नियोग में 'समागम' का अर्थ मैथुन अथवा आना ? - ধর্ম্মতত্ত্ব

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20 April, 2022

नियोग में 'समागम' का अर्थ मैथुन अथवा आना ?

 महाभारत में महर्षि वेदव्यास ने किया अम्बिका, अम्बालिका और दासी के साथ नियोग

नियोग में 'समागम' का अर्थ मैथुन अथवा आना ?

नियोग को शास्त्रों में आपद्धर्म कहा गया है। जब किसी विधवा स्त्री के सन्तान नहीं होती अथवा किसी विवाहित स्त्री का पति सन्तानोत्पत्ति में अयोग्य होता है, तब किसी अन्य योग्य पुरुष को बुलाकर और उस सन्तानहीन स्त्री के साथ नियोग कराकर संतान उत्पन्न की जाती है। हमारे धर्मग्रंथों में नियोग के अनेक प्रमाण मिलते हैं। महर्षि दयानंद ने भी अपनी "सत्यार्थ प्रकाश" पुस्तक में धर्मशास्त्रों से इसके प्रमाण दिए, परंतु बहुत से पौराणिक लोग इसको सत्य नहीं मानते और कहते हैं कि यह महर्षि दयानंद की अपनी कल्पना है। उनकी जानकारी के लिए हम पौराणिक पुस्तकों के प्रकाशक "गीता प्रेस" द्वारा छपे "महाभारत" के #आदिपर्व से ही इसका एक प्रमाण दे रहे हैं  - 

नियोग के श्लोक प्रमाण देने से पूर्व संक्षेप में कथा इस प्रकार है कि शान्तनु की पत्नी सत्यवती के दो पुत्र उत्पन्न होते हैं - चित्रांगद और विचित्रवीर्य। इसमें से चित्रांगद अपने ही नाम वाले एक गन्धर्व द्वारा युद्ध में मारा जाता है। दूसरे पुत्र विचित्रवीर्य का विवाह अम्बिका और अम्बालिका से होता है, परंतु विवाह के बाद वह अधिक कामी बन जाता है और उसके कारण राजयक्ष्मा रोग का शिकार होकर वह युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अम्बिका और अम्बालिका को कोई सन्तान नहीं होती और सत्यवती कुल की सन्तान परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए भीष्म को इनसे नियोग करके दोनों के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने के लिए कहती है - (तयोरुत्पादयापत्यं सन्तानाय कुलस्य नः - आदिपर्व १०३/१०, पृष्ठ ३१९), परंतु भीष्म अपने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत पर अटल रहते हैं और सत्यवती को कहते हैं कि "मैं सन्तानोत्पादन के लिए इनसे कभी मैथुन/स्त्रीसहवास नहीं करूंगा।" - (नोपेयां जातु मैथुनम् - आदिपर्व १०३/१३, पृष्ठ ३२०); आगे की कथा के श्लोक प्रमाण महाभारत, गीताप्रेस, आदिपर्व से ही नीचे देखें - 

[ध्यातव्यम् - पृष्ठ संख्या संलग्न पीडीएफ प्रति के अनुसार है।] 

आदिपर्व, अध्याय १०३, पृष्ठ ३२०-३२१ 

🌷भीष्म का सत्यवती को विचित्रवीर्य की स्त्रियों को नियोग द्वारा सन्तान-प्राप्ति कराने का परामर्श🌷 

*शान्तनोरपि संतानं यथा स्यादक्षयं भुवि। तत् ते धर्मं प्रवक्ष्यामि क्षात्रं राज्ञि सनातनम्॥२५॥* 

- भीष्मजी कहते हैं - राजमाता ! महाराज शान्तनु की सन्तान परम्परा भी जिस उपाय से इस भूतल पर अक्षय बनी रहे, वह धर्मयुक्त उपाय मैं तुम्हें बतलाऊँगा। वह #सनातन_क्षत्रियधर्म है॥२५॥ 

*श्रुत्वा तं प्रतिपद्यस्व प्राज्ञैः सह पुरोहितैः । आपद्धर्मार्थकुशलैर्लोकतन्त्रमवेक्ष्य च ॥ २६॥* 

- उसे #आपद्धर्म के निर्णय में कुशल विद्वान् पुरोहितों से सुनकर और लोकतन्त्र की ओर भी देखकर निश्चय करो ॥ २६ ॥ 

आदिपर्व, अध्याय १०४, पृष्ठ ३२१-३२५ 

*पुनर्भरतवंशस्य हेतुं संतानवृद्धये । वक्ष्यामि नियतं मातस्तन्मे निगदतः श्रृणु ॥ १ ॥*

*ब्राह्मणो गुणवान् कश्चिद् धनेनोपनिमन्त्र्यताम्। विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु यः समुत्पादयेत् प्रजा:॥ २ ॥* 

- भीष्मजी कहते हैं - मातः ! भरतवंश की संतानपरम्परा को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिये जो नियत उपाय है, उसे मैं बता रहा हूँ; सुनो। किसी गुणवान् ब्राह्मण को धन देकर बुलाओ, जो विचित्रवीर्य की स्त्रियों के गर्भ से सन्तान उत्पन्न कर सके॥ १-२ ॥ 

(भीष्म के ऐसा कहने पर सत्यवती इस आपद्धर्म के महत्त्व को जानकर उसे एक पूर्वकाल की घटना बताती है कि यौवनावस्था में महर्षि पराशर से उसका एक अन्य पुत्र हुआ था, जिसका नाम महर्षि व्यास है।) 

🌹सत्यवती का भीष्म को नियोग हेतु महर्षि व्यास को बुलाने का परामर्श🌷 

*स #नियुक्तो मया व्यक्तं त्वया चाप्रतिमद्युतिः। भ्रातुः क्षेत्रेषु कल्याणमपत्यं जनयिष्यति॥१७॥* 

- सत्यवती आगे कहती है - मेरे और तुम्हारे आग्रह करनेपर वे अनुपम तेजस्वी व्यास अवश्य ही अपने भाई के क्षेत्र में नियुक्त होकर (नियोग द्वारा) कल्याणकारी सन्तान उत्पन्न करेंगे॥१७॥ 

*तदिदं धर्मयुक्तं च हितं चैव कुलस्य नः॥२२॥ उक्तं भवत्या यच्छ्रेयस्तन्मह्यं रोचते भृशम्॥२३॥* 

- भीष्मजी बोले - तुमने जो बात कही है, वह #धर्मयुक्त तो है ही, हमारे कुल के लिये भी हितकर और कल्याणकारी है; इसलिये मुझे बहुत अच्छी लगी है'॥ २२-२३ ॥ 

🌺 महर्षि वेदव्यास का आगमन और उनकी नियोग करने में सम्मति 🌺 

भीष्म की सम्मति मिलने पर सत्यवती अपने पुत्र व्यास को वहाँ बुलाती है और उससे कहती है - 

*आनृशंस्याच्च यद् ब्रूयां तच्छ्रत्वा कर्तुमर्हसि। यवीयसस्तव भ्रातुर्भार्ये सुरसुतोपमे॥३७॥ रूपयौवनसम्पन्ने पुत्रकामे च #धर्मतः। तयोरुत्पादयापत्यं समर्थो ह्यसि पुत्रक॥३८॥ अनुरूपं कुलस्यास्य संतत्याः प्रसवस्य च॥३९॥* 

- सत्यवती व्यास को कहती है - अपने अन्तःकरण की कोमल वृत्ति को देखते हुए मैं जो कुछ कहूँ, उसे सुनकर उसका पालन करो। तुम्हारे छोटे भाई की पत्नियाँ देवकन्याओं के समान सुन्दर रूप तथा युवावस्था से सम्पन्न हैं। उनके मन में #धर्मतः पुत्र पाने की कामना है। पुत्र! तुम इसके लिये समर्थ हो, अत: उन दोनों के #गर्भ से ऐसी संतान को जन्म दो, जो इस कुलपरम्परा की रक्षा तथा वृद्धि के लिये सर्वथा सुयोग्य हों॥३७-३९॥ 

*इप्सितं ते करिष्यामि दृष्टं ह्येतत् सनातनम्। भ्रातुः पुत्रान् प्रदास्यामि मित्रावरुणयोः समान्॥ ४१॥* 

- व्यासजी ने कहा - माता सत्यवती ! मैं आपकी इच्छा के अनुरूप कार्य करूँगा। यह #सनातन_मार्ग शास्त्रों में देखा गया है। मैं अपने भाई के लिये मित्र और वरुण के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करूँगा॥४१॥ 

(फिर व्यास आगे कहते हैं की पुत्र-प्राप्ति के लिए विचित्रवीर्य की स्त्रियों को मेरे बताए अनुसार एक वर्ष तक विधिपूर्वक व्रत का पालन करना होगा। परंतु सत्यवती उसे शीघ्र गर्भाधान के लिए कहती है -) 

*कथं चाराजकं राष्ट्रं शक्यं धारयितुं प्रभो। तस्माद् गर्भं समाधत्स्व भीष्मः संवर्धयिष्यति॥ ४५॥* 

- प्रभो! तुम्हीं सोचो, बिना राजा का राज्य कैसे सुरक्षित और अनुशासित रह सकता है। इसलिये शीघ्र #गर्भाधान करो। भीष्म बालक को पाल-पोसकर बड़ा कर लेंगे॥ ४५ ॥ 

*यदि पुत्रः प्रदातव्यो मया भ्रातुरकालिकः। विरूपतां मे सहतां तयोरेतत् परं व्रतम्॥४६॥* 

- व्यासजी बोले - माँ! यदि मुझे समय का नियम न रखकर शीघ्र ही अपने भाई के लिये पुत्र प्रदान करना है, तो उन देवियों के लिये यह उत्तम व्रत आवश्यक है कि वे मेरे असुन्दर रूप को देखकर शान्त रहें, डरें नहीं॥ ४६ ॥ 

*यदि मे सहते गन्धं रूपं वेषं तथा वपुः। अद्यैव गर्भं कौसल्या विशिष्टं प्रतिपद्यताम्॥४७॥* 

- यदि कौसल्या (अम्बिका) मेरे गन्ध, रूप, वेष और शरीर को सहन कर ले, तो वह आज ही एक उत्तम बालक को अपने गर्भ में पा सकती है॥४७॥ 

*एवमुक्त्वा महातेजा व्यासः सत्यवतीं तदा। शयने सा च कौसल्या शुचिवस्त्रा ह्यलंकृता॥ ४८॥*

*#समागमनम् आकाङ्क्षेदिति सोऽन्तर्हितो मुनिः। ततोऽभिगम्य सा देवी स्नुषां रहसि संगताम्॥४९॥* 

- महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ व्यासजी सत्यवती से फिर 'अच्छा तो कौसल्या (ऋतु-स्नानके पश्चात्) शुद्ध वस्त्र और #शृंगार धारण करके #शय्यापर #समागम की आकांक्षा करे' - यों कहकर अन्तर्धान हो गये अर्थात् वहां से चले गए। उसके बाद वहां से जाकर देवी सत्यवती अपनी पुत्रवधू अम्बिका से एकान्त में मिली। 

🌻अम्बिका की आपद्धर्म नियोग में सम्मति🌻 

*सा धर्मतोऽनुनीयैनां कथंचिद् धर्मचारिणीम्। भोजयामास विप्रांश्च देवर्षीनतिथींस्तथा॥५४॥* 

- कौसल्या (अम्बिका) धर्म का आचरण करनेवाली थी। सत्यवती ने धर्म को सामने रखकर ही उसे किसी प्रकार समझाकर इस कार्य के लिये तैयार किया। उसके बाद ब्राह्मणों, देवर्षियों तथा अतिथियों को भोजन कराया॥५४॥ 

आदिपर्व, अध्याय १०५, पृष्ठ ३२५-३२७ 

*ततः सत्यवती काले वधूं स्नातामृतौ तदा। संवेशयन्ती शयने शनैर्वचनमब्रवीत्॥१॥* 

- वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर सत्यवती ठीक समय पर अपनी ऋतुस्नाता पुत्रवधू को शय्या पर बैठाती हुई धीरे से बोली - ॥१॥ 

*कौसल्ये देवरस्तेऽस्ति सोऽद्य त्वानुप्रवेक्ष्यति। अप्रमत्ता प्रतीक्षैनं निशीथे ह्यागमिष्यति॥२॥* 

- 'कौसल्ये! तुम्हारे एक #देवर हैं, वे ही आज तुम्हारे पास #गर्भाधान के लिये आयेंगे। तुम सावधान होकर उनकी प्रतीक्षा करो। वे ठीक #आधी_रात के समय यहाँ पधारेंगे॥२॥ 

(व्यास कौसल्या के ज्येष्ठ/जेठ थे, परंतु फिर भी उनको सत्यवती द्वारा देवर कहा गया क्योंकि *देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते* - निरुक्त ३/१५ अर्थात् देवर दूसरे नियुक्त पति का नाम है।) 

*श्वश्र्वास्तद् वचनं श्रुत्वा शयाना शयने शुभे। साचिन्तयत् तदा भीष्ममन्यांश्च कुरुपुङ्गवान्॥३॥* 

- सास की यह बात सुनकर कौसल्या पवित्र #शय्यापर शयन करके उस समय मन-ही-मन भीष्म तथा अन्य श्रेष्ठ कुरुवंशियों का चिन्तन करने लगी॥३॥ 

💐धृतराष्ट्र का नियोग द्वारा जन्म💐 

*ततोऽम्बिकायां प्रथमं #नियुक्तः सत्यवागृषिः । दीप्यमानेषु दीपेषु शरणं प्रविवेश ह ॥ ४ ॥* 

- उस समय #नियोगविधिके अनुसार सत्यवादी महर्षि व्यास ने अम्बिका के महल में (शरीर पर घी चुपड़े हुए, संयतचित्त, कुत्सित रूपमें) प्रवेश किया। उस समय बहुत-से दीपक वहाँ प्रकाशित हो रहे थे॥४॥ 

*तस्य कृष्णस्य कपिलां जटां दीप्ते च लोचने। बभ्रूणि चैव श्मश्रूणि दृष्ट्वा देवी न्यमीलयत्॥५॥* 

- व्यासजी के शरीर का रंग काला था, उनकी जटाएँ पिंगलवर्ण की और आँखें चमक रही थीं तथा दाढ़ी-मूंछ भूरे रंग की दिखायी देती थी। उन्हें देखकर देवी कौसल्या ने (भय के मारे) अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये॥५॥ 

*#सम्बभूव_तया_सार्धं मातुः प्रियचिकीर्षया। भयात् काशिसुता तं तु नाशक्नोदभिरवीक्षितुम्॥६॥* 

- माता का प्रिय करने की इच्छा से व्यासजी ने उसके साथ #समागम किया; परंतु काशिराज की कन्या भय के मारे उनकी ओर अच्छी तरह देख न सकी॥ ६॥ 

*ततो निष्क्रान्तमागम्य माता पुत्रमुवाच ह। अप्यस्या गुणवान् पुत्र राजपुत्रो भविष्यति॥७॥* 

- जब व्यासजी उसके महल से बाहर निकले, तब माता सत्यवती ने आकर उनसे पूछा- 'बेटा ! क्या अम्बिका के गर्भ से कोई गुणवान् राजकुमार उत्पन्न होगा?॥७॥ 

*निशम्य तद् वचो मातुर्व्यासः सत्यवतीसुतः। नागायुतसमप्राणो विद्वान् राजर्षिसत्तमः॥८॥* *महाभागो महावीर्यो महाबुद्धिर्भविष्यति। तस्य चापि शतं पुत्रा भविष्यन्ति महात्मनः॥९॥* 

- माता का यह वचन सुनकर सत्यवतीनन्दन व्यास बोले - माँ! वह दस हजार हाथियों के समान बलवान्, विद्वान्, राजर्षियों में श्रेष्ठ, परम सौभाग्यशाली, महापराक्रमी तथा अत्यन्त बुद्धिमान् होगा। उस महामना के भी सौ पुत्र होंगे॥८-९॥ 

*किं तु मातुः स वैगुण्यादन्ध एव भविष्यति। तस्य तद् वचनं श्रुत्वा माता पुत्रमथाब्रवीत्॥१०॥ नान्धः कुरूणां नृपतिरनुरूपस्तपोधन। ज्ञातिवंशस्य गोप्तारं पितॄणां वंशवर्धनम्॥११॥ द्वितीयं कुरुवंशस्य राजानं दातुमर्हसि।* 

- 'किंतु माता के दोष से वह बालक अन्धा ही होगा।' व्यास की यह बात सुनकर माता ने कहा - 'तपोधन! कुरु वंश का राजा अन्धा हो, यह उचित नहीं है। अत: कुरुवंश के लिये दूसरा राजा दो, जो जातिभाइयों तथा समस्त कुल का संरक्षक और पिता का वंश बढ़ानेवाला हो'॥ १०-११॥ 

*स तथेति प्रतिज्ञाय निश्चक्राम महायशाः॥१२॥* 

- महायशस्वी व्यासजी 'तथास्तु' कहकर वहाँ से निकल गये॥१२॥ 

💐पाण्डु का नियोग द्वारा जन्म💐 

*सापि कालेन कौसल्या सुषुवेऽन्धं तमात्मजम्। पुनरेव तु सा देवी परिभाष्य स्नुषां ततः॥१३॥ ऋषिमावाहयत् सत्या यथा पूर्वमरिंदम। ततस्तेनैव विधिना महर्षिस्तामपद्यत॥१४॥ अम्बालिकामथाभ्यागादृषिं दृष्ट्वा च सापि तम्। विवर्णा पाण्डुसंकाशा समपद्यत भारत॥१५॥* 

- प्रसव का समय आने पर कौसल्या ने उसी अन्धे पुत्र को जन्म दिया। जनमेजय! तत्पश्चात् देवी सत्यवती ने अपनी दूसरी पुत्रवधू को समझा-बुझाकर गर्भाधान के लिये तैयार किया और इसके लिये पूर्ववत् महर्षि व्यास का आवाहन किया। फिर महर्षि ने उसी (#नियोग की संयमपूर्ण) विधि से देवी अम्बालिका के साथ #समागम किया। भारत! महर्षि व्यास को देखकर वह भी कान्तिहीन तथा पाण्डुवर्ण की-सी हो गयी॥१३-१५॥ 

*तो भीतां पाण्डुसंकाशां विषण्णां प्रेक्ष्य भारत। व्यासः सत्यवतीपुत्र इदं वचनमब्रवीत्॥१६॥* 

- जनमेजय! उसे भयभीत, विषादग्रस्त तथा पाण्डु वर्णकी-सी देख सत्यवतीनन्दन व्यास ने यों कहा - ॥१६॥ 

*यस्मात् पाण्डुत्वमापन्ना विरूपं प्रेक्ष्य मामिह। तस्मादेष सुतस्ते वै पाण्डुरेव भविष्यति॥१७॥* 

- 'अम्बालिके! तुम मुझे विरूप देखकर पाण्डुवर्ण की सी हो गयी थीं, इसलिये तुम्हारा यह पुत्र पाण्डु रंग का ही होगा॥१७॥ 

*नाम चास्यैतदेवेह भविष्यति शुभानने। इत्युक्त्वा स निरक्रामद् भगवानृषिसत्तमः॥१८॥* 

- 'शुभानने! इस बालक का नाम भी संसार में 'पाण्डु' ही होगा।' ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् व्यास वहाँ से निकल गये॥१८॥ 

*ततो निष्क्रान्तमालोक्य सत्या पुत्रमथाब्रवीत्। शशंस स पुनर्मात्रे तस्य बालस्य पाण्डुताम्॥१९॥* 

- उस महल से निकलने पर सत्यवती ने अपने पुत्रसे उसके विषय में पूछा। तब व्यासजी ने माता से भी उस बालक के पाण्डुवर्ण होने की बात बता दी॥१९॥ 

*माता पुनरेवान्यमेकं पुत्रमयाचत। तथेति च महर्षिस्तां मातरं प्रत्यभाषत॥२०॥* 

- उसके बाद सत्यवती ने पुनः एक दूसरे पुत्र के लिए उनसे याचना की। महर्षि ने 'बहुत अच्छा ' कहकर माता की आज्ञा स्वीकार कर ली॥२०॥ 

*ततः कुमारं सा देवी प्राप्तकालमजीजनन्। पाण्डुं लक्षणसम्पन्नं दीप्यमानमिव श्रिया॥२१॥* 

- तदनन्तर देवी अम्बालिका ने समय आने पर एक पाण्डुवर्ण के पुत्र को जन्म दिया। वह अपनी दिव्य कान्ति से उद्भासित हो रहा था॥२१॥ 

*यस्य पुत्रा महेष्वासा जज्ञिरे पञ्च पाण्डवाः। ऋतुकाले ततो ज्येष्ठां वधूं तस्मै #न्ययोजयत्॥ २२॥* 

- यह वही बालक था, जिसके पुत्र महाधनुर्धारी पाँच पाण्डव हुए। इसके बाद ऋतुकाल आने पर सत्यवती ने अपनी बड़ी बहू अम्बिका को पुनः व्यासजी से मिलने के लिये #नियुक्त किया॥२२॥ 

*सा तु रूपं च गन्धं च महर्षेः प्रविचिन्त्य तम्। नाकरोद् वचनं देव्या भयात् सुरसुतोपमा॥२३॥* 

- परंतु देवकन्या के समान सुन्दरी अम्बिका ने महर्षि के उस कुत्सित रूप और गन्ध का चिन्तन करके भय के मारे देवी सत्यवती की आज्ञा नहीं मानी।॥२३॥ 

💐विदुर का नियोग द्वारा जन्म💐 

*ततः स्वैर्भूषणैर्दासीं भूषयित्वाप्सरोपमाम्। प्रेषयामास कृष्णाय ततः काशिपतेः सुता॥२४॥* 

- काशिराज की पुत्री अम्बिका ने अप्सरा के समान सुन्दरी अपनी एक दासी को अपने ही आभूषणों से विभूषित करके काले महर्षि व्यास के पास भेज दिया॥२४॥ 

*सा तमृषिमनुप्राप्तं प्रत्युद्गम्याभिवाद्य च। संविवेशाभ्यनुज्ञाता सत्कृत्योपचचार ह॥२५॥* 

- महर्षि के आनेपर उस दासी ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और उन्हें प्रणाम करके उनकी आज्ञा मिलने पर वह #शय्या पर बैठी और सत्कारपूर्वक उनकी सेवा-पूजा करने लगी॥२५॥ 

*#कामोपभोगेन रहस्तस्यां तुष्टिमगादृषिः। तया #सहोषितो राजन् महर्षिः संशितव्रतः॥२६॥*

*उत्तिष्ठन्नब्रवीदेनामभुजिष्या भविष्यसि। अयं च ते शुभे #गर्भः श्रेयानुदरमागतः। धर्मात्मा भविता लोके सर्वबुद्धिमतां वरः॥२७॥* 

- एकान्त में #कामोपभोग से उस पर महर्षि व्यास बहुत संतुष्ट हुए। राजन्! कठोर व्रत का पालन करनेवाले महर्षि जब उसके साथ सहोषित वा #सहवास करके उठे, तब इस प्रकार बोले - 'शुभे! अब तू दासी नहीं रहेगी। तेरे उदर में एक अत्यन्त श्रेष्ठ गर्भ/बालक आया है। वह लोक में धर्मात्मा तथा समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ होगा'॥२६-२७॥ 

*स जज्ञे विदुरो नाम कृष्णद्वैपायनात्मजः। धृतराष्ट्रस्य वै भ्राता पाण्डोश्चैव महात्मनः॥२८॥* 

- वही बालक विदुर हुआ, जो श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासका पुत्र था। एक पिता का होने के कारण वह राजा धृतराष्ट्र और महात्मा पाण्डु का भाई था॥२८॥ 

*एते विचित्रवीर्यस्य क्षेत्रे द्वैपायनादपि। जज्ञिरे देवगर्भाभाः कुरुवंशविवर्धनाः॥३२॥* 

- (इस प्रकार) विचित्रवीर्य के क्षेत्र में व्यासजी से ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो देवकुमारों के समान तेजस्वी और कुरुवंश की वृद्धि करनेवाले थे॥ ३२॥ 

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❓क्या नियोग में मैथुन/संभोग नहीं होता?❓ 

कुछ लोगों का मत है कि ऋषि व्यास ने तीनों स्त्रियों के साथ शारीरिक संबंध नहीं किया, परंतु मानसिक संकल्प से अथवा तपस्या के बल पर उन्हें पुत्र प्रदान किए। परंतु ऐसा कुछ भी संकेत श्लोकों में दिखाई नहीं देता है। इसके लिए निम्न प्रमाण और तर्क हैं - 

१. श्लोकों में स्पष्ट लिखा है कि व्यास ने #समागम अर्थात् शारीरिक संबंध वा सम्भोग किया - (सम्बभूव तया सार्धं - आदिपर्व १०५/६, समागमनम् आकाङ्क्षेत् - आदिपर्व १०४/४९) 

२. यदि महर्षि व्यास को तपस्या के बल पर पुत्र प्रदान करने होते, तो सीधा हाथ में ही दे देते, परंतु श्लोकों में उनके द्वारा स्त्रियों में गर्भाधान करने की बात लिखी है - (गर्भं समाधत्स्व - आदिपर्व १०४/४५) और गर्भाधान बिना रज और वीर्य के सम्पर्क के हो नहीं सकता, अतः महर्षि व्यास द्वारा वीर्यदान से ही स्त्रियों में गर्भाधान हुआ, जिसके कारण स्त्रियों का गर्भ रहा, और फिर उनसे पुत्र उत्पन्न हुए। 

३. आदिपर्व, श्लोक १०५/२६ में तो स्पष्ट ही महर्षि व्यास द्वारा एकान्त में कामोपभोग और सहवास करने का वर्णन है - (कामोपभोगेन रहस्तस्यां...तया सहोषितो..)। यहां कहीं तपस्या वा संकल्प द्वारा पुत्र देने की बात दिखाई नहीं देती। 

४. फिर स्त्रियों को एकान्त में आधी रात के समय शृंगार करके शय्या पर बुलाना, यह स्पष्ट संकेत कर रहा है कि महर्षि व्यास ने उन्हें समागम अर्थात् संभोग के लिए ही बुलाया था। यदि तपस्या से पुत्र देना होता, तो फिर एकान्त और रात्रि की कोई आवश्यकता नहीं थी। सबके सामने दिन में ही पुत्र दिया जा सकता था। 

५. माता सत्यवती ने स्त्रियों के ऋतुकाल के समय ही अपनी दोनों पुत्रवधू को महर्षि व्यास के पास भेजा था - (वधूं स्नातामृतौ - आदिपर्व १०५/१, ऋतुकाले ततो ज्येष्ठां वधूं - आदिपर्व १०५/२२)। यदि तपस्या से पुत्र देना होता, तो फिर ऋतुकाल में भेजने की क्या आवश्यकता थी? वह तो बिना ऋतुकाल के भी सीधा हाथ में दिया जा सकता था। यह सभी को विदित है कि ऋतुकाल की निन्दित रात्रियों को छोड़कर अन्य रात्रियों में ही समागम/सम्भोग द्वारा वीर्यदान करके गर्भाधान किया जाता है। 

६. व्यासजी ने वीर्यदान से सन्तान पैदा की, इस बात का समर्थन कुल्लूभट्टजी भी मनुस्मृति की टीका में करते हैं। ध्यानपूर्वक अवलोकन कीजिए। मनुस्मृति कहती है कि कहीं वीर्य की प्रधानता अर्थात् पिता से वर्णव्यवस्था होती है, कहीं क्षेत्र अर्थात् माता की प्रधानता से - 

*विशिष्टं कुत्रचिद् बीजं स्त्रीयोनिस्त्वेव कुत्रचित्। उभयं तु समं यत्र सा प्रसूतिः प्रशस्यते॥* - मनुस्मृति ९/३४ 

- कहीं बीज/वीर्य की प्रधानता होती है और कहीं क्षेत्र/रज की प्रधानता होती है। जहांँ ये दोनों समानभाव से उत्तम होते हैं, वह सन्तान प्रशस्त होती है। 

इस पर कुल्लूकभट्ट टीका करते हैं -

*विचित्रवीर्यक्षेत्रे क्षत्रियायां ब्राह्मणोत्पादिता अपि धृतराष्ट्रदयः क्षत्रियाः क्षेत्रिणः एव पुत्रा बभूवुः॥* - संलग्न पीडीएफ पृष्ठ ५६२-५६३ 

- विचित्रवीर्य के क्षेत्र अर्थात् अम्बिका, अम्बालिका और दासी में ब्राह्मण व्यास द्वारा उत्पादित हुये धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर खेतवाले विचित्रवीर्य के ही पुत्र हुए, यद्यपि बीज ब्राह्मण अर्थात् व्यासजी का था। परन्तु फिर भी उनमें क्षेत्र की प्रधानता थी, अतः क्षत्रिय बन गये। 

यहांँ पर बीज (वीर्य) और क्षेत्र (रज) का प्रकरण है। इससे सिद्ध है कि व्यास के वीर्यदान से उनकी उत्पत्ति हुई, परंतु क्षेत्र की प्रधानता से तीनों क्षत्रिय बने। उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार क्षेत्र वा खेत में बिना बीज डालें कृषि वा फसल नहीं हो सकती, उसी प्रकार स्त्री रूपी क्षेत्र में बिना वीर्य रूपी बीज के सन्तान होना असंभव है। 

८. नियोग में मैथुन द्वारा ही सन्तानोत्पत्ति की जाती है। इसके लिए एक मुख्य प्रमाण यह है कि जब सत्यवती कुल की सन्तान परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए भीष्म को इनसे नियोग करके उनके गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने के लिए कहती है - (तयोरुत्पादयापत्यं सन्तानाय कुलस्य नः - आदिपर्व १०३/१०, पृष्ठ ३२०), तब भीष्म अपने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत पर अटल रहते हुए सत्यवती को उत्तर देते हैं कि "मैं पुत्रोत्पादन के लिए इनसे कभी मैथुन/स्त्रीसहवास नहीं करूंगा।" - (नोपेयां जातु मैथुनम् - आदिपर्व १०३/१३, पृष्ठ ३२०) 

निष्कर्ष:- इस तरह महाभारत में नियोग-विधि से समागम अर्थात् शारीरिक संभोग वा मैथुन करके सन्तानोत्पत्ति सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त इस सम्पूर्ण प्रकरण में नियोग का वर्णन करने वाले  #नियुक्तः १०४/१७, #न्ययोजयत् १०५/२२ आदि शब्द स्पष्ट रूप से विद्यमान हैं। महाभारत, गीताप्रेस के पौराणिक भाष्यकार रामनारायणदत्त ने स्वयं इस भाष्य में स्थान-स्थान पर नियोग का वर्णन किया है, जिसे पाठक उपरोक्त वर्णन में और संलग्न चित्रों में देख सकते हैं। 

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❓नियोग में 'समागम' का अर्थ मैथुन अथवा आना?❓ 

प्रश्न - समागम शब्द में गम् धातु से सम और आ उपसर्गपूर्वक महर्षि व्यास का अम्बिका और अम्बालिका के समीप सम्यक् आगमन अर्थात् उसके कक्ष में आना अर्थ क्यों न किया जाए? 

उत्तर - परस्त्रीगमन में भी गम् धातु का ही प्रयोग है, परंतु यहां गमन का अर्थ परस्त्री से संभोग वा मैथुन ही ग्रहण किया जाता हैै, उसके पास जाना वा आना नहीं। "#सम्बभूव_तया_सार्धं - आदिपर्व १०५/६" में 'सार्धम्/साथ' उपपद होने से 'तया' में तृतीय विभक्ति के प्रयोग से यहां स्पष्ट ही है कि महर्षि व्यास ने उससे वा अम्बिका के साथ संभोग/मैथुन किया। यदि यहाँ अंबिका के समीप कक्ष में आने का अर्थ होता, तो 'तया सार्धं' के स्थान पर 'तस्य समीपं' वाक्य होकर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता। और महर्षि व्यास तो उसके कक्ष में आकर पहले ही उससे मिल चुके थे (आदिपर्व १०५/४), और तब उनके तपस्वी स्वरूप को देकर अम्बिका ने अपने दोनों नेत्र बंद कर लिए थे (आदिपर्व १०५/५), तत्पश्चात् ही महर्षि व्यास द्वारा उससे समागम करना स्पष्ट रूप से मैथुन करना ही है - (आदिपर्व १०५/६)। संस्कृत और हिंदी के विभिन्न शब्दकोशों में 'समागम' का अर्थ मैथुन किया गया है, साथ में शब्दकोशों के पीडीएफ लिंक भी संलग्न हैं - 

१. संस्कृत-हिंदी शब्दकोश, द्वारकाप्रसाद के अनुसार 'समागम' का अर्थ है - मैथुन करना, पृष्ठ ३७८

https://pdfbooks.ourhindi.com/download-hindi-sanskrit.../ 

२. संस्कृत-हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश, सूर्यकान्त के अनुसार 'समागम = सम + आगम' का अर्थ है - यौन संसर्ग, sexual intercourse, पृष्ठ ६२०

https://instapdf.in/sanskrit-hindi-dictionary/amp/ 

३. संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश, वामन शिवराम आप्टे के अनुसार 'समागम' का अर्थ है - "intercourse", पृष्ठ ५८७

https://epustakalay.com/.../48797-the-students-sanskrit.../ 

४. समागम एक प्रसिद्ध संस्कृत और हिंदी का शब्द है। पाठक गूगल में सर्च करके सरलता से इसके अर्थ को देख सकते हैं। प्रमाण के लिए एक लिंक नीचे है - 

http://www.maxgyan.com/.../%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0... 

५. महर्षि व्यास का अम्बिका और अम्बालिका के साथ समागम वा मैथुन करने के अतिरिक्त एकान्त में दासी के साथ #कामोपभोग सहित सहोषित वा #सहवास करने का अर्थ भी मैथुन करना ही है। उपरोक्त श्लोक "नोपेयां जातु मैथुनम् - आदिपर्व १०३/१३" में 'मैथुन' का अर्थ गीताप्रेस के भाष्यकार ने 'स्त्रीसहवास' किया है, जिससे पता लगता है कि यह दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। 










कुछ लोग कहते हैं कि नियोग पाप और पशुधर्म है; परन्तु भीष्म, सत्यवती और व्यास ने इन उपरोक्त और निम्न श्लोकों में नियोग द्वारा सन्तानोत्पत्ति को सनातन धर्म वा धर्मयुक्त बताया है -
*शान्तनोरपि संतानं यथा स्यादक्षयं भुवि। तत् ते धर्मं प्रवक्ष्यामि क्षात्रं राज्ञि सनातनम्॥२५॥* - महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १०३
- भीष्मजी कहते हैं - राजमाता ! महाराज शान्तनु की संतान परम्परा भी जिस उपाय से इस भूतल पर अक्षय बनी रहे, वह धर्मयुक्त उपाय मैं तुम्हें बतलाऊँगा। वह #सनातन_क्षत्रियधर्म है॥२५॥
*तदिदं #धर्मयुक्तं च हितं चैव कुलस्य नः॥२२॥ उक्तं भवत्या यच्छ्रेयस्तन्मह्यं रोचते भृशम्॥२३॥*
- महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १०४
- भीष्मजी सत्यवती को बोले - तुमने जो (व्यास को बुलाकर नियोग करवाने की) बात कही है, वह #धर्मयुक्त तो है ही, हमारे कुल के लिये भी हितकर और कल्याणकारी है; इसलिये मुझे बहुत अच्छी लगी है'॥ २२-२३ ॥
*रूपयौवनसम्पन्ने पुत्रकामे च #धर्मतः॥३८॥* - महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १०४
- सत्यवती व्यास को कहती है - तुम्हारे छोटे भाई की पत्नियाँ के मन में #धर्मतः पुत्र पाने की कामना है।
*इप्सितं ते करिष्यामि दृष्टं ह्येतत् सनातनम्। भ्रातुः पुत्रान् प्रदास्यामि मित्रावरुणयोः समान्॥ ४१॥* - महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १०४
- व्यासजी ने कहा - माता सत्यवती ! मैं आपकी इच्छा के अनुरूप कार्य करूँगा। यह #सनातन_मार्ग शास्त्रों में देखा गया है। मैं अपने भाई के लिये मित्र और वरुण के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करूँगा॥४१॥
👉 वेद में भी नियोग को पुरातन धर्म कहा गया
*इयं नारी पतिलोकं वृणाना नि पद्यत उप त्वा मर्त्य प्रेतम्। #धर्मं_पुराणमनुपालयन्ती तस्यै प्रजां द्रविणं चेह धेहि ॥* - अथर्ववेद १८/३/१
- (मर्त्य) हे मनुष्य! (इयं नारी) यह विधवा स्त्री (प्रेतम्) मरे हुए पति को छोड़कर (पुराणं धर्मम् अनुपालयन्ती) वेदोक्त पुरातन/सनातन धर्म को पालन करती हुई (पतिलोकं वृणाना) पतिसुख प्राप्ति वा सन्तान-प्राप्ति को इच्छा करती हुई (त्वा नि पद्यते) तेरे पास नियोग विधान से आती है, तू (तस्यै इह प्रजां धेहि) इसके लिए इस समय वा इस लोक में सन्तान उत्पादन कर (द्रविणं च धेहि) और द्रव्य-वीर्य को इसमें आधान कर अर्थात् गर्भाधान कर। - ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, स्वामी दयानन्द [संस्कृत भाष्य का हिंदी अनुवाद]
अथर्ववेद के भाष्यकार श्रीपाद दामोदर सातवलेकर इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं कि - "पति के मर जाने पर सन्तान की इच्छा करने वाली स्त्री धर्मानुकूल दूसरे पुरुष को पति बनाकर धन तथा सन्तान प्राप्ति करे। वह पुरुष भी उसे पत्नी बनाकर सन्तान एवं धन से उसका पालन-पोषण करे" ॥ १॥ - अथर्ववेद का सुबोध भाष्य, भाग ४, अष्टादश काण्ड पृष्ठ ३४, संलग्न पीडीएफ पृष्ठ ४५५
👉 मनुस्मृति में नियोग का अनुमोदन
कुछ लोग मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों को भी उद्धृत करके नियोग को पशुधर्म कहते हैं, परंतु नियोग यदि पशुधर्म होता, तो महाभारत में स्वयं महर्षि व्यास जैसे विद्वान् अम्बिका, अम्बालिका और दासी के साथ उपरोक्त नियोग न करते और न ही माता सत्यवती और पितामह भीष्म नियोग को धर्म कहकर उसका अनुमोदन करते।
इसके साथ मनुस्मृति में नियोग के विधानात्मक श्लोक [९/५६-६३] भी विद्यमान हैं, जिनमें से दो श्लोकों को महाभारत, गीताप्रेस में पौराणिक भाष्यकार पण्डित रामनारायणदत्त शास्त्री ने उपरोक्त आदिपर्व, अध्याय १०४, पीडीएफ पृष्ठ ३२१, जिसमें नियोग हेतु वेदव्यास को बुलाने का प्रसंग है, उसके श्लोक २ पर टिप्पणी करते हुए स्वयं उद्धृत किया है और नियोग को स्त्रियों का आपद्धर्म स्वीकार किया है। यदि नियोग पशुधर्म होता, तो फिर वह मनुस्मृति के नियोग विधान के श्लोकों को उद्धृत न करके, उसके खण्डन के श्लोक प्रमाण देता। नीचे सलंग्न महाभारत, गीताप्रेस की पीडीएफ में पाठक स्वयं पृष्ठ ३२१ पर भाष्यकार की टिप्पणी को देख सकते हैं।
नियोग को पशुधर्म कहने का प्रचार सबसे अधिक एक महिला शशिचंद्रा की खाल ओढ़े 'सत्यानाश प्रकाश' पुस्तक के धूर्त लेखक उपेंद्र कुमार ने किया है, जिसका उद्देश्य मात्र स्वामी दयानन्द पर असत्य आक्षेप करना ही नहीं है, सनातन धर्म के सभी नियोग करने वाले ऋषि-मुनि और देवों को अधर्मी सिद्ध करने का है, जिससे विश्वभर में सनातन धर्म की निंदा हो। वैदिक सनातन धर्म के अनुयायियों को ऐसे सनातन-धर्म विनाशक व्यक्तियों से सावधान रहने की आवश्यकता है। महाभारत के उपरोक्त प्रमाण से विद्वान् जनों को यह विदित हो गया होगा कि नियोग स्वामी दयानंद की कल्पना नहीं, परंतु सनातन धर्म का अभिन्न अंग है, जिसके अन्य अनेक प्रमाण आगे के लेखों द्वारा दिए जाएंगे।
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👉 नियोग और हलाला में अन्तर 👈
जब कोई तलाकशुदा महिला अपने पति से दोबारा शादी करना चाहती है, तो उसे एक अजनबी/अनजान के साथ शादी करके कम से कम एक रात उसके साथ गुजारनी पड़ती है, यौनसंबंध बनाना पड़ता है। इसमें हमविस्तर होना जरूरी है। इसे ही हलाला कहते हैं। इस प्रकार यह महिला पर पहले पति को प्राप्त करने के लिए एक प्रकार से अन्याय-युक्त अनिवार्यता ही है, जिसे अनेक मौलवी अपनी हवस की पूर्ति के लिए प्रयोग करते हैं। इस कारण से इस प्रथा को अनेक मुस्लिम देशों ने ही समाप्त कर दिया गया है।
नियोग मात्र नियुक्त पति की प्राप्ति के लिए नहीं, परंतु आपातकाल वा सन्तानाभाव में सन्तानोत्पत्ति के लिए है, परंतु इसमें स्त्री के ऊपर कोई भी अन्याय-युक्त अनिवार्यता नहीं है। यह स्त्री की अपनी इच्छा पर निर्भर है कि वह अन्य नियुक्त पति से नियोग करे वा न करे। महाभारत में अम्बिका, अम्बालिका, दासी, कुन्ती और माद्री ने अपनी स्वेच्छा से अपने लिए सन्तान-प्राप्ति के लिए नियोग किया था। कुन्ती ने स्वयं मन्त्र का प्रयोग करके देवताओं का आवाहन किया था और माद्री ने तो स्वयं पाण्डु को कुन्ती से मन्त्रप्रदान करवाने के लिए कहा था कि जिससे वह भी कुन्ती की तरह उत्तम सन्तान को प्राप्त कर सके। आज के समय में विश्व में और भारत में निस्सन्तान दम्पति द्वारा वीर्य-बैंक से वीर्य लेकर और किराए की मां (सरोगेट मदर) द्वारा सन्तान की प्राप्ति करना, इसी नियोग प्रथा का ही एक रूपान्तर है, जिसे समाज का कोई भी वर्ग हीन दृष्टि से नहीं देखता है।
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🌺 महाभारत आदि के पीडीएफ 🌺
यह उपरोक्त वेदव्यास द्वारा नियोग के समस्त प्रमाण गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित महाभारत के प्रथम खण्ड, आदिपर्व, अध्याय १०३-१०५ से लिये गये हैं और उसकी पीडीएफ निम्न लिंक से डाउनलोड की जा सकती है -
अथवा
अथवा
साथ ही प्रमाण के लिए इसी पुस्तक से इस कथा के चित्र भी संलग्न कर दिए गए हैं।
अथर्ववेद का सुबोध भाष्य, भाग ४ - श्रीपाद दामोदर सातवलेकर; इसमें विधवा स्त्री को द्वितीय पति से सन्तान की प्राप्ति के लिए उपरोक्त अथर्ववेद १८/३/१ के मन्त्र का भाष्य, अष्टादश काण्ड पृष्ठ ३४, पीडीएफ पृष्ठ ४५५ पर है। इसका चित्र भी संलग्न है -
मनुस्मृति के उपरोक्त श्लोक ९/३४ पर कुल्लूक भट्ट के उपरोक्त भाष्य को देखने के लिए पीडीएफ मनुस्मृति, भाग २; यह श्लोक पृष्ठ ५६२-५६३ पर देखें -
🔥 कृपया सत्य के प्रचार के लिए लेख को साझा करें। सभी को नमस्ते! धन्यवाद!🙏

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