वेदों का विभाग - ধর্ম্মতত্ত্ব

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15 July, 2021

वेदों का विभाग

 ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।

[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]

      ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें। 

      अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है? 

[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]

      स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है। 

      उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –

      🔥”तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति” मुण्डक १।१।५॥

      मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]

      महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)। 

      महाभाष्य पस्पशाह्निक में लिखा है –

      🔥”चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुषा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्त्रर्त्मा सामवेद एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः………” पृ॰ ६५॥ 

      रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८) 

जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है। 

      प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –

      🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।

      यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं। 

      इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –

      🔥”त्रयी वै विद्या ऋचो यजूंषि सामानि इति”॥ श॰ ४।६।७।१॥ 

      अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है। 

      मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –

      🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये। 

      🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। 

      🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये। 

      इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

অনেকের বিচার এই যে, অথর্ববেদ ঋগাদি তিন বেদের পশ্চাৎ রচনা হয়েছে। তারা এই বিষয়ের সমর্থনে দুটি তর্ক প্রস্তুত করে থাকে, প্রথমত - অনেক জায়গাতে ত্রয়ীবিদ্যার নাম এসেছে যা ঋগবেদ, যজুর্বেদ, সামবেদ কে বুঝায় আর দ্বিতীয়ত অথর্বেদের নাম অন্য তিন বেদে আসে নি, এজন্য অথর্ববেদ অর্বাচীন । আমরা এই দুই যুক্তি খণ্ডণের মাধ্যমে প্রমাণের চেষ্টা করবো যে অথর্ববেদ অর্বাচীন নয়।
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যেসব লোক বলে যে, ত্রয়ীবিদ্যার অভিপ্রায়, ঋগ, সাম, যজু তা ঠিক নয়। কারণ ত্রয়ীবিদ্যার তাৎপর্য হচ্ছে জ্ঞান, কর্ম, উপাসনা। আর জ্ঞান, কর্ম ও উপাসনার বর্ণনা চার বেদেই এসেছে এজন্য চার বেদকেই ত্রয়ী বিদ্যা বলা হয়। মহাভারতে বলা হয়েছে -
ত্রয়ীবিদ্যামবক্ষেত বেদেষুক্তামথাঙ্গতঃ। ঋকসামবর্ণাক্ষরতো যজুষোহথর্বণস্তথা।।
(মহাঃ শান্তি পর্ব ২৩৫।১)
অর্থাৎ ঋগ,যজু, সাম এবং অথর্ববেই ত্রয়ীবিদ্যা রয়েছে। এখানে ত্রয়ীবিদ্যার সাথে চার বেদের নাম দেওয়া হয়েছে, যাতে জ্ঞাত হয় যে,ত্রয়ীবিদ্যার অভিপ্রায় চার বেদই। আর চার বেদে তিন প্রকারের মন্ত্র রয়েছে এজন্যও বেদ কে ত্রয়ী বলা হয়। মীমাংসা দর্শনে তিন প্রকারের মন্ত্রের বর্ণনা করে বলা হয়েছে যে,
তেষাং ঋগ যত্রার্থবশেন পাদ ব্যবস্থা।৩৫।।
গীতিষু সামাখ্যা।। ৩৬
শেষে যজুঃ শব্দ।।৩৭।।
(পূর্বমীমাংসা ২।১।৩৫-৩৭)
অর্থাৎ যাহার মধ্যে পাদ ব্যবস্থা তাকে ঋক বলা হয়। যে মন্ত্র গায়ন করা হয় তাকে সাম এবং বাকী মন্ত্র যজুর্বেদের অন্তর্গত। এতে জ্ঞাত হওয়া যায় যে, চার বেদ কে তিন বিভাগে বিভক্ত করার কারণ মন্ত্রের তিন প্রকার এবং মন্ত্রে প্রতিপাদিত তিন (জ্ঞান,কর্ম,উপাসনা) বিষয়ই। বেদের ত্রয়ী নামের রহস্য এবং চার বেদের অভিন্নতা সম্পর্কে বহুল প্রসিদ্ধ ভাষ্যকার দূর্গাদাস লাহিড়ী বলেছেন -
"সাধারণত একটি ধারণা আছে, ঋক, সাম, যজু এই তিন বেদের তুলনায় অথর্ববেদের উপযোগীতা অতি অল্পই পরিলক্ষিত হয়। এক সময় আমাদের সেই ধারণা ছিলো বেদের ত্রয়ী নাম দৃষ্টে এবং "অথর্ব্ব" এই সঙ্গার প্রচলিত অর্থ দেখিয়া, পূর্বোক্ত ধারণাই বদ্ধমূল হয়। ত্রয়ী শব্দে ঋক, সাম, যজু আর অথর্ববেদ শব্দে যজ্ঞকর্মে অব্যবহার্য সূতরাং অথর্ব্ব - এইরূপ অর্থ প্রচলিত আছে। কেন যে এ প্রকার অর্থ প্রচলিত, তাহার মূল অনুসন্ধান করিয়া পাওয়া সুকঠিন। অথর্ববেদাধ্যায়িগণের প্রতি ঈর্ষা বশতঃ অন্য বেদাধ্যায়িগণের কেহ সম্ভবতঃ "অথর্ব্ব" শব্দের ওইরূপ পরিকল্পনা প্রচার করিয়া যান। তাহারই ফলে এখন ঐ ভাব বিস্তৃত হইয়া পড়িয়াছে। প্রকৃতপক্ষে কিন্তু অথর্ববেদের উপযোগীতা সর্বত্রই পরিলক্ষিত হয়।
যজ্ঞের কর্ম চতুর্বিধ, হোতৃ, উদগাতৃ, অধ্বর্য়ু এবং ব্রহ্ম। ঋগাদি বেদত্রয়ে প্রথমোক্ত তিন কর্ম সম্পাদিত হয়। চতুর্থ যে ব্রহ্মকর্ম তাহা অথর্ববেদ সাপেক্ষ। এমন কি শ্রুতিতে আছে, যজ্ঞকর্ম দুই ভাগে বিভক্ত তাহার এক ভাগ প্রথমোক্ত তিন বেদের দ্বারা সম্পন্ন হয় এবং শেষভাগ অথর্ববেদের উপর নির্ভর করে।
বেদের যে ত্রয়ী নাম হইয়াছিলো, তাহার উদ্যেশ্য অন্যরূপ। গদ্যাংশ, পদ্যাংশ, গান (ঋক, যজুঃ, সাম) বেদের মধ্যে এই তিন আছে বলিয়া বেদের নাম ত্রয়ী হয়। নচেৎ কেবলই যে গদ্য, কেবলই যে পদ্য, কেবলই যে গান লইয়া ভিন্ন ভিন্ন বেদ গ্রথিত আছে তাহাও বলিতে পারি না। দৃষ্টান্ত স্থলে যজুর্বেদর বিষয় উল্লেখ করিতেছি। সাধারণতঃ ধারণা যজুর্বেদ বুঝি সম্পূর্ণ গদ্যাংশেই পূর্ণ, কিন্তু বাস্তবে তাহা নহে। উহার মধ্যে পদ্য, গদ্য আছে। আবার সূক্ষ্ম দৃষ্টিতে দেখিলে গানও আছে। সামবেদ বলতেও কেবল গান বুঝায় না, অধিকাংশ ঋকই সামগানের অন্তর্ভূক্ত হইয়া আছে। আবার মন্ত্রাদির প্রয়োগ কালে গদ্য পদ্য দুই,কি ঋকে কি সামে দেখিতে পাই। অথর্ববেদ মধ্যে এইরূপ গদ্য, পদ্য, গান (ঋক, যজু, সাম) তিনই আছে। অতএব এ প্রকারেও অথর্বেদে সম্বন্ধ বিচ্ছিন্ন করা যায় না"
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উপনিষদ আদিতেও তিন বেদের সাথে অথর্ববেদের বর্ণনা দেখতে পাই । যথাঃ -বৃহদারণ্যক উপনিষদ ২।৪।১০ এ লেখা রয়েছে - "অরেস্য মহতো ভূতস্য নিঃশ্বসিতমেতদ্ যদৃগ্বেদো যজুর্বেদঃ সামবেদোহধর্বাঙ্গিরস" অর্থাৎ সেই মহান সত্তা থেকে নির্গত ঋগবেদ, যজুর্বেদ, সামবেদ এবং অথর্ববেদ।
মুণ্ডকোপনিষদ্ ১।১।৫ এ অথর্ববেদের উল্লেখ রয়েছে। যথাঃ "তত্রাপরা ঋগ্বেদো যজুর্বেদঃ সামবেদোহথর্ববেদঃ"।
এই প্রকার, ছান্দোগ্যপনিষদ্ ৭।১।২ মধ্যেও চার বেদের নাম এসেছে। যথাঃ "সহোবাচর্গ্বেদং ভগবোধ্যেমি যজুর্বেদং সামবেদমাথর্বণং চতুর্থম্"।
তাণ্ড্যমহাব্রাহ্মণ ১২।৯।১০ এ লেখা রয়েছে, "ভেষজং বা অথর্বণানি" অর্থাৎ অথর্বতে ঔষধি বিদ্যার বর্ণনা রয়েছে। রামায়ণ কালীন সময়েও অথর্ববেদে বিদ্যমানতা আমরা উল্লেখ পাই ।,যথাঃ হনুমান জীর প্রসংশা করে রাম বলেছিলেন যে,
ন অন ঋগবেদ বিনীতস্য ন অ যজুর্বেদ- ধারিন।
ন অ সামবেদ বিদুষ শক্যম এবম বিভাষিতু মদম।। ( বাল্মীকি রামায়ন ৪।৩।২৮)
অর্থাৎ ঋগবেদ অধ্যয়নে অনভিজ্ঞ এবং যজুর্বেদে যার বোধ নেই তথা যার সামবেদ অধ্যয়ন নেই , সেই ব্যক্তি এইরূপ পরিষ্কার বাক্য বলতে পারবে না। এখানে আমরা তিন বেদের স্পষ্ট উল্লেখ পাই, যার জ্ঞাতা হনুমান জী ছিলেন। চতুর্থ অথর্বেদের উল্লেখ আমরা বাল কাণ্ডে পাই, যথাঃ
ইষ্টি তেহহং করিষ্যামি পুত্রায়াং পুত্রকারণাৎ।
অথর্বশিরসি প্রোক্তর্মন্ত্রেঃ সিদ্ধাং বিধানতঃ।। (বাল কাণ্ড ১৫।২)
এখানে রাজা দশরথের সন্তান প্রাপ্তির জন্য অথর্ববেদের মন্ত্র দ্বারা পুত্রেষ্টি যজ্ঞ করার কথা উল্লেখ রয়েছে। এসব প্রমাণ দ্বারা স্পষ্ট হয় যে, তিন বেদের সাথে অথর্ববেদের গণনা প্রাচীনতম সাহিত্যে রয়েছে। এজন্য ত্রয়ীবিদ্যা অথবা কারণবশত কেবল ঋগ,যজু এবং সামের নাম আসার কারণেই এটা বোঝা উচিৎ নয় যে, অথর্ববেদ তিন বেদের পশ্চাৎ হয়েছে। বরং অথর্ববেদ ততটাই প্রাচীন যতটা প্রাচীন ঋগ, যজু এবং সাম।
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এই তর্কের অতিরিক্ত অথর্ববেদ নবীন হওয়াতে যে ২য় তর্ক প্রস্তুত করা হয় যে, অথর্বেদের নাম ঋগ, যজু, সাম তে আসে নি তাহাও নিরর্থক। আমরা উল্লেখ করে এসেছি যে, অথর্বেদেও ত্রয়ীবিদ্যার বর্ণনা রয়েছে এবং সেই প্রকার মন্ত্রের সমাবেশ, যেই প্রকার অন্য তিন বেদে রয়েছে। কিন্তু অথর্ববেদের কিছু মন্ত্র কিছু সরলার্থ বোধক, এজন্য অথর্ববেদের পৃথক অস্তিত্ব স্থির করা হয়েছে। মীমাংস দর্শনে বলা হয়েছে, "নিগদো বা চতুর্থ স্যাদ্ধর্মবিশেষাত্।।২।১।৩৮।।" অর্থাৎ ছন্দোবদ্ধ তথা গীতিযুক্ত মন্ত্রের অতিরিক্ত যে মন্ত্র স্পষ্ট অর্থসম্পন্ন তা যজুর্বেদর সংজ্ঞা নয় বরং অথর্ববেদের সংজ্ঞা, কারণ যজুর ধর্ম থেকে তার ধর্ম ভিন্ন। অথর্ববেদের নিগদত্ব তার তিন থেকে পৃথক হওয়া কারণে হয়েছে।
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বৈদিক সাহিত্যে অথর্বেদের নাম - নিগদ, ব্রহ্ম, অথর্ব, ছন্দ পাওয়া যায়। আর এসব নাম তার গুনের কারণে হয়েছে। এর নিগদ নাম এর সরলতার কারণে হয়েছে যা উপর মিমাংসা দর্শনে উল্লেখ করা হয়েছে। দ্বিতীয় নাম ব্রহ্ম, অথর্ববেদ ১৫।৬।৮ এ লেখা রয়েছে, "তমৃচশ্চ সামানি চ যজুংষি চ ব্রহ্ম চ" এখানে ঋগ, যজু এবং সামের সাথে ব্রহ্মের নাম এসেছে। এই কথা গোপথব্রাহ্মণ ৫।১৫ তে এই প্রকারে লেখা রয়েছে, "ঋগ্বেদ এব ভর্গো যজুর্বেদ এব মহঃ সামবেদ এষ যশো ব্রহ্মবেদ এব সর্ব" এখানে স্পষ্ট তিন বেদের সাথে ব্রহ্মবেদের স্পষ্টীকরণ করা হয়েছে। এরপর অথর্ববেদের আরেক নাম "ছন্দ", ঋগবেদের পুরুষসুক্তে বলা হয়েছে -
তস্মাৎ যজ্ঞাত্ সর্বহুত ঋচঃ সামানি জজ্ঞিরে।
ছন্দাংসি জজ্ঞিরে তস্মাৎ যজুস্তস্মাদজায়ত।।
(ঋঃ ১০।৯০।৯, যজুঃ ৩১।৭, অথর্বঃ ১৯।৬।১৩)
অর্থাৎ সেই পূজনীয় পরমেশ্বর হতে ঋগবেদ, সামবেদ উৎপন্ন হয়েছে এবং অথর্ববেদ ও যজুর্বেদ তাহা হতে উৎপন্ন হয়েছে। এই মন্ত্রে ঋগ্বেদাদি চার বেদেরই নাম এসেছে এবং অথর্ববেদ কে এখানে ছন্দ বলা হয়েছে। কিছু লোক বলে যে, এখানে ছন্দ শব্দ দ্বারা বেদে আসা গায়ত্রাদি ছন্দেরই গ্রহন হয়েছে। তাহলে এ মান্যতা ঠিক নয়, কারণ যখন চার বেদই ছন্দময় তখন বেদের নাম আসার সাথেই ছন্দের নাম এসে গিয়েছে তখন আলাদা করে ছন্দাংসি বিশেষণ লাগানো ব্যর্থ এবং মন্ত্রে পুণরুক্তি হয়ে যায়। কিন্তু সকল ছন্দসম্পন্ন বেদের সাথে - ঋক, সাম, যজুর সাথে - ছন্দের নাম ভিন্ন করে এসেছে, এতে সিদ্ধ যে এখানে তিনটি বেদের সাথে চতুর্থ ছন্দ শব্দ অথর্ববেদের জন্য এসেছে। এ বিষয়ে দয়ানন্দ সরস্বতী বলেছেন - "বেদানাং গায়ত্র্যাদিছন্দোন্বিতত্বাৎ পুনচ্ছছন্দাংসীতি পদং চতুর্থস্যাথর্ব্বদেবস্যোৎপত্তিং জ্ঞাপয়তীত্যবধেয়ম্"। অর্থাৎ সকল বেদ গায়ত্র্যাদি ছন্দযুক্ত হেতু "ছন্দাংসি" এই পদ দ্বারা অথর্বেদের প্রকাশ করছে। আর এ কথা কাল্পনিক নয়, অথর্বেদের গোপথব্রাহ্মণ স্বয়ং অথর্ববেদ কে ছন্দবেদ বলার কারণ বর্ণনা করছে। গোপথ ব্রাহ্মণের পূর্বভাগ ১।২৯ এ বলা হয়েছে - "অথর্বণাং চন্দ্রমা দৈবতং তদেব জ্যোতিঃ সর্বাণি ছন্দাংসি আপস্থানম্" অর্থাৎ অথর্ববেদের চন্দ্রমা দেবতা,তিনি জ্যোতি, সমস্ত প্রকারের ছন্দ এবং জলের স্থান। এখানে সমস্ত প্রকারের ছন্দ স্পষ্ট করে দেয় যে, অথর্ববেদ ছন্দময়। অথর্ববেদ ভাষ্যকার ক্ষেমকরণদাস ত্রিবেদি তার ভূমিকায় বলেছেন - অথর্বেদের আরেক নাম "ছন্দ "- এর অর্থ আনন্দদায়ক, অর্থাৎ তাহার মধ্যে আনন্দদায়ক পদার্থের বর্ণনা রয়েছে। (চান্দেরাদেশ্চ ছঃ। উঃ৪।২১৯। ইতি চদু আহ্লাদে- অসুন, চস্য ছঃ। চন্দয়তি আহ্লাদয়তীতি ছন্দঃ)। পাণিনীর অষ্টাধ্যায়ীর অনেক সূত্রেও "ছন্দ" কে বেদের অর্থে গ্রহন করা হয়েছে, যথাঃ "ছন্দসি লুঙলঙলিট্" (পা০ ৩।৪।৬) অর্থাৎ বেদে ধাতুসম্বধীয় অর্থে ধাতুর সাথে লুঙ্, লঙ্, লিট প্রত্যয় হয়। অনেকে বলে যে, পাণিনি মুনির অথর্ববেদের জ্ঞান ছিলো না এজন্য অথর্ববেদ অর্বাচীন। এটাও তাদের ভ্রম, কেননা যেই প্রকার শাকলাদি শাখার নামে ঋগ্বেদ প্রসিদ্ধ সেই প্রকার শৌকনাদি সংহিতার নামে অথর্ববেদ প্রসিদ্ধ। পাণিনি মুনি "শাকলাব্ধ" (পা০ ৪।৩।১২৮) এবং "শৌনকাদিভ্যচ্ছন্দসি" (পা০ ৪।৩।১০৬) এই দুই সূত্রে ঋগবেদ এবং অথর্ববেদের দুটি শাখার উল্লেখ করেছেন। এ থেকে স্পষ্ট যে পাণিনি মুনির অথর্ববেদের জ্ঞান ছিলো।
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আবার অনেকের বলে যে, শুধু আর্য সমাজের ভাষ্যকাররাই "ছন্দ" শব্দের অর্থ অথর্ববেদ করেছে। তাদের এই ধারনাও মিথ্যা কেননা গায়ত্রী পরিবারের "রাম শর্মা " তথা "স্বাধ্যায় মণ্ডল" এর প্রতিষ্ঠাতা "শ্রী পাদ দামোদর সাত্বলেকর" তাদের ভাষ্যে "ছন্দ" শব্দে অথর্ববেদরই গ্রহণ করেছেন। যথা,
"সেই বিরাট্ যজ্ঞ পুরুষ থেকে ঋগ্বেদ এবং সামগানের প্রকটীকরণ হয়েছে। তাহার থেকে যজুর্বেদ এবং অথর্ববেদের প্রকট হয়েছে।"
(ঋ০ ১০।৯০।৯, শ্রী রাম শর্মা)
এবং
" সেই সর্বহুত যজ্ঞ থেকে ঋগ্বেদের মন্ত্র তথা সামগান হয়েছে। ছন্দ অর্থাৎ অথর্ববেদের মন্ত্রও তাহার থেকেই উৎপন্ন হয়েছে এবং তাহার থেকে যজুর্বেদের মন্ত্রও উৎপন্ন হয়েছে।
(যজুর্বেদ ৩১।৭, শ্রী পাদ দামোদর সাত্বলেকর)
অতএব সমস্ত উল্লেখিত প্রমাণের ভিত্তিতে এটাই প্রতীয়মান হয় যে, অথর্বেবেদ অর্বাচীন নয় বরং তা ঋগাদি বেদের ন্যায় সুপ্রাচীন।
।।ও৩ম্ শম্।।

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ঋগ্বেদ ১০/৩৪/১৪

  মিত্রম্ কৃণুধ্বম্ খলু মূলতা নো মা নো ঘোরেণ চরতাভি ধৃষ্ণু। নি বো নু মন্যুর্বিশতামরাতিরন্যো বভূণম্ প্রসিতৌ ন্বস্তু।। ঋগ্বেদ-১০/৩৪/১৪ পদার্থ...

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