शिव दर्शन - ধর্ম্মতত্ত্ব

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স্বাগতম

27 February, 2022

शिव दर्शन

 

শিব লিঙ্গ কি ?
भूमिका

अपने पूर्वजों के इतिहास को जानने की ललक प्रत्येक व्यक्ति में होनी चाहिए। इसके अभाव में अनेक भ्रान्त विचार प्रचारित हो जाते हैं जिनसे मानसिक प्रदूषण का विस्तार होता जाता है। शिव हमारे ऐसे ही पूर्वज हैं जिनके विषय में अनेक कल्पित कहानियाँ प्रचलित हैं जिनके कारण उनका वास्तविक चरित्र उजागर नहीं हो पाता है। भ्रान्त विचारों का निराकरण नितान्त आवश्यक जानकर ही हमने इस निबन्ध को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

वैश्य वर्ग के अन्तर्गत माहेश्वरी समुदाय प्रसिद्ध है। इस समुदाय की वंशोत्पत्ति के विषय में कथा है कि किसी युद्ध में मृत हो चुके 72 उमरावों को भगवान् शिव ने जीवनदान दिया, इस उपलक्ष में उन्होंने महेश्वर को अपना उपास्य मानकर अपने समुदाय को माहेश्वरी नाम दिया। संयोग से हमारा सम्बन्ध इसी समुदाय से है। अतः मन में विचार आया कि अपने समुदाय के उपास्य महेश्वर के सम्बन्ध में गवेषणा की जाय। इसका मुख्य कारण तो यह रहा कि शिव का चरित्र पुराणों में प्राप्त होता है वह प्रशंसनीय नहीं है। हम स्वयं ऐसे चरित्र से अपने को सहमत नहीं कर पाते हैं। आश्चर्य की बात है कि महादेव मानते हुए भी पुराणों में उनका चरित्र बहुत ही निम्न स्तर का वर्णित किया गया है।

लोक प्रचलित धारणा के अनुसार वेद में उसी शिव का वर्णन माना जाता है। अब वेद तो आदिकाल से हैं, उनका शिव पुराणकाल के शिव से भिन्न व्यक्ति होना चाहिए। प्राचीन ग्रन्थों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समय-समय पर शिव, महेश्वर, रूद्र और शंकर नाम के अनेक महापुरूष हुए हैं जिन्हें भ्रमवश एक ही मानक पुराणकारों ने उनके विषय में लिखा है।

इस प्रस्तुति में हमने उन विद्वानों के विचार भी दिये हैं जिन्होंने इस विषय पर गवेषणा की है। हम उनके प्रति अपनी भावभीनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं। आशा करते हैं कि हमारे इस उपक्रम से जन-मानस में अपने पूर्वजों के वास्तविक इतिहास को जानने की इच्छा बलवती होगी। हमारा यह प्रयास गवेषणात्मक ही है निर्णय तो पाठकवृन्द पर ही छोड़ना समीचीन है।

यह भी विचारणीय है कि हमें उपासना किस शिव की करनी चाहिए।

ओ३म्

भारतीय देवमाला के तीन प्रमुख देव माने जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश। इनमें महेश ही शिव के नाम से प्रसिद्ध हैं। लोक प्रचलित धारणाओं के अनुसार जो चित्र इनका बनता है वह कुछ इस प्रकार है। इनके सिर पर जटाजूट के ऊपर चन्द्रमा विराजमान है, सिर से गंगा की धार निकल रही है, मस्तक पर त्रिपुण्ड की तीन रेखाओं के बीच तीसरी आँख होने का संकेत है गले में सर्प की माला सुशोभित है, साथ ही मुण्डमाला भी पड़ी। है, कन्धे पर गजचर्म ओढ़े हुए हाथ में त्रिशूल धारी शिव के पास ही उनका वाहन नन्दी उपस्थित है, सारे शरीर पर भभूत रमी हुई है। इनका निवास स्थान कैलाश पर्वत कहा गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव जहाँ अपने ताण्डव नृत्य से प्रलय को उपस्थित कर देते हैं वहीं वे शीघ्र ही प्रसन्न भी हो जाते हैं। सम्भवतः भोले-भाले और भोला शंकर कहे जाने के पीछे यही संकेत हो।

वैदिक मदुवृष्टि के लेखक डा. रामनाथ वेदालङ्कार ने पौराणिक और वैदिक रूद्र नामक लेख में अमरकोश के आधार पर 48 नामों का उल्लेख किया है- शंभु, ईश, पशुपति, शिव, शूली, महेश्वर, ईश्वर, शर्व, ईशान, शंकर, चन्द्रशेखर, भूतेश, खण्डपरशु, गिरीश, मृड, कपर्दी, मृत्युंजय, कृत्तिवासस्, पिनाकिन, प्रथमाधिप, उग्र, श्रीकण्ठ, शितिकण्ठ, कपालभृत, हर, महादेव, विरूपाक्ष, त्रिलोचन, कृशानुरेतस्, सर्वज्ञ, धूर्जट, नीललोहित, स्मरहर, भर्ग, रूद्र, त्र्यम्बक, त्रिपुरान्तक, गंगाधर, अन्धकरिपु, ऋतुध्वंसिन् बृशध्वज, व्योमकेश, भव, भीम, स्थाणु, उमापति। इनमें से कुछ नाम वेद में पाये जाते हैं। कुछ नाम पौराणिक गाथाओं से युक्त हैं।

पौराणिक जगत की मान्यता है कि वेद में उसी शिव का वर्णन है जिसके नाम पर अनेक पौराणिक कथाओं का सृजन हुआ है और उसी की पूजा-उपासना वैदिक काल से आज तक चली आती है। किन्तु वेद के मर्मज्ञ इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार वेद तथा उपनिषदों का शिव निराकार ब्रह्म है इसके विपरीत रामायण, महाभारत, पुराण आदि के शिव शरीरधारी मानव हैं। वेद का परमात्मा ऐतिहासिक परिधि से परे है। ऐसा स्थिति में आवश्यक हो जाता है कि वेद में देखा जाय कि वहाँ कौन से शिव का वर्णन है। यजुर्वेद का सोलहवाँ अध्याय रूद्राध्याय के नाम से प्रसिद्ध है। इस अध्याय के देवता रूद्र,

रूद्रा और बहु रूद्राः मुद्रित हैं। इसमें एक साथ ही रूद्र के अनेक नामों में शिव का भी उल्लेख है। इन के अर्थ भी अनेक प्रकाशित होते हैं। इन सभी नामों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ये नाम न होकर परमात्मा के एक-एक गुण के आधार पर उसके विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। हम प्रतिदिन अपनी सन्ध्या उपासना के अन्तर्गत नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः

शंकारय च मयस्कराय च नमः शिवाय च विवतराय च (यजु, 16.41) के द्वारा परम पिता का स्मरण करते हैं। इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही

परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। अथर्ववेद में भी 11.2 में सोलह मन्त्र रूद्र देवता वाले देखने योग्य हैं?

इस अध्याय में संसार का कल्याण करने से उसे 'शिव' और शंकर कहा गया है। जगत की उत्पत्ति करने के कारण 'भव' और जगत का संहार करने के कारण उसे शर्व' कहा गया है। वेद में रूद्र पशुओं का रक्षक होने से पशुपति' कहा गया है। रूद्र को गिरिशन्त, गिरिश, गिरित्र, गिरिचर, गिरिशय आदि कहा गया है। वेद में गिरि शब्द मेघ और पर्वत के लिए प्रयुक्त हुआ है। पर्वत और मेघ के समान उच्च पर स्थिति तथा उनके द्वारा जगत को सुख देने के कारण उसे इन नामों से अभिहित किया गया है। गिरा वाणी को भी कहते हैं जिसके कारण वह वाणीका अधिपति सिद्ध होता है।

वेद में रूद्र त्र्यम्बक' तो है किन्तु वह तीन नेत्रों वाला न होकर 'सहस्राक्ष अर्थात् असंख्य नेत्रों वाला है। त्र्यम्बक से तात्पर्य उस परमेश्वर से है जो जीवात्मा, कारण जगत् और कार्य जगत् का रक्षक है, अथवा तीनों कालों में एकरस ज्ञान वाला है। जिन मन्त्रों में यह शब्द आया है वे इस प्रकार हैं

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् यजु 3.60
अर्थ- विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरभित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटे। एक अन्य मन्त्र में भी त्र्यम्बक शब्द आया है देखें

अव रूद्रमदीमाव देवं त्र्यम्बकम् । यजु. 3. 58॥

महर्षि दयानन्द के अनुसार हम लोग तीनों काल में एकरस ज्ञानयुक्त (देवम्) देने वा (रूद्रम्) दुष्टों को रुलाने वाले जगदीश्वर की उपासना करके सब दुःखों को (अवादीमहि) अच्छे प्रकार नष्ट करें।

स्वामी ब्रह्ममुनि के अनुसार यहाँ रूद्र को तीन अम्ब (माता) वाला कहा है। ये माताएँ ऋक्,

साम, यजुः तथा पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक में उत्पन्न होने वाली अग्नि हैं। रूद्र का अर्थ

दुष्टों को रुलाने वाला किया है। वेद में विविध प्रकार के कार्य करने वाले लोगों को भी रूद्र कहा गया है जो अपने क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखते हैं

नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीदुष्टमाय चेषुमते च ।।-यजु. 16.29

अर्थ- सुख की पूर्ति देने वाले ज्ञान-प्रचारक ब्राह्मण, मुण्डित केश वाले ज्ञान प्रचारक संन्यासी, गुप्तचर रूपी हजार आखों वाले राजा, सैकड़ों धनुर्धारी पुरूषों वाले राजा वाणी में शयन करने वाले ज्ञानी, सदा यज्ञों में जीवन बिताने वाले, रक्षा के द्वारा अधिक सुखों का संचय करने वाले राजा तथा रक्षा के लिए बाणों को धारण करने वाले पुरुष का हम आदर करते हैं।

वेद में 'कृत्तिवासा', 'पिनाकी', 'नीलकण्ठ', 'शितिकण्ठ', 'नीललोहित' और 'गणपति जैसे नाम भी आते हैं जो पौराणिक साहित्य में भी मिलते हैं किन्तु इनके अर्थ पौराणिक मान्यताओं से मेल नहीं खाते।

शिव संकल्प मन्त्र

इन मन्त्रों में शिव का अर्थ शुभ या कल्याणकारी के रूप में ही प्रयुक्त है।

यज्जाग्रतो दूरमुदैति देवं तदु सुप्तस्य तथैवेति ।
 दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे नमः शिवसंकल्पमस्तु ।।
 येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
 यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
 यत्प्रज्ञानमुतचेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
 यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
 येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
 यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
 यस्मिँश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
 सुषारथिरवानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेः मीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।

हे जगदीश्वर! जो मन जागृत अवस्था में तथा सोता हुआ भी दू-दूर तक भागता है, दूर-दू तक पहुँचने वाला ज्योतियों भी ज्योति, दिव्य शक्ति से युक्त ऐसा मेरा मन शुभ संकल्पों वाला हो। जिस मन से सत्कर्मनिष्ठ, मनीषी संयमी पुरुष यज्ञों तथा युद्ध अवसरों में कर्म करते हैं, जो मन प्रजाओं के बीच अपूर्व पूज्य है ऐसा मेरा मन शुभ संकल्पों वाला हो। जो बुद्धि का उत्पादक स्मृति का साधक, धैर्य स्वरूप और मनुष्यों के भीतर नाशरहित प्रकाशस्वरूप है। जिसके बिना कोई भी काम नहीं किया जाता। वह मेरा मन शुभ संकल्पों वाला हो। जिस नाशरहित मन से, भूत, वर्तमान, भविष्यत् यह सब जाना जाता है। जिसके द्वारा सात होताओं द्वारा किये जाने वाला अग्निष्टोमादि यज्ञ विस्तृत किया जाता है, वह मेरा मन शुभ विचारों वाला हो। जिस शुद्ध मन में, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद, रथ की नाभि में अरे के समान प्रतिष्ठित हैं और जिसमें प्राणियों का समग्र ज्ञान पिरोया हुआ है, वह मेरा मन शुभ विचारों वाला हो। जिस प्रकार एक अच्छा सारथी घोड़ों को इच्छानुसार ले जाता है उसी प्रकार मन भी मनुष्यों को नियम में रखता है। जो हृदय में स्थित है, जरा रहित तथा अतिशय गमनशील है। वह मेरा मन शुभ विचारों वाला हो।

यजुर्वेद के अनुसार परमात्मा सर्वत्र व्यापक, अनन्त शक्ति वाला, अजन्मा, निराकार, अक्षत्, बन्धन रहित, निर्मल, पाप रहित, सूक्ष्मदर्शी, ज्ञानवान्, सर्वोपरि महान सत्ता है। स्वयं ही अपना स्वामी है। अपनी सदैव वर्तमान रहने वाली प्रजा के लिए यथायोग्य विधान का निर्माण करता है। मन्त्र इस प्रकार है.

सपगाच्छुकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्य दधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः । यजुर्वेद 40.8

वेद में परमात्मा को ओ३म् नाम से अभिहित किया गया है अन्य सभी नाम उसके गुणों के आधार पर विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए है जैसे संसार की रचना करने से ब्रह्मा सर्वव्यापक होने से विष्णु, दुष्टों को रूलाने से रूद्र, कल्याणकारी होने से शंकरा वेद में शिवतम और शिवतर रूप के शब्द आने से स्पष्ट हो जाता है कि ये सारे नाम विशेषण के रूप में ही प्रयोग किये गये है।
वैदिक शिव

उपनिषद् में शिव

वेद के पश्चात् उपनिषदों में यत्र-तत्र शिव नाम आता है, वहाँ भी वेद के अनुसार शिव नाम विशेषण रूप में ही आता है। केवल्योपनिषद् में तो स्पष्ट कहा है- स ब्रह्मा स विष्णुः स रूद्रस्सः शिवस्सोऽक्षरस्स: परमः स्वराट्। स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमाः ।। १.८
अर्थात् वह जगत् का निर्माता पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान, काल का भी काल, शान्तर और प्रकाश देने वाला है।

इसी प्रकार माण्डूक्य उपनिषद् में वर्णन किया है--

प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ।।7।।

प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहाँ शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।

यहाँ शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् में शिव का स्थान

सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः ।

सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगतः शिवः । श्वे. उ.4.14

अर्थ- जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।

इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है--

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्यमध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरूपम्।

विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ॥ श्वे. उ. 4.14

अर्थ- परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।

योगदर्शन में परमात्मा की प्रतीति इस प्रकार की गई है--

क्लेशकर्मविपाकाशयेरपामृशष्टः पुरूषविशेष ईश्वरः ।। 1.1.24

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।

स एष पूर्वेषामपि गुरू: कालेनानवच्छेदात् ।।1.1.26

वह ईश्वर प्राचीन गुरूओं का भी गुरू है। उसमें भूत भविष्यत् और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।

शिव को कहाँ देखें

इस पर विचार करते हुए स्पष्ट किया है कि उसकी कोई आकृति नहीं।

नचेशिता नैव च तस्य लिंगम् ॥ धे. उ. 6.1 ॥

अर्थात् उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग वा निशान है। वेद में भी इसका प्रतिपादन इस प्रकार मिलता है

न तस्य प्रतिमाऽस्ति यस्य नाम महद्यशः॥ यजु. 32.3

अर्थात् महान वंश वाले परमात्मा की कोई प्रतिमा, मूर्ति और उसकी बराबरी की कोई वस्तु नहीं है जिससे उसकी तुलनी की जा सके। वह अनुपम है। किसी उपमा के द्वारा भी उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता।

वस्तुतः निराकार वस्त की कोई प्रतिमा बन सकती। किसी निराकार वस्तु की प्रतिमा कल्पना से भी नहीं बनाई जा सकती। कोई बनाने का दम्भ भी करे तो वह असत्य होगी और असत्य पर आधारित क्रिया का फल भी असत्य ही होगा।

इस परिस्थिति में निराकार शिव की उपासना किस प्रकार की जा सकती है इस समस्या का समाधान शाखों के आधार पर ही सम्भव है।

शिव-दर्शन के लिए हमें कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। परमात्मा सर्वव्यापक होने से प्रत्येक स्थान पर उपस्थित है। वह हमारी आत्मा के साथ तो सदैव ही रहता है, तब हम उसे अपने ही हृदय में क्यों नहीं देखते। सांसारिक प्रपंचो में रत रह कर उसे भूल जाते हैं। आवश्यकता है उसे अपने ही मन मन्दिर में खोजने की। खोजेंगे तो अवश्य मिलेगा। ज्ञानी जन अपने मन को निर्विषय कर ध्यान, धारणा के आश्रय से समाधि में उसका दर्शन करते हैं। वह स्थूल नेत्रों का विषय नहीं है।

रामायण में शिव का वर्णन

वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में शिव का वर्णन सर्वप्रथम तेईसवें सर्ग में मिलता है। विश्वामित्र के साथ भ्रमण करते हुए राम-लक्ष्मण जब सरयू तट पर बने एक आश्रम के विषय में पूछते हैं तो विश्वामित्र का उत्तर इस प्रकार मिलता है- “बुद्धिमानों में जो काम कहा जाता है वह कन्दर्प (पहले) शरीर घारी था। यहाँ नियमपूर्वक एकाग्र हुए तपस्या करते हुए विवाह करके मरूतों के साथ जाते हुए देवेश महादेव को दुषट बुद्धि वाले काम ने पीड़ित किया। महात्मा शिव ने हुकार किया। हे रघुनन्दन! रूद्र की आँख से जले हुए दुर्मति (काम) के शरीर से सब अंग गिर गये। महात्मा शिव से जलाये हुए अंग नष्ट हुए। देवेश्वर शिव ने क्रोध से काम को शरीर-रहित किया। हे राघव! इस काल से वह अनंग नाम से विख्यात हुआ। उसी (शिव) का यह पहले पुण्य आश्रम था।"

इस वर्णन से ज्ञात होता है कि पहले इस आश्रम में शिव नाम के कोई महात्मा रहते थे, उन्होंने तपस्या के बल पर 'काम' पर विजय प्राप्त करली थी। फिर से विवाह करने को प्रस्तुत हो गये तो निश्चित है कि 'काम' का सेवन उन्हें करना ही होगा। चब 'काम' को शरीर-रहित ही करना था तो विवाह की क्या आवश्यकता थी। स्पष्ट रूप से शिव वेद में कहे गये शिव नहीं हो सकते। ये पूर्णतः मानवीय गुणों से युक्त हैं। यह प्रसंग भी असंगत लगता है। हो सकता है कि ये प्रसंग पुराणों से उठाकर रामायण में प्रक्षेप किया हो। यदि ऐसा है तो इसकी सत्यता में सन्देह उत्पन्न होना अवश्यम्भावी है। 
धनुष भंग के प्रसंग में जिस धनुष का नाम आता है वह पहले महात्मा रूद्र के द्वारा देवताओं को दिया गया। देवताओं के जनक के पूर्वज देवरात को धरोहर के रूप में दिया था। ये देवरात वर्तमान जनक से 19 पीढ़ी पूर्व के थे। अतः ये महात्मा रूद्र निश्चय ही कोई अलग व्यक्ति रहे होंगे। एक अन्य भ्रान्त धारणा है कि रावण शिवभक्त था। रामायण से यह प्रमाणित नहीं होता। यदि ऐसा होता तो युद्ध के समय जाते हुए वह अपने आराध्य के मन्दिर में विजय की कामना लेकर अवश्य ही जाता। रावण द्वारा किसी प्रकार की पूजा अर्चना न करने से तो यही सिद्ध होता है। मेघनाद द्वारा निकुम्भिला नामक स्थान में जाकर यज्ञ करने का प्रयत्न भी ऐसा ही प्रमाणित करता है। यह यज्ञ उसे एक विशाल वटवृक्ष के नीचे करना था जिसे वह सम्पन्न नहीं कर पाया। कारण, इसी समय वहाँ जाकर लक्ष्मण ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। इसी युद्ध में वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। (देखें वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड सर्ग 85 से 91 तक) इसी काण्ड में सर्ग 57 के 21वें श्लोक में कहा है कि लंका तो अग्नि को तर्पित करने वाले पुरुषों से भरी पड़ी थी। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लंकावासी मूर्तिपूजक न होकर यज्ञकर्ता थे। जिस समय हनुमान ने सीता की खोज में सारी लंका में भ्रमण किया तो उन्हें किसी शिवालय के दर्शन नहीं हुए अपितु ऐसे उत्तम राक्षसों के भवन देखे जो पर्व के अवसर पर यज्ञ करते थे। (देखें वा. रा. सुन्दरकाण्ड षष्ठ सर्ग 12वां श्लोक) तेतालीसवें सर्ग के । से लेकर 5वें श्लोक तक वाटिका में स्थित चैत्य प्रासाद के नष्ट करने का वर्णन है जिसमें मद्य मांसादि के द्वारा यज्ञ किया जाता था। इसे न देवालय कहा है और न मन्दिर।

युद्धकाण्ड में लंका विजय के पश्चात् पुष्पक विमान द्वार लौटते समय भगवान् राम सीता को वह स्थल दिखाते हैं जहाँ उन्होंने सेतुबन्ध का निर्माण कराया था। देखें स्वामी जगदीश्वरानन्द सम्पादित वाल्मीकि रामायण एकोनसप्ततितमः सर्गः पृष्ठ 558

एतत्तु दृश्यते तीर्थं सेतुबन्ध इति ख्याताम्।

अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकोद्विभुः ॥ 7 ॥

यह समुद्र का दूसरा किनारा दिखाई दे रहा है जो सेतुबन्ध के नाम से विख्यात है। यह वह स्थान है जहाँ पर सर्वव्यापक देवों के देव (महादेव) परमात्मा ने हमारे ऊपर कृपा की थी।

यहाँ महादेव शब्द आ जाने से यह कल्पना कर ली गई कि राम ने यहाँ शिवलिंग की स्थापना की थी और उसी स्थान पर आज रामेश्वरम् का मन्दिर विद्यमान है। वस्तुतः यह मन्दिर ग्यारहवीं शताब्दी का निर्माण है और एक दक्षिण भारतीय राजा रामचन्द्र ने इसका निर्माण कराया इसीलिए इसका नाम रामेश्वरम् पड़ा है। यह राजा शिव का उपासक था।

उत्तर काण्ड में रावण और शिव के प्रसंग आते हैं। यह काण्ड वाल्मीकि की रचना न होने से इसमें आये प्रसंग ऐतिहासिक महत्व के नहीं प्रतीत होते। रावण द्वारा हिमालय पर्वत को अपने हाथों से उठाना, शिव के द्वारा उसे दबाकर रावण के प्रयत्न को विफल करना फिर शिव के द्वारा उसे चन्द्रहास नामक शस्त्र देने की बात आई है। इसी काण्ड में उल्लेख है कि बालू की वेदी पर रावण ने लिंग की स्थापना की, रावण जहाँ जहाँ जाता है अपने साथ सुवर्णमय लिंग ले जाता है। ये सारे ही प्रसंग उत्तर काण्ड के पूर्ण रूपेण प्रक्षिप्त होने के कारण कोई महत्व नहीं रखते।
মহাভারতে শিব

महाभारत में शिव

महाभारत में शिव का वर्णन कई स्थलों पर देखने को मिलता है। आदि पर्व में समुद्र मन्थन से निकलने वाले विष पान के कारण इनका नाम नीलकण्ठ होना, राजा भगीरथ की प्रार्थना पर गंगा को शिरोधार्य करना। ऐसे सभी प्रसंग परोक्ष के होने से महाभारत के सन्दर्भ में विचार करने योग्य नहीं ठहरते।

विशेष उल्लेखनीय प्रसंग है पाशुपत अब लेने के लिए अर्जुन का शिव के पास जाना। शिव पहले भील का रूप धारण कर अर्जुन की परीक्षा लेते हैं फिर उसे योग्य पात्र समझ कर पाशुपत अस्त्र देकर उसके संचालन और संहार की विधि बताकर उसे स्वर्ग जाने की सलाह देते हैं।

कर्ण पर्व में ब्रह्मा और शिव के द्वारा अर्जुन की विजय की घोषणा की गई है। सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा जब पाण्डवों के शिविर पर आक्रमण करने जाता है तो शिव को शिविर के द्वार पर रक्षक के रूप में खड़ा पाता है, वह शिव पर ही प्रहार कर देता है, इस प्रयत्न में असफल होने पर उसे पराजय का मुख देखना पड़ता है। उसके आत्मसमर्पण से प्रसन्न होकर शिव उसे खङ्ग प्रदान करते हैं।

ऐतिहासिक शिव भूटान के राजा थे जो उस समय भूतस्थान था संक्षेप में भूतान और अंग्रेजी में लिखे जाने पर भूटान हो गया। आज यह एक छोटा सा राज्य है परन्तु उस समय यह विस्तृत प्रदेश था। यहाँ के रहने वाले आज भी भोट या भोटिया कहे जाते हैं जो भूत और भूतिया के अपभ्रंश हैं।

शिव के भूतनाथ, भूतेश्वर, भूतपति, भूतेश नाम ही यह सिद्ध करते हैं कि ये भूतों पर शासन करते थे। गिरीश नाम भी इनको पहाड़ी प्रदेश का शासक सिद्ध करता है। इनकी स्त्री का नाम उमा था, पर्वतीय महिला होने के कारण पार्वती कहा गया। इनकी गद्दी कैलाश पर्वत पर थी यहीं से वे पूर्वोत्तर में निवास करने वाले भूतों तथा पश्चिम के पिशाचों पर शासन करते थे। [भूतनाथ महाभारत, शांतिपर्व 349।76]

सभ्यता की दृष्टि से इनका स्तर देव अथवा असुरों से निम्न ही ठहरता है। जिस समय विष्णु रेशम का बना पीताम्बर धारण करते थे, साधारण भारतीय सूती वस्त्रों का प्रयोग करते थे उस समय शिव कच्चे चमड़े के वस्त्र पहनते थे इसी लिए उन्हें कृत्तिवासा कहा गया है। महाभारत के पात्रों से इनका प्रत्यक्ष मिलाप होना यही सिद्ध करता है कि इनका अस्तित्व कौरव-पाण्डवों के समय ही था।

शान्ति पर्व में दक्ष के यज्ञ को विध्वंस करने का आदेश देना जिसके अन्तर्गत उनके संवक वीरभद्र एवं उनके गणों द्वारा दक्ष की यज्ञशाला को जिल प्रकार नष्ट किया गया वह इनकी निम्नस्तरीय सभ्यता और संस्कृति का दर्शन कराती है। शिव को क्रतु-ध्वंसी (यज्ञ का विनाश करने वाला) इसी कारण कहा गया। इनका यह कार्य इन्हें यज्ञ-विरोधी सिद्ध करता है। दक्ष के यज्ञ-विध्वंस का विवरण महाभारत और शिवपुराण दोनों में मिलता है। महाभारत (शान्तिपर्व) के अनुसार दक्ष ने अपने यज्ञ में उनको निमंत्रित नहीं किया इस यज्ञ में दक्ष ने हवि भगवान् विष्णु को समर्पित करने का व्रत लिया था।

उधर पार्वती को यह अच्छा नहीं लगा कि यज्ञ भाग में शिव का स्थान नहीं है, इस पर भगवान् शंकर ने कहा कि उन्हें मेरी महत्ता का ज्ञान नहीं है। उमा को सांत्वना देकर उन्होंने अपने मुख से एक भयंकर भूत (वीरभद्र) प्रकट किया और उसे आज्ञा दी कि जाकर दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दो। पार्वती के क्रोध से प्रकट हुई भयंकर आकार वाली महाकाली ने भी साथ दिया और यज्ञ को नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया। इस क्रम में भूतगणों ने यज्ञ शाला में आग लगा दी, यूप उखाड़ दिये. सामग्री को रौंद डाला, उपस्थित लोगों से मारपीट की अन्न, पान, भोज्य पदार्थों को यत्र तत्र बिखेर दिया।
उस समय ब्रह्मा आदि देवताओं और दक्ष प्रजापति ने पूछि कि- आप कौन हैं, तब वीरभद्र ने उत्तर दिया कि हम शिव पार्वती के क्रोध से उत्पन्न होकर उनकी आज्ञा से यज्ञ नष्ट करने आये हैं। तुम्हें उनकी शरण में ही जाना चारिए। दक्ष के द्वारा शिव की स्तुति किये जाने पर शिव अग्निकुण्ड से प्रकट होकर बोले- ब्रह्मन्! बताओ मैं तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूं? दक्ष ने कहा- यदि आप प्रसन्न हों तो मैंने बहुत दिनों से परिश्रम करके जो यज्ञ की सामग्री जुटाई थी वह आपके गणों द्वारा नष्ट भ्रष्ट की जा चुकी है, वह व्यर्थ न जाय, उसके द्वारा इस यज्ञ की पूर्ति हो जाय यही कृपा कीजिए। भगवान् ने तथास्तु कहकर दक्ष की प्रार्थना स्वीकार कर ली।

शिखण्डी शिव

महाभारत सौप्तिक पर्व में अ. 17 के 10 से लेकर 24वें श्लोक तक के अनुवाद के अनुसार प्रभावशाली ब्रह्मा ने प्राणियों की सृष्टि करने की इच्छा से सबसे पहले महादेव जी को देखा। तब ब्रह्मा ने उनसे कहा प्रभो! अब अविलम्ब सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि कीजिए। यह सुनकर महादेव जी तथास्तु कहकर भूतगणों के दोष देखकर जलमग्न हो गये और महान तप का आश्रय लेकर दीर्घकाल तक तपस्या करते रहे। उधर पिताह ब्रह्मा ने सुदीर्घकाल तक उनकी प्रतीक्षा करके अपने मानसिक बल से दूसरे सर्वभूत सृष्टा को उत्पन्न किया। उस सृष्टा ने महादेव को जब में सोया देख अपने पिता ब्रह्मा जी से कहा कि यदि दूसरा कोई मुझसे ज्येष्ठ न हो तो मैं प्रजा की सृष्टि करूँ। यह सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा अग्रज पुरुष नहीं है। ये शिव हैं भी तो पानी में डूबे हुए। अतः तुम निश्चित होकर सृष्टि का कार्य आरम्भ करो।

जब प्राणी समुदाय की भली प्रकार वृद्धि हो गई और गुरू ब्रह्मा जी भी संतुष्ट हो गये तब वे ज्येष्ठ पुरूष शिवजी जल से बाहर निकले। जब उन्होंने देखा कि संसार में समस्त प्रजाओं की वृद्धि हो रही है तो वे कुपित हो गये और उन्होंने अपना लिंग काटकर फेंक दिया। तब ब्रह्मा ने उन्हें शान्त करते हुए कहा कि आपने दीर्घ काल तक जल में रहकर कौन सा कार्य किया और इस लिंग को उत्पन्न करके किस लिए पृथ्वी पर डाल दिया है? यह सुनकर कुपित हुए जगद् गुरू शिव ने ब्रह्मा जी से कहा प्रजा की सृष्टि तो दूसरे ने कर डाली फिर इस लिंग को रखकर मैं क्या करूंगा ?
सम्भवतः शिवपुराण में इसीलिए शिवजी को शिखण्डी नाम दिया गया है।

'तथैव मारूते पत्रे शिखंडीश समर्चयेत् ॥ 19 | शिव. वायु स. अ. 30

अर्थ- मारूत पत्रों से शिखण्डी (नपुंसक) शिवजी की पूजा करें।

शिवजी के चार मुखों का रहस्य

तिलोत्तमा नाम पुरा ब्रह्मणायोषिदुत्तमा ।

तिलं तिलं समुद्धत्य रत्नानां निर्मिता शुभा ॥ ॥

यतो यतः सुदती मामुपाधावदन्ति के।

ततस्ततो मुख चारू ममदेवि विनिर्गतम्।। 3 ।।
 तां दिद्वक्षु रहं योगच्चतुर्मूर्तित्वमागतः ।
चतुर्मुखश्च संवृत्तो दर्शयन् योगमुत्तमम्।। 4 ।। (महा. अनु. अ. 141)

(शिवजी ने कहा) पूर्वकाल में ब्रह्मा ने एक सर्वोत्तम नारी की सृष्टि की थी। उन्होंने सम्पूर्ण रत्नों का तिल-तिल भर सार उद्धृत करके उस शुभ लक्षणा सुन्दरी के अङ्गों का निर्माण किया था इसलिए वह तिलोत्तमा नाम से प्रसिद्ध हुई। वह सुन्दर दाँतों वाली सुन्दरी निकट से मेरी परिक्रमा करती हुई जिस दिशा की ओर गई उस उस दिशा की ओर मनोरम मुख प्रगट होता गया। तिलोत्तमा के उस रूप को देखने की इच्छा से मैं चतुर्मुख हो गया इस प्रकार मैंने लोगों को उत्तमोत्तम योगशक्ति का दर्शन कराया।

इस प्रसंग पर डा. श्रीराम आर्य पौराणिक गप्प दीपिका' में लिखते हैं- "तिलोत्तमा नाम की सुन्दरी स्त्री के रूप पर शिवजी इस कदन मोहित हो गये कि उनकी आँखें उस पर चिपक कर रह गई, उन्होंने सर घुमा कर देखते रहने की बजाय अपने तीन तरफ तीन मुँह और बना लिए। इस अवस्था में प्रगट हुए चतुर्मुखी शिव की पूजा कहीं कहीं आज भी होती है। यह शिवजी का रहस्य जब पाठकों पर प्रगट होगा तो वे इस पर हँसे बिना न रहेंगे। अपने ही पूज्य देवताओं की मजाक उड़ाने में पौराणिक विद्वानों ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है।"

 "ओहा ! शिवजी के डमरू का कमाल" ('आर्य संसार मार्च 2012) में मुद्रित लेख में आ चार्या सूर्या देवी चतुर्वेदा ने लिखा है

लोक ने शिव की महत्ता की चमत्कारी कथा भी जोड़ ली कि सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा ने शिव को फाल्गुन बदी चतुर्दशी को उत्पन्न किया उस समय जगत् प्रलयावस्था में था। सर्वत्र शून्य ही शून्य था। सब अदृश्य था, तब उत्पन्न हुए शिव ने ताण्डव नृत्य किया। शिव के नृत्य से सृष्टि बन गई। इतना ही नहीं नृत्य के पश्चात् शिव ने जो डमरू बजाया, उस डमरू के बजाने से ही व्याकरम के 14 सूत्र प्रकट हो गये।😂😂 यानि जो पाणिनीय अष्टाध्यायी में अइउण् आदि 14 प्रत्याहार सूत्र हैं वे शिव के डमरू वादन से प्रकट हो गये। शिवजी के डमरू के इस कमाल को में ही क्या, सभी वर्षों से सुनते चले आ रहे हैं। लोक, भट्टोजि दीक्षित एवं नन्दिकेश्वर (व्याकरणकार) की यह मान्यता कि शिव के डमरू बजाने पर 14 सूत्र निकेल, यह न मान्य हो सकती है, न विश्वसनीय है।..... डमरू से निकलने वाला जो है वह तो ध्वनि वर्ण नहीं है।.... डमरू से शब्द निकलते होते, तो आज भी खूब डमरू बजते हैं, उनसे भी अष्टाध्यायी के अइडण् आदि सूत्र न सही पर अन्य सूत्र तो निकलते।'

व्याकरण परम्परा की एतिहासिक दृष्टि से भी प्रत्याहार सूत्र डमरू से निःसृत सिद्ध नहीं होते। व्याकरण के दो प्रकार के ग्रन्थ हैं- एक प्राचीन, दूसरे अर्वाचीना व्याकरण के प्राचीन आचार्य अनेक हैं। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में प्राचीन आचार्यों में से आपिशलि, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, स्फोटायन इन 10 आचार्यों का उल्लेख किया है। शिवमहेश्वर (91.500 वि. पूर्व), बृहस्पति (10.000 वि. पूर्व), वायु (9.500 वि. पूर्व), भारद्वाज (9300 वि. पूर्व), चारायण (3100 वि. पूर्व), काशकृत्स्न (3100 वि. पूर्व), सान्तनव (3100 वि. पूर्व), वैयाग्रपद्य (3100 वि. पूर्व), माध्यन्दिनि (300 वि. पूर्व इन 16 आचार्यों का उल्लेख नहीं किया। पं. युधिष्ठिर सं. व्या. शास्त्र का इतिहास।

इन अनुल्लिखित 16 आचार्यों में ऐतिहासिक शिव महेश्वर व्याकरण के अति प्राचीन आचार्य हैं। ये व्याकरण के प्रकृष्ट विद्वान् थे। महाभारत आदि ग्रन्थों से प्रज्ञात होता है कि शिव महेश्वर ने षडङ्गों का ग्रन्थन किया था। इन वैयाकरण शिव महेश्वर का शिव रात्रि के अधिष्ठात्री देवता के साथ सम्बन्ध जोड़ना भी इतिहास के विरूद्ध है। वंशब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार वैयाकरण शिव महेश्वर की माता सुरभि एवं पिता, प्रजापति काश्यप हैं और अधिष्ठात्री देवता • शिव के पिता किवदन्ती के अनुसार ब्रह्मा हैं। प्राचीन आचार्य शिव महेश्वर ने षडङ्गों का ग्रन्थन किया था, इसका वर्णन महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में आता है।

आचार्य महेश्वर ने व्याकरण के अतिरिक्त अर्थ शास्त्र, वैद्यक शास्त्र, धनुर्वेद, वास्तुशास्त्र, नाट्य शास्त्र, छन्द शास्त्र, मीमांसा शास्त्र आदि अन्य ग्रन्थों की भी रचना की है। आचार्य ब्रह्मा के सदृश महेश्वर शिव भी अनेक विद्याओं के प्रवर्तक हैं।

महाभारत शान्तिपर्व के 142 वें अध्याय के 47 वें श्लोक में 7 वेदज्ञों के नाम हैं, उनमें शिव वेदज्ञ की भी गणना है। शिव महेश्वर गीत वादित्र, शिल्प आदि के ज्ञाता थे। इसका वर्णन महाभारत के शान्तिपर्व के 284 वें अध्याय में किया गया है।

हम देखते हैं कि महाभारत में ही दो शिवों का वर्णन है एक वे हैं जो महाभारत काल से लगभग 6 हजार वर्ष पूर्व के हैं और दूसरे वे जो भूतों के राजा कैलाश वासी हैं। इनका अस्तित्व कृष्ण और अर्जुन के समय का ही है। इन दोनों को एक करके मानने से सारा इतिहास क्रम ही दूषित हो जाता है।

सम्भावना है कि इसी प्रकार प्राचीन ग्रन्थों में उल्लिखित अन्य व्यक्ति भी शिव शंकर रूद्र, महादेव, महेश, महेश्वर आदि नामधारी हों और उनके सुकृतों को विस्मृत न होने देने के लिए शिव की कथाओं में स्थान मिल गया हो। किन्तु इससे इतिहास में व्यवधान उत्पन्न हो गया। पुराणकारों ने इन सभी महापुरूषों के चरित्र को एक ही व्यक्ति के साथ जोड़ दिया है।

पुराणों के शिव

स्कन्द पुराण में शिव का धाम कैलाश पृथ्वी से लगभग बीस अरब अड़तालीस करोड़ मील ऊपर कहीं आकाश में बताया है। जबकि साधारण भारतीय हिमालय स्थित कैलाश पर्वत को उनका निवास स्थान मानते हैं। शैव लोग उनको साक्षात परमात्मा मानकर उनकी पूजा करते हैं। उनकी भी मनुष्याकृति में कल्पना की गई है, साथ ही शिवलिंग के रूप में अधिकांश मन्दिरों में उनका पूजन प्रचलित है। शिवजी को अवधूत माना गया है वे शरीर पर भस्म लपेटते थे। उन्हें संहार का देवता माना गया है। उनके जटाजूट से गंगा का निकलना, सिर पर चन्द्रमा का होना, गले में सर्पों की माला, कहीं-कहीं मुण्डमाला, हाथ में त्रिशूल और त्रिशूल में डमरू का बंधा होना, वस्त्र के नाम पर मृगचर्म धारण करना, विषैले पदार्थों का सेवन करना, बैल की सवारी करना, इस प्रकार का चित्रण शिव के विषय में पाया जाता है।

शिव-महात्म्य को दर्शाने वाला शिव पुराण है। दक्ष के यज्ञ को विध्वंस करने वाली कथा शिव पुराण में भी आती है किन्तु इस कथा में शिव की पूर्व पत्नी सती अपने पिता दक्ष के यज्ञ में बिना बुलाये ही चली जाती है और वहाँ शिव का भाग न देखकर यज्ञकुण्ड में आत्मदाह कर लेती है। इससे कुपित होकर शिव अपने गण वीरभद्र को यज्ञ नष्ट करने का आदेश देते हैं। दक्ष का सिर काट दिया जाता है। अन्त में देवताओं के अनुनय करने पर शिव दक्ष के धड़ पर बकरे का सिर लगा देते हैं। क्या यह सम्भव है? मनुष्य के धड़ पर बकरे का सिर लगा देने से वह किस भाषा में बात करेगा? उसका मस्तिष्क, कंठ और तालु आदि तो बकरे के ही रहेंगे। अतः यह कथा असंगत है। महाभारत की कथा स्वाभाविक लगती है। यदि यह घटना सत्य होती तो सभी ग्रन्थों में एस सी होती। कल्पित प्रसंग तो जितने ग्रन्थ होंगे उतने ही विविधता वाले होंगे।

पुराणों में शिवलोक वर्णन

केदार कल्प पुराण पटल 35, श्लोक 6 से 8 के अनुसार सहस्रों कोटि अप्सरायें हार, बाजूबन्द आदि से भूषित पाजेब पहने सम्पूर्ण श्रृंगार की शोभा से युक्त अक्षय यौवन वाली पार्वती के सदृश्य दिव्य वस्त्र धारिणी, महा भोग सहित शिव के समीप क्रीड़ा करती हैं। जब तक पृथ्वी तथा समुद्र में जल रहता है। देवी भागवत स्कन्द । अ. 11 के अनुसार शिवजी नित्य ही कामिनियों की भुजाओं में फंसे रहते हैं।

केदाव कल्प पुराण पटल 43 श्लोक संख्या 21 से 43 के अनुसार शिवजी के स्थान पर दिव्य पुष्प की सुगन्धि और कुंकुम मस्तक पर लगाये हुए, ताम्बूल चाबे, जिनके ललाट में दिव्य जाति के तिलक, बिजली की सी कान्ति, मृग के से नेत्र वाली, हंसगामिनी, कुण्डल आभरणों से उज्जवल, मुख पर चन्द्रकला चन्द्रभास्कर के समान मनोहर तोते की सी नाक वाली, दाहिम के समान दाँत, भूषण पहिने। अमृत कोकिला जैसा स्वर, हाथों में कंकण, हार, केयूर से भूषित् फल के आकार के स्तन, कर्णफूल धारे, कमर में मेकला, गम्भीर नाभि, सिंह के समान कमर। संसार से पृथक् रहने वाले सिद्ध से युक्त लोग, जिनका गुह्य स्थान और हृदय पवित्र है, ऐसी से स्त्रियों को जरा और मृत्यु से रहित होकर भोगते हैं।

विभिन्न पुराणों में शिव का वर्णन अलग-अलग प्रकार से किया गया है। जहाँ पुराणों में शिव को देवाधिदेव महादेव के नाम से प्रसिद्ध किया गया है वहीं उनके चरित्र पर लांछन भी.. लगाये गये हैं जो निश्चय ही किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के चरित्र से मेल नहीं खाते।

शिवपुराण शतरूद्र संहिता अध्याय 25 में शिव को वेश्यागामी, बताया गया है। शिव जी सोने का रत्नजटित कंगन पहन कर महानन्दा वेश्या के घर में गये और कंगन को दिखाकर कहने लगे कि- “तुझको यह पसन्द है तो तू पहन ले पर बता इसका मूल्य क्या देगी ?" वह बोली---

“वयंहि स्वैरचारिण्यो वेश्यास्तु न पतिव्रता ।

अस्मत् मुलोचितो धर्मो व्यभिचारो न संशय॥21॥

दिनत्रयमहोरात्रं पत्नी तव भवाम्यहम् ।। 22 ।।”

"हम व्यभिचारिणी वेश्या हैं, पतिव्रता नहीं। हमारे कुल का धर्म व्यभिचार है। मैं तीन दिन और तीन रातों के लिए आपकी पत्नी बन जाऊँगी।" बस यह कहकर

सा तेन संगता रात्र्यौ वेश्येन विटधर्मिणा।
सुखं सुष्वाय पर्यंके मृदुतल्योय शोभिते। 30 ॥ 
वैश्य का रूप धारण किये शिवजी के साथ वह महानन्दा वेश्या कोमल तकियों गद्दों वाले पलंग पर सो गई।

जुआ खेलना- पद्मपुराण उत्तर खण्ड 6 अध्याय 122 श्लोक 25-26-27-29

शङ्करच भवानी च क्रीडया द्यूतमास्थिती। 25
गौरी जित्वा पुरा शम्भुर्नग्नो द्यूते विसर्जितः ।
अतोऽयं शङ्करो दुःखी गौरी नित्यं सुखेस्थिता। 26 ।।

शिवजी और पार्वती जी दोनों जुआ खेलने में स्थित हुए। पार्वती ने विजय प्राप्त करके शिवजी को जुए में नंगा करके त्याग दिया। इसलिए शिवजी बहुत दुखी हुए और गौरी नित्य सुख भोगने लगीं।

(अमर स्वामी रचित 'वेद और पुराण' नामक लेख 'आर्योदय' वेदाङ्क मार्च 1966 से साभार)

दीपावली पर जुआ खेलने का प्रचलन सम्भवतः इसी पुराण-शिक्षा का परिणाम है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण (एक सरल समीक्षा) पृष्ठ 17 पर शिव निन्दा के अन्तर्गत डा. भवानी लाल भारतीय लिखते हैं- "शिव निन्दा में यह पुराण किसी प्रकार कम नहीं है। कहते हैं कि कुमारसम्भव में पार्वती परमेश्वर के सम्भोग श्रृंगार का नम्न वर्णन करने के फलस्वरूप कालिदास को कोढ़ हो गया था। यदि यह बात सत्य हो तो अपने पूज्य देवताओं की रति का जितना वीभत्स और खुला वर्णन पुराणों में हुआ है, उसे देखते हुए पुराणकारों के लिए तो कुष्ठ से भी भयंकर कोई रोग का दण्ड विधान होना चाहिए। गणपति खण्ड के प्रथम अध्याय में ही पार्वती और शकर के जिस विहार का वर्णन हुआ है उसमें पुराणकार विपरीत रति का वर्णन करना भी नहीं भूले है:

तयोर्बभूव श्रृंगारो विपरीतादिको महान्। ग. 16 ॥

जिस जाति के देवता ही इस प्रकार के दुराचारी व लम्पट हों, उनसे संयम, नियम, ब्रह्मचर्य और वीर्यरक्षण की क्या शिक्षा ली जा सकता है। इतना ही नहीं, शिव को काम विभोर अवस्था में सर्वत्र चित्रित किया गया है। जब उनकी पूर्व पत्नी सती का देहान्त हो गया तो अत्यन्त कामातुर होकर शिव ने सती के मृत देह को ही अपने हृदय पर रख लिया। पुनः के

अधरे चाधरं दत्वा वक्षो वक्षसि शङ्करः।
पुनः पुनः समाश्लिष्य पुनर्मूर्छामवापसः। श्री. पू. 43.17 ।।

अधरों पर अधर और वक्ष पर वक्ष रख शंकर ने उस मृतक शव का आलिंगन किया और पुनः मूर्छित हो गये। जिस व्यक्ति को मृत और जीवित का ही ज्ञान न हो और जो काम मोहित होकर इस प्रकार की गर्हित चेष्टायें करे, क्या वह हमारा आदर्श हो सकता है? पार्वती के विवाह के अनन्तर शिव ने उससे जो महा श्रृंगार आरम्भ किया उसकी अवधि सहस्र वर्ष पर्यन्त बताई गई है।

महाश्रृंगारमारेभे सहस्राब्दं जगत्पिता।। श्री. पू. 46.48 ।।
यह घोर विलासिता से पूर्ण आदर्श ही ब्रह्मवैवर्त में सर्वत्र चित्रित किया गया है।

भागवत पुराण

इस पुराण में दूसरे देवताओं से विष्णु की आराधना कराई गई है। स्कन्ध 8, अध्याय 12 में मोहिनी अवतार को देखें- विष्णु जी अत्यन्त सुन्दरी स्त्री मोहिनी का रूप धारण करके गेंद उछालते हुए हाव-भाव, चटक-मटक से शिवजी के पास आये। उन्हें देखकर वह काम से उन्मत्त हो गये और अपने को वश में रख सके। जैसे मस्त हाथी हथिनी के पीछे दौड़ता है, वैसे ही वे मोहिनी के पीछे दौड़े और उसे पकड़ लिया। मोहिनी अपने को छुड़ाकर भाग निकली। मोहिनी को देखने से वे इतने बेचैन हो गये कि वे अपनी आत्मा, पार्वती और जितने सेवक थे, उन सबको भूल गये। जहाँ कहीं भी ऋषि-मुनि, वन पर्वत और तालाब थे, वहाँ सब स्थानों पर शिवजी ने मोहिनी के पीछे दौड़ लगाई। जिससे उनका वीर्य-पात हो गया। जब उनकी यह दशा हो गई तो हार कर बैठ गये और पार्वती से बोले- देखा तुमने विष्णु की कैसी माया है? जब उनकी माया को देखकर मैं जो इतना बड़ा और स्वतंत्र हूं मोहित हो गया, तब परतंत्र दूसरे देवताओं का तो कहना ही क्या है।

यद्यपि हम तो इसे कहानी मात्र ही मानते हैं, तदपि पुराणकार की दृष्टि में शिवजी का क्या स्थान है, यह विचारणीय है।

एक और कथा जो शिवजी के भोलेपन के विषय में प्रचलित है, उस पर भी विचार करते हैं।

इसके अनुसार वृकासुर ने शिवजी की भारी तपस्या की। अपने शरीर को काट-काट कर हवन किया। जब सिर को काटने लगा तो शिवजी ने प्रकट होकर वरदान माँगने को कहा तो उसने यह वर माँगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूं वही मर जाय। शिवजी ने ऐसा ही हो' कहकर मानो उसे अमृत पिला दिया। वृकासुर की इच्छा हुई कि वह पार्वती को हर ले। वह वर की परीक्षा के लिए उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का उद्योग करने लगा। तब शिवाजी अपने ही दिये वरदान से भयभीत होकर भागने लगे। भगवान विष्णु ने शिवजी को सङ्कट में देखा तो वे ब्रह्मचारी बनकर दूर से धीरे-धीरे उस असुर के पास जाने लगे। उन्होंने उससे कहा "दानवेन्द्र! यदि आप शिव को जगद्गुरू मानते हो तो उनके वर की परीक्षा अपना हाथ अपने सिर पर रख कर कर लीजिए। विस्मृति हो जाने से उस दुर्बुद्धि ने भूल कर अपना हाथ निज सिर पर रख लिया। बस उसी क्षण उसका सिर फट गया और वृकासुर (भस्मासुर) मर गया। भा. 10.21-88 (डा. श्री राम आर्य भागवत समीक्षा पृष्ठ 227 से उद्धृत इस प्रसंग में शिव की अज्ञानता के दर्शन होते हैं। वे यह नहीं जान सके कि इस वर का उपयोग वह किसके ऊपर करेगा ऐसा अनिष्टकारी वर नहीं देना चाहिए था। फिर जब वह उनको ही भस्म करना जाहता था तो अपनी रक्षा वे अपने त्रिशूल से ही कर सकते थे या फिर अपना सर्प ही उसके ऊपर छोड़ देते। कुछ नहीं तो अन्तर्धान ही हो जाते जिससे वह उन्हें देख ही नहीं पाता। वस्तुतः यहाँ पुराणकार को विष्णु की प्रतिष्ठा कसी थी। यदि यही कथा शिवपुराण में होती तो शिव की ही महिमा गाई जाती।

एक अन्य प्रसंग शंखचूड का देखें शिवपुराण रूद्रसंहिता अ. 19 से यह दम्भ का पुत्र था और इसका विवाह ब्रह्मा ने तुलसी के साथ कराया था। यह सती-साध्वी महिला थी। गुरू शुक्राचार्य ने शंखचूड को दैत्यों और असुरों का अधिपति बना दिया। कुछ ही समय में अपने बल-पराक्रम से सम्पन्न शंखचूड देव, दानव, राक्षस, गन्धर्व, नाग, किन्नर और मनुष्यों का एकछत्र सम्राट बन गया। उसके राज्य में न तो अकाल ही पड़ता था और न ही महामारी। सारी प्रजा सदा ही सुखी रहती थी। देवताओं के अतिरिक्त सभी जीव सुखी थे। ये देवता ब्रह्मा और विष्णु को लेकर शिव के पास गये और अपने दुःखों का वर्णन किया। शिव ने पहले उसके पास अपना दूत भेजा जिसका उत्तर उसने दिया कि बिना युद्ध के राज्य वापस नहीं करूंगा। अब शिव ने विपुल सेना लेकर उस पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध के बीच ही भविष्यवाणी हुई कि जब तक शंखचूड के पास कवच रहेगा और उसकी पत्नी का सतीत्व अखण्डित रहेगा तब तक जरा और मृत्यु का उस पर प्रभाव नहीं होगा। इस कार्य के लिए विष्णु को नियुक्त किया गया। पहले विष्णु ने ब्राह्मण वेश में उससे कवच माँग लिए फिर उसी का रूप बनाकर उसकी पत्नी का शीलहरण किया। तभी शिव ने अपने त्रिशूल से उसका वध कर दिया। जब तुलसी को विष्णु के झल का पता लगा तो उसने विष्णु को पत्थर हो जाने का शाप दे दिया। तुलसी ने भी अपना शरीर त्याग दिया।

इस प्रसंग में हम देखते हैं कि शिव बिना विष्णु की सहयता के उसे नहीं मार पाये। विष्णु ने अधर्म का आश्रय लिया और शीलहरण जैसा पाप कर्म किया जो किसी भी दृष्टि से क्षम्य नहीं है। भले ही यह कार्य देवों को राज्य दिलाने के लिए किया गया हो। इस पुराण के अनुसार ही शंखचूड के राज्य में सुख-शान्ति थी। यहाँ शिवपुराण के कर्ता ने विष्णु का आभार तो माना । किन्तु विष्णु को दुराचारी बनाकर इन ग्रन्थों में भविष्यवाणी भी कही जाती है जिसका पता ही नहीं चलता कि यह भविष्यवाणी कौन करता है? इसके कर्ता को सब कुछ पहले से ही कहाँ से मालूम हो जाता है?

पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि जिस देवता को प्रमुख मान कर जो पुराण लिखा गया है उसी देवता से सारी सृष्टि का निर्माण करा दिया गया है।

শিব কে ছিলেন ?

शिव किसके पुत्र

शिव के भक्तों की यह मान्यता है कि शिव आदिदेव हैं वे किसी के पुत्र नहीं किन्तु भागवतानुसार उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा की भृकुटि से हुई। देखें

सोऽवध्यातः सुतैरेवं प्रत्याख्यातानुशासनैः ।
क्रोधं दुर्विषहं जातं नियन्तुमुप चक्रमे ॥ 6 ॥
घिया निग्रहा माणोऽपि ध्रुवोर्मध्यात्प्रजायते ।
सद्योऽजायत तन्मन्युः कुमारो नील लोहितः ॥ 7 ॥ (भागवत 3.12)

अर्थात् ब्रह्मा ने देखा कि मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं तो उन्हें बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ। उन्होंने उसे रोकने का बुद्धिपूर्वक यत्न किया। किन्तु उसी समय उनकी भृकुटि से नीललोहित रग का बालक रूद्र (शिवजी) पैदा हो गये। पद्म पुराण (उत्तर खण्ड अध्याय 125 कलकत्ता) के अनुसार (डा. श्रीराम आर्य कृत भागवत समीक्षा से उद्धृत)

महर्षि दयानन्द ने पूना में दिये प्रवचनों में प्रथम महेश को अन्निष्वात्त का पुत्र बताया है। सत्यार्थप्रकाश के एकादश समुल्लास में ब्रह्मा विष्णु और महेस की उत्पत्ति देवी भागवत के आधार पर देवी के हाथ रगड़ने से हुई।

शिव के चार विलक्षण पुत्र

शिव जी के दो विवाह हुए। पहला सती के साथ, दूसरा पार्वती के साथ। शिव के चार पुत्र. कहे गये हैं। जो कार्तिकेय, गणेश, शुक्राचार्य और अंधक कहे गये हैं। इन सभी पुत्रों की उत्पत्ति असाधारण और अस्वाभाविक, सृष्टि नियम के विरूद्ध होने से काल्पनिक ही है। सम्भवतः शिव का कोई पुत्र नहीं था। पुराणों में इन्हें शिखण्डी कह कर भी पुकारा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि ये निःसन्तान थे।

कार्तिकेय- शिवपुराण कुमार खण्ड अ। के अनुसार शिव और पार्वती की रति क्रिया एक सहस्र पर्यन्त चलती रही इससे देवताओं की चिन्ता बढ़ गई उन्होंने ब्रह्मा के समक्ष अपनी समस्या को रखा तो ब्रह्मा ने उन्हें आश्वस्त किया कि सभी कुछ ठीक होगा। इस कार्य के लिए अग्नि को आदेश दिया गया कि वह कबूतर बन कर शिव का वीर्य ग्रहण करे। अग्नि ने वैसा ही किया किन्तु वह इतने अधिक ताप को सहने में असमर्थ रहा और उसने उसे गिरा दिया। सभी देवता विकल हो रहे थे कि इस समस्या का निदान क्या है? तब उनके वीर्य को न सहने के कारण सब देवता पीड़ित हुए शिव की इच्छा से उनकी बुद्धि नष्ट हो गई। विष्णु आदि सब देवता मोहित होकर शिव के द्वार पर जाकर बोले हमको गर्भ रह गया है।

शिव पुराण कुमार खण्ड अ.2 के अनुसार- स्नान करके 6 स्त्रियाँ शीत में महा व्याकुल हुई। हे मुने! वे शीघ्रता से अग्नि की ज्वाला के समीप गई। अग्नि के तापते ही शिव वीर्य के कण उनके शरीर में रोम के छिद्रों द्वारा प्रवेश कर गये। जिससे अग्नि का दाह निवृत्त हो गया। मुनियों ने उन स्त्रियों को इस प्रकार गर्भ युक्त देखकर क्रोध से व्याकुल हो त्याग दिया। वे छहों स्त्रियाँ इस प्रकार अपना व्यभिचार देख कर महा दुख से व्याकुल हो गई। उस मुनियों की स्त्रियों ने उस वीर्य को त्याग दिया, हिमालय के ऊपर उस वीर्य को त्याग कर वे सुखी हुई। उस वीर्य को सहने की सामर्थ्य न रखने के कारण हिमालय कम्पित होने लगा। उस दाह को न सह सकने के कारण उसने उस वीर्य को गङ्गा में डाल दिया। गङ्गा भी शिव जी के वीर्य को न सह सकी और पीड़ित हो अपनी तरङ्गों से उस वीर्य को सरकण्डे के वन में त्याग कर दिया। वहाँ वह वीर्य पतित होते ही तत्काल बालक बन गया जो सुन्दर, सुभग और तेजस्वी प्रीति को बढ़ाने वाला था। इस प्रकार छह मुँह वाले स्कन्द अथवा कार्तिकेय का जन्म हुआ।

गणेश-

पार्वती स्नान करने बैठीं तो उन्हें चिन्ता हुई कि द्वार पर कोई रक्षक होना चाहिए।

विचार्येति च सा देवी वपुषो मलसम्भवम्।
पुरूषं निर्ममौ सा तु सर्वलक्षण संयुतम्। 20 ।।
हे तात श्रृणु मद्वाक्यं द्वारपालो भवाद्य मे।।25।
विना मद्याज्ञां मत्पुत्र नैवायान्मद् गृहान्तरम् ॥26॥
एतस्मिन्नेव काले तु शिवो द्वारे समागतः ।। 31 ॥
ताडितस्तेन यष्टया हि गणेशेन महेश्वरः ॥ 35 | शिव रूद्र. कु. अ. 13

क्रोधं कृत्वा समभ्येत्य मम श्मश्रण्यवाकिरत् अ 15 श्लोक 31
अथ शक्तिसुतौ वीरो वीर गत्यसा स्वयष्टितः।
प्रथमं पूजयामास विष्णुं सर्वसुखावहम् ॥1॥
एतदन्तरमासाद्य शूलपाणिस्तथोत्तरे ।
आगत्य त त्रिशूलेन तच्छिरो निरकृन्तत।। 14 ॥ अ. 16
तावच्च गिरिजा देवी चुक्रोधाति मनीश्वर॥4॥ अ. 17
प्रथमं मिलितस्तत्र हस्ती चाप्येकदन्तकः ॥ 49 ।।
तच्छिहश्च तदानीत्वा तत्र तेऽयोजयन् ध्रुवम् ॥ 50॥
धन्योsसि कृतकृत्योsसि पूर्वपूज्यो भवाधुना॥8॥ अ. 18

अर्थात् विचार करके पार्वती ने अपने शरीर से मैल उतारकर सब लक्षणों से युक्त पुरुष बनाया और कहा कि द्वारपाल बन जा मेरी आज्ञा के बिना कोई मेरे घर के अन्दर न आवे। इतने में शिवजी द्वार पर आ गये। गणेश ने महादेव को लाठी से पीटा। क्रोध में आकर ब्रह्मा की भी दाड़ी उखाड़ डाली। फिर प्रथम पार्वती के पुत्र गणेश ने डण्डे से विष्णु की पूजा की। इतने में मौका पाकर शिव ने त्रिशूल से गणेश का सिर काट दिया। इस पर पार्वती को क्रोध आ पहले पहल एक दाँत वाला हाथी मिला, तब उसका सिर काटकर गणेश के धड़ पर जोड़ दिया। पार्वती ने धन्य कहकर पूर्वपूजा का विधान कर दिया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि गणेश की उत्पत्ति नितान्त अस्वाभाविक प्रकार से होती है। क्या पार्वती के शरीर पर इतना मैल था जो एक पुतला बन सके। यदि यह सत्य मान लिया जाय तो यह तो स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि गणेश का जन्म न तो पार्वती की कोख से ही हुआ और न ही शिव के वीर्य से। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जिस बालक का सिर कट गया के धड़ पर हाथी के बच्चे का सिर किस प्रकार सही लग या फिर उसके स्वर यन्त्र और मस्ति क तो हाथी के ही रहेंगे वह किस प्रकार की भाषा बोलेगा।

अन्धक- शिव के एक और पुत्र कहा गया है अन्धकासुर इसकी उत्पत्ति भी अलौकिक है। एक बार शिव और पार्वती विहार कर रहे थे कि विनोद वश पार्वती ने शिव के दोनों नेत्र अपने हाथों से बन्द कर दिये। इससे शिव के ललाट पर पसीने की बूँदें उत्पन्न होकर भूमि पर टपक पड़ीं। इस बूंदों से एक ऐसा जीव प्रकट हुआ जिसका मुख विकराल था, वह अत्यन्त भयंकर क्रोधी, कृतघ्न, अंधा, कुरूप, जटाधारी, काले रंग का, मनुष्य से भिन्न, बेडौल और सुन्दर बालों वाला था।

पार्वती के प्रश्न करने पर शिव ने कहा कि जब तुमने मेरे नेत्र मूँदे थे तभी यह प्राणी पसीने से उत्पन्न हुआ है। इसका नाम अन्धक है। इसका पुत्रवत पालन करो। कालान्तर में हिरण्याक्ष ने शिव को प्रसन्न कर एक बलशाली पुत्र की अभिलाषा प्रकट की। शिव ने कहा कि मेरा एक पुत्र तेरे जैसा ही बलशाली अन्धक नाम वाला है वह मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ। इसी हिरण्याक्ष का वध विष्णु के द्वारा हो जाने पर अन्धक को राजगद्दी मिली। इधर अन्धक के दूतों ने उसे पार्वती के सौन्दर्य के विषय में बताया तो उसने अपने दूत भेजकर शिव से पार्वती को माँगा। शिव के इनकार करने पर युद्ध आरम्भ हो गया। इस युद्ध में पहले तो शिव ने उसे मार ही दिया फिर दया करके उसे जीवित कर अपने गणों का अध्यक्ष बना दिया।

(शिव पुराण रूद्र संहिता अ. 26 से 49)

शुक्राचार्य- अन्धकासुर के युद्ध करते समय शिव ने देखा कि हताहत असुरों को शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से जीवित करते जाते हैं तो उन्होंने शुक्राचार्य को पकड़वा कर अपने मुँह में रखकर निगल लिया। वे उनके उदर में भटकते रहे और अन्त में उनके लिंग मार्ग से होकर निकले। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना पुत्र स्वीकार करते हुए उन्हें शुक्र नाम दिया।

(शिव पुराण रूद्र संहिता अ. 48 )

इस प्रसंग में विचारणीय है कि शुक्राचार्य तो पहले से ही इस नाम से पुकारे जाते थे। तब शिव के द्वारा इस नामकरण का क्या अर्थ है।

शिव का पौत्र आड़ि- अन्धक का पुत्र आड़ि था, जो शिव का पौत्र हुआ। इसने पार्वती की अनुपस्थिति में शिव के पास पार्वती के रूप में पहुँच कर शिव को प्रसन्न किया। शिव ने उसके छल को जानकर उसे मैथुन कर के मार डाला। (मत्स्य पुराण अ. 155, डा. श्रीराम आर्य लिखित- 'शिवजी के चार विलक्षण बेटे से उद्धृत)

इन सारे प्रसंगों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि शिवजी निःसन्तान थे ये कहानियाँ स्वयं ही अपनी सत्यता पर प्रश्न चिह्न लगाने का कार्य कर रही हैं। इन पर विचार करें तो यही ध्वनि निकलती है कि पुराणकार शिव को परमात्मा मानते हुए भी उनके कार्य कलाप साधारण मनुष्य से भी निम्न स्तर के लिखने में संकोच नहीं करते।

शिव की माया का प्रभाव

इस पुराण में शिव का चरित्र तो अनुकरणीय है ही नहीं वहाँ उनकी माया भी दूसरे देवताओं के चरित्र को गिराने का कार्य करती है। देखें- शिवपुराण उमा संहिता अं 4 श्लोक 7 से 38 तक।

सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी शिव जी की सुखदायक कथा सुनो, जिसके सुनने मात्र से शिवजी में भक्ति होती है। हे मनीश्वर! शिवजी की माया के प्रभाव से विष्णु ने काम से मोहित होक अनेक बार पर स्त्री प्रसंग किया। इन्द्र देवताओं का स्वामी होके गौतम मुनि की स्त्री पर मोहित होके पाप करने लगा तो उस दुष्टात्मा ने गौतम मुनि का शाप पाया। जगत् में श्रेष्ठ अग्नि भी शिव की माया से मोहित होने से गर्व से काम के वशीभूत हुए और फिर शिव ने ही उनका उद्धार किया है व्यास जी! जगत् के प्राण विष्णु भी शिव की माया से मोहित होके काम के वशीभूत होने से पर-स्त्री से प्रेम करने लगे। तीव्र किरणों वाले सूर्य भी शिव की माया से मोहित हो काम में व्याकुल होकर घोड़ी को देख शीघ्र ही घोड़े का रूप धारण करने वाले हुए। शिव की माया से व्याकुल चन्द्रमा ने भी गुरू की पत्नी का हरण किया और शिव ने ही उद्धार किया। पहले घोर तप में प्रवृत्त हुए मित्रा वरूण दोनों मुनि भी शिव की माया से मोहित हो गये। तरूणी उर्वशी अप्सरा को देख के काम से मोहित हुए तब मित्र ने घड़े में और वरूण ने जल में अपना वीर्य छोड़ा। तब उस कुम्भ से मित्र के पुत्र वशिष्ठ जी उत्पन्न हुए, वरूण से बड़वानल के समान कान्ति वाले अगस्त जी उत्पन्न हुए। शिव की माया से मोहित हुए ब्रह्मा के पुत्र दक्ष अपनी (बहिन) वाणी से भोग करने की इच्छा वाले हुए। ब्रह्मा ने शिव माया से मोहित हो अनेक बार अपनी पुत्रियों से भोग करने की इच्छा की। शिवमाया से मोहित हुए महायोगी च्यवन ऋषि ने भी कामवश अपनी कन्याओं में आसक्ति की। शंभु कीमाया से मुग्ध हुए गौतम मुनि ने भी शरद्वती को नग्न देखकर काम से व्याकुल होके उसके साथ रमण किया। फिर उस तपस्वी ने निकले हुए अपने बीर्य को दौने में रखा जिससे द्रोणाचार्य जी पैदा हुए। शिव की माया से मोहित हो पारासर जी ने दास कन्या मत्स्योदरी से विहार किया। विश्वामित्र ने शिवमाया से मोहित हो मेनका से व्यभिचार किया। शिवमाया से मोहित हो रावण ने काम के प्रभाव से सीता का हरण किया। शिव माया से मोहित हो देवताओं के गुरु बृहस्पति ने काम के वश अपने बड़े भाई की स्त्री से भोग किया जिससे भारद्वाज पैदा हुए।

इस सारे प्रकरण में देखने योग्य बात है कि जितने प्रतिष्ठित ऋषि मुनि हैं वे व्यभिचार से उत्पन्न हुए हैं या स्वयं व्यभिचार में लिप्त हैं। उन्हें व्यभिचारी बनाने में शिवमाया का ही प्रभाव है। आश्चर्य की बात है कि शिव का अर्त कल्याण करने वाला है जबकि शिव अपनी माया के प्रयोग से तपस्वी लोगों को कामुक बनाकर उन्हें पतित बनाने का कार्य करते हैं। क्या यही शिवजी की सुखदायक कथा है?

                                                      शिव की पूजा का वाममार्गी प्रकार

शिव-पूजा के नाम पर लिंग पूजा का प्रचलन एक अन्य अश्लील और निरर्थक कृत्य है। जिसे सभ्य समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता। जो लोग इसके वास्तविक रूप को नहीं जानते वे अन्धश्रद्धावश इसका समर्थन करते देखे जाते हैं। इसे महिमामण्डित करने के लिए शिवपुराण कोटिरूद्र सहिता 4 अ. 12 में दारूवन की कथा का सृजन किया गया है। इस वन में सत्पुरुष लोग रहते थे जो शिव के ध्यान में मग्न रहते थे। एक बार शिव वहाँ नंग-धड़ंग होकर, हाथ में लिंग धारण कर विचरने लगे। यह देखकर ऋषियों की पत्नियाँ अत्यन्त भयभीत हो गई। जब ऋषियों ने यह कृत्य देखा तो पूझा कि तुम कौन हो। उत्तर न मिलने पर उन्होंने कहा कि तुमने यह वेद के लोप करने वाला कार्य किया है अतः तुम्हारा यह लिंग पृथिवी पर गिर पड़े। लिंग उसी समय गिर पड़ा। वह स्थिर न होकर जिस लोक में गया वहाँ सब कुछ भस्म करने लगा इससे त्रस्त होकर देवताओं ने शिव की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर शिन ने कहा कि पार्वती यदि योनिरूप होकर इसे धारण करें तो यह शान्त हो जायेगा।

इसी कारण शिव मूर्ति को योनि और लिंग के रूप में बनाकर उसे पूजा जाता है। इसे शान्त रखने के लिए इसके ऊपर जलपूर्ण घट लटकाया जाता है। इस समस्त बातों का शिवपुराण में सविस्तार वर्णन है।

लिंग पूजा का प्रचलन कराने के लिए जिस कथा का सृजन किया गया है उसमें शिव का चरित्र किसी भी प्रकार से सभ्य समाज में आदर पाने योग्य नहीं हैं। और यदि शिव ऐसे ही चरित्र वाले थे तो स्वयं ही विचार करें कि ऐसा चरित्र आपको क्या शिक्षा दे सकता है।

इस विषय में पं. राजेन्द्र- 'भारत में मूर्तिपूजा' नामक पुस्तक में लिखते हैं. "उचित तो यह था कि देश के विचारशील विद्वान् मूर्तिपूजा के स अश्लील तथा अशिष्ट प्रकार के विरूद्ध आवाज उठाते और इसका प्रचार रोकने का प्रयत्न किया जाता, किन्तु इसके विपरीत इस • शिवलिंग शब्द की नवीन व्याख्या द्वारा सत्या को छिपाने का अनुचित यत्न किया जाता है, जोकि पुराणों में दी गई अनेक साक्षियों के भी सर्वथा विपरीत है। इन नवीन व्याख्याताओं का कहना है कि 'लिंग' का अर्थ उपस्थेन्द्रिय न होकर चिह्न' है, अतः उनके अनुसार 'शिवलिंग का अर्थ शिव का चिह्न हुआ।"

दक्षिण भारत, बिहार, बंगाल तथा असम के मन्दिरों में प्रतिष्ठित शिवलिंग तथा शिव पार्वती की मूर्तियों के चित्र जो गीता प्रेस के 'कल्याण' के 'शिवाइक' एवं 'हिन्दू संस्कृति अंक -1950 में प्रकाशित है वे प्रमाण रूप में देखे जा सकते हैं।

इसी प्रसंग में एक और विवरण भविष्णु पुराण प्रतिसर्म पर्व 3 अ. 17 में देखा जा सकता है। ऋषि अत्रि की पत्नी अनसूया के सामने विष्णु, शिव और ब्रह्मा हाथ में लिंग धारण कर पहुँचे और उससे मैथुन करने की चेष्टा करने लगे। उसने कुपित होकर शाप दिया कि संसार में शिवका लिंग, ब्रह्मा का सिर और विष्णु के पैर पूजे जायेंगे और हे देवताओं तुम्हारा उपहास होगा। कहिये ये शाप है या वरदान? फिर भी पुराणकार ने इन तीनों देवताओं को चरित्रहीन तो बना ही दिया।

डा. श्रीराम आर्य ने 'पौराणिक गप्प दीपिका' में दो ऐसे प्रसग दिये हैं जिनसे पौराणिक शिव की मानसिकता का स्तर उजागर होता है। महाभारत सौतिक पर्व अ. 17 वाला प्रसंग पृष्ठ 13 पर दे चुके हैं दूसरा प्रसंग देखें

(पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अ. 31 कलकत्ता के अनुसार) एक शिवदती शिवजी से ऐसे भोजन की माँग करती है जो रसयुक्त, मीठा और दिल को ताकत देने वाला हो। इसके उत्तर में शिवजी कहते हैं में तुम्हें ऐसी वस्तु देता हूँ जिसे आज तक किसी ने नहीं चखा है। मेरे अघोभाग में नाभि के नीचे दो गोल फल हैं, तुम मेरे लम्बे के साथ दोनों वृषणों को रख डालो😂। इनका भोजन कर लेने से तुम्हारी पूर्ण तृप्ति हो जायेगी। हाँ जो कोई जो लोग बिवा हास्य किये इसका शुभ आचरण करेंगे उनको धन, पुत्र, स्त्री, मकानादि सम्पत्ति ये सब कुछ प्राप्त हुआ करेगा।

इस प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए डा. साहब लिखते हैं कि शिवजी की सूझ बड़ी विलक्षण थी। किसी स्त्री के भोजन माँगने पर उससे ऐसी बात कहना पौराणिक सभ्यता को प्रकट करता है। शिवजी को यह भय था कि कहीं लोग उनकी इस बात का मजाक न उड़ायें इसलिए उन्होंने हास्य करने वालों को भय दिखाने को शाप भी दे दिया। वे आगे लिखते हैं कि हमारी दृष्टि में तो किसी वाममार्गी ने यह कथा गढ़ कर पुराण में प्रक्षिप्त कर के शिवजीको कलंकित किया है।

शिवजी का पार्वती को विचित्र आदेश- इस शीर्षक के अन्तर्गत डा. साहब ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खण्ड अ. 6 कलकत्ता के अनुसार लिखते हैं विष्णु जब देवताओं के साथ शिव के निवास पर गणेश को देखने के लिए गये तो पार्वती तिरछी निगाहों से विष्णु के अति सुन्दर स्वरूप को देखकर मुग्ध हो गई। पार्वती के मन की बात को जानकर शिवजी ने विचार किया कि उनका मन भी रह जाये और विष्णु का भी आदर सत्कार पूरी तरह से हो जाये अतः उन्हें एकान्त में बुलाकर कहा कि विष्णु को अपना श्रृंगार दान कर दें (कुकर्म करालें)। हमारी दृष्टि में पौराणिक सत्कार का यह प्रकार एक गन्दी प्रथा है।

कुछ लोगों का विचार है कि शिवलिंग ब्रह्माण्ड का प्रतीक है इस विषय में निवेदन है कि प्रतीक की व्याख्या क्या इसी प्रकार अश्लील प्रसंग रचकर की जा सकती है। कुछ लोग स्पष्टीकरण देते हैं कि संसार की सृष्टि प्रजजन के अंगों से ही होती है। तब वे अपने माता-पिता के उन प्रजनन अंगों की पूजा क्यों नहीं करते जिनसे वे स्वयं उत्पन्न हुए हैं। निश्चय ही यह विचार वाममार्गी दर्शन का परिचायक है। यही दर्शन समाज में विकृत विचारों को फैलाने का कार्य कर रहा है। इस प्रकार के विचार सभ्य समाज के परिचायक नहीं हो सकते।

महिलाओं के लिए विचारणीय- शिवलिंग पूजा जैसी अश्लील कुप्रथा से तो महिला वर्ग को वैसे भी दूर रहना चाहिए। न तो यह किसी भी अर्थ में कल्याणकारी ही है और न किसी धर्मशास्त्र के द्वारा विहित ही है। पुराणों से उपजी यह प्रथा कुछ पुराणों में ही वर्जित है। देखें दे भा. 4.13.16.

रागी विष्णुः शिवो रागी ब्रह्मापि रागसंयुतः।
रागवान्किमकृत्यं वै न करोति नराधिप ॥ 16 ॥

अर्थ- विष्णु, शिव, ब्रह्मा- ये सभी रागी है और हे राजन्! रागी व्यक्ति कौन सा कर्म (कुकर्म) नहीं कर सकता।

शंभो पपात् भुवि लिंगमिदं प्रसिद्धं शापेन तेन चभूगोविचैपिने गतस्य।
तं ये नराः भुवि भजन्ति कपालिनं तु तेषां सुखं कथमपि परत्र मातः ॥-दे. भा. 5.19.19

अर्थ- भृग के शाप से जिस शिवजी का लिंग गिर गया था और जो हाथ में मनुष्यों की खोपड़ियाँ रखता है, उस शिवजी की जो उपासना करते हैं, हे माता उनको इस लोक या परलोग में कहीं भी सुख नहीं मिलेगा।

पाषण्डै: पूज्यमानस्तु लिंग रूप धरः शिवः पद्मपुराण. उ. ख. अ. 225.42 लिंग रूपी शिव की पूजा पाखण्डियों में ही मान्यता प्राप्त करेगी।

पद्म पु. पाताल ख.अ. 114 श्लोक 205 में शिवजी स्वयं ही अपनी पूजा का निषेध करते हुए कहते हैं। मेरे नैवेद्य-पत्र-पुत्र और फल कोई भी ग्रहण करने योग्य नहीं है। मानो कुए में फेंक देना है।' ऊपर चढ़ाया

पूर्तः पुराणचतुरैर्हरिश कराणा सेवापराश्च विहातास्ता निर्मितानाम्।। दे. भा. 5.19.12 के अनुसार धूर्त, चतुर लोगों ने शिव ब्रह्मा, विष्णु आदि की पूजा अपने पेट भरने के लिए चलाई है।

पुराणों की रचना का उद्देश्य

डा. श्रीराम आर्य के अनुसार जिन देवताओं की प्रशंसा में पुराणों में सम्प्रदायवादियों ने हजारों मिथ्या श्लोक लिख दिये हैं, उन्हीं देवताओं की निन्दा जब इन पुराणों में लिखी देखते हैं तो यह मानने पर हमें विवश होना पड़ता है कि ये पुराण किसी हालत में व्यास जी अथवा ● किसी एक विद्वान की रचना नहीं है। पुराणोक्त शिव पर्वतीय भूतान प्रदेश के जंगली लोगों के राजा थे। पुराणों के बनाने वाले पर्वतीय कवियों ने उनको परमात्मा बताकर जनता को धोखे में डाल दिया है। 

'शिवभक्तो!' कुछ सोचें!!!" के शीर्षक से आचार्या सूर्या देवी चतुर्वेदा का एक लेख संवत् 2069 शिवरात्रि के अवसर पर 'आर्य संसार में प्रकाशित हुआ जिसमें उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर में शिव की पूजा करने का विवरण दिया है। उन्हीं की लेखनी के अनुसार

"""उज्जैन के स महाकालेश्वर की यह विशेषता है कि उनकी आराधना जहाँ बिल्व पत्र, गुलाब पुष्प चावल, रोली, गुड़, दुध आदि द्रव्यों से होती है, वहीं श्मशान से लाई गई ताजी भस्म से भी होती है। इस आराधना को भस्म आरती' कहा जाता है। शिव महाकालेश्वर का यह भस्म आरती आराधना कार्य प्रातः 5 बजे होता है। श्मशान से भस्म लाने का कार्य व भस्म आरती करने का कार्य नरमुण्डधारी औघड़ का होता है। भस्म आरती के समय यजमान, पुजारीगण एवं भस्म लानेवाला औघड़ वहाँ रहते हैं। वर्तमान में पुजारीगण ही भस्म आरती। करते हैं, औघड़ एक तरफ खड़ा रहता है। भस्म आरती का यह तरीका है कि श्मशान से लाई गई लगभग 5-6 किलो भस्म वस्त्र में रखकर, वस्त्र की पोटली सी बनाकर शिवलिंग पर तब तक झाड़ी जाती है, जब तक पूरी की पूरी भस्म शिवलिंग पर न छन जाये। भस्म आरती करने से पूर्व शिवलिंग को खूब धोया माँजा जाता है। चन्दन, रोली आदि से त्रिनेत्र आदि बनाये जाते हैं, पुष्प आदि भी चढ़ा दिये जाते हैं..... मन्दिर में तो भस्म आरती का दृश्य नारी जगत् नहीं देख सकता।..."

महाकालेश्वर की इस सीरियल भस्म आरती को देखकर मेरा मन तो बुझ ही गया। ईश्वर के स्वरूप विषयक विचार भी चक्र प्रतिचक्र करने लगे।... उसके साथ यह कैसी अशिष्टता-बदसलूकी है ? ईश्वर की कृपा, ईश्वर का सान्निध्य आदि राख छानने से मिलती है, तब तो उदर भरने के लिए चूल्हे में जलायी गई अग्नि की भस्म को छानने वाले उनकी अपेक्षा अधिक भाग्यशाली होंगे।

दयानन्द का शिव दर्शन

आचार्या सूर्या देवी चतुर्वेदा का एक अन्य लेख सार्वदेशिक साप्ताहिक दि. 16 मार्च 2003 को प्रकाशित हुआ जिसका कुछ भाग यहाँ प्रस्तुत करते हैं। "महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन किसी विरोध या वैरभाव के कारण नहीं किया अपितु इतिहास और वेदादि शास्त्रों से विरूद्ध होने से किया। महर्षि को यह अलौकिक ज्ञान फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवलिंग की निस्सार पूजा को देखकर हुआ था। जो परमेश्वर अकाय है, सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में रमा हुआ है, जिसे हमारी ये दो आँखें सर्वदी ही देखने में असमर्थ हैं, जिसकी दिव्यता, विलक्षणता वेदों में भरी पड़ी है, जिसे उपनिषदों के

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाइरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनाद्यनन्त महतः परं ध्रुवं निचाय्य तं मृत्युमुखात् प्रमुच्यते । कठो 3.15

यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुः श्रोतं तदपाणिपादम्।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भत्योनिं परिपश्यन्ति धीराः॥ मुण्डक- 1.1.6

आदि वचनों के द्वारा व्याख्यात किया गया है। उपनिषद् के इन वचनों में विलक्षण परमात्म की पहचान बड़े स्पष्ट शब्दों में कराई है। जो शब्द, रूप, स्पर्श आदि से रहित है, नित्य है, अनादि है, अनन्त है, अदृश्य है, जिसे ग्रहण नहीं किया जा सकता। उसका कोई वर्ण नहीं, वंश नहीं, गोत्र नहीं, उसके कोई हाथ-पाँव, आँख-कान नहीं, वह विभु है सर्वव्यापक है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, अविनाशी है, सब भूतों का कारण है, जिसे धीर ज्ञानी जान लेते हैं और मृत्यु के मुख से दू हो जाते हैं। ऐसे परमेश्वर की पहचान शिवरात्रि के जागरण ने मूलशंकर को करा दी। चौदह वर्षीय मूलशंकर रात्रि के तृतीय प्रहर में कैलाशपति शिव के प्रभुत्व को देखने के लिए लालायित न रहते तो सम्भव है उस शिव के दर्शन न होते जिसके अनेक नाम हैं।

"ऐसे शिव की खोज के लिए मन्दिर के जाल से उठ खड़े हुए और गिरि कन्दराओं की पगडण्डियों का मार्म पकड़ा।

परमेश्वर की प्राप्ति के लिए रात्रि का तृतीय प्रहर शास्त्रों में बताया गया है, जिसे अश्विनी काल कहते हैं। उस समय आकाश में प्रकाश होता है और नीचे अन्धकार आच्छादित होता है..... ब्राह्ममुहूर्त में परमात्मा को प्राप्त करने का आदेश निम्न वेद मन्त्र दे रहा है-प्रा॒त॒र्युजा॒ विबो॑धया॒श्विना॒वेह ग॑च्छताम्। अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑॥ ऋग्वेद 1.22.1
मन्त्र से स्पष्ट हो रहा है कि शान्तिदायक परमेश्वर अश्विनी काल में समाधिस्थ होने पर प्राप्त होता है। अपने शरीर व इन्द्रियों को बाह्य क्रिया-कलापों में लगाने से नहीं, और न दिन भर के घण्टे घड़ियाल के पचड़े से।

अदेवाहवेवः प्रचता गुहा यन् प्रपश्यमानो अमृतत्वमेमि।
शिवं यत् सन्तमशिवो जहामि स्वात्सख्यादरणीं नाभिमेभि।। ऋ. 10.124.2

अन्तः में प्रतिपादित किया गया कि शिव रूप परमात्मा तब प्राप्त होता है जब हम देव बन जाते हैं, अपनी हृदय गुहा में प्रवेश करते हैं और अपनी अशिव दुखदाई वृत्तियों को, दुर्गुणों को, दुर्वासनाओं को त्यागते हैं। शिव की प्राप्ति लिंगपूजा, पत्रपूजा, पुष्पपूजा नैवेद्य आदि से नहीं।

धन्य है महर्षि दयानन्द जिसने शिवलिंग पर फुदकते चूहे के करतब से परख लिया कि वह शिव इन आँखों से नहीं, हृदय में मिलेगा और हृदय में ढूंढने के लिए स्वयं जगे व जन जन को जगाया। अज्ञान, अन्धकार, जड़ पूजा से बचाया तथा कुल और देस के गौरव को बढ़ाया। सत्य शिव को पाने का मार्ग प्रशस्त किया।"

मूर्ति दर्शन शिव दर्शन नहीं- स्वामी दगदीश्वरानन्द ने टंकारा में एक बार बताया था कि एक ग्रामीण व्यक्ति सोमनाथ मन्द्र में दर्शनों के लिए गया। वहाँ बहुत भीड़ थी, अतः दर्शनार्थियों को जल्दी-जल्दी बाहर निकाला जा रहा था। यह ग्रामीण व्यक्ति एक कोने में खड़ा था तो पुजारी की दृष्टि उस पर पड़ी। उस ग्रामीण को डांटते हुए पुजारी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो जाते क्यों नहीं? वह भोला ग्रामीण बोला कि बहुत दूर से आया है, उसे खड़ा रहने दें, शायद भगवान उसे दर्शन दे देवें। इस पर वह पुजारी आग बबूला होकर बोला कि उसे मन्दिर में पूजा कराते वर्षों बीत गये परन्तु आज तक तो उसे दर्शन दिये नहीं, तुझे कैसे दर्शन दे सकते हैं। (आर्य संसार, अप्रैल 2013 में प्रकाशित श्री मन मोहन कुमार आरय के लेख 'क्या मूर्ति पूजक ईश्वर को प्राप्त कर सकता है' से उद्धृत)

शिव दर्शन

शिव-रहस्य :

वैदिक संस्कृति सारे विश्व में एक सर्वश्रेष्ठ और प्राचीनतम संस्कृति है। यही सारी संस्कृतियों की जननी है। इसका मूल वेद है। इसकी रक्षा और उन्नति करने वाले आर्य लोग थे। ये संसार के श्रेष्ठ पुरुष थे। इन्होंने ही वैदिक संस्कृति को विश्व भर में फैलाया था। उनका मूल स्थान भारतवर्ष था। वे हमारे पूर्वज थे। पृथ्वी की समस्त मानवजाति उनकी ही संतान है। विश्व की समस्त अनार्य जातियां भी उन्हीं लोगों से उत्पन्न हुई है। आर्यों में से ही कुछ लोग रतित होने के कारण अनार्य कहलाये। प्रारम्भ में इनको आयों से अलग कर दिया गया। इस प्रकार अलग होकर उन्होंने एक अलग संस्कृति को जन्म दिया। इस अनार्य संस्कृति की कालक्रमेण अनेक शाखायें हुई। फिर एक समय ऐसा भी आया कि आर्य और अनार्य, दोनों का मेल-मिलाप भी हुआ। इससे एक-दूसरे की संस्कृति परस्पर प्रभावित हुई। इसके फलस्वरूप एक मिश्रित संस्कृति का उदय हुआ।

सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर, आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व काल तक अर्थात् महाभारत युद्ध काल तक, वैदिक संकृति की परम्परा उज्वल और अक्षुष्ण रही। इसी परम्परा में पतकर साधारण मनुष्य भी देवता बन गये। उन्होंने विश्वकल्याण कार्य में अपना योगदान दिया। इसी संस्कृति के आधार पर उन्होंने पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को गिद्ध किया जो लोग इस परम्परा से हट गये, अथवा जिन्होंने भी इसको तोड़ने का प्रयास किया उनकी यही दुर्दशा हुई जो किसी की, अपनेही पाँच में कुल्हाडी मारने पर होती है। रावण, कंसादि अनेक व्यक्तियों के दृष्टान्त, हमारे प्राचीन इतिहास में इस बात के लिये प्रमाण के रूप में मिलते हैं। अर्थात, महाभारत काल तक इस धरती पर अनार्य संस्कृति पनप नहीं सकी थी।

महाभारत युद्ध से वैदिक संस्कृति को एक बहुत बड़ा आघात पहुंचा। इस युद्ध से वैदिक परम्परा के संरक्षक, विद्वान ब्राह्मणों और क्षत्रिय कुलों का विनाश हुआ। "कुल क्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मेन कुलं कृत्स्नम् अधर्माभिभवत ॥" (भगवदगीता १।४० ) इस • महान् कुलक्षय के परिणामस्वरूप सनातन वैदिक-कुलधर्म, वर्णाश्रम व्यवस्था, वेदाध्ययन् यशानुष्ठान इत्यादि को परम्परा लुप्त होती चली गई एवं वैदिक अर्थात् आर्य संस्कृति पवन की दिशा में बढ़ती गई. परमपिता परमेश्वर की इस रमणीय सृष्टि में, हमारे पूर्वज जिन कल्याणकारी लक्षणों को देखा करने में अब विनाकारी लक्षण दिखाई देने लगे। जिस मंगलमय वातावरण में वे विवरते थे, सबके लिये कल्याणकारी होने से 'शिव' कहलाता है. ईश' धातु से ईश्वर शब्द बना है। ईश धातु का अर्थ है ऐश्वर्य अथवा सामर्थ्य ऐश्वर्यवान अथवा समर्थ होने के कारण परमात्मा 'ईश्वर' कहलाता है। 'यो महतां ईश्वराणां ईश्वर महेश्वर:' अर्थात् सत्र ऐश्वर्यवानों और समर्थों में जो सत्र से महान है वह 'मद्देश्वर' है। परमात्मा सब ऐश्वर्यवानों और समर्थों में सबसे महानू है। इसलिये उसका नाम 'महेश्वर' है 'य ईश्वरेषु यर्थेषु मरमः श्रेष्ठः स परमेश्वर :' । अर्थात् जो ईश्वरों अथवा समर्थों में समर्थ, जिसके तुल्य कोई भी न हो वह परमेश्वर हे 'यो महतां देवः स महादेव: अर्थात् जो महान देवों का देव, विद्वानों का मी विद्वान् है, वह महादेव हैं। 'यःशङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्कर:' । अर्थात् जो सबका कल्याण करता है, अथवा जो सबको मुख देता है, यह शङ्कर है। यो रोदायति अन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः" । अर्थात् जो दुष्ट और अन्यायकारियों को रुलाता है वह 'रुद्र' है। सभी भूतों अर्थात् पृथिव्यादि पंच महाभूतों अथवा सभी पशुओं या प्राणियों का जो नाथ पति है बही 'भूतनाथ' व 'पशुपति' हैं। ये सारे लक्षण परमात्मा में विद्यमान होने के कारण ये सारे नाम उसीके विशेषण मात्र है। इसी प्रकार ब्रम्हा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि, यम आदि शब्द भी परमेश्वर के साथ सार्थक होते हैं। यह परमेश्वर सर्वश, सर्वान्तयांमी, सर्वव्यापक, निराकार, निर्विकार, अजर, अमर, निय, पवित्रादि लक्षणवाला है। ऐसे ही समझकर उसकी उपासना की जा सकती है, वही उपासना के योग्य है, और यही तक संमत भी है। उसको अन्यथा समझकर उपासना करना सत्य का गला घोंटना मात्र है।

वैदिक भाषा की यही विशेषता है कि यहाँ प्रयुक्त शब्द सामान्यतः यौगिक अर्थवाले होते हैं। अर्थात, ये धात्वर्थबोधक होते हैं। अतः एक धातु के अनेक अर्थ होने से, एकही शब्द के अनेक अर्थ हो जाया करते हैं और कभी कभी एक ही अर्थ को अनेक धातुओं द्वारा प्रक्ट किया जा सकता है। लेकिन लौकिक भाषाओं में प्रायः ऐसी बातें नहीं देखी जाती । इनमें शब्दों के वे ही अर्थग्रहण किये जाते हैं जो रूढ़ी में चल पडे है। जैसे 'गो' शब्द के, वेदों में पृथ्वी, किरण, वाकू इत्यादि अनेक अर्थ होते हैं, लेकिन लौकिक भाषा में 'गो' शब्द का अर्थ 'गाय' तक ही समित है। इसी प्रकार, शिव, महादेव रुद्र, पशुपति, भूतनाथ इत्यादि शब्द यद्यपि लौकिक भाषा में किसी व्यक्ति विशेष के नाम हो सकते हैं, और परमेश्वर के अर्थ में भी ग्रहण किये जाते है, तथापि, इन शब्दों के कई अन्य अर्थ भी है। यथा सूर्य, अग्नि, विद्वान, राजा इत्यादि ।

सूर्य शिव

सूर्य में हमारा कितना कल्याण होता है, उसका यहाँ वर्णन करना आवश्यक भी नहीं है, सम्भव भी नहीं है। यह न केवल प्रकाश देता है, अपितु वनस्पति, औषधि, अन्न, प्राण, ऊर्जादि का भी यही स्रोत है। इसलिये कवि मयूर ने सूर्य की स्तुति करते हुए कहा है कि सूर्य किरणों का उदय सबके लिये शिव अर्थात् कल्याणकारी हो। उसने सूर्यशतक में लिखा है कि ---

अस्तव्यस्तत्वशून्यो निजर चिरनिशानश्वर: कर्तुमीशो
विश्वं बेदमेव दोषः प्रतिहततिमिरं यः प्रदेशस्थितोऽपि ॥
दिक्कालापेक्षयासी त्रिभुवनमटत स्तिग्मभानोर्नवय यात शातऋतव्यां विशिदिशतु शिवं सोऽचियासुद्गमो वः ॥

इसका भाषार्थ यह है कि सूर्य से ही आकाश में किसी एक स्थान पर से प्रकाशित होता है। और अन्धकार को अपने किरणों के प्रकाश से नष्ट करता है जैसे कोई दीपक घर के किसी कोने पर से जलता हुआ सारे घर को आकरता है। वह नित्य नया दिखनेवाला और अनेक कार्यकरनेवाला है। उसके किरणों का उदय सबके लिये कल्याणकारी हो। इस प्रकार सूर्य का शियत्व लोकप्रसिद्ध है। इसी कारण से वह शहूर अर्थात् कल्याण करनेवाला व मुख का दाता है

सूर्य ही महादेव, रुद्र, महायम और अग्नि है

भगवान शिव को लोग, महादेव, द्र, महायम, अग्नि इत्यादि नामों से भी जानते हैं। ये सारे विशेषण, बेटो में भगवान सूर्य के लिये भी प्रयुक्त हैं। यथा –--

नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महोदेवाय तहतं सपर्यंत ।
 दूरेदृशे देवजातस्य केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शंसत ।-(ऋग्वेद १०। २७(१)

सोयंमा सवरण:स स महादेव: । रश्मिभिर्नभ आभूतं महेन्द्र एत्वात ||
सोऽग्निस उसूर्य स उ एव महायमः। रश्मिमिनम आमृत महेन्द्र एत्यावृत: ।-(अथर्ववेद १३ ४१४, ५)

शिव चरित्र

इन मंत्रों में महादेव, रुद्र महायम, इत्यादि नामों से सूर्य का वर्णन किया गया है। वह भाकारा में अपने किरणों के जाल को बिछाते हुए आता है।

पृथिव्यादि आठ वसु, चैत्रादि बारह महीनें जिनको आदित्य कहते हैं, दस प्राण और ग्यारहवां जीवात्मा जिनको ग्यारह रुद्र कहते है, क्योंकि जब ये शरीर से निकल जाते हैं, तब सब रोते हैं, इन्द्र अर्थात् बिजली, प्रजापति अर्थात् यज्ञ, ये सारे मिलकर तैतीस देव माने आते हैं। इन सबों में सबसे महान् देव सूर्य है। इसलिये उसको 'महादेव' कहते हैं। देव शब्द के विद्वान, दानी, प्रकाशक, आकाशस्थानीय पदार्थ इत्यादि अनेक अर्थ होते हैं।

प्रलयकाल में सूर्य भयंकर अग्नि का रूप धारण करता है और प्रीष्म काल में उसके केंद्र स्वरूप को सन लोग जानते ही हैं। ध्रुव प्रदेशों में उसके अभाव के कारण भी लोग रोते है। सूर्य के उदय होने पर निशाचर रोते हैं। उसके अस्त होने पर प्रकृति माता रोती है, कमल मुरझाते हैं। इत्यादि कारणों से सूर्य रुद्र कहलाता है।

प्रकाशादि देनेवाल और जगत को संयत्रित करनेवालों में सूर्य महान है। इसलिये

उसको महायम भी कहते हैं। अपनी ऊर्जा के व्दारा जगत को गतिप्रदान करने के कारण

उसको अर्थमा भी कहते हैं और अग्नि स्वरूप होने के कारण उसको अग्नि भी कहते हैं। भगवान् शिव को नीलकण्ठ भी कहते हैं। इस सम्बन्ध में एक वेद मंत्र इस प्रकार हैं नीलग्रीवा शितिकण्ठा : दिवं रुद्रा: उपश्रिताः ॥

सूर्य भी नीलकण्ठ है

(यजुवेद १६। ५६) इस मंत्र के माध्य में उब्वट ने लिखा है कि 'नीलग्रीवाः गुस्थाना उच्यते'। इसका तात्पर्य है कि नीलमी अर्थात् नीलकण्ठ, आकाश और आकाशस्थ सूर्य को कहते हैं।

नील वर्ण आकाश का घोतक है ही। किन्तु कण्ठ भी आकाश का प्रतीक है

क्योंकि, आकाश का गुण शब्द है और कण्ठ का लक्षण भी शब्द है। अतःनीलकण्ठ शिव 'सूर्य' के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

सूर्य ही गंगाधर है

शिव को गंगाधर अर्थात् गंगा नदी को धारण करनेवाला बताया जाता है। गंगा शब्द का अर्थ है गतिशील नीचे की ओर जिसकी गति दे उसको नदी कहते हैं। इसलिये सूर्य के किरणों को भी नदियाँ कहते हैं। वेदों में गंगा आदि नदियों का उल्लेख है। ये भारत वर्ष की सरिताओं के नाम नहीं है। ये आकाशीय नदियाँ अर्थात् सूर्य की किरणें है। यह एक अलग बात है कि भारतवर्ष की नदियों के नाम भी वैदिक शब्दों के आधार पर रखे गये हैं।

हममेयमुने सरस्वति शुतहि स्तोमं सचता पराठिण आ (१०। ७५१५)

इस मंत्र में अनेक नदियों के नाम है। इन सबको धारण करनेवाला सूर्य है। 'गंगाधर' शब्द में 'गंगा' शब्द को उपलक्षणार्थ में ग्रहण करना चाहिये। इससे, एक नाम से अन्य नाम भी ब्रहण किये जाते हैं। इसलिये 'गंगाधर' शब्द का अर्थ भी सूर्य होता है।

प्रातः सूर्योदय के समय में और सायंकाल सूर्यास्त के समय, धरती को रंग देनेवाली जो सुनहरी किरणें है उन्हीं का नाम गंगा प्रतीत होता है। क्योंकि इन फिरणों में जीवन देने की शक्ति, पावकता, शीतलतादि गुण तो विद्यमान है ही। इसलिये ऋषियों ने संध्यावन्दन के लिये सूर्योदय और सूर्यास्त का समय निश्चित किया है। (देखिये, मनुस्मृति अध्याय २, लोक १०१,१०२) सूर्य की ये किरणें हमारे शरीर के अन्दर, प्राणवायु के साथ, नाडियों के माध्यम से प्रवेश करती है। इस प्रकार प्रत्येक प्राणी के साथ सूर्य का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। योगीजन गंगा को इडा, यमुना को पिंगला, और सरस्वती को सुषुम्ना कहते हैं। ये सारे नाम गुणवाचक शब्द है। प्राणायाम के द्वारा इन किरणों से लाभ की बात कही गई है। स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वाधिक लाभ गंगा से होता है। मन के ऊपर भी इसका बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।

वास्तव में गंगास्नान संध्या-वन्दना ही है क्योंकि इसमें भौतिक दृष्टि से उपासक सूर्य की किरण रूपी पवित्र गंगा में स्नान कर लेता है। और अध्यात्मिक दृष्टि से वह कल्याणकारी शिव अर्थात् परमात्मा के चिन्तन में मग्न हो जाता है। इस प्रकार मनुष्य सन्थ्योपासना रूपी गंगास्नान से पवित्र हो जाते हैं।

सूर्य ही जटाधारी और मूंडवाला है

शिव को जटाधारी अथवा केशी भी कहते हैं। उसकी भूँछ और कहीं कहीं दादी का भी चित्रण मिलता है। ये सब श्लेप अथवा रूपकालंकार की बातें है। यजुर्वेद के एक मंत्र में सूर्य को कपर्दि अर्थात् जटाधारी कहा गया है। (देखिये, अध्याय १६ मंत्र २९) जैमिनीय ब्राह्मण में सूर्य के केशादि का विवरण दिया गया है। यथा -

तस्य परमवस्तानि इमभूणिम ऊध्वस्ति केशा: ।।-(जं. ब. २१६५)

अर्थात, सूर्य की जो सामनेवाली किरणे है व उसकी मूंछे हैं और ऊपर की ओर जानवाली किरण उपके केश है। आचार्य शौनक ने लिखा है कि -

असो तु रश्मिभिः केशी तेन॑नामा केशित: देवता १ । ९४) अथातु, किरणों के कारण सूर्य को केशी कहते हैं। किरणों को वेश क्यों कहते हैं ? केशी केशा: रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति । काशानाद्वा प्रकाशनाद्वा केशीद ज्योतिरुच्यते' (नियक्त १२।२५) । अर्थात् रश्मियों को ही केश कहते हैं। केशवाला ही केशी है। रश्मियों को केश क्यों कहते हैं? क्योंकि केश शब्द का अर्थ प्रकाशक है। इसलिये सूर्य का शी. जटाधारी अथवा कपर्दि इत्यादि नाम से वर्णन करते हैं।

सूर्य ही हर ह

आचार्य बास्क ने लिखा है कि ज्योतिहर उच्यते' (१९) । अर्थात ज्योत अथवा प्रकाश को हर कहते हैं। क्योंकि वह अंधकार को हरता है। फिर यजुवद भी कहता है कि 'सूर्यो ज्योतिज्योतिः सूर्यः' (अध्याय ३, मंत्र ९) । अर्थात् सूर्य को ज्योति कहते हैं। इसलिये सूर्य का ही एक अन्य नाम 'हर' है। 'हर हर महादेम' कहकर हम 'सूर्य' का ही स्मरण करते हैं।

सूर्य नटराज भी है

नटराज शिव भी सूर्य ही है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि सूर्य के अन्दर निरन्तर एक भारी स्पन्दन होता रहता है। जैसे सागर की लहरें नाचती है वैसे ही सूर्य की रश्मियाँ भी नाचती हैं। रश्मियों की गति लहरों की तरह ही होती है। नटराज शिव की हजारों ज्वालायें, अथवा उसके हजारों हाथ सूर्य की किरण ही हैं। 'इन्द्र इन्नो महानां दाता बाजानां नृतुः (ऋग्वेद ८ | ९२ । ३) इस मंत्र में इन्द्र अर्थात् सूर्य के नर्तन का उल्लेख है तथा 'सुपर्णा चावतोयव्याखरे कृष्णा इषिरा अनर्तिपुः' (अथर्ववेद ६ । ४९ । ३) इस मंत्र में उसकी किरणों की नाच का वर्णन है।

शिव का वस्त्र

भगवान शिव का वस्त्र कृष्णाजिन है। जैमिनीय ब्राह्मण में लिखा है कि
अहोरात्र एव कृष्णाजिनस्य रूपम् । अहरेव शुक्लस्य रूपं रात्रि: कृष्णस्य ||(जे. ब्रा २६२)

अर्थात्, कृष्ण मृग की छाल दिन-रात का प्रतीक है। उसमें जो सफेद दाग है वे दिन और काले दाग रात के द्योतक है। तात्पर्य यह हुआ कि दिन और रात सूर्य के वस्त्र है।
कहीं कहीं शिव को गवर्नमाम्बर अर्थात् हाथी की खाल का वस्त्र पहना हुआ बताया गया है। क्योंकि आकाश में बादल हाथी की बडी खाल जैसे दिखते हैं। इनसे सूर्य कभी कभी द जाता है। इसलिये इनको सूर्य का बस्त्र माना गया है। इसी कारण से शिव को 'कृस्तिबास' अर्थात् चर्म का वस्त्र धारण करनेवाला भी कहते हैं और कहीं कहीं शिव को दिगम्बर भी कहा गया है। इसका अर्थ है कि चारों दिशायें ही सूर्यके वस्त्र हैं। यहाँ भी आलंकारिक भाषा का प्रयोग है।

शिव के बाहन, ध्वज, भूषण और जमक

आकाश में मेघ नाना रूप धारण करते हैं। ये बड़े आकर्षक होने से कवियों की कल्पना को जागृत करते हैं। अतः किसीने इनको भगवान् शिव के वाहन के रूप में देखा, और किसी ने ध्वज अथवा शंडियों के रूप में देखा, फिर किसी को ये शिव के अलंकारों अथवा आभूषणों के रूप में दिखाई दिये, तथा अन्य किसी ने इनको देखकर मधुर निनाद सुनाने वाले डमरू की कल्पना की। इसलिये, शिव को पृषभवाइन्, वृषभध्वज, नामभूषण, डमरू बजाने वाला इत्यादि नाम दिये गये। वृषभ शब्द का अर्थ 'बरसानेवाला' होता है। यह पानी बरसानेवाला मेघ है। सूर्य मेचों के ऊपर ही तो रहता है। इसलिये मेघ उसका वाहन भामा गया। लोक में वृषभ का अर्थ मेवा होता है। इसलिये आप में बैल उसकी खरी मानी गई। फिर क्योंकि ये मेघ ही आकाश मेंकों की तरह आ रहे हैं, वियों ने इनको शिव अर्थात् सूर्य के ध्वज माना और सूर्य को वृषभ ध्वज कहा।

वेदों में मेघों को अहि भी कहते हैं। मेहि शब्द का अर्थ सर्प भी होता है। धात्वर्थ की दृष्टि से सर्प शब्द का अर्थ सर्पणशील अथवा गतिशील होता है। मेष सर्पनेशींक अथवा गतिशील है। इसलिये ये सर्प हैं। सर्प को लोक में नाग भी कहते हैं। इसलिये ये शिव अर्थात सूर्य के आभूषण माने गये। इसी आधारपर शिव की गले में सर्पों की माला की कल्पना की गई। इसी कारण शिव को नागभूषण भी कहते हैं। इन मेघों को ही इनकी मधुर गर्जना के कारण, शिव का दमरू कहा गया है। इस प्रकार शिव अर्थात् सूर्य के वर्णन में रूपक और श्लेपालंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया है।.

शिव का स्थान

भगवान् शिव के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह पर्वतों के मध्य में नहीं लेता है या रहता है। इसलिये उसको 'गिरिश' कहते हैं। 'नमः कपर्दिने च व्युताय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो गिरिशाय च (यजुर्वेद १६/१९) - इस मंत्र में कप, व्युप्लकेश, सहस्त्राक्ष, रातधन्वन् तथा गिरिश, शब्दों से सूर्य का ही वर्णन किया गया है। गिरि, पबंवादि शब्द वेदों में मेधार्थक भी हैं। सूर्य का स्थान मेघों के ऊपर ही तो है। इसलिये यह 'गिरिश' कहलाता है।

शिव को केनापति मी कहते हैं। 'क' शब्द का अर्थ सुख व स्वर्ग है। जहाँ जीव सुखपूर्वक विकसित होते हैं वही केलास अयात् आकाश व स्वर्ग है। इसलिये आकाश व स्वर्ग का स्वामी सूर्य ही है।

शिव की पत्नी

पृथ्वी सूर्य की पत्नी मानी गई है। वह अनवरत सूर्य की परिक्रमा अथवा सेवा वरती

है। इसलिये वह पतिमता या सती है।

व एवं विदुषः बत्त्वाधान्येभ्योऽ दबढशाम् । दुर्गा तस्मा अधिष्ठाने पृथ्वी सहदेवता ॥ (अथवंबेद १२(४(२३)

इस मंत्र में पृथ्वी के लिये दुर्गा शब्द विशेषण के रूप में आया है। 'दुर्गा' शब्द का अर्थ है जिसका अतिक्रमण करना कठिन हो । अतः शिव की पत्नी दुर्गादेवी हमारी पृथ्वी ओ हम सबकी माता है। इसकी रक्षा सूर्य करता है। 'भूमिं पृथ्वी मिन्द्रगुप्ताम्' (ऋग्वेदं १२/११११) इस मंत्र में भूमि अथवा पृथ्वी का रक्षक इन्द्र अर्थात् सूर्य बताया गया है। सूर्य को वेदों में मयंकर मृग अथवा सिंह भी कहा गया है। सूर्य पृथ्वी को धारण किया हुआ है। इसी बात को, सांकेतिक भाषा में, समझाते हुए दुर्गा को सिंह के ऊपर आसीन दिखाया गया है।

गौरी भी शिव की पत्नी का नाम है। यह शब्द वर्णबाचक है। यह गौरी, आकाश में, मेघों की गोद में से चमकती हुई बिजली है। यह पर्वत अर्थात् मेघों से उत्पन्न होती है, इसलिये इसका नाम पार्वती है 1

सूर्य के जितने विशेषण है उतने ही विशेषण उसकी शक्तियों के भी है। गया सूर्य को काल या महाकाल कहते हैं, इसलिये उसकी शक्ति का नाम काली या महाकाली है। सूर्य के शिव, शंकर, शंभु, भव, शर्म आदि नाम है। इसलिये उसकी पत्नी के नाम भी शिवा अथवा शिवानी, शंकरी, शांभवी, मवानी, शर्वाणि आदि है।

शिव के घंटे

शिव के दो बेटे हैं। एक का नाम कुमार कार्तिकेय और दूसरे का नाम गणपति है। सूर्य अग्नि है। इसलिये अग्नि के बेटे भी अग्नि ही होंगे। वैदिक साहित्य में गाहपत्य अग्नि की प्रजापति अथवा गणपति कहा गया है। इसकी विशेष चर्चा मैने स्वलिखित पुस्तक 'श्री गणेश का रहस्य' में की है। कृतिका नक्षत्र में किये जानेवाले विरोध की अग्नि को आहवनीय अग्नि कहते हैं। कृत्तिका में छः नक्षत्र है। इसलिये कार्तिक को पमुख अथवा पाण्मातुर भी कहते हैं। 'स्कदि गति शोषणयोः इस धाव से स्कन्द शब्द बनता है। गति और शोषण अग्नि के गुण है। इसलिये स्कन्द शब्द का अर्थ भी अग्नि है। कुमार, सेनानि आदि नाम भी अग्नि के है। सूर्य और याशिक अग्नियों का पिता और पुत्र का सम्बन्ध माना गया है। शिव के बेटों का यही रहस्य है।

शिव के कुछ अन्य वर्णन

शिव के सारे वर्णन और उसकी सारी कहानियों का रहस्य यहा बतानी कठिन है। क्योंकि वह एक बडा ग्रंथ बन जायेगा। इसलिये केवल कुछ मुख्य बार्तो कीही मैंने यहाँ चर्चा की है जिससे, विद्वानों को शिव के रहस्यों को समझने, समझाने में सुविधा हो।

त्रिमूर्तियों में ब्रह्मा का रंग लाल, विष्णु का रंग नीला और शिव का रंग धवक है। यह घवल वर्ण सूर्य की शुभ-कान्ति के सिवा और कुछ भी नहीं है। शिव का विष पीना, सूर्य का जल पीना है। क्यों कि निघंटु में जल के लिये एक सौ नाम दिये गये हैं, उनमें से एक है 'विषम्'। सूर्य 'विपू' अवात् जल को ऊपर खींचते रहता है और अपनी गले में अर्थात् स में उसको धारण किये रहता है।

शिव का त्रिनेत्र का तात्पर्य यह है कि सूर्य पृथ्वी, अन्तरिक्ष और यौलोक, इन तीनों लोकों को प्रकाशित करता है, इसलिये तीनों लोकों के लिये वह नेभवन है। इस प्रकार, शिव के वर्णन में बहुत सारी बातें सूर्य की ही चर्चा है।

यज्ञ शिव है

यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म कहा गया है। क्योंकि उससे संसार का प्रकार से होता है। यथा, जलबायु की शुद्धि, दान, विद्वानों की रक्षा, विद्या की उन्नति, दृष्टि अन्न की उत्पत्ति इत्यादि इलिये यश शिव है। इसी कारण वह शंकर अथवा शंभु भी है।

तैस्तिरीय ब्राह्मण में लिखा है कि 'एप रुद्रः यदग्निः' (१॥ १५॥ १) अर्थात्, यशाग्नि रूद्र है। क्योंकि अश्वमेघादि राष्ट्र की शक्ति की वृद्धि करनेवाको यश दुष्टों के लिये रुलाने वाले होते हैं। लोभी के लिये भी यश दुःखदायी होता है। रोगाणुओं के लिये भी वश विनाश का संदेश लाता है। ऋग्वेद के एक मंत्र में अग्नि को 'शियो दूतो' कहा गया है। (ऋष्टव्यः ऋग्वेद ८ ३९. ३) अर्थात् अग्नि देवता कल्याणकारी भी है, और दूत अथवा दुष्टों को दुःख देनेवाला भी है। अग्नि को शिव मानने के कारण ही, शिव को मस्मोगराम अथैया मस्मधारण करनेवाला कहते हैं। यश पवित्र और पूजनीय अथवा अनुष्ठान योग्य है। इसलिये उसको पक्ष भी कहते हैं। शिव को यक्षस्वरूप भी कहते हैं। तात्पर्य यह है कि वह वजनीय अथवा पवित्र है।

सदा शिवसंकल्पयुक्त मनवाला मनुष्य भी सदाशिव है, क्योंकि मनुष्य के बैं

त्रिवार से फर्म, जैसे कर्म बैंसे उसके स्वभाव बनते हैं। सदा शिवसंकल्पयुक्त मनवाने ममुष्य

के विचार, कर्म और स्वभाव भी कल्याणकारी ही होंगे, इसलिये वह शिव अथवा शंकर है.

साधारण मनुष्यों की दोही आखें होती है, किन्तु विद्वानों की एक तीसरी आँख मी होती है, वह शनि-दृष्टि है। अग्नि शान का प्रतीक है, इसलिये ज्ञान-दृष्टि को अग्निनेत्र भी कहते है. इससे विद्वान् अशान और अविद्या से उत्पन्न काम या मोह को जना देता है, यह ज्ञान दृष्टि वास्तव में वेद है, महर्षि मनु ने कहा है कि 'पितृदेवमनुष्याणां वेदः चक्षुः सनातनम् ' अर्थात, वैज्ञानिक, विद्वान् और साधारण मनुष्यों के लिये भी वेद सचमुच सनातन चक्षु हैं। इसके बिना मनुष्यं उसके पास अपनी भौतिक आँखे होती हुई भी वह अंघा ही है। अत: वास्तबिक विद्वान भी वही है जो वेदों का विद्वान है, एक वेदवेत्ता विद्वान जितना संसार का कल्याण कर सकता है उतना अन्य कोई भी नहीं कर सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे ही एक श्रेष्ठ विद्वान थे जिन्होंने न केवल अपने जीवन को ऊँचा उठाया, अपितुगत पाँच हजार वर्षों से संसार के लोगों को उनके जीवन और उनके उपदेशों से धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती रही है। ऐसे ही एक-दूसरे विद्वान् महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती थे। इनके जीवन और विचारों का प्रभाव की गत सौ वर्षों से उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है और विश्वभर में फैल रही है। ऐसे विद्वान संसार में बहुत विरले ही हुआ करते हैं। इनके जीवनकाल में इनको अपने ही लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। क्योंकि ये लोग आंखें होकर भी अंधे थे। दूर की बातों को वे देख नहीं सकते थे, सूक्ष्म विषयों को वे समझ नहीं सकते थे।

इस सीसरी आंख की एक दूसरी बात भी है। पुरुष के दो मोहों के बीच में आशाचक है। योगाभ्यास से इसके खुल जाने से दिव्य दुष्टि प्राप्त हो जाती है जिसकी अंग्रेजी में क्लेरखोव्येन्स कहते हैं।

संसार में कोई भी व्यक्ति कष्ट उठाये बिना, त्याग और बलिदान किये बिना लोक कल्याण नहीं कर सकता है। यदि कवि की भाषा में कहा जाय, तो परोपकारी विद्वान स्वयं विष-पायी होता हे और वह संसार के लिये चन्द्रमा का शीतल प्रकाश और गंगा की पावन धारा का दान करता है। चन्द्रमा का शीतल प्रकाश, सदुपदेश और गंगा पवित्रता अथवा शुद्धता का प्रतीक है। इसलिये कहते हैं कि शिव शिर पर चन्द्रमा और गंगा को धारण किया हुआ है। शिर बुद्धि का स्थान है। वही चन्द्रशेखर और गंगापुर का रहस्य है।
 अप नीलकण्ठ का रहस्य को भी देखिये “नमोऽस्तु नीलमीबाय सहस्राक्षाय मौदुपे " (यजुर्वेद १६।८)- इस मंत्र में नीलामीय शब्द आया है। इसकी व्याख्या करते हुए, महर्षि स्वामी दयानन्द ने यजुर्वेद भाष्य में " नीलकण्ठ " शब्द का अर्थ "शुद्ध कण्ठबाला " बढाया है। शुद्ध कण्ड का तात्पर्य शुद्ध, स्पष्ट, मधुर स्वर एवं सत्य माषण है। विद्वानों की वाणी में ये सारे लक्षण होने चाहिये। तभी तो उनके उपदेशों का लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। लोग उनकी बातों को सुनेंगे कामान्दकीय नीतिसार में लिखा है कि

प्रियमेवाभिधातव्यं सत्सु नित्यं विवषत्सु च ।
 शिक्षीव केकामधुरः प्रियवान् कस्य न पियः ॥

ये प्रियाणि च भाषन्ते प्रयच्छन्ति च सत्कृतम् ।
 श्रीमन्तो वन्द्यचरणा देवास्ते नरविग्रहाः ||

अर्थात्, सत्पुरुषों से भी और हमसे द्वेष करनेवालों से भी प्रियवचन ही बोलने चाहिये। मोर के केकारव के समान मधुरबाक् सब के लिये हमें कारक होती है। इसलिये कहते हैं कि ऐसे विद्वानों की वाणी में लक्ष्मी और सरस्वती निवास करती है और ऐसे विद्वान मनुष्यरूप में • देवता माने जाते हैं। किन्तु, बाणी का मूल्य इतना तभी बढ़ता है, जब वह कल्याणकारी हो । मुखस्तुति अथवा ह्रां में हां मिलाने का नाम प्रियवाकू नहीं है। अतः इस प्रकार के कल्याणकारी विद्वान् शिव हैं, और उनकी कल्याणकारी वाणी शिवा अथवा शिवानी है।

मानव मनको ईश्वर कहते हैं। "मनो महान्मतिर्ब्रह्मा
पूर्बुध्विस्पतिरीश्वरः प्रज्ञा चितिः स्मृतिः संवित् विपुरं चोच्यते ।" (वायु पुराण ४१२४) यहां मन के बारह नाम दिये गये हैं। उनमें से एक नाम “ईश्वर" है। क्योंकि मन बडा सामर्थ्यशाली है। किन्तु विषयों के पीछे जाने से तथा क्रोधादि विकारों के कारण मन का सामर्थ्य नष्ट हो जाता है।

अव्याधिजं फटुकं शीर्षरोगि । 
पापानुबन्धं परावं तीक्ष्णमुष्णम् । 
मन्यू महाराज पिव प्रशाम्प |
सतां पेयं यन्न पिबन्स्यसतो :(विदुरनीति ४१८)

अर्थात, क्रोध स्वस्थ पुरुष को भी ध्वस्त करता है, यह बडा बटु हे और सिरदर्द का कारण है। कोष में आकर मनुष्य अधन्य पाप भी कर बैठता है, और उसका व्यवहार बड़ा रूप और दिल दुखानेवाला होता है। इसलिये सत्पुरुष क्रोध को पी जाते हैं, किन्तु अन्य • लोग इसको नहीं पी सकते। अतः शिव का विष पीने का तात्पर्य विद्वान या सत्पुरुषों व्दारा क्रोध का पीना है।

विद्वान् रुद्र भी है। दुष्टों को रुलाने का सामर्थ्य उसके पास होना चाहिये। केवल नैतिक उपदेश देना, धनवान या बलवानों की स्तुति या चापलूसी करके अपना जीवन निवर्हण करना, ये विद्वान के योग्य कार्य नहीं है। अथर्ववेद कहता है

अग्निनं शत्रून् प्रत्येतु विद्वान् प्रतिदहन्त्रभिशष्तिमरातिम । (अथर्ववेद ३।१।१)

अर्थात, समाज या राष्ट्र के शत्रुओं को, विद्वान् लोग इस प्रकार नष्ट कर डाले कि जैसे दावानल जंगलों को जला डालता है। यह हे विद्वानों का रुद्र रूप । समाज में मा राष्ट्र में अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार इत्यादि को देखकर भी जो विद्वान रूद्र नहीं बन जाते, वे विव्दान ही कैसे ! विद्वान की बाणी, उसकी लेखनी और आवश्यकता पड़ने पर उसकी सारी शक्ति रुद्राणी बन जाती है। ऐसे विज्ञान ही कल्याणकारी शिव माने जाते हैं और पूजे जाते हैं। अन्य विद्वान या तो तोता पाठ करते रहते हैं या तो कुर्सी की तरह सेवारिसे पेट भरते रहते हैं इनकी पूजा कैसे होगी! जब विद्वान् अग्नि या केंद्र नहीं बनतें, अर्थात् जब ये शूरवीर और दुष्ट संहारक नहीं बनते, समाज या देश में मूर्ख, धूर्त और दुष्टों का राज्य होता है। और इस पाप के लिये विद्वान ही दोषी सिद्ध होंगे। 

विद्वान धीर गंभीर होते हैं। संसार में रहकर भी, विषयों के बीच में होते हुए मो, ये उनसे विचलित नहीं होते। “विकार हेतो सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एब धीराः । " भगवान् शिव की गले में सर्पों की माला है। ये सर्प विषय-वासनाओंके प्रतीक है। ईर्ष्या, द्वेषादि के चिन्ह है। उनसे शिव (बिद्वान पुरुष) का मन विकृत नहीं होता है ।

शिव को स्थाणु भी कहते हैं। बह प्रायः योगमुद्रा में स्थिर बैठा हुआ दिखाई देता है। स्थाणु शब्द का अर्थ भी स्थिर है। विद्वानों के लिये कहा गया है

गूढधर्माश्रितो विद्वान् ज्ञानचरितं चरेतू अन्धवज्जडवन्चापि मूवच महीं चरेत ।।

अर्थात्, इनको चाहिये कि ये सांसारिक बातों में न पैसे, अपने धर्म व कर्तव्यों का

पालन करते रहे, बुद्धिपूर्वक व्यवहार करते रहें, संसार में बुरी बातों को देखते मी, सुनते हुए भी, निन्दा और प्रशंसा से प्रभावित न होते हुए शांतिपूर्वक अपने कार्य करते रहें। भगवद् गीता की भाषा में कहूं तो विव्दान " स्थित-प्रश" हो। जैसे किसी निर्वात प्रदेश में, एक दीप शिक्षा निश्चल और निष्पन्द होकर जलती रहती है, वैसे ही विन्दान को शांत चित्त होकर रहना चाहिये ।

प्रजा- रक्षक राजा शिव है.. मेने पहले ही बता दिया है कि विदान शुर-वीर और अग्नि के समान बस्थी हो, अग्रणी हो, दुष्टों को भस्म करनेवाला हो। ऐसे विदान ही प्रजानक्षक है, और बदी राजा बनने योग्य है। एक दुर्बल, निस्तेज विन्दान जो अपनी विद्या की भी रक्षा नहीं कर सकता है वह दूसरों की क्या रक्षा करेगा ! इसलिये, प्रजारक्षक राजा सामर्थ्यशाली ईश्वर माना जाता है। मगधेश्वर, लंकेश्वर, मिथिलेश्वर इत्यादि शब्दों में 'ईश्वर' शब्द 'राजा' व 'प्रजापति ' अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रजा के कल्याण के निमित्त सदा कार्य करनेवाला गजा ही शिव और शकर है।

भगवान शिव के सम्बन्ध में कहा जाता है कि सारा संसार उसकी सेवा में हैं किन्तु बद्द संन्यास व वैराग्य धारण किये हुए रहता है। एक आदर्श राजाकी स्थिति भी यही है। राष्ट्र की सारी सम्पत्ति उसकी सेवा में उपलब्ध रहती है किन्तु वह उसके स्वार्थ मा निजी सुख के लिये नहीं, प्रजा के लिये है। राजा इस से निर्लिप्त और निर्मोही होकर रहता है।

शिव को त्रिनेत्र कहा जाता है। नेत्र का कार्य देखना, और मार्ग दिखाना है। इसलिये मंत्रणा देनेवाले मंत्रि, मार्गदर्शक करनेवाले ऋषिमुनि या गुरुजन इत्यादि मनुष्य की आंखें है । एक राजा के लिये, उसका मंत्रिमंडल, या उसकी सभा भवदा समितियां उसकी असली है।

इन्द्रस्य हि मंत्रिपरिषद् ऋषीणां सहस्रम् । न तच्चक्षुः तस्मादिमं यज्ञं सहलाक्षम ॥ [अर्थशास्त्र १।१५ ]

अर्थात, इन्द्र के पास हजारों का मंत्रिपद् या अथवा राजसभा थी। इसलिये उसको सहलाक्षकहते थे वास्तव में उसके पास दोही स्वाभाविक आंखें थीं। ऋग्वेद कहता है---

श्रीणि राजाना विदथे पुरुणि परिविश्वानि भूयः सर्वासि | [प्टल, सूक्त ३८, मंत्र ६]

अर्थात, राजा के पास तीन समायें हो। वह इनके आधीन होकर ही कार्य करें। अकेला और स्वतंत्र होकर राज्य का कोई भी कार्य वह न करे. भले वह कितनाही बडा बलवान और मेघाबी क्यों न हो। महर्षि स्वामी दयानन्द ने इन तीन समाओं को धर्म सभा, विद्या सभा और राजसमा बताया है। ये सभामै राजा के लिये आंखों के समान हैं। इसलिये राष्ट्र के स्वामी, ईश्वर को त्रिलोचन अथवा 'तीन आंखयांक्षा' कहते हैं ।

शिव की पत्नी दुर्गा है, दुर्गा भूमाता है, उसके स्वामी ईश्वर याने राजा है।" इसको दुर्गा इसलिये कहते हैं कि वह राष्ट्र व समाज के शत्रुओंके लिये दुगम है। राष्ट्र का सुरक्षा दल इतना सक्षम होना चाहिए कि उसकी ओर शद अखि उठाके भी देखने का साहस न करें। इसलिये दुर्गा माता को सिंह के ऊपर बिठाया गया है। सिंह को कोई छेड़ने का साहस भी नहीं करता दुर्ग शब्द का अर्थ 'किल्ला' भी होता है, किल्ले के स्वामी दुर्गाधीरा है, मनुस्मृति में धमुर्दुर्ग, महीदुर्ग, अबदुर्ग, वृक्षदुर्ग, गिरिदुर्ग, और नू-दुर्ग का उल्लेख है। देवी दुर्गा की मुजायें उसकी शक्तियां है, उसके हाथों में धनुष इत्यादि प्रतीकात्मक है, ये राष्ट्र रक्षा के विभिन्न साधनों का प्रतिनिधित्व करते हैं,

शिव की पत्नी को राजेश्वरी भी कहते हैं, यह राजेश्वरी राजा की समा है। वस्तुतः राष्ट्र की स्वामिनी यह सभा ही है, किसी एक व्यक्ति को राजा नहीं मानना चाहिये, सभापति राजा सभाधीन होकर कार्य करें और समा राजाधीन होकर अनुशासन का पालन करें। यह हमारा आदर्श है। उस प्रकार भगवान् शिव का व्यक्तित्व प्रतीकात्मक है। इस प्रकार देवी-देवताओं के प्रतीकों में साहित्य और कला का एक सुन्दर संगम अथवा समन्वय दिखाई देता है। ऐसे उदाहरण संसार में अन्यत्र मिलना कठिन है। एक बहुत प्राचीन आचार्य शौनक मे खा

सरस्वान्यमूर्तान्यपि च देवतावन्महर्षयः ।
सुष्मृतुः ऋषयः शक्त्या तासु तासु स्तुतिष्विह ॥ (बृहदेवता १९८१)

अर्थात्, ऋषियों ने अमूर्त विषय अथवा केवळ विचार या सिध्दान्तों का भी मूर्त विपयों के समान वर्णन किया है। विभिन शक्तियों को भी मूर्तिमानू देवताओं के समान स्तुति की है। इसका तात्पर्य यह है कि प्राचीन काल में, हमारे देश में ललित कलाओं के माध्यम से शान व शिक्षा का प्रचार हुआ करता था। इसी कारण काव्य के साथ साथ चित्र और स्थापत्य कला का भी यहां बहुत उन्नति हुई थी। हजारों देवी-देवताओं का जन्म इस प्रकार यहां के प्राचीन मनीषियों के मन में हुआ। इनका सौन्दर्य अध्यात्मवादी और लौकिक, दोनों प्रकार के लोगों को मुग्ध करनेवाला था। अतः इनका प्रचार, न केवल भारत में अपितु सारे संसार में हुआ रोम और मिश्र की सभ्यता के पूर्व भी ईसाई और मुसलमान सम्प्रदाय के उदय होने के पहले ही, यह भारतीय आर्य संस्कृति उन देशों में फेल चुकी थी। इस बात के लिये अनेक प्रमाण मिलते हैं। अमेरिका के मूलनिवासी भी शिवाराधक थे।

यहाँ एक अन्य बात का भी उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा। यह एक सुविदित बात है कि वेद मंत्रों के अध्यात्म, अधिदेव और अधियश अर्थ होते हैं। इसलिये एक ही वेद मंत्र अनेक अर्थों को प्रकट करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार, ये प्रतीकात्मक देवि-देवतायें भी अनेक चित्रयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनको समझने के लिये इन प्रतीकों की भाषा का ज्ञान आवश्यक है। भगवान् शिव का स्वरूप ऐसे ही एक अर्थमात चरित्र चित्रण है।

महामानव शिव

हमने देखा कि “शिव ” व “ महादेव " इत्यादि संज्ञायें शुद्ध वैदिक शब्द है और इन शब्दों के बडे सुन्दर और व्यापक अर्थ होते हैं। महर्षि मनु ने कहा है कि

सर्वेषां तुस नामानि कर्माणि च पथक् पृथक् ।
 वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थादच निर्ममे ||(मनु0 अध्याय १, श्लोंक २१)

इसका तात्पर्य यह है कि वेद-मंत्रों के शब्दों को लेकर नाम रखने की परम्परा हमारे यहाँ आदिकाल से चली आ रही है। इस प्रकार पता नहीं कि शिव के नाम से कितने लोगों का नामकरण हुआ होगा। आज भी इस नाम के हजारों व्यक्ति हैं। बहुत प्राचीन काल में महादेव नाम के एक महापुरुष हमारे देश में पैदा हुए थे। उनका पूरा इतिहास आज उपलब्ध नहीं है। क्योंकि बहुत प्राचीन ग्रंथ धूर्ती के व्दारा नष्ट किये गये हैं। लाखों वर्ष पूर्व की बात होने से मौखिक रूप से भी यह इतिहास शुद्ध रूप में रह नहीं पाया है। इस महापुरुष के वास्तविक नाम के बारे में मी निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। तथापि, विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में जो कुछ भी सामग्री इस महापुरुष के सम्बन्ध में मिलती हैं। इससे निम्न बातें स्पष्ट हो जाती है

शिव चरित्र

(अ) महादेव रामायणकाल से भी पूर्व काल के थे । 
आ) बद्यपि उनको महादेव, महेश्वर, शिव, शंकर इत्यादि नामों से याद किया जाता है, तथापि प्राचीन ग्रंथों में आनेवाले सारे वर्णन प्रायः एक ही व्यक्तित्व को केन्द्रबिन्दु बनाये हुए हैं।
१) हिमालय की किसी ऊंनी चोटी पर वे रहते थे और सारा आर्यापत उनका प्रभाव क्षेत्र रहा।
ई) वे एक महान् विद्वान्, योगी, आचार्य, दीर्घजीवी और धनुर्धर थे। महर्षि दयानन्द ने पूना में अपने एक व्याख्यान में कहा था कि

ब्रह्मदेव का पुत्र विराट, उसके पुत्र विष्णु सोमसद थे और अग्निष्वात्त का पुत्र महादेव था। ये ही विष्णु और महादेव आगे जाकर ब्रह्मा के साथ त्रिमूर्ति में मुख्य देवता करके प्रसिद्ध हुए। मंद, सुगंध और शीतल वायु जहां चल रही है और रमणीय बनस्पतियां जहां उगी है और जहां पर स्फटिक के सदृश निर्मल झर्झरोदक बह रहा है, ऐसे हिमालय की चोटी पर विष्णु वास करने लगा। उसी को वैकुष्ठ भी कहते थे। फिर दूसरे हिमाच्छादित, भयंकर, ऊँचे प्रदेश में महादेव वास करने लगा। उसे कैलाश कहते थे ! ( उपदेश मन्जरी, आठवाँ व्याख्यान )

सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में भी 'शंनो मित्रः..." इस मंत्र की व्याख्या करते में हुए भी महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि "मनुष्य को योग्य है कि परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करे, उससे भिन्न की कमी न करे क्योंकि ब्रह्म, विष्णु, महादेव नामक पूर्वज महाशय विद्वान, दैत्य, दानवादि निकृष्ट मनुष्य और अन्य साधारण मनुष्यों ने भी परमेश्वर ही में विश्वास करके उसकी स्तुति प्रार्थना और उपासना करी ।

इससे स्पष्ट है कि महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती, महादेव को एक ऐतिहासिक महापुरुष और हमारे एक पूर्वज के रूप में मानते थे। अग्निष्वाच, मरोचि का पुत्र और देवों का पितर था (द्र. मनुस्मृति ३।१९६)

रामायण बालकाण्ड में एक शिवाश्राम का उल्लेख आता है। यथा

तयोस्तद्वचन श्रुत्वा प्रहस्य पुनिपुंगवः । अब्रवीत् धूयतो राम शिवाश्रमस्स्वयं पुण्यः || (सर्ग १४, श्वोक १९)

अर्थात् गंगा और सरयू नदी के संगम स्थान पर यहाँ दिखाई देनेवाला वह आश्रम शिव का था। विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को उस आश्रम का परिचय कराया। गमायण में ही शिवधनुष का प्रसिद्ध प्रकरण आता है। यह शिवधनुष राजा जनक के पास सुरक्षित था। बडे बडे वीर पुरुष उस धनुष को उठा भी नहीं पाते थे। भगवान रामचंद्र ने उसको तोड दिया। जब यह समाचार परशुराम को मिला वह बहुत कोषित हुआ। क्योंकि वह धनुष् उसके आचार्य का था। शिव धनुर्विद्या के आचार्य थे और उच्चकोटि के वीर थे। बडे बडे दुष्ट दानवीं को उन्हें संहार किया था। इस प्रकार प्रजा की रक्षा करके पूजनीय देव माने गये थे। प्राचीन काल में व्याकरण शास्त्र की दो शाखायें बही प्रसिद्ध थीं। एक थी ऐन्द्र शाखा और दूसरी थी माहेश्वरी शाखा ऐन्द्र शाखा का आय आचार्य इन्द्र था और माहेश्वरी शाखा का प्रवर्तक महेश्वर मा आचार्य पाणिनि माहेश्वरी शाखा के थे। अष्टाध्यायी के आरम्भ में जो चौदह प्रत्याहार सूत्र दिये गये हैं, उनको शिवसूत्र और माहेश्वर-सूत्र भी कहते हैं क्योंकि उनकी रचना शिव, महेश्वर ने की थी।

भगवान् शिव एक बहुत बड़े योगी थे। शिवस्वरोदय नामक पुस्तक इनके नाम से प्रसिद्ध है। एक प्राचीन ग्रंथ शोक सूत्र में शिव के आय विमानाचार्य होने का मी प्रमाण मिलता है।

शिव की पत्नी का नाम उमा था और उनके दो पुत्र भी थे। एक का नाम था गणेश और दूसरे का नाम था कुमार। इनमें से गणेश बडा मेधावी था और कुमार एक श्रेष्ठ सेनापति था।

विद्वान होने के कारण शिव देवता माने गये और ज्ञान, वैराग्य, कीर्ति, पराक्रम, राज्य और श्री इन छः भग अथवा ऐश्वयों के कारण वे भगवान् माने गये अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण अमर हो गये और दीर्घजीवि होने के कारण मृत्युंजय कहलाये गये

इस प्रकार शिव शंकर महादेव आदि सारे नाम परमेश्वर के भी हैं, सूर्य के भी हैं और इतर वस्तुओं के भी हैं। इसलिये अविद्वानों में शिव के व्यक्तित्व के बारेमें भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक था। अतः ऐतिहासिक महापुरुष शिव की बातें परमात्मा में आरोपित की गई। सूर्यादि पदार्थों के वर्णन भी परमेश्वर के माने बाने लगे। इसके फलस्वरूप, केवल एक ही शिब रह गये और सूर्यादिपदार्थ एवं महापुरुष, लोगों के स्मृतिपटल से अदृश्य हो गये ।

शिवलिंग 
संस्कृत भाषा में लिंग शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। 
यथा “हेतुरपदेशो लिंग प्रमाणे करणमित्यनयन्तरस् " ( वैशेषिक दर्शन ९।२।४)

अर्थात्, हेतु, उपदेश, लिंग, प्रमाण और करण, ये सारे शब्द समानार्थक हैं। तथा, “ अस्थेदं कार्मे, फारणं, संयोग, विरोधि, सम्याधियेति लैंगिकन्" (वैशषिक दर्शन ९।२।१) अर्थात् कार्य को देखकर कारण का कारण को देखकर कार्य का संयोगको बेलकर संयोगी का विरोध को देखकर विरोधी का और समवाय को देखकर समवायी का जो ज्ञान होता है, उसको लैंगिक यानी आनुमानिक शान कहते हैं। क्योंकि लिंग शब्द का अर्थ अनुमान भी होता है। मीमांसा परिभाषा में लिखा है कि "लिंग नाम सामध्यम" अर्थात् सामर्थ्य को भी लिंग कहते हैं।
लेकिन हमारे मूर्तिपूजक शिव भक्त, एक ही लिंग को जानते ह- पुरुष लिंग अथवा जननेन्द्रिय क्योंकि शिवपुराण में लिखा है कि शिवने एक बार दावन में अपने भक्तों के कल्याण करने की इच्छा से ऋषि-पत्नियों के सामने नंगा शरीर गया और उनके साथ व्यभिचार किया। इससे ऋषि लोगों ने क्रोध में आकर शिव को शाप दिया कि उनकी गुप्तेन्द्रिय टूट जावे

स्थमा विरुध्दं क्रियते वेदमार्ग विलोपिना।
 ततस्त्वदीय तल्लिंगं पतता पृथ्वीतले

देवी भागवत में भी लिखा है कि---

शम्भोः पपात मुवि लिंगमिदं प्रसिध्दम् ।
 शापेन तेन च भूगोविपिने गतस्य | 
तेन ये नरा भूवि भजंति कपालिनं तु
तेषां सुखं कथमिहापि परत्र मातः ॥ (स्कन्द ५, अध्याय १)

अर्थात्, यह जो शिवलिंग है, यह शिव की गुप्सेंद्रिय है। भृगु ऋषि के शाप से यह टूट कर नीचे गिरी है। इसकी जो लोग पूजा करते हैं, वे इहलोक में या परलोक में कैसे सुख पायेंगे ?

इस प्रकार पुराणों में शिवलिंग को शिव नामक देवता विशेष की गुप्तेन्द्रिय बताया गया है और देवी भागवत् में इस लिंग पूजा को पाप कहा गया है। क्योंकि यह लिंग किसी पापी का है। ऐसे भी तो, हमारी संस्कृति में किसी की गुप्तेन्द्रिय को देखना भी पाप माना जाता है। फिर उसकी पूजा की बात, कल्पना भी नहीं की जा सकती, भले वह कोई देवता या भगवान् ही क्यों न हो। इसलिये यह शिवलिंग की कहानी सम्भवतः वाममार्गियों ने बनाई होगी। शेव सम्प्रदाय में इसका प्रचार हुआ ये साम्प्रदायिक लोग एक दूसरे की निन्दा करते रहते हैं। इसलिये शाक्त सम्प्रदाय के लोगों ने शिव की भी निन्दा की है और शिवलिंग की भी निन्दा की है।

यहां लिंग पूजक एक बात को भूल जाते हैं कि लिंग की दिशा योनि के अंदर की ओर न होकर बाहर की ओर है। इससे स्पष्ट है कि यह लिंग भी कोई प्रतीक है और इसे स्वाभाविक लिंग और योनि की प्रतिमा समझना गलत है। जैसे लिंग शब्द के अनेक अर्थ हैं, पैसे हो योनि शब्द के भी कारण आदि अर्थ है। विभिन्न प्रकार के लिंगों के नामों से शिवलिंग का रहस्य खुल जाता है। किसी का नाम ज्योतिर्लिंग है और किसी का नाम भूलिंग अथवा पृथ्वीलिंग है। इस प्रकार से लिंग पंचमहाभूतों की ओर संकेत करते हैं। कई स्थानों पर पंचलिंगेश्वर मंदिर है। चारकर (कर्नाटक) में ऐसे ही एक पंचलिंगेश्वर मन्दिर है। तमिलनाडु में कान्चीपुरम् में पृथ्वीलिंग, तिरू में अप्पुलिंग (आप: अथवा जहाँ लिंग), तिरुवनवले में ज्योतिर्लिंग, चिदम्बरम में आकाशलिंग और कलहस्ति (आन्ध्र प्रदेश) में वायुलिंग मन्दिर हैं। इन नामों से यह स्पष्ट है कि ये लिंग पंचमहाभूतों के प्रतीक हैं और लिंग के नीचे जो योनि है प्रकृति है। मूल प्रकृति से पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। इसलिये लिंगों को योनि से चदिर्मुख होकर निकलते दिखाया जाता है। अतः यह शिवलिंग सृष्टि-विद्या को बतानेवाला एक स्थूल प्रतीक है।थों से तथा इतर प्राचीन संस्कृत पुस्तकों में भी लिखा हुआ है कि परमात्माने सृष्टि के प्रारम्भ में प्रकृति के गर्भ में बीर्थ अथवा भीज डाल दिया परमात्मा का वीर्य अथवा बीज का अत्पर्य उसकी सृजन शक्ति है। इसके बिना जड प्रकृति में गति नहीं हो सकती। यह आलंकारिक बर्मन मी लिंग-योनि की कल्पना का आधार बना।

अब प्रश्न है कि इसको शिवलिंग क्यों कहते है ? ऊपर की चर्चा से पाठकों के मन में शिवलिंग का स्पष्ट होने में अब देर नहीं लगेगा। क्योंकि शिवलिंग शब्द के, कल्याण का कारण, कल्याणकारी परमेश्वर के होने के प्रमाण, परमात्मा गामर्थ्य, इत्यादि अर्थ होते हैं। ये पंचमहाभूत, जीवों के लिये कल्याण के हेतु हैं, परमात्मा के अस्तित्व के प्रमाण - है और ये समात्मा के सामर्थ्य को बताते हैं । इस प्रकार शिवलिंग भी साहित्यकार और का चमत्कार है और यह शिक्षा का साधन है। परमेश्वर की उपासना के साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।

योग साधना में पंचमहाभूतों का वशीकरण करने के लिये जो यंत्र बनाये जाते हैं उनको भी लिंग कहते हैं। उदाहरण के लिये, पृथ्वी तत्व को वश करने के लिये चौकोण का पीला रंग का एक कागज का यन्त्र बनाकर आंखों के सामने बारह अंगुल दूरी पर रखकर, चन्द्रना से उस यन्त्र तक श्याम को फेंकते हुए “ओम्" का मानसिक जप करते हुए कुछ देर बाद, दोनोंठोंकान, मध्यमा से नाक, अनामिका औरष्टका से मुंह तथा तर्जनियों से दोनों आंख चन्द करने पर यदि पीला रंग दिखाई दिया तो समझाना चाहये कि साधक को पृथ्वी तत्य का उदय हुआ। इसी साधना को परिभाषिक शब्द में कहते हैं। (देखो, योग प्रदीप पृष्ठ २४४) लागि ने इसका दुरुपयोग किया है। किन्तु यह साधना भी परमात्मा की उपासना के विकल्प के रूप में नहीं है।

www.vaidicphysics.org 

उपमंदार

चर्चा से भगवान शिव के सम्बन्ध में कई बातें स्पष्ट हो जाती है। पहली बात यह है कि शिव की प्रतिमा और लिंग से परमेश्वर की है और न उसका प्रतीक है। इसलिये ये उपासना के योग्य नहीं हैं। यदि कोई इनकी उपासना करता है तो वह निःसन्देह व्यर्थ है। क्योंकि इन प्रतिमाओं का प्रयोजन कुछ और ही है। ये शिक्षा के बटे आकर्षक माध्यम हो सकते हैं। जैसे कोई अध्यापक बच्चों को पृथ्वी का स्वरूप समझाने के लिये पृथ्वी का नक्शा अथवा भूगोल की कोई प्रतिमा बनाकर दिखाता है, अथवा जैसे कोई वाहन परिचालक, नृत्य करनेवाले, आदि सांकेतिक भाषा का प्रयोग करते हैं, वैसे ही इन प्रतिमाओं की और प्रतीकों की भी बडी उपयोगिता है। इनका बडा सांस्कृतिक महत्व भी है। आज-कल मुक्त विश्वविद्या लयों की चर्चा होने लगी है। कुछ लोगों को कदाचित यह बात नई लग सकती है लेकिन सच्चाई यह है कि मुक्त विश्वविद्यालयों की परम्परा हमारे देश में हजारों वर्षों से चलती आयी है। हमारे देवि देवताओं के मंदिर ही वे मुक्त विश्वविद्यालय हैं। ये मंदिर प्रारंभ में विद्वानों के स्थान थे, विद्या प्रसार के केन्द्र थे। ये मूर्तियां, शिक्षा के साधन थे। इनके माध्यम से दुर्गाय विषय भी सुग्राह्य हो जाते थे और ये देखने के लिये रमणीय लगती थीं। लेकिन यह एक कितनी खेद की बात है कि उन जडमूर्तियों की चेतन-वेक्ताओं के समान पूजा की जाती है और इस पूजा के आढम्बर में लोग कितना धन, समय इत्यादि को व्यर्थ नष्ट करते हैं।

दूसरी बात यह है कि प्राचीन काल में, हमारे देश में कला और साहित्य के सृजन का उद्देश्य धर्म, अर्थ, कान और मोक्ष की सिध्दि मानी जाती थी। कक्षा और साहित्य इस सिध्दि में सहायक माने जाते थे। इनके माध्यम से धर्म का उपदेश अर्थ की प्राप्ति, काम की पूर्ति और मोक्ष प्राप्ति का मार्गदर्शन भी सिद्ध हो जाते थे। इसलिये इनका बडा विकास हुआ। किन्तु, जैसे मैने प्रारम्भ में ही कहा था, अविधा और अज्ञान के कारण, अर्ध का अनघं हुआ और इन वस्तुओं का बडा दुरुपयोग भी हुआ। प्रायः नाम की साम्यता के कारण भी भ्रम आसानी से फैल जाता है। भगवान शिव के बारे में भी यही हुआ। जो बाते परमेश्वर के लिये घटती हैं, उनको सूर्य, विद्वान व राजा की कल्पना और ऐतिहासिक महापुरुष शिव के साथ जोड दिया गया। फिर, महापुरुष शिव, सूर्यादि की बातों को परमेश्वर के साथ भी जोड़ दिया गया। इसके अतिरिक्त शिव नाम के महापुरुष एक नहीं, अनेक हुए होंगे। महाभारत काल में, अर्जुन को जिस शिव ने पाशुपतादि अस्त्र दिया था, वह रामायण काल से भी पूर्वकाल का शिव नहीं हो सकता। 
जैसे महाराज जनक के कुल का भी नाम जनक प्रसिद्ध हुआ या बेस ही शिव के कुल का भी नाम शिव प्रसिद्ध हुआ होगा। इस कारण भी इनके इतिहास के सम्बन्ध में भ्रान्ति फैल गई। अतः आजकल जब हम शिव पूजकों को नये नये पारायण-दलोक या स्तोत्रपाठ करते हुए सुनते हैं, तब पता नहीं चलता कि ये किसकी स्तुति कर रहे हैं? परमात्मा की, सूर्य की, या किसी व्यक्ति की ? अथवा किसी कपोलकल्पित देवता की पूजक या भक्त तो भद्धा के नाम से, इस पर स्वयं विचार नहीं करते ९ वे इसके बारे में अंधे बनकर रहना ही पसन्द करते हैं। क्योंकि उनको गलत पाठ पढाया गया है। जैसा कि "धार्मिक बातों में अपनी बुद्धि से काम लेना श्रद्धा के विरुद्ध है"। वास्तव में यही तो पाखण्ड की जड़ है।

अमरकोश में भगवान् शिव के "शंभुरीशः पशुपतिः शिवः शूली, महेश्वरः | ईश्वरः शर्वः, ईशानः, शंकरश्चन्द्रशेखर: । भूतेशः खण्डपरशुगंरोशो गिरिशो मृडः । मृत्युन्जयः कृत्तिवासः पिनाको प्रमथाधिप..." इत्यादि ४४ नाम बताये गये हैं और श्री कांची कामकोटि पीठ के जगतगुरु श्री शंकराचार्य मठ द्वारा प्रकाशित "सर्वशन सर्व देवता पूजा पद्धति " में कुछ ऐसे पारायण श्लोक दिये गये हैं

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगरागाय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मं नकाराय नमविशवाय ॥
 शिवाय गोरोबदनार विन्दसूर्याय दक्षाध्वर नाशकाय ।
 नौलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शंकराय नमविशवाय ॥
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
 दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मं वकाराय नमशिवाय ॥

यहां किस शिव का वर्णन है, यह कहना कठिन है। प्रायः जितने भी पदार्थ शिव के नाम से प्रसिद्ध हैं, उन सब को यहाँ मिला दिया गया है। इस प्रकार भगवान शिव की उनके भक्तों के द्वारा ही बढ़ी दूर्दशा की गई है।

जैसे भगवान शिव की दुर्दशा हो चुकी है, वैसे ही शिवरात्रि के उत्सब की भी दुर्गति हुई है। इसका शुद्ध और अकलुषित वैदिक स्वरूप मिलना आज बहुत कठिन हो गया है। प्रतिवर्ष माघ १४, कृष्ण पक्ष को शिवरात्रि का उत्सव मनाया जाता है। उसके बाद वर्ष का बारहवां महीना फाल्गुन प्रारंभ होता है। शिवरात्रि का उत्सव ग्यारहवां महीने में पड़ता है। यह भी ग्यारह हैं। इस महीने से सूर्य का उम्र अथवा रुद्रस्वरूप भी प्रगट होने लगता है। उसके बाद ऋतुबदलने का समय आ जाता है। ऐसे समय अर्थात ऋतुओं के संधिकाल में, हमारे देश में महायों का आयोजन किया जाता था। सोमयाग ऐसा ही एक महायश है जो महीने भर चलता है। इस यश में रातभर चलनेवाली अतिरात्र यष्टि और अग्निहोम भी समाधिए है। इन यशों के द्वारा प्रकृति को शिव अर्थात् कल्याणमय बनाने की योजनायें बनाई जाती थीं। शिवसंकल्प के व्रत धारण किये जाते थे। संसार को दुष्ट तत्वों से मुक्त करके यहां सुख और शांति फैलाने के लिये प्रयत्न किये जाते थे। नये वर्ष से, विशेष यज्ञ के साथ कल्याणकारी कार्य करने के लिये हमारे पूर्वज चलते थे। इसी बीच में होती या कामदहन का पर्व भी आ जाता है। यह मानसिक और भौतक दोनों को जला देने का है। विचारों से मन पवित्र बनता है और गंदगी को जला देने से, तथा यज्ञाग्नि से पर्यावरण मी पवित्र बन जाता है। इन सारे पर्वो के साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के भी कुछ जाने से इनका महत्व और भी बढ़ गया। प्रचार भी अधिक हुआ।

लेकिन कालान्तर में, लोग विद्या के प्रचार में कमी होने के कारण इन पर्यो की सू बातों को समझ नहीं पाये। मोटी बातों को उन्होंने अवश्य याद रखें किन्तु जब इतिहास को कहानियों के रूप में सुनाया गया और मानिक बातों को आलंकारिक भाषा में बताई गई, तब सर्वसाधारण जनता में इन बातों की गहराई तक जाने का सामर्थ्य न होने के कारण अन्ध विश्वास फैल गया। साम्प्रदायिक विवादों का यही कारण है। स्वार्थी तलों के लोगों के अन्धविश्वास का पूरा लाभ उठाना प्रारम्भ किया। इससे हमारी वैदिक संस्कृति दूषित हुई है। लेकिन थोडा का उठाने से दूर किये जा सकते हैं। हमे स्वार्थ और आलस्य को छोड़ना पडेगा, बेदादि सत्यशास्त्रों का अध्ययन और उनका प्रचार करना पड़ेगा। इससे वैदिक परम्परा की रक्षा होगी। लोगों के विनार शुद्ध और पवित्र होंगे। ज्ञान का प्रकाश फैलेगा | अज्ञान, अंधविश्वास और दूर होगी । यही शिव की सच्ची पूजा है। इसी में हम का कल्याण है, इससे संसार मंगलमय बोगा, और सर्वत्र सच्चे अर्थ में शिव का दर्शन होगा।

🅒श्री ज्येष्ठ वर्मन
महर्षि दयानन्द जी ने अपने पूना प्रवचन में महादेव जी को अग्निष्वात का पुत्र कहा है। अग्निष्वात किसके पुत्र थे, यह बहुत स्पष्ट नहीं है परन्तु वे ब्रह्माजी के वंशज अवश्य हैं। इधर महाभारत में महर्षि वैशम्पायन ने कहा है-
उमापतिर्भूतपतिः श्री कण्ठो ब्रह्मणः सुतः।।
उक्तवानिदमव्यग्रो ज्ञानं पाशुपतं शिवः।।
शान्तिपर्व। मोक्षधर्मपर्व। अ. 349। श्लोक 67 (गीतप्रैस)
यहाँ भगवती उमा जी के पति भूतपति, जो महादेव भगवान् शिव का ही नाम है, को महर्षि ब्रह्मा जी का पुत्र कहा है। इनका पाशुपत अस्त्र विश्व प्रसिद्ध था। इस अस्त्र को नष्ट वाला कोई अस्त्र भूमण्डल पर नहीं था। महाभारत के अनुशीलन से भगवान् शिव अत्यन्त विरक्त पुरुष, सदैव योगसाधना में लीन, विवाहित होकर भी पूर्ण जितेन्द्रिय, आकाशगमन आदि अनेकों महत्वपूर्ण सिद्धियों से सम्पन्न, वेद-वेदांगों के महान् वैज्ञानिक, सुगठित तेजस्वी व अत्यन्त बलिष्ठ शरीर व वीरता के अप्रतिम धनी दिव्य पुरुष थे। वे जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त महाविभूति थे। उनके इतिहास का वर्णन तो अधिक नहीं मिलता परन्तु उनके उपदेशों को हम महाभारत में पढ़ सकते हैं। इस कारण हम इस पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।
धर्म का गृहस्थ स्वरूप
श्रीमहेश्वर उवाच-
अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्।
शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः।। 25।।
श्रीमहेश्वरने कहा- देवी! किसी भी जीव की हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया करना, मन और इन्द्रियों पर काबू रखना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना गृहस्थ-आश्रम का उत्तम धर्म है।। 25।।
परदारेष्वसंसर्गो न्यासस्त्रीपरिरक्षणम्।
अदत्तादानविरमो मधुमांसस्य वर्जनम्।। 26।।
एष प४चविधो धर्मो बहुशाखः सुखोदयः।
देहिभिर्धर्मपरमैश्चर्तव्यो धर्मसम्भवः।। 27।।
(महाभारत अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्व, अध्याय 141)
परायी स्त्री के संसर्ग से दूर रहना, धरोहर और स्त्री की रक्षा करना, बिना दिये किसी की वस्तु न लेना तथा मांस और मदिरा को त्याग देना, ये धर्म के पाँच भेद हैं, जो सुख की प्राप्ति कराने वाले हैं। इनमें से एक-एक धर्म की अनेक शाखाएँ हैं। धर्म को श्रेष्ठ मानने वाले मनुष्यों को चाहिये कि वे पुण्यप्रद धर्म का पालन अवश्य करें।। 26-27।।
भगवान् शिव के इन वचनों पर सभी गृहस्थ शिवभक्त कहाने वाले गम्भीरता से विचारें कि क्या आप सभी जीवों के प्रति दया व प्रेम करते हैं। क्या शिवमंदिरों में अपने ही कथित दलित भाईयों के प्रति आत्मिक प्रेम व समानता का भाव रखते हैं? क्या आप जीवन भर मांस, मछली, अण्डा व सभी प्रकार के नशीले पदार्थों के परित्याग की प्रतिज्ञा करेंगे? क्या आप अश्लील कथाओं, मोबाइल, इण्टरनेट व पत्र-पत्रिकाओं की अश्लीलता से बचने का व्रत लेंगे? क्या आप सभी परायी स्त्रियों के प्रति कुदृष्टिपात से बच पायेंगे? क्या आप सत्य ही बोलते व उस पर आचरण करते हैं? क्या चोरी, तस्करी, रिश्वत, वस्तुओं में मिलावट तथा किसी के अधिकार छीनने की प्रवृत्ति का त्याग करेंगे? तथा अपने जीवन में श्रेष्ठ वेदानुकूल कार्यों में दान व त्याग की भावना जगायेंगे? यदि नहीं तो आपकी शिवभक्ति सर्वथा निरर्थक है, अज्ञानतापूर्ण है।
ब्राह्मणों का धर्म
स्वाध्यायो यजनं दानं तस्य धर्म इति स्थितिः।
कर्माण्यध्यापनं चैव याजनं च प्रतिग्रहः।।
सत्यं शान्तिस्तपः शौचं तस्य धर्मः सनातनः।
वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ और दान ब्राह्मण का धर्म है, यह शास्त्र का निर्णय है। वेदों का पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना, ये सभी ब्राह्मण के कर्म हैं। सत्य, मनोनिग्रह, तप, और बाहरी व आन्तरिक पवित्रता, यह उसका सनातन धर्म है।
विक्रयो रसधान्यानां ब्राह्मणस्य विगर्हितः।।
अर्थात् रस और धान्य(अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मण के लिये निन्दित है।
(अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्व, अध्याय 141,गीताप्रेस)
पाठक यहाँ भगवान् शिव के वचनों पर विचारें तो स्पष्ट है कि ब्राह्मणादि वर्ण जन्म से नहीं, बल्कि कर्म व योग्यता से होते हैं। यहाँ यह चिन्तनीय है कि क्या शिवभक्त कहाने वाला ब्राह्मण आज वेदादि शास्त्रों के महान् ज्ञान विज्ञान को समझता है अथवा भांग पीने में मस्त है? क्या वह दान देना भी जानता है अथवा लेना ही जानता है? क्या वह मनसा वाचा कर्मणा सत्य का पालन व अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला है? क्या वह धर्म के मार्ग में सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्दों को सहन करने रूपी तप को करता है? क्या वह मन-वचन-कर्म से पवित्र आचरण करता है? क्या कोई स्वयं को ब्राह्मण अथवा साधु, संन्यासी कहाने वाला व्यापार व उद्योग आदि वैश्य-कर्मों से दूर है? यदि उसमें ये गुण नहीं है, तो वह भगवान् शिव की दृष्टि में ब्राह्मण नहीं हो सकता।
आइये, कथित ब्राह्मण बन्धुओ! सच्चे ब्राह्मण बनने का प्रयास करने का व्रत लें। सच्चे शिव के शिष्य बनेगे।
-आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

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