सम्बुक वध और मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम - ধর্ম্মতত্ত্ব

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20 April, 2022

सम्बुक वध और मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम

सम्बुक वध और मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम

                             मर्यादापुरुषोतम श्री रामचंद्र जी महाराज के जीवन को सदियों से आदर्श और पवित्र माना जाता हैं। कुछ विधर्मी और नास्तिकों द्वारा श्री रामचन्द्र जी महाराज पर शम्बूक नामक एक शुद्र का हत्यारा होने का आक्षेप लगाया जाता हैं।

                         सत्य वही हैं जो तर्क शास्त्र की कसौटी पर खरा उतरे। हम यहाँ तर्कों से शम्बूक वध की कथा की परीक्षा करके यह निर्धारित करेंगे की सत्य क्या हैं।

सर्वप्रथम शम्बूक कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में मिलता हैं।

शम्बूक वध की कथा इस प्रकार हैं-

                      एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता बेटा मर गया। उस ब्राह्मण ने लड़के के शव को लाकर राज द्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा। उसका आरोप था की बालक की अकाल मृत्यु का कारण राज का कोई दुष्कृत्य हैं। ऋषि- मुनियों की परिषद ने इस पर विचार करके निर्णय दिया की राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा हैं। रामचंद्र जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलाया। नारद जी ने उस सभा में कहा- राजन! द्वापर में भी शुद्र का तप में प्रवृत होना महान अधर्म हैं (फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवृत होने का प्रश्न ही नहीं उठता?)। निश्चय ही आपके राज्य की सीमा में कोई खोटी बुद्धि वाला शुद्र तपस्या कर रहा हैं। उसी के कारण बालक की मृत्यु हुई हैं। अत: आप अपने राज्य में खोज कीजिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यत्न कीजिये। यह सुनते ही रामचन्द्र जी पुष्पक विमान पर सवार होकर शम्बूक की खोज में निकल पड़े और दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उलटा लटक कर तपस्या कर रहा था।

                          उसे देखकर श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले- “उत्तम तप का पालन करते हुए तापस! तुम धन्य हो। तपस्या में बड़े- चढ़े , सुदृढ़ पराक्रमी पुरुष! तुम किस जाति में उत्पन्न हुए हो? मैं दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए ये बातें पूछ रहा हूँ। तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा हैं? तपस्या द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौन सा वर पाना चाहते हो- स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु? कौन सा ऐसा पदार्थ हैं जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो जो दूसरों के लिए दुर्लभ हैं?

                     तापस! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। इसके सिवा यह भी बताओ की तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो?”

कलेश रहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ वह तपस्वी बोला – हे श्री राम ! मैं झूठ नहीं बोलूँगा। देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ। मुझे शुद्र जानिए। मेरा नाम शम्बूक हैं।

वह इस प्रकार कह ही रहा था की रामचन्द्र जी ने म्यान से चमचमाती तलवार निकाली और उसका सर काटकर फेंक दिया।

शम्बूक वध की कथा की तर्क से परीक्षा

इस कथा को पढ़कर मन में यह प्रश्न उठता हैं की

क्या किसी भी शुद्र के लिए तपस्या धर्म शास्त्रों में वर्जित हैं?

क्या किसी शुद्र के तपस्या करने से किसी ब्राह्मण के बालक की मृत्यु हो सकती हैं?

क्या श्री रामचन्द्र जी महाराज शूद्रों से भेदभाव करते थे?

इस प्रश्न का उत्तर वेद, रामायण ,महाभारत और उपनिषदों में अत्यंत प्रेरणा दायक रूप से दिया गया हैं।

वेदों में शूद्रों के विषय में कथन

1. तपसे शुद्रम- यजुर्वेद 30/5

अर्थात- बहुत परिश्रमी ,कठिन कार्य करने वाला ,साहसी और परम उद्योगों अर्थात तप को करने वाले आदि

पुरुष का नाम शुद्र हैं।

2. नमो निशादेभ्य – यजुर्वेद 16/27

अर्थात- शिल्प-कारीगरी विद्या से युक्त जो परिश्रमी जन (शुद्र/निषाद) हैं उनको नमस्कार अर्थात उनका सत्कार करे।

3. वारिवस्कृतायौषधिनाम पतये नमो- यजुर्वेद 16/19

अर्थात- वारिवस्कृताय अर्थात सेवन करने हारे भृत्य का (नम) सत्कार करो।

4. रुचं शुद्रेषु- यजुर्वेद 18/48

अर्थात- जैसे ईश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करता हैं वैसे ही विद्वान लोग भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करे।

5. पञ्च जना मम – ऋग्वेद

अर्थात पांचों के मनुष्य (ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं अतिशूद्र निषाद) मेरे यज्ञ को प्रीतिपूर्वक सेवें। पृथ्वी पर जितने मनुष्य हैं वे सब ही यज्ञ करें।

इसी प्रकार के अनेक प्रमाण शुद्र के तप करने के, सत्कार करने के, यज्ञ करने के वेदों में मिलते हैं।

वाल्मीकि रामायण से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण

मुनि वाल्मीकि जी कहते हैं की इस रामायण के पढ़ने से (स्वाध्याय से) ब्राह्मण बड़ा सुवक्ता ऋषि होगा, क्षत्रिय भूपति होगा, वैश्य अच्छा लाभ प्राप्त करेगा और शुद्र महान होगा। रामायण में चारों वर्णों के समान अधिकार देखते हैं देखते हैं। -सन्दर्भ- प्रथम अध्याय अंतिम श्लोक

इसके अतिरिक्त अयोध्या कांड अध्याय 63 श्लोक 50-51 तथा अध्याय 64 श्लोक 32-33 में रामायण को श्रवण करने का वैश्यों और शूद्रों दोनों के समान अधिकार का वर्णन हैं।

महाभारत से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण

श्री कृष्ण जी कहते हैं -

हे पार्थ ! जो पापयोनि स्त्रिया , वैश्य और शुद्र हैं यह भी मेरी उपासना कर परमगति को प्राप्त होते हैं। गीता 9/32

उपनिषद से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण

यह शुद्र वर्ण पूषण अर्थात पोषण करने वाला हैं और साक्षात् इस पृथ्वी के समान हैं क्योंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण -पोषण करती हैं वैसे शुद्र भी सबका भरण-पोषण करता हैं। सन्दर्भ- बृहदारण्यक उपनिषद् 1/4/13

व्यक्ति गुणों से शुद्र अथवा ब्राह्मण होता हैं नाकि जन्म गृह से।

                        सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्रुमत मुनि के पास शिक्षार्थी होकर पहुँचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा। उन्होंने उत्तर दिया था की युवावस्था में मैं अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही। उसी समय तेरा जन्म हुआ, इसलिए मैं नहीं जानती की तेरा गोत्र क्या हैं। मेरा नाम सत्यकाम हैं। इस पर मुनि ने कहा- जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कर सकता। सन्दर्भ- छान्दोग्य उपनिषद् 3/4

महाभारत में यक्ष -युधिष्ठिर संवाद 313/108-109 में युधिष्ठिर के अनुसार व्यक्ति कूल, स्वाध्याय व ज्ञान से द्विज नहीं बनता अपितु केवल आचरण से बनता हैं।

कर्ण ने सूत पुत्र होने के कारण स्वयंवर में अयोग्य ठहराये जाने पर कहा था- जन्म देना तो ईश्वर अधीन हैं, परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ का कुछ बन जाना मनुष्य के वश में हैं।

आपस्तम्ब धर्म सूत्र 2/5/11/10-11 – जिस प्रकार धर्म आचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता हैं जिसके वह योग्य हो। इसी प्रकार अधर्म आचरण से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे वर्ण को प्राप्त होता हैं।

जो शुद्र कूल में उत्पन्न होके ब्राह्मण के गुण -कर्म- स्वभाव वाला हो वह ब्राह्मण बन जाता हैं उसी प्रकार ब्राह्मण कूल में उत्पन्न होकर भी जिसके गुण-कर्म-स्वाभाव शुद्र के सदृश हों वह शुद्र हो जाता हैं- मनु 10/65

चारों वेदों का विद्वान , किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से निकृष्ट होता हैं, अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता हैं- महाभारत वन पर्व 313/111

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं। महाभारत अनुगीता पर्व 91/37

सत्य, दान, क्षमा, शील अनृशंसता, तप और दया जिसमें हो वह ब्राह्मण हैं और जिसमें यह न हों वह शुद्र होता हैं। वन पर्व 180/21-26

श्री रामचन्द्र जी महाराज का चरित्र

वाल्मीकि रामायण में श्री राम चन्द्र जी महाराज द्वारा वनवास काल में निषाद राज द्वारा लाये गए भोजन को ग्रहण करना (बाल कांड 1/37-40) एवं शबर (कोल/भील) जाति की शबरी से बेर खाना (अरण्यक कांड 74/7) यह सिद्ध करता हैं की शुद्र वर्ण से उस काल में कोई भेद भाव नहीं करता था।

श्री रामचंद्र जी महाराज वन में शबरी से मिलने गए। शबरी के विषय में वाल्मीकि मुनि लिखते हैं की वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्वनी थी। अरण्यक 74/10

इससे यह सिद्ध होता हैं की शुद्र को रामायण काल में तपस्या करने पर किसी भी प्रकार की कोई रोक नहीं थी।

नारद मुनि वाल्मीकि रामायण (बाल कांड 1/16) में लिखते हैं राम श्रेष्ठ, सब के साथ समान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय दृष्टि वाले हैं।

अब पाठक गन स्वयं विचार करे की श्री राम जी कैसे तपस्या में लीन किसी शुद्र कूल में 

उत्पन्न हुए शम्बूक की हत्या कैसे कर सकते हैं?

जब वेद , रामायण, महाभारत, उपनिषद्, गीता आदि सभी धर्म शास्त्र शुद्र को तपस्या करने, विद्या ग्रहण से एवं आचरण से ब्राह्मण बनने, समान व्यवहार करने का सन्देश देते हैं तो यह वेद विरोधी कथन तर्क शास्त्र की कसौटी पर असत्य सिद्ध होता हैं।

नारद मुनि का कथन के द्वापर युग में शुद्र का तप करना वर्जित हैं असत्य कथन मात्र हैं।

श्री राम का पुष्पक विमान लेकर शम्बूक को खोजना एक और असत्य कथन हैं क्योंकि पुष्पक विमान तो श्री राम जी ने अयोध्या वापिस आते ही उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था-सन्दर्भ- युद्ध कांड 127/62

                     जिस प्रकार किसी भी कर्म को करने से कर्म करने वाले व्यक्ति को ही उसका फल मिलता हैं उसी किसी भी व्यक्ति के तप करने से उस तप का फल उस तप कप करने वाले dव्यक्ति मात्र को मिलेगा इसलिए यह कथन की शम्बूक के तप से ब्राह्मण पुत्र का देहांत हो गया असत्य कथन मात्र हैं।

                            सत्य यह हैं की मध्य काल में जब वेद विद्या का लोप होने लगा था, उस काल में ब्राह्मण व्यक्ति अपने गुणों से नहीं अपितु अपने जन्म से समझा जाने लगा था, उस काल में जब शुद्र को नीचा समझा जाने लगा था, उस काल में जब नारी को नरक का द्वार समझा जाने लगा था, उस काल में मनु स्मृति में भी वेद विरोधी और जातिवाद का पोषण करने वाले श्लोकों को मिला दिया गया था, उस काल में वाल्मीकि रामायण में भी अशुद्ध पाठ को मिला दिया गया था जिसका नाम उत्तर कांड हैं।

                            इस प्रकार के असत्य के प्रचार से न केवल अवैदिक विचाधारा को बढ़ावा मिला अपितु श्री राम को जाति विरोधी कहकर कुछ अज्ञानी लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए हिन्दू जाति की बड़ी संख्या को विधर्मी अथवा नास्तिक बनाने में सफल हुए हैं।

                            इसलिए सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग में सदा तत्पर रहते हुए हमें श्री रामचंद्र जी महाराज के प्रति जो अन्याय करने का विष वमन किया जाता हैं उसका प्रतिकार करना चाहिए तभी राम राज्य को सार्थक और सिद्ध किया जा सकेगा।

✍🏽डॉ_विवेक_आर्य 


लेखक – स्वामी विद्यानंद सरस्वती
एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता लड़का मर गया । उस ब्राह्मण के लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा । उसका आरोप था कि अकाल मृत्यु का कारण राजा का कोई दुष्कृत्य है । ऋषी मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय किया कि राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा है क्योंकि :- राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजावर्ग को विपत्तियों का सामना करना पड़ता है । राजा के दुराचारी होने पर ही प्रजा में अकाल मृत्यु होती है । रामचन्द्र जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलवाया । उनके अतिरिक्त वसिष्ठ नामदेव मार्कण्डेय गौतम नारद और उनके तीनों भाइयों को भी बुलाया । ७३/१ तब नारद ने कहा : राजन ! द्वापर में शुद्र का तप में प्रवृत्त होना महान अधर्म है ( फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवृत्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ) निश्चय ही आपके राज्य की सीमा पर कोई खोटी बुध्दी वाला शुद्र तपस्या कर रहा है। उसी के कारन बालक की मृत्यु हुयी है। अतः आप अपने राज्य में खोज करिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यत्न कीजिये । ७४/८ -२८,२९ , ३२ यह सुनते ही रामचन्द्र पुष्पक विमान पर सवार होकर ( वह तो अयोध्या लौटते ही उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था – युद्ध -१२७/६२ ) शम्बूक की खोज में निकल पड़े (७५/५ ) और दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया देखकर राजा श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले – “उत्तम तप का पालन करने वाले तापस ! तुम धन्य हो । तपस्या में बड़े चढ़े सुदृढ़ पराक्रमी परुष तुम किस जाती में उत्पन्न हुए हो ? में दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए ये बातें पूछ रहा हूँ । तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा है ? तपस्या द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौनसा वर पाना चाहते हो – स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु ? कौनसा ऐसा पदार्थ है जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो जो दूसरों के लिए दुर्लभ है। ७५-१४-१८ तापस ! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो उसे में सुनना चाहता हूँ ।

इसके सिवा यह भी बताओ कि तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय ? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो ? क्लेशरहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ तपस्वी बोला – हे श्रीराम ! में झूठ नहीं बोलूंगा देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ ! मुझे शुद्र ही जानिए मेरा नाम शम्बूक है ७६,१-२ वह इस प्रकार कह ही रहा था कि रामचंद्र जी ने तलवार निकली और उसका सर काटकर फेंक दिया ७६/४ | शाश्त्रीय व्यवस्था है – न ही सत्यातपरो धर्म : नानृतातपातकम् परम ” एतदनुसार मौत के साये में भी असत्य भाषण न करने वाला शम्बूक धार्मिक पुरुष था। सत्य वाक् होने के महत्व को दर्शाने वाली एक कथा छान्दोग्य उपनिषद में इस प्रकार लिखी है – सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्र मुनिके पास शिक्षार्थी होकर पहुंचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा । उसने कहा कि में नहीं जनता मेरा गोत्र क्या है मेने अपनी माता से पूछा था । उन्होंने उत्तर दिया था कि युवावस्था में अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही । उसी समय तेरा जन्म हुआ इसलिए में नहीं जानती कि तेरा गोत्र क्या है । मेरा नाम सतीकाम है। इस पर मुनि ने कहा – जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कह सकता। वह शुद्र और इस कारण मृत्युदंड का अपराधी कैसे हो सकता था ? शम्बूक में आचरण सम्बन्धी कोई दोष नहीं बताया गया इसलिए वह द्विज ही था। काठक संहिता में लिखा है – ब्राह्मण के विषय में यह क्यों पूछते हो कि उसके माता पिता कौन हैं यदि उसमें ज्ञान और तदनुसार आचरण है तो वे ही उसके बाप दादा हैं। करण ने सूतपुत्र होने के कारन स्वयंवर में अयोग्य ठहराए जाने पर कहा था कि जन्म देना तो ईश्वराधीन है परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ बन जाना मनुष्य के अपने वश में है। आयस्तम्ब सूत्र में कहा है – धर्माचरण से न्रिकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है जिसके वह योग्य हो। इसी प्रकार अधर्माचरण से पूर्व अर्थात उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे नीचे वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है। मनुस्मृति में कहा है – जो शूद्रकुल में उप्तन्न होक ब्राह्मण के गुण कर्म स्वभाववाला हो वह ब्राह्मण बन जाता है। इसी प्रकार ब्राह्मण कुलोत्पन्न होकर भी जिसके गुण कर्म स्वभाव शुद्र के सदृश्य हों वह शुद्र हो जाता है मनु १०/६५ चारों वेदों का विद्वान किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से न्रिकृष्ट होता है , अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता है । महाभारत – अनुगीता पर्व ९१/३७ ) ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं ब्राह्मण और शुद्र का लक्षण करते हुए वन पर्व में कहा है – सत्य दान क्षमा शील अनुशंसता तप और दया जिसमे हों ब्राह्मण होता है और जिसमें ये न हों शुद्र कहलाता है। १८०/२१-२६ इन प्रमाणो से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था का आधार गुण कर्म स्वाभाव है जन्म नहीं और तपस्या करने का अधिकार सबको प्राप्त है। गीता में कहते हैं – ज्ञानी जन विद्या और विनय से भरपूर ब्राह्मण गौ हाथी कुत्ते और चंडाल सबको समान भाव से देखते अर्थात सबके प्रति एक जैसा व्यवहार करते हैं । गीता ५/१८ महर्षि वाल्मीकि को रामचन्द्र जी का परिचय देते हुए नारद जी ने बताया – राम श्रेष्ठ सबके साथ सामान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय दृष्टिवाले थे । तब वह तपस्या जैसे शुभकार्य में प्रवृत्त शम्बूक की शुद्र कुल में जन्म लेने के कारन हत्या कैसे कर सकते थे ? (बाल कांड १/१६ ) इतना ही नहीं श्री कृष्ण ने कहा ९/१२- ,मेरी शरण में आकर स्त्रियाँ वैश्य शुद्र अन्यतः अन्त्यज आदि पापयोनि तक सभी परम गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करत हें ।

इस श्लोक पर टिप्पणी करते हुये लोकमान्य तिलक स्वरचित गीता रहस्य में लिखत हैं “पाप योनि ” शब्द से वह जाती विवक्षित जिसे आजकल जरायस पेशा कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि इस जाती के लोग भी भगवद भक्ति से सिध्दि प्राप्त करते हैं । पौराणिक लोग शबरी को निम्न जाती की स्त्री मानते हैं । तुलसी दास जी ने तो अपनी रामायण में यहाँ तक लिख दिया – श्वपच शबर खल यवन जड़ पामरकोलकिरात “. उसी शबरी के प्रसंग में वाल्मीकि जी ने लिखा है – वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्विनी थी | अरण्य ७४/१० तब राम तपस्या करने के कारण शम्बूक को पापी तथा इस कारण प्राणदण्ड का अपराधी कैसे मान सकते थे ? राम पर यह मिथ्या आऱोप महर्षि वाल्मीकि ने नहीं उत्तरकाण्ड की रचना करके वाल्मीकि रामायण में उसका प्रक्षेप करने वाले ने लगाया है । शायद मर्यादा पुरुषोत्तम के तथोक्त कुकृत्य से भ्रमित होकर ही आदि शंकराचार्य ने शूद्रों के लिए वेद के अध्यन श्रवणादि का निषेध करते हुए वेद मन्त्रों को श्रवण करने वाले शूद्रों के कानो में सीसा भरने पाठ करने वालों की जिव्हा काट डालने और स्मरण करने वालों के शरीर के टुकड़े कर देने का विधान किया । कालांतर में शंकर का अनुकरण करने वाले रामानुचार्य निम्बाकाचार्य आदि ने इस व्यवस्था का अनुमोदन किया । इन्ही से प्रेरणा पाकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में आदेश दिया – पुजिये विप्र शीलगुणहीना, शुद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीना। अरण्य ४०/१ ढोर गंवार शुद्र पशु नारी , ये सब ताडन के अधिकारी। लंका ६१/३ परन्तु यह इन आचार्यों की निकृष्ट अवैदिक विचारधारा का परिचायक है । आर्ष साहित्य में कहीं भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता । परन्तु इन अज्ञानियों के इन दुष्कृत्यों का ही यह परिणाम है कि करोड़ों आर्य स्वधर्म का परित्याग करके विधर्मियों की गोद में चले गए ।

स्वयं शंकर की जन्मभूमि कालड़ी में ही नहीं सम्पूर्ण केरल में बड़ी संख्या में हिन्दू लोग ईसाई और मुसलमान हो गये और अखिल भारतीय स्थर पर देश के विभाजन का कारन बन गए और यदि शम्बूक का तपस्या करना पापकर्म था तो उसका फल = दण्ड उसी को मिलना चाहिए था । परन्तु यहाँ अपराध तो किया शम्बूक ने और उसके फल स्वरुप मृत्यु दण्ड मिला ब्राह्मण पुत्र को और इकलौते बेटे की मृत्यु से उत्पन्न शोक में ग्रस्त हुआ उसका पिता। वर्तमान में इस घटना के कारण राम पर शूद्रों पर अत्याचार करने और सीता वनवास के कारण स्त्री जाति पर ही नहीं, निर्दोषों के प्रति अन्याय करने के लांछन लगाये जा रहे हैं । कौन रहना चाहेगा ऐसे रामराज्य में ?

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