देवी और देवताओं का यथार्थ - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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20 April, 2022

देवी और देवताओं का यथार्थ

 नमस्ते मित्रों!

*दिवु- क्रीडा-विजिगीषा-व्यवहार-द्युति-मोद-मद-स्वप्न-कान्ति-गतिषु* (दिवादि गण) धातु से *"पचाद्यच्"* से *"अच्"* प्रत्यय अथवा *दिवु-मर्दने* (चुरादिगण) या *दिवु-परिकूजने* (चुरादिगण) धातु से *"अच्"* प्रत्यय के भाग से *"देव"* शब्द सिद्ध होता है।
*दिव्+अच्= देव्+अ =देव +सु= देवः।*
*निरुक्त* में 'देव' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार दी है :-
*देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा।* (7.4.15) अर्थात् *दान देने वाले, प्रकाशित करने वाले , प्रकाशित होने वाले या द्युस्थानीय को देवता कहते हैं।*
देवता दो प्रकार के होते हैं जड़ और चेतन।
जड़ देव उपयोग के योग्य होते हैं।चेतन देव (विद्वान, माता, पिता, आदि ) आदि सत्कार और सेवा के द्वारा प्रसन्न करने योग्य होते हैं। परंतु उपासना के योग्य केवल एक परमात्मा ही है।यदि कहीं अग्नि, इन्द्र , वरुण आदि नामों से देवताओ की स्तुति का वर्णन मिलता है तो वहाँ भी उनके माध्यम से परमात्मा की स्तुति ही अभिप्रेत है।
इसमें वेद का प्रमाण है :-
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद् वायुस्तदु चन्द्रमा।
तदेव शुक्रं तद्ब्रह्मं ता आपः स प्रजापतिः।
- (यजुर्वेद 32.1)
वह परमात्मा ही अग्नि, आदित्य, शुक्र आदि है।
सूर्य द्युस्थानीय है और अपने प्रकाश से यब मूर्तिमान् द्रव्यों को प्रकाशित करता है अतः देव या देवता है।
इसके अतिरिक्त दिव्यगुण व दिव्य कर्म वाले को व्यक्ति भी देवता कहाते हैं।
*देव+तल्= देवत+टाप्= देवता।*
विद्वांसो ही देवः। शतपथ 3.7.6.10)
अर्थात् विद्वान् मनुष्यों को देव कहते हैं।
इसी प्रकार विद्याओं से प्रकाशित और विद्याओ का दान देने वाले , दिव्य गुण एवं उत्तम आचरण वाले विद्वानों को देव कहा जाता है।
यथा:- मातृ देवो भव, पितृ देवो भव , आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव, (प्रपाठक 7.11)
शतपथ में आता है कि
*"द्वयं वाsइदं न तृतीयमस्ति सत्यं चैवानृतं च।सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः 'इदमहमनृतात् सत्यमुपैमीति' तन्मनुष्येभ्य देवानुपैति।*
" दो लक्षणों से मनुष्य की दो संज्ञायें होती हैं। अर्थात् देव और मनुष्य। वहाँ सत्य और झूठ दो कारण हैं।जो सत्य बोलने , सत्य मानने और सत्य कर्म करने वाले हौं वे *"देव"* और वैसे ही झूठ मानने और कर्म करने वाले *"मनुष्य"* कहाते हैं।

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