दृष्टि में इतना ओछा और हल्का था कि वे सब उपहास के पात्र हो गये। 

आए दिन पिटते थे कम्पनी फिरंगी

इतिहासकार मथुरालाल शर्मा ने अपनी किताब 'मुग़ल साम्राज्य का उदय और वैभव' में बताया है कि "अंग्रेज्त व्यापारियों को बिल्कुल भी इज्जत नहीं दी जाती थी। चौकीदार और चपरासी भी उन्हें झिड़कते रहते थे और थप्पड़ भी मार दिया करते थे। बदमाश अक्सर उन्हें रास्ते में लूट लेते तथा भारतीय राजकीय अधिकारी उनकी गलत हरक्रतों पर अक्सर उन्हें सड़क किनारे खड़े करके बेंत लगाया करते थे।" इन्हीं अनुभवों के कारण बाद में थोड़ा ताकतवर होने पर कम्पनी के कर्मचारियों ने प्रचार किया कि भारत में हर जगह लुटेरे पिंडारियों का राज्य है और वे नितान्त असुरक्षित हैं तथा अपनी सुरक्षा के लिए उन्हें उसी तरह सिपाही रखने होंगे, जैसे भारत में समृद्ध व्यापारी और नवाब तथा जागीरदार लोग रखते हैं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारतीय सिपाहियों की टुकड़ियाँ रखने की यह पृष्ठभूमि बनी।

शुरू में डच, पुर्तगीज, फ्रेंच और अंग्रेज आपस में खूब लड़े।" भारतीय राजा और बड़े व्यापारी इनकी लड़ाइयों को तमाशे के रूप में लेते थे। न तो उस समय किसी डच, पुर्तगीज, फ्रेंच या अंग्रेज ने यह कहने का साहस किया कि वे भारत में राज्य करने आये हैं और न ही कोई भारतीय राजा या व्यापारी इनको कभी भी युद्ध के लिए आए हुए क्षत्रिय या राजा मानता था। इन्हें राजा के सैनिक भी कभी नहीं माना गया। इसीलिए इनके द्वारा की गई आपराधिक हरकतों को किसी राजनैतिक विजय का अंग मानना हास्यास्पद है। यहाँ तक कि प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार और विद्वान सीले का भी यही मत है कि "भारत में बाद में जो जीत अंग्रेजों को हासिल हुई, उसके पीछे कभी भी कोई निश्चित प्रयोजन से किये गये कार्य नहीं थे और यह विजय संयोग मात्र थी।

कम्पनी के प्रबंधकों और महाप्रबंधकों को भारत का शासक समझने की मूढ़ता और बताने की धूर्त्तता

जब किसी पुर्तगीज या अंग्रेज या डच को उनकी व्यापारिक कम्पनी किसी क्षेत्र का गवर्नर यानी प्रबंधक बनाकर भेजती थी, तो इनमें से प्रत्येक कम्पनी को यह बहुत स्पष्ट था कि वह व्यक्ति न तो कोई राजपुरुष है और न ही वह भारत का शासन करने गया है, बल्कि वह केवल उस क्षेत्र विशेष में उस कम्पनी विशेष के कारोबार को सम्हालने गया है। इस प्रकार डुप्ले पांडिचेरी का गवर्नर कभी नहीं था, बल्कि वह फ्रेंच व्यापारी कम्पनी का पांडिचेरी क्षेत्र का गवर्नर यानी मैनेजर था। इसी तरह क्लाइव बंगाल का गवर्नर कभी भी नहीं था, बल्कि वह ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा एक मामूली बाबू से गवर्नर यानी मैनेजर के पद तक इसलिए 'प्रमोट' किया गया, क्योंकि उसने छल-कपट, घूस, जालसाजी, धोखाधड़ी, फरेब और नीचता के साथ ही सही, पर कम्पनी के लिए अकूत अवसर और मुनाफे के क्षेत्र खोज निकाले थे।

कभी इस, कभी उस नवाब को पटाया

सिराजुद्दौला के साथ पहले तो उसने अत्यन्त विनय के साथ व्यापार का एक समझौता किया और फिर उसके एक रिश्तेदार मोर जाफर को भड़काया कि अगर तुम नवाब बनने पर कम्पनी को दीवानी के हक़ दे दोगे और हमें हर साल कुछ नजराना भी दोगे, तो हम सिराजद्दौला के खिलाफ तुम्हारी मदद कर सकते हैं। मीर जाफर तैयार हो गया, तब भी जिसे बहुत ही गलत और झूठे रूप में प्लासी का युद्ध कहा जाता है, वह वस्तुतः घूसखोरी और भेद-नीति से सेनाओं का पाला-बदल मात्र था। यह पाला-बदल सिराजुद्दौला के पाले से मीर जाफर के पाले में आ जाने के रूप में हुआ था। इसमें स्पष्टतः क्लाइव का या ईस्ट इण्डिया कम्पनी का कोई घोषित पाला नहीं था। केवल मीर जाफर से क्लाइव की यह सौदेबाजी थी कि तुम्हें नबाव बनाने में हम मदद करेंगे तो उसके बदले में तुम हमें 2,34,100 पाँड के बराबर की कीमत के भारतीय रुपये दोगे और 24 परपना की जमींदारी से तुम्हें जो भारी लगान हासिल होगी, उसमें से हमें हर साल 30,000 पौंड के बराबर कीमत के रुपये दोगे । अब इस पूरे घटनाक्रम से बंगाल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की राजनैतिक जोत जैसी कोई भी चीज कहाँ से निकल आती है। कम्पनी कभी भी एक राजनैतिक इकाई नहीं थी और कम्पनी के कारनामों को राजनैतिक विजय बताना अज्ञान मात्र है। कम्पनी के कर्मचारियों और अधिकारियों ने व्यापार की ताकत बढ़ाने की कोशिश अवश्य की। किसी भी समय उन्हें भारत में राजनैतिक हस्तक्षेप और राजनैतिक कार्यवाही की अनुमति ब्रिटिश शासन से प्राप्त नहीं हुई। क्लाइव, वारेन हेस्टिंग्स और वेलेजली पर इंग्लैंड पर जो मुकदमे चले, उनके तथ्यों को पढ़ लेने भर से सचाई को जानना सहज सम्भव है। यह बात अलग है कि अनचाही ब्रिटिश भक्ति से भरपूर कतिपय खुशामदखोर भारतीयों को सचाई जानने का वक्त नहीं है या मन नहीं है। कम्पनी के व्यापारियों को भारत में व्यापार को बढ़ावा देने की अनुमति ब्रिटिश शासन ने इसलिए दे रखी थी, क्योंकि व्यापार का कमीशन ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश 'क्राउन' के खजाने में तो जाता ही था। ब्रिटिश राजा या रानी को भेंट नज़राने के रूप में भी बेशकीमती चीजें मिलती रहती थीं।

17वीं शताब्दी तक तो ब्रिटेन कोई राष्ट्र था ही नहीं

पुनः स्मरण कर लें, 17वीं शताब्दी का ब्रिटेन आन्तरिक विद्रोहों की आग में सुलग रहा था।' शताब्दी के प्रारम्भ से ही वहाँ गृह-युद्ध चल रहा था और चर्च और राजा के बीच भयंकर तनाव तथा टकराव था। चर्च के अनुयायियों का एक समूह राजा के विरुद्ध था और तथाकथित पार्लियामेंट की रचना प्रारम्भ में इस समूह ने ही की थी, जो किसी भी अर्थ में तब तक जनसाधारण की प्रतिनिधि संस्था नहीं थी, क्योंकि तब तक वहाँ बालिग वोट का कोई भी कानून पास नहीं हुआ था।

1604 ईस्वी में ही वहाँ राजमहल के पास ही एक प्रसिद्ध षड्यंत्र हुआ, जिसे 'गन पाउडर' षड़यंत्र कहा जाता है। 20 मई, 1604 को ही गन पाउडर षड्यंत्र के प्रमुख षड्यंत्रकारियों की पहली बैठक हुई थी। इरादा था हाउस ऑफ़ लाईस और हाउस ऑफ़ कॉमन्स दोनों को धमाके से उड़ा देना। मौका चुना गया था संसद के उ‌द्घाटन का, जिसमें नये चुने गये राजा संसद का उ‌द्घाटन करते हैं।

'स्टैंडिंग आर्मी' पहली बार

बताया जाता है कि अगर यह षड़यंत्र सफल हो जाता तो इंग्लैंड का सम्पूर्ण शासक वर्ग एक क्षण में समास हो जाता। राजा, संसद के दोनों सदनों के सभी सदस्य, प्रिवी कौंसिल के सभी सदस्य एवं अन्य सभी प्रमुख अधिकारी एक साथ समाप्त हो जाते। चर्च के सभी बिशप भी उसी क्षण मर जाते। तब तक इंग्लैंड में कोई 'स्टॅण्डिंग आर्मी' नहीं थी।

षड्यंत्रकारियों का नेता था राबर्ट केट्सबी। वेस्ट मिनिस्टर महल की सुरक्षा ढीली-ढाली थी और हाउस ऑफ़ लाईस के नीचे ही कोयला रखने का एक बड़ा भण्डार-गृह था। वहीं पर 36 बैरल विस्फोटक इकट्ठे रखे गये थे। संसद के उद्घाटन की तिथि खिसक गयी। इस बीच षड्यंत्रकारियों में से कुछ की खुसुर-पुसुर से षड़यंत्र का भण्डाफोड़ हो गया, जो एक संयोग मात्र था। यह भी कहा जाता है कि षड्यंत्रकारियों में से एक ने लार्ड मोण्टेगिल को एक बेनामी ख़त के द्वारा षड्यंत्र का संकेत दे दिया था, क्योंकि वह षड्यंत्रकारी मोण्टेगिल का रिश्तेदार था। खत मिलते ही छानबीन हुई और षड़यंत्र विफल कर दिया गया राजा के विरुद्ध इंग्लैंड में जबर्दस्त वातावरण बनाया गया और स्थिति यह

हो गयी कि चार्ल्स प्रथम नामक इस राजा के विरुद्ध वहाँ के अभिजात्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा षड़यंत्र रचने लगा और अन्त में चर्च के इशारे पर राजा को फाँसी की सजा सुना दी गई। दोनों पक्षों में टकराव हुआ, परन्तु अन्त में राजद्रोहियों की जीत हुई। 1649 ईस्वी में चार्ल्स प्रथम को सरेआम फाँसी दी गई। फाँसी के वक्त जनता का गुस्सा भड़कते देखकर डर के मारे तत्कालीन सेनापति क्रामवेल ने जल्लादों को हुक्म दिया कि धड़ से अलग हुआ चार्ल्स प्रथम का सिर तत्काल सिल दिया जाये, ताकि जनता का गुस्सा शान्त हो। जाहिर है कि इस तरह सिले हुए सिर से चार्ल्स प्रथम की मौत नहीं टाली जा सकी। यह जरूर हुआ कि एक बहुत बड़ी जालसाजी के जरिये जनता के गुस्से को कुछ समय के लिए थाम लिया गया।"

17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सम्पूर्ण इंग्लैंड में व्यापक अराजकता थी और जगह-जगह गृह-युद्ध की आग लगी थी। उधर स्काटलैंड ने इंग्लैंड से लड़ाई छेड़ रखी थी। तब तक इंग्लैंड की राजा की कोई भी 'स्टैण्डिंग' सेना नहीं थी। बड़े व्यापारी और बड़े सामन्त अपनी-अपनी सेनाएँ रख रहे थे। वस्तुत: उसी तर्ज पर भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बड़ी चालाकी से भारतीयों का एक रक्षक दल खड़ा किया था ताकि उनके व्यापार की सुरक्षा हो। उसे इण्डियन आर्मी कहना भी तथ्यतः सही नहीं है। यह वह समय था जब व्यापार के समुद्री रास्तों पर भी इंग्लैंड के राजा के शत्रु अंग्रेजों का ही कब्जा था। दूसरी ओर इंग्लैंड के लोग चर्च के तथा सामन्तों के अत्याचारों से घबराकर भाग रहे थे। उसी बीच प्लेग की महामारी वहाँ फैली और लोगों का भागना और भी तेज हो गया। ऐसी भयंकर अराजक स्थिति में इंग्लैंड

के ये व्यापारी भारत में जो कुछ कर रहे थे, वे अपनी बुद्धि और अपनी आस्था से प्रेरित होकर कर रहे थे और उसे किसी भी अर्थ में इंग्लैंड के राजा का कोई अभियान नहीं कहा जा सकता। स्मरणीय है कि व्यापारियों या धर्म प्रतिनिधियों के द्वारा किसी देश में होने वाली किसी भी कार्यवाही को राजनैतिक अभियान नहीं कहा जाता। यह सही है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जिस ढंग से सारे नियमों और मर्यादाओं को ताक में रखकर व्यापार के नाम पर लूट की, उससे बहुत सा धन इंग्लैंड पहुँचा और इंग्लैंड का खजाना अचानक लबालब भर गया। इस समृद्धि से चकित- पुलकित इंग्लैंड का अभिजन हर प्रकार की लूट के पक्ष में दैवी विधान तथा प्राकृतिक नियमों के भाँति-भाँति के तर्क गढ़ने लगा। एडम स्मिथ की प्रसिद्ध पुस्तक 'द वेल्थ ऑफ़ नेशन्स' भारत तथा अन्य देशों की इंग्लैंड द्वारा की गई इस लूट के बाद में ही प्रकाशित हुई और उसमें साम्राज्यवादी लूट का खुलकर पक्ष लिया गया। तर्क यह 
भी दिया गया कि स्वहित या स्वार्थ का अनुधावन कर रहे व्यक्ति वस्तुतः समाज और राज्य का बड़ा हित साधते हैं।"

1763 से 1770 ईस्वी तक फ्रांस और ब्रिटेन के जागीरदारों के बीच तथा साथ ही उनके उपनिवेशों की रक्षक टुकड़ियों के बीच जगह-जगह टकराव हुए। इस युद्ध के समय ही अचानक इंग्लैंड में विलियम पिट का महत्त्व बढ़ा विलियम पिट पहले ब्रिटिश नरेश चार्ल्स का प्रचण्ड विरोधी था। उसका आरोप यह था कि जर्मनी के एक छोटे-से राज्य के पक्ष में ब्रिटिश नरेश इंग्लैंड की विदेश नीति को गलत रूप में चला रहे हैं। परन्तु युद्ध के समय पिट को ही रक्षा सचिव बना दिया गया। दो यूरोपीय व्यापारिक समूहों के बीच हुए इस टकराव को तथ्यतः दो देशों के बीच की लड़ाई नहीं कहा जा सकता, परन्तु बाद में इसे इसी रूप में पेश किया गया। सत्य यह है कि इसे इंग्लैंड और फ्रांस की लड़ाई कहना पूरी तरह झूठ है।

सौ वर्षीय युद्ध कहना भी निरा झूठ है। स्मरण रहे:-

1. यह इंग्लैंड के कुछ व्यापारिक समूहों और जागीरदारों की फ्रांस के कुछ व्यापारिक समूहों और जागीरदारों से रुक-रुककर अलग-अलग चीं. झड़पें थीं, युद्ध नहीं।

2. उन दिनों तक न तो इंग्लैंड वस्तुतः एक राष्ट्र बना था, न फ्रांस। वास्तविक अर्थों में इंग्लैंड एक राष्ट्र 1799 ईस्वी से बनना शुरू हुआ माना जा सकता है, यद्यपि वस्तुतः वह एक राष्ट्र 1828 ईस्वी के बाद ही बन सका।

3. जागीरदारों और लड़ाका मुखियाओं के द्वारा रखे गए भाड़े के सैनिकों के झुंड ही इस लड़ाई में दोनों ओर से लड़ रहे थे। कोई 'स्टैंडिंग आर्मी' तब तक न तो इंग्लैंड में थीं और न ही फ्रांस में। क्योंकि ये तब तक राष्ट्र ही नहीं बने थे। 

4. इस लड़ाई के पीछे भारत में दोनों देशों के व्यापारिक हितों का टकराव भी एक कारण था।

1760 ईस्वी में जार्ज द्वितीय की मृत्यु हो गई और इंग्लैंड के केन्द्रीय भाग का राजा जार्ज तृतीय को बनाया गया। यद्यपि इंग्लैंड के बड़े हिस्से में अभी भी अलग-अलग लोग ही राज्य कर रहे थे। जार्ज तृतीय वस्तुतः जार्ज द्वितीय का पौत्र था। 23 साल की उम्र में वह राजा बना और उसने ब्यूटे को अपना प्रथम सचिव बनाया। यद्यपि इंग्लैंड का प्रबुद्ध वर्ग इस नियुक्ति का घोर विरोधी था। इस बीच पेरिस की सन्धि हो गई और ब्रिटिश सेना द्वारा कब्जाये गये फ्रांस के बहुत से उपनिवेश फ्रांस को लौटा दिये गये। इनमें अफ्रीका का सेनेगल प्रान्त और हवाना तथा मनीला शामिल थे। तथापि इस संधि से ब्रिटेन को प्रतिष्ठा का लाभ ही हुआ और फ्रांस को नीचा देखना पड़ा। फ्रांस ने उत्तरी अमेरिका में उपनिवेश बनाना का दावा छोड़ दिया। जबकि 1763 की संधि से ब्रिटेन को स्पेन द्वारा कब्जाये गये फ्लोरिडा क्षेत्र पर कब्जा मिल गया।

1775 से 1781 ईस्वी के बीच अमेरिका में जो गृह-युद्ध छिड़ा, उसमें भी ब्रिटिश नागरिकों के विरुद्ध अन्य अमेरिकियों को तीखो प्रतिक्रिया रही और इस तरह ब्रिटेन चारों ओर से तरह-तरह के दबावों में घिरा रहा। इस बीच विदेशों में व्यापार कर रहे अंग्रेजों ने यह माँग की कि, क्योंकि हमसे हमारे व्यापार पर ब्रिटिश शासन टैक्स लेता है, इसलिए ब्रिटिश संसद में हमारा भी प्रतिनिधि होना चाहिए। संसद ने इसे अस्वीकार कर दिया। जिसके कारण सारी व्यापारिक कम्पनियों में प्रचण्ड असन्तोष फैल गया। क्योंकि संसद तब तक जनता द्वारा नहीं चुनी जाती थी। चर्च के पादरियों और जागीरदारों को परिषदें तथा राजा ही संसद की नियुक्तियां तब तक करते थे।

1783 से 1801 ईस्वी तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद पर विलियम पिट जूनियर रहे। ये चुनाव ब्रिटिश राष्ट्र की अभिव्यक्ति नहीं थे। सीमित संख्या में संपन्न लोगों के ही मत की अभिव्यक्ति थे। स्त्रियां तो तब तक वोट डालने की अधिकारी बनी ही नहीं थीं। ये तो 1935 में पहली बार गोट डालने की अधिकारी बनीं।

यह चुनाव ब्रिटेन में जीता ही इस आधार पर गया था कि आगे चलकर इंग्लैंड का शासन भारत में व्यापार कर रही कम्पनियों पर इस तरह से नियंत्रण रखेगा, जिससे कि ब्रिटिश शासन और अंग्रेज भनियों का वास्तविक हित हो। क्योंकि पाया यह गया थ कि भारत में कार्यरत अंग्रेस कंपनी केवल अपना हित साधती है और उसके कर्मचारी तथा अधिकारी केवल निजी लाभ लेते हैं। इससे ब्रिटिश समाज, उसके देसी संपन्नजनों और शासन को कोई भी लाभ नहीं होता। वस्तुतः इसी समय इंग्लैंड में वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध मुकदमा चलाया गया। उस पर यह आरोप था कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी का गवर्नर जनरल यानी महाप्रबंधक बनकर उसने भारत में मनमानी लूट की और अनधिकृत रूप से राजनैतिक हस्तक्षेप किया। अवध और बनारस के राजाओं पर तथा कर्नाटक के राजा पर जिस तरह से वारेन हेस्टिंग्स के इशारे पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारतीय सिपाहियों को टुकड़ियों के द्वारा हमला किया गया, उसे इंग्लैंड की संसद और शासन ने बिल्कुल भी पसन्द नहीं किया। क्योंकि उन्हें डर था कि इससे इंग्लैंड को बदनामी होगी और अचानक कंपनी की पिटाई होगी, तो भारत से आ रहा धन का प्रवाह रुक जाएगा।

18वीं शताब्दी में कम्पनी ने कभी भी भारत का शासक होने का दावा नहीं किया 

सचाई यह थी कि कर्नाटक में हुई तीनों लड़ाइयों अंग्रेजों और फ्रेंचों की व्यापारिक कम्पनियों के बीच के टकराव थे। परन्तु चूंकि इसमें देशी राजाओं के द्वारा अलग-अलग कम्पनियों को दिये गये संरक्षण का मुद्दा भी शामिल था, इसलिए दोनों ही देशों के इन व्यापारियों ने इन लड़ाइयों को कुछ इस तरह प्रचारित किया मानो वे भारत के राजाओं के विरुद्ध कोई युद्ध लड़ रहे थे। यह अवश्य है कि भारतीय राजाओं के महलों के भीतर उत्तराधिकार के प्रश्न पर जो विवाद हो रहे थे, उसमें इन कम्पनियों ने लगातार षड्यंत्रपूर्वक कभी एक उत्तराधिकारी का पक्ष लिया, कभी दूसरे, परन्तु किसी भी लड़ाई में किसी भी कम्पनी ने खुद को राज्य का दावेदार नहीं बताया। तीनों ही लड़ाइयों के बाद हुआ केवल यह कि फ्रांस के व्यापारी हार गये और 1763 की संधि में फ्रेंच लोगों को इंग्लैंड के अधिकारियों की यह शर्त स्वीकार करनी पड़ी कि वे पांडिचेरी तथा अन्य बस्तियों में सिपाहियों की कोई टुकड़ी नहीं रखेंगे। इस प्रकार अंग्रेज व्यापारिक कम्पनियों का रास्ता साफ हो गया।

डच और पुर्तगीज कम्पनियों से भी ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इसी प्रकार बढ़त हासिल की, इसके बावजूद वारेन हेस्टिंग्ज पर 1788 से 1795 ईस्वी तक जो मुकदमा चला, उसमें उसपर 121 गम्भीर आरोप लगाये गये, जिनमें बनारस और अवध की बेगमों के साथ धोखाधड़ी, घूसखोरी, जाली कागज बनाना, गलत दस्तावेज तैयार करना, जालसाजी और प्रतिरूपण, गलत ढंग से भेंटें स्वीकार करना था तथा ब्रिटिश शासन के टैक्स की चोरी और गबन के अभियोग शामिल थे। वारेन हेस्टिंग्स पर चले 'मुकदमों का सारांश' परिशिष्ट चार में दिया जा रहा है।

इसके पहले क्लाइव पर जो मुकदमे चले थे, वे भी इसी प्रकार के गम्भीर अपराधों सम्बन्धी थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्लर्क को फ्रेंच कम्पनियों के विरुद्ध चतुराई और धूर्तता दिखाने के कारण 26 वर्ष की उम्र में कम्पनी का कैप्टन बनाया गया। परन्तु बाद में उस पर घूसखोरी और भ्रष्टाचार के अत्यन्त गम्भीर आरोप लगाये गये और ब्रिटिश संसद की समिति ने जांच के बाद उसे लाखों पाँड भ्रष्ट ढंग से हड़पने का दोषी माना। इन अभियोगों से आहत क्लाइव ने 49 वर्ष की उम्र में अपना गला काटकर आत्महत्या कर ली। संसद ने एक प्रस्ताव पारित कर बंगाल में व्याप्त कम्पनी के भ्रष्टाचार की गम्भीर निन्दा की थी और सैनिक टुकड़ियों की मदद से कम्पनी द्वारा बंगाल में उगाही गई, वसूली गई और लूटी गई सम्पूर्ण दौलत को गैर- कानूनी करार दिया था।

इसी प्रकार 1798 से 1805 ईस्वी तक भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के महाप्रबंधक (गवर्नर जनरल) रहे मार्विवस रिचर्ड कोली वेलेजली को भी ब्रिटिश शासन से अनुमति लिये बिना राजनैतिक हस्तक्षेप करने का दोषी पाया गया तथाउसकी निन्दा भी की गई थी। गम्भीर अपराधों और अनुचित आचरण के लिए संसद में उसके लिए अभियोग का प्रस्ताव लाया गया। यद्यपि अभिजनों के हस्तक्षेप से बाद में उस अभियोग पर बल नहीं दिया गया। भारत से वापस बुलाकर वेलेजली को स्पेन में इंग्लैंड का राजदूत बना दिया गया। उन दिनों तक इंग्लैंड राष्ट्र बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा था। वह एक राष्ट्र बना. नहीं था अतः तब तक की घटनाओं को राष्ट्र के संदर्भ में देखना व्यर्थ है। इंग्लैंड के कतिपय अतिशय लोभी व्यापारी, जो व्यापारी से अधिक लुटेरे और लफंगे थे, भारत में अत्यंत अनैतिक, दुच्ची और शर्मनाक करतूतें कर रहे थे। केवल यह है उस समय की स्थिति। इंग्लैंड नामक राष्ट्र तब भारत राष्ट्र के साथ कोई बर्ताव नहीं कर रहा था। इंग्लैंड की आबादी तब 36 लाख थी और भारत की 36 करोड़ अर्थात इंग्लैंड से 100 गुना। इस सम्पूर्ण अवधि में भारत में मराठा संघ अत्यधिक शक्तिशाली था और व्यवहारतः देश के आधे से अधिक हिस्से पर मराठों का ही वास्तविक नियंत्रण था। यानी लगभग 20 करोड़ भारतीयों पर मराठा संघ का शासन था। संपूर्ण इंग्लैंड ही उनके सामने कोई हैसियत ही नहीं थी। अंग्रेज व्यापारी मराठों से तब तक थरथर कांपते थे, हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते थे और रियायतें मांगते थे।

1720 से 1761 ईस्वी तक तो भारत के वास्तविक शासक मराठा ही थे। पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद मराठा शक्ति में उतार आया और इसके बाद ही अंग्रेज्ज व्यापारियों ने मराठों के साथ भी दबाव और संधि की चालें चलनी शुरू कीं। 1779 ईस्वी में कम्पनी को मराठों ने बुरी तरह पीटा और तब कम्पनी ने उनसे एक समझौता कर लिया, पर कुछ समय बाद वे मुकर गये। फिर उन्होंने ग्वालियर क्षेत्र पर दबाव बनाया और इसके बाद शिन्दे और होल्कर की आपसी लड़ाई में कभी इस पक्ष और कभी उस पक्ष का साथ देते रहे। बाद में गायकवाड़ ने कम्पनी के व्यापारियों को कुछ सुविधाएँ दर्दी, जिससे कि गायकवाड़ और होल्कर में टकराव हुआ।

भारतीय राजा इन व्यापारियों को बढ़ावा देकर अपने यहां कुछ व्यापारिक सक्रियता और लाभ बढ़ाने के कतिपय कदम मात्र उठा रहे थे। राजाओं के सैकड़ों कार्यों में से एक कार्य यह था। इससे कई गुने जरूरी और बड़े दूसरे कार्य तब भारतीय राजाओं के सामने थे। ख्रीस्तपंथी दिमाग से परिचालित कंपनी अफसर मन में चाहे जो गुल खिला रहे हों, कोई भी भारतीय राजा तब तक उन्हें राज्य का प्रतिस्पर्धी मान ही नहीं सकता था। उनकी ऐसी कोई हैसियत तब तक दिखती ही नहीं थी। अचानक जब 19वीं शती ईस्वी में कंपनी वालों ने अपना रंग दिखाया तो 1857 में इनकी पिटाई शुरू कर दी गई।

भारतीय राजाओं की अकारण निन्दा अनुचित

भारतीय राजाओं के विषय में अनेक भ्रान्तियाँ आधुनिक शिक्षित समाज के द्वारा फैलायी गयी हैं। सत्य के अभिलाषी प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति को इन भ्रान्तियों से मुक्त होना ही चाहिए। सर्वप्रथम तो भारतीय राज्यों के विषय में कतिपय आधारभूत बातें जान लेनी आवश्यक हैं। भारत में ऐसे 500 से अधिक राजा थे, जो 1948 ईस्वी तक स्वायत्त शासक थे। उन्होंने संधियों के फलस्वरूप ब्रिटिश शासन की सम्प्रभुता (पैरामाउण्टेसी) स्वीकार कर ली थी, परन्तु ये विशुद्ध राजनैतिक संधियाँ थीं। व्यवहारतः ये सब लोग अपने-अपने क्षेत्र के स्वायत्त शासक थे। जिनके पास महत्त्वपूर्ण अधिकार और राजनैतिक सत्ता अपने-अपने राज्य में थी और इस सत्ता तथा इन अधिकारों का वे भरपूर प्रयोग कर रहे थे, जैसा कि बारबरा एन. राम्सेक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द इण्डियन प्रिंसेज एंड देअर स्टेट्स' में कहा है।

1858 ईस्वी में पहली बार ब्रिटिश सत्ता ने भारत में हस्तक्षेप किया

वस्तुत: ब्रिटिश सत्ता ने 1858 में ही पहली बार भारत में राजनैतिक हस्तक्षेप किया और फिर भारतीय राजाओं के अधिकारों में से सुरक्षा, संचार और विदेशी मामलों में अधिकारों की कटौती क्रमशः करने की नीति अपनाई। यद्यपि इसमें पूर्णतः सफल वे कभी भी नहीं रहे। तथापि जिस सीमा तक सफल रहे, उसके बाद भी यह तथ्य तो अपनी जगह है हो कि 1858 ईस्वी के बाद भारत के ये राजागण अपनी प्रजा पर स्वयं ही टैक्स लगाते थे और राज्य द्वारा इस प्रकार प्राप्त राजस्व का विनियोजन एवं निर्धारण स्वयं ही करते थे। इन राजाओं को फौजदारी और दीवानी मामलों अर्थात् नागरिक और दण्डात्मक मामलों में भरपूर अधिकार प्राप्त थे। अपने- अपने राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति ये राजा स्वयं ही सँभालते थे और इंग्लैंड की आधुनिक संस्थाओं को थोड़ा-बहुत अपनाते हुए भी ये सभी भारतीय राजा भारतीय राजधर्म के आदर्श से ही संचालित थे। भले ही व्यवहार में वे राजधर्म से विचलित भी होते रहते थे। विचलन का मुख्य कारण ब्रिटेन का 1858 में अनधिकृत, अवैध और सर्वथा अनुचित हस्तक्षेप था। बारबरा एन. राम्सेक कहती हैं कि "इन राजाओं ने भारतीय राजधर्म का समन्वय ब्रिटिश मॉडल से किया।"

सम्पूर्ण भारत में प्रत्यक्ष शासन का साहस ब्रिटेन कभी जुटा ही नहीं पाया 

ब्रिटिश शासन ने भारतीय राज्यों को 'नेटिव स्टेट्स' कहा, जो कि एक कल्पित अवधारणा या श्रेणी थी, ऐसा स्वयं बारबरा एन. राम्सेक का भी मानना है। वस्तुतः अनेक कारणों से ब्रिटेन ने कभी भी सम्पूर्ण भारत में प्रत्यक्ष शासन का साहस नहीं जुटाया और परोक्ष नियंत्रण की ही नीति पर चलता रहा विशेषकर भारतीय राज्यों के विषय में उसकी यही नीति रही।

730 में से 20 भारतीय राज्य तो इंग्लैंड से भी बड़े थे

1908-09 में 'इम्पीरियल गजेटियर ऑफ़ इण्डिया' ने 693 नेटिव स्टेट्स की एक सूची तैयार की, जिसमें म्यांमार का शान राज्य और नेपाल भी शामिल था। बाद में 1929 में इण्डियन स्टेट्स कमेटी की रिपोर्ट आई, जिसमें 562 राज्यों की सूची थी। इनमें से 108 राजा वस्तुतः समृद्ध और सम्पन्न राज्यों के राजा थे और इनके राज्य पर्याप्त बड़े थे। इनमें से 20 से अधिक तो इंग्लैंड, जर्मनी या फ्रांस से भी बड़े राज्य थे। इनके अतिरिक्त 88 अन्य बड़े राज्य थे, जो उनसे कुछ कम शक्ति वाले थे। उक्त रिपोर्ट में इन 108 राजाओं को अलग श्रेणी में इसलिए डाला गया, क्योंकि ये सब 'चेम्बर ऑफ़ प्रिंसेज' के सदस्य थे। अन्य 127 राज्य ऐसे थे, जिनके प्रतिनिधि उक्त चेम्बर में थे। शेष 327 राज्य जागीरों की तरह थे। परन्तु यहाँ यह तथ्य भी स्मरणीय है कि जैसा कि बारबरा एन. राम्सेक ने कहा है "चेम्बर ऑफ़ प्रिंसेज' ब्रिटिश लोगों द्वारा स्थापित एक परामर्शदाता परिषद् थी, परन्तु यह तथ्य अपनी जगह है कि उसमें दरभंगा नरेश जैसे महत्त्वपूर्ण राजा को भी इस सूची में नहीं रखा गया, जबकि उनके राज्य का क्षेत्रफल 2400 वर्गमील से अधिक था। लेखिका यह भी बताती हैं कि वस्तुतः भारतीय राजा अपनी वैधता पारम्परिक भारतीय विधि से हुए राज्याभिषेक से ही पाते थे। ऊपर की सत्ता से राजनैतिक समझौता तो वे परिस्थितियों के अनुसार कर लिया करते थे और ब्रिटिश शासन से उनकी संधियाँ इसी कोटि की थीं।

अपने पुरुषार्थ से ही सुरक्षित है भारतीय संस्कृति

वस्तुतः राजनैतिक संधि को उसके उचित सन्दर्भ में देखें तो लगभग आधा भारत, जो भारतीय राजाओं द्वारा शासित था, सदा ही स्वतंत्र रहा, उस पर वास्तविक ब्रिटिश सत्ता एक दिन भी नहीं रही। ब्रिटिश शासित भारत आधे से थोड़ा ही अधिक था और वहाँ भी भारतीयों ने एक भी दिन उन्हें चैन से नहीं रहने दिया, निरन्तर युद्धरत रहे। इसीलिए भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण रह सकी है। वह अंग्रेज क्रिश्चियनों अथवा प्रबुद्ध अंग्रेजों की कृपा से सुरक्षित नहीं है। अपने पुरुषार्थ से ही भारतीय संस्कृति सुरक्षित है।

महत्त्वपूर्ण स्वतंत्र भारतीय राज्य

भारत के जो महत्त्वपूर्ण राज्य अन्त तक स्वतंत्र रहे, उनमें बड़े राज्य हैं- मारवाड़-जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, चित्तौड़, जम्मू-कश्मीर, रीवा, ग्वालियर, भोपाल, चम्बा, हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा, काठियावाड़, झालावाड़, जूनागढ़, त्रावणकोर-कोचीन, आदि। इसके अतिरिक्त अधिकांश समय स्वाधीन रहे राज्यों की सूची तो बहुत लम्बी है। इनमें मध्यप्रदेश में रीवा के साथ ही झाँसी, ओरछा, चन्देरी, दतिया, देवास,रतलाम आदि। पंजाब में चम्बा, बहावलपुर, सुकेत, मण्डी, कांगड़ा, दोआबा महाराष्ट्र में, सतारा, सूरत, कोल्हापुर, नवानगर, लिम्बडी, रेवाकांठा गुजरात में, भावनगर, सौराष्ट्र, भुज, ध्रांगधा, राजकोट, गोंदल, मोर्नी, छोटा उदयपुर, लूनावाला, पोरबन्दर, औंध, अकलकोट, खेड़ा, चौरासी, चिखली, राजपीपला, लाठी, बांकानेर, जैतपुर, जसदान, ओखामण्डल आदि शामिल हैं।

भारतीय राजाओं के बारे में विचित्र धारणाएँ प्रचारित

यहाँ एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन भारतीय राजाओं को अंग्रेजों ने भी और आधुनिक शिक्षित भारतीयों ने भी समय-समय पर परस्पर विरोधी विशेषणों और विश्लेषणों से चित्रित किया है। अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं को कभी तो 'अपनी प्रजा के स्वाभाविक नेता तथा निष्ठावान और विश्वसनीय मित्र-सैन्य शक्ति' कहा और कभी उन्हें 'ऑटोक्रेट' कहा। परन्तु सदा ही इन सम्पन्न राजाओं की मेजबानी का लुत्फ अंग्रेज अधिकारियों ने खूब उठाया। वस्तुतः यदि इंग्लैंड के वास्तविक इतिहास को जानें, तो वहाँ से आए ये सभी अंग्रेज अफ़सर शताब्दियों से अत्यन्त दरिद्र रहे परिवारों के लोग थे और इनमें से अधिकांश को धन वस्तुतः भारत तथा अन्य देशों से औपनिवेशिक शोषण और लूट के माल में मिले कमीशन के रूप में ही पहली बार प्राप्त हुआ।

सत्ता आते देख वाम-कांग्रेसियों ने तेज कर दी राजाओं की न्दिा

दूसरी ओर आधुनिक शिक्षित प्रबुद्ध भारतीयों ने भी इन राजाओं के प्रति परस्पर विरोधी बातें कहीं। राष्ट्रवादियों के एक बड़े हिस्से ने सदा ही इन राजाओं का परोक्ष राजनैतिक और आर्थिक संरक्षण प्राप्त किया, परन्तु जब ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर निकट दिखने लगा, तब से विशेषतः वामपंथी झुकाव वाले नेताओं ने इन राजाओं की अत्यन्त तीखो और कटु निन्दा शुरू कर दी। परन्तु शासन में आने के बाद वामपंथी कांग्रेस पार्टी ने भी और अन्य दलों ने भी इन्हीं राजाओं को राज्यपाल, मंत्री, सांसद, विधायक, राजदूत, विभिन्न निगमों के अध्यक्ष आदि बनाया। स्थानीय मीडिया में सदा ही इन सभी राजाओं को भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग की तरह ही चित्रित किया जाता है और जिसे राष्ट्रीय मीडिया कहा जाता है, उसने भी राजाओं के विरुद्ध अमूर्त निन्दा अवश्य की, परन्तु किसी भी वास्तविक राजा की कोई निन्दा इस राष्ट्रीय मीडिया में भी एक भी बार नहीं हुई, अपितु उनका गरिमामण्डन ही सदा किया गया। उन्हें उदार, परोपकारी, दीनों का संरक्षक, शानदार शिकारी या शानदार खिलाड़ी आदि ही बताया जाता रहा। कभी- कभी उन्हें अवश्य कुछ व्यभिचारी की भाँति चित्रित किया गया। भारत के सभी सम्पन्न होटलों में सर्वाधिक सम्मानित मेहमान ये राजपुरुष और रानियाँ तथा राजकुमारियाँ आदि ही होते हैं। इस प्रकार राजा को लेकर शिक्षित भारतीयों के प्रभावशाली वर्गों में परस्पर विरोधी दृष्टियाँ पाई जाती हैं।

महत्त्वपूर्ण यह भी है कि स्वयं को निष्पक्ष विश्लेषक बतलाने वाले कई आधुनिक भारतीय विद्वानों का तर्क है कि हमें देश, समाज, राष्ट्र आदि की संकीर्णताओं में नहीं फैसना है। समस्त मानव जाति एक है और उसका सत्य एक है। अतः सत्य ही हमारा साध्य है। यह तर्क बहुत अच्छर है। परन्तु मानवतावादी अधिकांश भारतीय विद्वान इस कसौटी पर स्वयं बिल्कुल भी खरे नहीं उतरते, अपितु इस कसौटी पर ये खोटे ही सिद्ध होते हैं। 

अंग्रेजों की जिस बात के लिए प्रशंसा उसी के लिए भारतीयों की निन्दा क्यों?

अंग्रेज व्यापार करने आये। उन्होंने जिन राजाओं और नवाबों के पैरों में पड़कर व्यापार की सहूलियतें माँगों और पाई, जिनके सामने वे बार-बार सिर झुकाते रहे. कोर्निश बजाते रहे, सेल्यूर ठोंकते रहे, हाथ जोड़ते रहे, जिनके पैरों पर बारम्बार पड़‌ते रहे, बाद में मौका देखकर उनसे ही छल, दुर्व्यवहार और क्रूरता तथा नृशंसता की और समय पाते ही उनमें से कई का वध भी कर दिया। मानवतावादी आधुनिकतावादी भारतीय इन सब कुकर्मों को राजनैतिक युकियाँ मानकर उनके औचित्य के पक्ष में तर्क देते हैं। चलिये, मान लिया। परन्तु फिर यदि भारतीय राजाओं ने यह सोचा हो कि अरे, ये मामूली व्यापारी बनकर आए, कल तक हाथ जोड़‌कर गिड़गिड़ाते फिरते फिरंगी, जो हमारी प्रभुता से विनत और गरिमा से विस्मित-चकित थे, चकाचौंध थे, आज अचानक हमारे ही द्वारा अनुमति प्राप्त कर, हमारे ही लोगों की भरती से खड़ी को हुई सैनिक टुकड़ियों के द्वारा हमसे वचनभंग और विश्वासघात करते हुए ये विश्वासघाती और दोगले तथा दोमुंहे, कृतप्न और क्रूर हृदय विचित्र से लोग हमारे राजपाट, हमारी संस्कृति और हमारे धर्म सबको विनष्ट कर डालने पर उतारू है और इस प्रकार हमारे साथ बंचना की गई, हमें तगा गया और बहुत बड़ा धोखा किया गया, पर अब तो धोखा खा गये, अतः 'अर्थ तजहिं बुध सरबस जाता इनकी 'पैरामाउण्टेसी' मान लो, कुछ मामलों में इनकी चलने दो, विदेशों से इनको सहमति के बिना हम कोई सम्बन्ध न रखें, इनके शत्रुओं को हम अपनी सेवा में न रखें, केवल अंग्रेजों को और उनके मित्रों को ही हम अपनी 'सर्विस' में रखें ऐसी शर्तें मान ली जायें और संधि के द्वारा अपना राज्य बचाकर रखा जाये, भले ही साँध कुछ कम सम्मानजनक है तो भी समय को देखकर यह कर लिया जाये, यह यदि भारतीय राजा सोचते हैं तो उसे क्यों नहीं अंग्रेजों की ही तरह की कूटनीति माना जाये, उसके लिए उन्हें धिक्कारा क्यों जाये, उनके दोष क्यों देखे जायें, उन्हें पराधीन और पराजित हो गया क्यों माना जाये और अपने देश को न बचा सकने वाला क्यों माना जाये?


अंग्रेजों को जो सफलता दो सौ वर्षों में मिली, भारतीयों ने बही 90 वर्षों में पा ली 

अगर कसौटी मानवतावादी और सार्वभौम है तो फिर 17वीं सदी के शुरू से 19वीं सदी के प्रारम्भ तक अंग्रेज व्यापारियों द्वारा दीन बनकर, झुककर, गिड़‌गिड़ाते हुए ध्यापार की अनुमति मांगने की विवशता को उन व्यापारियों का दैन्य और मजबूरी मानकर उनपर तरस क्यों न खाई जाये? उन्हें बहुत बड़ी कूटनीति के अन्तर्गत ये सब दाँग-पेंच चला रहे होशियार लोग क्यों माना जाये? अगर यह तर्क हो कि वे सफल हो गये, 1857 में अचानक ब्रिटिश सेनापति ने भारतीय राजाओं द्वारा पापिष्ठ फिरंगी व्यापारियों को मार भगाने के अभियान के विरुद्ध अवैध और अनुचित रूप में जो इस्तक्षेप किया और जिसके कारण ब्रिटेन का राज्य 90 वर्षों के लिए लगभग आधे भारत में हो गया, उस तर्क के आधार पर 16वीं-17वीं सदी से ही अंग्रेजों को कोई बड़ी कूटनीति कर रहा माना जाये तो फिर 1947 में भारत भी तो सफल हो गया। अंग्रेज 200 वर्षों में जाकर सफल हुए तो भारतीय राजा और भारतीय समाज तो 90 वर्षों के भीतर ही सफल हो गया। तब भारतीय राजाओं के द्वारा की गई संधियों और भारतीय नागरिकों के द्वारा दी गई याचिकाओं तथा विनय भाव से की गई माँगों को भी महत्त्वपूर्ण और श्रेष्ठ राजनीति तथा कूटनीति का सामान्य अंग क्यों न माना जाये? उसकी सराहना क्यों न की जाए? किस आधार पर भारत की पराधीनता का इतना सोर?

गुलामी आजादी की पदावली एक युद्ध नैतिक युक्ति थी, सत्य नहीं 

20वीं शताब्दी में पहली बार 'इंडिपेंडेंस' की मांग अंग्रेसी शिक्षित भारतीयों ने इस तर्ज पर शुरू की कि स्कॉटलैंड, आयरलैंड तथा अन्य यूरोपीय देश और संयुक्त राज्य अमेरिका इंडिपेंडेंस की माँग कर रहे हैं और अन्त में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा अनेक देश इसमें सफल भी हुए तो केवल इस आधार पर 'इंडिपेंडेंस' की माँग का प्रयोग करने को बड़ी राजनैतिक चतुराई क्यों नहीं माना जाये? उसके आधार पर सचमुच भारत को कभी पराधीन रहा हुआ और अब स्वाधीन हुआ देश क्यों माना जाये? क्या इसलिए कि 'ट्रांसफर ऑफ पॉवर' के जरिये पहली बार भारत में एक यूरो-क्रिश्चियन राज्यतंत्र रहने दिया गया है और उस राज्यतंत्र को बने रहने देने और बनाये रखने के लिए उसे अत्यधिक गरिमामण्डित करना आवश्यक है और इसलिए उसे लम्बी पराधीनता के बाद प्राप्त बताना आवश्यक है? यहाँ तत्कालीन राजनैतिक कार्यकर्ताओं और उनके समर्थक लोगों द्वारा भी आजादी और गुलामी को पदावली दोहराई गई, इस तथ्य को किसी वास्तविक ऐतिहासिक और तथ्यात्मक साक्ष्य की तरह प्रस्तुत कर देना उचित नहीं है, क्योंकि ब्रिटिश आफसरशाही के अत्याचारों से समाज तो प्राहि-शाहि कर ही रहा था और उस पीड़ा से मुक्ति की छटपटाहट में वह अपने नेताओं को पदावली का प्रयोग करे, उत्साह से करे, यह तो नितान्त स्वाभाविक है। 1947 के बाद भी विभिन्न राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता और उनके समर्थक लोग भाँति-भांति के नारे लगाते ही हैं। 20वीं शताब्दी में कोई नारा बारम्बार लगाया गया तो इससे 19वीं शताब्दी में उससे भी अधिक बार की गई 'सुराज' की बात उतनी ही महत्त्वपूर्ण क्यों नहीं है? 1857 में जब भारत के श्रेष्ठ देशभक्त लोग फिरंगियों को मार भगा रहे थे, तब कोई भी स्वाधीनता की बात नहीं कर रहा था, धर्म की रक्षा और सुराज की ही बात कर रहा था। अतः वे पद भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। छली शत्रु के साथ राजाओं और जननेताओं द्वारा की गई चतुराइयों की प्रशंसा कम से कम उतनी ही करनी चाहिए, जितनी हमारे मानवतावादी लोग अंग्रेजी साम्राज्यवाद की करते हैं। गुलामी आजादी की पदावली का प्रयोग छलपूर्वक भारतीयों के शस्त्र और भारतीय शिक्षा छीन चुके अंग्रेजों के साथ बरती गई युद्ध नैतिक युक्ति मात्र थी। हमें गुलाम बनाने की इंग्लैंड की कभी हैसियत ही नहीं थी। खीस्तपंथी बुद्धि से उन्होंने छल, वचनभंग, बर्बरता करते हुए हमारे राजनैतिक अधिकार कुछ समय के लिए छीनने में सफलता पा ली थी। 200 वर्षों को तिकड़‌मों के बाद। हमने भी 90 वर्षों में राजनैतिक पदावलियों का चतुर प्रयोग कर उनकी तिकड़‌मों को मात दे दी। इसमें हमारी गुलामी कहां से आ गई? राजनैतिक युद्ध और दांवपेंच का दौर यह अवश्य था।

सहायक संधियाँ

1856 ईस्वी तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारतीय राजाओं से जो भी समझौते किये, उन सबकी भाषा राजाओं की विनम्र सेवक एक व्यापारिक कम्पनी की भाषा है। प्राय: सभी में दी गई शर्तों में एक मुख्य शर्त यह होती थी कि श्रीमंत महायज अपनी सेवा में किसी और अंग्रेज विदेशी को न रखें और अंग्रेजों के शत्रु को हो कदापि न रखें।' यह सेवकों का स्वामियों से करार था। यह बात अलग है कि छली, चरित्रहीन, कृतन, बेईमान, धोखेबाज, जालसाज, कपटी, फुटिल और न्यूनतम नैतिक निष्ठओं से भी रहित सेवकों का यह स्वामियों से करार था। इसे राजाओं या राजपुरुषों के समूहों का आपसी करार मानने और बताने वाले लोग दिमागी तौर पर स्वस्थ नहीं कहे-माने जा सकते हैं।

या तो भाषा, व्यवहार और प्रत्यक्ष आचरण को कसौटी माना जाये या फिर मनोवैज्ञानिक व्याख्या करने को आधार बनाया जाये। कोई एक प्रतिमान और कोई एक कसौटी बनानी चाहिए। अगर प्रत्यक्षतः व्यापार और सेवा का करार कर रहे लोगों की मनोवैज्ञानिक व्याख्या यह बताते हुए की जाए कि उनके मन में हो राज्य था, तो फिर राजाओं के मन की भी मनोवैज्ञानिक व्याख्याएँ की जानी चाहिए और वे उठनी ही प्रामाणिक मानी जानी चाहिए। दुर्भाग्यवश भारत में इतिहास लेखन में 1947 ईस्वी के बाद औपनिवेशिक सत्ता के हस्तांतरण से शक्तिशाली बने राज्यतंत्र की अफसरशाही के संरक्षण में प्रतिभाशून्य और मेधारहित लोगों की भरमार रही, जो विविध शासकीय संस्थाओं में नौकरी पाने या नौकरी सुरक्षित रखने और सरकारी पद-पुरस्कार पाने के लिए ही मानो इतिहास लेखन के नाम पर खानापूरी कर रहे हॉ और केवल उपनिवेशवादियों की पुस्तकों के न केवल उद्धरणों की भरमार करते हो, बल्कि व्याख्याओं के भी अंश पर अंश यथावत, आस्थापूर्वक और विवेकविहीन रहकर उद्भुत करते जाते हों। इसकी जड़ें शिक्षा पर यूरो-भारतीय प्रवाह के एकाधिकार और राज्य पर औपनिवेशिक सत्ता की संरचना को ही भारत का भविष्य मानने वालों के एकाधिकार में देखी जा सकती है। वह एकाधिकार बहुत दिन टिक नहीं पायेगा। 

खौस्तपंथी धर्मांतरण के भीषण खतरों का उदाहरण

वस्तुतः इन संधियों से महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष तो यह निकालना चाहिए कि सम्पूर्ण विश्व को एक ही मतवाद, रेलिजन या मजहब के तले लाने की आस्था ऐसा उन्माद पैदा करतो है कि नीति-अनीति की कसौटियाँ सार्वभौम नहीं रह जाती है। स्वपंथ के एकाधिकार के लिए नीचतम साधनों का प्रयोग भी उचित माना जाता है। कृतप्रता, छल, झूठ, फरेब और दगाबाजी ऐसे लोगों का नया क्षत्रिय धर्म है, जो धर्म की वास्तविक कसौटियों पर केवल अधर्म और पाप ठहरेगा। यहाँ एक-दो दृष्टान्त ही पर्याप्त होंगे-

ग्वालियर के महाराज सिंधिया ने सेना को आधुनिकतम बनाने की दृष्टि से अपने तोपखाने में सभी यूरोपीय आफसर रखे। यह कोई नई बात नहीं थी। भारत के अनेक हिन्दू राजाओं ने मुस्लिम सैनिक और सैन्य अधिकारी रखे थे तथा अनेक मुसलमानों ने हिन्दू सैनिक और सेनापति रखे थे। यह भी सही है कि कभी-कभी कुछ मुसलमान सैनिकों और सैन्य अधिकारियों ने ऐन मौके पर अपने राजा से अधिक राजा के शत्रु अपने हम-मजहब का साथ दिया। परन्तु कई बार वे सब पूर्ण निष्ठावान भी बने रहे। परन्तु सिधिया जी के तोपखाने के सभी यूरोपीय अफसर अंग्रेजों के आक्रमण करते ही उनके साथ हो गये। एक भी यूरोपीय अफ़सर ऐसा नहीं निकला, को अपने राजा का साथ दे। ऐसे में प्रभु तो यह उभरता है कि क्या ईसाइयत या एकपंयवाद राष्ट्रीयता के विरोधी ठहरते हैं? परन्तु भारत में तो अनेक श्रेष्ठ ईसाइयों ने भारतीय सेना में अपने भारतीय देशभक्त होने का ही प्रमाण दिया है। तो क्या एकपंथवादी उन्माद यूरोपीय ईसाइयत की विशेषता है? क्या वे लोग पाथिक एकता को राष्ट्रीय एकता से ऊपर मानते हैं? या फिर क्या नस्लवादी ईसाई इस प्रकार के होते हैं, शेष नहीं? क्या यूरोपीय ईसाइयों पर भरोसा नहीं किया जा सकता ?

मध्ययुगीन ईसाइयों में पंथोन्माद तो सुपरिचित तथ्य है, परन्तु रेनेसां के बाद अनेक चरित्रवान यूरोपीय सामने आये, अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि नस्लवादी और पालीन क्रिश्चियनिटी में आस्थावान लोग ही इस प्रकार के अनैतिक होते हैं, प्रबुद्ध और नवजाग्रत या नवजागरण के बाद विकसित व्यक्तित्व वाले यूरोपीय ऐसे कदापि नहीं होते। ऐसा लगता है कि औपनिवेशिक सत्ता के हस्तांतरण से सर्वाधिक क्षति

बौद्धिक और एकेडमिक क्षेत्रों में ही हुई है। उसमें ही प्रतिभाशून्य और परिश्रमशुन्य लोगों की बहुलता हो रही है। साधना, स्वाध्याय, परिश्रम, प्रशान्त विवेक और शान्तचित्त से समीक्षण के गुण इस यूरो-भारतीय तंत्र में देखने को क्यों नहीं मिल रहे हैं? क्या पैसा और पद आदि के लिए यह हड़बड़ी और आवेश है? या फिर विचारबिहीन भावोन्माद से भरपूर 'आइडियालॉजिकल' या 'रेलिजस', 'मजहबी' प्रतिबद्धता से यह उपजा है?

यह देखते हुए कि हमारे आधुनिक शिक्षित भारतीयों के एक उल्लेखनीय वर्ग में अतिशय विदेश भक्ति है, विदेशियों का गुणगान मानो उनकी सहजवृत्ति हो गया है, ऐसे में भारत निन्दा के उनके हर वलव्य और हर कथन का पहले गम्भीर परीक्षण कर तभी उस पर आगे विमर्श का विचार करना चाहिए। उनके द्वारा की गई नारेबाजियों को वैचारिक निष्कर्ष मानकर नहीं चलना चाहिए और इन नारेबाजियों के आधार पर राजनैतिक निर्णय लेना तो आभचात ही सिद्ध होगा। 

इंग्लैंड और यूरोप के प्रति भारत में जानकारी बढ़नी चाहिए

यह भी आवश्यक है कि भारत में विदेशों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी संग्रहीत की जाये और देश में वह प्रचारित की जाये। विशेष कर इंग्लैंड तथा यूरोपीय देशों के इतिहास के विषय में भारत में भरपूर जानकारी का होना और उसका प्रचार आवश्यक है, क्योंकि भारत के प्रति आत्मग्लानि का भाव रखने वाले अधिकांश नवशिक्षितों की प्रवृत्ति यूरोप से भारत की तुलना की हो है। सारी निन्दा तुलनात्मक रूप में ही ये लोग करते हैं, अत: आवश्यक है कि पहले जिस यूरोप के प्रति भक्तिभाव से भरकर भारत की तुलनात्मक निन्दा की जा रही है, उसके तथ्य तो जानें। तथ्य तथ्य ही हैं। अंग्रेजों के भारत में प्रभावी रहते समय और उनसे व्यवहार करते समय, सशस्त्र युद्ध न करते हुए शान्तिपूर्ण संवाद और सत्याग्रह की नीति अपनाते समय स्वाभाविक ही अंग्रेजों के गुणों को कुछ बढ़ाकर देखना उचित था। अत: अंग्रेजी प्रधानता वाले समय में श्रेष्ठ भारतीय राजपुरुषों ने भारतीय समाज के दोष कुछ बढ़ाकर दिखाये हों और इंग्लैंड तथा अन्य यूरोपीय देशों के गुण कुछ बढ़ाकर प्रचारित किये हों, तो यह स्वाभाविक है और उन कथनों को इस तर्क के साथ तथ्य के रूप में नहीं प्रस्तुत किया जाना चाहिए कि यह हमारे श्रेष्ठ पुरुषों का कथन है। श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धा रखकर उनके वास्तविक श्रेष्ठ आचरण और सद्गुणों को अपनाना ही उचित है, विदेशी प्रभुता के समय उनके द्वारा संवाद की दृष्टि से कहे गये कथनों को भारत के प्रति निरर्थक ग्लानि और तिरस्कार का आधार बनाना सर्वथा अनुचित है, जो कि हमारे अनेक आधुनिक नवशिक्षित करते देखे जाते काल की एकरैखिक अवधारणा में अंध आस्था रखकर मात्र 20वीं शताब्दी ईस्वी के 'कांस्ट्रक्ट्स' को एकमात्र शक्ति मानने वाली मानसिकता सही नहीं है। यह मानसिकता अंधी पूरो-अमेरिकी भक्ति से जुड़ी है, जबकि भारत में सनातन दृष्टि से विद्या-कार्य होने चाहिए।

हजार साल की गुलामी एक औपनिवेशिक कास्ट्रक्ट

इसार साल की गुलामी एक औपनिवेशिक 'कांस्ट्रक्ट' है। सत्य से इस 'कांस्ट्रक्ट' का कोई भी रिश्ता नहीं है। सत्य यह है कि सम्पूर्ण भारत एक दिन भी पराधीन नहीं रहा है। इसी प्रकार सम्पूर्ण भारत में एक दिन भी मुस्लिम शासन नहीं था। लगभग एक तिहाई भारत में कुछ सौ वर्षों तक मुस्लिम शासन अवश्य था, पर ये मुसलमान विदेशी नहीं थे, इनमें से लगभग सभी भारतीय थे और कुछ भारत के सीमान्त क्षेत्रों के लोग थे, जो कभी वृहत्तर भारत का अंग रहा था। अतः महत्त्वपूर्ण उनका विदेशी होना नहीं है। वे विदेशी हैं भी नहीं। महत्त्वपूर्ण उनका विधर्मी या अधमों होना है। ये भारतीय थे, परन्तु इस्लाम के नाम पर कई एक मुस्लिम राजाओं ने और अनेक लुटेरों ने जो भी किया, वह जघन्य पापाचार है, राक्षसी कर्म है। कम से कम एक लाख से अधिक मन्दिर इन पापिष्ठों ने तोड़े हैं, जो हर प्रकार से घृणित दुष्कर्म है। उसे केवल इस आधार पर क्षम्य या उनका अधिकार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे इस्लाम नाम के मजहच के अनुयायी हैं। किसी भी मजहब या रेलिजन को आड़ में अथवा किसी भी एकपंथवादी मतवाद की आड़ में पाप की छूट नहीं दी जा सकती। मानवीय आचरण को सार्वभौम कसौटियाँ ही श्रेयस्कर विश्व व्यवस्था का आधार बन सकती हैं। वैसे भी विगत एक हजार वर्ष से भारत को मुख्य समस्या ऐसे धर्मातरण की रही है, जिसकी आड़ में भारतीय धर्म, संस्कृति एवंसमाज के विरुद्ध युद्ध चलाया जाता है। अत: सार्वभौम आधार पर ही उसे कसा जाना उचित।

विद्या केन्द्रों की आवश्यकता

इसका यह अर्थ बिल्कुल भी नहीं है कि हिन्दुओं को हजार वर्ष तक मन्दिरों के तोड़े जाने का बदला लेना है या अकारण किये जाने वाले बलात्कार, वध तथा अन्य नृशंस कर्मों का बदला लेना है, क्योंकि वह तो वैसे भी उचित नहीं है। परन्तु इसका यह अर्थ अवश्य है कि हिन्दुओं के अपवादस्वरूप किसी त्रुटिपूर्ण आचरण को लेकर वितण्डा मचाने को सही नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि इसकी प्रतिक्रिया अनिवार्य है। यदि एक हजार वर्ष तक यहाँ-वहाँ हिन्दुओं के मन्दिर तोड़े जाने का तथ्य विस्मरण के योग्य है, तो फिर हिन्दुओं के किसी समूह द्वारा कभी दो-चार अन्य लोगों के किन्हीं उपासना-स्थलों को तोड़े जाने की बात को दशकों या शताब्दियों तक चर्चा के योग्य जघन्य दुष्कर्म भी नहीं बताया जा सकता। हिन्दुओं का वह आचरण भी उतना ही विस्मरण के योग्य है।

भारत में भारतीय विद्या केन्द्र अत्यन्त आवश्यक हैं। बल्कि सच्चे अर्थों में सार्वभौम विद्या केन्द्र होने आवश्यक हैं, जिनमें सार्वभौम कसौटियों पर नीति-अनीति, उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य की दृष्टि से विचार हो। परन्तु इसके लिए धर्मनिष्ठ शासन की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। ऐसा शासन जाने कब आये ! धर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ, वीरव्रती लोगों को स्वधर्म पालन करना चाहिए। शेष तो कालगति है। भगवान कृष्ण का कथन सदा स्मरण रखने योग्य है-

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो-

लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ तस्मात्त्वमुतिष्ठ यशो लभस्व निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥

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भारत में मुस्लिम शासन की भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अवधि

टिप्पणी :

भारत के अलग-अलग राज्यों व क्षेत्रों में मुस्लिम शासन की कुल अवधि कितनी-कितनी रही है, इसका सार संक्षेप यहाँ प्रस्तुत है। साथ ही हिन्दू शासन की अवधि और एंलो क्रिश्चियन शासन की अवधि भी प्रस्तुत है। 1947 ईस्वी (विक्रम संवत् 2004) के बाद की स्थिति यहाँ नहीं दी जा रही है। यह अवधि एक यूरो- भारतीय वैचारिक सम्प्रदाय के शासन की है, जिसे एंग्लो-सेक्सन-लॉ-वादी भारतीय पंथ कहा जा सकता है। प्रत्येक शासन की कुल अवधि कोष्ठक में दी गई है। हिन्दू शासन की अवधि हमने वैदिक काल से मानी है, जो कम से कम ईसापूर्व 16000 वर्ष होने के अकाट्य प्रमाण हैं।

(1) जम्मू: मुस्लिम शासन की अवधि एक भी दिन नहीं। हिन्दू शासन की अवधि ईसापूर्व 16000 से 1948 ईस्वी तक लगभग 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक दिन को भी नहीं। अंग्रेजों से 1851 ईस्वी से संधि।

(2) लद्दाख मुस्लिम शासन की अवधि एक भी दिन नहीं। हिन्दू शासन की, अवधि ईसापूर्व 16000 से 1948 ईस्वी तक लगभग 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक दिन को भी नहीं। अंग्रेजों से 1851 ईस्वी से संधि।

(3) कश्मीर घाटी मुस्लिम शासन 1346 से 1819 ईस्वी (कुल 473 वर्ष)। हिन्दू शासन 17474 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक दिन को भी नहीं। 1851 ईस्वी से संधि।

1346 ईस्वी में महाराजा उद्यानदेव के मंत्री अमीर शाह ने छल से उनकी हत्या कर दी और शमशुद्दीन के नाम से राज्य करने लगा। 1596 ईस्वी में यह अकबर के अधीन। 1757 ईस्वी में मुगलों से अहमदशाह दुर्रानी ने छीना। उनके अधीन यह अफगानिस्तान का अंग रहा। 1819 ईस्वी में महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानिस्तान को हराकर शासन किया। 1846 ईस्वी ने उन्होंने महाराजा गुलाबसिंह को दिया। 1949 तक गुलाबसिंह के वंश का शासन रणवीर सिंह 1857-85, परताप सिंह 1885-1925, हरिसिंह 1925-49। बाद में नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को। जम्मू-लद्दाख अलग रहे। कश्मीर घाटी अलग रही।

(4) पंजाब-हरियाणा मुस्लिम शासन 1012 से 1030 ईस्वी, 1206 से 1320 ईस्वी, 1634 से 1640 ईस्वी, 1700 से 1708 ईस्वी, 1716 से 1767 ईस्वी (कुल 102 वर्ष)। हिन्दू शासन 17900 वर्ष। ब्रिटिश शासन आधे हिस्से में 1849 से (98 वर्ष)। बहावलपुर, फरीदकोट, जींद, कलसिया, कपूरथला, मलेरकोटला, नाभा, पटियाला और लोहारू सहित अनेक रियासतें स्वतंत्र। अंग्रेजों से संधि।

(5) सिंध: 711 से 744 ईस्वी तक कासिम द्वारा लूटपाट, फिर 998 से 1008 ईस्वी तक महमूद गजनवी द्वारा लूट, पुनः 1018 से 1026 ईस्वी तक लूट, फिर 1176 से 1362 ईस्वी तक घोर अराजकता। फिर 1591 से 1842 ईस्वी तक मुस्लिम शासन। इस प्रकार 250 वर्ष मुस्लिम शासन तथा 250 वर्ष अराजकता और लूट की स्थिति। हिन्दू शासन की अवधि कम से कम 17380 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1843 से 1947 ईस्वी तक (कुल 104 वर्ष)। 

(6) अफगानिस्तान मुस्लिम शासन 11वीं शती ईस्वी से आज तक। हिन्दू शासन लगभग 17000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं।

(7) गजनी-गोर (गान्धार क्षेत्र): गजनी पर मुस्लिम शासन 10वीं शती ईस्वी के आरम्भ से तथा गोर पर 11वीं शती ईस्वी के आरम्भ से आज तक (कुल लगभग 1000 वर्ष)। हिन्दू शासन लगभग 17000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं।

(8) बलूचिस्तान मुस्लिम शासन 8वीं शती के मध्य से 1834 ईस्वी तक और फिर 1947 से आज तक (कुल 1100 वर्ष)। हिन्दू शासन लगभग 16750 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं, परन्तु 1843 से 1947 ईस्वी तक (कुल 104 वर्ष) नियंत्रण।

(9) पख्तूनिस्तान: मुस्लिम शासन 8वीं शती के मध्य से 1834 ईस्वी तक और फिर 1947 से आज तक (कुल 1100 वर्ष)। हिन्दू शासन लगभग 16750 वर्ष । ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं, परन्तु 1843 से 1947 ईस्वी तक (कुल 104 वर्ष) नियंत्रण ।

(10) दिल्ली-आगरा : मुस्लिम शासन 1193 से 1758 ईस्वी तक (कुल 565 वर्ष)। उसके बाद नाम मात्र को। वास्तविक शक्ति मराठों के पास। हिन्दू शासन लगभग 17300 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1858 से 1947 ईस्वी तक (कुल 90 वर्ष)।

(11) चम्बा : मुस्लिम शासन एक भी दिन नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। अंग्रेजों से 1840 ईस्वी से संधि।

(12) थानेश्वर : मुस्लिम शासन 1014 से 1857 ईस्वी (लगभग 840 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17000 वर्ष। अंग्रेजों से 1856 ईस्वी से संधि।

(13) कुल्लू-बिलासपुर मुस्लिम शासन एक भी दिन नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। अंग्रेजों से 1856 से संधि।

(14) कांगड़ा-नगरकोट मुस्लिम शासन 1620 से 1810 ईस्वी (कुल 190 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17800 वर्ष। अंग्रेजों से 1856 ईस्वी से संधि।

(15) कुमायूँ-गढ़वाल (टिहरी सहित) मुस्लिम शासन एक भी दिन नहीं। हिन्दू शासन लगभग 18000 वर्ष। 1816 ईस्वी से गोरखा-ब्रिटिश संधि।

(16) कन्नौज : मुस्लिम शासन 1540 से 1856 ईस्वी (लगभग 316 वर्ष)। हिन्दू शासन लगभग 17700 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1856 ईस्वी से (कुल 91 वर्ष)।

(17) अवध (कौशल) मुस्लिम शासन 1192 से 1856 ईस्वी तक (कुल 664 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17200 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1856 ईस्वी से (कुल 91 वर्ष)।

(18) इलाहाबाद : मुस्लिम शासन 1583 से 1856 ईस्वी तक (कुल 273 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17600 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1856 ईस्वी से (कुल 91 वर्ष)।

(19) जौनपुर: मुस्लिम शासन 1360 से 1856 ईस्वी (लगभग 500 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17350 वर्ष। ब्रिटिश अधीनता में 1856 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(20) रोहिलखण्ड : मुस्लिम शासन 1740 से 1801 ईस्वी (कुल 61 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17750 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1801 से (कुल 146 वर्ष)।

(21) रामपुर : मुस्लिम शासन 1740 से 1947 ईस्वी तक (कुल 207 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17750 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक दिन भी नहीं। 1857 ईस्वी में अंग्रेजों का साथ दिया।

(22) काशी: मुस्लिम शासन 1195 से 1775 ईस्वी तक (कुल 580) वर्ष। बीच-बीच में स्थानीय हिन्दू राजा राज्य करते रहे। हिन्दू शासन कुल 17600 वर्ष। जिसमें कुछ वर्ष मुस्लिम नवाब से संधि। ब्रिटिश शासन एक दिन भी नहीं। परन्तु 1781 ईस्वी से अधीनता स्वीकार (कुल 166 वर्ष)।

(23) मीरजापुर : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन 18000 वर्ष। ब्रिटिश अधीनता में 1812 ईस्वी से (कुल 135 वर्ष)।

(24) मथुरा महमूद गजनवी द्वारा 1028 ईस्वी में लूट। फिर 1670 ईस्वी में औरंगजेब के राक्षसीपन का शिकार। स्थायी मुस्लिम शासन कभी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश अधीनता में 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(25) हरिद्वार : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश अधीनता 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(26) मेरठ: मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश अधीनता 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(27) मेव रियासत : मुस्लिम शासन 1260 से 1857 ईस्वी तक (कुल 800 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17250 वर्ष। ब्रिटिश अधीनता में 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(28) असम (कामरूप, चुटिया, कामतापुर सहित) एक हिस्से में मुस्लिम शासन 1596 से 1620 ईस्वी तक (कुल 24 वर्ष), शेष में एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन लगभग 18000 वर्ष 1858 ईस्वी से अंग्रेज्जों से संधि। (29) कूच बिहार : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। 1858 ईस्वी से अंग्रेजों से संधि।

(30) नागालैण्ड : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन लगभग 18000 वर्ष। अंग्रेजों के समय ईसाई मिशनरियों ने धर्मान्तरण कराकर ईसाई प्रधान बनाया।

(31) मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा और सिक्किम मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल लगभग 18000 वर्ष। प्रथम तीन 1890 ईस्वी से ब्रिटिश नियंत्रण में। सिक्किम से अंग्रेजों की 1850 ईस्वी से संधि।

(32) बंगाल: मुस्लिम शासन 1490 से 1675 ईस्वी (कुल 275 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17500 वर्ष। ब्रिटिश कम्पनी का नियंत्रण 1765 से 1857 ईस्वी (कुल 92 वर्ष) तथा ब्रिटिश शासन 1857 से 1947 ईस्वी (कुल 90 वर्ष)।

(33) बिहार (मगध, तिरहुत, भागलपुर राज्यों सहित): बड़े हिस्से में मुस्लिम शासन 1560 से 1856 ईस्वी तक (कुल 300 वर्ष)। कई छोटे स्वाधीन हिन्दू राज्य भी इस अवधि में बने रहे। हिन्दू शासन लगभग 17600 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1856 ईस्वी से (कुल 91 वर्ष)।

(34) उड़ीसा : मुस्लिम शासन कुछ भागों में 1568 से 1791 ईस्वी तक। कुछ अन्य भागों में 1568 से 1856 ईस्वी तक (कुल लगभग 300 वर्ष)। हिन्दू शासन 17600 वर्ष के लगभग। ब्रिटिश शासन 1856 ईस्वी से (कुल 91 वर्ष)।

(35) छत्तीसगढ़ (अनेक रियासतें) मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(36) बस्तर : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(37) भोपाल होशंगाबाद क्षेत्र (भोपाल रियासत छोड़कर) : मुस्लिम शासन 13वीं शती ईस्वी से 1856 ईस्वी तक (लगभग 600 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17300 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(38) भोपाल रियासत भोपाल गाँव में मुस्लिम शासन 1708 से 1947 ईस्वी तक (कुल 240 वर्ष)। शेष रियासत में मुस्लिम शासन 1817 से 1947 ईस्वी तक (कुल 128 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17800 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक दिन भी नहीं। 1817 ईस्वी में अंग्रेजों से संधि।

(39) बुन्देलखण्ड (ओरछा, छतरपुर, दतिया, खजुराहो, महोबा, कालिन्जर सहित) : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं, परन्तु कुछ रियासतों ने संधि की। लूटपाट अवश्य महमूद गजनवी से औरंगजेब तक कई दुरात्माओं ने कई बार की। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1818 ईस्वी से (कुल 130 वर्ष)।

(40) गोंडवाना मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। 1564 ईस्वी में अकबर ने महारानी दुर्गावती की हत्या की और दक्षिण-पश्चिम गोंडवाने में व्यापक लूटपाट की। परन्तु फिर थोड़े ही समय बाद चन्द्रशाह करद राजा हुए। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1818 ईस्वी से (कुल 130 वर्ष)।

(41) ग्वालियर : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। क्षेत्र में हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। नगर बसा 5वीं शती ईस्वी में। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि 19वीं शती ईस्वी में।

(42) महाकौशल क्षेत्र (गोंडवाना से बाहर): मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1818 ईस्वी से (कुल 130 वर्ष)।

(43) इन्दौर : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि 19वीं शती ईस्वी में।

(44) रीवां (सिंगरौली, चुरहट, देवसर, गोपदबनास सहित) : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि 19वीं शती ईस्वी में।

(45) झाँसी : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1858 ईस्वी से (कुल १0 वर्ष)।

(46) मालवा (उज्जयिनी, दैनास, रतलाम आदि सहित) : मुस्लिम शासन 1301 से 1731 ईस्वी (कुल 430 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17500 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। विविध रियासतों की अक्रेनों से संधि 1819 ईस्वी से (कुल 130 वर्ष)।

(47) भरतपुर क्षेत्र (आगरा, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, म१०, रोहतक, मेवात, मथुरा, गुड़गांव, रिवाड़ी जनपद) मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। कम्पनी से संधि 1826 ईस्वी में। भरतपुर नगर की स्थापना 18वीं शती के प्रारम्भ में जाट सरदार बदनसिंह ने की।

(48) धौलपुर: मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)। (49) नौगाँव, चरखारी, हमीरपुर आदि रियासतें : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि 1858 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(50) बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, करौली, किसनगढ़, कुशलगढ़, पालनपुर, प्रतापगढ़, सिरोही और शाहपुरा मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(51) टोंक : मुस्लिम शासन 1819 से 1948 ईस्वी तक (कुल 130 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17800 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(52) कालिंजर : मुस्लिम शासन 1545 से 1856 ईस्वी तक (कुल 311 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17500 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(53) अलवर : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। परन्तु मुस्लिम शासकों से संधि। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(54) जयपुर-आमेर, जोधपुर-मारवाड़, जैसलमेर और बीकानेर : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। परन्तु मुस्लिम शासकों से संधि। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। जयपुर नगर 1728 ईस्वी में, जोधपुर 1459 ईस्वी में और बीकानेर बीकाजी ने 15वीं शताब्दी में बसाया। क्षेत्र पर शासन सदा हिन्दुओं का। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं, परन्तु अंग्रेजों से संधि।

(55) उदयपुर-मेवाड़ मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। 1614 ईस्वी से संधि। हिन्दू शासन कुरा 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि।

(56) चित्तौड़ मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि।

(57) कोटा-बूंदी: शाहजहाँ द्वारा 1625 ईस्वी में स्थापित। तब से 1948 ईस्वी तक मुस्लिम शासन (324 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17600 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि।

(58) गुजरात (बड़ौदा, भावनगर, छोटा उदयपुर, कॉम्बे, ध्रांगधा, गोंदल, जाहर, जूनागढ़, कच्छ, लूनावाला, मोरवी, नवानगर, पोरबन्दर, राजपीपला, बांकानेर, विट्ठलगढ़ आदि सहित) महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ मन्दिर ध्वंस व लूट 1024 ईस्वी, परन्तु शासन नहीं। मुस्लिम शासन 1297. ईस्वी से 1537 ईस्वी तक (कुल 324 वर्ष) अलग-अलग हिस्सों में। हिन्दू शासन कुल 17700 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1818 से 1948 तक ईस्वी से (कुल 130 वर्ष) अहमदाबाद, भड़ौंच, पंचमहल, खेड़ा, सूरत और सौराष्ट्र में। शेष गुजरात में एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि।

(59) महाराष्ट्र (कोल्हापुर, औंध, भोर, जंजीरा, जाठ, कुरुंदवाड़, फाल्टन, सांगली और सावंतवाड़ी सहित) मुस्लिम शासन 1294 से 1644 ईस्वी (कुल 350 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17600 वर्ष। ब्रिटिश शासन कुछ हिस्सों में 45 वर्ष, शेष में एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि।

(60) बरार (नागपुर एवं अकलकोट सहित): 1295-96 ईस्वी में लूट। पुन: 1307 में लूट। फिर 1320-21 में लूट। 1327 से 1714 ईस्वी तक हिन्दू राजा मुसलमान राजाओं के करद रहे। फिर 1803 से 1902 ईस्वी तक पुनः यही स्थिति रही। इस प्रकार संधि के साथ अधीनता लगभग 500 वर्ष। हिन्दू शासन कुल 17400 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1902 से 1947 ईस्वी तक (कुल 45 वर्ष)।

(61) हैदराबाद: मुस्लिम शासन 1589 से 1948 ईस्वी तक (कुल 359 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17500 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि।

(62) विजयनगर: मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। राज्य की स्थापना 1336 ईस्वी में। क्षेत्र पर सदा हिन्दू शासन । ब्रिटिश शासन 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(63) कर्नाटक (मुढौल, सांवनूर और संदूर राज्य सहित, परन्तु विजयनगर और मैसूर छोड़कर): मुस्लिम शासन 1325 से 1518 ईस्वी तक (कुल लगभग 200 वर्ष)। कुछ हिस्सों में 1761 ईस्वी एक, अर्थात् 250 वर्ष और। हिन्दू शासन कुल 17325 वर्ष। अंग्रेजों का प्रभुत्व एवं शासन 1761 मे 1947 ईस्वी से (कुल 186 वर्ष)।

(64) मैसूर : 1307 ईस्वी में लूट। फिर 1325 से 1335 तथा फिर 1761 से 1799 ईस्वी तक मुस्लिम शासन (कुल 48 वर्ष)। हिन्दू शासन कुल 17900 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि।

(65) आन्ध्र (हैदराबाद छोड़कर): कल्याणी राज्य के क्षेत्र में 1307 ईस्वी में अलाउद्दीन द्वारा व्यापक लूट। फिर तुग़लकों द्वारा 1325 से 1335 तक 10 वर्ष शासन। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष)।

(66) तमिलनाडु (पुदुकोट्टई राज्य सहित) मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन 1857 ईस्वी से (कुल 90 वर्ष), परन्तु पुदुकोट्टई राज्य स्वाधीन। अंग्रेजों से संधि।

(67) तंजाबुर : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। 1857 से 1947 ईस्वी तक राजनैतिक नजरबंदी।

(68) कोचीन (केरल): मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि ।

(69) त्रावणकोर (केरल का शेष अंश तथा तमिलनाडु के तीन जनपद) : मुस्लिम शासन एक दिन भी नहीं। हिन्दू शासन कुल 18000 वर्ष। ब्रिटिश शासन एक भी दिन नहीं। अंग्रेजों से संधि।

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भारत में प्रमुख अत्याचारी मुस्लिम लुटेरों, डकैतों और राज्यकर्ताओं के मूल स्थान तथा पूर्वज और उनके द्वारा किए गए अत्याचारों का संकेत
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टिप्पणी :

यहाँ उन विफल लुटेरों का विवरण नहीं दिया जा रहा है, जिन्हें वीर हिन्दुओं ने प्रारम्भ में ही पीट दिया।

(1) कासिम (लुटेरा) मूल निवास पारसीक क्षेत्र। मूल पूर्वज पारसीक आर्य (बहुदेववादी)। अत्याचार की अवधि 712 ईस्वी (1 वर्ष)। सिन्ध नरेश महाराज दाहिर से पिटने का बदला नीचता की पराकाष्ठा तक जाकर लिया। छल। दुराचरण। स्त्रियों से पापाचार। कपटपूर्वक स्त्रियों का सहारा लेकर धोखा देकर जीत हासिल की। नृशंस अत्याचार। सैकड़ों मन्दिर ध्वंस। वहाँ अजान देकर उन्हें मस्जिद घोषित किया। लाखों बौद्धों तथा हजारों वैदिक मतावलम्बियों को बलपूर्वक मुसलमान बनाया। इन्कार करने वालों का वध।

(2) महमूद (गजनी का रियासतदार, स्वयंभू सुल्तान): मूल निवास गजनी, जो प्राचीन भारतीय प्रान्त बाह्रीक का एक अंश। मूल पूर्वज बाहीक क्षत्रिय । अत्याचार की अवधि 1001, 1002, 1007, 1026-27 ईस्वी में हर बार कुछ महीने। कुल लगभग 34 माह। उदभाण्डपुर (अफगानिस्तान) के महाराज श्री जयपाल से हुई हार का बदला लेने कई बार हमला किया। अन्त में संयोगवश 1001 ईस्वी में जीता। फिर थानेश्वर, मथुरा, कन्नौज, ग्वालियर, कालिंजर, सोमनाथ और मुल्तान की लूट तथा अत्याचार। 10000 से अधिक सुन्दर, श्रेष्ठ और पवित्र मन्दिरों को तोड़ा। आभूषणों और धन की लूट। दूसरों के धर्म को उन्मत्त होकर जानबूझकर नष्ट करने का पाप। मन्दिरों में हेराफेरी कर मस्जिदें बनायीं। पंजाब का पश्चिमी हिस्सा मुसलमान बनाया। स्त्रियों से पापाचार। बलपूर्वक लोगों को मुसलमान बनाया।

(3) मोहम्मद शहाबुद्दीन गोरी (घूरी): मूल स्थान घूर (अफगानिस्तान, जो पहले भारत का अंग था)। मूल पूर्वज घूरी हिन्दू क्षत्रिय। 1178 ईस्वी में अन्हिलवाड़े पर पहला आक्रमण। वहाँ महाराज भीमदेव से खूब पिटा। 1186 ईस्वी में पंजाब पर अत्याचार। फिर 1191 ईस्वी में अजमेर में पिटा और भाग गया। 1192 ईस्वी में दिल्ली जीता और लूटा। फिर कन्नौज की लूट। भारत का शासन एक दिन भी नहीं। लूट कई बार की। दिल्ली, अजमेर, मुल्तान, कन्नौज और चन्दावर में सैकड़ों मन्दिर ध्वंस। स्त्रियों से पापाचार। व्यापक लूट। जबरन लोगों को मुसलमान बनाना।

(4) कुतुबुद्दीन ऐबक (गुलाम) मूल स्थान पारसीक राज्य। मूल पूर्वज पारसीक आर्य (बहुदेववादी)। अत्याचार की अवधि 1193 से 1210 ईस्वी (कुल 18 वर्ष)। दिल्ली राज्य का शासक 4 वर्ष। मन्दिरों का ध्वंस। स्त्रियों से पापाचार। नृशंस लूट। जबरन मुसलमान बनाना।

(5) इख्तियारुद्दीन-बिन-बख्तियार खिलजी मूल स्थान नदिया (बंगाल)। मूल पूर्वज ज्ञात नहीं। अत्याचार की अवधि 1202 से 1206 ईस्वी (कुल 4 वर्ष)। नदिया के नव्य नैयायिक विद्वानों की हत्या। उद्यन्तपुर के बौद्ध महाविहार का ध्वंस। विराट पुस्तकालय को जलाया। 10000 घुड़सवार सैनिकों को साथ लेकर हजारों बौद्ध विद्वानों का अकारण अचानक वध। मन्दिर तोड़े। विहार नष्ट किये। बौद्धों और ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों को जबरन मुसलमान बनाया। स्त्रियों से पापाचार। मन्दिरों का ध्वंस। कामरूप के राजा ने पीटा और हराया तो भागा और मर गया।

(6) इल्तुतमिश या अल्तमश मूल स्थान ज्ञात नहीं। मूल पूर्वज : गुलाम कुतुबुद्दीन के गुलाम, सनातनी हिन्दू। अत्याचार की अवधि 1210 से 1236 ईस्वी (कुल 26 वर्ष)। पंजाब, सिंध, बंगाल, रणथम्भौर और ग्वालियर में नृशंस लूट। हज्जारों मन्दिर तोड़े। विदिशा और मालवा की लूट। महाकाल के मन्दिर में उत्पात। केवल मुस्लिम सूफियों और मौलवियों को बढ़ावा। बड़े पैमाने पर जबरन और छल- बल से मुसलमान बनाना।

(7) गयासुद्दीन बलबन या बालिन गुलाम बनाकर तुर्की ले जाया गया। मूल पूर्वज अत्याचार थोड़े ही समय। जबरन मुसलमान बनाये मूल स्थान पारसीक क्षेत्र, जहाँ से पारसीक आर्य (बहुदेववादी)। जाने को व्यापक प्रोत्साहन ।

(8) अलाउद्दीन खिलजी मूल स्थान गान्धार। मूल पूर्वज : क्षत्रिय हिन्दू। अत्याचार की अवधि 20 वर्ष। देवगिरि के यादवों, दिल्ली के नव-मुस्लिमों, गुजरात के सोलंकियों, मालव वीरों, दक्षिण के काकतीयों और होयसलों तथा मध्य भारत के अनेक क्षत्रिय वंशों की व्यापक हत्या। स्त्रियों से अन्तहीन पापाचार। समलैंगिक एवं उभयलैंगिक दुराचारी। चित्तौड़, रणथम्भौर आदि पर बारम्बार अकारण आक्रमण। मन्दिरों का व्यापक ध्वंस। बलपूर्वक मुसलमान बनाये जाने को व्यापक प्रोत्साहन तथा स्वयं भी लोगों को जबरन मुसलमान बनाया।

(9) गयासुद्दीन तुगलक मूल स्थान सम्भवतः पारस, जहाँ से तुर्की के बाजार में गुलाम बनाकर ले जाया गया और गुलाम बलवन के द्वारा बाद में खरीदा गया। इस प्रकार गुलाम का गुलाम। मूल पूर्वज सम्भवतः जाट। अत्याचार की अवधि कुल 5 वर्ष। बड़े पैमाने पर मुसलमान बनाये जाने को प्रोत्साहन और मन्दिरों का ध्वंस।

(10) मोहम्मद तुगलक गयासुद्दीन का बेटा। दिल्ली में जन्मा। अत्याचार की अवधि कुल 26 वर्ष। व्यापक पैमाने पर जबरन मुसलमान बनाया और मन्दिरों का ध्वंस।

(11) शाह मीर: मूल स्थान कश्मीर। मूल पूर्वज सम्भवतः ब्राह्मण। कश्मीर में भयंकर अत्याचार। मन्दिरों का ध्वंस।

(12) शमशुद्दीन इलियास मूल स्थान अरब मूल पूर्वज अरब का सैय्यद वंश। लोदी वंश के शासन में बंगाल आकर बसे और व्यापार किया। मौका पाकर शासन पर कब्जा। अत्याचार की अवधि 1347 से 1357 ईस्वी तक (कुल 12 वर्ष)। बंगाल, उड़ीसा और तिरहुत में हजारों मन्दिरों का ध्वंस। लोगों को जबरन मुसलमान बनाया और स्त्रियों से पापाचार।

(13) अलाउद्दीन बहमन शाह मूल स्थान अरब। मूल पूर्वज अरब के सैय्यद, जो भारतीय ब्राह्मणों के वंशज हैं। अत्याचार की अवधि 1347 से 1358 ईस्वी (कुल 12 वर्ष)। मन्दिरों का ध्वंस। स्त्रियों से पापाचार और लोगों को जबरन मुसलमान बनाना और बनवाना।

(14) तैमूरलंग: मूल स्थान मंगोलिया। मूल पूर्वज सनातनधर्मी मंगोल। अत्याचार की अवधि 1398 से 1404 ईस्वी (कुल 7 वर्ष)। पहले मुसलमानों से कुद्ध होकर बगदाद के विराट पुस्तकालय में उपलब्ध कुरान और हदीस की सभी प्रतियाँ जला डालीं। सैकड़ों मस्जिदें जलायीं। बड़े पैमाने पर मुसलमानों की हत्या। फिर 1398 ईस्वी में किसी कारण इस्लाम कबूल। तब भारत पर आक्रमण। दिल्ली, मेरठ, हरिद्वार, जम्मू, नागरकोट आदि में हजारों मन्दिर ध्वंस। हिन्दुओं का अकारण

वध। जबरन मुसलमान बनाना। (15) सिकन्दर लोधी मूल स्थान गान्धार। मूल पूर्वज लोध हिन्दू। स्वयं हिन्दू माँ की सन्तान और पिता लोध से मुसलमान बने वंश के। अत्याचार की अवधि 1504 से 1517 ईस्वी (कुल 14 वर्ष)। बड़े पैमाने पर मन्दिरों का ध्वंस। ब्राह्मणों पर भीषण अत्याचार। तीर्थयात्रा पर प्रतिबन्ध। जजिया कर की नृशंसता से वसूली।


(16) अकबर: मूल स्थान गान्धार। उससे पहले पूर्वज मंगोलिया से आये थे। मूल पूर्वज : मंगोल (बहुदेववादी)। अत्याचार की अवधि 1556 से 1605 ईस्वी (कुल 50 वर्ष)। उत्तरी भारत का शासक 50 वर्ष। दक्षिण भारत के एक हिस्से पर 4 वर्ष राज्य। महान वीर सेनापति हेमू विक्रमादित्य का सिर बैरम ख़ाँ से कटवाकर झूठा प्रचार कर खुद को गाजी बताना। फिर उस बैरम ख़ाँ को भी मरवा डालना। महान वीरांगना चन्देल पुत्री और गोंडवाना की रानी दुर्गावती पर अकारण आक्रमण। महारानी वीरतापूर्वक लड़ों और जौहर किया। चित्तौड़ पर भी अकारण अत्याचार । निरन्तर हिन्दुत्व पर छल-बल से प्रहार। संधि और भेद की कूटनीति में निपुण। अफगानों और तुर्की के राज्यों का विनाश।

(17) जहाँगीर : मूल स्थान आगरा। मूल पूर्वज मंगोल पिता और राजपूतनी माता। अत्याचार की अवधि 1605 से 1627 ईस्वी (कुल 22 वर्ष)। पिता से विरोध। हिन्दुओं पर अत्याचार। मन्दिरों का ध्वंस। स्त्रियों से पापाचार। जबरन मुसलमान बनाये जाने को बढ़ावा।

(18) शाहजहाँ: मूल स्थान आगरा। अर्ध-हिन्दू सलीम जहाँगीर पिता और क्षत्राणी माँ से उत्पन्न। अत्याचार की अवधि 1628 से 1657 ईस्वी (कुल 30 वर्ष)। बीजापुर, हुगली और गोलकुण्डा में शिवाजी से युद्ध। अनेक मन्दिरों का ध्वंस। स्त्रियों से पापाचार।

(19) औरंगजेब : जन्म स्थान आगरा। अर्ध-हिन्दू पिता और हिन्दू माता की संतान। अत्याचार की अवधि 1658 से 1707 ईस्वी (कुल 50 वर्ष)। दक्षिण भारत में लगभग 10 वर्ष प्रभाव। भाइयों की हत्या। पिता को आजीवन बंदी बनाया। शिवाजी के ऊपर अकारण आक्रमण और अत्याचार। भाइयों के परिवार को तबाह किया। बड़ी बेगम के सभी बेटों से दुर्व्यवहार किया। एक बेटे को फाँसी दी। सिखों, मराठों, बुन्देलों, जाटों, मेवातियों, सतनामियों, अहोमों आदि पर अकारण आक्रमण और अत्याचार। सिख गुरु तेग बहादुर जी को फाँसी। मन्दिरों का व्यापक ध्वंस। शिवाजी और मेवाड़ पर बारम्बार आक्रमण। हिन्दुत्व का नृशंस दमन। जजिया वसूली में अत्यधिक कठोरता। भयंकर अत्याचार।

ब्रिटिश काल में 730 स्वतंत्र भारतीय राज्यों की स्थिति

टिप्पणी :

ब्रिटिश काल में 730 स्वतंत्र भारतीय राज्य थे। ये अपनी आन्तरिक व्यवस्था का संचालन पूरी तरह स्वयं ही करते थे। इनमें से 100 से अधिक राज्य पहले अपने सिक्के भी चलाते थे। बाद में ये छोटे सिक्के खुद के चलाने लगे और नोट ब्रिटिश शासन के मुद्रणालय से छपने लगे। कानून व्यवस्था, शिक्षा, भाषा, न्यायिक निर्णय, राजस्व व्यवस्था और समाज से जुड़े राजकीय नियम ये सभी इनके अपने-अपने ही होते थे, जिनमें से हिन्दू राज्यों का सन्दर्भ सदा सनातन धर्म के धर्मशास्त्रों में वर्णित राजधर्म होते थे और मुस्लिम राज्यों का सन्दर्भ कुरान और हदीस होते थे। वनवासी राज्य हिन्दू राज्यों जैसे ही चलते थे और वे अपनी मान्यताओं तथा परम्पराओं को अपना सन्दर्भ बनाते थे।

इनमें से 115 राज्यों को 21, 19, 17, 15, 13, 11 या 9 तोपों की सलामी दी जाती थी। तोपों की सलामी केवल इस तथ्य की संकेतक है कि 'ब्रिटिश क्राउन' की ऑफिशियल दृष्टि में इन राजाओं की क्या स्थिति है। इनके अतिरिक्त शेष छोटे राज्य थे। 115 राज्यों के अतिरिक्त भी कुछ बड़े राज्य थे, जिन्हें अंग्रेजी ऑफिशियल स्तर पर किन्हीं तोपों की सलामी के विषय में कोई मान्यता नहीं दी गई थी। वे अपने स्तर पर तोपों के विषय में निर्णय करते थे। इन 115 राज्यों से बाहर अनेक बड़े राज्य थे, जैसे कि दरभंगा, बस्तर आदि, जिन्हें सलामी वाली सूची से बाहर रखा गया था। जहाँ तक उक्त तोपों की सलामी वाले राज्यों का प्रश्न है, ये वस्तुतः शक्तिशाली राज्य थे ही। इनके अतिरिक्त अनेक शक्तिशाली राज्यों को अंग्रेजों ने राजनैतिक बन्दी घोषित कर रखा था और अपनी ओर से उन्हें उक्त कोई भी मान्यता नहीं दी थी। इनमें अवध का विशाल राज्य, कर्नाटक का अर्काट, असम का विशाल क्षेत्र, कुर्ग राज्य, टीपू सुल्तान का राज्य, कोलार, कुर्नूल, तंजावुर, मसुलीपटनम्, मुर्शिदाबाद, नागपुर, सूरत तथा पंजाब के कई राजा शामिल थे। 12 बड़े राजा राजनैतिक बन्दी घोषित थे। दिल्ली और झाँसी जैसे प्रतापी राज्यों का तो अस्तित्व ही मिटा दिया गया था। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि बैढ़न, देवसर, चुरहट, सिंगरौली जैसी रियासतों का इन 730 राज्यों की सूची में नाम ही नहीं है, क्योंकि अंग्रेजों की सूची में इन्हें नहीं रखा गया था।

भारत के ये 730 राज्य ब्रिटिश भारत का भाग नहीं थे। वे भारत महादेश के भाग थे। अंग्रेज न तो उन पर कब्जा कर सके थे, न उनको 'एनेक्स्ड' करने की छल-नीति में सफल हो सके थे। 1947 ईस्वी के बाद ये राज्य स्वतंत्र रहें या भारत में मिलें या पाकिस्तान में मिलें, इसका पूरा अधिकार इन 730 राज्यों को था, जिनमें से कुछ किसी बड़े देशी राज्य के अधीन रियासतें थे।

जो कांग्रेस सरकार यह दावा करती है कि उसने शस्त्र बल से नहीं, प्रेम- बल और सत्याग्रह-बल से औपनिवेशिक सत्ता का हस्तांतरण सम्भव किया है, वह यह दावा नहीं कर सकती कि उसने शस्त्र बल से इन सैकड़ों राज्यों को भारत शासन का अंग बनाया है। स्पष्टतः इन राज्यों के राजाओं की देशभक्ति ही इनके द्वारा भारत शासन का अंग बनना स्वीकार किये जाने का एक प्रमुख कारण है। सरदार पटेल द्वारा की गई बातचीत की कुशलता और जनभावनाएँ भी उतने ही प्रमुख कारण हैं। भारत के वायसराय को 31 तोपों की सलामी दी जाती थी, यानी सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत की शक्ति 31 तोपों की सलामी के योग्य मानी गयी थी। अतः उस हिसाब से शेष सलामियों का अनुमान किया जा सकता है।

(1) 21 तोपों की सलामी वाले राजाओं के राज्य (कुल-7) (1) बड़ौदा (गुजरात), (2) ग्वालियर (मध्यप्रदेश), (3) हैदराबाद (आन्ध्रप्रदेश), (4) इन्दौर (मध्यप्रदेश), (5) जम्मू, (6) मेवाड़-उदयपुर (राजस्थान) तथा (7) मैसूर।

(2) 19 तोपों की सलामी वाले राजाओं के राज्य (कुल-8) (1) भरतपुर (राजस्थान), (2) भोपाल (मध्यप्रदेश), (3) बीकानेर (राजस्थान), (4) जयपुर (राजस्थान), (5) कोल्हापुर (महाराष्ट्र), (6) कोटा (राजस्थान), (7) पटियाला (पंजाब) तथा (8) त्रावणकोर (केरल)।

(3) 17 तोपों की सलामी वाले राजाओं के राज्य (कुल-10) (1) अलवर, (2) भरतपुर, (3) बूंदी, (4) धौलपुर, (5) जोधपुर, (6) करौली, (7) टोंक, (सभी राजस्थान), (४) रीवां (मध्यप्रदेश), (१) कोचीन (केरल) तथा (10) कच्छ (गुजरात)। 

( 4) 15 तोपों की सलामी वाले राजाओं के राज्य (कुल-17) (1) दतिया, (2) देवास जूनियर (3) देवास सीनियर, (4) धार, (5) ओरछा, (6) रतलाम (सभी मध्यप्रदेश), (7) बाँसवाड़ा (राजस्थान), (8) बनारस (उत्तरप्रदेश), (9) भावनगर (गुजरात), (10) जूनागढ़ (गुजरात), (11) डूंगरपुर, (12) जैसलमेर, (13) किसनगढ़, (14) प्रतापगढ़, (15) सिरोही (सभी राजस्थान), (16) रामपुर (उत्तरप्रदेश) तथा (17) सिक्किम।

(5) 13 तोपों की सलामी वाले राजाओं के राज्य (कुल-12) (1) कूच बिहार, (2) जौरा (मध्यप्रदेश), (3) श्रांगघ्रा, (4) नवानगर, (5) पालनपुर, (6) पोरबन्दर, (7) राजपीपला (सभी गुजरात), (8) जींद (हरियाणा), (9) कपूरथला (पंजाब), (10) त्रिपुरा, (11) झालावाड़ (राजस्थान) तथा (12) नाभा (पंजाब)।

(6) 11 तोपों की सलामी वाले राजाओं के राज्य (कुल-32) (1) अजयगढ़, (2) अलिराजपुर, (3) बावनी (4) बरौंधा, (5) चरखारी, (6) छतरपुर, (7) नरसिंहगढ़, (8) झाबुआ, (१) पत्रा, (10) राजगढ़, (11) सैलाना, (12) समथर, (13) सीतामऊ, (14) बड़वानी (15) बिजावर, (सभी मध्यप्रदेश), (16) टेहरी गढ़वाल (उत्तराखण्ड), (17) बरिया (मुम्बई), (18) बिलासपुर, (19) सिरमौर, (20) सुकेत, (21) मण्डी (22) चम्बा (सभी हिमाचल प्रदेश), (23) कॉम्बे (गुजरात), (24) फरीदकोट (पंजाब), (25) गोंदल (गुजरात), (26) मलेरकोटला (पंजाब), (27) मोरबी (गुजरात), (28) राधनपुर (गुजरात), (29) बांकानेर (गुजरात), (30) पुदुकोट्टई (तमिलनाडु), (31) जंजीरा (गुजरात) तथा (32) मणिपुर।

(7) 9 तोपों की सलामी वाले राजाओं के राज्य (कुल-29) (1) खिलचीपुर (मध्यप्रदेश), (2) बंगलपिल्लई (आन्ध्रप्रदेश), (3) नागौद (मध्यप्रदेश), (4) मैहर (मध्यप्रदेश), (5) बालासिनौर, (6) छोटा उदयपुर, (7) दाँता, (8) धर्मपुर, (9) लूनावाला, (10) सामन्तवाड़ी (सभी मुम्बई क्षेत्र), (11) वशहर (हिमाचल प्रदेश), (12) पाटणा, (13) सोनेपुर, (14) मयूरभंज, (15) कालाहांडी (चारों उड़ीसा), (16) भोर (महाराष्ट्र), (17) श्रोल, (18) जाहर, (19) लिमड़ी, (20) मुढौल, (21) पलिटाणा, (22) राजकोट, (23) सचिन, (24) बधवां (सभी गुजरात), (25) शाहपुरा (राजस्थान), (26) लोहारू (पंजाब), (27) सांगली (महाराष्ट्र), (28) संत (मुम्बई) तथा (29) बाँसदा ( मुम्बई)।

इनके अतिरिक्त शेष 615 राज्य हैं (1) अचरौल, (2) आगर, (3) आगरा बड़खेरा, (4) अहमदनगर, (5) अजरीदा, (6) अकलकोट, (7) अकदिया, (8) आलमपुर, (१) अलिपुरा, (10) अलवा, (11) आमला, (12) अमरकंटक, (13) अमरकोट, (14) अम्ब, (15) अमरनगर, (16) अम्बलीवाड़ा, (17) अमेठी, (18) आमोद, (19) आम्रपुर (काठियावाड़), (20) आम्रपुर (रेवाकांठा), (21) आनन्दपुर, (22) अंगद, (23) अनेगुण्डी, (24) अंकेवालिया, (25) अकोट (राजनैतिक बंदी), (26) अरनिया, (27) असम (राजनैतिक बंदी), (28) अथगढ़, (29) अथमालिक, (30) औंध, (31) अवध (राजनैतिक बंदी), (32) बावरा, (33) बगसरा, (34) बगसरा हदला, (35) बगसरा खारी, (36) बगसरा नटवर, (37) बगसरा राम, (38) बाघल, (39) भगत, (40) बागली, (41) बहावलपुर, (42) बाई, (43) बाजना, (44) बख्तगढ़, (45) बलसां, (46) बाल्टिस्तान, (47) कश्मीर, (48) बामनबोर, (49) बामरा, (50) बनेरा, (51) बांका पहाड़ी, (52) बंटवा सरदारगढ़, (54) बंटवा मानवदार, (55) बरम्बा, (56) बरदिया, (57) बरखेड़ा डूंगरी, (58) बरखेड़ा पंथ, (59) बरवाला, (60) बसौदा, (61) बस्तर, (62) बजा, (63) मुर्शिदाबाद (राजनैतिक बंदी), (64) बेड़ी, (65) भभ्भर, (66) भदरवा, (67) भदौरा, (68) भदवाना, (69) भदवा, (70) भादली, (71) भैंसोला, (72) भज्जी, (73) भण्डारिया, (74) भरेड़ा, (75) भरूड़पुरा, (76) भाटण, (77) भटकेरी, (78) भावल, (79) भीलडीह, (80) भिमोरिया, (81) भुइका, (82) भोजाखेड़ी, (83) बिहोड़ा, (84) बीहट, (85) बिछरन्द जूनियर, (86) बिछरन्द सीनियर, (87) भोजबड़ा, (88) बिज्जा, (89) बिजना, (90) बिलौदा, (91) बिलवाड़ी, (92) बिलौद, (93) बिलदी, (94) बिलखा, (95) बोड़, (96) बोड़ना, (97) बुलन्दरा, (98) बोनई, (99) बरखेड़ा (इन्दौर), 100) बरखेड़ा (मालवा)।

( (101) बाउध (उड़ीसा), (102) कन्नानौर, (103) कर्नाटक, (104) चचना, (105) चमरडी, (106) चांगबखार, (107) चरखा, (108) चेर, (109) छलिअर, (110) छोटा बरखेड़ा, (111) छुहिया खदान, (112) चिकतियाबड़, (113) चिंचली, (114) चिरौदा, (115) चित्राल, (116) चित्रावाड़, (117) चोबारी, (118) चौक, (119) चोरअंगला, (120) चोटीला, (121) चूड़ा, (122) चूड़ेसर, (123) कुर्ग (राजनैतिक बंदी), (124) दाभा, (125) डाबर, (126) दधलिया, (127) दहिदा, (128) डफलापुर, (129) दरभंगा, (130) दरियाखेड़ी, (131) दरकोटि, (132) दरोद, (133) दरियाबाद, (134) दसदा, (135) दसपाल्न, (136) दत्वा, (137) देभाबाटी, (138) देदरदा, (139) दधरौता, (140) डेलठ, (141) दिल्ली, (142) देलोली, (143) देवधर, (144) दरदी, (145) देरोल, (146) देवलिया, (147) देवरिया, (148) डाभलाधीर, (149) डाभलाघोषी, (150) धमसिया, (151) धामी, (152) धामड़ी, (153) धौरा, (154) धौरा गंजारा, (155) धरनौदा, (156) धेनकनाल, (157) ढोला (158) धौला, (159) धुलवारा, (160) घुलटिया, (161) धुरवई, (162) धीर, (163) डुडका, (164) दूधपुर, (165) दुधरेज, (166) डूंगरी, (167) दुजना, (168) गवत, (169) गढ़बुरिया, (170) गढ़ौली, (171) गढ़िया, (172) गढ़का, (173) गडूला, (174) गढ़वी, (175) गढ़वाल, (176) गंधौल, (177) गंगपुर, (178) गरमलीमोती, (179) गरमली नाहिनी, (180) गरौली, (181) गौरी हार, (182) गौरीडांड़, (183) गेड़ी, (184) घोड़सर, (185) जिगरासरन, (186) गोहद, (187) गोपालपेठ, (188) गौतरड़ी, (189) गोठदा, (190) गूंध, (191) गुंदियाली, (192) गुड़गूँटा, (193) हलुवादीन सुरेन्द्र नगर, (194) हलाड़िया, (195) हापा, (196) हहरौल, (197) हिण्डौल, (198) हिन्दूर, (199) हीरापुर, (200) हुंजा।

(201) इचलकरंजी, (202) इल्लौल, (203) इलपुरा, (204) इत्रिया, (205) इतवाड़, (206) जबरिया भील, (207) जाफराबाद (सौराष्ट्र), (208) जाफराबाद-जंजीरा (209) जाखण, (210) जलियादेवणी, (211) जलिया कायाजी, (212) जलिया मानाजी (213) जम्बू घोड़ा, (214) जामखण्डी, (215) जमनिया, (216) जसदान, (217) जशपुर, (218) जसूर, (219) जासो, (220) जाठ, (221) जाठ परोल, (222) जावलगिरि, (223) जवासिया, (224) जेसर, (225) जैतपुर, (226) झलेरा, (227) झाँमर, (228) झमका, (229) झामपोदार, (230) झारी घरकाढ़ी, (231) झिनुआवाड़ा, (232) शिगनी, (233) जिलिया, (234) जीरलकमसोली, (235) जोबट, (236) जब्बाल, (237) झुमखा, (238) जूनापाड़ा, (239) कच्छी बड़ौदा, (240) कदानां (241) कागल जूनियर, (242) कागल सीनियर, (243) कहलूर, (244) कलाट, (245) कालीबाड़ी, (246) कलासिया, (247) कालूखेड़ा, (248) कमालपुर (मुम्बई), (249) कमालपुर (मध्यप्रदेश), (250) कम्भाला, (251) कामता राजौला, (252) कानड़ा, (253) कनेर, (254) कांगड़ा लम्बा ग्राम, (255) कनिका, (256) कंजरदा, (257) कांकेर, (258) ककरेज, (259) कंकसियाली, (260) कानपुर ईश्वरिया, (261) काँटा राजौलिया, (262) कांथरिया, (263) कापशी, (264) करोड़िया, (265) करियाना, (266) करमाड़, (267) करोल, (268) कसला पजीना, (269) कस्सालपुरा, (270) कठुआ, (271) काठियावाड़, (272) कठरोता, (273) कटौदिया, (274) कटोसन, (275) कवर्धा, (276) कैथा, (277) क्योंझर, (278) क्योंचल, (279) केरबदा, (280) केसरिया, (281) खण्डाला, (282) खैरागढ़, (283) खैरपुर, (284) खजूरी, (285) खाँभला, (286) खडिया, (287) खनैती, (288) खांडपारा, (289) खांडपारा (उड़ीसा), (290) खनियाधाना, (291) खारन, (292) खरसामा, (293) खड़सी, (294) खेड़ावाड़ा, (295) खैराली, (296) खिड़ावद, (297) खिरवासा, (298) खेड़ीराजपुर, (299) खेतड़ी, (300) खिऔधा। (301) खिजाड़िया, (302) खिरसरा, (303) खोजनखेड़ा, (304) खुदाबाद

(राजनैतिक बंदी), (305) खीरिम, (306) खीरी, (307) क्यारी माड़न, (308) किरली, (309) कुलरा (राजनैतिक बंदी), (310) कोटला नैनी, (311) कोटला पीठ, (312) कोटला सांगणी, (313) कुठारिया, (314) कोठी, (315) कुब्बा, (316) कुम्हारसाईं, (317) कुनिहार, (318) कुरुंदवाड़ जूनियर, (319) कुरुंदवाड़ सीनियर, (320) कुरवई, (321) खुशहालगढ़, (322) कूच (सौराष्ट्र), (323) कुठार, (324) कुर्नूल (राजनैतिक बंदी), (325) लभौआ, (326) लाखापाड़ा, (327) लखतारा, (328) लालगढ़, (329) लालियावाड़, (330) लढोरा, (331) लंगड़ी, (332) लासबेला, (333) लाठी, (334) लबेज, (335) लाबा, (336) लोखी, (337) लोढ़िका, (338) लुगासी, (339) लोगासी, (340) क्यारी, (341) मोढ़न, (342) मोगलथुर, (343) मगोड़ी, (344) मगूना, (345) मेहराम, (346) महिलोग, (347) महमूदपुरा, (348) मकराना (मध्यप्रदेश), (349) मकराना (पाकिस्तान), (350) मधुसूदनगढ़, (351) बावड़ा, (352) बगहाट, (353) मलौढ़, (354) मलाई सोहमत, (355) मालिया, (356) मालपुर, (357) मानवाड़ा, (358) माडावाड़ा (नवा बीसाबाड़ा), (359) मंडौली, (360) मंडवा, (361) माँगल, (362) मनगाँव, (363) मगरौल, (364) मनसा, (365) माओआंग, (366) माओसंग्राम, (367) मड़ियावा, (368) मसुलीपटनम् (राजनैतिक बंदी), (369) मठवड़, (370) मातृतिम्बा, (371) मेने, (372) मेंगनी, (373) मेवासा, (374) मेवली, (375) मोहनपुर, (376) मिरज जूनियर, (377) मिरज सीनियर, (378) मीरपुर, (379) मोहनपुर, (380) मौका पगीना मुवाड़ा, (381) मानवेल, (382) मोरचोपना, (383) मोटा बरखेड़ा, (384) मोटा कोठारणा, (385) मोवा, (386) महमूदगढ़, (387) मूली, (388) मूलियाडेरी, (389) मुलतान, (39) मूजपार, (390) मिलियम, (391) नागर, (392) नागपुर (राजनैतिक बंदी), (393) नाहड़ा, (394) नयगवाँ रिबाई, (395) नलगढ़ (पेप्सू), (396) नलगढ़ (हिमाचल प्रदेश), (397) नलिया, (398) नंदगाँव, (399) नरसिंहपुर (उड़ीसा), (400) नारूकोट।

(401) नरवर, (402) नसबाड़ी, (403) नौगाँव (मध्यप्रदेश), (404) नौलना, (405) नवागढ़, (406) नयागढ़ (उड़ीसा), (407) निलवाला, (408) नीमखेड़ा, (409) नोबो सोहो, (410) नौघन बाड़र। (411) नोंगकलाव, (412) नॉगस्पंग, (413) नोंगस्टोइन, (414) उरई, (415) पेद्दापुरम् (416) पाछेगाँव, (417) पाह, (418) पहरा, (419) पेगढ़, (420) पाल, (421) पलाज, (422) पलाली, (423) पलासनी, (424) पलासविहर, (425) पालदेव, (426) पलियाड़, (427) पाल लहरा, (428) पलसानी, (429) पंचवाड़ा, (430) पाण्डु, (431) पांतलबाड़ी, (432) पांत पिपलौदा, (433) पांरी, (434) पाटण, (435) तोराबाटी, (436) पटौदी, (437) पाटणी, (438) पथरिया, (439) पेठापुर, (440) फाल्टन, (441) फुलेरा, (442) फलौदी, (443) पीमलादेवी, (444) पिम्परी, (445) पिपलिया सिसौदिया, (446) पिपलिया नगर, (447) पिपलौदा, (448) पोइचा, (449) पोल, (450) पूँछ, (451) प्रेमपुर, (452) पुनाद्रा, (453) पुनियाल, (454) पंजाब (राजनैतिक बंदी), (455) पुण्डारा, (456) पालांचा, (457) राघौगढ़, (458) रहड़ाखोल, (459) रायगढ़, (460) रायराखोल, (461) रायसांकली, (462) राजगढ़, (463) राजपारा, (464) राजपुर (काठियावाड़), (465) राजपुर (रेवा कांठा), (466) रामनाका, (467) रामस, (468) रामबारी, (469) रामदुर्ग, (470) रामगढ़, (471) रामपुरा, (472) रानासन, (473) संधिया, (474) रनपुर, (475) रतनमाल, (476) रतनपुर धमनका, (477) रतेश, (478) क्योंथल, (479) रवीनगढ़, (480) रेगन, (481) रोहिसला, (482) रुद्रपुर, (483) रूपल, (484) सादाखेड़ी, (485) साहूका, (486) शक्ति, (487) समधियाली, (488) सामला, (489) समोड़, (490) साहसपुर-बिलारी, (491) सनाला, (492) संदूर, (493) सांगड़ी, (494) संजेली, (495) सनोर, (496) सनोसरा, (497) संथालपुर, (498) सारंगगढ़ (मध्यप्रदेश), (499) सरीला, (500) सतनानी।

(501) सारंगगढ़ (महाराष्ट्र), (502) सरोला, (503) सतारा (राजनैतिक बंदी), (504) सथांबा, (505) सतलसना, (506) सतौदरवाड़ी, (507) सावनूर, (508) सायला, (509) सजकपुर, (510) सरायखेला, (511) शाहपुर, (512) सजावटा, (513) सानोर, (514) शिवगढ़, (515) शिवपुर बड़ौदा, (516) शिवदीवाड़, (517) शिववाड़ा, (518) सोरापुर, (519) शिवानो, (520) सीधी, (521) सिहोरा, (522) सिलाना, (523) सिंध, (524) सिंधियापुर, (525) सिंघना, (526) सरगुजा (मध्यप्रदेश), (527) सिरसी (ग्वालियर), (528) सिरसी (मालवा), (529) सोहावल, (530) सोनगढ़, (531) सोनखेड़ा, (532) सुदामड़ा, (533) सुदासना, (534) सुई गाँव, (535) सुन्देम, (536) सुंठ, (537) सूरत (राजनैतिक बंदी), (538) सुरगना, (539) सरगुजा (हिमाचल प्रदेश), (540) सुतलिया, (541) स्वात, (542) सिधोवल, (543) श्री कालहस्ती, (544) तूणी, (545) ताजपुरी, (546) ताल, (547) तालेगाँव, (548) तलचर, (549) तलसना, (550) तनावल, (551) तंजौर (राजनैतिक बंदी), (552) (टप्पा), (553) तराँव, (554) तबी, (555) तेजपुर, (556) तिरवाड़ा, (557) थाना देवली, (558) थराड़, (559) थहुँच, (560) टिगरिया, (561) टिम्बा, (562) टोडा-टोडी, (563) टोड़ङ्गल, (564) टोरी फतेहपुर, (565) उचाड़, (566) उदयपुर (छत्तीसगढ़), (567) उमेठा, (568) उमरी (मुम्बई), (569) उमरिया (मध्यप्रदेश), (570) ऊनी, (571) ऊँटडी, (572) उपवाड़ा, (573) विजयनगरम् (574) वड़ाल, (575) वड़ाली, (576) वाडिया, (577) वाडौद (गोहिलवार), (578) वाडौद (झालावाड़), (579) वाघवाड़ी, (580) वजरिया, (581) वखतपुर, (582) वल्लभपुर, (583) वाला, (584) वाणा, (585) वनाला, (586) वाँगधा, (587) वानोड़, (588) वरग्राम, (589) वरनोल माल, (590) वरनोल मोटी, (591) वरनोल नान्ही, (592) वरसोड़ा, (593) वासन सेवड़ा, (594) वासन वीरपुर, (595) वासना, (596) वेजनो, (597) विकारिया, (598) विछावद, (599) विजनोंस, (600) विजयनगर (मुम्बई)।

(601) वीरमपुरा, (602) बीरपुर (सौराष्ट्र), (603) वीर सोरा, (604) वीर बाओ, (605) विशालगढ़, (606) विदुलगढ़, (607) वोरा, (608) बड़ागाँव, (609) वाड़ी, (610) वाई, (611) वाड़ी जागीर, (612) बनपूर्ति, (613) वाओ, (614) वाराही तथा (615) वसना।

इनमें से मध्यप्रदेश की 90, महाराष्ट्र की 135, गुजरात की 109, राजस्थान की 70, उड़ीसा की 32, उत्तरप्रदेश की 5, कर्नाटक की 21, आन्ध्र की 16, केरल की 2, तमिलनाडु की 4, हिमाचल प्रदेश की 16, असम की 8, छत्तीसगढ़ की 6, बिहार की 20, पंजाब की 40, बंगाल की 2 तथा सिक्किम और त्रिपुरा की 1-1 रियासतें हैं। शेष 37 रियासतें पाकिस्तान के इलाके में हैं।

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क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स पर लगाये गये अभियोगों का सार संक्षेप

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स को यथासमय कोलकाता में अपनी कम्पनी का गवर्नर बनाया था। वस्तुतः राबर्ट क्लाइव एक लिपिक के रूप में कम्पनी का कर्मचारी बनकर चैन्नई आया था। यहाँ उसने कम्पनी के सिपाही के रूप में काम करने की प्रार्थना की। इंग्लैंड में उसे मामूली सिपाही बनना पड़ता, परन्तु भारत में कम्पनी ने भारतीय सिपाहियों की जो टुकड़ियाँ भरती की थीं, जैसा कि उन दिनों अनेक व्यापारिक घराने और प्रमुख जागीरदार किया करते थे, उन भारतीय सिपाहियों की टुकड़ियों का प्रमुख सदा किसी अंग्रेज को ही बनाया जाता था और इसीलिए मामूली अंग्रेजों को भी इस बात का लालच होता था कि वे कम्पनी की सैनिक टुकड़ी के कप्तान हो जायें। इंग्लैंड में सैनिक प्रशिक्षण उन दिनों निजी स्तर पर विविध प्राइवेट संस्थाओं द्वारा प्रायः सभी इच्छुक नागरिकों को दिया जा रहा था। इसलिए किसी भी अंग्रेज को भारत में नौकरी करने पर साथ में सैनिक टुकड़ी सम्हालने में कोई समस्या नहीं आती थी, अपितु गौरव का ही भाव होता था।

सत्रहवीं शती ईस्वी तक तो इंग्लैंड में कोई 'स्टैंडिंग आर्मी थी ही नहीं। अठारहवीं शती ईस्वी के मध्य में ही सेना का एक कच्चा खाका तैयार हुआ। पूरी तरह विकसित सैनिक ढाँचा तो वहाँ पहली बार 18वीं शती ईस्वी के उत्तरार्ध में ही तैयार हुआ। क्लाइव ब्रिटिश सेना का सैनिक कभी नहीं रहा था। वह एक निजी कम्पनी द्वारा तैयार लड़ाकू दल का एक सदस्य मात्र था। रोजगार की ललक में उसने सशस्त्र लड़ाई का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। प्राय: सभी तस्कर, लुटेरे और डकैत वहाँ यह प्रशिक्षण लेते थे।

जब क्लाइव की चतुराई से फ्रांस की कम्पनियों के अर्काट स्थित अड्डे पर इंग्लैंड की कम्पनी को कब्जा करने में सफलता मिल गई, तो खुश होकर क्लाइव को कम्पनी की सैनिक टुकड़ी का कप्तान बना दिया गया। अर्काट में फ्रेंच अड्डे पर कब्जे के बाद मिली प्रसिद्धि और इनाम का सुख लेने क्लाइय दो वर्ष के लिए इंग्लैंड चला गया और 1753 ईस्वी में लौटा, तब उसे बंगाल भेज दिया गया।

बंगाल में क्लाइव ने सबसे पहले सिराजुद्दौला के द्वारा निकाले गये दरबारियों को मिलाया और उनके साथ साजिश रचकर मुर्शिदाबाद का खजाना लूटा। इस लूट में उसने बंगाल के सेठ अमीचन्द को जालसाजी और धोखाधड़ी से बहुत बड़ा चकमा दिया। इसके बाद उसने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के कब्जे से कम्पनी का कोलकाता अड्डा वापस लेने के लिए योजना बनायी और नवाब से संधि की पहल की, फिर संधि को स्वयं तोड़ दिया और सिराजुद्दौला के एक रिश्तेदार को भारी लालच देकर इस बात के लिए पटा लिया कि जब कम्पनी सिराजुद्दौला की सैनिक टुकड़ी पर अपनी कम्पनी की सैनिक टुकड़ी से आक्रमण करने आये, तो अचानक सिराजुद्दौला के सैनिक कम्पनी की ओर आ जाएँ। क्योंकि उन सैनिकों का नेतृत्व वह रिश्तेदार मोर जाफर कर रहा था। इस षड़यंत्र के द्वारा मीर जाफर की जीत घोषित हो गई और उसने कम्पनी को हर साल मुर्शिदाबाद और चौबीस परगना के इलाके के लगान में से 30000 पाउण्ड देने का वादा किया, साथ ही क्लाइव को मालामाल कर दिया और अन्य अनेक कम्पनी अफ़सरों को भी बड़े-बड़े इनाम दिये। क्लाइव को इनाम में जो रकम मिली थी, वह दो लाख बाँतीस एक सौ पाउण्ड के समतुल्य थी। इस तरह धोखाधड़ी और पाला बदल के जरिये हासिल कब्जे को उन दिनों कम्पनी ने प्लासी का युद्ध कहकर प्रचारित किया, जिसे अभी तक कम्पनी के प्रति श्रद्धावान बहुत से भारतीय लेखक भी प्लासी का युद्ध ही कहते हैं। क्लाइव ने सर झुकाकर, बाअदब मीर जाफर को सलाम ठोकते हुए बख्शीश ली थी।

प्लासी के इस छलघात के बाद घूसखोर, कपटी और सफल क्लाइव को बंगाल क्षेत्र में कम्पनी का गवर्नर बना दिया गया। क्योंकि उन दिनों कम्पनी यह सब करना उचित मानती थी। तब उत्साहित क्लाइव ने आगे भी डचों से चिनसुरा की बस्ती छीन ली। चिनसुरा में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपना व्यापारिक केन्द्र बना रखा था, जहाँ से वे कच्चा रेशम, सूती कपड़ा और शोरा हॉलैंड तथा यूरोप के बाजार में भेजकर भारी मुनाफा कमा रहे थे। क्लाइव ने डचों पर अचानक छापा मारकर चिनसुरा को घेर लिया और डचों से अपनी शर्तों पर समझौता किया।

लूट के माल के साथ इंग्लैंड गये क्लाइव को लार्ड बना दिया गया। तत्कालीन इंग्लैंड के परिवेश पर इस पुस्तक में यथाप्रसंग पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। कुछ समय बाद कम्पनी ने इस क्लाइव को फिर से बंगाल भेजा, जहाँ उसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ पुनः छलघात और दबाव की लम्बी राजनीति चली। इस बार क्लाइव ने भारत में स्वयं कम्पनी के मुनाफे का बड़ा हिस्सा चालाकी और छल के साथ हड़प लिया। जिससे चिढ़कर इंग्लैंड में उस पर गम्भीर आक्षेप किये गये और ब्रिटिश संसद में एक प्रस्ताव पारित कर क्लाइव की करतूतों की जाँच की गई। जाँच में क्लाइव पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप प्रमाणित पाये गये। चारों ओर क्लाइव की निन्दा होने लगी। शर्म के मारे क्लाइव ने 22 नवम्बर, 1774 ईस्वी को अपना गला काटकर आत्महत्या कर ली।

वारेन हेस्टिंग्स भी कम्पनी में 18 साल की उम्र में एक लिपिक की नौकरी में ही कोलकाता आया था, जहाँ उसने तीन साल तक प्रशिक्षण प्राप्त किया। वहाँ गड़बड़ियों के कारण सिराजुद्दौला ने वारेन हेस्टिंग्स को बंदी बना लिया। कुछ समय बाद कई अंग्रेज बंदी छोड़े गये, तब दूसरे अंग्रेजों के साथ भागकर हेस्टिंग्स भी फुल्टा चला गया। बंगाल में दलालों के जरिये लकड़ी का कारोबार करके उसने काफी रकम इकट्ठा की और इंग्लैंड चला गया। वहाँ पाँच साल ऐश करने के बाद फिर कम्पनी का अधिकारी बनकर भारत आया और 1772 ईस्वी में कम्पनी के कारोबार को देखने के लिए बंगाल का कम्पनी का गवर्नर बना दिया गया। कई अनपढ़ और मूर्ख लोग कम्पनी के इन गवर्नरों को आज तक भारत का गवर्नर लिखते और पढ़ते-पढ़ाते हैं।

हेस्टिंग्स ने भारत में जो करतूतों कीं, उस पर इंग्लैंड की संसद में गम्भीर अभियोग लगाये गये और इंग्लैंड के प्रख्यात अधिवक्ता एवं सांसद एडमंड बर्क ने उस पर अत्यन्त गम्भीर आरोप लगाये। 13 फरवरी, 1788 से अप्रैल 1795 ईस्वी तक के आठ वर्षों तक वारेन हेस्टिंग्स पर मुकदमा चलता रहा। प्रारम्भ में ही हेस्टिंग्स को अदालत के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। हेस्टिंग्स पर एडमंड बर्क ने जो आरोप लगाये, उसमें उसके द्वारा किये गये गम्भीर अपराधों की सूची थी, जिन्हें पढ़ने में ही अदालत में दो दिन लग गये। उस पर 121 गम्भीर अभियोग लगाये गये थे, जिसमें से कुछ का उल्लेख यहाँ उचित होगा। एडमंड बर्क ने अदालत से कहा-

(1) श्रीमान्, कम्पनी को मुगल राजाओं से कुछ अधिकार प्राप्त हुए थे, जिनके द्वारा 1765 ईस्वी में उसे बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी का अधिकार प्राप्त हुआ था। दीवानी का यह काम करते हुए, कम्पनी के जिन अफसरों ने गैर- कानूनी ढंग से उन्हें न दिये गये अधिकार भी अपने मानकर मनमानी की, उनमें वारेन हेस्टिंग्स प्रमुख है। कम्पनी को जितने बड़े इलाके में व्यापार की इजाजत दी गई थी, उसमें कहीं-कहीं डकैत आदि भी होते थे और कम्पनी ने यह तर्क दिया कि इन डकैतों से अपनी रक्षा के लिए हमें सशस्त्र सैनिक टुकड़ियाँ रखने की अनुमति दी जाए। कुछ समय बाद कम्पनी ने इन राजाओं से यह अनुमति माँगी कि हमारे साथ जो लोग सशस्त्र समूह बनाकर अपराध करें, उनका मुकदमा हम अपनी ही अदालत में चला सकें। सदाशयता से राजाओं ने यह अनुमति दे दी। उन्हें यह अभ्यास था कि व्यापारिक कम्पनियाँ अपनी मर्यादा में रहेंगी।

(2) श्रीमान् ! मैंने कम्पनी के कागजातों को देखा है और पाया है कि कम्पनी व्यापार का स्वाँग करती रही है, परन्तु इसके काम करने के सारे तरीके ही वहाँ राजनैतिक थे, जो कि इसे कभी भी अधिकार प्राप्त नहीं था। इस प्रकार कम्पनी ने अपने अधिकारों के दायरे से बाहर जाकर काम किये, जिसमें वारेन हेस्टिंग्स जैसे लोगों की मुख्य भूमिका है और इस प्रकार दायरे से बाहर जाकर काम करने का अपराधी वारेन हेस्टिंग्स है।

(3) श्रीमान् ! सीढ़ियों द्वारा धीरे-धीरे तरक्की पाते हुए वारेन हेस्टिंग्स ने बाद में तेजी से छलांग लगाई और यह छलाँग अवैध तरीकों से लगाई गई। इसके जरिये हेस्टिंग्स ने बहुत सारा धन इकट्ठा किया।

(4) श्रीमान् ! भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ब्रिटिश शासन का कोई अंग नहीं थी, बल्कि केवल कुछ व्यापारी व्यक्तियों का एक समूह थी। यहाँ से जो अंग्रेज कम्पनी के अधिकारी और कर्मचारी बनकर गये, वे नौकरी करने गये थे, न कि राजनीति करने। अतः कम्पनी ने वहाँ जाकर जो भी राजनैतिक काम किये हैं, वे सब अवैध कार्य हैं। इन अवैध कार्यों के लिए मि. हेस्टिंग्स पूरी तरह जिम्मेदार हैं। इनके निर्देशन में वहाँ अत्याचार किये गये और अमानवीय व्यवहारों को बढ़ावा दिया गया। कम्पनी के लिए जो राजस्व वसूल किया गया, उसका बड़ा हिस्सा हेस्टिंग्स और उनके प्रमुख सहयोगियों ने हड़प लिया।

(5) श्रीमान् ! कम्पनी के ये नौकर कानून का ए बी सी नहीं जानते थे, फिर भी इन्होंने भारत में कानूनी शक्ति का प्रयोग किया। यह इंग्लैंड के कानून का अपमान है।

(6) हेस्टिंग्स चौदह वर्ष तक कम्पनी का सर्वोच्च अधिकारी था और इसने वहाँ भेदियों का एक बड़ा जाल बिछाया, बड़े पैमाने पर व्यभिचार को बढ़ावा दिया और ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता, जहाँ इसने कम्पनी की छत्रछाया में फैल रहे व्यभिचार को रोकने का कोई प्रयत्न किया हो। उसके अधीन कम्पनी धूर्तताओं, अपराधों और व्यभिचारों की मिली-जुली संस्था बन गयी, जिसका प्रधान रक्षक हेस्टिंग्स था और जिसके कारण कम्पनी लज्जा के दलदल में फँसने को विवश हो गई।

(7) श्रीमान् ! कम्पनी के ये व्यापारी और किरानी व्यापार-धन्धे का अपना काम करने के स्थान पर वहाँ न्याय का काम करने लगे और खजाना सम्हालने लगे तथा स्वयं ही मंत्री भी बनने लगे। जबकि ब्रिटिश शासन से इनमें से किसी भी काम की अनुमति इन्होंने नहीं प्राप्त की थी। नितान्त अपरिचित देश में इन लोगों ने न्याय करने का दुस्साहस किया। इन्होंने भारत में ऐसे लोगों को अपने सहयोगी चुना, जो अत्यन्त निर्मम और धूर्त थे। इन्होंने वहाँ के कुछ ऐसे व्यापारियों से ही विशेष सम्बन्ध बनाया, जो इंग्लैंड के बारे में पूरी खबर रखते थे और कम्पनी की हर हलचल की जानकारी रखते थे तथा यह जानते थे कि कम्पनी के लोगों को कैसे अपने काम में लिया जा सकता है। उनसे सांठगांठ कर इन्होंने खूब धन कमाया और फिर भारत में बिना ब्रिटिश शासन की अनुमति के शासक बनने का भी दुस्साहस किया। जिन दलालों के माध्यम से ये घूस लेते थे, उन्हीं को अदालतों में गवाह बनाकर, जिसे चाहते थे उसे दण्डित करते थे।

(8) श्रीमान् ! कम्पनी के लोगों ने वहाँ कई अनोखी बातें कीं। ये लोग अपने कर्मचारियों से एक रोजनामचे लिखने को कहते थे, जिसमें व्यक्तिगत बातें भी लिखने का आग्रह रखते थे और बाद में इन व्यक्तिगत बातों का गलत इस्तेमाल करते थे।

(9) श्रीमान् ! हेस्टिंग्स ने अनेक सरकारी दस्तावेजों को बदला और भ्रष्ट किया। उसने बिना किसी अधिकार के निजी जासूस रखे और उन जासूसों के जरिये कम्पनी के ब्रिटिश डायरेक्टरों को काफी धोखा दिया।

(10) श्रीमान्। भारत के आदिवासी हिन्दू लोग हैं, जो चार वर्णों में बँटे हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनके अनेक उपवर्ग हैं। ब्राह्मण के लिए पवित्रता का आदर्श सबसे ऊँचा है। प्रत्येक भारतीय आदिवासी यानी हिन्दू के लिए धर्म ही उसका सर्वस्व है। हेस्टिंग्स ने वहाँ काम करते हुए योजनापूर्वक उन लोगों का धर्म भ्रष्ट किया और अपने घरेलू तथा निम्न कोटि के नौकरों और दुरात्मा मूढ़ों को घूसखोरी और व्यभिचार के हथकण्डे से ऊँची पदवियों पर बैठाया। इनके जरिये उसने ऐसे- ऐसे काम किये, जिससे हिन्दू लोग कम्पनी के सामने आतंक से काँपने लगें। मैं यहाँ कन्तू बाबू और गंगा गोविन्द सिंह का उदाहरण देता हूँ। इनके नाम से बाद में श्रीमान् पूर्ण परिचित होंगे। उनके साथ मिलकर हेस्टिंग्स ने जो भी किया, वह अत्यन्त शर्मनाक है।

(11) श्रीमान् ! भारत के लोगों में दो ऐसे गुण हैं, जिनके कारण वे आदर के पात्र हैं। एक है, उनकी शक्ति और दृढ़ता तथा दूसरी है, उनकी उच्चतम नैतिक और सुसभ्य व्यवस्था। भले ही उनमें अन्य अनेक कमियाँ निकाली जा सकती हैं। हेस्टिंग्स ने उनके इन गुणों को नष्ट करने के लिए बहुत सारे हथकण्डे अपनाये।

(12) श्रीमान्। सत्ताईस वर्षीय वारेन हेस्टिंग्स जब बंगाल के नवाब मोर जाफर के दरबार में कम्पनी का रेजिडेंट था, तब इसने मीर जाफर के परिवार और दरबार के सबसे चलते पुर्जे और भयंकर व्यक्ति कासिम अली खाँ को पटाया और नवाब को सिंहासन से उतार करके मार डाला। इसी कासिम अली खाँ से वारेन हेस्टिंग्स ने छल, कपट और दुराचरण के पाठ सीखे।

(13) श्रीमान्। वारेन हेस्टिंग्स और उनके साथी बंगाल में अदालत के नाम से जो नाटक चलाते थे, उसके बारे में मैं विस्तार से बताना चाहूँगा। बहुत सारे जाली दस्तावेज हेस्टिंग्स के निर्देशन में वे जाते थे और काले चरित्र के लोगों के जरिये शहजादों की तथा कम्पनी के समक्ष न झुकने वाले बड़े लोगों की हत्या करायी जाती थी। इसके बाद अदालत बैठायी जाती थी, जिसमें हेस्टिंग्स के ही लोग गवाह बनते थे और मुकदमे का स्वांग रचकर झूठ के पक्ष में फैसले लिये जाते थे (यहाँ बर्क ने अनेक उदाहरण विस्तार से प्रस्तुत किये)।

(14) श्रीमान् ! घूस और हत्याओं के जरिये कम्पनी का कारोबार बढ़ाया गया और इस प्रकार व्यभिचारी और अत्याचारी लोगों की मदद ली गयी। यहाँ तक कि शहजादा मीरन को 3 जुलाई, 1762 को पल भर में मार डाला गया और घोषित किया गया कि वह बिजली गिरने से मर गया है। जबकि वह फूल की तरह हँसता- खिलखिलाता नौजवान बहुत ही निडर और परिश्रमी था और उसे तम्बू में सोते समय योजनापूर्वक मारा गया था। कम्पनी के लोग इस हत्या से बहुत प्रसन्न हुए। बाद में भारतीय सिपाहियों के विद्रोह की आशंका से भाँति-भाँति की झूठी अफवाहें फैलायी गयीं। ऐसी घटनाओं की जाँच का भी झूठा नाटक किया गया। जाँच और अदालत के ये सभी नाटक केवल छल थे।

(15) श्रीमान्। कासिम अली ख़ाँ ने कम्पनी की शह पाकर वहाँ के लोगों की ज़मीनें लूटीं और फिर वहाँ के धनी लोगों का धन भी हड़पा। बंगाल का उस समय एक अत्यन्त धनी व्यक्ति जगत सेठ था, जो बड़े-बड़े बैंकों का इतना बड़ा कारोबार करता था, जैसा कारोबार उस समय संसार में और किसी का नहीं था। उसका व्यापारिक सम्बन्ध सम्पूर्ण एशिया से था। कम्पनी ने जगत सेठ से अपनी साख की दुहाई देकर बहुत बड़ी धनराशि ब्याज पर कर्ज ली थी। जगतसेठ की फर्म ही बंगाल में चाँदी की खरीद करती थी और उसकी कृपा से ही मुर्शिदाबाद में एक टकसाल खोलना सम्भव हुआ था। बंगाल में जमींदारी वसूलने की सारी जिम्मेदारी जगत सेठ को थी, जो सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध थे तथा नियमित रूप से दिल्ली बादशाह के खजाने में मालगुजारी का निर्धारित भाग जमा कराते रहते थे। बंगाल में विनिमय दर का नियंत्रण भी जगत सेठ की फर्म ही करती थी। उसके पास अतुल सम्पत्ति थी। 'बैंक ऑफ़ इंग्लैंड' की भाँति हो उसका कारोबार था। कम्पनी के लोगों ने जगत सेठ सहित उस व्यापारिक प्रतिष्ठान के सभी प्रमुख लोगों की हत्या कर दी और उनके खजाने लूटे तथा भारत के देशद्राहियों की सहायता से अपनी घृणित कमाई की। कम्पनी ने ऐसे लोगों को भी बाद में सताया और गिरफ्तार करके रखा तथा झूठा मुकदमा चलाकर सजा सुनाई और कई बार तो हत्या भी करा दी, जिन लोगों ने कम्पनी की मदद की थी। जैसे बिहार के रामऋण नामक व्यक्ति । (आगे बर्क ने उन पर विस्तार से प्रकाश डाला)।

(16) श्रीमान् ! कासिम अली ख़ाँ से कम्पनी के लोगों ने व्यापार के लिए ऐसी अनोखी शर्ते प्राप्त कीं, जो व्यापार के साधारण नियमों तक का पूर्ण उल्लंघन करती थीं। इसके कारण कम्पनी के विरुद्ध बिहार में अचानक आक्रोश फैला और कम्पनी के लगभग 300 लोगों का पटना में क्रत्लेआम किया गया, उनकी बोटी-बोटी काट डाली गई और कुएँ में धकेल दिया गया। जाहिर है कि इसके लिए कम्पनी द्वारा की गई गलत-सलत संधियाँ और सौदेबाजियाँ दोषी हैं। यह बात अलग है कि अन्त में कासिम के विरुद्ध भी कम्पनी को युद्ध छेड़ना ही पड़ा।

(17) श्रीमान्। अपनी शक्ति बढ़ाने के बाद कम्पनी के लोग व्यापारिक गद्दियों की नीलामियाँ करने लगे। इन नीलामियों में भी खुलेआम पक्षपात किया गया, जैसे कि कलकत्ते में हुई नीलामी में राजा नन्दकुमार की बोली सबसे ऊँची थी, तब भी अंग्रेजों ने मोहम्मद रजा खाँ से 2,20,000 पाउण्ड के बराबर धन लेकर बोली नायब सूबेदार मोहम्मद रजा खाँ के हक में कर दी। घूसखोरी और पक्षपात का कोई अन्त ही नहीं रहा।

(18) श्रीमान् ! घूसखोरी, छल, लूटपाट और अपहरण के एक सिलसिले से कम्पनी ने अलग-अलग नवाबों के उत्तराधिकारी तय करने शुरू कर दिये और फिर उत्तराधिकार को भी बेचा जाने लगा। बंगाल में ही एक नवाब का उत्तराधिकारी उनकी एक वेश्या के लड़के को बनाया गया और छः बार उत्तराधिकार की बिक्री करके भारी रकम कमाई गई। अवैध पलियों की अवैध सन्तानों को गद्दियाँ सौंपी गयीं, ताकि वारेन हेस्टिंग्स को लूटपाट और घूसखोरी का आधार प्राप्त होता रहे। वास्तविक राजाओं को कभी झूठे मुकदमे चलाकर और कभी यों ही बंदी बनाया गया और जब सम्बन्धित राजाओं ने प्रमाणपूर्वक हेस्टिंग्स पर घूसखोरी के अपराध लगाये तथा यह भी प्रमाणित रूप से दिखा दिया कि हेस्टिंग्स जैसे लोग हमारी हत्या के प्रयास करते हैं, तब भी उल्टे ऐसे राजाओं को ही फाँसी की सजा सुनाई गई। इसमें 1775 ईस्वी में राजा नन्दकुमार को दी गई फाँसी का दृष्टान्त सामने है। यह महाराजा नन्दकुमार कम्पनी का बहुत बड़ा सहायक रहा था और सुल्तान द्वारा बंगाल का प्रान्त प्रमुख बनाया गया था। रजा खाँ को हटाने में कम्पनी ने नन्दकुमार की मदद ली थी। उसे जालसाजी से और झूठी गवाही से दोषी ठहराकर, न्याय का ककहरा न जानने वाले लोगों ने न्यायाधीश बनकर फाँसी दी। कम्पनी के जज इसी तरह के थे। क्योंकि वे ब्रिटिश कानून से अनभिज्ञ लोग होते थे।

(19) श्रीमान्। नवाबी की खरीद-बिक्री के कारण उत्तरी भारत का आधा हिस्सा बर्बाद हो गया, चौतरफा भयानक आग फैल गयी, जो हमारे लिए बहुत बड़े. कष्ट का साधन बनी। यह सब मिस्टर हेस्टिंग्स की गंदी गुटबाजी का परिणाम था। इस तरह की हरकतों से कम्पनी की सैन्य शक्ति भी क्षीण होती चली गयी। कम्पनी के लिए भारत एक बड़ा बाजार था, जो व्यापार के लिए खुल रहा था, परन्तु हेस्टिंग्स जैसे लोगों की राजनैतिक गुटबाजियों के कारण भारत में गृहयुद्ध छिड़ गया और व्यापार को खतरा पैदा हो गया।

(20) श्रीमान् ! वारेन हेस्टिंग्स यहाँ कम्पनी के एक प्रबंधक (गवर्नर) के नाते श्रीमान् के समक्ष है। उसका तर्क है कि भारत के लोग जन-गण नहीं है, गुलाम हैं और उनके विरुद्ध केवल वैसी ही शक्ति का प्रयोग उचित है, जैसी शक्ति का प्रयोग मैंने वहाँ किया। परन्तु श्रीमान् ! बलात्कार, छल, हत्या, अपहरण और घूसखोरी समस्त संसार में अपराध ही माने जाते हैं।

(21) श्रीमान् ! वारेन हेस्टिंग्स कम्पनी का नौकर था। उसका तर्क है कि कम्पनी भारतीय जनगण को अपने लोगों के समान नहीं मानती और इसीलिए मैंने वहाँ कम्पनी के नियमों से शासन किया, न कि इंग्लैंड के कानून और न्याय के द्वारा। मुझे वहाँ के लोगों पर शासन का अधिकार वहाँ प्राप्त विजय से हस्तगत हुआ था। परन्तु श्रीमान् ! ये तर्क तो सरासर झूठ है। हेस्टिंग्स पूरी तरह झूठ बोल रहे हैं। भारत में ऐसी कोई स्थिति नहीं है। वारेन हेस्टिंग्स श्रीमान् के समक्ष तर्क दे रहा है कि मैं भारत में इंग्लैंड के श्रेष्ठ कानूनों से नहीं चल सकता। भारत इंग्लैंड़के राज्य के अधीन नहीं है और वहाँ एशियाई कानूनों से ही मैं शासन कर रहा हूँ। एशियाई कानून यह है कि विजेता को मनमानी करने का अधिकार है, क्योंकि मुस्लिम शासक भी भारत में मनमानी, लूट, हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि ही करते रहे हैं। श्रीमान् ! यह तो भयंकर तर्क है। क्या किसी व्यक्ति के व्यभिचार और अपराधों को किसी शासन का सिद्धान्त बनाकर प्रस्तुत किया जा सकता है?

(22) श्रीमान् ! मि. हेस्टिंग्स का तर्क है कि भारत में बंगाल में कम्पनी के गवर्नर के रूप में उसे यह शक्ति प्राप्त है कि वह अत्याचार, लूटपाट, व्यभिचार, घूसखोरी सभी बुराइयों को प्रश्रय देता जाए और लुटेरों, डाकुओं, झूठे लोगों तथा निम्न स्तर और निम्न वर्ग के लोगों को अपना अधीनस्थ अधिकारी बनाता जाए, क्योंकि भारत इंग्लैंड के द्वारा शासित नहीं है।

श्रीमान् ! यह तो अपराध है। यह अपराध के पक्ष में मि. हेस्टिंग्स द्वारा की जा रही पैरवी है। यदि यह तर्क स्वीकार कर लें कि भारत में इंग्लैंड का राज्य नहीं है, अतः वहाँ इंग्लैंड का कानून नहीं चलेगा, तो भी किसी भी देश में किसी भी प्रक्रिया से स्वयं को न्यायाधीश कह रहा कोई भी व्यक्ति न्याय के शाश्वत और सार्वभौम नियमों से ही मार्गदर्शन पाता है। मनमानी करने वाला ईश्वर से शत्रुता करेगा। मि. हेस्टिंग्स के तर्क ईश्वर से शत्रुता रखने वाले के तर्क जैसे हैं। हर पद और ओहदे के साथ कर्त्तव्य जुड़ा रहता है। बिना कर्तव्य के किसी को कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता। यदि भारत में कोई भी लिखित कानून है ही नहीं, ऐसा हेस्टिंग्स का तर्क है, तो भी राज्य की एक सार्वभौम परम्परा है और प्रकृति के नियम हैं।

(23) श्रीमान्। यदि यह तर्क मान लिया जाए कि भारत में मनमाने ढंग से राज्य चलाने की परम्परा है, तो फिर वहाँ मनमाने ढंग से राज्य खत्म भी हो जाते होंगे, क्योंकि ऐसी मनमानी पर टिके राज्य का तो शीघ्र अन्त निश्चित ही है।

(24) श्रीमान् ! तथ्य तो यह है कि हेस्टिंग्स झूठ बोल रहे हैं। भारत में या पूर्व में ऐसी कोई मनमानी नहीं है। मैंने विशद अध्ययन द्वारा यह तथ्य जाना है। सच तो यह है कि भारत में कानून किसी भी क्रिश्चियन राज्य के कानून से अधिक सुगठित व शक्तिशाली है।

(25) श्रीमान्। हेस्टिंग्स ने चंगेज ख़ाँ और तैमूरलंग का उदाहरण देकर कहा है कि हमें भारत में तथा एशिया में वह सब करने का अधिकार है, जो चंगेज ख़ाँ और तैमूरलंग ने किया। परन्तु मैंने चंगेज ख़ाँ और तैमूरलंग के राजकीय नियमों के अनुवाद पढ़े हैं और वे निष्पक्ष तथा पवित्र सिद्धान्त हैं। (इसके बाद बर्क ने तैमूरलंग के विधान के अनूदित अंशों को अदालत के समक्ष पढ़ा। वे सभी सत्य, सदाचार, ज्ञान, प्रजा का हित, दया, क्षमा, वार्तालाप, नीति, धर्म, मैत्री आदि से सम्बन्धित थे)।

(26) श्रीमान् ! आपके सम्मुख खड़ा यह अभियुक्त वारेन हेस्टिंग्स अपने मनमाने आचरण को स्व-अर्जित अधिकार बताता है। परन्तु यह हर प्रकार से दण्डनीय है। यद्यपि मैं यह नहीं कहूँगा कि इसे जंजीर से बाँधकर, नाक-कान काटकर, आँखें निकालने के बाद अन्त में इसका सिर काटा जाए, जैसी सजा एक मनमानी करने वाले सूबेदार को एक मुगल बादशाह ने दी थी, जिसका वर्णन यात्री बर्नियर ने किया है। परन्तु हेस्टिंग्स ने दण्डनीय अपराध किए हैं, यह तथ्य है।

(27) श्रीमान्। यदि हेस्टिंग्स कहते हैं कि उन्हें इस मनमानी की प्रेरणा हिन्दू कानून से मिली है, तो हेस्टिंग्स को भारत के किसी गाँव या मन्दिर में भेज दिया जाए। देखें, उसे वहाँ शायद कोई सहारा मिल जाए। जहाँ तक हिन्दू कानून की बात है, वह हिन्दू धर्मशास्त्रों पर निर्भर है। उनमें वर्णित कानून ऐसे हैं, जिनके पालन से प्रत्येक राज्य उन्नत और प्रसिद्ध हो सकता है और सबको आनन्द का अनुभव हो सकता है।

(28) श्रीमान् ! हेस्टिंग्स का एक दूसरा कथन यह है कि वह विवश हो गया था कि अपनी इच्छानुसार कार्य करे। इसका अर्थ यह है कि वह आगे भी बारम्बार घूस लेगा और लोगों का धन लूटेगा। वह जिसे चाहेगा, अपनी कम्पनी द्वारा बनाई गई जेल में भेज देगा। जिससे जब चाहे धन छीन लेगा। वह उत्पात, अत्याचार और आतंक जारी रखेगा। श्रीमान् ! यह कोई विनोद की बात नहीं है।

(29) श्रीमान् ! हेस्टिंग्स कहता है कि मैं तो एक गरीब व्यक्ति था, एक स्कूली लड़का था। मैं उस नई दुनिया में चाहे जैसे अपनी जगह बनाने गया था। मुझे कानून का ज्ञान नहीं था और मेरे साथ कानून के विद्वान भी नहीं थे, जो सलाह देते। इसलिए वह मनमानी करता गया। श्रीमान्। यह एक चालाक और चतुर व्यक्ति की सफाई है, जो श्रीमान् में संवेदना जगाकर क्षमा चाहता है। हम यह तो मान लेते हैं कि उसने किसी अच्छे स्कूल में शिक्षा नहीं पाई। उसने तो कासिम अली खाँ से ही वहाँ जाकर राजनैतिक शिक्षा ली। माना कि उसने केवल कक्षा चार तक पढ़ाई की थी, परन्तु ईसाई धर्म का पहली कक्षा का विद्यार्थी भी यह तो नहीं कहेगा कि उसने ईसाइयत के नाम पर केवल अत्याचार करना सीखा है? इसलिए इस झूठे और चालाक व्यक्ति के भोले दिख रहे तों के प्रति हमें सावधान रहना होगा।

(30) श्रीमान्। उसका एक तर्क यह है कि अतीत में इंग्लैंड की संसद ने मुझे अभियोगों से मुक्त किया है, परन्तु तब पार्लियामेंट के समक्ष इसके अपराधों का पूरा ब्यौरा नहीं था।

(31) श्रीमान् ! कम्पनी के डायरेक्टरों ने उसकी तारीफ भी की और उसके द्वारा किए गए हर काम की भर्त्सना भी की। अतः धन्यवाद ज्ञापन एक औपचारिकता मात्र माना जाए। वस्तुतः कम्पनी से धन्यवाद प्राप्त करने के लिए भी उसने हथकण्डों का प्रयोग किया।

(32) श्रीमान् ! अभियुक्त वारेन हेस्टिंग्स ने अपने बचाव में भारत के कुछ राजाओं के प्रमाणपत्र अदालत में पेश किए हैं। ये प्रमाणपत्र अपने-अपने प्राणों के भय से उन राजाओं ने इसे दिए हैं।

(33) श्रीमान्। वारेन हेस्टिंग्स के द्वारा प्रस्तुत भारत के राजाओं के प्रशंसापत्र केवल इस तथ्य का प्रमाण हैं कि इस अभियुक्त ने उन सम्मानित लोगों को कितना आतंकित किया। मैं श्रीमान् के सम्मुख साक्ष्य प्रस्तुत कर सिद्ध कर दूँगा कि इसने वहाँ के राजाओं को किस सीमा तक सताया है और कष्ट तथा परेशानी के गहरे गढ़े में धकेला है। स्पष्ट है कि ये प्रशंसापत्र या तो नकली और जाली हैं, या फिर जोर- जबरदस्ती और धमकी से लिखवाए गए हैं। 

(34) श्रीमान्। हेस्टिंग्स दूषित ढंग से घूस का लेन-देन करता था, जिसको एक पद्धति इसने बना ली थी, जिसके द्वारा वह व्यक्तिगत लाभ के लिए घूस के जरिए सम्पत्ति संचित करता था। इसके अपराध पार्लियामेंट को भयभीत करने वाले हैं। खून से रंगे इसके हाथ मानवता को लजाने वाले हैं।

(35) श्रीमान् ! इसका सिद्धान्त एक ही था, केवल धन इकट्ठा करना। भारत के गरीबों से धन चूसना और सम्पत्ति हड़पना ही इसको एकमात्र योग्यता है। अत्याचार, दबाव, हिंसा, लूट-खसोट और गरीबों का उत्पीड़न हो इसके कार्य रहे हैं। इसके कारनामों का प्रारम्भ, मध्य और अन्त केवल अनुचित धन कमाने से ही सम्बन्धित है।

(36) श्रीमान् ! कन्तू बाबू हेस्टिंग्स के लिए गुप्त उपहार लेने और अपहरण करने वाला एक दलाल था। उसे हेस्टिंग्स ने कम्पनी के अधिकार में आई बहुत सी भूमि दे दी।

(37) श्रीमान् ! हेस्टिंग्स ने बंगाल के पूर्व जर्मोदारों के दगाबाज नौकरों को पटाया और दगाबाजी के एवज में उन्हें कम्पनी के भारतीयों को मिल सकने वाला उच्चतम अधिकारी का पद दिया। रिसायतों को नौकरों और नीचे वर्ग वालों को सौंप दिया। इसके लिए अदालत का स्वांग रचा गया। हेस्टिंग्स ने किराये के वकोल रखे। नौकरों से मालिकों के विरुद्ध झूठी फरियाद कराई। खरीदे गए बकोलों से उसकी पैरवी कराई। फिर, निर्दोष मालिकों को कड़ी सजाएँ दिलवाई। यद्यपि ब्रिटिश शासन ने हेस्टिंग्स को अदालतें चलाने का कभी कोई अधिकार नहीं दिया था। प्राचीनतम भारतीय परिवारों की बर्बादी का बहुत बड़ा इतिहास हेस्टिंग्स ने रच दिया, जो दुनिया में बेमिसाल है। सभी अपराधों में या तो स्वयं हेस्टिंग्स शामिल था या कन्तू बाबू।

(38) श्रीमान् ! नन्दकुमार एक शक्तिशाली और योग्य व्यक्ति था। एक बड़ी रियासत का मालिक था। उससे हेस्टिंग्स को पूस के रूप में खूब धन मिला। उस पर बाद में हेस्टिंग्स ने आरोप लगाया कि उसने उसे गालियाँ दी हैं और अपमान किया है। ऐसे छोटे आरोप उस पर लगाये गये। जबकि नन्दकुमार ने लाखों रुपयों की घूस का पूरा ब्यौरा अकाट्य प्रमाणों के साथ दिया। हेस्टिंग्स ने अपने मित्र न्यायाधीश के जरिये नन्दकुमार को झूठे गवाहों के आधार पर दोषी ठहरा दिया और फाँसी की सजा दिलवा दी।

(39) श्रीमान् ! हेस्टिंग्स ने ऐसा खर्चीला आतिथ्य कम्पनी की कीमत पर उठाया, जो इंग्लैंड के राजा को भी सुलभ नहीं है। उसके व उसके मित्र के नाम केवल आतिथ्य के लिए 1,46,000 पाउण्ड प्रतिवर्ष दर्ज है। यह भ्रष्टाचार के सिवाय कुछ नहीं है।

(40) श्रीमान्। हेस्टिंग्स इतनी रकम वेश्या मुत्रीबाई पर खर्च कर रहा था, जो घूसखोरी में उसकी साझीदार थी। बाद में इसी वेश्या को इसने एक रियासत का सूबेदार बना दिया। इस दुश्चरित्र स्त्री के साथ मिलकर इसने भारी घूसखोरी की।।

(41) श्रीमान् ! हेस्टिंग्स ने स्वयं स्वीकार किया है कि नवाब मोहम्मद रज्जा ख़ाँ ने प्रतिवर्ष एक लाख साठ हजार पाउण्ड देने की बात स्वीकार की थी, जिसमें से चालीस हजार पाउण्ड प्रतिवर्ष कम्पनी को मिलने थे और एक लाख बीस हजार पाउण्ड प्रतिवर्ष मुझे।

(42) श्रीमान् ! अनेक अपहरणों के मामले प्रमाणित हो चुके हैं, जो हेस्टिंग्स ने कराये थे।

(43) श्रीमान् ! हेस्टिंग्स का एक ही मित्र था गंगा गोविन्द सिंह, जो बुरी तरह बदनाम व्यक्ति था, जो हर व्यक्ति के छोटे-छोटे निजी मामलों का पता लगाकर, पारिवारिक रहस्यों को उघाड़कर, जब जिसे चाहता, बर्बाद कर देता था या ब्लैकमेल कर अपना काम कराता था। इसने कम्पनी की कौन्सिल को भी अपनी कठपुतली बना लिया था। हेस्टिंग्स ने उसे बंगाल, बिहार और उड़ीसा में राजस्व वसूली के अधिकार दे दिए। गंगा गोविन्द सिंह के द्वारा हेस्टिंग्स ने लाखों पाउण्ड घूस में प्राप्त किए। (यहाँ बर्क ने घूसखोरी के अनेक प्रमाण अदालत के सामने प्रस्तुत किए)।

(44) श्रीमान् ! बंगाल के तीन इलाके मिलकर इंग्लैंड के उत्तरी प्रदेशों के बराबर का दीनाजपुर, रंगपुर और इदराकपुर राज्य बनते हैं। दीनाजपुर के राजा की मृत्यु के बाद हेस्टिंग्स ने नाबालिक दत्तक पुत्र को गद्दी पर बिठाने के एवज में 40,000 पाउण्ड लिए।

(45) श्रीमान्। मुर्शिदाबाद कम्पनी की सरकार की राजधानी थी। 1858 ईस्वी के बाद में, यह अंग्रेजी साम्राज्य का पहला प्रदेश बना। इस इलाके से कम्पनी को सन् 1773 में 120 लाख रुपये वार्षिक राजस्व की आमदनी थी, जो 15 लाख पाउण्ड होती है। हेस्टिंग्स के एक अन्य साथी देवीसिंह ने कम्पनी के सभी नवयुवक अफ़सरों को मौज-मस्ती का इन्तजाम सुलभ कराया, धन किया और कम्पनी का असली निर्देशक बन बैठा। इसने समाज में नृत्य करने वाली लड़कियों पर टैक्स बढ़ा दिया और कानूनी वैश्याघर स्थापित कराये। वहाँ से छाँट छाँटकर सुन्दर युवतियाँ कम्पनी के अफसरों को सुलभ कराई जातीं। ये नवजवान अफ़सर देवीसिंह द्वारा सुलभ कराई गई स्वादिष्ट फ्रेंच शराब, स्वादिष्ट भोजन, सुगन्धित तमाखू के नशे में बेहोश रहते और वह मौका देखकर उनसे अपने काम कराता। वह उनकी अतृप्त भावनाओं को जगाता और उन्हीं से रुपये ऐंठ कर उनकी मौज का इन्तजाम करता। इस तरह कम्पनी का असली मालिक देवीसिंह बन गया था। कम्पनी के हर व्यापार में उसका जाल बिछा होता। वह बेहिसाब धन कमाता। हेस्टिंग्स को भी भरपूर हिस्सा देता।

घमण्ड में भरे देवीसिंह ने अचानक लगान की दरें और नजराने की रकम बहुत बढ़ा दी। जींदारों ने इसे मानने से मना कर दिया। इस पर देवीसिंह ने सबको पकड़कर कम्पनी की जेलों में बन्द कर दिया और दबाव देकर कागजातों पर हस्ताक्षर कराये। जमींदार कर्ज के बोझ में दबकर अपनी निजी जमीनें बेचने को विवश हुए, जिन्हें बहुत सस्ते दामों में देवीसिंह ने खरीदा। सात या आठ शिलिंग में एक एकड़ भूमि खरीदी गई। बेहद सस्ती।

इस तहर जमीनें हथियाकर, उसने जमीनों को टुकड़ों में बेचा और हज्जारों पाउण्ड प्रतिवर्ष मुनाफ़ा कमाया। वहाँ के लोग जर्मीन बेचकर भी कर्जदार बने रहे, ब्याज पर ब्याज और कर्ज की रकम बढ़ती रही। उस समय बंगाल में अधिकांश जमींदार और भूस्वामी स्त्रियाँ थीं। वे उच्च वर्ग की स्त्रियाँ थीं। उनकी दशा बिगड़ती गई। उनके गहने-जेवर बिकने लगे, जिन्हें देवीसिंह के दलाल खरीदने लगे। इस तरह पूरे दीनाजपुर राज्य में हाहाकार मच गया। जो कि उत्तरी इंग्लैंड के बराबर का राज्य है। देवीसिंह के गिरोह ने भयंकर अत्याचार किये। (यहाँ बर्क ने कई पृष्ठों में उसके अत्याचारों का वर्णन किया था, जिन्हें अदालत के सामने पढ़ा)। इनमें दुखी किसानों की उंगलियाँ रस्सी से कसकर बाँधकर फिर बीच में जबरन लोहे की शलाका घुसेड़कर असह्य यंत्रणा देना, कारीगरों व किसानों के हाथ काटकर लूला बना देना, दो-दो व्यक्तियों की एक-एक टाँगें आपस में बाँधकर सिर झुकाकर एक छड़ के सहारे खड़ा कर जूतों से घण्टों पिटाई, जिससे आँख मुँह नाक से खून की धारा बहने लगे, काँटेदार तने से लोगों को मारना, जिससे शरीर बुरी तरह फट जाते। यह सब शामिल था।

(46) श्रीमान् ! हेस्टिंग्स के दलाल, गुण्डे और बदमाश न्यायाधीश बनकर बिठाये जाते, जिन्हें कानून का कोई ज्ञान नहीं होता। उनके सामने लगान न अदा करने के दोषी परिवारों की, बड़े घरों की सुन्दर कुँवारी कन्याएँ लाई जातीं। उनसे दुराचार किया जाता। फिर निर्वसन कर सड़कों पर खदेड़ दिया जाता। उनकी इज्जत और स्वतंत्रता दोनों छीन ली जाती। उनके स्तनों पर लाठियों-कुंदों से प्रहार किया जाता। (ऐसे ही अन्य अवर्णनीय अत्याचारों की सूची बर्क ने प्रस्तुत की, जिनका आगे वर्णन सम्भव नहीं है)। इस प्रकार इन स्त्रियों को अपनी जाति खोनी पड़ी। ऐसा ही पुरुषों के साथ किया गया। इनमें सबसे बड़ी संख्या ब्राह्मणों की थी। उन्हें बैल की पीठ पर बैठाकर शहर में ढोल पीटते हुए घुमाया जाता। जातिच्युत होने के भय से ब्राहाण पल भर में आत्मसमर्पण कर देता। तब उससे चाहे जो कराया जाता। न करने पर पीटा जाता। ऐसे असंख्य क्रूर अत्याचार हेस्टिंग्स ने किए और कराए।

(47) श्रीमान् ! बहुत से लोग लगान वसूलने वालों से डरकर भागकर जंगलों में छिप जाते। वहीं बाघ या चीते का शिकार बन जाते। अगर वापस घर आते तो उन्हें किसी न किसी बहाने क़त्ल कर दिया जाता। ऐसी घृणित क्रूर घटनाओं का वर्णन करके श्रीमान् मैं ऊब गया हूँ। श्रीमान् ! ऐसी भयंकर अमानुषिकता और नरसंहार कभी भी भारी विद्रोह को जन्म दे सकती है। हम लोग तो राजस्व वसूली में की जाने वाली थोड़ी कड़ाई ही इस सबको मानते रहे और वहाँ ऐसे भयंकर अत्याचार होते रहे। इनके रहते इंग्लैंड की कम्पनी को हो रही आमदनी अधिक दिन टिकने वाली नहीं है। विद्रोह हो सकता है।

(48) श्रीमान् ! जब विद्रोह फैलता दिखा तो हेस्टिंग्स की कम्पनी की कमेटी ने एक जाँच बैठाई, जिसका जाँच अधिकारी कम्पनी का एक अच्छा कर्मचारी पीटरसन बनाया गया। उसे ईमानदारी से जाँच शुरू की। पर उसे हर जगह अपने नियोक्ता हेस्टिंग्स के दलाल मिले। अन्त में हेस्टिंग्स के इशारे पर देवीसिंह स्वयं कोलकाता पहुँचा। वह कमेटी को तब तक 70 लाख पाउण्ड की रकम दे चुका था। सो कमेटी देवीसिंह के साथ थी। पीटरसन की रिपोर्ट में देवीसिंह को दोषी तो बताया गया, पर कम्पनी के अफसरों की कौन्सिल ही न्याय परिषद् बन गई और पीटरसन की रिपोर्ट में हेराफेरी कर दी, गवाहों को अमान्य कर दिया, बयानों को रद्द घोषित कर दिया तथा स्वयं पीटरसन पर अभियोग लगाने लगे। झूठे और भाड़े के गवाह पीटरसन के विरुद्ध खड़े कर दिए गए। देवीसिंह को एक सम्मानित व्यक्ति सिद्ध किया जाने लगा। पीटरसन को दोषी करार दिया गया।

(49) (अगले दिन) श्रीमान्। बाद में एक और जाँच बैठी। उसने देवीसिंह को दोषी पाया। पर उसका मामला उसके पुराने दोस्त के सामने ले जाया गया, जो उसे नियमपूर्वक छोड़ने ही वाला है।

(50) श्रीमान् ! मेरा हेस्टिंग्स पर अभियोग है कि इसने ब्रिटेन की एक कम्पनी को देवीसिंह जैसे नीच लोगों के हवाले छोड़कर नष्ट कर दिया। देवीसिंह हत्यारा, अत्याचारी, अपहरणकर्ता, अपराधी था।

(51) श्रीमान् । हेस्टिंग्स ने दीनाजपुर व रंगपुर के कई कम्पनी अफ़सरों से घूस ली। (बर्क ने प्रमाण दिये)।

(52) श्रीमान् ! दीनाजपुर के राजा की जमींन के बारे में हेस्टिंग्स ने झूठी गवाही दी कि वे जमीनें किसी के अधिकार में नहीं हैं, अतः कम्पनी की हैं। जबकि वह राजा से 40 हजार पाउण्ड की घूस ले चुका था देकर। सच्चा बयान देने का वचन (53) श्रीमान् ! मि. हेस्टिंग्स विधवाओं और अनाथों की लूट को प्रश्रय देता रहा था। (बर्क ने कई उदाहरण दिये)।

(54) श्रीमान्। मैं वारेन हेस्टिंग्स को घोरतम अपराधों और असभ्यतम व्यवहारों के लिए अपराधी घोषित करता हूँ।

(55) श्रीमान् ! मैं घोषित करता हूँ कि हेस्टिंग्स विश्वासघात का अपराधी है। उसने इंग्लैंड के संसद सदस्यों के नाम पर विश्वासघात किया है।

(56) श्रीमान् ! वारेन हेस्टिंग्स ने ब्रिटेन के राष्ट्रीय चरित्र को कलंकित किया है, मैं उसे अपराधी घोषित करता हूँ।

(57) श्रीमान् ! वारेन हेस्टिंग्स को मैं भारत के निवासियों के नाम पर अपराधी घोषित करता हूँ, जिनके कानून, अधिकारों और नागरिक अधिकारों का उसने हनन किया है और जिनकी सम्पत्ति उसने नष्ट की है तथा जिनका देश उसने नष्ट किया है।

(58) श्रीमान् । हेस्टिंग्स को मैं घूसखोरी, छल, हत्या, अपहरण को बढ़ावा देने का अपराधी घोषित करता हूँ। उसने बिना किसी अधिकार के नाबालिगों और अनाथों की जमीनें छीनी, धोखाधड़ी द्वारा विधवाओं की सम्पत्ति का अपहरण किया, जिनसे घूस ली, उन्हें भी लूटा, नाबालिग राजा के परिवार को और औरतों को क्रूरतापूर्वक सताया तथा किसानों के घर जला दिए, फसलें छीनीं, बुरी तरह तंग किया और स्त्री समाज की प्रतिष्ठा नष्ट की।

(59) श्रीमान्। मैं वारेन हेस्टिंग्स को उन समस्त कानूनों और न्याय के नाम पर अपराधी घोषित करता हूँ, जिनकी सीमाओं का उल्लंघन उसने किया।

(60) श्रीमान्! मैं वारेन हेस्टिंग्स को मानव प्रकृति के नाम पर अपराधी घोषित करता हूँ, जिसकी उसने अवहेना की और हर अवस्था, स्थिति तथा परिस्थिति के नर-नारियों के साथ दुर्व्यवहार किया।

(टिप्पणी : यह सार संक्षेप है। एडमंड बर्क, मिस्टर फॉक्स, मिस्टर ग्रे आदि के द्वारा लगाये गये अभियोगों का।)

महत्वपूर्ण कालखण्डों में भारत की सीमाएँ

क्र. कालखण्ड का नाम

1. वृहत्तर भारत प्राचीन काल (न्यूनतम 16000 ईसा पूर्व से महाभारत युद्ध तक)

सीमान्तर्गत मुख्य क्षेत्र

चीन, हूणदेश, उत्तरकुरु, उत्तर मद्र, यवन, शकस्थान (सीस्तान), तुषार (तुर्कमानिस्तान), परकाम्बोज (ताजिकिस्तान), काम्बोज, पारसीक (ईरान), तिब्बत, हिमाचल (त्रिगर्त्त) गांधार, कैकय, बाहलीक, (बल्ख), खश, दरद, पारिजात्र, सिंधु, सौवीर, काश्मीर, कुस्तन आदि उत्तर एवं उत्तर पश्चिम में, कुश (नूबिया), इजिप्त, मिस्र आदि पश्चिम में, नेपाल, प्राग्ज्योतिषपुर, शोणित, लौहित्य, पुण्डू, वंग आदि उत्तर पूर्व में, मणिनम, सुहा, स्याम, चंपा, अनाम, कम्बुज, पुःनान, मलय, सुवर्ण द्वीप, यव द्वीप, श्रीविजय, तथा पश्चिम, दक्षिण एवं पूर्व में समुद्र। दक्षिण में श्रीलंका सहित। (मध्य में कुरु, पांचाल, वत्स कोसल, काशी, उड़ीसा-छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोसल), विदेह (जनकपुर-मिथिला), मल्ल (गंगा का मैदान मध्य-उत्तरप्रदेश), चेदि (बुंदेलखंड), करुष-दशार्ण (मध्यप्रदेश) निषध (मध्य भारत), विदर्भ, आनर्स, लाट देश, आंध्र, द्रविड़, केरल आदि।

2. बौद्ध युग

16 महाजनपद-1. अश्मक (गोदावरी और दक्षिण भारत), 2. अंग और बंग (पूर्वी बिहार एवं बंगाल) कोशल, 5. काशी, बिहार), 7. मल्ल (गंगा 3. मगध, 4. 6. वृजि (उत्तरी क्षेत्र, उत्तर प्रदेश), 8. चेदि (बुंदेलखंड एवं महाकौशल), 9. वत्स (प्रयागक्षेत्र), 10. कुरु (दिल्ली- हरियाणा), 11. पांचाल (बरेली और बदायूं), 12. मत्स्य (जयपुर-राजस्थान), 13. शौरसेन (मथुरा-वृंदावन), 14. अवंति (मालवा), 15. गांधार (पेशावर से अफगानिस्तान तक), एवं 16. काम्बोज. इसके साथ ही चीन, त्रिविष्टप, मय (मैक्सिको) मिस्र, पणि (फिनिशियन), यवन, कॉर्थेज, पारसीक, सुमेर, मितनी, खत्ती (हित्ताइद), कसित, श्रीलंका आदि देशों में भी भगवान बुद्ध का संदेश व्याप्त था।

3. कालिदास के समय (रघुवंश में वर्णित)

सुहम, बंग, उत्कल, कलिंग, कावेरी क्षेत्र, मलयाचल क्षेत्र, पांडुराज्य, पश्चिमी तट के राज्य, गुजरात, सिंध, सौवीर, पारसीक राज्य, यवन राज्य, हूण राज्य, काम्बोज, उत्सवसंकेत, प्राग्ज्योतिष (कामरूप), चीन, त्रिविष्टप आदि।

4. सम्राट अशोक के युग से ईसा पूर्व 600


गांधार सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष, यवन राज्य कुस्तन, त्रिविष्टप।

5. महाराज विक्रमादित्य युग

गांधार सहित सम्पूर्ण भारत वर्ष, पारस, पश्चिम, एशिया, मिस्त्र, यवन राज्य, रोम राज्य। इसके साथ ही, बल्ख, इराक, ईरान, चीन, कुस्तन, मंगोलिया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियों, इंडोनेशिया, मलाया, खोतान, कम्पूचिया, स्याम देश, चंपा, हिन्द चीन, श्रीलंका, जापान, वियतनाम आदि तक हिन्दू एवं बौद्ध संस्कृति प्रसार।

6. महाराज हर्ष का युग (चालुक्यों, चोलों, पल्लवों, पांड्यों, मैत्रकों, वर्धनवंश आदि का युग था।)

गांधार सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष, म्यामांर (वर्मा), अंडमान निकोबार,

7. नौवीं शताब्दी ईस्वी. (गुर्जरों, प्रतिहारों, महाराज भोज, राष्ट्रकूटों, पालों आदि का युग

गांधार सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष।

8. 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में _______________गांधार सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष।

9. 13वीं शताब्दी___________________गांधार सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष।

10. 16वीं शताब्दी ईस्वी में______________गांधार सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष।

11. 19वीं शताब्दी ईस्वी में_______________________गांधार सहित सम्पूर्ण भारतवर्ष।

12. 15 अगस्त 1947 ईस्वी में______________अफगानिस्तान, पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से रहित शेष भारतवर्ष।

13. 1948 ईस्वी में__________पूर्वोक्त के साथ ही आधा कश्मीर भी हाथ से गया।


14. 1962 ईस्वी में____________पूर्वोक्त के साथ ही 16 हजार किलोमीटर से ज्यादा भारतीय भूमि भी गई। (चीन के कब्जे में)।

____________________________০____________________________

भारत के महत्त्वपूर्ण राजवंशों का संक्षिप्त संकेत

(1) पूर्व मन्वन्तर के राजवंश

स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा की सन्ततियों में से प्रधान विश्वविजयी सम्राट हैं उत्तानपाद एवं प्रियवत उत्तानपाद से ध्रुव एवं उत्तम। सप्तद्वीपाधिपति प्रियव्रत से आग्नीध्र आदि दस पुत्र तथा एक कन्या कन्या हुई। प्रियव्रत के तीन पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी ऋषि हुए शेष सात पुत्रों को जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्राँच, शाक एवं पुष्कर इन सात द्वीपों का अलग-अलग शासन दिया गया। यह अत्यन्त प्राचीन युग की बात है। इसी वंश में ऋषभ, नाभि एवं अजनाभ भरत हुए।

युगान्तर में वैवस्वत मनु से तीन राजवंश चले सूर्यवंश, चन्द्रवंश एवं सौद्युम्न वंश। सूर्यवंशी शासकों की राजधानी अयोध्या थी। चन्द्रवंशियों की प्रतिष्ठानपुर (झुंसी, प्रयाग)। सौद्युम्नवंशियों की पाटलिपुत्र।

चन्द्रवंश ही मनुपुत्री इला के नाम से ऐल वंश कहलाया। ऐलों ने भी उस क्षेत्र पर शासन किया, जिसे 18वीं शती ईस्वी से ग्रीक कहा जाता है, परन्तु जो पहले हेला या ऐला तथा यवन या 'यवान्' कहा जाता है। महाकवि दांते ने उसे 'यवान्स' ही कहा है। वे लोग स्वयं को सदा यवन एवं हेला या 'ऐल' कहते रहे हैं। हेला साम्राज्य की रोम से सटी सीमा पर बसे एक गाँव के नाम का वर्णन रोमन साहित्य में 'ग्राइ' ('ग्राम' का हेला रूप) बताया है। शताब्दियों बाद, उसी 'ग्राइ' के आधार पर इसे 'ग्रीस' या 'ग्राईस' कहा जाने लगा। यह नाम यूरोप के अंधकार-युग (अज्ञान-युग) में चल पड़ा। यवन राज्य हेला या ऐल ही कहा जाता है। वहाँ भारतीयों का शासन था। अत्यन्त प्राचीन काल से अशोक के समय तक। ऐलों की एक शाखा द्रह्यु बाद में और आगे तक गई यूरोप के अनेक क्षेत्रों में फैली।

(2) वैवस्वत मन्वन्तर के महत्त्वपूर्ण सूर्यवंशी राजवंशों का संकेत

मनु वैवस्वत - इक्ष्वाकु - देवराट् विकुक्षि तथा 99 अन्य पुत्र- ककुत्स्थ पुरंजय (इन्द्रवाह) तथा 14 अन्य पुत्र सुयोधन पृथु (जिनके कारण यह विष्णुपत्नी


परिशिष्ट-227
.....Cont.


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