यजुर्वेद अध्याय 31 मन्त्र 11 - ধর্ম্মতত্ত্ব

ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

25 August, 2020

यजुर्वेद अध्याय 31 मन्त्र 11

ब्रा॒ह्म॒णो᳖ऽस्य॒ मुख॑मासीद् बा॒हू रा॑ज॒न्यः᳖ कृ॒तः। 
ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ प॒द्भ्या शू॒द्रोऽअ॑जायत ॥११ ॥
पदार्थान्वयभाषाः -हे जिज्ञासु लोगो ! (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राह्मणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा उपासक (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम ब्राह्मण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः) राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जाँघों के तुल्य वेगादि काम करनेवाला (तत्) वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो ॥११ ॥
भावार्थभाषाः -जो मनुष्य विद्या और शमदमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हों, वे ब्राह्मण, जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य कार्य्यों को सिद्ध करने हारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहारविद्या में प्रवीण हों, वे वैश्य और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणयुक्त हैं, वे शूद्र करने और मानने चाहियें ॥११ ॥

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