सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्प यत् ।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ||
ऋग्वेद १० | १६०/३
विधाता ने पहले कल्प जैसे सूर्य, चन्द्र, द्युलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्ष तथा उसमें फिरने वाले सब लोक-लोकान्तर बनाये ।
नव सम्वत् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है। इसी दिन से विक्रम सम्वत्, शक सम्वत्, युधिष्टिर सम्वत् आर्य समाज स्थापना सम्वत्, युग सम्वत्, मानव सृष्टि और वेद सम्वत् और सृष्टि रचना सम्वत् भी प्रारम्भ होता है। सृष्टिकाल को ब्रह्म दिन और प्रलयकाल को ब्रह्मरात्रि कहते हैं । ब्रह्मदिन ४ अरब ३२ करोड़ वर्ष का होता है और ब्रह्मरात्रि भी इतने ही समय की होती है। ब्रह्मदिन को एक हजार चतुर्युगियों में बाँटा गया है। सत्युग, त्रेता, द्वापर, कलियुग यह चारों युग मिलकर एक चतुर्युगी होती है।
सत्युग:--------- १७ लाख २८ हजार वर्ष का होता है। সত্যযুগ ১৭ লক্ষ ২৮ হাজার বছর
त्रेता:------------- १२ लाख १६ हजार वर्ष का होता है। ত্রেতাযুগ ১২ লক্ষ ১৬ হাজার বছর
द्वापर:------------ ८ लाख ६४ हजार वर्ष का होता है। দ্বাপরযুগ ৮ লক্ষ ৬৪ হাজার বছর
कलियुग:-------------- ४ लाख ३२ हजार वर्ष का होता है । কলিযুগ ৪ লক্ষ ৩২ হাজার বছর
एक चतुर्युगी में :--------------४३ लाख २० हजार वर्ष होते हैं । ১ চতুর্যুগী ৪৩ লক্ষ ২০ হাজার বছর
एक मनवन्तर :-------------- ७१ चतुर्युगियों का होता है। ১ মন্বন্তর ৭১ চতুর্যুগী নিয়ে গঠিত
१४ मनवन्तर की एक मानव सृष्टि होती है। ১৪ মন্বন্তরে এক মানবসৃষ্টি
मनवन्तरों के नाम-१-स्वायंभव, २ स्वरोचिप, ३-ओत्तमि ४- तामस, ५-रैवत, ६-चाक्षुष, ७- वैवस्वत, ८-स्वावणिक, १-दक्ष ८ सार्वाण, १०-ब्रह्म सार्वणि, ११-धर्म सार्वाणि, १२-सावर्णि, १३ रुचि, १४- भौम | १४ मनवन्तरों को ७१ चतुर्युगियों से गुणा करने पर ६१४ चतुर्युगियों में मानव रहता है। एक हजार चतुर्युगियों में स शेष ६ चतुर्युगियों में से तीन चतुर्युगियों का समय सृष्टि के प्रारम्भिक दिन से मानव सृष्टि होने के दिन तक सृष्टि रचना में लगता है, इसी प्रकार मानव की प्रलय के दिन से तीन चतुर्युगियों का समय शेष सृष्टि के सम्पूर्ण विलय होने में लगता है
प्रकृति का नियम है, जिस वस्तु के निर्माण में जितना समय लगता है उतना ही समय उसके नष्ट होने में लगता है। उसके प्रत्येक क्रम में व्यतिक्रम कभी नहीं होता । कुछ विद्वानों का मत है कि प्रत्येक मनवन्तर के पश्चात् सन्धिकाल आता है और कुछ का मत है प्रत्येक चतुर्युगी के पश्चात् भी सन्धिकाल आता है। कोई यह भी कह सकता है कि प्रत्येक युग के पश्चात् भी सन्धि काल आता है, तो क्या यह मानने योग्य बात होगी ? नहीं। विचारना होगा कि सन्धिकाल का क्या प्रयोजन है। हम नित्य प्रातः सायं प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं रात्रि की समाप्ति के पश्चात् ब्रह्ममुहूर्त की सन्धि वेला को जिसके पश्चात् उदित होता है प्रभात, इसी प्रकार दिन की समाप्ति पर सायंकाल की सन्धि वेला को जिसके पश्चात् रात्रि का आगमन होता है।
पौराणिक वन्धु त्रकाल सन्धि मानते हैं, वे मध्यान्ह को भी सन्धि मानते हैं जो प्रत्यक्ष में सन्धि नहीं, इसी कारण ऋषि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने त्रकाल सन्धि का निषेध कर
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