अभी हाल में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री माननीय डाॅ. सत्यपालसिंहजी के इस कथन कि मनुष्य की उत्पत्ति बन्दर से नहीं हुई, सम्पूर्ण भारत के बुद्धिजीवियों में हलचल मच रही है। कुछ वैज्ञानिक सोच के महानुभाव इसे साम्प्रदायिक संकीर्णताजन्य रूढ़िवादी सोच की संज्ञा दे रहे हैं। मैं उन महानुभावों से निवेदन करता हूँ कि मंत्रीजी का यह विचार रूढ़िवादी नहीं बल्कि सुदृढ़ तर्कों पर आधारित वैदिक विज्ञान का ही पक्ष है। ऐसा नहीं है कि विकासवाद का विरोध कुछ भारतीय विद्वान् ही करते हैं अपितु अनेक यूरोपियन वैज्ञानिक भी इसे नकारते आये हैं। मैं इसका विरोध करने वाले संसारभर के विकासवादियों से प्रश्न करना चाहता हूँ। ये प्रश्न प्रारम्भिक हैं, इनका उत्तर मिलने पर और प्रश्न किये जायेंगे :-
शारीरिक विकास
१. विकासवादी अमीबा से लेकर विकसित होकर बन्दर पुनः शनैः-२ मनुष्य की उत्पत्ति मानते हैं। वे बताएं कि अमीबा की उत्पत्ति कैसे हुई?
२. यदि किसी अन्य ग्रह से जीवन आया, तो वहाँ उत्पत्ति कैसे हुई? जब वहाँ उत्पत्ति हो सकती है, तब इस पृथ्वी पर क्यों नहीं हो सकती?
३. यदि अमीबा की उत्पत्ति रासायनिक क्रियाओं से किसी ग्रह पर हुई, तब मनुष्य के शुक्राणु व अण्डाणु की उत्पत्ति इसी प्रकार क्यों नहीं हो सकती?
४. उड़ने की आवश्यकता होने पर प्राणियों के पंख आने की बात कही जाती है परन्तु मनुष्य जब से उत्पन्न हुआ, उड़ने हेतु हवाई जहाज बनाने का प्रयत्न करता रहा है, परन्तु उसके पंख क्यों नहीं उगे? यदि ऐसा होता, तो हवाई जहाज के अविष्कार की आवश्यकता नहीं होती।
५. शीत प्रदेशों में शरीर पर लम्बे बाल विकसित होने की बात कही जाती है, तब शीत प्रधान देशों में होने वाले मनुष्यों के रीछ जैसे बाल क्यों नहीं उगे? उसे कम्बल आदि की आवश्यकता क्यों पड़ी?
६. जिराफ की गर्दन इसलिए लम्बी हुई कि वह धरती पर घास सूख जाने पर ऊपर पेड़ों की पत्तियां गर्दन ऊँची करके खाता था। जरा बताएं कि कितने वर्ष तक नीचे सूखा और पेड़ों की पत्तियां हरी रहीं? फिर बकरी आज भी पेड़ों पर दो पैर रखकर पत्तियां खाती है, उसकी गर्दन लम्बी क्यों नहीं हुई?
७. बंदर के पूंछ गायब होकर मनुष्य बन गया। जरा कोई बताये कि बंदर की पूंछ कैसे गायब हुई? क्या उसने पूंछ का उपयोग करना बंद कर दिया? कोई बताये कि बन्दर पूंछ का क्या उपयोग करता है और वह उपयोग उसने क्यों बंद किया? यदि ऐसा ही है तो मनुष्य के भी नाक, कान गायब होकर छिद्र ही रह सकते थे। मनुष्य लाखों वर्षोंसे से बाल और नाखून काटता आ रहा है, तब भी बराबर वापिस उगते आ रहे हैं, ऐसा क्यों?
८. सभी बंदरों का विकास होकर मानव क्यों नहीं बने? कुछ तो अमीबा के रूप में ही अब तक चले आ रहे हैं, और हम मनुष्य बन गये, यह क्या है?
९. कहते हैं कि सांपों के पहले पैर होते थे, धीरे-२ वे घिस कर गायब हो गये। जरा विचारों कि पैर कैसे गायब हुए, जबकि अन्य सभी पैर वाले प्राणियों के पैर बिल्कुल नहीं घिसे।
१०. बिना अस्थि वाले जानवरों से अस्थि वाले जानवर कैसे बने? उन्हें अस्थियों की क्या आवश्यकता पड़ी?
११. बंदर व मनुष्य के बीच बनने वाले प्राणियों की श्रंखला कहाँ गई?
१२. विकास मनुष्य पर जाकर क्यों रुक गया? किसने इसे विराम दिया? क्या उसे विकास की कोई
आवश्यकता नहीं है?

1. कहते हैं कि मानव ने धीरे-2 बुद्धि का विकास कर लिया, तब प्रश्न है कि बन्दर व अन्य प्राणियों में बौद्धिक विकास क्यों नहीं हुआ?
2. मानव के जन्म के समय इस धरती पर केवल पशु पक्षी ही थे, तब उसने उनका ही व्यवहार क्यों नहीं सीखा? मानवीय व्यवहार का विकास कैसे हुआ? करोड़ों वनवासियों में अब तक विशेष बौद्धिक विकास क्यों नहीं हुआ?
3. गाय, भैंस, घोड़ा, भेड़, बकरी, ऊंट, हाथी करोड़ों वर्षों से मनुष्य के पालतू पशु रहे हैं पुनरपि उन्होंने न मानवीय भाषा सीखी और न मानवीय व्यवहार, तब मनुष्य में ही यह विकास कहाँ से हुआ?
4. दीपक से जलता पतंगा करोड़ों वर्षों में इतना भी बौद्धिक विकास नहीं कर सका कि स्वयं को जलने से रोक ले, और मानव बन्दर से इतना बुद्धिमान् बन गया कि मंगल की यात्रा करने को तैयार है? क्या इतना जानने की बुद्धि भी विकासवादियों में विकसित नहीं हुई ? पहले सपेरा सांप को बीन बजाकर पकड़ लेता था और आज भी वैसा ही करता है परन्तु सांप में इतने ज्ञान का विकास भी नहीं हुआ कि वह सपेरे की पकड़ में नहीं आये।
5. पहले मनुष्य बल, स्मरण शक्ति एवं शारीरिक प्रतिरोधी क्षमता की दृष्टी से वर्तमान की अपेक्षा बहुत अधिक समृद्ध था, आज यह ह्रास क्यों हुआ, जबकि विकास होना चाहिए था?
6. संस्कृत भाषा, जो सर्वाधिक प्राचीन भाषा है, उस का व्याकरण वर्तमान विश्व की सभी भाषाओं की अपेक्षा अतीव समृद्ध व व्यवस्थित है, तब भाषा की दृष्टी से विकास के स्थान पर ह्रास क्यों हुआ?
7. प्राचीन ऋषियों के ग्रन्थों में भरे विज्ञान के सम्मुख वर्तमान विज्ञान अनेक दृष्टी से पीछे है, यह मैं अभी सिद्ध करने वाला हूँ, तब यह विज्ञान का ह्रास कैसे हुआ? पहले केवल अन्तःप्रज्ञा से सृष्टि का ज्ञान ऋषि कर लेते थे, तब आज वह ज्ञान अनेकों संसाधनों के द्वारा भी नहीं होता। यह यह उलटा क्रम कैसे हुआ?
भला विचारें कि यदि पशु पक्षियों में बौद्धिक विकास हो जाता, तो एक भी पशु पक्षी मनष्य के वश में नहीं आता। यह कैसी अज्ञानता भरी सोच है, जो यह मानती है कि पशु पक्षियों में बौद्धिक विकास नहीं होता परन्तु शारीरिक विकास होकर उन्हें मनुष्य में बदल देता है और मनुष्यों में शारीरिक विकास नहीं होकर केवल भाषा व बौद्धिक विकास ही होता है। इसका कारण क्या विकासवादी मुझे बताएंगे।
आज विकासवाद की भाषा बोलने वाले अथवा पौराणिक बन्धु श्री हनुमान् जी को बन्दर बताएं, उन्हें वाल्मीकीय रामायण का गम्भीर ज्ञान नहीं है। वस्तुतः वानर, ऋक्ष, गृध, किन्नर, असुर, देव, नाग आदि मनुष्य जाति के ही नाना वर्ग थे। ऐतिहासिक ग्रन्थों में प्रक्षेपों (मिलावट) को पहचानना परिश्रम साध्य व बुद्धिगम्य कार्य है।
ऊधर जो प्रबुद्धजन किसी वैज्ञानिक पत्रिका में पेपर प्रकाशित होने को ही प्रामाणिकता की कसौटी मानते हैं, उनसे मेरा अति संक्षिप्त विनम्र निवेदन है-
1. बिग बैंग थ्योरी व इसके विरुद्ध अनादि ब्रह्माण्ड थ्योरी, दोनों ही पक्षों के पत्र इन पत्रिकाओं में छपते हैं, तब कौनसी थ्योरी को सत्य मानें?
2. ब्लैक होल व इसके विरुद्ध ब्लैक होल न होने की थ्योरीज् इन पत्रिकाओं में प्रकाषित हैं, तब किसे सत्य मानें?
3. ब्रह्माण्ड का प्रसार व इसके प्रसार न होने की थ्योरीज् दोनों ही प्रकाषित हैं, तब किसे सत्य मानें?
ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस कारण यह आवश्यक नहीं है कि हमें एक वर्गविषेश से सत्यता का प्रमाण लेना अनिवार्य हो? हमारी वैदिक एवं भारतीय दृष्टी में उचित तर्क, पवित्र गम्भीर ऊहा एवं योगसाधना (व्यायाम नहीं) से प्राप्त निष्कर्ष वर्तमान संसाधनों के द्वारा किये गये प्रयोगों, प्रक्षेपणों व गणित से अधिक प्रामाणिक होते हैं। यदि प्रयोग, प्रेक्षण व गणित के साथ सुतर्क, ऊहा का साथ न हो, तो वैज्ञानिकों का सम्पूर्ण श्रम व्यर्थ हो सकता है। यही कारण है कि प्रयोग, परीक्षणों, प्रेक्षणों व गणित को आधार मानने वाले तथा इन संसाधनों पर प्रतिवर्ष खरबों डाॅलर खर्च करने वाले विज्ञान के क्षेत्र में नाना विरोधी थ्योरीज् मनमाने ढंग से फूल-फल रही हैं और सभी अपने को ही सत्य कह रही हैं। यदि विज्ञान सर्वत्र गणित व प्रयोगों को आधार मानता है, तब क्या कोई विकासवाद पर गणित व प्रयोगों का आश्रय लेकर दिखाएगा?
इस कारण मेरा सम्मान के योग्य वैज्ञानिकों एवं देश व संसार के प्रबुद्ध जनों से अनुरोध है कि प्रत्येक प्राचीन ज्ञान का अन्धविरोध तथा वर्तमान पद्धति का अन्धानुकरण कर बौद्धिक दासत्व का परिचय न दें। तार्किक दृष्टी का सहारा लेकर ही सत्य का ग्रहण व असत्य का परित्याग करने का प्रयास करें। हाँ, अपने साम्प्रदायिक रूढ़िवादी सोच को विज्ञान के समक्ष खड़े करने का प्रयास करना अवश्य आपत्तिजनक है।
- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक
प्रश्न: आपको ऐसा क्यों लगता है कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है?
प्रोफेसर बीही: जब हम अलग-अलग पुरज़ों से बनी मशीन को कोई जटिल काम करते देखते हैं, तो हम यह नतीजा निकालते हैं कि उस मशीन को बनाया गया है। मिसाल के तौर पर, रोज़ इस्तेमाल होनेवाली मशीनों को ही लीजिए, जैसे घास काटनेवाली मशीन, गाड़ी या इससे भी छोटे यंत्र। मेरी सबसे मनपसंद मिसाल चूहेदानी की है। जब आप देखते हैं कि इसके अलग-अलग पुरज़ों को कैसे एक-साथ जोड़ा गया है ताकि यह चूहा पकड़ने के काम आए, तो आप यही कहेंगे कि यह अपने आप नहीं आयी बल्कि इसे बनाया गया है।
आज विज्ञान, तरक्की के उस मुकाम पर पहुँच गया है, जहाँ उसने पता लगा लिया है कि जीव का सबसे छोटा अंश, अणु कैसे काम करता है। यही नहीं, वैज्ञानिक यह जानकर दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं कि इन जीवों में पाए जानेवाले अणु किसी जटिल मशीन से कम नहीं। मिसाल के लिए, एक जीवित कोशिका में कुछ अणु, छोटी-छोटी “लॉरियों” की तरह होते हैं, जो कोशिका के एक कोने से दूसरे कोने तक सामान ढोकर ले जाते हैं। दूसरे अणु, “साइन पोस्ट” की तरह इन “लॉरियों” को दिशा दिखाते हैं कि उन्हें बाएँ मुड़ना चाहिए या दाएँ। कुछ अणु तो कोशिकाओं से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे “जहाज़ के पीछे मोटर” लगा रहता है और कोशिकाओं को तरल पदार्थों में सफर करने में मदद देते हैं। अगर लोग यही जटिल व्यवस्था किसी दूसरी चीज़ में देखेंगे, तो वे इसी नतीजे पर पहुँचेंगे हैं कि उसे रचा गया है। तो फिर अणुओं के बारे में भी यही नतीजा निकालना सही होगा, भले ही डार्विन का सिद्धांत यह दावा क्यों न करे कि इन अणुओं का विकास हुआ था। जब भी हम किसी चीज़ में जटिल व्यवस्था देखते हैं, तो यही कहते हैं कि इसके पीछे किसी कुशल कारीगर का हाथ है। इसलिए हमारा यह कहना भी वाजिब है कि अणुओं की व्यवस्था को किसी बुद्धिमान हस्ती ने बनाया है।
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प्रश्न: : आपकी राय में, आपके ज़्यादातर साथी इस बात से सहमत क्यों
नहीं हैं कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है?
प्रोफेसर बीही: अगर वे मानते कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है, तो उन्हें यह भी मानना पड़ता कि यह दिमाग किसी ऐसी हस्ती का है, जो विज्ञान के सिद्धांतों और कुदरत से भी बढ़कर है। और यही बात कबूल करने से कई लोग घबराते हैं। लेकिन मैंने हमेशा यही सीखा है कि वैज्ञानिकों को पहले से कोई धारणा नहीं बना लेनी चाहिए, बल्कि सबूत जो दिखाता है वही मानना चाहिए। मेरी नज़र में ऐसे लोग बुज़दिल हैं जो ठोस सबूत मिलने पर भी, गलत सिद्धांत को छोड़ने से डरते हैं। और वह भी बस इसलिए कि अगर वे मेरी बातों से सहमत होंगे, तो उन्हें उस बुद्धिमान हस्ती पर भी विश्वास करना पड़ेगा।
सजग होइए!: आप ऐसे आलोचकों को क्या जवाब देते हैं जो दावा करते हैं कि एक बुद्धिमान कारीगर पर विश्वास करना, अज्ञानता को बढ़ावा देना है?
प्रोफेसर बीही: हम अज्ञानता की वजह से एक बुद्धिमान कारीगर पर विश्वास नहीं करते। हम इस नतीजे पर इसलिए पहुँचे हैं क्योंकि हम इस बारे में जानते हैं, इसलिए नहीं कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते। डेढ़ सौ साल पहले जब डार्विन ने अपनी किताब,दी ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़ छापी थी, तो उस वक्त ज़िंदगी बहुत सीधी-सादी मालूम पड़ती थी। उस ज़माने के वैज्ञानिकों ने सोचा, कोशिका इतनी सरल है कि शायद यह समुद्र के कीचड़ में से निकली हो। लेकिन तब से विज्ञान ने काफी खोज की है और पता लगाया है कि कोशिका बहुत ही जटिल है, इतनी कि 21वीं सदी की कोई भी मशीन इसकी बराबरी नहीं कर सकती। कोशिका की जटिलता चीख-चीखकर यही कहती है कि इसे एक मकसद से बनाया गया है।
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प्रश्न: आप अभी-अभी अणुओं की जटिल व्यवस्था के बारे में बता रहे थे। क्या विज्ञान यह साबित कर पाया है कि प्राकृतिक चुनाव (इसका एक मतलब है, जो ताकतवर है वही संघर्ष करके ज़िंदा रहता है) से कोशिका की जटिल व्यवस्था का विकास हुआ है?
प्रोफेसर बीही: अगर आप विज्ञान के साहित्य में छानबीन करें, तो पाएँगे कि आज तक ऐसा एक भी वैज्ञानिक नहीं रहा जिसने यह समझाने का बीड़ा उठाया हो कि कैसे कोशिका की जटिल व्यवस्था का विकास हुआ है। दस साल पहले जब मेरी किताब छपकर निकली थी, तब ‘विज्ञान की राष्ट्रीय अकादमी’ और ‘विज्ञान की प्रगति के लिए अमरीकी संघ’ जैसे कई वैज्ञानिक संगठनों ने अपने सदस्यों से ज़ोरदार अपील की थी कि वे इस धारणा के खिलाफ सबूत इकट्ठा करें कि जीवन, एक कुशल दिमाग की कारीगरी है। इसके बाद भी किसी वैज्ञानिक ने कुछ नहीं किया।
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प्रश्न: : आप उन लोगों को क्या जवाब देते हैं जो कहते हैं कि पौधों या जानवरों के कुछ हिस्सों को ठीक से नहीं रचा गया है?
प्रोफेसर बीही: जब हमें यह पता नहीं रहता है कि पौधों और जानवरों में फलाँ हिस्से या अंग का क्या काम है, तो इसका यह मतलब नहीं कि वे बेकार हैं। मिसाल के लिए, उन अंगों पर गौर कीजिए जिन्हें अवशेष अंग कहा जाता था। एक ज़माना था, जब इन अंगों की वजह से यह माना जाता था कि इंसान का शरीर और दूसरे जीव ठीक से नहीं रचे गए हैं। इन अंगों में से दो हैं, अपेंडिक्स और टांसिल जिन्हें पहले बेकार समझकर, ऑपरेशन के ज़रिए हटाया जाता था। मगर फिर खोजों से पता चला कि ये अंग, शरीर में बीमारियों से लड़ने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। तब से इन्हें अवशेष अंग मानना बंद हो गया।
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याद रखनेवाली एक और बात यह है कि कुछ जीवों में बदलाव अपने आप से होता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इन जीवों की शुरूआत इत्तफाक से हुई थी। इसे समझने के लिए मेरी गाड़ी की मिसाल लीजिए। अगर मेरी गाड़ी को कोई नुकसान पहुँचता है या उसके टायर की हवा निकल जाती है, तो मैं यह नहीं कह सकता कि इसका कोई बनानेवाला नहीं था।
उसी तरह, इस बात में कोई तुक नहीं कि जीवन और उसमें पाए जानेवाले जटिल अणुओं का विकास हुआ था।
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अच्छा, यह बताइए, जब हमारे शरीर में चोट लगती है तो क्या होता है?
कुछ ही सेकंड में, खून बहने से रोकने के लिए पहला चरण शुरू हो जाता है, जिसमें कई सारे काम शामिल हैं। ये काम बहुत पेचीदा हैं, पर बड़ी कुशलता से होते हैं। इससे भी बढ़कर हमारे शरीर में खून के बहाव की जो व्यवस्था है, उसमें करीब 1,00,000 किलोमीटर (60,000 मील) की लंबाई की रक्त-धमनियाँ (ब्लड वेसेल्स) होती हैं। ज़रूर इससे प्लम्बिंग इंजीनियर हैरत में पड़ जाते होंगे, क्योंकि इसमें ऐसी काबिलीयत है कि चोट लगने पर जब कोई रक्त-धमनी फट जाती है, तो खून बहना खुद-ब-खुद बंद हो जाता है और वह धमनी फिर से जुड़ जाती है।
दूसरे चरण में क्या होता है?
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कुछ ही घंटों में खून बहना बंद हो जाता है और उस जगह पर सूजन-सी आने लगती है। इसमें एक-के-बाद-एक कई हैरान कर देनेवाली घटनाएँ शामिल हैं। सबसे पहले, जो रक्त-धमनियाँ खून को बहने से रोकने के लिए पहले सिकुड़ गयी थीं, अब फैलने लगती हैं, ताकि घाव वाली जगह में खून का बहाव ज़्यादा हो। इसके बाद, एक तरल पदार्थ जिसमें प्रोटीन ज़्यादा होता है, चोट वाली पूरी जगह में सूजन पैदा करता है। यह तरल पदार्थ, संक्रमण से लड़ने, ज़हर को बेअसर करने और घायल ऊतक (टिशु) को निकालने के लिए बहुत ज़रूरी है। इस तरह की सारी घटनाओं में होनेवाली हर प्रक्रिया के लिए खास किस्म के लाखों अणुओं और कोशिकाओं की ज़रूरत होती है। इनमें से कुछ घटनाएँ अगला चरण शुरू करने के लिए होती हैं, उसके बाद इनका काम खत्म हो जाता है।
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घाव भरने के अगले चरण में क्या-क्या होता है?
एक-दो दिन में ही हमारा शरीर घाव भरनेवाली चीज़ें तैयार करने लगता है, यानी वह प्रक्रिया होने लगती है, जो तीसरे चरण की शुरूआत होती है। यह चरण करीब दो हफ्ते में अपने आखिरी मुकाम पर पहुँचता है। जो कोशिकाएँ घाव के आस-पास तंतु या रेशे (फाइबर) बनाती हैं, वे चोट वाली जगह में जाती हैं और दूसरी अनगिनत कोशिकाओं को जन्म देती हैं। इसके अलावा, छोटी-छोटी नयी रक्त-धमनियाँ निकलती हैं और चोट वाली जगह की तरफ बढ़ती हैं। ये रक्त-धमनियाँ घाव ठीक होने के दौरान उस जगह से खराब पदार्थ निकालती हैं और ज़्यादा मात्रा में पोषक तत्व वहाँ पहुँचाती हैं। फिर कुछ और पेचीदा घटनाएँ होती हैं, जिनमें खास कोशिकाएँ पैदा होती हैं। ये कोशिकाएँ घाव के किनारों को एक साथ जोड़ती हैं।
बाप रे! इतने सारे काम होते हैं! घाव पूरी तरह भरने में और कितना समय लगता है?
आखिरी चरण में, जिसमें शरीर पहले जैसा आकार लेता है, महीने लग जाते हैं। जो हड्डियाँ टूट गयी थीं, उनमें पहले जैसी ताकत आती है और घाव वाली जगह पर एक नाज़ुक ऊतक (सॉफ्ट-टिशु) के आस-पास जो तंतु या रेशे थे, उनकी जगह मज़बूत तंतु या रेशे आ जाते हैं। सचमुच, घाव ठीक होना हैरान कर देनेवाला एक ऐसा प्रोग्राम है, जिसमें हर काम आपसी तालमेल से होता है।
क्या आप एक ऐसी घटना बता सकते हैं, जिसका आप पर गहरा असर हुआ?
जब मैं देखता हूँ कि कैसे शरीर अपने आप चोट ठीक कर लेता है, तो मैं हैरान रह जाता हूँ
हाँ। एक बार मैंने एक 16 साल की लड़की का इलाज किया, जिसका बड़ा खतरनाक कार एक्सीडेंट हुआ था। लड़की की हालत बहुत गंभीर थी, उसकी तिल्ली (खून को साफ करने और संचित करनेवाला पेट के पास का एक अंग) फट गयी थी, जिसकी वजह से शरीर के अंदर खून बहने लगा था। सालों पहले की बात होती, तो हम तिल्ली को ठीक करने के लिए उसका ऑपरेशन करते या उसे निकालकर फेंक देते। आज डॉक्टर ज़्यादातर इस बात पर भरोसा करते हैं कि शरीर में खुद चोट को ठीक करने की काबिलीयत है। इसलिए मैंने बस संक्रमण रोकने, खून बहने से रोकने, एनीमिया (खून की कमी) और दर्द का इलाज किया। कुछ ही हफ्तों बाद, एक जाँच से पता चला कि उसकी तिल्ली ठीक हो गयी है! जब मैं देखता हूँ कि कैसे शरीर अपने आप चोट ठीक कर लेता है, तो मैं हैरान रह जाता हूँ। इससे मुझे और भी यकीन हो गया कि हमें परमेश्वर ने रचा है।
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